Wednesday 28 November 2018

मोदी का विकल्प हम हैं

मोदी का विकल्प ही नहीं यार......क्या  करें...............? मोदी को वोट देना तो नहीं चाहते लेकिन उस पप्पू को वोट दें फिर क्या.......?

जब आप ऐसा कुछ कहते हैं...सोचते हैं...तो समझ लीजिये कि आप छद्म लोकतंत्र के शिकार हैं.....आप समझते हैं कि लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ मोदी या राहुल गाँधी ही है...या फिर चंद और नकली नेता ही हैं.....

न.....मैंने पिछले विडियो में भी कहा था फिर से कहता हूँ........लोकतंत्र का अर्थ है लोगों का तन्त्र......लोगों द्वारा बनाया हुआ ...लोगों के लिए....ठीक? तो फिर अगर यह तन्त्र लोगों द्वारा ही बनाया जाना है तो फिर यह कैसे मोदी बनाम राहुल बन गया?

तो फिर कैसे मोदी का विकल्प राहुल ही रह गया?

नहीं.....अगर मोदी नकारा साबित हुए हैं तो फिर विकल्प राहुल नहीं है...विकल्प डेढ़ सौ करोड़ भारत की जनसंख्या में से कोई भी प्रतिभाशाली व्यक्ति हो सकता है? क्या एक भी व्यक्ति  भारत माता ने पैदा नहीं किया जो मोदी से बेहतर राजनीतिक सामाजिक सोच रखता हो....प्लान रखता हो....सद-इच्छा रखता हो?

न ..यह कहना कि मोदी का कोई विकल्प नहीं..क्या डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का अपमान नहीं है?

है...सरासर है......याद रखिये यह जो आपको चंद धन्ना सेठों की राजनीतिक गुलामी दी जा रही है न लोकतंत्र के नाम पर..इसे खत्म कीजिये...एक से एक विकल्प मिलेंगे मोदी के...एक से एक बेहतरीन व्यक्ति....


इस मोदी और राहुल की ब्रांडिंग से परे सोच कर देखिये...सोचिये कि क्या यह लोकतंत्र है कि देश दो लोगों की नूर कुश्ती में उलझा रहे? 

समझिये कि जब आप से कहा जाता है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं तो असल में आपसे कहा जा रहा है कि इस नकली लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है......इस धन्ना सेठों की पकड़-जकड़ वाले लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है......इस कॉर्पोरेट-मनी के गुलाम लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है....इस मीडिया-ब्रांडिंग वाले लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है.....


ठीक है...हमें इस तरह के लोकतंत्र में मोदी का कोई विकल्प चाहिए भी नहीं...हमें इस तरह का लोकतंत्र चाहिए भी नहीं...हमें इस तरह का लोकतंत्र ही नहीं चाहिए.....हमें असल लोकतंत्र चाहिए.....जिसमें एक मोची भी प्रधान-मंत्री बन सके..बस उसके पास हमारे मुल्क के लिए प्लान होना चाहिए.

नमस्कार.......धन्यवाद 

यात्रा:-- नकली लोक-तन्त्र से असली लोक-तन्त्र की ओर


“हमारा लोक-तन्त्र नकली है”


चुनावी माहौल है. भारत में चुनाव किसी बड़े उत्सव से कम नहीं है. गलियां, कूचे, चौक-चौबारे नेताओं के चौखटों से सज जायेंगे. मीटिंगें शुरू हो जायेंगी. भीड़ की कीमत बढ़ जाएगी. हर जगह उसकी मौजूदगी जो चाहिये. खाना-पीना मुफ्त, साथ में दिहाड़ी भी मिलती है. और सम्मान भी. चाहे नकली ही. लाउड स्पीकर का शोर सुनेगा जगह जगह. “जीतेगा भाई जीतेगा....” मैं सोचता हूँ जब सब जीतेंगे ही तो हारेगा फिर कौन? 

खैर, लोक-तन्त्र है. कहते हैं भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तन्त्र है. लेकिन गलत कहते हैं. नहीं है. लोक-तन्त्र के नाम पर पाखंड है.
मज़ाक है लोक-तन्त्र का. चौखटा लोक-तन्त्र का है लेकिन असल में है राज-तन्त्र, धन-तन्त्र. ये जो नेता बने हैं, इनमें कितने ही ऐसे हैं जिनका किसी न किसी राज-परिवार से सम्बन्ध है. कितने ही ऐसे हैं जिनका बड़े कॉर्पोरेट से सम्बन्ध है. 

लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. Democracy is the Government of the people, by the people, for the people. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता, अपने लिए बनाता, जो आम-जन का ही है. फिर से सुनें. लोक-तन्त्र का अर्थ क्या है? लोगों का तन्त्र, लोगों द्वारा बनाया गया, लोगों के लिए. राईट? यानि ऐसा सिस्टम, ऐसा निज़ाम जो आम जन बनाता है, अपने लिए बनाता है, जो आम-जन का ही है.

यह है परिभाषा लोक-तन्त्र की. क्या भारत का लोक-तन्त्र इस परिभाषा पर खरा उतरता है? क्या यह जो तन्त्र है, इसमें आम व्यक्ति चुनाव जीत  सकता हैं कितने ही विचार-शील हो कोई...कितनी ही गहन सोच रखता हो.....कितने ही सूत्र हों उसके पास इस समाज को सुधारने के...फिर भी बिना अंधे पैसे के वो चुनाव में कैसे कूदेगा? कूदेगा तो कैसे जीतेगा? 

लगभग असम्भव है. है कि नहीं?

तो फिर यह लोक-तन्त्र कैसे लोक-तन्त्र हुआ?

किसे बेवकूफ़ बना रहे हो लोक-तन्त्र के नाम पर? पहले अरबों-खरबों रूपया पानी की तरह बहा दोगे ताकि चुनाव जीत पाओ, फिर उससे कई गुणा लूटोगे, इसे लोक-तन्त्र कहते हैं?

बड़े आराम से हमें समझाया जाता है कि लोक-तन्त्र का अर्थ बेस्ट व्यक्ति चुनना नहीं है बल्कि सब घटिया लोगों में से सबसे कम घटिया व्यक्ति चुनना है. लानत है! सबसे कम घटिया चुनने का ही प्रावधान जो सिस्टम देता हो, वो कैसे अपनाए हुए हैं हम लोग? उसका सेलिब्रेशन कैसे कर सकते हैं हम लोग?

क्यों नहीं हम प्रयास करते कि हमारे समाज को बेहतरीन से बेहतरीन लोग मिलें? किसकी ज़िम्मेदारी है यह?

 मेरी ज़िम्मेदारी है, आपकी ज़िम्मेदारी है कि हम बेवकूफों की तरह वोट देने तक ही खुद को सीमित न रखें. राजनीति में आम आदमी का दखल क्या बस इतना ही होना चाहिए कि वो पांच साल बाद वोट दे और फिर पांच साल तक परित्यक्त सा नौटंकी-बाज़ों को झेलता रहे? 

इस भ्रम से बाहर आयें कि हम लोक तन्त्र में जी रहे हैं. न यह लोक तन्त्र है ही नहीं. तो पहली बात समझ लीजिये कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. जी, यही कहा मैंने कि हमारा लोक-तन्त्र लोक-तन्त्र नहीं है. और जब यह लोक-तन्त्र ही नहीं है तो फिर इस तथा-कथित लोक-तन्त्र के तहत बना कोई भी प्रधान-मंत्री, मुख्य-मंत्री, संतरी हमारा नुमाईन्दा नहीं है. हमारा मंत्री-हमारा संतरी नहीं है. 


“नकली लोकतंत्र को असली लोक-तन्त्र में कैसे बदलें?”

चुनाव कैसे हो?

मैं प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ. यदि किसी ने कोई मकान बनवाना होता है तो वो अलग-अलग बिल्डरों को बुलवाता है. फिर उसके अपने मकान में, बिल्डर ईंट, सीमेंट, टाइल, पत्थर कैसा लगवाएगा उसकी डिटेल लेता है, कितने समय में बना के देगा, वो पूछता है. 

फिर अग्रीमेंट तैयार किया जाता है जिसमें सब बारीकी से लिखा जाता है. लेट होने की स्थिति में बिल्डर जुर्माना कितना भरेगा, वो लिखा रहता है. और बिल्डर यदि काम रोक दे, काम कर ही न पाए तो उसकी छुट्टी करने का प्रावधान भी लिखा रहता है. 

एक मकान बनाना और एक राष्ट्र बनाना. मकान बनवाने में हम जितनी एहतियात बरतते हैं राष्ट्र निर्माण में उसका एक प्रतिशत भी नहीं ख्याल नहीं रखते. राष्ट्र के मामले में हम सिर्फ ब्रांडेड शक्लों को वोट देते हैं. जो वादा करती हैं और फिर सरे आम मुकर जाती हैं. साफ़ कह जाती हैं ये शक्लें “अरे वो तो चुनावी जुमला था.” यानि चुनाव के मौसम में कुछ भी बका जा सकता है. मकसद सिर्फ वोट हासिल करना था. वाह!

याद रखना तुम वोट देते नहीं, वो वोट लेते हैं. छीनते हैं. जैसे गाय दूध देती नहीं, तुम दूध छीनते हो. ठीक वैसे ही. 

तो हल सीधा है.  हमें शक्लों की, दलों की ब्रांडिंग खत्म करनी है. हमें चुनावी शोर खत्म करना है. हमें चुनावी खर्च खत्म करना है. 

हमें राष्ट्र निर्माण करना है. तो हम सिर्फ इन नेता-गण से राष्ट्र का बिल्डिंग प्लान लेंगे. 

सबसे पहले तो सब पार्टी-बाज़ी खत्म. कोई दल नहीं होगा, ये सब दल नहीं दल-दल हैं. सब निरस्त. और वोट किसी व्यक्ति को नहीं मिलेगा. प्लान को मिलेगा. हर पांच साल बाद चुनाव के एक महीने पहले भावी राजनेता अपना-अपना प्लान पेश करेंगे. जिस काम के लिए व्यक्ति चाहिए, उसी काम के लिए प्लान लिया जायेगा. स्वास्थ्य मंत्री चाहिए तो स्वास्थ्य के लिए प्लान लिया जायेगा. साफ़-सफाई के लिए मंत्री चाहिए तो उसके लिए प्लान लिया जायेगा. मान लीजिये हमें निगम पार्षद चाहिए तो उसका काम है नालियाँ, सडकें, गलियां इनका रख-रखाव. उसके लिए उसका किसी दल से जुड़ा होना क्या ज़रूरी है? वो अपना प्लान पेश करे कि क्या विकास करेगा, कैसे विकास करेगा, कितना पैसा उसे चाहिए होगा, कितने समय में क्या करेगा. साथ में तीन-चार सौ रुपये फीस भी रखी जा सकती है ताकि व्यर्थ के लोगों को थोड़ा दूर रखा जा सके.

ये प्लान सीनियर अध्यापक-गण मिल कर चेक करेंगे. 

कॉपी पेस्ट किये गए सब प्लान निरस्त होंगे. 
किसी भी प्लान पर प्लान देने वाली की कोई पहचान अंकित नहीं होगी. 
प्लान में कोई भी मन्दिर-मस्जिद की बात नहीं होगी, कोई जात-पात की बात नहीं होगी. मात्र विकास की बात होगी. 

जो-जो प्लान पास हो जाते हैं, वो सब जनता के सामने आखिरी एक हफ्ते में पेश कर दिए जायेंगे, टीवी के ज़रिये, रेडियो के ज़रिये, अख़बार के ज़रिये. कोई नेता रैली नहीं करेगा, कोई मीटिंग नहीं करेगा, कोई भाषण नहीं करेगा. आखिरी हफ्ता मुल्क छुट्टी मनायेगा. दिए गए प्लान पर विचार करेगा और वोट करेगा. और वोट सेल-फोन के ज़रिये भी किया जा सकेगा. व्यक्ति का कोई खास महत्व नहीं. प्लान का है. लोग वोट प्लान को देंगे. 

जो-जो प्लान पहले पांच नम्बरों पर चुने जायेंगे, उनको भेजने वाले व्यक्तियों के पॉलीग्राफ टेस्ट होंगे, सबके नार्को टेस्ट होंगे ताकि पता लग सके कि जो प्लान वो दे रहे हैं, उस पर टिके रहने के इच्छुक हैं भी कि नहीं. पास होने वाले व्यक्तियों से अग्रीमेंट लेंगे. एफिडेविट लेंगे. और काम पर लगा देंगे.

और यदि वो जो करने को कह रहा है, जितने समय में करने को कह रहा है नहीं कर पाता तो उस व्यक्ति को दी गई सारी सुविधायें खत्म, उसकी जनता की नुमाईन्द्गी अगले दस साल के लिए खत्म. सिम्पल.

“असल लोक-तन्त्र की कार्य-विधि”

१.असल लोक-तन्त्र में प्लान ही महत्व-पूर्ण होना चाहिए प्लान देने वाला व्यक्ति गौण होना चाहिए. मिसाल लीजिये, जब बिल्डिंग बनती है तो बिल्डर या आर्किटेक्ट वहां हर वक्त खड़े नहीं रहते, उनका बस सुपर-विज़न रहता है. ऐसा ही राष्ट्र निर्माण में होना चाहिए. प्लान एक बार चुना जाये तो जिस व्यक्ति ने दिया वो बस ऊपरी देख-भाल करे. और यदि उतना करने में भी वो सक्षम नहीं तो उसके बाद जो भी लोगों को सबसे ज्यादा वोट मिलें उनको मौका मिले बशर्ते वो उस प्लान पर काम करने को तैयार हों. 

