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Sunday 9 September 2018

नावेल-फिल्म-टी वी नाटक-----कुछ नोंक-झोंक

"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं." कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'. "यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के. और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ." यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे. मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!! उनके पात्रों की बात-चीत, नोंक-झोंक-छौंक, तर्क-वितर्क-कुतर्क. वल्लाह! (वैसे अल्लाह नामक कुछ है नहीं). बहुत कुछ सिखाता है यह सब पढ़ने वालों को. उनके नोवेलों में बहुत एपिसोड हैं, जो हमारी रोज़-मर्रा की जिंदगियों की सोच-समझ को बेहतर बनाने के कूवत रखते हैं. समाज की गहराइयों को सहज ही नाप डालते हैं पाठक साहेब के पात्र, संवाद, घटनाएं, उप-घटनाएं. कुल जमा मतलब यह कि पाठक साहेब जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री लिखते हैं और उनका लेखन मुझे पसंद है, बहुत पसंद है लेकिन जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री छोड़ के. वैसे मैं बहुत फिल्म भी इसलिए पसंद करता हूँ कि मुझे कोई करैक्टर पसंद आ गया या फिर वो फिल्म जिस परिवेश को दिखा रही है, वो परिवेश मुझे बहुत भा गया. मिसाल के लिए "किल-बिल" फिल्म. इस फिल्म में मुझे कुछ भी ख़ास नहीं लगा सिवा हेरोइन 'उमा थर्मन' की उपस्थति के. इसकी कहानी में कुछ भी खास नहीं. सीधी-सादी बदला लेने की कहानी है. हेरोइन के साथ बहुर बुरा किया जाता है, जिसका वो बदला लेती है. एक्शन है, तलवार-बाज़ी है, मार्शल आर्ट है, लेकिन सब सेकंड ग्रेड. बस उमा थर्मन का स्क्रीन पर होना ही जम गया मुझे. एक टेलीविज़न सीरीज थी. Fargo.वो कहानी जिस परिवेश में दिखाई गई, मुझे उस वजह से खूब जमी. सब तरफ बर्फ. बीच में कस्बा. थ्रिलर. लेकिन थ्रिलर से ज्यादा मुझे जहाँ घटनाएं घटित हो रही थीं, वो परिवेश, वो चौगिर्दा थ्रिलिंग लग रहा था. हर फ्रेम ऐसा कि लगे बस जैसे वहीं, उस कस्बे में पहुँच गए. मतलब कोई कहानी जंगल में घट रही है या पहाड़ पर या मेट्रो सिटी में या फैक्ट्री में, कहाँ? उसमें कोई पुरातन काल दिखाया जा रहा है या कोई भविष्य की परिकल्पना है, मतलब वो सेटिंग, जहाँ कहानी घटित हो रही है, वो "सेटिंग". वो भी पसंद-नापंसद की वजह है मेरे लिए. हमारे यहाँ की कुछ फिल्में कभी भी स्विट्ज़रलैंड पहुँच नाचने-गाने लगती हैं, यह उसी "सेटिंग" की बेतुकी समझ है. यह बकवास है. अनर्गल है. यह कहानी की ऐसे-तैसी फेरना है. मैं इसके तो सख्त खिलाफ हूँ. कहानी किसी भी नावेल, फिल्म या टेलीविज़न सीरीज़ की जान है. यह बात सही है. लेकिन मुझे लगता है कि बहुत और फैक्टर भी हैं, जो किसी भी कहानी को लोगों की पसंद या नापसंद बनाते हैं. ऐसा ज़रूरी नहीं जो फैक्टर मुझे जंचते हो, वो ही आपको भी जंचते हों, सभी को जंचते हों, लेकिन कुछ तो मुझ में और आप में सांझा हो सकता है. सो उन सांझे फैक्टर पर भी लेखक, फिल्मकार को ध्यान देना चाहिए. और यह ध्यान दिया भी जाता है, लेकिन शायद उतना नहीं जितना दिया जाना चाहिए. नमन.....तुषार कॉस्मिक