Tuesday 31 January 2017

गलत है गलती करने को गलत कहा जाना. सो गलती करें. लेकिन गलती का भी लेवल होना चाहिए. एक दसवीं का छात्र यदि दूसरी कक्षा के छात्र जैसी गलती करे तो निश्चित ही निराशा होती है.


Sherlock Holmes, "Why can't people think?"

हैरान हैं शेरेलोक होल्म्स! हैरान हैं कि लोग सोच क्यूँ नहीं पाते! सोच मतलब तार्किक, अर्थपूर्ण, वैज्ञानिक सोच.

जवाब यह है कि सोच अपने ही खिलाफ लड़ाई होती है. युद्ध. जो करे खुद से खुद. अपने ही बने-बनाए, घड़े-घड़ाए विचारों, मान्यताओं के खिलाफ़ जंग. जंग लगे विचारों के खिलाफ जंग. 

और अधिकांश लोग डरते हैं कि इस जंग में कुछ खो न दें. जबकि खोने को कुछ भी नहीं सिवा मूर्खता के और जीतने को जीवन से भरपूर जीवन है. 

डर के आगे जीत है.  लेकिन डर के आगे हथियार डाल देते हैं अधिकांश लोग. 
बाहरी प्रतिमाएं तोड़ना आसान है, लेकिन आन्तरिक प्रतिमा तोड़ना बेहद मुश्किल. इसीलिए सोच नहीं पाते और इसीलिए  कभी जीत पाते नहीं. इन्सान की तरह पैदा होते हैं,रोबोट में तब्दील कर दिए जाते हैं और रोबोट की तरह मर जाते हैं.