२. क्या यह सम्भव है कि बिल्डर अपनी मर्ज़ी से बिल्डिंग का नक्शा बदल दे? लेकिन यहाँ तो होता है ऐसा. नेता वादा करता है विकास का, नौकरियां देने का, महिला सुरक्षा देने, कीमतें घटाने का और पॉवर में आकर शहरों के नाम बदलने पर जोर देता है, ऊंची-२ मूर्तियाँ निर्माण करने लगता है,  सिलिंडर की कीमत डबल कर देता है, पेट्रोल डीजल के रेट बढ़ा देता है. न. चुना गया प्लान नहीं बदला जायेगा मात्र इस वजह से कि जिसने दिया था वो मर गया, बीमार हो गया, बे-ईमान हो गया. न. अगर आपका बिल्डर मर जाये तो क्या बिल्डिंग नहीं बनेगी? क्या बिल्डिंग प्लान आप बदल देंगे. क्या आधी बनी बिल्डिंग को तोड़ के दुबारा बनायेंगे कि बिल्डर भाग गया छोड़ के. नहीं न. आप दूसरा बिल्डर पकडेंगे और आगे का काम फिर से शुरू करवा देंगे. क्या आपकी रज़ामंदी के बिना बिल्डर बिल्डिंग प्लान बदल सकता है क्या? नहीं न. तो राष्ट्र के मामले भी ऐसा ही होना चाहिए. तो इसके लिए ज़रूरी है कि जो उसने शुरू में प्लान में दिया था उससे हट के वो कुछ भी करने का हकदार न हो और यदि करे तो पहले पब्लिक से उसकी सहमति ले. तभी तो इसे लोक-तन्त्र कहेंगे. नहीं तो वो कुछ भी करता रहेगा. कुल मतलब यह है कि पब्लिक की भागीदारी मात्र वोट देने तक सीमित न रखी जाये.

३. अब आगे. जब हम बिल्डिंग बनवाते हैं तो क्या बिल्डर पर अँधा विश्वास करते हैं कि वो जो मर्ज़ी करता रहे? उसने  अगर टाइल अस्सी रुपये प्रति फुट की लिख के दी है अग्रीमेंट में तो क्या हम देखते नहीं कि जो टाइल लगवाई जा रही है, वो अस्सी रुपये प्रति फुट की है कि नहीं? क्या हम नहीं देखते कि अगर उसने अपने अग्रीमेंट में जैगुआर की टॉयलेट फिटिंग लिख दी है लगाने को तो वो लगा रहा है कि नहीं. देखते हैं न. न सिर्फ देखते हैं बल्कि साथ जा कर खरीदते हैं. पसंद से खरीदते हैं. लेकिन हम क्या करते हैं राष्ट्र निर्माण में? एक बार चुन लिया मंत्री-संतरी, अब वो जो मर्ज़ी डील करता रहता है. किसी को नहीं पूछता. जनता को पता ही नहीं लगने देता कौन से हवाई जहाज़ क्यों खरीदे, कितने के खरीदे? 

४. आज-कल जब बिल्डिंग बनती है तो CCTV लगाये जाते हैं...दिन रात रिकॉर्डिंग चलती है जिसे बिल्डर या मालिक कहीं भी, कभी भी देख सकता है. कैसे कोई हेराफेरी कर जायेगा? बहुत मुश्किल है. यहाँ हम ने सारा निज़ाम खुले-छुट्टे सांड की तरह छोड़ रखा है. हम नेता को, नौकर-शाह को तनख्वाहें बांटते हैं बस. नहीं. हर नेता, हर नौकर-शाह कैमरे के तले होना चाहिए. उसकी हर गति-विधि जनता के सामने हो. जो भी जनता से सम्बन्धित है वो. कोई डील वो बिना रिकॉर्डिंग के नहीं करेगा. बस. आपको लोकपाल बनाने की ज़रूरत ही न पड़ेगी. आपको नकली नेता ढूँढने की ज़रूरत ही न पड़ेगी चूँकि ऐसे सिस्टम में आयेगा ही वही जो असल में कुछ काम करना चाहता है. आज जो सिस्टम हमने बना रखा है लोक-तन्त्र के नाम पर, उसमें इतने छिद्र हैं कि हमें चोर-उचक्के ही मिलेंगे. हमें भाषण-बाज़ ही मिलेंगे. हमें हिन्दू-मुसलमान करने-कराने वाल ही मिलेंगे. आप थोड़ी देर के लिए ट्रैफिक-लाइट हटा लें, गदर हो जायेगा चौक पर. जिसका जैसे मन करेगा वैसे निकालेगा अपनी गाड़ी. सो दोष सिस्टम को दीजिये. नेताओं को मत दीजिये.वो तो  वही करेंगे जो करने का आपका सिस्टम उनको मौका दे रहा है. आप ट्राफिक लाइट ठीक कर दीजिये, ट्रैफिक दुरुस्त हो जायेगा. आप छिद्र बंद कर दीजिये, आपके नेता सीधे हो जायेंगे.

५. चलिए, अगर बिल्डिंग प्लान के मुताबिक आपका बिल्डर काम नहीं करता तो आप क्या करते हैं? क्या उसे उसकी मन-मर्ज़ी से बिल्डिंग बनाने देंगे? नहीं न. आप उस बिल्डर को ही बदल देंगे. बस बिल्डिंग प्लान लीजिये, प्लान को वोट कीजिये, अपने नेता, अपने नौकरों को CCTV तले रखें, जो प्लान के मुताबिक काम न करे उसे बदल दीजिये. आपको सही लोक-तन्त्र मिलेगा. एक कम्पलीट पैकेज. मुझे नहीं लगता कि इस तरह से सोचा गया है आज तक. हो सकता है सोचा गया हो. इससे बेहतर सोचा गया हो. आप भी सोचिये. ये कुछ सुझाव हैं. आप अपने सुझाव भी दीजिये. जब पकवान बेस्वाद हो तो नए तरीके से बनाना चाहिए. ज़रूरी नहीं मेरे बताये तरीके ही अंतिम हों, आप भी सोच सकते हैं. मिल-जुल कर नया पकवान बनाया जा सकता है. बेहतरीन. स्वादिष्ट. healthy. स्वस्थ लोक-तन्त्र. सही अर्थों में लोक-तन्त्र. 

“NOTA कोई हल नहीं है”

आज तक आपके ऊपर लोकतंत्र के नाम पर एक अज़ीब व्यवस्था थोपी गई है. NOTA से भी कुछ नहीं होगा. NOTA दबाने का अर्थ है कि आपने अपनी राय रख दी बस कि आपको कोई भी कैंडिडेट पसंद नहीं. न हो पसंद. आप दबाते रहो. जो ज्यादा वोट पायेगा, वो फिर भी चुना ही जायेगा. फिर क्या फायदा हुआ NOTA का. NOTA से कुछ फायदा न होता.

“आखिरी रास्ता यही है”

यकीन जानें, आपके सब चुनाव वर्तमान व्यवस्था में फेल होंगे. कोई सरकार आये, कोई जाये कोई फर्क न पड़ेगा. और ये जो कहा जा रहा है न कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है, गलत है सरासर. यह अपमान है डेढ़ सौ करोड़ भारतीयों का, उनकी अक्ल का. ऐसा क्या है मोदी में कि उनसे ज्यादा कोई काबिल ही नहीं. न. ऐसा कुछ भी नहीं है. मेरे बताएं ढंग पर चलें...एक से एक व्यक्ति मिलेंगे. वैसे भी मेरे तरीके में व्यक्ति गौण है.....प्लान ही महत्वपूर्ण है. व्यक्ति रहे न....रहे...प्लान रहेगा...और प्लान पर काम वाले तो अनेक काबिल लोग मिल जायेंगे. 

तो फिर आपके पास क्या रास्ता है. आप क्या कर सकते हैं? क्या यह लेख पढ़ने मात्र को है. भूल जाने को है. नहीं. आप सुप्रीम कोर्ट को लिखें कि हमें सही लोक-तन्त्र दें. चुनाव आयोग को भेजे. आप अखबार को भेजें. सोशल मीडिया में आवाज़ उठाएं. बार-बार आवाज़ उठाएं. मेरे लेख, मेरे विडियो को सब जगह भेजें. यकीन जानिये, बदलाव आयेगा, ऐसा बदलाव जिसे हमने चाहा है लेकिन आज तक पाया नहीं है. 

अब आखिरी बात.....मैं समाज के लिए सोचता हूँ...लिखता हूँ....बोलता हूँ...तो क्या समाज भी मेरे लिए सोचेगा यदि हाँ, तो फिर डोनेट करें मुझे...ताकि मैं और समय दे सकूं सामाजिक कामों को....और अच्छा-अच्छा सोच सकूं, लिख सकूं, बोल सकूं और नए-नए समाजिक प्रयोग करने में सहायक हो सकूं.........तो डोनेट करें दिल खोल के, जितना आप कर सकते हैं.........जितना ज्यादा से ज़्यादा कर सकते हैं उतना.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday 2 November 2018

BE SELECTIVE

मुझ से बहुतेरों को शिकायत है कि मैं उनसे बहस क्यों नहीं करता? उनसे भिड़ता क्यों नहीं? उनको मुझ से भिड़ने का मौका देता क्यों नहीं? वाज़िब शिकायत लगती है. मेरा जवाब है, "भय्ये, मेरा समय मेरा है. मैं नहीं लगाना चाहता आपके साथ. मेरी मर्ज़ी." फिर सवाल उठता है कि क्या मैं सिर्फ 'हाँ'-'हाँ' करने वाले ही अपने गिर्द रखना चाहता हूँ? जवाब यह है कि मैं सिर्फ 'न'-'न'-'न', करने वालों से दूर रहना चाहता हूँ, उनको दूर रखना चाहता हूँ. और बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो बीच में कहीं होते हैं. जिनकी 'हाँ' या 'न' पहले से तय नहीं है, जिनका कोई फिक्स एजेंडा नहीं है. इन लोगों के लिए होता है मेरे जैसे लोगों का प्रयास. इनको मेरे शब्दों से कोई मदद मिल सकती है. जो पहले से ज्ञानी है, वो तो महान हैं ही. और जो पहले से ही किसी विचार-धारा विशेष को खाए-पीये हैं, हज़म किये बैठे हैं, वो महानुभाव हैं. वो सोशल मीडिया पर बस हगने आये हैं, उनके भी मैं किस काम का? सो ऐसे लोगों के साथ मैं समय नहीं लगाता. किसान भी बीज डालने से पहले देखता है कि ज़मीन उपजाऊ है कि नहीं. पथरीली बंजर ज़मीन पर बीज नहीं डाले जाता. हल कहाँ चलाना है? सोचता है. मेहनत कहाँ लगानी है? देखता है. बंजर ज़मीन तो फिर मेहनत करके उपजाऊ बनाई जा सकती है लेकिन इंसानी दिमाग जो बंजर हो, उस पर तो अक्ल का पौधा उगाना लगभग नामुमकिन है. मेरा काम है 'प्रॉपर्टी डीलिंग' का. हमें सिखाया जाता है, "ग्राहक भगवान का अवतार है." "Customer is always right." लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. इसमें भी मै बहुत सेलेक्टिव हूँ. हरेक कस्टमर के साथ अपना समय लगाने को कभी भी तैयार नहीं रहता. चाहे कस्टमर कष्ट से मर ही जाए. मेरी बला से. भारत में ऐसा माना जाता है कि 'प्रॉपर्टी डीलर' लोगों को मूर्ख बनाते हैं. लेकिन मेरा तो तजुर्बा यह है कस्टमर भी कोई कम नहीं है. जहाँ जिसका दांव चल जाए बस. चूँकि यहाँ कस्टमर की 'प्रॉपर्टी डीलर' के साथ कोई लिखित कमिटमेंट तो होती नहीं, सो कस्टमर प्रॉपर्टी डीलर से सब सीखता है, उसे खूब घुमाता है, उसका तन-मन-धन खराब करवाता है और फिर उसे ड्राप कर देता है. तो मैं बहुत सेलेक्टिव हूँ. कस्टमर थोड़ा भरोसेमंद दिखे तो ही सीट से उठता हूँ. ज़्यादातर तो 'डिस्प्यूटेड प्रॉपर्टी' में डील करता हूँ, उसमें आम डीलर का कोई दखल ही नहीं होता. सो मैदान खाली. करना है मुझसे डील करो. नहीं करना तो भी करना मुझ से पड़ेगा या मुझ जैसे ही किसी से करना पड़ेगा. टिंग. टोंग. यह है अपने ढंग. ढोंग. अंग्रेज़ी की कहावत है. "Garbage in, Garbage Out." यानि कूड़ा-करकट अंदर फेंकोगे तो कूड़ा-करकट ही बाहर निकलेगा. हिंदी का शब्द है 'आहार'. इसका मतलब भोजन नहीं है. इसका मतलब है जो कुछ भी हम अपने भीतर डालते हैं, वो. वो सब आहार है. बकवास विचार, जो हम फेसबुक, you-tube, ब्लोग्स पर पढ़ते-सुनते हैं, उनसे बचें. कूड़ा अंदर न डालें. सावधान रहिये. कुल मतलब यह कि चाहे ऑनलाइन रहो, चाहे ऑफलाइन. थोड़ी अक्ल लगाओ. जीवन के दिन, घंटे, पल सीमित हैं. हरेक इडियट के साथ खराब मत करो. संदेश है मेरा, "Be Selective." तो हे पार्थ. गांडीव उठाओ और अपने ऑनलाइन और ऑफलाइन जीवन से सब बकवास लोग दूर कर दो. नमन...तुषार कॉस्मिक

Tuesday 23 October 2018

माहवारी- स्त्री- मंदिर

मेरी समझ है कि मन्दिरों में माहवारी के दिनों औरतों को रोकना महज़ इसलिए रखा गया होगा चूँकि पहले कोई इस तरह के पैड आविष्कृत नहीं हुए थे, जन-जन तक पहुंचे नहीं थे........सो मामला मात्र साफ़ सफाई का रहा होगा. आज इस तरह की रोक की कोई ज़रूरत नही. अब सवाल यह है कि क्या आज इस तरह के मंदिरों की भी ज़रूरत है, जहाँ के पुजारी मात्र गप्पे हांकते हैं, बचकाने किस्से-कहानियाँ पेलते हैं? अब इस मुल्क की औरतों को इन मंदिरों को ही नकार देना चाहिए, जहाँ ज्ञान-विज्ञान नहीं अंध-विश्वास का पोषण होता है. महिलाओं को इन मंदिरों में घुसने की बजाए इन मंदिरों के बहिष्कार की ज़िद्द करनी चाहिए.

