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नावेल-फिल्म-टी वी नाटक-----कुछ नोंक-झोंक

"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं." कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'. "यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के. और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ." यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे. मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!! उन...