Sunday 29 January 2017

काटजू साहेब की मूर्खता के चंद नमूने

मार्कंडेय काटजू नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मूर्ख कहते हैं. मैं सहमत हूँ उनसे शत-प्रतिशत. बस एक बात है. उन मूर्खों में काटजू साहेब को भी शामिल करता हूँ. पहली मिसाल देता हूँ उनकी मूर्खता की. हाल-फिलहाल सौम्या मर्डर केस में कोर्ट की जजमेंट पर टिप्पणी करने के लिए बेशर्त माफी माँगनी पड़ी उनको. दूसरी मिसाल. वो समझते हैं कि पाकिस्तान और बांगला-देश भारत के साथ दुबारा मिल जायेंगे. मेरे से लिखवा लो, ग्र्र्रर...बल्कि मैं लिख ही रहा हूँ, ये दोनों मुल्क तैयार हो भी जाएं, आज भारतीय खुद इनके साथ जुड़ना पसंद नहीं करेंगे. और यदि एक करना ही है तो पूरी दुनिया को एक करने की कोशिश क्यूँ की न जाए? दुनिया वैसे भी एक ही है. लकीरें इंसानी बेफकूफियों ने ही तो डाली हैं. उस दिशा में काम क्यूँ न किया जाए? यह आधा-अधूरा क्यूँ सोचना? तीसरा मिसाल. जनवरी सोलह, दो हजार सत्रह को लिखा उन्होंने, "My prediction about the forthcoming Punjab Assembly elections is based on reason, not emotion. If Punjab elections had been held an year back, AAP would have got a majority. But in the past year its image has been sullied by many scandals, involving even Ministers in the Delhi Govt.. On the other hand, Capt. Amrinder Singh enjoys a good image, and he is a Punjabi. AAP has projected Kejriwal, a non Punjabi, as its Chief Minister ( though I wonder how he can be C.M. of 2 states ?). Why should Punjabis want a non Punjabi as their Chief Minister ? So I believe Congress will get a majority and form the next govt. in Punjab." पहली तो बात यह कि कांग्रेस के अपने दम पर दूर-दूर तक कोई चांस नहीं पंजाब में सरकार बनाने के. हाँ, आम आदमी पार्टी बना ले सरकार इसकी पूरी सम्भावना है. और दूसरी बात, केजरीवाल ने खुद को पंजाब के मुख्य-मंत्री पद का दावेदार कभी नहीं कहा. चौथी मिसाल. जनवरी चौदह, दो हजार सत्रह को लिखा उन्होंने, "Many people criticized me for my views on Gandhi in my earlier posts. I do not mind polite criticism, but I will block people making impolite criticism or giving abuses. I have already blocked many, and shall block more" मतलब आलोचना हो लेकिन विनम्र हो. सही है. जब वो नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मूर्ख कहते हैं और ऐसा कहने के कारण भी बताते हैं, मुझे खुशी होती है लेकिन जब वो अपनी आलोचना में विनम्रता की आकांक्षा रखते हैं तो मुझे लगता है कि उन मूर्ख भारतीयों में उनका नाम जोड़ कर मैंने सही ही किया है. पांचवी मिसाल. अभी-अभी लिखा उन्होंने, “I see from the Jallikattu Rules which I have posted on my previous fb post that they were issued by Mr. Gagandeep Singh Bedi, I.A.S., Secretary, Animal Husbandry, Tamilnadu Govt. Do you Tamilians know who Bedis are ? They are the direct descendants of Guru Nanak, the founder of the Sikh religion, and therefore the most venerated of all Sikhs. Guru Nanak had 2 sons. One remained a bachelor, but the other married and had several sons. Bedis are his direct descendant. So you Tamilians should feel honoured to have him as a senior officer in Tamilnadu.” श्रीमान काटजू से मूर्खता की उम्मीद तो करता हूँ मैं, लेकिन इतने हल्के लेवल की मूर्खता की कतई नहीं. एक दसवीं का छात्र यदि दूसरी कक्षा के छात्र जैसी गलती करे तो निश्चित ही निराशा होती है. श्रीमान काटजू नानक साहेब के बेटों का ऐसे ज़िक्र कर रहे हैं जैसे ‘नानक साहेब के बेटे’ होना कोई मायने रखता हो. अब्राहम लिंकन के पिता एक मोची थे. आप किस लिए जानते हैं लिंकन को? इसलिए कि उनके पिता मोची थे या इसलिए कि वो अमेरिका के प्रेसिडेंट थे? आइंस्टीन को आप उनकी अपनी वजह से सम्मान देते हैं या उनके पिता की वजह से? आप नानक साहेब को सम्मान इसलिए देते हैं क्या कि वो कालू मेहता के बेटे थे? असल में तो किसी का बेटा होना कोई मायने नहीं रखता और नानक साहेब के बेटे होना तो उनकी अपनी नज़र में कुछ माने नहीं रखता था. उन्होंने अपना descendent अपने बेटों में से नहीं चुना था. अपने शिष्यों में से चुना था. और सिक्खों में 'बेदी' होने पर कोई अलग से सम्मान दिया जाता है, इसलिए कि वो नानक साहेब के बेटों के बेटे हैं, यह मैं आज पहली बार काटजू साहेब द्वारा जान रहा हूँ. मेरा जन्म सिक्ख परिवार में ही हुआ है. हमारे परिवारों में आधे लोग केशधारी हैं. सिक्खी में जात-पात मानी जा रही है, यह सच है, लेकिन उसे एक बुराई की तरह समझा जाता है यह भी एक सच है चूँकि सिक्खी में जात-पात का कोई कांसेप्ट नहीं है. और काटजू साहेब उस बुराई को हवा दे रहे हैं. उस कांसेप्ट को हवा दे रहे हैं, जो सिक्खों में तो फिर भी है लेकिन सिक्खी में नहीं है. और जो IAS ऑफिसर खुद को 'बेदी' लिख रहा है, वो इंसान सिक्खी ठीक से समझा है, मुझे तो नहीं लगता. ऐसे व्यक्ति की वजह से तमिलनाडू वासियों को सम्मानित महसूस करना चाहिए, इसलिए कि वो अपने आपको 'बेदी' समझता है, ऐसा महान विचार जनाब काटजू ही दे सकते है. और जहाँ तक मुझे लगता है बेदी शब्द वेदी से आया है. जैसे द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी. वैसे ही वेदी मतलब बेदी. गुरु नानक साहेब के बेटे और उनके बेटों से इस शब्द की उत्पति हुई हो, ऐसा मुझे तो नहीं लगता. और नानक साहेब सिक्ख धर्म के संस्थापक नहीं हैं. उन्होंने कोई धर्म नहीं चलाया. मुझे कहीं दिखा दें कि उन्होंने कहीं कहा हो कि वो कोई धर्म चला रहे हैं. गगन मै थाल, रवि चंद दीपक बने, तारका मंडल जनक मोती। धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे, सगल बनराइ फुलन्त जोति॥ कैसी आरती होइ॥ भवखंडना तेरी आरती॥ अनहत सबद बाजंत भेरी॥ ये नानक साहेब के शब्द हैं. खुद अंदाज़ा लगायें बाकी आप. न तो काटजू साहेब को सिक्खों की जानकारी है और न ही सिक्खी की. छठी मिसाल. उन्होंने लिखा था,"Why I go to Dargahs? Within a few days of taking over as Chief Justice of Madras High Court in November, 2004 I enquired whether there was a dargah in Chennai. I was told there is one called the Anna Salai Dargah ( Dargah Hazrat Syed Moosa Shah Qadri ) on Mount Road. I sent a message there that I would like to come to pay my respects to the holy saint who has his grave there, and is said to have died about 450 years ago.( see link below ). I was told I was welcome. I went there and offered a chaadar. Since then I have been regularly visiting that Dargah whenever I go to Chennai. The old maulvi saheb who was there has since died, but others look after the shrine. They know me, and give me a lot of respect whenever I go there. I go to dargahs wherever and whenever I can, e.g. Ajmer Sharif, Nizamuddin Aulia ( and Amir Khusro, which is just next ), Kaliyar Sharif, Deva Sharif, etc.I get a lot of happiness and peace there. Some people may find it strange that a confirmed atheist like me visits dargahs. It is true that I do not believe in God. But it is also true that I respect the good things in Indian culture, and I respect people of all religions. Some of my closest friends are non Hindus. Why do I go to dargahs ? I go there because dargahs are shrines constructed over the graves of sufi saints, and I have great respect for sufi saints, who preached love, compassion and humanitarianism towards all. They made no distinction between Hindus, Muslims, Christians, Sikhs etc..THOUGH THE SUFI SAINTS WERE MUSLIMS, THEY HAD MANY HINDUS AND SIKH DISCIPLES. Some sufi saints were persecuted by fanatical and bigoted people. Hindus do not go to mosques, Muslims do not go to Hindu temples, BUT EVERYONE GOES TO, and is welcome, in dargahs. Often there are more Hindus than Muslims in some dargahs. So dargahs are places which unite all Indians, and I love whatever unites us, and am strongly against whatever divides us, like religious bigotry and intolerance. India is a country of great diversity. To progress we must remain united. So whatever promotes our unity, like dargahs, is good for us, and whatever divides us, like religious extremism and fanaticism, is bad for us..The Sufi spirit of TOLERANCE and compassion is what all Indians must inculcate and imbibe." यह एक और नमूना है काटजू साहेब की मूर्खता का. सूफी संत मुसलमान थे, यह लिखा है उन्होंने. पता नहीं संत की परिभाषा क्या है इनकी? जो हिन्दू या मुसलमान हो वो संत कैसे हो सकता है और जो संत हो वो हिन्दू-मुसलमान कैसे हो सकता है? यह है मेरी समझ तो. और हिन्दू या मुसलमान परिवार में जन्म लेने से, धर्म-विशेष में पलने बढ़ने से कोई व्यक्ति उसी धर्म को मानने वाला होगा, यह कहाँ ज़रूरी है? सूफी मुस्लिमों में पैदा हुए लेकिन मुस्लिम नहीं थे. मुस्लिमों में विद्रोही थे. मुस्लिम और हिन्दू, तमाम बीमरियों के विरोधी थे. ऐसे ही तो मंसूर को नहीं काटा गया. अगर वो मुसलमान ही था तो फिर क्यूँ मारना? जानते हैं किसलिए? वो अनलहक अनलहक (अहम ब्रह्म अस्मि) कहता था. आठ साल जेल में रखा गया. तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद जला दिया गया. फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है. ऐसे ही तो नहीं सूफी फकीरों की दरगाहों को तालिबान तबाह नहीं कर रहे. 2010 में बाबा फरीद की दरगाह पर अटैक में दस लोग यूँ ही मारे गए? ऐसे ही तो सरमद की गर्दन जामा मस्ज़िद की सीढ़ियों पर काट नहीं लुढकाई गई. काटजू साहेब लिखते हैं कि हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते, मुस्लिम मंदिर नहीं जाते लेकिन सब दरगाह जाते हैं. वाह! वाह!! जनाब हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते तो उसका कारण मुस्लिम हैं न कि हिन्दू. मस्ज़िद में नॉन-मुस्लिम को जाने ही नहीं दिया जाता. और दरगाह भी सब नहीं जाते. मुस्लिम कब्रों को पूजना सही नहीं मानते सो बहुत कम मुस्लिम दरगाह जाते हैं और जो जाते हैं वो धर्म-च्युत माने जाते हैं. शिर्क माना जाता है यह सब. खुदा के ओहदे में शिरकत. जो मना है इस्लाम में. आगे लिखते हैं काटजू साहेब कि सूफियों के बहुत से शिष्य थे जो हिन्दू, सिक्ख आदि थे. यह कथन और साफ़ करता है कि काटजू साहेब सूफिओं को बिलकुल नहीं समझते. न तो सूफी हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख थे और न ही उनका शिष्य कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख हो सकता था. वैसे भी चेलों से गुरु को तौलना ऐसे ही है जैसे आप अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्म की समीक्षा रामसे ब्रदर की ऐसी फिल्म देख करने लगें जो उसकी थर्ड क्लास नकल हो. "मक्के गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ जुमा पढ़ आईये गंगा गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ गोते खाईये गया गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ पंड पढ़ाईये बुल्ले शाह गल ताइयों मुक्दी जदो "मैं" नूं दिलों गंवाईये ----- बाबा बुल्लेशाह" पढ़ पढ़ आलम पागल होया, कदी अपने आप नू पढ़या नईं जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने आप चे वड़या नई एवईं रोज शैतान नाल लड़दा, कदी अक्स अपने नाल लड़या नई बुल्ले शाह आसमानी उड दियां फड़दा, जेड़ा घर बैठा उह नूं फड़िया नईं ----- ----- बाबा बुल्लेशाह फरीदा जे तू वंजें हज, हब्यो ही जीआ में। लाह दिले वी लज, सच्चा हाजी तां थीएं॥.....बाबाफरीद गंजेशक्कर कंकर पत्थर जोड़ के,,,,, मस्जिद लई चिनाय ता पर मुल्ला बांघ दे,,,क्या बहरा हुआ खुदाय.... कबीर साहेब" ये हैं असली सूफी. पता नहीं किन सूफियों का ज़िक्र कर रहे हैं काटजू साहेब. TOLERANCE सिखाने वाले नकली सूफी पकड़े बैठे हैं. नकली सूफी और नकली उनके शिष्य. असली शिष्य भिगो-भिगो जूते मारता रहा है और बदले में जूते खाता रहा है. सातवीं मिसाल. काटजू साहेब लिखते हैं, “99% of all people are good. Despite the Paris attack in which several persons were killed, and despite Haji Yaqoob Qureshi, I will repeat again what I have been repeatedly been saying : 99% people of all communities are good people. So 99% Hindus are good people, and so are 99% Muslims, Christians, Sikhs, Parsis, and people of all religions, castes, races, languages, regions and nationalities. 99% Pakistanis are good people, and so are 99% Indians and 99% Bangladeshis, Nepalese, Sriklankans, Burmese, Americans, Europeans, Chinese, Arabs, Africans, etc This is what my teacher, the great French thinker Rousseau taught me over 50 years ago when i was a very young man, and this is the belief I will retain till my death. I will disgrace myself before my teacher ( who for me is still alive ) if I deviate an inch from this belief. I would rather die than do that.” पहली तो बात यह कि यह सोच ही गलत है कि किसी विचार को जीवन के अंत तक पकड़े ही रखना है. यह जड़ता है. यह अखंड मूर्खता है. चाहे हम अपने गुरु को कितना ही प्यार करते हों लेकिन जब तक हम उससे मुक्त नहीं हो जाते, आगे नहीं बढ़ सकते. कहीं पढ़ा था कि जब तक बच्चा अपने माँ-बाप की हत्या नहीं कर लेता, वो तरक्की नहीं कर पाता. हत्या से मतलब माँ-बाप से मुक्त होने से है. और मुक्त होने से मतलब उनके दिए हुए संस्कारों की ज़ंजीरों से मुक्त होने से है. पढ़ा था कि शिष्य गहन ध्यान में थे ईष्ट देवी के. उनके गुरु ने कहा कि उठा तलवार और देवी को काट दे. पहले मना किया लेकिन फिर ध्यान में ही काल्पनिक तलवार उठाई और काल्पनिक देवी को काट दिया. कितना ही प्यार हो गुरु से, माँ-बाप से, ईष्ट से, लेकिन उनसे बंधे ही रहना है, यह सोच ही जीवन के बहाव को रोक देगी. जीवन बहती धारा न होकर खड़ा पानी हो जाएगा. गन्दला पोखर. और अपने गुरु-प्यारे की सिखावन से इतर जाना, उस गुरु-प्यारे का अपमान कैसे हो गया? मेरी बड़ी बिटिया तर्क में मुझे चारों खाने चित्त कर देती है. मामला शुरू होने से पहले ही खत्म कर देती है. मैं बहुत नाराज़ होता हूँ? नहीं. मैं खुश होता हूँ. मुझ से बेहतर है. उससे हारना अपमान नहीं, सम्मान का विषय है. और हम सब किसी एक व्यक्ति के शिष्य नहीं है कभी भी. हम सब जीवन के शिष्य हैं. जीवन से बड़ा गुरु कोई नहीं. It is the life, that is a life-long teacher. अब श्रीमान काटजू साहेब अपने गुरु, अपने प्यारे रूसो की सिखावन को जीवन के अंत तक पकड़े-जकड़े रखना चाहते हैं, मर्ज़ी है उनकी. लेकिन यह मर्ज़ी मर्ज़ है, यह मेरा ख्याल है. और यह सिखावन क्या है जिससे वो इंच भर हिलना नहीं चाहते, जिसके लिए वो जान तक देने पर उतारू हैं? यह सिखावन यह है कि 99% लोग अच्छे होते हैं, चाहे वो किसी भी कौम से हों, किसी भी मुल्क से हों, किसी भी भाषा का प्रयोग करते हों, किसी भी जात-बिरादरी के हों. अब विडम्बना यह है कि काटजू साहेब ही कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीय और पाकिस्तानी मूर्ख हैं. अब मूर्ख भी हैं और अच्छे भी हैं! यह कुछ मामला गड़बड़-झाला है. मूर्ख होना अच्छा है या अच्छा होना मूर्खता है? अच्छाई मूर्खता का नतीजा है या मूर्खता अच्छाई का नतीजा है? शायद काटजू साहेब कहना चाहते हैं कि लोग हैं तो अच्छे लेकिन हैं मूर्ख. तो मेरा कहना यह है कि लोग मूर्ख हैं और मूर्ख लोग अच्छे नहीं हो सकते. तब तक नहीं जब तक वो मूर्खता न छोड़ दें. इंसानी मूर्खता का नतीजा है कि पृथ्वी मरने की कगार पर है. इसे अच्छा कहना चाहते हैं, कह लीजिये. उनको इस पोस्ट में टैग किया है मैंने. और मेरी आप सब से भी गुज़ारिश है, अगर हो सके तो मेरा संदेश काटजू साहेब तक पहुंचा दें. सम्मान से न्योता दे रहा हूँ उनको कि मैंने अगर कुछ गलत लिखा तो वो सही करें. न मैं गाली-गलौच करता हूँ, न करने देता हूँ. और मूर्ख कहना न वो गलत मानते हैं और न मैं. वो दोनों तरफ जन्म-सिद्ध अधिकार है. मार्कंडेय काटजू साहेब का मैं सम्मान करता हूँ कि सुप्रीम कोर्ट के जज रहने के बाद, वो सार्वजानिक तौर पर अपने विचार प्रकट करते रहते हैं, करने चाहिएं, चाहे कहीं-कहीं खुद ही मूर्ख साबित होते रहें. नमन है उनको. नमन आप सब को ..तुषार कॉस्मिक...कॉपी राईट 