Monday 22 October 2018

Biological Waste (जैविक कचरा)

Biological Waste (जैविक कचरा). शायद ही पढ़ा हो आपने कहीं ये शब्द. जब पढ़े नहीं तो मतलब भी शायद ही समझें. 'ब्लू व्हेल चैलेंज'....यह ज़रूर पढ़ा होगा आपने. इस खेल को खेलने वाले बहुत से लोगों ने आत्म-हत्या कर ली. पकड़े जाने पर जब इस खेल को बनाने वाले से पूछा गया कि क्यों बनाई यह खेल? एक खेल जिसे खेलते खेलते लोग जान से हाथ धो बैठें, क्यों बनाई? जवाब सुन के आप हैरान हो जायेंगे. जवाब था, "जो इस खेल को खेलते हुए मर जाते हैं, वो मरने के ही लायक होते हैं. उनका जीवन निरर्थक है. वो Biological Waste (जैविक कचरा) हैं. और मैं कचरा साफ़ करने वाला हूँ." ह्म्म्म..........क्या लगा आपको? यह ज़रूर कोई फ़िल्मी विलेन है. नहीं. मेरी नज़र में यह व्यक्ति बहुत ही कीमती है. और वो जो कह रहा है, वो बड़ा माने रखता है. अब ये जो लोग मारे गए, अमृतसर में रावण जलता देखते हुए. कौन हैं ये लोग? Biological Waste (जैविक कचरा). इनके जीने-मरने से क्या फर्क पड़ता है? इनका क्या योग दान है इस धरती को? इस कायनात को? बीस-पचास साल इस धरती का उपभोग करते. खाते-पीते-हगते-मूतते और अपने पीछे अपने जैसों की ही फ़ौज छोड़ जाते. इंसानियत को, जंगलात को, हवा को, पानी को, पशुओं को, पक्षियों को, कायनात को क्या फायदा था इनके होने से? कौन सा साहित्य रच जाते? कौन सा गीत-संगीत दे जाते इस दुनिया को?कौन सा ज्ञान -विज्ञान प्रदान कर जाते? मूर्ख लोग. जिनकी अक्ल मात्र बचकानी चीज़ों में अटकी है, जिनको होश नहीं कि वो खड़े कहाँ हैं? खड़े क्यों हैं? ऐसी भीड़ का क्या फायदा? सो ज्यादा चिल्ल-पों न मचाएं. "होई वही जो राम रच राखा." "भगवान-जगन नाथ के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता. जीवन मरण सब उस के हाथ है." "जिसकी जितनी लिखी होती है, वो उतने ही साँस लेता है, न एक पल ज्यादा न कम. बाकी आप सब खुद समझ-दार हैं. मुझे तो वो ट्रेन और 'ब्लू व्हेल चैलेंज बनाने वाले एक ही जैसे दीखते हैं. Biological Waste (जैविक कचरा) साफ़ करने वाले. नमन...तुषार कॉस्मिक

उत्सव-धर्मिता

आपको पता है हम उत्सव क्यों मनाते हैं......? चूँकि हमने जीवन में उत्सवधर्मिता खो दी. चूँकि हमने दुनिया नरक कर दी कभी बच्चे देखें हैं.......उत्सवधर्मिता समझनी है तो बच्चों को देखो.... हर पल नये...हर पल उछलते कूदते.....हर पल उत्सव मनाते क्या लगता है आपको बच्चे होली दिवाली ही खुश होते हैं.......? वो बिलकुल खुश होते हैं....इन दिनों में.......लेकिन क्या बाक़ी दिन बच्चे खुश नही होते? कल ही देख लेना ....यदि बच्चों को छूट देंगे तो आज जितने ही खेलते कूदते नज़र आयेंगे यह है उत्सवधर्मिता जिसे इंसान खो चुका है और उसकी भरपाई करने के लिए उसने इजाद किये उत्सव ...होली...दीवाली...... खुद को भुलावा देने के लिए ये चंद उत्सव इजाद किये हैं........खुद को धोखा देने के लिए...कि नहीं जीवन में बहुत ख़ुशी है ..बहुत पुलक है......बहुत उत्सव है. नहीं, बाहर आयें ..इस भरम से बाहर आयें...समझें कि दुनिया लगभग नरक हो चुकी है......हमने ..इंसानों ने दुनिया की ऐसी तैसी कर रखी है कुछ नया सोचना होगा...कुछ नया करना होगा ताकि हम इन नकली उत्सवों को छोड़ उत्सवधर्मिता की और बढ़ सकें वैसे तो जीवन ही उत्सवमय होना चाहिए, उत्सवधर्मी होना चाहिए, लेकिन विशेष उत्सव जो भी मनाये जाएँ, वो मात्र इसलिए नहीं कि हमारे पूर्वज मनाते थे या हम मनाते आ रहे हैं....मनाते आ रहे हैं...... मिस्टर वाटसन एक रेस्तरां में इसलिए खाना खाते आ रहे हैं पिछले तीस साल से चूँकि उनके पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे चूँकि उनके पिता के पिता उसी रेस्तरां में खाना खाते थे. क्या कहेंगे आप? बहुत बुद्धि का काम कर रहे हैं मिस्टर वाटसन? लोग कांग्रेस को इसलिए वोट देते रहे चूँकि वो कांग्रेस को ही वोट देते आ रहे थे? ऐसे तर्कों को आप कितना तार्किक कहेंगे? है न मूर्खता! लेकिन आप भी तो वही करते हैं. उत्सव इसलिए मनाते हैं चूँकि बस आप मनाते आ रहे हैं...आपके बाप मनाते आ रहे हैं. न.न. उत्सव मनाएं लेकिन थोड़ा जागिये. थोड़ा विचार कीजिये. पुराने किस्से-कहानियों को संस्कृति के नाम पर मत ढोते चलिए. उत्सव मनाने हैं तो नई वजह खोज लीजिये. क्या दीवाली पर एडिसन या निकोला टेस्ला को याद नहीं किया जा सकता जिन्होंने इस दुनिया को रोशन करने में योगदान दिया? कल ही मैं पढ़ रहा था कि गूगल ने लच्छू महाराज को याद किया. वाह! क्या तबला बजाते थे! मैं उनको देख-सुन कर दंग! ऐसे लोगों की याद में उत्सव मना सकते हैं. गणित में रूचि हने वाले रामानुजन की जयंती का उत्सव मना सकते हैं. गायन में रूचि रखने वाले नुसरत फतेह अली की याद में गा सकते हैं. नृत्य में रूचि रखने वाले मित्र 'वैजयन्ती माला' की जन्म-जयंती मना सकती हैं. हम अपने कलाकारों, वैज्ञानिकों की याद में रोज़ उत्सव मना सकते हैं. हम हर पल उत्सव मना सकते हैं. हम बिना वजह के उत्सव मना सकते हैं. बस उत्सव के नाम पर मूर्खताएं न करते जाएँ और ये मूर्खताएं मात्र इसलिए न करते जायें कि आप करते आये हैं, आपके बाप करते आये हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday 15 October 2018

~~ इन्सान--एक बदतरीन जानवर~~

"बड़ा अजीब लगता है जब मैं लोगों को यह सब कुछ धर्म के नाम पर ये सब करते देखती हूँ। ये तीज त्योहार हैं दीवाली, नवरात्रि,दशहरा, फ़ास्टिंग इत्यादि।बहुत अच्छा है ये सब करना, हम सभी करते हैं। इन सब बातों से बचपन की यादें जुड़ी होती हैं।बस ये भाव और स्मृतियाँ हैं।धीरे धीरे यही भाव और स्मृतियाँ सामाजिक कुरीतियाँ भी बन जाती हैं। एक तो पैसे की बर्बादी होती है उसपे वातावरण ख़राब,ट्रैफ़िक की अव्यवस्था,उधार ले के भी त्योहार मनाओ।कभी सोचा कि यदि हम भारत में ना पैदा हो के चीन में पैदा हुए होते तो सांप का आचार खा के चायनीज़ नए साल के समारोह में ड्रैगन के आगे नाच रहे होते। माइंड के खेल, ये ऐसा कंडिशन करता है कि हम एक चेतना की जगह कोई भारतीय,कोई बुद्धिस्ट,कोई बिहारी कोई पंजाबी हो जाता है। कभी ग़ौर फ़रमाया कि यदि आप इस माहौल में ना जन्मे होते तो क्या ये सब फ़िज़ूल काम करते।हम बस एक समझ हैं, एक चेतना हैं एक वो माँस की मशीन हैं जो सब कुछ सेन्स करती है समझती है। कोल्हू का बैल, धोबी का कुत्ता हमने नासमझी से स्वयं को बनाया है और अब उसी में ख़ूब ख़ुश हो के बन्दर की तरह नाच रहे हैं कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहा रहे हैं। बुरा लग रहा है मुझे अपने आप को इन मासूम जानवरों के साथ कम्पेर करना।क्यूँकि ये बेचारे तो अपने स्वरूप में जीते हैं।कभी देखा कुत्ता बारात ले कर जा रहा है किसी बकरी पे बैठ के और उसके दोस्त शराब पी कर बन्दूकें चला रहे हैं। कभी देखा किसी बैल की शादी में गाय के पिता को कन्यादान करके आँसू बहाते हुए? कभी देखा बिल्ली को देवर और ससुर जिससे वो परदा करती हो? कभी किसी बंदरिया को अपनी शादी में मेहन्दी लगाते देखा। हम मनुष्य सबसे क्यूट जानवर बिलकुल भी नहीं हैं।मैं अक्सर अपनेआप को इन जानवरों की चेतना और आँखों से देखती हूँ।मुझे स्वयं में कुछ भी उनसे बेहतर नज़र नहीं आता।" By Veena Sharma Ji the Gr........8 --::: अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो :::-- उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो. और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह? कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही. तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है. अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!! खैर, इन्सान भी जानवर है बिलकुल ...जिसमें जान है, वो जानवर है.......लेकिन एक फर्क है....बाकी जानवर 'पशु' हैं यानि पाश में हैं....बंधे हैं...बंधे हैं प्रकृति से......उनके पास बहुत कम फ्रीडम है......उनके पास चॉइस बहुत कम है........इन्सान के पास बुद्धि ज़्यादा है सो उसके पास चुनाव की क्षमता भी ज़्यादा है...इतनी ज़्यादा कि वो कुदरत के खिलाफ भी जा सकता है......सुनी होगी कहानी आपने भी कि कालिदास या फिर तुलसी दास से जुड़ी है.....जब वो लेखक नहीं था तो इत्ता मूर्ख था कि एक पेड़ पर चढ़ उसी शाख को काट रहा था जिस पर बैठा था वो भी उधर से जिधर से कटने के बाद वो खुद भी धड़ाम से नीचे गिर जाता......कहते हैं कि उसे तो अक्ल आ गई लेकिन इन्सान को वो अक्ल नहीं आई....वो इत्ता ही मूर्ख है कि जिस कुदरत के बिना वो जी नहीं सकता उसे ही नष्ट करने लगा है.....सो यह है चुनाव की क्षमता जो इन्सान को पशुता से बाहर ले जाती है.....लेकिन दिक्कत यह है कि इस चुनाव में वो पशुता से भी नीचे गिर सकता है, गिरता जा रहा है....... इन्सान भी जानवर है बिलकुल -- लेकिन एक बदतरीन जानवर है. इलाज है. इलाज है अपनी लगी बंधी मान्यताओं के खिलाफ पढ़ना, लिखना, सोचना शुरू करो. अपनी मान्यताओं पर शंका करनी शुरू करो. अपने नेता, अपने धर्म-गुरु, अपने शिक्षकों के कथनों पर शंका करो, सवाल करो. दिए गए सब जवाबों पर सवाल करो. अपने सवालों पर भी सवाल करो. यही इलाज है. तुषार कॉस्मिक....नमन