प्रॉपर्टी आपकी दुश्मन है

प्रोपर्टी के धंधे में हूँ बरसों से और मेरी समझ है कि तकरीबन सब इंसानी बीमारियों की वजह प्रॉपर्टी का कांसेप्ट है. कहावत भी है. ज़र, जोरू और ज़मीन झगड़े की जड़ होती हैं. थोड़ा गहरे में ले जाने का प्रयास करता हूँ. पहले तो जो भी व्यक्ति इस पृथ्वी पर आ जाए उसे बेसिक ज़रूरतें हर हाल में मिलें यह समाज का फर्ज़ होना चाहिए और अगर ऐसा नहीं है तो वो समाज अभी संस्कृत नहीं हुआ. और आप लाख कहते हों कि हमारी संस्कृति महान है, लेकिन अभी संस्कृति का क-ख-ग भी नहीं पढ़ा इंसान ने. जिस कृति में बैलेंस न हो, संतुलन न हो, वो कैसी संस्कृति? एक तरफ़ लोग महलों जैसी कोठियों में रहें और दूसरी तरफ़ कोठड़ी भी न मिले, इसे आप संस्कृति कहना चाहते हैं, कह लीजिये, मैं तो विकृति ही कहूँगा. हम सब धरती के वासी हैं, लेकिन विडम्बना यह है कि हम में से बहुत के पास धरती का सर छुपाने लायक टुकड़ा भी नहीं जिसे वो अपना कह सकें. अपने ही ग्रह पर हमारे पास गृह नहीं है. कैसे कहें कि पृथ्वी हमारा घर है? कहा यह गया है आज तक कि रोटी, कपड़ा और मकान ही बेसिक ज़रूरतें हैं, लेकिन अधूरी बात है यह. इन्सान को रोटी, कपड़ा, मकान के साथ ही प्यार, सम्मान और सेक्स भी चाहिए. ये सब व्यक्ति की बेसिक ज़रूरतें हैं. बिना सेक्स के और बिना प्यार के, सम्मान के आदमी अधूरा है. जो समाज ये सब न दे सके, वो समाज पागल है और यकीन जानें, आपका समाज पागल है. जो समाज अपने हर बच्चे को by default यह सब न दे सके, वो जंगल से बदतर है. बड़े होते होते, भी ये सब बहुत कम श्रम में उपलब्ध रहना चाहिए. लोग सारी-सारी उम्र लगा देते हैं एक घर बनाने में. फिर तकिया-कलाम की तरह बात-बेबात अपनी प्रोपर्टी की शान बघारते हैं. प्रॉपर्टी से एक दूजे को आंकते हैं. नहीं, यह सब बकवास है. घर सबको मिलना ही चाहिए, बिना कमाए. सौ कमरे का न सही, दो कमरे का ही सही, लेकिन मिलना चाहिए. अगर नहीं देंगे तो लाख आपके बाबा लोग समझाते रहें अपने आश्रमों में कि किसी का हक़ न दबाओ, जिसके नीचे जो ज़मीन का टुकड़ा आ जाएगा, वो उसे दबाने की पूरी कोशिश करेगा. वैसे भी ज़मीन तो कभी नहीं कहती कि वो किसी एक की प्रॉपर्टी है. धरती माता ने तो आज तक किसी के नाम कोई रजिस्ट्री की नहीं है. इन्सान जंगलों में रहता था. फिर खेती आई और खेती के साथ ही प्रॉपर्टी का कांसेप्ट आया. और प्रॉपर्टी के कांसेप्ट के साथ ही शादी का कांसेप्ट आ गया. अंग्रेज़ी में husbandry शब्द है जिसका अर्थ खेती है. Husband से आया है यह शब्द, चूँकि hasband शब्द का पुराना मतलब ही किसान है. अब जब खेती आई तो खेती लायक ज़मीन की घेराबंदी का कांसेप्ट आ गया. फिर वो घेराबंदी, वो कब्जा बना रहे, उसके लिए ही उत्तराधिकार का कांसेप्ट आ गया. सो शादी आई और प्राइवेट बच्चे का कांसेप्ट आया. निजी स्त्री, निजी पुरुष, निजी बच्चा. हम कहते भी हैं कि वो मेरी स्त्री है, वो मेरा आदमी है, मेरा बच्चा है. न असल में कोई किसी का आदमी है, न ही कोई किसी की स्त्री और न ही कोई किसी का बच्चा. तुम एक ढंग का गुड्डा न बना पाओ और बच्चे को कहते हो तुमने पैदा किया. इडियट. अबे, वो कुदरत का, कायनात का ढंग है अपने आपको पैदा करने का, रूप बदलने का. और उसी ने तुमको सेक्स दिया ताकि तुम्हारी रूचि बनी रहे और तुम उसके काम को आगे बढ़ाते रहो. शादी के जोड़े आसमानों में नहीं, धरती पर बने थे, धरती के टुकड़ों के लिए बने थे और धरती के कृषि योग्य टुकड़ों पर कब्ज़ा जमाए रखने के लिए बने थे. वैसे कहते यह भी हैं कि जोड़े आसमानों में बनते हैं लेकिन तलाक़ ज़मीन पर होते है. और मेरा मानना है कि बहुत बार ज़मीन के लिए ही होते हैं. शादी भी और तलाक़ भी, दोनों ज़मीन के लिए, जायदाद के लिए. मतलब प्रॉपर्टी के कांसेप्ट से शादी आई और शादी के कांसेप्ट ने इंसानों को भी प्रॉपर्टी में तब्दील कर दिया. बहुत से घरों में आज भी पिता के लिए "चाचा" शब्द का प्रयोग होता है. मेरे मामा जी के बच्चे उनको आज भी 'चाचा जी' बुलाते हैं, मैं बड़ा हैरान होता था! लेकिन आज कारण पता है. शुरू में पिता का कांसेप्ट नहीं रहा होगा. वो बाद में आया. यह शादी से पहले के दौर की बात है. माँ पता रहती होगी लेकिन बाप नहीं, सो सब 'चाचा'. और यह कोई गाली नहीं थी कि बाप नहीं पता था बच्चे को. नहीं. समाज शुरू में ऐसे ही रहे होंगे. प्रॉपर्टी के कांसेप्ट के साथ शादी आई और उसके साथ ही बच्चे के बाप का पता होना एक बड़ा मुद्दा बन गया चूँकि पिता अपनी सम्पत्ति अपने बच्चे को ही देकर जाना चाहता था और बच्चा उसी का है, यह सिर्फ माँ ही पक्का कर सकती थी. सो इंतज़ाम किये गए, कानून बनाए गए कि स्त्री एक ही पुरुष के सम्पर्क में रहे. होना तो पति को भी एक पत्नी-व्रत था लेकिन जितने कड़े नियम स्त्री के लिए बनाए गए, उतने पुरुष के लिए नहीं. उसके लिए तो वेश्यालय भी खुले. लाख कहते रहे कि गैर-कानूनी है, असामाजिक हैं लेकिन हर समाज में खुल गए. कहीं ढके छुपे तो कहीं खुले-आम. यह जो मुसलमान पत्थर-पत्थर मार-मार के स्त्री को मार देते हैं अगर पति के अलावा दूसरे पुरुष के संसर्ग में आ जाये तो, उसका निहित कारण प्रॉपर्टी का कांसेप्ट है, प्रॉपर्टी पर वंशजों के उत्तराधिकार का कांसेप्ट है. हर प्राणी एक से ज़्यादा स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आता है. इंसान सबसे ज़्यादा अक्ल रखता है. रखता है, यह लिखा मैंने. अक्ल-मंद है, यह नही लिखा चूँकि अक्ल रखना और अक्ल-मंद होना, दोनों अलग अलग बात हैं. जिसके पास अक्ल हो, वो महा-मूर्ख भी हो सकता है. वो अक्ल से नीचे भी गिर सकता है. इन्सान सबूत है इस बात का. देखें, एक बन्दर अगर अपने जीवन काल में बीस बन्दरियों से सम्भोग करता है, इन्सान तो उससे कहीं ज़्यादा कल्पनाशील है, बुद्धिमान है. उसे हाथ मिला उसने क्रेन बना दी, उसे पैर मिले पहिया बना दिया, आंख मिली तो टेलीस्कोप बना दिया. नहीं? लेकिन जो बेसिक ज़रूरतें थीं उनमें इज़ाफा करने की बजाए घेरे में बाँध दिया. अब बुद्धि तो है. शादी के वक्त जो फेरे लिए जाते हैं, गोल-गोल घुमाया जाता है और हर फेरे पर पति-पत्नी से कुछ वायदे लिए जाते हैं. वो गोल घुमाना घेरा-बंदी है. फेरों में इनसे से वायदा बेशक ले लिया जाए कि वो एक पति-एक पत्नी-व्रत रहेंगे लेकिन वो बहुत सी स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में आना चाहते हैं. तो वो गीत लिख रहे हैं, फिल्में बना रहे हैं, ब्लू-फिल्में बना रहे हैं, प्ले-बॉय और डेबोनेयर रसाले छाप रहे हैं. सब कुछ विकृत करके बैठ गए. किस लिए? प्रॉपर्टी के कांसेप्ट की वजह से. अब न उन्हें प्रेम मिल रहा है, न सम्मान, न ही ढंग का घर. अधिकांश जनसंख्या को नहीं. एक शब्द-जोड़ है 'रियल एस्टेट'. क्या लगता है कि कोई एस्टेट रियल या अन-रियल होती है? असल में यह 'रॉयल-एस्टेट' शब्द-जोड़ से आया माना जाता है. सब एस्टेट राजा की. रॉयल. और प्रजा सिर्फ़ कामगर. प्रयोगकर्ता. हैरानी है आपको! आज भी नॉएडा अथॉरिटी ने फ्री-होल्ड कराने का हक़ नहीं दिया लोगों को. प्रॉपर्टी लोगों के पास लीज़ पर है और लीज़ सिर्फ किराया-नामा होता है और कुछ नहीं. तो कुल मतलब यह कि ज़मीन पर मल्कियत बनी रहे, इसका जुगाड़ हर तरह से किया गया है. छोटे से लेकर बड़े लेवल तक. इसलिए कहता हूँ कि प्रॉपर्टी का कांसेप्ट एक बीमारी है. इलाज क्या है? ऊपर मैंने लिखा कि by default रोटी, कपड़ा, मकान, प्यार, सम्मान और सेक्स मिलना चाहिए सबको. लेकिन आज जैसी व्यवस्था है, उसमें तो नहीं हो पायेगा ऐसा. यह तभी हो सकता है जब निजी बच्चे के कांसेप्ट में कुछ बदलाव किया जाए. पहले तो बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-जात नहीं होना चाहिए. एक लेवल तक पति-पत्नी कमाने लगें, कम से कम तीन-चार साल लगातार, तभी बच्चा पैदा करें. और यह भी तब, जब हमारे वैज्ञानिक आज्ञा दें कि अब हमारा भू-भाग, हमारी सामाजिक व्यवस्था एक और बच्चे के वज़न को सह सकती है. तभी सम्भव है कि सबको सब कुछ जो जीवन के लिए ज़रूरी है, वो आसानी से मिलता रहे. और अगर आज ही की तरह बेतहाशा बच्चे पैदा करे जायेंगे तो यही सब होगा, जो हो रहा है. ज़र, जोरू और ज़मीन के झगड़ों से थाणे, कचहरी भरे रहेंगे. इससे अगली एक और बात है कि इन्सान को असीमित धन कमाने का तो हक़ हो लेकिन अपने निजी परिवार, अपने वंशजों को वो सब पूरे का पूरा ट्रान्सफर करने का हक़ न हो. एक सीमा तक हो, उसके बाद नहीं. उसके बाद का सारा धन पब्लिक डोमेन में जाए. शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान किसी भी क्षेत्र में वो खुद दे जाए वरना उसकी मृत्यु के बाद अपने आप चला जाए. लेकिन यह तब हो जब गवर्नेंस भी शीशे की तरह ट्रांसपेरेंट हो. उसके लिए सब सरकारी व्यक्ति हर दम CCTV तले रहें. सब RTI तले. और गवर्नेंस में पब्लिक पार्टिसिपेशन यानि जनता की भागीदारी ज़्यादा से ज़्यादा हो. और इस तरह से धीरे-धीरे प्राइवेट प्रॉपर्टी का कांसेप्ट dilute होता चला जाएगा. धरती स्वर्ग बनती जायेगी और यहाँ के वासी स्वर्ग-वासी. मृत्यु के बाद नहीं, जिंदा रहते हुए. जीते जागते. टाइटैनिक फिल्म देखी-सुनी होगी आप सब ने. जितनी कहानी बताई गयी उसके आगे की कहानी मैं बताता हूँ. जब जहाज डूब हो रहा था तो कोई पचास के करीब लोग किसी तरह निकल पास के टापू पर पहुँच गए. स्त्री-पुरुष लगभग बराबर संख्या में थे. पहले तो बहुत घबराए. कोई रोये, कोई चीखे, कोई चिल्लाए. सम्पर्क सूत्र कोई नहीं था कि बता सकें अपने परिजनों को अपनी उपस्थिति ताकि कोई ले जाए उनको. टापू निर्जन. लेकिन वहां नारियल लगे थे. फल-फूल भरपूर थे. जीवन अपने रास्ते बनाने लगा. वो लोग वहां खाने-पीने लगे. धीरे-धीरे उनका वहां मन रमने लगा. कोई छह महीने बाद एक जहाज तुक्के से वहां पहुँच गया. सब जहाज के लोगों से मिले लेकिन जैसे ही जहाज के कप्तान ने उनको वापिस चलने को कहा सब ने इनकार कर दिया. उनके परिजनों से बात करवाई गई तो इन टापू के प्राणियों ने उल्टा अपने परिजनों को समझाया कि आप सब भी यहीं आ जाओ लेकिन हम वापिस उस पागलखाने में नहीं जायेंगे. यहाँ न मकान बनाने की चिंता, न कमाने की चिंता. जीवन कमाने के लिए नहीं था जीने के लिए था. बहुत थोड़े श्रम से सब हाज़िर हुए जा रहा था. कैसे तैयार होते वो वापिस आने को जहाँ सारी उम्र सर पर ढंग की छत्त बनाने में निकल जाती थी? नहीं आये वो लोग. आदम और हव्वा के वंशज. आशा है समझा सका होऊंगा कि प्रॉपर्टी आपकी दुश्मन कैसे है. नमन...तुषार कॉस्मिक ..कॉपी राईट