Thursday 11 October 2018

धूप-स्वास्थ्य-ज्ञान

ज़ुकाम को मात्र ज़ुकाम न समझें......यह नाक बंद कर सकता है, कान बंद कर सकता है, साँस बंद कर सकता है. पहले वजह समझ लें. थर्मोस्टेट. थर्मोस्टेट सिस्टम खराब होने की वजह से होता है ज़ुकाम. थर्मोस्टेट समझ लीजिये कि क्या होता है. 'थर्मोस्टेट' मतलब हमारा शरीर हमारे वातावरण के बढ़ते-घटते तापमान के प्रति अनुकूलता बनाए रखे. लेकिन जब शरीर की यह क्षमता गड़बड़ाने लगे तो आपको ज़ुकाम हो सकता है और गर्मी में भी ठंडक का अहसास दिला सकता है ज़ुकाम. और सर्दी जितनी न हो उससे कहीं ज्यादा सर्दी महसूस करा सकता है ज़ुकाम. खैर, अंग्रेज़ी की कहावत है, "अगर दवा न लो तो ज़ुकाम सात दिन में चला जाता है और दवा लो तो एक हफ्ते में विदा हो जाता है." दवा हैं बाज़ार में लेकिन कहते हैं कि ज़ुकाम पर लगभग बेअसर रहती हैं. तो ज़ुकाम का इलाज़ क्या है? इलाज बीमारी की वजहों में ही छुपा होता है. इलाज है, खुली हवा और खुली धूप. रोज़ाना पन्द्रह से तीस मिनट नंगे बदन सुबह की धूप ली जाये. मैं पार्क जब भी जाता हूँ तो धूप वाला टुकड़ा अपने लिए तलाश लेता हूँ. और बदन पर मात्र निकर. 'जॉकी' का भाई. ब्रांडेड. और व्यायाम और आसन शुरू. उल्लू के ठप्पे हैं लोग जो 'सूर्य-नमस्कार' भी करते हैं तो छाया में. अबे ओये, तुम्हें पता ही नहीं तुम्हारे पुरखों ने जो सूर्य-भगवान को पानी देने का नियम बनाया था न, वो इसलिए कि सूर्य की किरणें उस बहाने से तुम्हारे बदन पे गिरें. और तुम हो कि डरते रहते हो कि कहीं त्वचा काली न पड़ जाए. कुछ बुरा न होगा रंग गहरा जायेगा तो. बल्कि ज़ुकाम-खांसी से बचोगे. हड्ड-गोडे सिंक जायेगें तो पक्के रहेंगे. ठीक वैसे ही जैसे एक कच्चा घड़ा आँच पर सिंक जाता है तो पक्का हो जाता है. बाकी डाक्टरी भाषा मुझे नहीं आती. विटामिन-प्रोटीन की भाषा में डॉक्टर ही समझा सकता है. मैं तो अनगढ़-अनपढ़ भाषा में ही समझा सकता हूँ. हम जो ज़िंदगी जीते हैं वो ऐसे जैसे सूरज की हमारे साथ कोई दुश्मनी हो. एक कमरे से दूसरे कमरे में. घर से दफ्तर-दूकान और वहां से फिर घर. रास्ते में भी कार. और सब जगह AC. एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कोढ़ और फिर उसमें खाज. अबे ओये, कल्पना करो. इन्सान कैसे रहता होगा शुरू में? जंगलों में कूदता-फांदता. कभी धूप में, कभी छाया में. कभी गर्मी में, कभी ठंड में. इन्सान कुदरत का हिस्सा है. इन्सान कुदरत है. कुदरत से अलग हो के बीमारी न होगी तो और क्या होगा? उर्दू में कहते हैं कि तबियत 'नासाज़' हो गई. यानि कि कुदरत के साज़ के साथ अब लय-ताल नहीं बैठ रही. 'नासाज़'. अँगरेज़ फिर समझदार हैं जो धूप लेने सैंकड़ों किलोमीटर की दूरियां तय करते हैं. एक हम हैं धूप शरीर पर पड़ न जाये इसका तमाम इन्तेजाम करते हैं. "धूप में निकला न करो रूप की रानी.....गोरा रंग काला न पड़ जाये." महा-नालायक अमिताभ गाते दीखते हैं फिल्म में. खैर, नज़ला तो नहीं है मुझे लेकिन एक आयत नाज़िल हुई है:- "हम ने सर्द दिन बनाये और सर्द रातें बनाई लेकिन तुम्हारे लिए नर्म नर्म धूपें भी खिलाई जाओ, निकलो बाहर मकानों से जंग लड़ो दर्दों से, खांसी से और ज़ुकामों से." जादू याद है. अरे भई, ऋतिक रोशन की फ़िल्म कोई मिल गया वाला जादू. वो 'धूप-धूप' की डिमांड करता है. शायद उसे धूप से एनर्जी मिलती है. आपको भी मिल सकती है और आप में भी जादू जैसी शक्तियाँ आ सकती हैं. धूप का सेवन करें. क्या कहा! आपको यह सब तो पहले से ही मालूम था. गलत. आपको नहीं मालूम था. आपको मालूम था लेकिन फिर भी नहीं मालूम था. नहीं. नहीं. मजाक नहीं कर रहा. जीवन की एक गहन समझ दे रहा हूँ आपको. हमें बहुत सी चीज़ों के बारे में लगता है कि हमें मालूम है. लगता क्या? मालूम हो भी सकता है. बावज़ूद इसके हो सकता है कि हमें उन चीज़ों के बारे में कुछ भी न मालूम हो. कैसे? मिसाल के लिए एक पांचवीं कक्षा के अँगरेज़ बच्चे को अंग्रेज़ी भाषा पढनी आती हो सकती है लेकिन ज़रूरी थोड़े न है कि उसे शेक्सपियर के लेखन का सही मतलब समझ आ जाये. उसे शब्द सब समझ में आते हो सकते हैं, वाक्यों के अर्थ भी समझ आते हो सकते हैं लेकिन शेक्सपियर ने जो लिखा, उस सब का सही-सही मतलब उस बच्चे को समझ आये, यह तो ज़रूरी नहीं. वजह है. वजह यह है कि जितना बड़ा जीवन-दर्शन शेक्सपियर देना चाह रहा है अपने शब्दों में, उतना जीवन ही बच्चे ने नहीं देखा. हो सकता है आपने भी वो सब न देखा हो जो मैं दिखाना चाह रहा हूँ. घमंड नहीं कर रहा, लेकिन क्या आपने आज तक धूप को इलाज की तरह देखा? अगर नहीं तो मैं सही हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday 6 October 2018

रॉबिनहुड है हल

शायद आप के बच्चे होंगे या फिर आप किसी के बच्चे होवोगे.......पेड़ पे तो उगे नहीं होंगें. राईट? क्या ऐसा हो सकता है कि माँ-बाप अपने बुद्धिशाली-बलशाली बच्चे को ही सब बढ़िया खान-पान दें और जो थोड़े कमजोर हों, ढीले हों उनको बहुत ही घटिया खान-पान दें? हो सकता है क्या ऐसा? नहीं. हम्म...तो अब समझिये कि आप और मैं इस पृथ्वी की सन्तान हैं. पृथ्वी की नहीं बल्कि इस कायनात की औलाद हैं. हो सकता है हम में से कुछ तेज़ हों, कुछ ढीले-ढाले हों. तो क्या ऐसा होना सही है कि सब माल-मत्ता तेज़-तर्रार को ही मिल जाए? क्या यह सही है कि तेज़ तर्रार रहे कोठियों में और बाकी रहें कोठडियों में? सही है क्या कि तेज़ लोग कारों में घूमें और ढीले लोग उनकी कारें साफ़ करते रहें, पंक्चर बनाते रहें, पेट्रोल भरते रहें? दुरुस्त है क्या कि तेज़ लोग मीट खा-खा मुटियाते रहें और ढीले लोग उनकी रसोइयों में खाना बनाते रहें, बर्तन मांजते रहें? क्या कायनात, जो हमारी माँ है, हमारा बाप है, क्या वो ऐसा चाहेगी, वो ऐसा चाहेगा? अब आप अपने इर्द-गिर्द देखिये.....शायद कायनात ऐसा ही चाहती है. यहाँ हर कमजोर जानवर को ताकतवर जानवर खा जाता है. यही जंगल का कानून है. छोटी मछली को बड़ी मछली का जाती है. यही समन्दर का कायदा है. लेकिन इन्सान तक आते-आते कुदरत ने, कायनात ने, उसे फ्रीडम दी, आज़ादी दी. अब वो कहीं खुद-मुख्तियार है. वो सोच सकता है. वो चुन सकता है. वो चुन सकता है कि ऐसा समाज बनाये जिसमें कमज़ोर भी ढंग से जी पाए. और इन्सान ने ऐसा समाज बनाने का प्रयास भी किया है. असफल प्रयास. आईये देखिये. माँ-बाप तो अपने बच्चों की बेहतरी के लिए जीवन दे देते हैं, जान तक दे देते हैं. लेकिन यह दरियादिली सिर्फ अपने बच्चों तक ही क्यों? कुछ तो गड़बड़ है? गड़बड़ यही है कि इन्सान ने इंसानियत को सिर्फ अपने परिवार तक के लिए सीमित कर लिया है. वो लाख 'वसुधैव-कुटुम्बकम' के, 'विश्व-बंधुत्व' के गीत गाता रहे लेकिन उसकी सोच परिवार से आगे मुश्किल ही बढती है. नतीजा यह है कि पूरा इंसानी निज़ाम परिवार को बचाने में लगा है. परिवार की सम्पत्ति बचाने में लगा है. परिवार से बाहर आज भी जंगल का कानून है, परिवार के बाहर आज भी कमज़ोर आदमी को मारा जाता है. आप कहेंगे कि नहीं, हम सभ्य हैं. हमारे पास संविधान है, विधान है, पुलिस है, फ़ौज है, जज है, कोर्ट है. नहीं. सब बकवास है. यह सब निजाम इस बेहूदा सिस्टम को बचाए रखने के लिए है. जिसमें अमीर अमीर बना रहे और गरीब गरीब बना रहे. जिसमें कुदरत का जंगली कायदा चलता रहे. कुदरत का समंदरी कानून चलता रहे. फिर गलत क्या है? गलत यह है कि कुदरत ने इन्सान को अक्ल दी. अक्ल दी कि वो जंगली सिस्टम से कुछ बेहतर बनाए, समंदरी कायदे-कानून से ऊपर उठे. इन्सान ने बनाया लेकिन वो जो बनाया वो सिर्फ परिवार तक सीमित कर दिया. जो जज्बा, वो त्याग, वो खुद से आगे उठने का ज्वार, वो सब परिवार के लिए, बच्चों के लिए ही रह गया. और कुल मिला कर यह जंगल से भी बदतर हो गया. हम कंक्रीट का जंगल बन गए. हम समन्दर से गन्दला नाला बन गए. हमारी सभ्यता असल में तो यह सभ्यता है ही नहीं. हमारी सभ्यता असभ्य है. 'सभ्यता'. सिर्फ खुद को तसल्ली देने को शब्द घड़े हैं इन्सान ने. इस लिज़लिज़े से सिस्टम को सभ्यता कहना सभ्यता शब्द की खिल्ली उड़ाना है. हमारे पास कोई संस्कृति नहीं है. हम प्रकृति से नीचे गिर गए हैं. हम उलझ गए हैं. हम विकृत हो गए हैं. प्रकृति मतलब जंगल का कानून. मतलब कमज़ोर ताकतवर की खुराक है प्रकृतिरूपेण. संस्कृति मतलब सम+कृति. संतुलित कृति. संस्कृति का अर्थ ही यह है कि यह जो असंतुलन है,प्राकृतिक असंतुलन है इसे खत्म किया जाए एवं कमजोर और ताकतवर को समानता दी जाये. कम से कम जहाँ तक सम्भव हो, वहां तक तो प्रयास हो. आप अक्सर पढ़ते होंगे कि मुल्क की अधिकांश सम्पति चंद लोगों के पास ही सिमटी है. मुल्क क्या दुनिया की ही अधिकांश सम्पत्ति चंद लोगों के पास है. तो फिर बाकी दुनिया के पास क्या है? बाकी दुनिया के पास संघर्ष है. गरीबी है. भुखमरी है. बाकी दुनिया संघर्ष में पैदा होती है, संघर्ष में जीती है, संघर्ष में मर जाती है. इसे संस्कृति कैसे कहें? इसे विकृति न कहें क्या? हल क्या है? हल सिम्पल है. रॉबिनहुड. जी हाँ, रॉबिनहुड है हल. वो अमीरों से लूटता था और गरीबों में बाँट देता था. जब कोई मन्दिर या गुरुद्वारे में चोरी होती है तो मुझे लगता है चोरों ने अतीव धार्मिक कार्य किया है. लूट हमेशा ग़लत हो, ऐसा ज़रूरी नहीं. लेकिन इसमें कुछ सावधानी की ज़रूरत है. अगर हर कमाने वाले का धन न कमाने वाले को दे दिया जायेगा तो ऐसे तो कोई अपनी उर्जा धन कमाने में लगाएगा ही नहीं. फिर हल क्या है? हल यह है कि एक तो जो इस धरती पर आ गया उसे बुनियादी ज़रूरतें लगभग मुफ्त मिलनी चाहिए लेकिन यह तभी हो सकता है जब पृथ्वी पर आने वाले लोगों की गिनती अंधी न हो. वो उतनी ही हो, जितनी यह धरती ख़ुशी-ख़ुशी झेल सकती है. इन्सान की क्वांटिटी घटानी होगी और क्वालिटी बढ़ानी होगी. उसके लिए जनसंख्या सुनियोजित होनी चाहिए. और शिक्षा पर ज़बरदस्त काम. यह जो शिक्षा अभी दी जा रही है, यह नब्बे प्रतिशत कचरा है. इसकी कतर-बयोंत ज़रूरी है. पूँजी कमाने दी जाये, लेकिन पूँजी का अनलिमिटेड जमाव खत्म होना चाहिए. एक निश्चित सीमा के बाद निजी पूँजी का हक़ खत्म. उस सीमा के बाद कमाया गया हर पैसा पब्लिक डोमेन में ट्रान्सफर. जैसे आज कॉपी-राईट के मामले में होता है. आप कुछ लिखते हैं, आपका उस पर कानूनी हक़ है लेकिन यह सदैव के लिए नहीं है. एक समय-सीमा के बाद आपका लेखन पब्लिक को मुफ्त मिलेगा, सर्व-जन का हक़ उस पर होगा. ज़मीन पर एक व्यक्ति का एक सीमा से ज़्यादा कब्जा धरती माता के प्रति और इंसानियत के प्रति अन्याय है. मैं पश्चिम विहार में रहता हूँ. मेरे पास ही एक इलाका है पंजाबी बाग. पंजाबी बाग में हज़ार गज़ तक के घर हैं. कल्पना कीजिये, दिल्ली के बीचों-बीच हज़ार गज़ के घर. इन घरों में गिनती के लोग रहते हैं. पश्चिम विहार और पंजाबी बाग के बीच एक इलाका है. मादी पुर. यहाँ एक-एक कमरे में दसियों लोग रहते हैं. यह अन्याय है. कहीं किसी के पास दस कमरे का घर हो कहीं एक कमरे में दस लोग सो रहे हों. यह अन्याय है. असीमित ज़मीन-ज़ायदाद को सीमित करना ज़रूरी है. ऐसा पहले भी किया गया है. ज़मींदारी निराकरण एक्ट ऐसा ही था. उस के बल पर ज़मींदारों से ज़मीन छीन खेतिहारों में बाँट दी गयी थी. यह बिलकुल किया जा सकता है. पहले राजा-महाराजा की अनगिनत रानियाँ थीं, आज संभव नहीं. चोरी-छुपे जो मर्ज़ी करते रहो लेकिन कानूनन एक से ज्यादा बीवी नहीं रख सकते.कानून से असीमित हक़ सीमित किये जा सकते हैं. बस यह है मेरी सोच. मॉडर्न रॉबिनहुडी सोच. इसे आप वामपंथ कह सकते हैं. वैसे मुझे आज तक समझ नहीं आया कि वामपंथ और दक्षिणपंथ है क्या? राईट इज़ राईट एंड लेफ्ट इज़ रॉंग. ऐसा है क्या? मुझे ऐसा ही लगता है. वैसे मैंने कहीं पढ़ा कि इन्सान के दिमाग का बायाँ हिस्सा तर्कशील है और दायाँ हिस्सा भावनाशील. सो इसी ग्राउंड पर वामपंथी उनको कहा गया जो ज्यादा तर्क-वितर्क करते हैं और दक्षिण-पंथी उनको कहा गया जो भावनाशील होते हैं. वैसे मुझे यह भेद-विभेद आज तक पल्ले नहीं पड़ा चूँकि मैं तर्क में बहुत ज़्यादा यकीन करता हूँ. मैंने तर्कशीलता के पक्ष में लेख लिखे हैं. लेकिन मैं इत्ता ज्यादा भावुक हूँ कि घर के सब बच्चे मेरा मजाक उड़ाते हैं. कब कोई फिल्म देखते हुए मेरे आंसूं टप-टप गिरने लगें, कोई पता नहीं. कब कुछ पढ़ते हुए मेरी आंखें दबदबा जाएँ, कुछ ठिकाना नहीं. क्या कहूं खुद को? वामपंथी? दक्षिण-पंथी? क्या? आप मुझे कम्युनिस्ट कह सकते हैं. ठप्पा ही तो लगाना है. जान छुड़ाने के लिए ठप्पा लगाना ज़रूरी है. लेकिन कुछ भी कहते रहें. आप मुझ से पीछा नहीं छुडा सकते. आज जो अनाप-शनाप टैक्स लगाए जाते हैं. वो क्या है? वो टैक्स से एकत्रित धन ज़रूरत-मंदों में बांटने का विकृत प्रयास है. वो रॉबिनहुड बनने का सरकारी प्रयास है. नाकाम प्रयास है. सवाल यह है कि यदि हम असीमित धन-असीमित ज़मीन एकत्रित ही नहीं करने देंगे तो क्यों कोई उद्यम करेगा? सही सवाल है. जवाब बड़ा आसान है. क्या आज जिस अंधी दौड़ में लोग शामिल हैं, ज़मीन-जायदाद एकत्रित करने को, वो इसलिए शामिल हैं कि उन्होंने वो सम्पदा प्रयोग करनी है? नहीं. लोग एक हद के बाद तो सम्पदा प्रयोग ही नहीं कर पाते. हाँ, वो सिर्फ अपने अहम के फैलाव के लिए धन जोड़ते रहते हैं. यदि समाज उनकी प्रेरणा ही बदल दे तो? हम धन-सम्पदा कमा कर समाज के लिए छोड़ने वाले को बड़ा नाम दे सकते हैं. जैसे अभी भी देते हैं अगर कोई अस्पताल बनवा देता है तो, स्कूल बनवा देता है तो, लाइब्रेरी बनवा देता है तो. ऐसा किया जा सकता है. कोई धन क्यों कमाए, उसके उत्प्रेरक बदले जा सकते हैं. वैसे अभी भी हम सारी कमाई तो किसी को भी प्रयोग करने ही नहीं देते. हम टैक्स के रूप में छीन लेते हैं. हमने एक सीमा के बाद कॉपीराईट खत्म किया हुआ है.हमने ज़मींदारी प्रथा खत्म की है, ज़मीन बाँट दी जोतने वालों को. बुनियादी किस्म की ज़रूरतें तो बहुत थोड़े प्रयास से या कहूं कि लगभग मुफ्त में ही सबको मिल जानी चाहियें लेकिन उसके बाद अगर किसी को और बेहतर जीवन चाहिए तो वो प्रयास कर सकता है लेकिन उसके प्रयास से जो भी धन उत्पन्न होगा एक सीमा के बाद वो उस धन को अपने या अपनी अगली पीढ़ियों के लिए प्रयोग नहीं कर पायेगा, ऐसे प्रावधान बनाये जा सकते हैं. रॉबिनहुड बनना ही होगा चूँकि “रॉबिनहुड है हल”. लेकिन काफी कुछ मेरे ढंग से. नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday 10 September 2018

YOUR TEACHERS ARE CHEATERS

Your Teachers are Cheaters. Hence fuck off this fucked up education. We learn in many ways. How did we learn our mother tongue? Of-course through our mother and father's words, their tongue. How do we learn a foreign language? Now there are two ways, first same as we learn our first language and the second , bookish way, learning, tenses, verbs, nouns and grammar. How did you learn typing? The classic way, the way of typing schools? Which finger on which letter, defined way? Or typing haphazardly, any finger, whichever suited you on any letter and by and by, typing fine, not perfectly still very fine and very fast too. How do a singer learn? Reshma, Sai Zahoor and many other world class singers, either never learnt or learnt very little in a bookish way. So to where I wanna drive you? Simple, learn, learning is good, but don't rely upon bookish style only. Once I had some monetary exchanges with someone. The man was not much literate. I was explaining principal amount, then the days he kept my money with him, then the interest rate etc.... in my way, bookish way. All Greek to him. My father was also sitting there. He addressed me somewhat rebukingly, his words," 2+2=4, 1+3=4,5-1=4, explain the other in the way in which he can understand, not the way you understand." Here is the point. One should learn and one should teach. But how? As the learner wants to get taught. As the learner can learn. As the learner's inherent qualities, capabilities get enhanced. If Reshma had been taught music in style of Lata Mangeshkar, what would have happened? A disaster. She had a different voice, different pattern, a rawness. Gotcha? Do you think people who are pass outs of Hotel management course become good Hoteliers? Come on. They even do not become good hotel employees many a times. MBA pass outs, master of business administration, what they do? They just become employees of some under graduate business tycoon. I was just reading that Jack Ma, the richest man of China, the owner of Alibaba.com, a company which is bigger than the combination of eBay.com and Amazon.com, he was rejected from college both at home and abroad more than a dozen times before finally securing a spot at a local university in his hometown of Hangzhou, where he studied English. So what is the point of this whole writing? Am I against learning? Never. I understand, it is the learning which defines a human being, how can I be against learning? Never. I am against putting learning into some defined pattern. Even if someone learns through this kinda pattern, one becomes THE ONE, when learns outta that pattern. And what present education system does? It is preparing kids to become just employees. It is preparing kids to succeed as employees and fail as adventurers, as entrepreneurs. Fail as enthusiasts.Fail as freethinkers. It is preparing our kids to fail in LIFE. This education is for the benefit of everyone except the learner. Everyone. The schools, the politicians, the religions. All, except the kid. I have written above that the teacher should teach as the learner can understand, as the learner's capabilities may flourish.Education is for the learner, not for the teacher, not for the vested interests of anyone else. This word education comes from "educe", which means "to bring out". That means education is the process to bring out the inherent capabilities of a learner, to water the seed, to provide the appropriate land, to do everything to help the seed to be a grand tree, to flower, to flourish. And what our education does? It just go on outpouring its established garbage upon the learner and suffocate the slightest chance of flowering the natural capabilities. This system, this pattern tries every bit to circumscribe students' inherent capabilities. Actually it has nothing to do with anyone's individuality. "Everyone should understand Pythagoras theorem. Everyone should understand higher algebra. Everyone should understand when was Akbar born and when died, exact year. Hell!" "The kid wanna understand Zebra and teacher wanna teach algebra. The kid wanna understand emotion and the teacher waanna teach motion, Newtons's laws of motion. The kid wanna understand his life and the teacher wanna him understand Akbar's life. Hell !!" Is this education or some system to distort human intelligence? What I understand, this is a conspiracy of the politicians, the religious people (they too are politicians only with a different name tag) and the big capitalists. Why they don't wanna raise free thinking, free thinkers? Simple. A free thinker will never accept slavery of some fat ass just because his/her father left million or billion dollars in his/her name. A free thinker may challenge this whole system of inheritance. A free thinker may challenge this stupid system called democracy, which is just another name of imperialism. A free thinker is very dangerous. Every child is a free thinker. So systematic system, to destroy the natural intelligence of the kids. Education is thy name. This education system is an insult to the intelligence. This education is a conspiracy against the humanity. A crime against the humanity. Gotcha? Beware! Learn, but first learn to learn. Learn but be aware. Hope you do. Comment plz. Tushar Cosmic

CONFUSION

Confusion is a very high state of mind. Only intelligent people get confused. Have you seen a buffalo confused ever? More idiotic a being, more steadfast the one is. Clarity comes outta confusion. A wise one is clear over many things and confused over many more things.

Sunday 9 September 2018

नावेल-फिल्म-टी वी नाटक-----कुछ नोंक-झोंक

"संजीव सहगल चमत्कारों में आस्था रखने वाला व्यक्ति था जो समझता था कि खास आशीर्वाद प्राप्त, खास नगों वाली, ख़ास अंगूठियाँ, ख़ास दिनों में ख़ास ऊँगलियों में, खास तरीके से पहनने से उसकी तमाम दुश्वारियां दूर हो सकती थीं." कुछ नोट किया आपने इन शब्दों में. यह ख़ास तरीका है लेखक का लिखने का जो उन्हें आम से ख़ास बनाता है. सुरेन्द्र मोहन पाठक. उनके शब्द हैं ये. नावेल है 'नकाब'. "यारां नाल बहारां, मेले मित्तरां दे." फेमस शब्द हैं उनके पात्र रमाकांत के. और कितनी गहरी बात है यह. पढ़ा होगा आपने भी कहीं, "दिल खोल लेते यारों के साथ तो अब खुलवाना न पड़ता औज़ारों के साथ." यही फलसफा है जो रमाकांत के मुंह से पाठक साहेब सिखा रहे हैं. मैंने तो देखा है मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार को. वो कभी हंसा नहीं अपने भाई-बहन-रिश्तेदार के साथ बैठ. पैसा बहुत जोड़ लिया उसने. लेकिन तकरीबन पैंतालिस की उम्र में ही उसके दिल की सर्जरी हो गई थी. खैर, खुश रहे, आबाद रहे. मुझे कभी भी पाठक साहेब के कथानक जमे नहीं, लेकिन उनका अंदाज़े-बयाँ, उनके पात्रों के मुंह से निकले dialogue. वाह! वाह!! उनके पात्रों की बात-चीत, नोंक-झोंक-छौंक, तर्क-वितर्क-कुतर्क. वल्लाह! (वैसे अल्लाह नामक कुछ है नहीं). बहुत कुछ सिखाता है यह सब पढ़ने वालों को. उनके नोवेलों में बहुत एपिसोड हैं, जो हमारी रोज़-मर्रा की जिंदगियों की सोच-समझ को बेहतर बनाने के कूवत रखते हैं. समाज की गहराइयों को सहज ही नाप डालते हैं पाठक साहेब के पात्र, संवाद, घटनाएं, उप-घटनाएं. कुल जमा मतलब यह कि पाठक साहेब जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री लिखते हैं और उनका लेखन मुझे पसंद है, बहुत पसंद है लेकिन जासूसी-थ्रिलर-मिस्ट्री छोड़ के. वैसे मैं बहुत फिल्म भी इसलिए पसंद करता हूँ कि मुझे कोई करैक्टर पसंद आ गया या फिर वो फिल्म जिस परिवेश को दिखा रही है, वो परिवेश मुझे बहुत भा गया. मिसाल के लिए "किल-बिल" फिल्म. इस फिल्म में मुझे कुछ भी ख़ास नहीं लगा सिवा हेरोइन 'उमा थर्मन' की उपस्थति के. इसकी कहानी में कुछ भी खास नहीं. सीधी-सादी बदला लेने की कहानी है. हेरोइन के साथ बहुर बुरा किया जाता है, जिसका वो बदला लेती है. एक्शन है, तलवार-बाज़ी है, मार्शल आर्ट है, लेकिन सब सेकंड ग्रेड. बस उमा थर्मन का स्क्रीन पर होना ही जम गया मुझे. एक टेलीविज़न सीरीज थी. Fargo.वो कहानी जिस परिवेश में दिखाई गई, मुझे उस वजह से खूब जमी. सब तरफ बर्फ. बीच में कस्बा. थ्रिलर. लेकिन थ्रिलर से ज्यादा मुझे जहाँ घटनाएं घटित हो रही थीं, वो परिवेश, वो चौगिर्दा थ्रिलिंग लग रहा था. हर फ्रेम ऐसा कि लगे बस जैसे वहीं, उस कस्बे में पहुँच गए. मतलब कोई कहानी जंगल में घट रही है या पहाड़ पर या मेट्रो सिटी में या फैक्ट्री में, कहाँ? उसमें कोई पुरातन काल दिखाया जा रहा है या कोई भविष्य की परिकल्पना है, मतलब वो सेटिंग, जहाँ कहानी घटित हो रही है, वो "सेटिंग". वो भी पसंद-नापंसद की वजह है मेरे लिए. हमारे यहाँ की कुछ फिल्में कभी भी स्विट्ज़रलैंड पहुँच नाचने-गाने लगती हैं, यह उसी "सेटिंग" की बेतुकी समझ है. यह बकवास है. अनर्गल है. यह कहानी की ऐसे-तैसी फेरना है. मैं इसके तो सख्त खिलाफ हूँ. कहानी किसी भी नावेल, फिल्म या टेलीविज़न सीरीज़ की जान है. यह बात सही है. लेकिन मुझे लगता है कि बहुत और फैक्टर भी हैं, जो किसी भी कहानी को लोगों की पसंद या नापसंद बनाते हैं. ऐसा ज़रूरी नहीं जो फैक्टर मुझे जंचते हो, वो ही आपको भी जंचते हों, सभी को जंचते हों, लेकिन कुछ तो मुझ में और आप में सांझा हो सकता है. सो उन सांझे फैक्टर पर भी लेखक, फिल्मकार को ध्यान देना चाहिए. और यह ध्यान दिया भी जाता है, लेकिन शायद उतना नहीं जितना दिया जाना चाहिए. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Monday 27 August 2018