Tuesday 24 January 2017

"अम्मीजान कहतीं थीं, धंधा कोई छोटा नहीं होता"

शाहरुख़ खान फरमाते हैं, अपनी ताज़ा-तरीन फिल्म 'रईस' में, "अम्मीजान कहतीं थीं, धंधा कोई छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता." 

तो ठीक, स्मगलिंग हो चाहे गैंग-बाज़ी, धंधा कोई छोटा नहीं होता, खोटा नहीं होता. जाएँ और 'रईस' फिल्म देखें. फिल्म बनाना, एक्टिंग करना उसका धंधा है और धंधे से बड़ा कोई धर्म-ईमान होता नहीं, तो वो एक टैक्सी चलाने वाली गुमनाम औरत को भी अपनी फिल्म की प्रोमोशन में शामिल कर लेता है. लेकिन  उनसे  'तू'...'तू' करके बात करता है, जबकि वो उसे 'सर', 'सर' कह कर सम्बोधित कर रही हैं. इडियट! तमीज नहीं. अगर वाकई वो टैक्सी ड्राईवर न होकर कोई बड़ी तुख्म चीज़ होतीं तो फिर करके दिखाता....'तू...तू'. हू--तू---तू ...न करा देतीं तो. वो 'तू'  इसीलिए निकल रहा है मुंह से कि उन्हें  छोटी औरत समझ रहा है. उनके धंधे को छोटा समझ रहा है.

एक और प्रमोशनल वीडियो में श्रीमान शाहरुख़ बताते हैं कि रईस कौन है. उनके मुताबिक रईस कोई पैसे वाला नहीं है, वो सब रईस हैं, जो खुश हैं, जिंदा-दिल हैं, कुछ-कुछ ऐसा. ठीक है, मैं सहमत हूँ इस बात से, सो रईस फिल्म के लिए करोड़ों रूपये तो लिए नहीं होंगे शाहरुख़ ने और न ही फिल्म बनाने वाले कोई दो सौ-चार सौ करोड़ रुपये कमायेंगे इस फिल्म से. न. बिलकुल नहीं. ये  सब  फिल्म बनाने, दिखाने वाले दिल से रईस जो हैं, आम आदमी की तरह. सो फिल्म आप सब मुफ्त में देख सकते हैं. नहीं?  इडियट! श्याणे इडियट!!

एक डायलॉग है, इसी फिल्म का,"बनिए का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग." अब दिमाग को पता ही नहीं कि वो बनिए का है या किसका और न डेयरिंग को पता है कि वो मियां भाई की है या नहीं. और न धंधा यह देखता है कि उसके पीछे गुण, अवगुण किस धर्म, जात बिरादरी के हैं, लेकिन शाहरुख़ भाई लगे हैं उगलने कि बनिए का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग मिल जाएं तो धंधा ही धंधा. खैर जिस दिन इन्सान इस बनियागिरी और मियां-नवाज़ी से बाहर सोच पायेगा, तभी समझना कि इंसानियत का सूरज अंधेरों से बाहर आने लगा. 

जो बोलता है, वही राज़ उगलता है. 
लोग अपनी पोल ढकने में खोल जाते हैं. 
फिर से पढ़ें,"लोग अपनी पोल ढकने में ही खोल जाते हैं". 

अभी आज़म खान को देख रहा था, you-tube पर. इंटरव्यू करने वाला पूछ रहा है कि मोदी पर अगर आरोप है कि गुजरात दंगे में उसने मुसलमान मरवा दिए तो यह भी एक फैक्ट है कि उन दंगों के बाद गुजरात में कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ. बदले में आज़म खान कहते हैं कि दंगे होते कैसे? इतना डरा जो दिया मुसलमान को.

श्याना! खुद ही स्वीकार कर गया कि मुसलमान ही वजह हैं दंगों की. 

मैं झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी डील करता हूँ. लोग ऐसी प्रॉपर्टी से दूर भागते हैं, मैं स्वागत करता हूँ. खूब-खूब कोशिश करता हूँ कि कोई अपने मतलब का डिस्प्यूट मिल जाए. कहावत है,"आ बैल मुझे मार". लोग बचते हैं कि बैल मार न जाए. लेकिन बुल-फाइटिंग और जल्ली-कुट्टू भी यथार्थ हैं. 

तो जैसे ही कोई परेशान-आत्मा किस्सा सुनाता है डिस्प्यूट का, वो किस्सा और फिर उसके डॉक्यूमेंट, वो ही बता देते हैं करीब-करीब सब कुछ. सब उसी में छुपा रहता है. सवाल में ही जवाब छुपा रहता है. स्कूल में हमें सिखाया गया था मैथ्स के टीचर द्वारा कि उत्तर लिखने की जल्दबाजी न की जाए. सवाल को ठीक से समझा जाए पहले. दो-बार, तीन-बार सवाल पढ़ा जाए. सवाल ठीक से समझ आएगा तो ही जवाब ठीक बन पड़ेगा. और हो सकता है कि सवाल में ही जवाब छुपा हो. 

एक कहानी है, राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो सबसे तेज़ दिमाग साबित होगा उसे बड़ा इनाम मिलेगा. एक समस्या दी जायेगी, उसे हल करेगा जो सबसे पहले, वो विजेता. कोई दस लोग फाइनल में पहुंचे. सबको अलग-अलग कमरों  में बंद कर दिया गया. बाहर से ताला लगा दिया गया हर कमरे के दरवाज़े पर.  बाकायदा ताला लगने की आवाज़ सुनी सबने, ताला कुंडे में डालने की, चाबी घुमाने की. अब कहा गया कि जो सबसे पहले ताला खोल बाहर निकलेगा, वही विजेता.  भीतर सब. सब दिमाग दौड़ा  रहे हैं कि कैसे...कैसे निकलें. एक छोटा बच्चा उठा, चुपके से दरवाज़ा धकेला उसने  और बाहर. बाहर हो गया वो. इनाम उसे मिला. पूछा गया कि कैसे सूझा जवाब? उसने कहा मास्टर जी ने कहा था कि पहले सवाल समझो, हो सकता है सवाल में ही जवाब हो, सो सोचा पहले देखूं तो, ताला लगा भी है या नहीं.

शेरलोक होल्म्स कहते हैं,"यू सी, बट यू डू नोट ऑब्जर्व." आप देखते हैं, लेकिन निरीक्षण नहीं करते. अंधों की तरह देखते हैं. अक्ल के अंधे! और सबको अक्ल के अंधे चाहिएं. गाँठ के पूरे हों तो सोने पे सुहागा.

ऑस्कर वाइल्ड जब अमेरिका हवाई अड्डे पर उतरे तो उनसे पूछा गया कि कोई आढी-टेढ़ी चीज़ हो तो घोषित कर दें. जवाब था उनका कि उनके पास एक ही चीज़ है, जो इस कोटि में आती है और वो है उनकी 'अक्ल'.

अक्ल लगायें आप, सबको नागवार गुज़रता है. आपकी लड़ाई हो जायेगी जगह-जगह. लोग ज़बरन एक-दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हैं. बेशर्मी से. ढिठाई से. लडाई से.

आप अक्ल लगायेंगे, बदनाम होने लगेंगे. लोग झगड़ालू समझेंगे. प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, कारपेंटर तक  आपका काम करने को राज़ी नहीं होगा. वकील को आप दोगुने पैसे दो, वो तब भी आपका केस लेकर खुश नहीं होगा. डॉक्टर भी चाहेगा कि आपके जैसे ग्राहक न आयें तो ही बेहतर. सबको चाहियें अक्ल के अंधे. जो "सर जी, सर जी--डॉक्टर साहेब, डॉक्टर साहेब" कहें और मुंह मांगे पैसे भी दें. जिनको कुछ समझना ही न हो. जैसा मर्ज़ी उल्टा-सीधा, आधा-अधूरा काम कर दिया जाए और पैसे वसूले जाएँ.  

काम आपका होगा, लेकिन करने वाला ऐसे करेगा जैसे वो ही उस काम का मालिक हो. वो अपने ही ढंग से काम को निपटाने की कोशिश करेगा. सेल्समेन तक बताता है कि आपको कौन सा जूता-कपड़ा बढ़िया लगेगा. पहनना आपने है, फैसला वो करे जा रहा है आपके लिए. आप करने देते हैं इसलिए. आप वकील हायर करते हैं और निश्चिन्त हो जाते हैं कि सब वो करेगा. हार-जीत आपकी होनी है, उसकी नहीं. उसने आपके हारने के, आपको हरवाने के भी पैसे ले लेने हैं. यकीन जानें, आप ध्यान न दें तो अमूमन कारीगर एक कील भी सीधा नहीं ठोकेगा, वकालत या डॉक्टरी सही मिल जाए तो यह चमत्कार से कम नहीं. 

खैर, मेरी राय साफ़ है कि बदनाम होते हों, हो जाएँ. झगड़ा करना पड़े, कर लें. वो कहीं बेहतर है, बेवकूफ बनने से. "बदनाम अच्छा, बद बुरा". आपके साथ कुछ बुरा हो जाए, बद हो जाए, उससे तो बदनाम होते हों, हो जाएं, वो कहीं अच्छा है.

सो अपनी अक्ल लगायें, शाहरुख़ खान की फिल्म उसके कहने मात्र पर मत देखें. ऐसा कुछ नहीं, न उसमें, न उसकी फिल्मों में. अधिकांश कचरा हैं और एक्टिंग के नाम पर ड्रामेबाज़ी, नक्शे-बाज़ी ही की है उसने आज तक. दफा करो.

और लेख का मुद्दा यह नहीं है कि शाहरुख़ की फिल्म इसलिए न देखी जाए कि वो मुसलमान है और यह भी नहीं कि  दंगे मुसलमान ही करते हैं या नहीं, और न UP चुनाव की वजह से आज़म खान का ज़िक्र किया है. लोग मिसालों, किस्सों, कहानियों को पकड़ लेते हैं...और जिस मुख्य पॉइंट को समझाने के लिए कथा, किस्सा, कहावत, मिसालें दी जा रही हैं, वो मिस कर जाते हैं.

मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं 
और मसला मिसाल नहीं

मिसाल पकड़ लेते हैं, मसला छूट जाता है 
जंग छिड़ जाती है, असल असला छूट जाता है

गवाह चुस्त, मुद्दई सुस्त
लफ्ज़ चुस्त, मुद्दा सुस्त

ख्यालों की भीड़ में, अलफ़ाज़ के झुण्ड में
लफ्ज़ हाथ आते हैं, मतलब छूट जाते हैं
कहानी हाथ आती है, मकसद छूट जाते हैं

और हम भूल ही जाते हैं कि
मसला मसला है, मिसाल मिसाल
मिसाल मसला नहीं
और मसला मिसाल नहीं

A pointer is meant to show you the point and if you miss the point and catch the pointer, what is the point in showing you the point?

लेख का मुद्दा शाहरुख़ खान, आज़म खान, शेरलोक होल्म्स, ऑस्कर वाइल्ड नहीं हैं. मुद्दा आप हैं, मुद्दा आपकी अक्ल है. 

नमन, कॉपी राईट, तुषार कॉस्मिक

Friday 20 January 2017

“You’re all prisoners. What you call sanity, it’s just a prison in your minds that stops you from seeing that you’re just tiny little cogs in a giant absurd machine. Wake up! Why be a cog? Be free like us.”
— Jerome Valeska (Gotham)

Foolish Quote-- Never argue with a fool. Someone watching may not be able to tell the difference.


Many of the quotes are simply idiotic. This one is one of them.Why? See. 

Everyone thinks oneself is a super Genius. Argumentation is way to check how much Genius who is. Avoiding argumentation thinking that the other is a fool is simply foolish.

Thursday 19 January 2017

I love dogs and I hate gods because dogs are so godly and gods are so dogly.

Monday 16 January 2017

हरेक को अपना धरम, धरम लगता है, दूजे का भरम लगता है. 

संघी  को सिखाया गया है कि हिंदुत्व जीवन-पद्धति है और इस्लाम मात्र पूजा-पद्धति. जबकि इस्लाम खुद को दीन कहता है, पूरा जीवन दर्शन. और वो है भी.

और हिंदुत्व नाम की कोई चीज़ है नहीं. बांधते रहो शब्दों में, वो सब आपके अपने प्रोजेक्शन हैं. हिंदुत्व तो अपने आप में कुछ है ही नहीं.



ज्ञान के विभिन्न पहलु

वेद मतलब ज्ञान...विदित होना.

लेकिन  वेदना शब्द भी वेद से आता  है. Ignorance is bliss. अज्ञान वरदान है. चूँकि  जैसे-जैसे जीवन में आपकी जानकारी बढ़ती है, वैसे-वैसे चिंता भी बढ़ती है. चिंतन बढ़ता है तो चिंता भी बढ़ती जाती है. ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए. ये गलत न हो जाए, वो गलत न हो जाए. वेद वेदना बन जाता है.

लेकिन इस दुविधा के बावजूद, चिंता के बावज़ूद ज्ञान ही इन्सान को चिंता-मुक्त करने की क्षमता रखता है. या यूँ कहें कि कम परेशानियों वाला, कम चिंताओं वाला जीवन दे सकता है, सो वेद सम्मान का विषय है. Knowledge sets you free. 

बहुत बार हमें कुछ नहीं पता होता और यह भी नहीं पता होता कि हमें नहीं पता. जैसे किसी वनवासी, जो स्कूल नहीं गया, जिसने किताब नहीं देखी, जिसने पेन-पेंसिल नहीं देखी, उसे नहीं पता कि पढ़ना-लिखना भी कुछ होता है. जब तक उसे स्कूल आदि नहीं दिखायेंगे उसे यह तक नहीं पता लगेगा कि उसे नहीं पता कि पढ़ाई भी कुछ होती है. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You don't know and you don't know that you don't  know."  
बहुत बार हमें नहीं पता होता, लेकिन यह पता होता है कि हमें नहीं पता. अब आप उस वनवासी को स्कूल दिखा दें. कॉपी, किताब, पेन, पेंसिल दिखा दें तो उसे यह पता लग जाएगा कि पढ़ना-लिखना कुछ होता है. अपने अज्ञान का ज्ञान हो जाएगा उसे. उसे पता लग जाएगा कि उसे नहीं पता. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You don't know but you know that you don't  know."  

बहुत बार हमें कुछ पता होता है लेकिन नहीं पता होता कि क्या पता है, समय पर याद ही नहीं आता कुछ. पता है कुछ कि हमें पता है लेकिन उस वक्त, उस ख़ास वक्त नहीं पता होता कि वो क्या है जो हमें पता है. इसे कहते हैं अंग्रेज़ी में,"You know that you know but you don't know what you know."

अब अंग्रेज़ी में इस पोस्ट का  संक्षिप्तीकरण करता हूँ.

There are so many aspects of knowing dear ones.

Sometimes y
ou don't know and you don't know that you don't  know.
Sometimes you don't know but you know that you don't  know.
Sometimes you know that you know but you don't know what you know.
Sometimes it seems that ignorance is bliss. 
But ultimately it is the k
nowledge that sets you free. 


नमन

लिबरल इस्लाम माने क्या?

लिबरल इस्लाम नाम की कोई चीज़ नहीं होती...इस्लाम सिर्फ इस्लाम है....लिबरल या नॉन-लिबरल वाली कोई बात नहीं....जाकिर नायक सही कहता है कि इस्लामिक को यदि कोई फंडामेंटलिस्ट अगर कोई समझता है तो सही समझता है और यह गौरव की बात है....जो फंडामेंट, जो बुनियाद मोहम्मद साहेब ने डाली, उसी पर जीवन की बिल्डिंग खड़ी करना, खड़ी रखना ही तो इस्लाम है. तो इस्लाम लिबरल या नॉन-फंडामेंटलिस्ट हो ही नहीं सकता, हाँ कोई मुसलमान हो सकता है कि ऐसा हो जाए और जब वो ऐसा होता है तो निश्चित ही धर्म-च्युत हो रहा है, बे-ईमान हो रहा है.

Sunday 15 January 2017

I WOULD HAVE GIVEN "PARAMVEER CHAKRA" TO THAT SOLDIER

That Soldier should be given a Gallantry award. Gallantry is not killing politically-declared-rivals. Gallantry is taking a bold step, standing against the atrocities of the Giants. Gallantry is fighting Goliaths whereas knowing perfectly well that one is just a David's size. Had I been the PM of this country, I would have given him a "Paramveer Chakra".

Saturday 14 January 2017

जिस दिन सीवर में घुस सफाई करने वाले को एक IAS  अफसर जितनी तनख्वाह और इज़्ज़त देगा समाज, समझ लीजियेगा संस्कृति पैदा हो गई. 
Idiocy is always in majority and democracy is the government of the majority.

So democracy is the Government of the idiots, for the idiots, by the idiots. While reading 'by the idiots', you might think that I am wrong. Because how could so shrewd, so cunning, so clever politicians be called idiots? But I am sure, I am not wrong.

These so called leaders are not wise, they are clever, over-clever but not wise, they are idiots, propelling the whole humanity, the whole earth to commit a collective suicide. 


दुनिया कैसे बदलती है

दुनिया-जहाँ की बकवास करता है राजनेता कि  समाज में जो बेहतरी हो रही है उसी की वजह से है.

होता विपरीत है. राजनेता ही वजह है कि समाज में जो बेहतरी आ सकती है, वो या तो आती नहीं या बरसों, दशकों लटक जाती है.  
अभी ज़्यादा पुरानी  बात नहीं है, कंप्यूटर शिक्षा का विरोध कर रहे थे बिहार के बड़े नेता.

एक पुल  बन कर तैयार होता  है, उद्घाटन नेता कर आता है. न तो पैसा नेता का है, न पुल  बनाने की तकनीक नेता की है. और जो पुल  दस साल पहले बनना चाहिए था, वो आज उद्घाटित हो रहा है, उस देरी  की  जो कु-ख्याति  नेता को मिलनी  चाहिए थी, उसकी बजाए नेता सारा श्रेय अपनी झोली में डाल  लेता है. 

बिजली का आविष्कार  हुए सालों हो गए, आज तक बहुत से गाँवों में बल्ब नहीं जला . यह है राजनेता की मेहनत का फल. वो बीच में न होता तो यह काम कब का हो चुकता. असल में तो तुरत हो जाना चाहिए था. 

खैर, एक मिसाल देता हूँ भविष्य की. एक छोटी दिखने वाली इन्वेंशन कैसे दुनिया बदल सकती है, समझ आना चाहिए. 

आपको पता ही होगा हाइब्रिड कारें आ चुकी हैं.  ये बैटरी पर भी चलती हैं और पारम्परिक ईंधन पर भी. 

बैटरी चार्ज करने में समय लगता है और बिजली भी. 

आपको मोबाइल फ़ोन घण्टों चार्ज करना पड़ता है. ठीक. 
खबर आम है कि  जल्द ही ऐसा होने वाला है कि  फ़ोन मिनटों में चार्ज हो जाएंगे.

मेरा मानना है कि ऐसा हो ही जाएगा. वक्ती बात है बस. न सिर्फ मोबाइल फ़ोन, बल्कि हर चीज़ जो चार्जिंग मांगती है, वो ऐसे ही चार्ज होगी. मिनटों में. 

और यह छोटी से दिखने वाली खोज दुनिया में गहरे राजनीतिक  और सामाजिक बदलाव लाएगी. कैसे? बताता हूँ. 

दुनिया की पेट्रोल-डीज़ल की ज़रूरत तेज़ी से घटेगी, प्रदूषण घटेगा और साथ ही अरब मुल्कों की पेट्रो-डॉलर ताकत घटेगी और फिर घटेगा इनका दखल यूरोप और अमेरिका और बाकी कई मुल्कों में, जहाँ  ये इस्लाम फैलाने की फिराक में हैं. 

इस आविष्कार के चलते दुनिया में बहुत कुछ बदलेगा, बेहतरी आएगी और सारा श्रेय, सारा क्रेडिट ले जाएगा आपका राजनेता, जिसे कक्ख नहीं पता कि यह सब हो क्या रहा है, होगा कैसे.  

खैर, नक्कार-खाने में एक बार फिर से तूती  बजा चला हूँ.नमन... तुषार-कॉस्मिक 

Friday 13 January 2017

Bold मतलब क्या?

सोशल मीडिया पर माँ-बहन की गालियों से हर पोस्ट को अलंकृत करना बोल्ड हो गया है. अरविन्द को 'अरविन्द भोसड़ी-वाल' और मोदी समर्थकों को 'मोदड़ी के' लिखना गर्व का विषय माना जाने लगा है. Jolly LLB फिल्म का एक गाना है, "मेरे तो L लग गए......" बप्पी लाहिड़ी साहेब ने गाया है. L मतलब लौड़े. जब इत्ता गा दिया था, यह भी गा ही देना था. सनी देओल की फिल्म है 'मोहल्ला अस्सी'. बैन है वैसे तो लेकिन देख ली मैंने. इस फिल्म में एक डायलाग प्रसाद की तरह बंटता है. और वो है, "भोसड़ी के." 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' जैसी घटिया फिल्म एक कल्ट फिल्म बन जाती है, चूँकि उसमें गालियों की भरमार है."कह के लेंगे." क्या लेंगे? मन्दिर का प्रसाद? नहीं. वो ही जानें, जिन्होंने यह डायलॉग लिखा. वैसे 'मादर-चोद' शब्द लंगर की तरह बंटा है फिल्म में. यू-ट्यूब पर कुछ सीरीज इस लिए मशहूर हो रही हैं कि बनाने वाले नंगी गालियाँ दिखाने की हिमाकत कर रहे हैं. एक छोटी लड़की है मल्लिका. उसके विडियो में आखिरी टैग-लाइन मालूम है क्या है? "भाग भोसड़ी के." AIB एक मशहूर youtube चैनल है. All India Bakchod. बस चोद लो सरे-आम. "सही खेल गया भैन्चोद", यह एक और मशहूर youtube चैनल BB ki Vines वाले भुवन बाम की tagline है. वाह! बोल्ड होना कितना आसान, कितना सस्ता हो गया है. अगर यही बोल्ड होना है तो यह बोल्डनेस गली के हर नुक्कड़ पर भरपूर मौजूद है. आपको एक दूजे की माँ-बहन ताश पत्तों के साथ पीटते बहुत लोग मिल जायेंगे. शाहिद कपूर की बहुत पहले एक फिल्म थी "कमीने". अभी-अभी ताज़ा ही है एक फिल्म “हरामज़ादा”. और “फुद्दू” नाम से एक फिल्म भी आ चुकी. एक दूजे को "चूतिया, फुद्दू" कहते हैं....जैसे मैडल बाँट रहे हों. आलिया भट्ट शाहिद कपूर को “फुद्दू” कहती है फिल्म “उड़ता पंजाब” में. और शाहिद कपूर तो अपने बाल ही इस ढंग से कटाता है कि वहां छप जाता है Fuddu, किसी को कोई शक ही न रहे. तनिक विचार करें, असल में हम सब "चूतिया" हैं और "फुद्दू" है, सब योनि के रास्ते से ही इस पृथ्वी पर आये हैं, तो हुए न सब चूतिया, सब के सब फुद्दू. और हमारे यहाँ तो योनि को बहुत सम्मान दिया गया है, पूजा गया है.....जो आप शिवलिंग देखते हैं न, वो शिव लिंग तो मात्र पुरुष प्रधान नज़रिए का उत्पादन है, असल में तो वह पार्वती की योनि भी है, और पूजा मात्र शिवलिंग की नहीं है, "पार्वती योनि" की भी है. हमारे यहीं असम में कामाख्या माता का मंदिर है, जानते हैं किस का दर्शन कराया जाता है, माँ की योनि का, दिखा कर नहीं छूआ कर. और हमारे यहाँ तो प्राणियों की अलग-अलग प्रजातियों को योनियाँ माना गया है, चौरासी लाख योनियाँ, इनमें सबसे उत्तम मनुष्य योनि मानी गयी है.....योनि मित्रवर, योनि. और यहाँ मित्रगण ‘चूतिया-चूतिया’ कहते रहते हैं! जीवन में जस-का-तस जो है, वो दिखाना ही बोल्ड होना यदि है, तो फिर आप और आगे बढिए स्कूलों में भी ऐसा ही सब पढ़ा दीजिये. मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम के लेखन की जगह माँ-बहन की इज्ज़त में चार-चाँद लगाने वाला साहित्य पढ़ायें, मिल जाएगा भरपूर. और स्कूलों में ही क्यूँ? अपने पूजा-स्थलों में भी सुनाये जाने वाले किस्से-कहानियां को इन्ही अलंकारों से सुसज्जित कर दीजिये. क्या दिक्कत? इडियट! भूल जाते हैं कि शौच भी किया जाता है ओट में. टट्टी शब्द का अर्थ ही है पर्दा, ओट. जीवन में बहुत कुछ ऐसा है, जो है, लेकिन अगर बदबूदार है तो हम उसे छुपा देते हैं, मंदिर में नहीं सजाते. मंदिर में अगर-बत्ती लगाई जाती है ताकि चौ-गिर्दा खुशबू से महक उठे. तो मित्रवर, बोल्ड होने का मतलब बदलिए. एक मतलब मैं दे देता हूँ. सामाजिक मूर्खताओं से टकराइये, हो सकता हैं छित्तर पड़ें, लेकिन हिम्मत रखिये. यही बोल्डनेस है. तथास्तु! नोट ----ऊपर जो गालीनुमा शब्द प्रयोग किये उनको काँटा निकालने के लिए प्रयोग किया गया काँटा समझिये. अन्यथा आप मेरी किसी भी पोस्ट में शायद ही गाली या अपशब्द पायें. मैं बहुत ही शरीफ बच्चा हूँ, दाल-दाल कच्चा हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday 12 January 2017

'आर्ट्स' की वापिसी

दसवीं में स्कूल में टॉप किया था मैंने और अंग्रेज़ी में तो शायद पूरी स्टेट में. कुछ ख़ास नहीं आती थी लेकिन अंधों में काना राजा वाली स्थिति रही होगी. 

सबको उम्मीद थी कि मैं मेडिकल में या नॉन-मेडिकल में जाऊंगा. नॉन-मेडिकल में इंजीनियर बनते थे और मेडिकल में डॉक्टर. लेकिन मुझे तो न डॉक्टर बनना था और न ही इंजीनियर. मैं अपनी ज़िन्दगी के चार-पांच साल वो सब पढ़ने में नहीं लगाना चाहता था जो मैं पढ़ना नहीं चाहता था. 

मुझे साहित्य और फिलिसोफी और साइकोलॉजी, ऐसे विषयों में रूचि थी. खैर, आर्ट्स में आ गया. मात्र दो महीने पढ़ के प्रथम डिविज़न से पास होता रहा. बाकी समय लाइब्रेरी और रीडिंग सेंटर के नाम. जो पढ़ सकता था, पढ़ गया उन सालों में. 

खैर, उन दिनों  आर्ट्स में  वो छात्र जाते थे, जो परले दर्जे के निकम्मे माने जाते थे. जिनके बस का कुछ नहीं था.  आर्ट्स के विद्यार्थिओं के करियर की अर्थी निकल चुकी मानी जाती थी. 

स्थिति आज भी कुछ बदली नहीं है. आज भी डॉक्टरी, वकालत , चार्टर्ड-अकाउंटेंसी  की पढ़ाई करने वाले ही  कीमती माने जाते हैं.  और आर्ट्स पढने वाले आवारा, नाकारा. 

आर्ट्स, जहाँ से पोलिटिकल और सामाजिक शिक्षा होनी है. वो शिक्षा, जो समाज को इतना उन्नत कर सकती है कि आपको वकीलों, डॉक्टरों और चार्टर्ड-अकाउंटेंट की जरूरत ही न रहे या कम से कम रह जाए. लेकिन सारा जोर डाक्टर, वकील आदि बनने पर है. उनकी इज्ज़त है, उनको पैसा मिलता है. 

बेचारा आर्ट का स्टूडेंट बेरोजगार रहता है, बेज़ार रहता है. किताबें काली करता  रहे, पढता रहे, लिखता रहे, कौन पूछ रहा है?

ऐसा क्यूँ है? 


चूँकि सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था चोरों-डकैतों ने हाईजैक कर ली है. 
कहते रहें कि जनतंत्र है. जनता की सरकार, जनता द्वारा, जनता के लिए. न तो यह जनता की सरकार है और न ही जनता द्वारा बनाई जाती है और न ही जनता के लिए काम करती है.  


यह अमीरों, राजा लोगों की सरकार होती है. जनता में से तो कोई उम्मीदवार जीतना ही लगभग असम्भव है. ऐसा उम्मीदवार,  जो हो सकता है कोई परचून की दूकान चलाता हो लेकिन रात को खूब पढता हो और पढ़-पढ़ कर मुल्क के हालात बदलने के प्लान बनाता हो (आपको मालूम हो शायद कि दुनिया की बहुत सी इजाद आम लोगों ने की हैं).......कोई ट्यूशन पढ़ाने वाला, जो आसमान में रात को तारे देखता हो लेकिन दिन में ज़मीन पर भी तारे देखना चाहता हो, देश-दुनिया को खुशियों के तारों से जगमगाना चाहता हो.......कोई ब्लॉगर हो, जो सिर्फ  ब्लॉग ही नहीं लिखना चाहता, अपने शब्दों के अर्थों  को लोगों में उतरते देखना चाहता है.   लेकिन  जब जनता, असल जनता में से कोई उम्मीदवार मैदान में उतर ही  नहीं सकता तो फिर जनता की बेहतरी की उम्मीद भी कैसी?

सो 'लोकतंत्र' नाम का एक ड्रामा खेला जा रहा है. अब इस ड्रामे के सूत्रधार क्यूँ चाहेंगे कि समाज में कुछ बदले? चूँकि अगर कुछ बदला तो ये लोग गौण होते  जायेंगे. सो सामाजिक शिक्षा, राजनीतिक शिक्षा, साहित्य इन सब को हाशिये पर धकेल दिया गया है. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी.

लेकिन कब तक? यह सब बैक-डोर से आ धमका है. सोशल मीडिया द्वारा.

और याद रखियेगा, अगर समाज में, देश-दुनिया में कोई बदलाव आएगा, बेहतरी आयेगी तो वो सोशल मीडिया के ज़रिये आयेगी. क्रेडिट चाहे कोई भी ले जाए, लेकिन पीछे सोशल मीडिया द्वारा पैदा की गयी चेतना होगी.

बहुत देर तक जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा पायेगा. काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ेगी. वो समय गया जब दशकों तक कुछ नहीं बदला और लोग फिर भी एक ही पार्टी को चुनते रहे. अब काम करके ही दिखाना होगा, चाहे कोई भी हो.

तथा नए लोग आयेंगे, नई विचार-धाराएं आयेंगी, नई व्यवस्थाएं आयेंगी. बहुत देर तक कोई इस बदलाव को नहीं रोक पायेगा. 

तो जब आप किसी नेता को हीरो बनाने लगें तो 'आर्ट्स' को धन्यवाद दीजियेगा और कंप्यूटर-इन्टरनेट-सोशल मीडिया  इजाद करने वालों को भी धन्यवाद ज़रूर दीजियेगा, जिनकी बदौलत 'आर्ट्स' फिर से रोज़मर्रा के जीवन में आ धमका है.


नमन

Wednesday 11 January 2017

नागरिकता यानि सिटीजनशिप यानि क्या?

मुझे हमेशा 'नागरिकता' और  'सिटीजन-शिप', ये दोनों  शब्द उलझन में डाल देते हैं. जो लोग ग्रामीण होते हैं, वो नागरिक नहीं होते क्या? 

अंग्रेज़ी में तो  'कंट्री' शब्द ही गाँव के लिए प्रयोग होता है. बहुत पहले हम क्रॉस कंट्री दौड़ लगाया करते थे. तब तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया इस शब्द पर. लेकिन आज मतलब पता है.  गाँवों में से दौड़ते हुए जाना.


किसी दौर में गाँव ही कंट्री था. मेरा गाँव, मेरा देश. लेकिन फिर नगर बस गए. तो नागरिकता ही राष्ट्रीयता हो गई. सिटीजन-शिप  मतलब  नेशनलिटी. 


यहीं लोचा  है, हमने नागरिकता को ग्रामीणता से, कस्बाई जीवन से, आदिवासी जीवन से, वनवासी जीवन से  बेहतर मान रखा है. शहरी-करण बाकी सब तरह के जीवन पर आच्छादित हो गया है. जबकि बहुत मानों में शहरीकरण ही इंसानियत की सब बीमारियों का जनक है. शहरीकरण मात्र जनसंख्या वृद्धि की मजबूरी है. 


यही वजह है कि  जिसे 'कंट्री-शिप' कहना चाहिए उसे हम 'सिटीजन-शिप' कहते हैं. और मेरे लिए तो और भी दिक्कत है. मुझे जब कोई परिचय पूछता है तो खुद को भारत का नागरिक बताते हुए उलझन में पड़ जाता हूँ. मैं तो खुद को 'कॉस्मिक' मानता हूँ, वो जो कॉसमॉस यानि ब्रह्मांड से ही सम्बन्ध मानता है खुद का. ज़र्रे-ज़र्रे से. कैसे कहूं कि मैं हूँ कौन? बुल्ला की  जाणा मैं कौन? 


खैर, खुद को 'तुषार कॉस्मिक' कह कर काम चलाता हूँ.  

"नोट-बन्दी से प्रॉपर्टी नहीं होगी सस्ती"

वहम है कि नोट-बंदी से प्रॉपर्टी सस्ती हो जायेगी. प्रॉपर्टी में हूँ सालों से. कुछ नहीं होगा. लोग रेट कम कर ही नहीं रहे. कौन अपनी करोड़ों रुपये की जायदाद रातों-रात आधी कीमत पर बेचने को राज़ी होगा?

 जिसकी कोई ज़बरदस्त ज़रूरत हो तो बेच भी जाए, लेकिन  ऐसे लोग तो पहले भी औने -पौने में बेच जाते थे. बावज़ूद उसके बगल वाली प्रॉपर्टी उससे सवाये रेट पर बिकती थी. बगल वाली क्या उसी  प्रॉपर्टी को खरीदने वाला सवाई ढेड़ गुणा कीमत पर बेच जाता था.


सो अभी लोग इंतज़ार करेंगे. कौन जाने अढाई साल बाद सरकार बदल जाए. नई पालिसी आ जाए. 


और खरीदने वाले को भी कैसे कुछ सस्ता मिलेगा? वो अगर एक करोड़ रुपये की प्रॉपर्टी को तीस लाख रुपये में दिखाता था तो आज उसे अगर वही प्रॉपर्टी सत्तर लाख रुपये में मिल भी जाए तो जो चालीस लाख रुपये वो पहले से ज़्यादा वाइट में दिखा रहा है उस पर टैक्स नहीं भरेगा क्या? 


कोई खास फर्क नहीं है खरीदने वाले को. वो पहले सारा धन बेचने वाले को देता था, अब अगर बेचने वाले को थोड़ा कम दिया भी तो जितना कम देगा, उससे कहीं ज़्यादा सरकार को टैक्स देना होगा.


सो नतीजा निल-बटा-सन्नाटा.

खुद की जय करें. बेबाक.

आपको बता दिया गया कि खुद की प्रशंसा  नहीं करनी चाहिए. अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना. और आप अपना गुण बताना गुनाह मानने लगे.

बात काफी कुछ सही है, खुद को हर कोई तीस क्या, तीस करोड़-मारखां ही समझता है. 


लेकिन एक पहलु और भी है. हम अक्सर अपनी वो क्वालिटी भी प्रदर्शित करने में या कहने में झिझकने लगते हैं जो कि वाकई हम में हैं, इस डर से कि हमें घमंडी न मान लिया जाए.

मेरा मानना यह है कि पहले एक तृतीय व्यक्ति की तरह, थर्ड परसन की तरह की खुद के गुण-अवगुण आंकें. निष्पक्ष अवलोकन. है तो मुश्किल, लगभग असम्भव, लेकिन फिर भी कोशिश करें. और फिर अगर खुद में कुछ भी काबिल-ए-तारीफ़ पाएं तो उसे बताने में, कहने में मत चुकें. समझने दें, जिसे जो समझना हो.

दूसरों की जय से पहले, खुद की जय करें. बेबाक़.


चैलेंज करे कोई तो अपना पक्ष मजबूती से रखें.

That-is-it.

सिखाया तो यह भी गया था कि सदा सच बोलें लेकिन भगत सिंह से अंग्रेज़ों ने साथियों का पता पूछा हो तो सच बोलना चाहिए उनको?

बचपन में बहुत कुछ अंट-शंट सिखाया गया है.  मौका है सफाई का. झाड़-झखाड-उखाड़ का.

मेरे साथ रहें, खुददे काफी कुछ उड़ जाएगा, बाकी आप खुद इतने सक्षम हो जाएंगे कि आगे धूल धुलती रहे.
I agree to dis-agree and  dis-agree to agree because anyone can be right or wrong at any point at any point of time. 

Tuesday 10 January 2017

A Holy-shit is shittier than any other shit.

FIR की परिभाषा

FIR मतलब  'फर्स्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट '. लेकिन थानों में तो पूरी कोशिश की जाती है कि मामले को या तो लिखा ही नही जाए और अगर लिखा भी जाए तो रोज़नामचा में चढ़ा के निबटा दिया जाए. सो FIR फर्स्ट इनफार्मेशन तो कम ही मौकों पर  साबित होती है. वो तो सेकंड या थर्ड इनफार्मेशन ही बनती है. परिभाषा बदलनी चाहिए. नहीं?

8 Shortest stories, with beautiful meanings----Whats-app Gyan

(1) Those who had coins, enjoyed in the rain.
Those who had notes, were busy looking for shelter.

(2) Man and God both met somewhere,
Both exclaimed ...
"My creator"

(3) He asked are you-"Hindu or Muslim"
Response came- I am hungry

(4) The fool didn't know it was impossible. ...
So he did it.

(5) "Wrong number", Said a familiar voice.

(6) What if, God asks you after you die ....
"So how was heaven??"

(7) "They told me that to make her fall in love I had to make her laugh. 
But every time she laughs, I am the one who falls in love."

(8) We don't make friends anymore, We Add them nowadays.

हम उस देश के वासी हैं

हम उस देश के वासी हैं, जहाँ सड़क ही स्पीड-ब्रेकर का काम करती है.
स्पीड-ब्रेकर नहीं गाड़ी-ब्रेकर का काम  भी करती है.


हम उस देश के वासी हैं, जिसमें कुछ भी नहीं बासी है. यहाँ तो हर साल रामलीला भी नए ढंग से पेश की जाती है.

हम उस देश के वासी हैं, जिसके वासी इतने धार्मिक हैं कि सड़कों पर ही नमाज़ पढ़ते हैं, लंगर चलाते हैं, शोभा-यात्राएं निकालते हैं और हर आने-जाने वाले को धार्मिक रंग में रंगने का मौका देते हैं.


हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में  गंगा बहती है, इतनी पवित्र कि हज़ारों गंदे नाले भी उसमें गिर कर पवित्र हो जाते हैं.

बाकी आप जोडें ...............

इन्सान सबसे ज़्यादा बुद्धिमान प्राणी समझा जाता है. है क्या?

शर्लाक होल्म्स जिस समय में दिखाए गए हैं , लन्दन की सड़कों पर घुड-गाड़ियाँ चलतीं थी.  बग्घियां. समस्या एक ही  रहती थी. सड़कों पर लीद ही लीद हो जाया करती.

फिर कार, स्कूटर आदि इन्वेंट हो गए. लोगों ने सुख की सांस ली. लेकिन जल्द ही अगली समस्या आ गई. सब तरफ वायु प्रदूषण फैलने लगा. 


दिल्ली में गाँव अधिकांश हरियाणा के जाटों के हैं. जाट हैं या कौन हैं मालूम नहीं, लेकिन कहते सब खुद को जाट हैं.  मैं तो नहीं मानता जात-पात-जाट-पाट को लेकिन अगले मानते हैं. बड़ा दबदबा है इनका. कोई चूं नहीं कर पाता इनके इलाकों में. किरायेदार इनके नाम से ही मकान-दूकान खाली कर जाते हैं. इनसे लिया कर्ज़ा कोई मार नहीं सकता. लेकिन दबदबे का एक नुक्सान भी है इनको. इनके इलाकों में ज़मीन की कीमत कभी उतनी नहीं रहती जितनी होनी चाहिए.  जल्दी से कोई बाहर का व्यक्ति इन गाँवों  में प्रॉपर्टी लेना पसंद नहीं करता. 


ट्रैफिक जाम जानते हैं कैसे होते हैं? सयाने लोग अपनी साइड छोड़ सामने से आने वाले वाहनों की साइड में चलने लगते हैं. ज़्यादा सयाने हैं न. बेवकूफ तो वो होते हैं जो अपने हाथ ही रहते हैं और धीरे-धीरे सरकते हैं. ये सयाने न सिर्फ अपनी साइड का ट्रैफिक जाम कर देते हैं बल्कि सामने से आने वालों को भी जाम कर देते हैं. बंटाधार.


इन्सान सबसे ज़्यादा बुद्धिमान प्राणी समझा जाता है. है क्या? मुझे शंका है. गहन.

Sunday 8 January 2017

“इस्लाम के खतरे और इलाज”

इस्लाम का पर्दाफ़ाश ज़रूरी है.
लेकिन यह नहीं लगना चाहिए कि हम हिन्दू या किसी भी और बेवकूफी के तरफ़दार हैं. लगना क्या हम किसी भी और बेवकूफी के समर्थक होने ही नहीं चाहिए, चाहे कितनी भी  पवित्र समझी जाती हो. A Holy-shit is shittier than any other shit.

चर्च ने भी बहुत निर्दोष मरवाए, लेकिन वो दौर खत्म हो चुका.
वहां सुधार की लहर चली, और चर्च को सरकार से अलग किया गया.

यहाँ भारत में भी सैद्धांतिक रूप से धर्म और सरकार अलग हैं लेकिन असल में मन्दिर
, मस्ज़िद, गुरुद्वारा ही सरकार में हैं.

मुस्लिम अक्सर कहते हैं कि इस्लामिक आतंकवाद के फैलने में मुख्य हाथ अमेरिका का है..... इससे मैं असहमत हूँ. इस्लाम तो शुरू ही तलवार के जोर से हुआ.

और अमेरिका की बेवकूफी है निश्चित ही जो कुछ पंगे लिए.......लेकिन इस्लाम के पास पेट्रो-डॉलर की ताकत बढ़ते ही उसने यूरोप को नचा दिया और अमेरिका को नचाने पर आमदा है.

इस्लामिक जो सारा दोष अमेरिका पर देते हैं, वो बकवास है.

अमेरिका के दखल से पहले और बाद---दुनिया का इतिहास कुछ और बताता है.

और वो कुछ और यह है कि इस्लाम दुनिया की सबसे खतरनाक सिद्धांतों में से एक है.

कुरान में सब साफ़ लिखा है.....बस उसे घुमाने का प्रयास किया जाता है, लेकिन असलियत समझने के लिए बहुत अक्ल नहीं चाहिए.

सारा नाटक ही यही है कि कुरआन का तजुर्मा आपने गलत किया.

सब साफ़ है.....बस लोग इस्लाम पर अपनी मान्यताएं थोपने लगते हैं...जैसे “ईश्वर, अल्लाह, तेरो नाम”......अब अल्लाह तो 
 कुरआन में बहुत कुछ ऐसा भी कहता है कुरआन में जो काफ़िरों के लिए यानि इस्लाम को न मानने वालों के लिए घातक है...फिर?

जैसे “हिन्दू
-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आपस में भाई-भाई”.
ये ऐसी  मान्यतायें है, जिन्हें इस्लाम खुद नहीं मानता. उसमें किसी और मज़हब को मानने वाले की कोई गुंजाइश नहीं. ज़ाकिर नायक ग़लत थोड़ा न कहता है यहाँ. 
और तर्जुमा सब हाज़िर है....कुछ गलत नहीं.
सब ऑनलाइन मौजूद है.
और इस्लाम कोई धर्म है भी? बड़ी गलतफहमी है.
यहाँ तक की अमेरिका, इंग्लैंड और भारत का संविधान भी 
गलत-फहमी का शिकार है कि इस्लाम कोई धर्म है.

आज बहुत विचारक इस बात पर भी जोर दे रहे हैं कि इस्लाम को रिलिजन की परिभाषा से बाहर किया जाए.

इस्लाम एक सामाजिक व्यवस्था, जो अपने ही कायदे-कानून के हिसाब से जीना चाहती है.

इस्लाम एक militia है.

इस्लाम जिहाद में यकीन रखता है. पता नहीं जिहाद का मायने क्या हैं? मुझे तो लगता है जब आप सोते-सोते दांत साफ़ करने को उठ ही पड़ते हैं तो यह भी आपने खुद की काहिली के खिलाफ़ एक जिहाद की और जीत गए.

खैर, मुस्लिम का सीक्रेट हथियार है----जनसंख्या विस्फोट.
किसी भी समाज में घुसो और वहां जैसे भी, तैसे भी मुसलमान ही मुसलमान कर दो. आसान तरीका है बच्चे बढ़ाना

अब इसके जवाब में बेवकूफ हिन्दू यह उदघोषणा करते रहते हैं कि हिन्दू भी जनसंख्या बढायें. मतलब सब मिल कर आत्म-हत्या करें, अकेले मुसलमान ही क्यूँ करें?

मुस्लिम के सीक्रेट हथियार का इलाज यह नहीं है कि हिन्दू भी जनसंख्या बढाए, उसका इलाज है जनसंख्या की राशनिंग. वो और भी बहुत वजहों से ज़रूरी है लेकिन एक वजह यह भी है.
तो यह  भी देखना ज़रूरी है कि कोई धर्म छदम राजनीतिक प्रयोजन न ही हो, जैसा कि इस्लाम है.
किसी  धर्म में निहित सामाजिक कायदे कानून  देश-प्रदेश के कायदे कानून से टकराते हुए न हों, जैसे कि इस्लाम के हैं.
कोई धर्म दूसरे धर्मों के खिलाफ हिंसा न सीखा रहा हो, जैसा कि इस्लाम सिखाता है.
यदि ऐसा हो तो फिर ऐसे धर्म को संविधान के हिसाब से अगर धर्म माना जाता रहेगा तो वह इस संवैधानिक  छूट का नाजायज़ फायदा उठाएगा, जैसा इस्लाम करता है.
इस्लाम संविधान में धर्म की तरह दर्ज़ होता है और वो सब काम संवैधानिक छूट के नाम परवैधानिक छूट के नाम पर करता है जो पूरी सामाजिक ढाँचे को खतरे में डाल देते हैं.


खतरा समझा जाने लगा है पूरी दुनिया में. ट्रम्प और मोदी को मोटा-मोटी  उसी खतरे से बचने के लिए चुना है दुनिया ने. लेकिन इससे एक और खतरा है दुनिया को. एक बेवकूफी से बचने के लिए दूसरी बेवकूफी में न पड़ जाएं. चक्र-व्यूह.

मेरे ख्याल से सब तरह की बेवकूफियों से आज़ादी के पक्ष में जो खड़े हों उनको सपोर्ट करने की ज़रूरत है.

आज़ादी के दौर में बहुत सी विचार-धाराएं थी.
जिन्ना को हिन्दू खतरा लगता था.
अम्बेडकर को सवर्ण खतरा बड़ा लगता था.
कांग्रेस को सब घाल-मेल पसंद था. ईश्वर अल्लाह तेरो नाम. 
संघ को सबसे बड़ा खतरा मुस्लिम और ईसाई इन्वेसन लगता था.

नतीजा सामने है----पाकिस्तान बना, आरक्षण आया, कांग्रेस ने दशकों राज किया, और अब संघ हावी है.
भारत में ज्यादातर लम्बी दाढ़ी वाले (और कुछ बिना दाढ़ी के भी ) बकवास लोग पैदा हुए.
इस बीच भारत ने कुछ ग्रेट लोग पैदा किए लेकिन दुर्भाग्यवश ओझल हो गए. ओझल  कर दिए गए. 
खुशवंत सिंह, ओशो, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई,  रेशनलिस्ट सोसाइटी के लोग. कितने ही लेखक, कवि, फिल्म-मेकर. मैं तो सुलभ शौचालय चलाने वालों को भी महान मानता हूँ. थोड़ा खोजेंगे तो अनेक नाम मिल जायेंगे ऐसे लेकिन हाशिये पर छूटे हुए.   
कहने का मतलब है कि कांग्रेस, संघ और बाकी राजनीतिक विचार-धाराओं की वजह से इस समाज के चिंतकों की चिंता नहीं ली गई.

खुशवंत सिंह ने ता-उम्र लिखा. उनका लिखा, स्कूलों में पढ़ाया जाता है. एक सदी का जीवन. ऐसे भुला दिया गया जैसे वो थे ही नहीं.

दाभोलकर, कलबुर्गी जैसों को तो कत्ल ही कर दिया गया. कहानी खत्म.

ओशो, जिन्हें आज दुनिया समझ रही है, जितनी गालियाँ भारत से उनको मिली, शायद ही किसी को मिली होंगी.

यहाँ तो बस चिप्पी लगा दी जाती है कि फलां कम्युनिस्ट है,फलां ये है, फलां वो है. वाम-पंथी है, इसका चेला, उसका चेला. कहानी खत्म.

यह दुर्भाग्य है. ये लोग, 
ओशो, खुशवंत सिंह, कुल्बुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, हरी-शंकर परसाई आदि ज़रूरी नहीं सब जगह सही हों. लेकिन ये भारत के चिन्तक हैं. चिंता लेते हैं भारत की. बहुत कुछ सही भी है इनके लेखन में. कथन में.

भारत को इनकी ज़रुरत है. दुनिया को इनकी ज़रूरत है.

वरना न दुनिया का भविष्य है और न ही भारत का.करते रहो, हैप्पी न्यू इयर. वो तो हैप्पी तभी होगा जब कुछ नया सोचने की कोशिश करेंगे.

नमन...कॉपी राईट

Friday 6 January 2017

Tushar – Generating AIDS Awareness

https://staroftheday.wordpress.com/2009/06/04/tushar-generating-aids-awareness/

Tushar
Dubbed as the most deadly ailment human body has ever fought, scientists have been running a race against time for years now to find a cure to the deadly human immunodeficiency virus (HIV) that causes acquired immunodeficiency syndrome (AIDS). The manners in which this lethal virus can infect (sexual intercourse, use of infected needles, saliva and vaginal secretion of infected individuals and from HIV-infected mother to baby) makes the human body more vulnerable to it.
This – coupled with the fact that there is no cure yet available – has woken up the world to generate more and more awareness to prevent this fatal disease from spreading. Unfortunately, India is still fighting hard to do that, thanks to the increasing poverty and relatively low literacy levels. However, our “Star of the Day’ today is doing every bit to do that in a manner that is unique in itself but well thought out and can do wonders if the government lends its ear to it.
Hailing from a conservative background, Mr. Tushar has started a movement that calls for “No Marriage Without Health Check-up” – which is also the slogan for his campaign“White Rumaal” (handerkchief). When asked what does this mean and how he thought of starting this, he narrates the following story.
“One of my close friends married her only child, a 21-year-old daughter, to a supposedly sought-after NRI groom. Just after 3 months into her marriage, the girl flew back home, completely distraught with her state of affairs. The reason she gave sent the whole family into a state of shock. She said that an incidental medical report of her husband has found him to be HIV positive. Fearing the worst, she also got herself tested for the same and was also found to be HIV positive, which she contracted from her husband. Today that girl is no more and her father, who was one of my closest friends, couldn’t bear the loss and died soon after.”
The incident changed Tushar’s perception towards the disease that until this time was something he often heard about in media. Being father of a daughter himself, Tushar couldn’t stop himself from starting a movement that would generate awareness against the disease. That’s how ‘White Rumaal’ was born.
He is trying to spread the word around through blogs (www.whiterumaal.wordpress.com), newspapers, TV channels, peaceful demonstrations, etc; and then once the campaign gathers momentum and strength, he will knock at the door of lawmakers to make health checkup a lawful compulsion before marriage.
Knowing how conservative the Indian society is, the idea may not find favor at once and could also face rebellion from some fundamentalists. Nevertheless, Tushar has done something that not many have thought of and for that he is our ‘Star of the Day’.