No Muslim be allowed to criticise RSS, unless the one criticises Islam and Christianity because RSS is just a shadow of these Gangs.
तुम तो लगे हो अपने और अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा करने.
फिर जब नाली साफ़ न हो, सड़क पर खड्डे हों, पुलिस बदतमीज़ हो, जज बे-ईमान हो तो तुम्हें क्या? तुमने कोई योग-दान दिया था यह सब ठीक करने को? नहीं दिया था.
तब तो तुम ने यही सोचा कि मुझे क्या? मैं क्यों समय खराब करूं? कौन पड़े इस सब पच्चड़ मनें? घर-परिवार पाल लूं, यही काफी है. यही सब सोचा न.
अब जब सड़क पर तेरी बहन-बेटी के साथ कोई गुंडा-गर्दी करता है तो पुलिस सही केस नहीं लिखती, कोर्ट सही आर्डर नहीं लिखती, तो सिस्टम की नाकामी खलती है. खलती है न?
भैये जैसे अपनी, अपने परिवार की बेहतरी के लिए जी-जान लगाते हो, गिरगिटियाते हो, वैसे इस सिस्टम को सुधारने के लिए भी दिमाग लगाओ, जी-जान लगाओ, गाली सहो, छित्तर खाओ, तभी तुम हकदार हो सिस्टम को कोसने को.
वरना जहाँ तुमने कुछ दिया ही नहीं, वहां से कुछ भी पाने की उम्मीद मत रखो.
मुसलमान बिंदास मीट खाता है और हिन्दू हील-हुज्ज़त करते हुए.
मुसलमान दिन-वार की परवा नहीं करता और हिन्दू मंगल-वीर के चक्कर में पड़ा रहता है.
मुसलमान ख़ुशी-ख़ुशी खाता है और हिन्दू खाता भी है और नाक-मुंह भी सिकोड़ता है.

बाकी तो जो है, सो हैये है...

संघ की शाखा का प्रति-प्रयोग

देश के कोने-कोने में संघ की तर्ज़ पर शाखा लगाओ मितरो. संघ का 'बौद्धिक' सिर्फ हिंदुत्व सिखलाता है. तुम्हार बौद्धिक तर्क और विज्ञान सिखाये. तुम किसी भी धर्म के पक्ष-विपक्ष में मत सिखलाओ. सिर्फ क्रिटिकल थिंकिंग, वैज्ञानिक ढंग से सोचना, सवाल उठाना, जवाब ढूंढना सिखलाओ. सवाल मत सिखाओ, जवाब मत सिखाओ. सवाल उठाना सिखाओ, जवाब ढूंढना सिखलाओ. संघ की नब्बे साल की ट्रेनिंग है, फिर बिल्ली के भागों छींका टूट गया है. इस देश को, दुनिया को संघ-मुसंघ से छुटकारा दिलवाने का मात्र एक ही रास्ता है और वो है क्रिटिकल थिंकिंग. मुल्क के कोने कोने में शाखाएं लगाओ, सिर्फ संघ की शाखा का अनुसरण कर लो. बस फर्क यही रहे कि वो हिंदुत्व सिखाते हैं तुम विज्ञान सिखाओ. मुझ से सम्पर्क करें, आगे की रण-नीति के लिए.

Sunday 26 August 2018

अभी एक वीडियो देखा. नई कार कोई लाया और पंडी जी पूजन कर रहे हैं. स्वस्तिक थोप रहे हैं. 'हरे कृष्णा, हरे कृष्णा' भज रहे हैं.

अभी बेकार हूँ लेकिन जल्द ही मैं भी कार लाऊँगा और पूजा भी करूंगा. लेकिन 'हेनरी फोर्ड' की. मेरा नमन है 'हेनरी फोर्ड' को और भी उन सब को जिनका कार के आविष्कार में योगदान है.

रक्षा-बंधन

"रक्षा बंधन" एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं. एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत. और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए. और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा." वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ. वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं. अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, इन पर थोड़ा विचार भी कर लो. समाज ऐसा बनाओ कि औरत को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े. उसे आर्थिक-समाजिक-शारीरिक रूप से सक्षम बनाओ ताकि वो खुद लड़ सके. लेकिन इतनी भी सक्षम मत बना देना कि वो मर्दों पर छेड़-छाड़ के झूठे कोर्ट केस ठोक कर जेल करवा दें या फिर दहेज़ या घरेलू हिंसा के झूठे केसों में न सिर्फ पति बल्कि उसकी शादी-शुदा कहीं और बसी बहन का भी जन्म हराम कर दें. एक मित्र हैं विनय कुमार गुप्ता मेरी लिस्ट में. उनका कमेंट था, "राखी मात्र बहन भाई का पर्व नहीं है।अपने धर्म संस्कृति की रक्षा का संकल्प दिलाते थे समाज के अग्रजन आज के दिन." मुझे इनकी बात कुछ खुटकी. बात तो सही लगी. मैंने देखा है कई बार, ब्रहामणों को लाल रंग का धागा कलाई पर बांधते हुए धार्मिक किस्म के आयोजनों में. पंडित साथ-साथ कुछ बुदबुदाते भी हैं. जिसे मन्त्र कहा जाता है, हालांकि उन शब्दों का अर्थ किसी को भी नहीं पता होता, शायद पंडित जी को भी नहीं. खैर, मुझे बस दो शब्द "माचल: माचल:" याद आ गए, चूँकि ये शब्द बार-बार बोले जाते हैं. मैंने कुछ खोज-बीन की, कुछ गूगल किया, फेसबुक खंगाला तो विनय जी बात सही साबित हुई. जो मैंने पढ़ा वो हाज़िर है:-- 1. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम बांधी थी राजा बलि को राखी, तब से शुरू हुई है यह परंपरा. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम राजा बलि को बांधी थी। ये बात है तब की जब दानवेन्द्र राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे। तब नारायण ने राजा बलि को छलने के लिए वामन अवतार लिया और तीन पग में सब कुछ ले लिया। फिर उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिए दे दिया। इसके बाद उसने प्रभु से कहा कि कोई बात नहीं, मैं रहने के लिए तैयार हूं, पर मेरी भी एक शर्त होगी। भगवान अपने भक्तों की बात कभी टाल नहीं सकते थे। तब राजा बलि ने कहा कि ऐसे नहीं प्रभु, आप छलिया हो, पहले मुझे वचन दें कि मैं जो मांगूंगा, वो आप दोगे। नारायण ने कहा, दूंगा-दूंगा-दूंगा। जब त्रिबाचा करा लिया तब बोले बलि कि मैं जब सोने जाऊं और जब मैं उठूं तो जिधर भी नजर जाए, उधर आपको ही देखूं। नारायण ने अपना माथा ठोंका और बोले कि इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया है। ये सबकुछ हारकर भी जीत गया है, पर कर भी क्या सकते थे? वचन जो दे चुके थे। वे पहरेदार बन गए। ऐसा होते-होते काफी समय बीत गया। उधर बैकुंठ में लक्ष्मीजी को चिंता होने लगी। नारायण के बिना उधर नारदजी का आना हुआ। लक्ष्मीजी ने कहा कि नारदजी, आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं। क्या नारायणजी को कहीं देखा आपने? तब नारदजी बोले कि वे पाताल लोक में राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं। यह सुनकर लक्ष्मीजी ने कहा कि मुझे आप ही राह दिखाएं कि वे कैसे मिलेंगे? तब नारद ने कहा कि आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले त्रिबाचा करा लेना कि दक्षिणा में मैं जो मांगूंगी, आप वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को मांग लेना। तब लक्ष्मीजी सुन्दर स्त्री के वेश में रोते हुए राजा बलि के पास पहुंचीं। बलि ने कहा कि क्यों रो रही हैं आप? तब लक्ष्मीजी बोलीं कि मेरा कोई भाई नहीं है इसलिए मैं दुखी हूं। यह सुनकर बलि बोले कि तुम मेरी धरम बहन बन जाओ। तब लक्ष्मी ने त्रिबाचा कराया और बोलीं कि मुझे आपका ये पहरेदार चाहिए। जब ये मांगा तो बलि अपना माथा पीटने लगे और सोचा कि धन्य हो माता, पति आए सब कुछ ले गए और ये महारानी ऐसी आईं कि उन्हें भी ले गईं। (https://m dot dailyhunt.in/news/india/hindi) फिर दूसरी जगह यह पढ़ा:--- २. "येन बद्धो बलिराजा,दानवेन्द्रो महाबलः तेनत्वाम प्रति बद्धनामि रक्षे,माचल-माचलः" अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो,चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे,उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं,यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना,स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है। (http://pandyamasters dot blogspot dot com/2016/08/) अब बात तो विनय जी की सही साबित हुई लेकिन नतीजा मेरा वो नहीं है, जो विनय जी ने दिया. नतीजा मेरा यह है कि यह उत्सव यदि सच में ही उपरोक्त कथा से जुड़ा है तो फिर साफ़ है कि ब्रहामणों ने मात्र अपनी रक्षा के उद्देश्य से यह परम्परा घड़ी. अब मेरे पास इस उत्सव को नकारने का यह दूसरा कारण है. किसलिए करनी ब्राह्मणों की रक्षा? आज के जमाने में उनका कैसा भी योगदान नहीं जिसके लिए समाज उनकी रक्षा के लिए अलग से प्रतिबद्ध हो. न. परम्परा का अर्थ यह नहीं कि बस ढोए जाओ आंख बंद करके. भविष्य में जब कलाई पर पंडित बांधे लाल धागा (मौली) तो यह सब याद रखियेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक

Monday 20 August 2018

सब चाहते हैं कि मिठाई की दूकान हो जाऊं मैं. लेकिन मैं तो ज़हर बेचता हूँ. पोटैशियम साइनाइड. खाओ और मर जाओ. फिर जिंदा होकर निकलो. लेकिन नए. बिना धर्मों की बकवास के. जैसे शुरू में थे, जब पैदा हुए थे.
"मन्दिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला" लिखने वाले हरिवंश राय बच्चन साहेब के वंश को अगर आप जानते हैं तो अमिताभ बच्चन से. लेकिन हरिवंश जी आग थे, अमिताभ राख़ है. हरिवंश जी मन्दिर मस्जिद दोनों को ललकारते हैं. अमिताभ गणेश वन्दना गा देते हैं. अफ़सोस यह कि इस मुल्क का महानायक बेटे को माना जा रहा है, जबकि बाप बाप था और है. नमन हरिवंश जी को.
Atal was a RSS man and this is a Govt. of RSS hence this much hue & cry, otherwise the man had nothing substantial.
Cancerous thinking generates Cancer.
Knotty thoughts create knots in the body.
Clarity of thinking is essential for a clear body.

नींद

“वो मुर्दों से शर्त लगा कर सो गया.” सुरेन्द्र मोहन पाठक अक्सर लिखते हैं यह अपने नोवेलों में. लेकिन जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते हैं, कब सोते हैं ऐसे? नींद आती भी है तो उचटी-उचटी. बचपने में ‘निन्नी’ आती है तो ऐसे कि समय खो ही जाता है. असल में समय तो अपने आप में कुछ है भी नहीं. अगर मन खो जाये तो समय खो ही जायेगा. तब लगता है कि अभी तो सोये थे, अभी सुबह कैसे हो गई? लेकिन यह अहसास फिर खो जाता है. न वैसी गहन नींद आती है, न वैसा अहसास. ‘नींद’. इस विषय पर कई बार लिखना चाहा, लेकिन आज ही क्यों लिखने बैठा? वजह है. मैं खाना खाते ही लेट गया और लेटते ही सो गया. नींद में था कि सिरहाने रखा फोन बजा. अधनींदा सा मैं, फोन उठा बतियाने लगा और आखिर में मैंने सामने वाले को कहा, “सर, थोड़ा तबियत खराब सी थी, सो गया था, मुझे तो लगा कि शायद सुबह हो चुकी लेकिन अभी तो रात के ग्यारह ही बजे हैं.” डेढ़-दो घंटे की नींद और लगा जैसे दस घंटे बीत चुके. समय का अहसास गड्ड-मड्ड हो गया था इस नींद में. फिर नींद के विषय में सोचने लगा और सोचते-सोचते सोचा कि लिख ही दूं इस विषय पर, सो बन्दा हाज़िर-नाज़िर है. मेरा मानना है कि ‘जब जागो तब सवेर और जब सोवो तब अंधेर’. मतलब यह जो सूरज के साथ उठना और सूरज के सोने पर सोना, यह वैसे तो सही है, सुबह सब कायनात जागती है, उसके साथ ही जगना चाहिए लेकिन अगर आप ऐसा न भी कर पाओ तो भी कोई पहाड़ न टूट पड़ेगा. मैं उठता हूँ सुबह-सवेरे भी. पार्क भी जाता हूँ और फिर आकर सो भी जाता हूँ. कभी भी कुर्सी पर बैठे-बैठे सो जाता है. सोफ़ा चेयर हो-ऑफिस चेयर हो, मैं कहीं भी सो सकता हूँ. सिटींग पोजीशन में. रात को तो ज़मीन पर बिना कुछ बिछाए सोता हूँ. बस तकिये और गद्दियाँ ढेर सारी होनी चाहियें. लेफ्ट साइड ज्यादा सोता हूँ, कहीं पढ़ा था कि हार्ट के लिए अच्छा होता है और मैंने महसूस भी किया कि यह सही है, अगर कभी दर्दे-दिल हो तो इस तरह लेटने से तुरत राहत मिलती है. दोनों घुटनों में गद्दियाँ दबी होती है. दो गद्दियाँ दोनों बाँहों के बीच और एक तकिया सर के नीचे. यानि कुल मिला कर चार गद्दियाँ और एक तकिया. नीचे सफेद मार्बल का फर्श. यह है मेरे सोने का ढंग. और टुकड़ों में सोता हूँ. कभी भी दिन में झपक लेता हूँ. ध्यान पे ध्यान करते हुए कब सो जाता हूँ पता ही नहीं लगता. मैं बहुत छोटा था तो माँ-पिता जी के साथ वैष्णों देवी जाता था, देखता था लोग चट्टानों पर सोये होते थे. आज भी अनेक लोग सड़कों पर-फुटपाथों पर सोते हैं. और कई महानुभाव तो सड़क की बीचों-बीच बने डिवाइडर पर बड़े शान से मौत को ललकारते हुए सो रहे होते हैं. मुझे तो फिर भी मार्बल का साफ़ सुथरा फ़र्श मुहैया है सोने को. जिनको ध्यान का कुछ नहीं पता निश्चित ही जीवन में कुछ खो रहे हैं. भैया, आप सिद्ध-बुद्ध होवो न होवो लेकिन ध्यान अगर सीखा होगा तो आप स्वस्थ होंगे, स्वयम में स्थित होंगे और स्वयम में स्थित होते ही सब तरह की चिंता-फ़िक्र तिरोहित हो जाती हैं और ऐसा होते ही तन भी शांत हो जाता है. खैर, बड़ी बेटी जब बहुत छोटी थी तो मैं उसके कान में बहुत धीरे-धीरे बुदबुदाता था, इतना कि वो उठे न, इतना कि मेरी आवाज़ उस तक पहुंचे. अब पहुँचती थी या नहीं, कितना पहुँचती थी, कितना नहीं, यह सब पक्का कुछ नहीं लेकिन मेरे कथन जो होते थे उनका असर तो उस पर दीखता था. मैं बुदबुदाता था उसके कान में कि वो हेलदी है, जीनियस है, सुंदर है, प्रसन्न है. और वो खेलती रहती थीं, नाचती रहती थी, कूदती रहती थी. नींद के साथ यह छोटा सा प्रयोग था. इसे आप सम्मोहन कह सकते हैं. नींद में दखल था लेकिन उसे हिन्दू-मुस्लिम बनाने को नहीं था, उसे स्वस्थ और समझदार बनाने को था. और वो समझदार है. कई बार तो मुझ से बहुत तेज़ और आगे पाता हूँ उसे. हो सकता है बाप की बापता हो यह, लेकिन उसके सामने कई बार लगता है कि मैं गुज़रे जमाने की चीज़ हूँ. यह प्रयोग जिसका मैंने ज़िक्र किया, यह खुद भी खुद पर किया जा सकता है. इसे आप आत्म-सम्मोहन या योग-निद्रा कह सकते हैं. आप सोते हुए खुद को जो निर्देश देंगे, वो काफी हद तक फली-भूत होंगे. आप खुद को कह कर सोयें कि गहरी नींद सोना है, बीच में नहीं उठना है, अच्छे सपने देखने हैं तो लगभग ऐसा ही होगा. ‘स्वीट-ड्रीम्स’, जो एक दूजे को कहते हैं उसका यही तो मतलब है. कई बार आप अलार्म लगा के सोते हैं, लेकिन अलार्म बाद में बजता है आप उससे ठीक पहले उठ जाते हैं, उसका यही तो मतलब है. बहुत से हार्ट-अटैक सोते हुए या अर्द्ध-निद्रा जैसी अवस्था में होते हैं, किसलिए? इसलिए चूँकि व्यक्ति का अंतर्मन हावी रहता है. किसी का बच्चा बीमार है, किसी ने कर्ज़ा देना है, किसी की बेटी भाग गयी है पड़ोसी के साथ. किसी को कोई टेंशन. किसी को कोई और चिंता. सब घेर लेती हैं अर्द्ध-निद्रा में. बस हार्ट-अटैक हुआ ही हुआ. अधरंग हुआ कि हुआ. दिमाग की नस फटी ही फटी. नींद न आ रही हो तो ज़बरन नींद में जाने का प्रयास न करें. उल्टा करें. लेटे हैं तो बैठ जायें, बैठे हैं तो उठ जायें, उठे हैं तो चलने लगें, चल रहे हैं तो भागने लगें. थक जायेंगे तो नींद अपने आप आ जायेगी. और जिनको नींद न आने की सतत समस्या है, उनको लेबर चौक पर बैठना शुरू कर देना चाहिए. चार-पांच सौ रुपये दिहाड़ी मिलेगी और नींद भी. "तुषार, तू सो गया है क्या?" ऑफिस की सेट्टी पर अक्सर सो जाता था मैं और मुझे यह पूछ कर मेरा वो कमीना दोस्त उठाता था. कितनी बार चाहा कि उसे कहूं कि हाँ, मैं सोया हुआ हूँ, गहरी नींद में हूँ और एक हफ्ते से पहले नहीं उठूंगा. इडियट. गलत सवाल का जवाब सही कैसे हो सकता है? अक्सर पढ़ता-सुनता हूँ कि फलां आदमी फलां औरत के साथ सोता है, मतलब सेक्स करता है. अबे ओये, जब कोई आदमी-औरत सेक्स करते हैं तो वो जागना हुआ, परम जागना हुआ कि सोना हुआ? उलटी दुनिया! पीछे परिवार सहित 857, रघुबीर नगर के बस स्टैंड से गुज़र रहा था, वहां सड़क पर एक परिवार सोया था. खुली-चौड़ी सड़क है. सोते हैं लोग ऐसे. एक बच्चा, शायद साल भर का होगा, नंगा सोया था. लड़का. लिंग लेकिन उत्थान पर था. Morning Erection! लेकिन तब तो सुबह नहीं थी. रात का वक्त था. असल में यह 'Morning Erection' है ही एक गलत कांसेप्ट. आदमी जब भी गहन नींद में होगा, जब भी अच्छे सपने देख रहा होगा, जब भी खुश होगा, उसे Erection हो सकती है. उसका लिंग उत्थान पर हो सकता है. व्यक्ति जितना चिंता फ़िक्र में होगा, सेक्स के लिए उसका शरीर उतना ही कम तैयार होगा, जितना खुश, जितना शांत उतना ही सेक्स के लिए ज़्यादा तैयार होगा. कुदरत खुद गवाह है भई. सिम्पल. और स्त्रियों में यह चाहे न दीखता हो लेकिन होगा उनमें भी ज़रूर ऐसा ही. क्यों? चूँकि वो भी तो इसी कुदरत की बेटियां हैं, कुदरत उनके साथ कोई भेद-भाव थोड़ा न करती है. और ये जो हमारे सपने हैं न, ये सिर्फ हमारी सोच, हमारे मन का प्रक्षेपण है. मन में जो भी हो, चाहे डर, चाहे ख़ुशी, चाहे कोई दबी इच्छा, सब प्रकट हो जाता है नींद में. बस. इससे ज़्यादा कुछ नहीं है इनमें. न तो कोई भविष्य के संकेत हैं इनमें और न ही कोई देवी-देवता या आपके दादा पड़दादा आते हैं सपनों में. जो आता है, वो सब अंतर-मन में निहित जो है उससे आता है. जैसे किसी तह-खाने को खोल दिया गया हो. जल्द ही आप के सपने डाउनलोड हो जाया करेंगे और आप फिल्म की तरह देख पायेंगे उनको. ये फिल्में व्यक्ति की बीमारियाँ समझने में बहुत मदद करेंगे, शायद क्राइम हल करने में भी मदद-गार हों, शायद किसी के छुपे टैलेंट का हिंट मिले इनसे, शायद राजनीतिज्ञों के-अपराधियों के हाथ पड़ खतरनाक भी साबित हों. वक्त बतायेगा क्या होगा. वैसे तो इनको देख कर आप बोर ही होंगे. कुछ न होगा इनमें बकवास के सिवा. इन्सान इतना बेवकूफ है कि उसने नींद जैसे प्राकृतिक चीज़ को भी उलझा दिया. 'चीकू' कुत्ता है. हमारे घर के बाहर ही रहता है हमेशा. गधा सा सारा दिन घोड़े बेच सोया रहता है. इसे कोई किताब पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं कि सोना कैसे है. मैं सोचता हूँ इसे यह वाला लेख पढ़ के सुना दूं. कोशिश करूंगा, लेकिन यह सुनते-सुनते इतना बोर हो जायेगा कि फिर सो जायेगा. मैं जानता हूँ इसे. अब आप भी सो जायें. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Wednesday 8 August 2018

भारतीय समाज को सब बामनी किस्सों को छोड़ आगे बढ़ना होगा, वरना वहीं गोल-गोल घूमता रहेगा सदियों.

वही रास-लीला, वही राम-लीला. वही दशहरा, वही राम. वही रावण. वही कृष्ण. वही शिव. वही पार्वती.....

इन सब में ही जब उलझा रहेगा तो वैज्ञानिक, दार्शनिक, ज्वलन्त लेखक पश्चिम में ही पैदा होंगे यहाँ तो बारिश के गड्डे भरे जायें उत्ता ही काफी है.
दलित बन्धु बहुत ही नाराज़ रहते हैं सवर्णों से. मैं सहमत हूँ. सवर्णों को अलग मुल्क दे देना चाहिए. 
"सवर्ण-स्थान."
आज ही जुडें.
'दोस्त की खाल में दुश्मन', यह पढ़ा होगा. 
'दुश्मन की खाल में दोस्त', यह न पढ़ा होगा. मैं वही हूँ. 
मूर्ख हो जो समझते हो कि तुम्हारा वंश पुत्रों से चलता है. नहीं चलता है. तुम्हारा वंश न पुत्र से चलता है और न ही पुत्री से. असल में तुम्हारा कोई वंश ही नहीं है. यह तो कुदरत का तरीका है, तुम्हारे ज़रिये खुद को आगे बढ़ाने का. तुम एक गुड्डा न बना पाओ, बच्चा पैदा करोगे! इडियट.
The problem is not that you don't know. 

The problem is, you don't know that you don't know.

हम

हम पार्कों में नकली हंसी हंसते हैं, चूँकि हमारी कुदरती हंसी-ख़ुशी खो चुकी है. 'हास्य-योग' बना रखा है हमने.

हम हस्त-मैथुन कर रहे हैं, चूँकि कुदरती काम-क्रीड़ा पर हमने पहरे लगा रखे हैं, कानून बांध रखे हैं.

हम ऐसे लोगों के मरण पर अफ़सोस ज़ाहिर कर आते हैं जिनके मरने से हमें ख़ुशी होती है. चलो पिंड छूटा.

हम नेता को गाली देते हैं लेकिन सामने पड़ जाये तो पूँछ हिलाते हैं.

हम भूल चुके हैं कि असली क्या है और नकली क्या है. हमारे असल में नकल है और नकल में असल है. स्त्रियाँ नकली सम्भोग-आनन्द दर्शाती हैं ताकि पुरुष खुश रहे. नकली चीखती चिल्लाती हैं. नकली ओर्गास्म. अंग्रेज़ी में तो कहावत ही है, Fake it till you make it". जब सोना न खरीद सको तो नकली सोना पहन लो.

हम इन्सान हैं. 
हम सब जानवरों से बुद्धिमान हैं, हम महान हैं..

कौन है असली हीरो?

"हेलो फ्रेंड्स, चाय पी लो" पूछने वाली मैडम को आप फेमस कर देते हैं. जैसे स्क्रीन में से निकल चाय का लंगर चला देंगी और सबका चाय का बजट घट जायेगा या कट जायेगा. "सेल्फी मैंने ले ली आज" गाने वाली को सर पे बिठा लेते हैं. जैसे सेल्फी लेना कोई दुर्गम पहाड़ चढ़ना हो, जिसे आज चढ़ ही लिया मैडम ने. सेल्फी इनने ले ली ही आज. "सही खेल गया भेन्चो" कहने वाले 'झंडू बाम', नहीं-नहीं, सॉरी-सॉरी, 'भुवन बाम' को आप हीरो बना देते हैं. क्या है यह सब? यह इन लोगों का हल्कापन नहीं दर्शाता. यह आप लोगों की उथली सोच को दिखाता है. आपकी सोच 'चाय', 'सेल्फी' और 'भेन्चो' पे अटकी है. इससे आगे जाती ही नहीं. कैसे पहचानोगे आप कि कौन है असल हीरो? गोविंदा जैसा नाच अगर किसी अंकल ने कर लिया तो आप फ्लैट हो गए, फ्लोर हो गए, कोठी हो गए, हवेली हो गए, महल हो गए. कोई थर्ड क्लास फिल्मों का एक्टर, उसे आप हीरो मान लेते हैं. मतलब जिसने कभी एक मीनिंग-फुल फिल्म नहीं की हो, लेकिन आपको क्या? आपके लिए उसका ओवर-एक्टिंग वाला स्टाइल ही काफी है. जिसने साबुन, तेल, जांघिया, बनियान, ईमान सब बेच दिया लेकिन समाज के किसी एक मुद्दे को नहीं छेड़ा, जी-गुर्दा ही नहीं जिसमें. लेकिन आपको क्या? आपके लिए वो हीरो है. कोई नेता, जो नेतृत्व की परिभाषा भी ठीक से न समझता हो चाहे, वो आपके लिए हीरो हो जाता है. हीरो क्या, देवता हो जाता है, अवतार हो जाता है. कुछ नहीं समझते लोग. निन्यानवें प्रतिशत लोग तुचिए हैं, जिनका जीवन एक कीड़े से ज्यादा नहीं, जिनको सिर्फ खाना-पीना और बच्चे पैदा करना है और मर जाना है. जिनका सामाजिक योगदान जीरो है. क्या फर्क पड़ता है, इनके मरने-जीने से? चलिए मैं बता देता हूँ कि आपका असली हीरो कौन है. आपका असली हीरो-असली नायक न गायक है, न एक्टर है, न सिपाही है, न फौजी है, न नेता है, न वकील, न जज. आपका असली हीरो है 'वैज्ञानिक'. वो भी कौन सा? विज्ञान शब्द 'एक' है लेकिन विषय बड़ा है. तो कौन सा वैज्ञानिक है असली हीरो? गणितज्ञ हो, भौतिक वैज्ञानिक हो, रसायन वैज्ञानिक हो, इनका समाज से सीधा-सीधा टकराव नहीं होता. इनकी खोजें न तो आम समाज को समझनी होती हैं और न ही उनके समझ में आनी होती हैं. असली हीरो है "समाज वैज्ञानिक". कैसे? वो ऐसे कि समाज वैज्ञानिक को उन्हीं लोगों के जूते खाने होते हैं, गाली-गोली सहानी होती है जिनका वो भला सोचता है, जिनके भले के लिए वो शोध कर रहा होता है. समाज वैज्ञानिक का जीवन हमेशा दांव पर लगा रहता है. वो कु-व्यवस्था, आउटडेटिड व्यवस्था को चैलेंज कर रहा होता है, अब जमी-जमाई दुकानदारी कैसे बरदाश्त कर ले कि कोई उसका धंधा ही चौपट कर दे? न. सो वो टूट पड़ती है समाज वैज्ञानिक पर. मंदर-मस्जिद-चर्च सब टूट पड़ता है, समाज वैज्ञानिक पर. राजनेता टूट पड़ता है. और पूरी कोशिश की जाती है कि समाज वैज्ञानिक को तोड़ दिया जाये-मरोड़ दिया जाये. आम आदमी तो तुचिया है, उसने कभी दिमाग नामक यंत्र को कष्ट दिया ही नहीं. वो बड़ी जल्दी जिधर हांको, हंक जाता है. उसे पता ही नहीं लगता कि कौन उसके फायदे में है और कौन नुक्सान में. उसे अपना मित्र भी शत्रु दीखता है. यह 'समाज वैज्ञानिक' कोई भी रस्ता अख्तियार कर सकता है अपनी बात समाज तक पहुँचाने के लिए. वो गा सकता है, नाच सकता है, लिख सकता है, भाषण दे सकता है. कुछ भी कर सकता है. उसका मेथड गौण है, उसका 'कंटेंट' महत्वपूर्ण है. उसके कंटेंट में आग है. आपके अधिकांश सेलब्रिटी बकवास हैं. उनमें आग है नहीं. वो राख हैं, बुझी हुई. जिसे देख-सुन समाज को गुस्सा न आये, आंखें लाल न हो जायें, डौले फड़-फड़ न करने लगें, वो असल हीरो है ही नहीं. असल हीरो है, जो मरे समाजों को तबाह करने पर आमादा हो. "कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ." आ जाओ बेटा, जिसने सर फुड़वाना हो. असल हीरो अराजक है, असामाजिक है. बेजान राज्य को जब तक तोड़ा न जाये, जर्जर समाज को जब तक गिरा न दिया जाये, तब तक कैसे नव-निर्माण होगा? आप मर चुके हैं, जिंदा हैं लेकिन बेजान हैं. असल हीरो वो है, जो आपको जिंदा करने आये लेकिन आप उसे मारने पर अमादा हो जायें. उम्मीद है समझा सका होवूंगा. नमन...तुषार कॉस्मिक

केजरीवाल नहीं है भविष्य: मिसाल

इन्द्रलोक, दिल्ली मेट्रो स्टेशन के ठीक एक बड़ी सी ट्रैफिक लाइट है. बड़ी इसलिए कि बहुत ट्रैफिक होता है यहाँ. सब तरफ ये.... चौड़ी सड़क हैं. एक सड़क जो शहज़ादा बाग़ को जाती है, इसका मुहाना बंद किया गया है. किसलिए? इसलिए चूँकि यहाँ कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया गया है. इसमें क्या ख़ास है? शायद कुछ नहीं. चूँकि ऐसा दिल्ली में जगह-जगह है. ख़ास मुझे जो दिखा, वो यह कि इस शिविर के बाहर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है, जिस पर अरविन्द केजरीवाल जी विराज रहे हैं और कांवड़ियों का स्वागत कर रहे हैं.

इसलिए लिखता हूँ कि केजरीवाल भारत का भविष्य नहीं है. एक सेक्युलर स्टेट के स्टेट्समैन को सेक्युलर होना चाहिए. उसे इन सब पच्चड़ में पड़ना ही नहीं चाहिए. अब केजरी के ऐसा करने से मेरी अधार्मिक भावनाएं आहत हो गईं हैं, उसका क्या? मेरी अधार्मिक आस्था खतरे में पड़ गई, उसका क्या?

चलो, वो तो किया जो किया. मतलब इस हद तक चले गए कि तथा-कथित धार्मिक कृत्यों के लिए सड़क बंद हो तो हो. क्या फर्क पड़ता है?

मतलब चीफ मिनिस्टर का काम यही तो बचा है कि एक बिजी सड़क बंद करवा के धार्मिक(?) कार्यक्रम आयोजित करवाए. वाह रे मेरे भारत!

जेम्स बांड हूँ मैं

कैसे? सिम्पल है, समझाता हूँ. मैं जिस माहौल में रहता हूँ, उसकी सोच कुछ और है और मेरी सोच कुछ और है. वो उत्तर जाता है तो मैं दक्षिण. वो पूरब जाता है तो मैं पश्चिम. मैं तो रहता भी पश्चिम विहार, दिल्ली में हूँ. लेकिन क्या मैं अपनी सोच इस माहौल में ज़ाहिर करता हूँ? जी करता हूँ, लेकिन हर वक्त नहीं, हर जगह नहीं. अक्सर तो मैं माहौल की सोच में शुमार हो जाता हूँ. ऊपर-ऊपर से ही सही, लेकिन हो जाता हूँ. मिसाल के लिए मैंने कांवड़ यात्राओं के लिए शिविरों में अपनी उपस्थिती दर्ज़ करवाई हैं जबकि इनको मैं परले दर्ज़े का अहमकाना काम मानता हूँ. अरे यार, मन की शक्ति पैदा करनी है तो मैराथन में हिस्सा ले लो, पहाड़ चढ़ लो, नदियाँ साफ़ कर लो, तालाब खोद लो, कुछ भी और कर लो. बहुत कुछ किया जा सकता है. रोज़ लोग नए-नए कारनामे करते ही हैं. खैर. मेरी मौसी के बड़े बेटे हैं, उम्र-दराज़ हैं, हर साल दिल्ली के रिज रोड़ पर कांवड़ियों के लिए बड़ा इन्तेजाम करते हैं. हमें बुलाते रहे हैं और हम जाते भी रहे हैं. अब यह क्या है? एक तरफ विरोध, दूजी तरफ हाज़िरी. यह तो गोरख-धंधा हो गया. लेकिन याद रखें, जेम्स बांड हूँ मैं. दुश्मन देस. सो बदला भेस. श्रीमति जी को पता है मेरी उल्ट खोपड़ी का. लेकिन दफ्तर में 'गुरु जी' की फोटो टांग गई हैं, स्कूटी पे 'गुरु जी' लिखवा छोड़ा है. क्या करूं? लडूं. नहीं लड़ता. दफ्तर उनका भी है, स्कूटी उनकी भी है. ठीक है, कर लो मर्ज़ी. साले साहेब गणेश स्थापित करते रहे, विसर्जन में उनके साथ शामिल होते रहे हम भी. अभी पीछे पड़ोसी ने मन्दिर में माता का जागरण किया, गए हम सपरिवार. मामा जी सिक्ख हैं. वो अपने कार्यक्रम गुरूद्वारे में करते हैं, जाते हैं हम. आप सोच सकते हैं, कैसा गिरगिटिया आदमी है. कहता कुछ है, करता कुछ और है. कथनी और करनी में कितना फर्क है. बिलकुल है जनाब. असल में मेरे गणित से कथनी और करनी में फर्क होना ही चाहिए वरना सीधा-सीधा आत्म-हत्या करने जैसा है, व्यक्ति 4 दिन सर्वाइव नहीं कर पायेगा. समाज ऐसा है ही नहीं कि कोई सीधा-सच्चा जी सके. क्या व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीना चाहता है, जिस तरह के जीवन मूल्य जीना चाहता है, वैसा जी पाता है, आसानी से जी पाता है, जी सकता है? क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति सुकरात हो जाए? और जो सुकरात नहीं होते या नहीं होना चाहते क्या उनको विचार का, विमर्श का कोई हक़ नहीं? तो हज़रात मेरा मानना यह है कि जिस तरह का सामाजिक ताना बाना हमने बनाया है, उसमें यह कतई ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति की सोचनी और कथनी एक हो, कोई ज़रूरी नहीं कि कथनी और करनी एक हो, कोई ज़रूरी नहीं कि सोचनी और कथनी और करनी एक हो. असल में तो समाज का भला करने के लिए भी व्यक्ति वही कामयाब हो पायेगा, जिसकी सोचनी कुछ और हो, कथनी कुछ और हो और करनी कुछ और इस चालबाज़ समाज का तो भला करने के लिए भी व्यक्ति को इस समाज से चार रत्ती ज़्यादा चालबाज़ होना होगा जेम्स बांड की तरह ही जीया जा सकता है. जब मौका लेगे, जहाँ मौका लगे, चौका-छक्का लगा दो. दुश्मन देस में उसी के भेस में घुसे रहो. While in Rome, do as the Romans do. लेकिन जब मौका लगे दुश्मन का शिविर ढहा दो. जेम्स बांड किसी भी मुल्क में रहे, कैसे भी रहे, उसकी निष्ठा अपने मुल्क के प्रति है. बस आम जन में और जेम्स बांड में यही फर्क है और यह बड़ा फर्क है. आम-जन अगर कहीं गलत देखते हैं तो विरोध नहीं करते, सही करने का प्रयास नहीं करते. आराम-परस्त हो जाते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ. मैं जेम्स बांड हूँ. मेरी निष्ठा है तर्क के प्रति, वैज्ञानिकता के प्रति, समाज की बेहतरी के प्रति. मैं बीच-बीच में जहाँ मौका लगता है, लोगों को ऐसे शब्द, ऐसे तर्क पकड़ा ही देता हूँ कि वो कुछ देर तो सर धुनते रहें. फिर अपने पास 'सोशल मीडिया' नामक चौपाल है ही. अब लगातार विडियो बनाने का भी प्लान है. मैं कैसे भी जीऊँ, जेम्स बांड कैसे भी जी रहा हो, मौके पे अस्त्र-शस्त्र चलाने से न वो चूकता है और न मैं. मैं जेम्स बांड ही हूँ. Licensed to Kill. जेम्स बांड महान करैक्टर है. वो दारू पीता है, औरत-बाज़ है. मतलब वो कोई सही आदमी की परिभाषा में शायद ही फिट हो. लेकिन वो अपनी सोच का पक्का है. ऐसे ही लोग दुनिया का भला कर सकते हैं. यही हैं नए पीर-पैगम्बर. महान इसलिए नहीं कि वो दारू पीता है या औरत-खोर है. ...न....न. वो मतलब नहीं है मेरा. मेरा मतलब है कि वो माहौल में फिट होता है ज़रूरत के मुताबिक और दुश्मन का किला ढहा देता है, दुश्मन का व्यूह तोड़ देता है. इसीलिए महान है. तमाम टेढ़े-मेढ़े कृत्य करता हुआ. जीवन में सही क्या है, गलत क्या है....यह आकलन स्थिति क्या है उसके मददे-नज़र ही किया जाना चाहिए.इसे ऐसे समझें.......हमारे क्रांतिकारी रेल गाड़ी लूट लेते थे......यह महान काम था, लूट ही सही थी.....अन्यथा लड़ते कैसे? मौका तय करता है कि क्या करना है. जैसे सच बोलना चाहिए. मैं भी मानता हूँ. वरना व्यक्ति की वैल्यू ही खत्म है. कौन यकीन करता है झूठे आदमी पर? वो कहानी सुनी होगी आपने कि रोज़ रोज़ शेर आया, शेर आया चिल्लाता था गडरिया. गाँव वाले आते बचाने और वो उनका मज़ाक उड़ाता कि देखो, कैसे बेवकूफ बनाया. एक दिन सच्ची शेर आ गया, वो फिर चिल्लाया लेकिन आज कोई नहीं आया. सबको लगा मूर्ख बना रहा है. शेर फाड़ के खा गया उसे. छुट्टी. सो सच बोलना चाहिए. लेकिन अगर भगत सिंह को अँगरेज़ पकड़ पूछें कि बता राजगुरु कहाँ छुपा है, सुखदेव कहाँ छुपा है तो क्या उसे बता देना चाहिए सच सच? नहीं बताना चाहिए. यहाँ सच बोलना गलत है. सो स्थिति के मुताबिक तय करना होता है. जेम्स बांड स्थिति के मुताबिक फिट होता है. तुरत. क्विक. यह है उसकी एक बड़ी ख़ासियत. और मैं जेम्स बांड हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक