Tuesday 30 May 2017

आप नाम छोड़ दीजिये.....ये नाम परमात्मा, ईश्वर, भगवान इन्हें छोड़ देते हैं.....नाम सब काम-चलाऊ हैं.....नाम सब हमारे दिए हैं......यूँ समझ लीजिये कि ब्रह्माण्ड को अवचेतन से और ज़्यादा चेतन होने का फितूर पैदा हुआ.......उसने अपने लिए कुछ रूप गढ़ने शुरू किये.....खुद ही कुम्हार, खुद ही मिटटी, खुद ही पानी, खुद ही मूरत......बस जैसे-जैसे वो रूप गढ़े, उनमें रूप के मुताबिक़ चेतना घटित होती गई......यूँ ही इन्सान तक पहुँच हो गई......यूँ ही सब पैदा हुआ...इस सब का सिवा खेल-तमाशे के और क्या मन्तव्य? सो कहते हैं कि जगत जगन्नाथ की लीला है.

Monday 29 May 2017

"आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ" असरानी का फेमस डायलाग है शोले फिल्म में. मेरी पोस्ट पर आये कमेंट देख याद आता है.
शब्दों की भीड़ में मैं जो कहना चाहता हूँ, वो ऊपर-नीचे, दायें-बायें से निकल जाता है कुछ मित्रों के. मैं तो बस यही क्लियर करता रहता हूँ कि किस बात से मेरा मतलब क्या है.
बहुत मित्र तो 'सवाल चना और जवाब गंदम' टाइप कमेंट करते हैं.
खैर, कोई मित्र बुरा न मानें, मैं कोई अपने लेखन की महानता का किस्सा नहीं गढ़ रहा. अपुन तो वैसे भी हकीर, फ़कीर, बे-औकात, बे-हैसियत के आम, अमरुद, केला, संतरा किस्म के आदमी हैं. बस जो सही लगा लिख दिया.
कोई तीन-चार दिन पहले इंग्लैंड "मानचेस्टर" में बम धमाका हुआ. बाईस लोग तो तभी मारे गए. कई ज़ख़्मी हुए. सुना है कि ज़िम्मेदार लोगों ने बखूबी ज़िम्मेदारी भी ली. कितने मुस्लिम व्यक्तियों ने, समूहों ने इसके खिलाफ कुछ करने का ज़िम्मा लिया? करने का छोड़ो, आवाज़ उठाने का ही ज़िम्मा लिया हो? ये चुप्पे भी ज़िम्मेदार हैं, इनकी चुप्पी भी सहयोगी है. फिर कहेंगे कि चंद लोगों की वजह से कौम बदनाम होती है.

CBSE टॉपर और मिट्ठू तोते

ये जो लोग अपने बच्चों के CBSE एग्जाम 90-95% नम्बरों से पास होने की पोस्ट डाल रहे हैं और जो इनको बधाईयों के अम्बार लगा रहे हैं, उनको ताकीद कर दूं कि टॉपर बच्चे ज़िन्दगी की बड़ी दौड़ में फिसड्डी निकलते हैं. ये लोग अच्छी दाल-रोटी/ मुर्गा-बोटी तो कमा लेते हैं लेकिन दुनिया को आगे बढ़ाने में इनका योगदान लगभग सिफर रहता है चूँकि ये सिर्फ लकीर के फ़कीर होते हैं, रट्टू तोते होते हैं, अक्ल के खोते होते हैं, सिक्के खोटे होते हैं. दिमाग लगाना इनके बस की बात नहीं होती. और इनको जो इंटेलीजेंट समझते हैं, उनकी इंटेलिजेंस पर मुझे घोर शंका है. इडियट लोग. इंटेलिजेंस यह नहीं होती कि आपने कुछ घोट के पी लिया. इंटेलिजेंस होती है कुछ भी पीने से पहले अच्छे से घोटना, छानना और सही लगे तो ही पीना, नहीं तो कूड़े में फेंक देना. एक टेप रिकॉर्डर अच्छी रिकॉर्डिंग कर लेता है, तो क्या कहोगे कि यह बहुत इंटेलीजेंट है, स्मार्ट है? इसे गोल्ड मैडल मिलना चाहिए? इडियट. इससे ज़्यादा स्मार्ट तो तुम्हारा स्मार्ट फ़ोन होगा, वो कितने ही जटिल काम कर लेगा. ज़्यादा कुछ नहीं लिखूंगा. समझदार को इशारा ही काफी है और अक्ल-मंद, अक्ल-बंद को दुल्लती भी कम है. नमन....आपका शत्रुनुमा मित्र...तुषार कॉस्मिक.

कृष्ण का झूठा दावा

*****यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***** भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है. अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं. "जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ." पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह सूत-पुत्र था, जब एकलव्य का अंगूठा माँगा गया था? और महाभारत. वो कोई धर्म-युद्ध था? कोई युद्ध धर्म-युद्ध नहीं होता. युद्ध सिर्फ युद्ध होता है. युद्ध का अर्थ ही होता है कि अब बात नियमों की, धर्म की हद से बाहर हो चुकी है. आप लाख कहते रहो धर्म युद्ध, लाख करते रहो विएना समझौता, लेकिन युद्ध सब नियम, सब धर्म तोड़ देता है. महाभारत में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा अधर्म अगर हुआ तो वो पांडवों की तरफ से हुआ था. भीष्म को गिराया गया चालबाज़ी से. शिखंडी को बीच में खड़ा करके. अब आप क्या एक्स्पेक्ट करते हैं कि सामने वाला रिश्ते निभाये? बड़ा शोर मचाया जाता है आज तक कि अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया, मारते नहीं तो और क्या करते? टेढ़-मेढ़ की शुरुआत तो पांडव पहले ही कर चुके थे. बस कौरव चाल-बाज़ियों में कृष्ण से कमज़ोर पड़ गए और मारे गए. लेकिन क्या धर्म की स्थापना हो गई? कहते हैं कि पांडवों के वंशज भी मारे गए और कृष्ण के भी. और कृष्ण भी सस्ते में ही निपट गए अंत में. क्या उसके बाद भारत में या दुनिया में कोई अधर्म नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर कृष्ण के इस कथन का क्या अर्थ? शूद्रों पर अत्याचार हुए, बौधों पर अत्याचार हुए, चार्वाक पर अत्याचार हुए, फिर मुग़लों ने हाहाकार मचा दी, बंटवारे में लोग काटे गए, फिर कश्मीर में लोग मारे गए, पंजाब में, दिल्ली में, गुजरात में, जगह-जगह... ज़रा भारत से बाहर देख लें....दो विश्व-युद्ध लड़े गए. हिटलर ने यहूदियों को हवा बना के उड़ा दिया, लाखों को. जापानियों ने चीनियों की ऐसी-तैसी कर दी. अंग्रेजों ने आधी दुनिया को गुलाम कर दिया. इस्लाम चौदह सौ सालों से क़त्ल-ओ-गारत मचाये है. इस्लाम के मुताबिक जो मुसलमान नहीं, उसे जीने का हक़ ही नहीं. कब नहीं हुई धर्म की हानि? कहाँ नहीं हुई धर्म की हानि? कौन से भगवान ने अवतार लिया और धर्म की स्थापना कर दी? असल में अवतार की धारणा ही गलत है. कोई ऊपर से आसमान से आकर नहीं टपकता. कोई सुपर-मैन जन्म नहीं लेता. जो कोई भी पैदा होता है, हम में से ही होता है. इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. रोम में इंसानों को इंसानों पर छोड़ दिया जाता था लड़ने-मरने को और सभ्य लोग यह सब देख ताली पीटते थे. इसे सभ्यता कहेंगे? आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है. और धर्म की हानि रोज़ होती है, हर जगह होती है. और यह किसी भगवान-नुमा व्यक्ति के खुद को सृजन करने से या किसी अवतार के उद्गम से नहीं मिटेगी. यह इन्सान की सामूहिक सोच के उत्थान से घटेगी. और इसके लिए अनेक विचारकों की ज़रूरत होगी. और वो विचारक हम हैं, आप हैं, आपके मित्र हैं, पड़ोसी है. और हम में से कोई भगवान नहीं है, अवतार नहीं है. हम सब आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी हैं-औरत हैं. पीछे मैंने लिखा था, "एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ" जान-बूझ कर ऐसा लिखा था. यह धारणा तोड़ने को लिखा था कि अगर कोई इस दुनिया की बेहतरी का प्रयास करता है तो वो कोई पाक-साफ़ व्यक्ति ही होना चाहिए. जैसी दुनिया है, उसमें कोई पाक-साफ़ रह जाए, यह अपने आप में अजूबा होगा. तो छोड़ दीजिये यह धारणा कि कोई गुरु, कोई पैगम्बर, कोई मसीहा, कोई अवतार आता है और वो कोई निरमा वाशिंग पाउडर से धुला होता है, जिसकी चमकार, जिसका नूर आपको चुंधिया देता है. बेवकूफानी है यह धारणा. (लिखने लगा था 'बचकानी', लेकिन फिर सोचा कि बच्चे तो ऐसे बेवकूफ होते नहीं तो शब्द सूझा 'बेवकूफानी'.) दुनिया की बेहतरी सोचने वाले, करने वाले लोग हममें से ही होंगे, हम ही होंगे, अपनी तमाम तथा-कथित कमियों और बुराईयों के साथ, अपनी काली करतूतों के साथ, कोयले की दलाली में काले हुए मुंह के साथ. हम आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी-औरतें. नमन ..तुषार कॉस्मिक.

Sunday 28 May 2017

पूछा है मित्र ने, "धर्म कहाँ गलत हैं?"

मेरा जवाब," उस जागतिक चेतना ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.

मोटे नियम यानि व्यक्ति को अंत में मरना ही है, बूढ़े होना ही है...आदि....ये नियम उसके हैं....अभी तक उसके हैं, आगे बदल जाएँ, इन्सान अपने हाथ में ले ले, तो कहा नहीं जा सकता......बाकी कर्म का फल आदि उसने अपने पास नहीं रखा है.

बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि प्रभु कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब प्रभु/स्वयंभू खेल में दखल नहीं देता. आप लाख चाहो, वो पंगा लेता ही नहीं.

लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?

तो धर्म तो समझाता है कि आओ अरदास करो, प्रार्थना करो, दुआ करो, प्रेयर करो तुम्हारी बात सुनी जायेगी.

यहीं मेरी सोच धर्मों से टकराती है.
मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं.
इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े हैं.
झूठे आश्वासन दाता.

मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे."
पूछा है मित्र ने,"आत्मा क्या है, आधुनिक ढंग से समझायें?"
जवाब था, "शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है.
मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में.
सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा.
जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी.
अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद.
पहले तो यह समझ लें कि अगर जागतिक चेतना को आपके मन को, सोच-समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करती है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट.
यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद.
शरीर तो निश्चित ही आत्मा नहीं मानते होंगे आप?
अब क्या बचा?
जल में कुम्भ (घड़ा) है, और कुम्भ में जल है. जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, सीधे पड़े ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है.
बस यह वहम ही आत्मा है.
अब कुछ मित्रों को वहम है कि मनुष्य के कर्म अगले जन्म तक जाते हैं. और कर्मों के हिसाब से अगला जन्म फलस्वरूप मिलता है. यह भी बकवास बात है चूँकि यह मानने के लिए आप पहले से अगला जन्म माने बैठे हैं. नहीं, जो भी ऊंच-नीच समाज में आपको दिखती है, वो सब सामाजिक कु-प्रबन्धन का नतीजा है न कि अगले-पिछले जन्मों के कर्मों के फलों का. तो जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे?
इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना?
ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान में कुछ व्यक्तिगत है,पर्सनल है ... वो व्यक्तिगत/पर्सनल आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घूमते रहना होगा जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं."

----:वकालतनामा:----

कोई वकील hire करते हैं तो सबसे पहला काम वो करता है आपसे वकालतनामा साइन करवाने का. यहीं बहुत कुछ समझने का है. पहले तो यह समझ लें कि आप वकील को hire करते हैं, वो आपको hire नहीं करता है. आप एम्प्लोयी नहीं हैं, एम्प्लायर हैं. चलिए अगर एम्प्लोयी और एम्प्लायर का नाता थोड़ा अट-पटा लगता हो तो समझ लीजिये कि आप दोनों एक अग्रीमेंट के तहत जुड़ने जा रहे हैं. और वो अग्रीमेंट है, वकालतनामा. अब यह क्या बात हुई? वकील तो आपको वकालतनामा थमा देता है, जिसे आप बिना पढ़े साइन कर देते हैं. यहीं गड़बड़ है. वकालतनामा कुछ ऐसा नहीं है कि जिसे आपने बस साइन करना है. वो आपका और वकील के बीच का इकरारनामा है, अग्रीमेंट है. उसे आप उसी तरह से ड्राफ्ट कर-करवा सकते हैं जैसे कोई भी और अग्रीमेंट. उसमें सब लिख सकते हैं कि आप क्या काम सौंप रहे हैं वकील को, कितने पैसे दे रहे हैं उसे और आगे कब-कब कितने-कितने देंगे. उसमें दोनों तरफ से लिखा जा सकता है कि कौन कब उस अग्रीमेंट से बाहर आ सकता है. मतलब आपने अगर तयशुदा पेमेंट वकील को नहीं दी तो उसकी ज़िम्मेदारी खत्म और अगर वकील तयशुदा काम नहीं करता, तो आप उसे आगे पैसे नहीं देंगे और चाहेंगे तो उससे केस वापिस लेंगे. अपना केस तो आप कभी भी वकील से वापिस ले सकते हैं. आप अपना केस खुद लड़ सकते हैं या फिर कोई भी अन्य वकील hire कर सकते हैं. लेकिन असल में होता यह है कि वकील ऐसे इम्प्रैशन देते हैं जैसे वो एम्प्लोयी न हों, जैसे वो सर्विस देकर कोई अहसान कर रहे हों. एक-मुश्त मोटी रकम पहले ही ले लेते हैं. जैसे स्कूल वाले नर्सरी एडमिशन में मोटे पैसे पहले ही ले लेते हैं. अब ऐसे में व्यक्ति जल्दी से न तो वकील बदलने की हिम्मत करता है और न ही स्कूल. और तो और सारी केस फाइल भी वकील के पास ही होती है. मुद्दई के पास तो अपने केस का एक भी कागज़ नहीं होता. फिर अधिकांश वकील साथ-साथ केस की सर्टिफाइड कॉपियां भी नहीं निकलवाते, जो कि बहुत ज़रूरी हो जाती हैं यदि आपकी फाइल कोर्ट से गुम हो जाए. और गर वकील कोर्ट से सर्टिफाइड कॉपियां लेते भी हैं तो निकालने के ही बहुत पैसे ऐंठ लेते हैं, जबकि कोर्ट फ़ी मात्र दो या तीन रुपये प्रति पेज होती है. यह सब आप वकालतनामा में पहले ही डाल सकते हैं कि सारी कारवाई की सर्टिफाइड कॉपी साथ-साथ आपके वकील साहेब कोर्ट से लेंगे और आपको सौपेंगे और खुद फोटो-कॉपी रखेंगे और यदि आप उनको बरखास्त करते हैं तो आपसे आगे कोई पैसा नहीं मांगेंगे. लेकिन इस सारे मामले में अनपढ़ तो अनपढ़ हैं हीं, पढ़े-लिखे भी अनपढ़ हैं, सो वकील जायज़-नाजायज़ फायदा उठाते हैं. मेरी नज़र में तो डॉक्टर, शिक्षक, CA और वकील सब एम्प्लोयी ही हैं......एम्प्लोयी शब्द का अर्थ है जो पैसा लेकर कोई निश्चित कार्य करे......असल में पंचर लगाने वाला भी एम्प्लोयी ही है...थोड़ी देर के लिए hire किया गया एम्प्लोयी.....प्रॉपर्टी डीलर भी एम्प्लोयी ही है.......इसमें कुछ भी अच्छा-बुरा मानने समझने जैसा नहीं है. पैसा चाहे आप श्रम, समय और लागत की वजह से ले रहे हों और चाहे ज्ञान और अनुभव की वजह से....क्या फर्क है? पंचर लगाने में भी श्रम के साथ ज्ञान लगता है. मुझे कल ही एक पंचर वाले ने बताया कि कोई मशरूम पंचर भी होता है, जो tubeless टायर में अंदर की तरफ से लगता है. अब इसे कैसे ज्ञान न कहें? उसने वो पंचर मुझे दिखाया भी. यह वकील, डॉक्टर, CA आदि की ज़्यादती है जो सिर्फ खुद को प्रोफेशनल कहते हैं. जैसे बाकी लोग प्रोफेशनल न हों. असल में तो हर व्यक्ति प्रोफेशनल होता है. सेक्स बेचने वाली औरतों को तो हम कहते भी हैं "धंधे वाली". और यह भी समझना चाहिए कि सब वकील तो नहीं लेकिन बहुत से वकील कमीशन एजेंट का ही काम कर रहे होते हैं. उनको इस बात से क्या मतलब कि उनके क्लाइंट को इन्साफ मिले या न मिले? उन्हें तो बस अपने पैसे से मतलब. और अधिकांश वकील वो तो चाहते ही नहीं कि ऐसे व्यक्ति का केस भी लिया जाए जो कुछ कायदा कानून जानता हो....ऐसे व्यक्ति का केस तो वो ले के ही राज़ी नहीं होते..उन्हें तो अक्ल का अँधा और गाँठ का पूरा क्लाइंट चाहिए होता है. असल में वकील को लोग बहुत विश्वास के साथ hire करते हैं, इतना विश्वास कि आप इसे अंध-विश्वास कह सकते हैं. मित्रवर, केस आपका है, वकील का भी है लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह से आपका है. कोर्ट में जीत हार आपकी होती है, वकील की भी होती है लेकिन उस तरह से नहीं जैसे आपकी होती है. आप हारो, चाहे जीतो, वकील ने अपने पैसे ले ही लेने हैं. सो ये कुछ सावधानियां है, कुछ जानकारियाँ हैं, कुछ समझदारियां हैं जो आपको वकालतनामा साइन करने से पहले ही ध्यान में रखनी चाहियें. खतरनाक वकील नमन.....तुषार कॉस्मिक.
एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ.

Monday 22 May 2017

विषैली सोच भगवत गीता में

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।। ।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है। गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह. समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर..... इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? इडियट. अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking. तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और फिर यकायक सब खत्म. ऐसा कैसे हो सकता है? इंसान अपना न होना कैसे स्वीकार कर ले? सारी उम्र वो खुद के होने को साबित करता है. ज़रा झगड़ा हो जाए, कहेगा, "जानते हो, मैं कौन हूँ?" कैसे मान ले कि एक समय आएगा कि वो नहीं रहेगा? वो जानता है कि मृत्यु है, उसे तो झुठला नहीं सकता. रोज़ देखता है, हर पल देखता है. न चाहते हुए भी मृत्यु का होना तो मानना ही पड़ता है. लेकिन अपना खात्मा मृत्यु के साथ हो जाता है, यह वो नहीं मान सकता. बस यहीं से शुरू होती है, यह Wishful Thinking. यह विष से भरी सोच. वो आत्मा है, जो शरीर बदलती है. वैरी गुड. तुमने देखा क्या कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जा रही है? तुमने मनुष्य को देखा कपड़े बदलते हुए, आत्मा को देखा क्या शरीर बदलते हुए? लेकिन मौत के साथ किस्सा खत्म हुआ नहीं चाहते, सो नए शरीर के साथ नया एपिसोड शुरू. जैसे टीवी के सीरियल कभी खत्म नहीं होते. सास भी कभी बहु थी. छाछ भी कभी दही थी. कभी खत्म न होने को पैदा हुई कहानियाँ. गलत सिखाया है कृष्ण ने. वो बस अर्जुन को लड़वाना था तो कुछ भी बकवास चलाए रखी. असल बात यह है कि हम-तुम हैं ही नहीं. बस होने का एक भ्रम हैं. ऊपरी तौर पर हैं, गहरे में नहीं हैं. जैसे एक ग्लास रख दें खाली कमरे में. असल में खाली ग्लास भी खाली नहीं होता. हवा रहती है उसमें. यह हवा सिर्फ उसी में है क्या? नहीं. वो तो पूरे कमरे में है. जो खाली बोतल पड़ी है उसमें भी और कटोरी में भी और फूलदान में भी. है कि नहीं? हम "हैं" लेकिन "हम" नहीं हैं. अब आपका हाथ लगा और वो ग्लास टूट गया. छन्न से. वो जो हवा उसमें थी, वो ग्लास थी क्या? उसका ग्लास से क्या लेना-देना? अब क्या आप दूसरा ग्लास रखोगे, नया ग्लास रखोगे तो यह कहोगे कि वो ही हवा वापिस उसमें आ गई. आत्मा. नया वस्त्र. क्या बकवास है यह? "जल विच कुम्भ कुम्भ विच जल, विघटा कुम्भ जल जल ही समाना ये गति विरले न जानी", कबीर साहेब ने कहा है. कमरे में ग्लास की मिसाल और जल में कुम्भ और कुम्भ में जल वाली मिसाल काफ़ी कुछ एक ही हैं. ग्लास की हवा को और कुम्भ के जल को वहम है कि वो कुछ अलग है, उसका कोई अपना अस्तित्व है, जबकि ऐसा है नहीं....कुम्भ फूटा और उसका जल फिर से नदी के जल में मिल गया. वो पहले भी नदी का ही जल था, लेकिन चूँकि वो कुम्भ में था तो उसे वहम हो गया था कि वो नदी से अलग है कुछ. इसी तरह से इन्सान को वहम हो गया है कि वो परम-आत्मा से अलग कुछ है, सर्वात्मा से अलग कुछ है.....तभी वो खुद को आत्मा माने बैठा है, जिसका पुन:-पुन: जन्म होना है....तभी वो मोक्ष माने बैठा है.......जबकि मौत के साथ सब खत्म है. इन्सान को दूसरे ढंग से समझें......शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा. जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी. अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद. पहले तो यह समझ लें कि अगर परमात्मा को, सर्वात्मा को, कुदरत को आपके मन को, सोच समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करता है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट. यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद. शरीर तो निश्चित ही आत्मा नाही मानते होंगे आप? अब क्या बचा? जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है. जागतिक चेतना को आप कोई भी नाम दे सकते हैं....परमात्मा, अल्लाह, भगवान, खुदा.....मैंने नया नाम दिया, सर्वात्मा. हो सकता है यह पहले से हो प्रयोग में, लेकिन मैंने नहीं सुना, पढ़ा......मैंने बस घढ़ा. भूत, प्रेत बकवास बात हैं. और न ही कर्म अगले जन्म में जाते हैं, जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे? जिसे आप सनातनी धारणा कह रहे हैं, उसे ही मैं वहम कह रहा हूँ. वो जो वेदांत कहता है...'सर्वम खलविंदम ब्रह्म'.....वो सही बात है. और जिसे मैं जागतिक चेतना कह रहा हूँ उसे आप और लोग परमात्मा तो कह सकते हैं लेकिन आत्मा नहीं....आत्मा से अर्थ माना जाता है किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा. लोग अगर वेदांत की बात समझ लेते तो फिर तो सब कुछ परमात्मा है ही...आत्मा का कांसेप्ट ही नहीं आता. इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना? कुछ नहीं, ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान कुछ है जो कायनात से हट कर, कुछ व्यक्तिगत है....सो वो व्यक्तिगत आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घुमते रहना होगा. जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं. उस जागतिक चेतना ने, परमात्मा ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं. बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि परमात्मा कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब परमात्मा खेल में दखल नहीं देता. लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? कहानी खत्म. जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद? यहीं मेरी सोच सनातन, इस्लाम, सिक्खी, चर्च सबसे टकराती है. मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं. झूठे आश्वासन दाता. इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े. मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे. बस यह समझ आ जाये कि कोई आत्मा-वात्मा होती ही नहीं. जैसे सब और हवा व्याप्त है, ऐसे ही सब और एक चेतना व्याप्त है, वो ही विभिन्न रूप ले रही है. रूप को वहम है कि वो सर्व-व्यापी चेतना न होकर, रूप मात्र है. वो सर्वात्मा न होकर को आत्मा है. लहर को वहम हो रहा है कि वो समन्दर न होकर, बस लहर है. गीता का यह श्लोक लहर के भ्रम की सपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है. ग्लास में जो हवा को वहम है कि वो कुछ अलग है, उस वहम को बनाये रखने का ज़रिया मात्र है. Wishful Thinking, विषैली सोच. तुषार कॉस्मिक.....चोरी न करें..शेयर करें........नमन
मुझे ठीक पता नहीं लेकिन जेठमलानी, जो केजरीवाल का केस लड़ रहे हैं, वो कभी अडवाणी के वकील थे.
और हरीश साल्वे, जिनने जाधव का केस लड़ा है, उनने याकूब मेनन का केस भी लड़ा था.
सही है क्या भक्तो?
एक टीम बनानी है......"टीम अधार्मिक"...'टीम इंडिया' की तर्ज़ पर.....मतलब वो लोगों की टीम जो किसी भी देश, धर्म, जात-बिरादरी को नहीं मानते.....कौन कौन शामिल होगा? ज़रा हाथ खड़ा कीजिये कमेंट बॉक्स में.....
यदि कोई 'प्रदेश विशेष' के लोग किसी एक 'देश विशेष' के साथ नहीं रहना चाहते हों, यानि राजनीतिक तलाक़ चाहते हों, तो इसे राष्ट्र-द्रोह माना जाए या कानूनन वाजिब डिमांड?
पढ़ता हूँ कि हज सब्सिडी के नाम पर सरकार लूटती है. जो यात्रा कहीं सस्ते में होती है, उसके लिए कई गुणा पैसा वसूलती है सरकार. ठीक? तो बिना सब्सिडी हज जाने पर कोई रोक है क्या? ज्ञानवर्धन करें कृप्या.

Thursday 18 May 2017

यदि सच में दिल्ली में बस स्टॉप AC हो गए हैं (चूँकि दिल्ली में हूँ, लेकिन मैंने ऐसा देखा नहीं है अब्बी तक) तो मैं इसका विरोध करता हूँ चूँकि दिल्ली का पैसा अभी और बहुत बेसिक ज़रूरतों पर खर्च होना चाहिए. मतलब जो घर खराब पंखा ठीक न करा पा रहा हो, लेकिन फिर अचानक AC खरीदने पर आमादा हो जाये तो इसे आप क्या कहेंगे?
कपिल मिश्र सही हो भी सकते हैं, लेकिन इंतेज़ार कर रहे थे क्या कि कब पार्टी से बाहर निकाले जाएँ और कब वो केजरी का भन्डा-फोड़ करें?
यदि आपके पास नये टायर न हों तो गाड़ी के खराब टायर न बदलें 'टीम अन्ना' जी.
वैसे बता दूं कि यदि गौ को कोई माता मानता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है और कोई काट खाता है तो उसमें भी उसी का स्वार्थ है, गौ से किसी का कोई मतलब नहीं और न गौ को किसी से कोई मतलब है.
सच्चा प्रेम, भूत और रेड-मी नोट-4/ 64GB/4GB-RAM किसी-किसी को ही मिलते हैं.
असल में दुनिया के हर व्यक्ति को कुरान पढ़ना चाहिए......आयतों के अर्थ समझने चाहियें........कई इस्लाम छोड़ देंगे और बाकी सावधान हो जायेंगे.
भला उसकी कमीज़, मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे?
भला उसका &#$%यापा, मेरे &#$%यापे से बढ़िया कैसे?
भला उसका धर्म, मेरे धर्म से महान कैसे
When it comes to money, everybody is of the same religion--Old saying
When it comes to money & sex, everybody is of the same religion---New saying

Wednesday 10 May 2017

पक्षपाती रवीश कुमार

व्यक्ति अपनी ही सोच को आगे बढाता है जो कि अक्सर असंतुलित भी होती है.

रवीश कुमार मिसाल हैं. कितने प्रोग्राम किये आज तक रवीश कुमार ने इस्लाम या कहें कि तथा-कथित इस्लामिक लोगों  के खिलाफ?

देखा मैंने इक्का-दुक्का प्रोग्राम, जिसमें अपनी ही विचार-धारा को समर्थित करते लोग बुला रखे थे.

और 
देखा मैंने इशारों-इशारों में तारेक फ़तेह जैसे लोगों के प्रोग्राम का मज़ाक उड़ाते भी  रवीश को. 

दुनिया में एक से एक धमाके होते रहे इस्लामिक या तथा-कथित इस्लामिक लोगों द्वारा. लेकिन फ्रांस में कोई उदारवादी नेता चुना गया तो झट प्रोग्राम कर डाला.

इडियट!
Islam is just like a virus, computer or physical anyway, which gets multiplied before you are aware and then alter your whole system and start running at its own will.



Monday 8 May 2017

एक वार्तालाप मेरी फेसबुक मित्र चेष्टा देवी के साथ

चेष्टा देवी---मुझे तो वो स्त्रियां सबसे फालतू लगती है, जो तलाक दे चुके पति के लिए "हाय दइया, हाय दइया" करते और करेजा में मुक्का मारते हुए मंत्रियों के कोठी तक पहुंच जाती है!

Tushar ---- पति के लिए नहीं 'अलिमोनी' के लिए जाती हैं बहुतेरी.

चेष्टा देवी----अलिमोनी मतलब

Tushar ----- निर्वाह निधि

An allowance paid to a person by that person's spouse or former spouse for maintenance, granted by a court upon a legal separation or a divorce or while action is pending. 2. supply of the means of living; maintenance. Get out your tissues: Quotes about true heartbreak

चेष्टा देवी ---हां, परजीवी बनाने का भुगतान तो करना ही पड़ेगा! इस साजिश में न्यायव्यवस्था भी शामिल है।

Tushar ----- सामाजिक व्यवस्था ज़िम्मेदार है.........चूँकि न्याय-व्यवस्था भी सामाजिक व्यवस्था से आती है.

चेष्टा देवी -----ये बात कान घुमाकर पकड़ने जैसा ही है :-)

Tushar ------ नहीं है.........जड़ में सामाजिक मान्यताएं हैं, जहाँ से सब सामाजिक सिस्टम आते हैं.......विवाह, तलाक़, लड़का-लड़की की शिक्षा, उनके रोज़गार के अवसर, सब कहाँ से आते हैं? सामाजिक व्यवस्था से.

फिर आगे न्याय व्यवस्था, पुलिस, स्वास्थ्य व्यवस्था, यह व्यवस्था, वह व्यवस्था, ये सब  तो सामाजिक व्यवस्था के अंग मात्र हैं.

अकेली न्याय-व्यवस्था कोई आसमान से नहीं टपकती.

समाज से टपकती है.

चेष्टा देवी-----सब एक दूसरे को प्रमाणिक कर रही है! सहमत।

Tushar --------- नहीं.....

चेष्टा देवी-----सामाजिक मान्यताएं!

Tushar --------- पहले क्या आता है.....या पहले क्या बना होगा? जंगल से.....खेतों से...चलते हुए....इन्सान एक समाज बना......मतलब कुछ सिस्टम....कुछ कायदे......जो सामाजिक बेसिक मान्यताओं पर आधारित होंगे.

आज हमारी सामाजिक मान्यातएं बदलती हैं तो जजमेंट बदल जाती हैं.

मिसाल के लिए आज से बीस-तीस साल पहले भारत में live-in , सेम सेक्स शादी को जज सिरे से खारिज कर देता...है कि नहीं?

Tushar --------- और मिसाल लीजिये...सीधी..आपके केस से जुडी.

परजीवी कौन बनाता है औरत को? न्याय-व्यवस्था?

नहीं....बिलकुल नहीं.

मेरी दो बेटियां हैं...हम क्या चाहते हैं कि वो शादी करें और बोझ की तरह कल किसी की छाती पर सवार हो जाएँ?

नहीं.

हम उन्हें हर हाल में इस काबिल बनायेंगे कि वो अपने पैरों पर खड़ी हों. भाड़ में गई शादी.

चेष्टा देवी----- हम्म_ समझ रहे हैं :-)

Tushar --------- और गर हम उल्टा करें कि कल बस शादी कर दें जैसे-तैसे.....और आगे क्या होगा? अगर नहीं बनी वहां तो फिर तलाक और चूँकि लड़की पैरों पर खडी नहीं तो फिर उम्मीद करें कि लड़के वाले लाखों देकर जान छुडाएं जो कि बहुत केसेस में होता है.

तो ज़िम्मेदार कौन है?

ज़िम्मेदार माँ-बाप हैं/ Guardian हैं.

इसलिए कहा कि ज़िम्मेदार समाज है.

न्याय-व्यवस्था ने थोड़ा हमें कोई बाँधा है कि हम अपनी बेटियों को पढाएं न.....या उनको बिज़नस न करने दें.....या उनको नौकरी न करने दें.

नही न.....तो फिर मैं कैसे कहूं कि न्याय-व्यवस्था ज़िम्मेदार है? मैं ज़िम्मेदार हूँ, बच्चों की मां ज़िम्मेदार है, हमारा परिवार ज़िम्मेदार है अगर हम लडकियों के पैरों में बेड़ियाँ डालते हैं, उन्हें पंगु कर देते हैं तो, परजीवी कर देते हैं तो.

और गर कल वो कामयाब बिज़नस करें या नौकरी करें या वकालत करें तो भी उसके पीछे हमारे परिवार/समाज का ही बड़ा हाथ होता है.

मेरी बड़ी बिटिया को जापानी भाषा में बहुत रूचि है तो हम तमाम कोशिश कर रहे हैं कि वो इसका सर्टिफिकेट कोर्स करे...... अन्य कोर्स भी करे लेकिन यह भी कर ले.

और आगे भी जो करना चाहे करे और यकीन जानिये हमने, माँ-बाप दोनों ने, पूरी तरह से उसे यह गाइड किया है कि शादी "नहीं" करनी है, यह दुनिया की बकवास व्यवस्थाओं में से है.

हमें नहीं बनाना अपनी बेटियों को परजीवी.

हमारी बेटियों को किसी की alimony की कभी दरकार नहीं होनी चाहिए

हमारी बेटियां कभी किसी के घर-परिवार पर बोझ की तरह नहीं गिरेंगीं.

हम हर हाल में उनको उनके पैरों पर खड़ा करेंगे.

आशा है मेरी बात समझा सका होवूँगा.

चेष्टा देवी ----हाँ

नोट:--- वार्ता खत्म. कमेंट बॉक्स में लिंक दिया है इस वार्तालाप का. सन्दर्भ के लिए देख सकते हैं. नमस्कार.

Saturday 6 May 2017

जब आप साझे में अपना खर्च खुद वहन करते हैं तो इंग्लिश में इसे कहते हैं, "Pay & Play"
और
हिंदी में कहते हैं, "यारी-दोस्ती पक्की, खर्चा अपना-अपना"
लेकिन
पंजाबी में इसे कह सकते हैं, "हमारी जुत्ती, हमारे सिर/ ਸਾਡੀ ਜੁੱਤੀ, ਸਾਡੇ ਸਿਰ".

ओशो मेरे प्यारे ओशो: नानक साहेब पर आपकी गलत टिप्पणियाँ

आज ही ओशो का नानक साहेब की काबा यात्रा के बारे में एक ऑडियो सुन रहा था......दो चीज़ अखरीं.....वो कहते हैं कि नानक हिन्दू थे.....और दूसरा कि उन्होंने सिक्ख धर्म चलाया था...दोनों ही बात मुझे नहीं जमती. नानक साहेब ने बचपने में ही जनेऊ को इंकार कर दिया था, जो हिन्दुओं का एक ख़ास कर्म-काण्ड है, फिर हरिद्वार में लोग सूरज को पानी दे रहे थे, वो उल्टी दिशा पानी देने लगे. जगन्नाथ में होने वाली आरती पर भी उन्होंने कटाक्ष किया. कैसे कहेंगे, उनको हिन्दू? और उन्होंने कब चलाया सिक्ख धर्म? वो तो गोबिंद सिंह जी ने जब खालसा सजाया तब कहीं एक नए धर्म का बीज पड़ा. "सब सिक्खों को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." इसी ऑडियो में ओशो कह जाते हैं कि "कबीर"" गाते थे और मरदाना जो कि मुसलमान था, बजाता था. मुझे तो यह भी उचित नहीं लगता कि नानक साहेब के साथ चलने वाला कोई हिन्दू-मुसलमान रह जाए. नाम चाहे कोई भी ही, बाप-दादा चाहे किसी भी धर्म को मानते हों, वो खुद भी पहले चाहे कुछ भी मानता हो, लेकिन उस समय वो नानक साहेब के अंग-संग था. और उनका ख़ास संगी-साथी था. हो ही नहीं सकता कि ऐसा व्यक्ति हिन्दू-मुस्लिम रह जाए. यह जो ओशो नानक को 'कबीर' कह गए, उसके लिए तो ओशो ने कहा कि चूँकि वो नानक, कबीर, फरीद आदि में फर्क नहीं देखते सो नाम गड्ड-मड्ड कर जाते हैं. लेकिन बाकी पॉइंट ध्यान में रखता हूँ तो मुझे लगता है कि ओशो काफी कुछ गलती कर गए. मेरी इस तरह की दसियों पोस्ट हैं, लेकिन मित्र गलत न समझें, मैं लाख कमियां, गलतियाँ छांट-छांट कर पेश करता हूँ, मुझे ओशो का कोई दुश्मन समझ कर न पढें या पढ़ कर दुश्मन न समझें. ओशो के प्रति प्रेम है मेरा, सम्मान है लेकिन मेरे ओशो प्रेम से यह भी मतलब नहीं है कि ओशो मुझे कहाँ गलत लगते हैं, कहाँ ठीक वो मैं नहीं सोचूंगा, नहीं कहूँगा. नमन...तुषार कॉस्मिक.
मैं नितांत अधार्मिक व्यक्ति हूँ.
न मंदिर, न गुरूद्वारे जाता हूँ, न प्रार्थना करता हूँ, न ही किसी और तरह का धार्मिक कर्म.
हाँ, वैसे सब जगह चला जाता हूँ चाहे मन्दिर हो, चाहे गुरुद्वारा, चाहे चर्च.

बुद्धिजीवी

एक मित्र ने लिखा कि मैं, तुषार, मात्र बुद्धिजीवी हूँ. मतलब था कि मैं कोई आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हूँ. और वो मुझे बुद्धि का पर्दा हटाने की भी सलाह दे रहे थे.
उन्होंने शायद यह कोई मेरी कमी, बुराई, मेरी सीमा बताई.
लेकिन यह सत्य है. मैंने कभी बुद्धिजीवी होने के अलावा कोई क्लेम किया भी नहीं है.
लेकिन जिन को बुद्दिजीवी होने से परहेज़ हो, उनके लिए मशवरा है. ऐसे मत सोचिये जैसे बुद्धि से जीना कोई गलत हो. कुदरत ने बुद्धि दी है तो उसे प्रयोग करना ही चाहिए. आपको नहीं करना न करें. अगली बार जब सड़क पर चलेंगे तो बिना बुद्धि के चलिए. दायें..बायें...देखना ही मत.....लाल बत्ती, हरी बत्ती की बिलकुल परवा मत करना. और सामने से आते तेज़ गति वाले ट्रक में जा भिड़ना. बिलकुल ऐसा ही करना. बिना बुद्धि से जीना. अगर जी पाओ तो.

और बुद्धिजीवी होने का अर्थ ह्रदयहीन होना नहीं है  सर जी.



Thursday 4 May 2017

संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड

"संविधान, विधान, धर्म और कॉमन सिविल कोड" पहले तो यह समझ लें कि संविधान हो या विधान हो, सब हमारे लिए हैं. वक्त ज़रूरत पर हम इनमें बदलाव करते हैं. तो मेरा सुझाव है कि संविधान में, विधान में तथा-कथित धर्मों को लेकर बहुत बदलाव की दरकार है. **************************************************** पहले संविधान का अनुच्छेद २५ देखें. Article 25. Indian Constitution Freedom of conscience and free profession, practice and propagation of religion (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part, all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion (2) Nothing in this article shall affect the operation of any existing law or prevent the State from making any law (a) regulating or restricting any economic, financial, political or other secular activity which may be associated with religious practice; (b) providing for social welfare and reform or the throwing open of Hindu religious institutions of a public character to all classes and sections of Hindus Explanation I The wearing and carrying of kirpans shall be deemed to be included in the profession of the Sikh religion Explanation II In sub clause (b) of clause reference to Hindus shall be construed as including a reference to persons professing the Sikh, Jaina or Buddhist religion, and the reference to Hindu religious institutions shall be construed accordingly. यह अनुच्छेद 25/1 कहता है कि सबको धार्मिक आज़ादी है बशर्ते कि आम-जन में सेकुलरिज्म, स्वास्थ्य, नैतिकता, कायदा कानून बना रहे. इसी आधार पर इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर करना चाहिए चूँकि यह धर्म के नाम पर छद्म सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक संगठन है. इस्लाम की मुक्कदस किताब कुरान गवाह है, पढ़ सकते हैं. जी, यह कोई मेरा ओरिजिनल आईडिया नहीं है, अमेरिका और बहुत से अन्य मुल्कों में ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं कि इस्लाम को धर्मों की श्रेणी से बाहर किया जाये. इस्लाम कोई रोज़े, नमाज़, रमजान का नाम नहीं है. इस्लाम में शरिया है जो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अपने कानून हैं. इस्लाम में इस्लाम के पसारे के लिए हिंसा है. तो यह कैसे कोई धर्म हो गया? ****************************************************
जनसंख्या वृद्धि पर संविधान में एक अनुच्छेद जुड़ना चाहिए. कोई भी धर्म-विशेष के लोग एक सीमा के बाद जनसंख्या वृद्धि नहीं कर पाएं. इस पर सख्त रोक लगनी चाहिए. बल्कि अगर मुल्क जनसंख्या घटाने का निर्णय लेता है तो हर धर्म के लोग उसमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में अनिवार्य-रूपेण कमी लाएं. हर जन्म, हर मृत्यु कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड पर हो. यह इसलिए ज़रूरी है कि युद्ध सिर्फ तीर-तलवार से ही नहीं, इंसानी पैदावार से भी जीते जाते हैं. अगर किसी मुल्क पर हमला करना हो तो वहां घुस जाओ और फिर बच्चे ही बच्चे पैदा कर दो. जब आपकी जनसंख्या बढ़ेगी तो, वोटिंग पॉवर बढ़ेगी और इसके साथ ही आप वहां की सरकार में पैठ बनाते हुए धीरे-धीरे पूरी तरह से हावी हो जायेंगे. यूरोप में इस्लाम का दखल इसी तरह से हुआ है और नतीजा भुगत रहा है. अमेरिका इससे आगाह हो चुका है. भारत को अधिकारिक रूप से आगाह अभी होना है. **************************************************** अब संविधान का 25/2/b अनुच्छेद देखें, जो सिक्ख, जैन और बौद्ध को हिन्दू की छत्रछाया में ला के खड़ा कर देता है. और देखिये The Hindu Marriage Act, 1955 क्या कहता है? (1) This Act may be called the Hindu Marriage Act, 1955. (b) to any person who is a Buddhist, Jaina or Sikh by religion. सिक्ख, जैन, बौद्ध खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं और खुद को सिक्ख, जैन, बौद्ध कहलाना ही पसंद करते हैं. इनको ज़बरन हिन्दू कहना गलत है. हिन्दू की blanket term से बाहर करना चाहिए इनको. मेरा नाम पहले बाल-कृष्ण था, बदल कर मैंने तुषार रख लिया, लेकिन अगर आप मुझे बाल कृष्ण नाम से ही सम्बोधित करने की जिद्द करेंगे तो यह आपकी मान्यता है, माने जाएँ, मुझ से इसका क्या मतलब? और हिन्दू अपने आप में कोई लगा-बंधा धार्मिक सिस्टम न कभी रहा है और न है. असल में 'हिन्दू' नाम से कभी कोई धर्म रहा ही नहीं फिर भी जिन भी लोगों को खुद को हिन्दू कहलाना सही लगता हो, उन्हें हिन्दू कहलाये जाने का हक़ देना चाहिए. और यह जो हिंदुत्ववादी संघी बकवास है कि सिर्फ हिन्दू ही धर्म है, बाकी सब पूजा-पद्धतियाँ हैं, सम्प्रदाय हैं, पन्थ हैं, यह सिर्फ "तुम्हारा कुत्ता कुत्ता और हमारा कुत्ता टॉमी" के अलावा कुछ नहीं है. "हम धरम है, तुम भरम हो" के अलावा कुछ नहीं है यह. और ऐसा भरम हर तथा-कथित धर्म को है. **************************************************** इसके अलावा नास्तिकों और अज्ञेयवादियों को तथा अन्य किसी भी वाद को मानने वालों को पूरी संवैधानिक सुरक्षा मिलनी चाहिए. मतलब आप जिसे भगवान मानते हैं, कोई उसे यदि मात्र मिट्टी की मूर्ती मानता है तो उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, आप किसी को पैगम्बर मानते हैं, कोई उसे साधारण इनसान मानता है तो कोई बवाल नहीं होना चाहिए. तथा-कथित धर्म के विरोध और धर्म से विद्रोह को पूरी सुरक्षा, सुविधा और सम्मान मिलना चाहिए. आप दिन रात मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारों से लोक-परलोक, स्वर्ग, नरक, जीवन, मरण के बारे में चिल्लाते हैं तो कोई यदि आपकी इस चिल्लाहट को बकवास कहे तो कोई पंगा, दंगा नहीं होना चाहिए. लेकिन एक है IPC धारा 295-A. किसी की धार्मिक भावनाओं को जान-बूझ कर यदि कोई आहत करे तो इस धारा के अंतर्गत उसे तीन साल की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है. Section 295A in The Indian Penal Code Deliberate and malicious acts, intended to outrage religious feelings of any class by insulting its religion or religious beliefs.—Whoever, with deliberate and malicious intention of outraging the religious feelings of any class of [citizens of India], [by words, either spoken or written, or by signs or by visible representations or otherwise], insults or attempts to insult the religion or the religious beliefs of that class, shall be punished with imprisonment of either description for a term which may extend to [three years], or with fine, or with both. यकीन जानिए, आपके तमाम महापुरुष और महा-स्त्रियाँ इस धारा के अंतर्गत जेल में होते. सुकरात, जीसस, मंसूर, सरमद और जॉन ऑफ़ आर्क तथा कितने ही महान लोगों को ऐसे ही कानूनों के अंतर्गत क़त्ल किया गया. ऑस्कर वाइल्ड, एल्लन टुरिन जैसे लोगों को जेलों से सड़ा दिया गया. महान लेखक, महान वैज्ञानिक, महान समाज शास्त्री. सदियाँ ऋणी हैं, रहेंगी इनकी. लेकिन शक्ति बुद्धिहीन भीड़ के पास तब भी थी और अब भी है. लानत! ये जो लोग अक्सर कहते हैं कि हमें कानून व्यवस्था पर पूर्ण विश्वास है, ये भी कम “वो” नहीं हैं. बड़े वाले. इडियट. पहले देख तो लो कानून व्यवस्था विश्वास के काबिल है भी कि नहीं. कानून व्यवस्था में व्यवस्था है भी कि नहीं. पीछे ओवैसी चीख रहा था. असल में अपने पिछलग्गुओं को समझा रहा था कि यदि कोई तुम्हारे प्यारे नबी की शान में गुस्ताख़ी करे तो धारा 295-A का प्रयोग करो. सही है. अगले को अन्दर करवा दो बस. बहस मत पैदा होने दो. सच्चाई मत खोजने दो. जेल करवा दो. क़त्ल कर दो. यह देखो ही मत कि किसी तथा-कथित धर्म में धर्म कितना है और अधर्म कितना. वो धर्म कहलाने का हकदार है भी कि नहीं. आपने पढ़ा ही होगा कि श्रीमान “मेसंजर ऑफ़ गॉड” बाबा डॉक्टर राम रहीम सिंह इन्सान के शिष्यों ने यही धारा प्रयोग की हास्य कलाकार कीकू शारदा के खिलाफ़. कोई किसी से कम नहीं है. सब चाहते हैं कि उनके पीछे की भीड़ जुटी रहे, कहीं सत्य की किरण किसी छिद्र से प्रवेश ही न कर जाए. और हमारा आला कानून खड़ा है, ऐसे महापुरुषों की रक्षा के लिए. लेकिन इसे बदलना चाहिए. सबको अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने का बराबर हक़ होना चाहिए. **************************************************** Article 28 in The Constitution Of India 1949 Freedom as to attendance at religious instruction or religious worship in certain educational institutions (1) No religion instruction shall be provided in any educational institution wholly maintained out of State funds (2) Nothing in clause ( 1 ) shall apply to an educational institution which is administered by the State but has been established under any endowment or trust which requires that religious instruction shall be imparted in such institution (3) No person attending any educational institution recognised by the State or receiving aid out of State funds shall be required to take part in any religious instruction that may be imparted in such institution or to attend any religious worship that may be conducted in such institution or in any premises attached thereto unless such person or, if such person is a minor, his guardian has given his consent thereto Cultural and Educational Rights. यह है संविधान का अनुच्छेद 28, जो स्कूलों को धार्मिक शिक्षा की आज्ञा देता भी है और नहीं भी देता. अब ज़रा अनुच्छेद 30 भी देख लेते हैं. Article 30 in The Constitution Of India 1949 Right of minorities to establish and administer educational institutions (1) All minorities, whether based on religion or language, shall have the right to establish and administer educational institutions of their choice (1A) In making any law providing for the compulsory acquisition of any property of an educational institution established and administered by a minority, referred to in clause (1), the State shall ensure that the amount fixed by or determined under such law for the acquisition of such property is such as would not restrict or abrogate the right guaranteed under that clause (2) The state shall not, in granting aid to educational institutions, discriminate against any educational institution on the ground that it is under the management of a minority, whether based on religion or language यह अनुच्छेद कहता है कि धर्म या भाषा पर आधारित अल्प-संख्यक अपनी चॉइस यानि मर्ज़ी से शिक्षा संस्थान स्थापित कर सकते हैं. और चूँकि ये अल्प-संख्यकों के संस्थान होंगे, इस आधार पर सरकार इनके साथ कोई भेद-भाव नहीं करेगी. अब यहाँ अपनी चॉइस यानि मर्ज़ी के शिक्षा संस्थानों से क्या मतलब? वो तो धार्मिक शिक्षा देंगे ही, अगर चाहेंगे तो. मेरा पॉइंट यह है कि स्कूलों को, शिक्षा संस्थानों को धार्मिक शिक्षा देने का कतई कोई हक़ नहीं होना चाहिए, जब नहीं होगा तो वो बच्चों को प्रार्थना में खड़ा भी नही कर पायेंगे. और न मदरसों में कुरान पढाई जा पायेगी. है कोई कानून कि अगर स्कूल प्रार्थना करवायेंगे तो उनकी मान्यता रद्द हो जायेगी? कहाँ होती है स्कूलों की छुट्टी इस बात पर कि वो प्रार्थना करवा रहे हैं? **************************************************** THE CONSTITUTION (FORTY-SECOND AMENDMENT) ACT, 1976 Statement of Objects and Reasons appended to the Constitution (Forty-fourth Amendment) Bill, 1976 (Bill No. 91 of 1976) which was enacted as THE CONSTITUTION (Forty-second Amendment) Act, 1976 STATEMENT OF OBJECTS AND REASONS 3. It is, therefore, proposed to amend the Constitution to spell out expressly the high ideals of socialism, SECULARISM and the integrity of the nation, to make the directive principles more comprehensive and give them precedence over those fundamental rights which have been allowed to be relied upon to frustrate socio-economic reforms for implementing the directive principles. It is also proposed to specify the fundamental duties of the citizens and make special provisions for dealing with anti-national activities, whether by individuals or associations. THE CONSTITUTION (FORTY-SECOND AMENDMENT) ACT, 1976 [18th December, 1976.] An Act further to amend the Constitution of India. BE it enacted by Parliament in the Twenty-seventh Year of the Republic of India as follows:- 1. Short title and commencement.- (1) This Act may be called the Constitution (Forty-second Amendment) Act, 1976. (2) It shall come into force on such date as the Central Government may, by notification in the Official Gazette, appoint and different dates may be appointed for different provisions of this Act. 2. Amendment of the Preamble.- In the Preamble to the Constitution,- (a) for the words "SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC" the words "SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC" shall be substituted. ये जो ऊपर सन्दर्भ दिए हैं, इनसे साफ़ है कि भारत एक सेक्युलर स्टेट माना जाता है. और सरकार को, सेक्युलर सरकार को, पब्लिक ड्यूटी में रहते हुए किसी भी व्यक्ति को, सरकारी संस्थान को, सरकारी नियमों से चलने वाले संस्थान को किसी भी धार्मिक गति-विधी में शामिल नहीं होना चाहिए. ऐसा पाए जाने पर तुरत परमानेंट छुटी होनी चाहिए. अभी पीछे मेट्रो में केजरीवाल जी के पोस्टर लगे थे, किसी गुरु परब की बधाइयां दे रहे थे. क्यों भाई? आप एक संवैधानिक पद पर हो, सेक्युलर पद पर. सेक्युलर होने का मतलब ही है इन सब मान्यताओं से उदासीन रहना. और ऐसा कोई केजरीवाल ही नहीं, गली के छुटभैया नेता से लेकर सर्वोच्च नेता तक कर रहे हैं. है कोई कानून जो इनको पद-मुक्त कर सके मात्र इस मुद्ददे पर? **************************************** Article 27 Indian Constitution. Freedom as to payment of taxes for promotion of any particular religion No person shall be compelled to pay any taxes, the proceeds of which are specifically appropriated in payment of expenses for the promotion or maintenance of any particular religion or religions denomination संविधान के अनुच्छेद 27 में लिखा है कि सरकार किसी भी ख़ास धर्म के प्रचार में जनता के टैक्स का पैसा खर्च नहीं करेगी, लेकिन इस अनुच्छेद में यह नहीं लिखा है कि यदि पब्लिक का पैसा सरकार सब धर्मों पर बाँट कर खर्च करे तो वो ऐसा नहीं कर सकती. मतलब सरकार पब्लिक का पैसा, टैक्स देने वालों का पैसा, किसी विशेष धर्म पर तो खर्च नहीं कर सकती लेकिन हाँ, सब धर्मों पर मिल बाँट कर खर्च कर सकती है. लिखा कुछ भी लेकिन हज सब्सिडी चालू है. बस यहीं मेरा मत भेद है, मेरा कहना है कि सरकार को इस पंगे में पड़ना ही नहीं चाहिए. **************************************** मेरे सुझावों के ज़मीन पर आने पर आप देखेंगे हज की सब्सिडी खत्म. स्कूलों में ज़बरदस्ती की प्रार्थना खत्म, गुर-पर्वों, ईद, राम नवमी की सरकारी बधाईयों खत्म. अंध-श्रधा में कमी. तार्किकता में बढ़ोतरी. वैज्ञानिकता में बढ़ोतरी. तथा और भी बहुत कुछ....... **************************************************** अब “#कॉमन_सिविल_कोड" पर भी कुछ विचार प्रस्तुत है. हिन्दू ब्रिगेड हाहाकारी तरीके से कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़ी है. मानना यह है इनका कि मुस्लिम समाज ने अलग सिविल कानून की आड़ में बहुत से फायदे ले रखे हैं और समाज को असंतुलित कर रखा है. मुस्लिम एक से ज़्यादा शादी करते हैं, बिन गिनती के बच्चे पैदा करते हैं. आदि-आदि. तो क्यूँ न एक साझा कानून बनाया जाए? क्रिमिनल कोड एक ही है मुल्क में. क़त्ल करे कोई तो सज़ा एक ही है, चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान, चाहे सिक्ख. लेकिन हिन्दू बेटी को पिता की सम्पति में जो अधिकार है, वो मुसलमान बेटी को नहीं है. तलाक के बाद हिन्दू पत्नी को पति से जो सहायता मिलती है, वैसी मुस्लिम स्त्री को नहीं है. तो क्यूँ न एक ही कानून हो? कॉमन सिविल कोड. अनेकता में एकता. इसमें कुछ पेच हैं. अनेकता में एकता के फोर्मुले पर ही सारा जोर है जबकि एकता में अनेकता बनाए रखना भी ज़रूरी है. जहाँ तक हो सके, किसी भी समाज के नेटिव फैब्रिक को नहीं छेड़ा जाए. Article 29 in The Constitution Of India 1949 29. Protection of interests of minorities (1) Any section of the citizens residing in the territory of India or any part thereof having a distinct language, script or culture of its own shall have the right to conserve the same. (2) No citizen shall be denied admission into any educational institution maintained by the State or receiving aid out of State funds on grounds only of religion, race, caste, language or any of them. आदिवासी समाज में कुछ अलग कायदे हैं. वहां घोटुल व्यवस्था है. शादी से पहले जवां लड़के-लड़कियां एक साझे हाल में जीवन के नियम सीखते हैं. सेक्स भी. प्रैक्टिकल. आपका बड़ा से बड़ा स्कूल सेक्स एजुकेशन में उनसे पीछे है. अब आप कहें कि यह अनैतिक है, गैर कानूनी है. इसे हमारे तथा-कथित विकसित सामाजिक ढाँचे के हिसाब से परिभाषित करना चाहें तो आप मूर्ख है. उल्टा आपको उनसे कुछ सीखने की ज़रुरत है. तो कॉमन कोड के नाम पर कुछ स्थानीय, कुछ कबीलाई, ग्रामीण, आदिवासी परम्पराएं इसलिए ही तहस-नहस न हो जाएं कि एक ही झंडे तले लाना है. हो सकता है, वो हमारी आधुनिक मान्यताओं से बेहतर साबित हों. तो साझा कानून लागू करने से पहले गहन बहस होनी चाहिए कि बेहतर सामाजिक व्यवस्था क्या है. मैंने तो कल ही लिखा कि शादी का हक़ तब तक नहीं होना चाहिए जब तक स्त्री-पुरुष दोनों एक सीमा तक कमाने न लगें और यह कमाई पांच वर्ष की निरन्तरता न लिए हो. एक छोटा loan लेना हो तो बैंक तीन साल के फाइनेंसियल मांगता है और दो लोग परिवार बनायेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, उनकी फाइनेंसियल ताकत कोई ढंग से नहीं पूछता और लड़की की तो बिलकुल नहीं! कल अगर नहीं झेल पायेंगे खर्च, तो बोझ समाज पर पड़ेगा. बहुएं जला दी जाती थीं. फिर कानून बना डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट/ 498-A आया. अब विक्टिम आदमी हो गया. बहुत से शादी-शुदा आदमियों की बैंड बजा दी उनकी बीवियों ने. चौराहे पर सिग्नल न हो तो लोग दिक्कत महसूस करते हैं. टकराने लगते हैं एक दूजे से. लड़ने लगते हैं. और सिग्नल हो, लेकिन खराब हो जाए ज़रा देर के लिए, तो भी गदर मच जाता है. समस्या का हल यह नहीं था कि दहेज विरोधी कानून बना दो. ऐसे अनेक कानून हैं जो सिर्फ किताबों में बंद रहते हैं. सार्वजानिक स्थलों पर बीड़ी, सिगरेट पीना मना है, तो भी आपको हर जगह लोग दूसरों के नाक-मुंह में अपना उगला गंदा धुंआ घुसेड़ते नज़र आयेंगे. दहेज बंद हो गया क्या? लोग भव्य शादियाँ करते हैं. शादी नहीं करते, एक मेला लगाते हैं, शादी मेला, शाही मेला. और उनमें दोनों पक्षों में खूब ले-दे भी होता है. बेतुके कानून बनाए गए, और कुछ मामला सुलझा लेकिन कुछ और उलझ गया. अब दूल्हा पक्ष भी फंसने लगा. शादी के कॉन्ट्रैक्ट को गोल-मोल न रख के, सब पहले से निश्चित किया जाए. पश्चिम में prenuptial कॉन्ट्रैक्ट बनाए जाते हैं. वो सब जगह होने चाहियें. यह सात-आठ जन्म के साथ वाली बात बकवास है. सीधा सीधा हिसाबी-किताबी रिश्ता होता है. कानूनी बंधन. कहते भी हैं. सिस्टर-इन-लॉ. कानूनी बहन. असल में तो आधी घर वाली ही मानते हैं. Brother-in-law देवर को कहते हैं. कानूनी भाई. लेकिन असल में दूसरा वर भी माना जाता है. और कई समाजों में तो पति के मर जाने के बाद देवर के साथ ही भाभी की शादी कर दी जाती है. एक चादर मैली सी. एक फिल्म है, देख लीजिए अगर मौका मिले तो. शादी का हक़, बच्चा पैदा करने का हक़ जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं होना चाहिए. यह Birth Right नहीं होना चाहिए, यह Earned Right होना चाहिए, कमाया हुआ हक़. स्त्री पुरुष दोनों के लिए. और तलाक ट्रिपल नहीं होना चाहिए, सिंगल होना चाहिए. तुरत. कानून हो कि कोई भी बच्चा किसी भी धर्म में दीक्षित न किया जाए, जब तक वो अठारह साल का न हो, और अगर कोई कोशिश भी करे तो उसे सज़ा हो. अंग्रेज़ी भाषा सीखने से ज़रूरी नहीं कि छठी कक्षा का बच्चा शेक्सपियर को समझ सकता है. पंजाबी सीखने का मतलब नहीं कि गुरु ग्रन्थ में क्या लिखा है, समझ आ जाए. धर्म के नाम पर बच्चों का रोबोटीकरण ही होता है. बच्चा व्यक्तिगत होना ही नहीं चाहिए. तो मान लेगा क्या समाज आज? मेरे हिसाब से तो बच्चा पैदा करने का कानूनी हक़ खत्म कर देना चाहिए. लेकिन यह कब होगा? बच्चा सार्वजनिक होना चाहिए. मैं तो चाहता हूँ कि कानून हो कि धन कमाने की तो कोई सीमा न हो, लेकिन एक सीमा के बाद धनपति न तो अपने लिए धन रख सके और न ही अपने बच्चों के लिए. बाकी धन को स्वेच्छा से पब्लिक डोमेन में डाल दे, न डाले तो ऐसा कानूनन किया जाए. तो कॉमन सिविल कोड की बक-झक करने वालों को समझना चाहिए कि इसके ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ भी बहुत कुछ है. बहुत सी वर्तमान और भविष्य की अल्टरनेटिव व्यवस्थाओं को मद्दे नज़र रखना चाहिए. क्या आप कुछ साल पहले सोच सकते थे कि लोग सेम सेक्स में शादी करेंगे और इसे कानूनी मान्यता भी दी जाएगी? लिव-इन को भी कानूनी मान्यता देनी पड़ेगी, सोच सकते थे क्या आप?लव मैरिज ही पूरे गाँव की, मोहल्ले की चर्चा का मुद्दा रहती थी महीनों, सालों. टॉक ऑफ़ दा टाउन. कुछ समय पहले तक शादी ही एक मात्र व्यवस्था थी कि स्त्री पुरुष सहवास कर सकें, आज शादी उनमें से एक व्यवस्था है, कल ग्रुप-लिव-इन आ सकता है. परसों और भी व्यवस्थाएं उत्पन्न होंगी. आपको कायदे कानून बदलने पडेंगे. multiple सिस्टम खड़े हो सकते हैं. आप डंडा नहीं रख सकते कि एक ही व्यवस्था चलेगी. लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई समाज कोई ऐसी व्यवस्था अपनाने लगे जो पूरे देश दुनिया के ताने-बाने को उलझा दे. जैसे कोई कहे कि जनसंख्या पर इसलिए नियंत्रण नहीं करेंगे चूँकि उनके धर्म में ऐसा करना मना है तो वहां जबरदस्ती करनी होगी. चूँकि आज आक्रमण सिर्फ बन्दूकों, तोपों, गोलों से ही नहीं होते, जनसंख्या विस्फोट से भी होते हैं. किसी भी समाज में घुस के जनसंख्या विस्फोट कर के वहां के समाजिक ताने-बाने को तहस-नहस किया जा सकता है. इसका ख्याल रखना भी ज़रूरी है. डंडा घुमाने की आज़ादी सबको है लेकिन वो वहीं खत्म हो जाती है जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है. अब कोई छूत का रोगी कहे कि उसे छूट होनी चाहिए कि वो सबको छू सके, अगर आप रोको तो आप छूआछूत को बढ़ा रहे हो, तो गलत बात है. आज़ादी है लेकिन दूसरों को रोगी करने की नहीं. तो अगर व्यक्तिगत बच्चा पैदा करने की, पालने की आज़ादी दी भी जा रही हो किसी समाज में तो वो अल्टीमेट, अनलिमिटेड आज़ादी नहीं होनी चाहिए जैसी कि आज है. आज वो आज़ादी दूसरों के नाक ही नहीं, आँख, कान सब फोड़ रही है. दूसरों को छू रही है और छूत का रोगी कर रही है. धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन काम-चलाऊ ढंग से इन्हें धर्म मान भी लें तो इनमें इस्लाम शामिल नहीं होना चाहिए और हिन्दू की छत्र-छाया से सिक्ख, बौद्ध और जैन को बाहर होना चाहिए, यह मैं पहले ही लिख आया हूँ. तो आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक, बुद्ध और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है? सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए. कुछ कॉमन होना चाहिए, कुछ अन-कॉमन रहने देना चाहिए. कहीं एकता में अनेकता और कहीं एकता में अनेकता होनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए. कहीं जबरदस्ती की सख्त ज़रूरत है. वर्तमान के साथ भविष्य के सामाजिक बदलावों को भी नज़र में रखने की ज़रूरत है. कुछ पुराना रखना चाहिए, कुछ नया रखना चाहिए. सो कोई भी कदम उठाने से पहले गहन चर्चा होनी चाहिए, जहाँ तक हो सके जन-मानस तैयार करना चाहिए, फिर कदम-कदम बदलाव लाने चाहियें. थोड़ा बदलाव लाकर प्रयोग करें, देखें कि नतीजा क्या आता है, फिर अगले कदम उठाएं. और मैं विधान ही नहीं, संविधान की तबदीली में भी यकीन रखता हूँ. विधान, संविधान सब हमारे लिए है. जनतंत्र की परिभाषा ही है, जन के लिए, जन द्वारा, जन की सरकार. अभी लोग कॉमन सिविल कोड के समर्थन में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं और जो विरोध में खड़े हैं, वो भी मूर्ख हैं चूँकि दोनों के पास वजहें बड़ी ही अहमकाना हैं. थोड़ा गहरे में सोचेंगे तो कॉमन/ अन-कॉमन/ ज़बरदस्ती / जन-मानस सहमति सबको जगह देनी पड़ेगी कायदा कानून बनाने में. **************************************************** नोट---चुराएं न, किसी ने भी लिखा हो, मेहनत लगती है, उसे सम्मान दें अगर पसंद हो तो. वरना अपना विरोध तो ज़ाहिर कर ही सकते हैं, स्वागत है. नमन...तुषार कॉस्मिक...कॉपी राईट मैटर

Monday 1 May 2017

बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे?

भगवान परशुराम ने इक्कीस बार धरती को क्षत्रिय-विहीन किया.
वैरी गुड.
अबे, ओये, जब एक बार कर दिए थे तो फिर बीस बार और करने की का ज़रूरत थी? और फिर अब जो बचे हैं ई क्षत्रिय या खत्री, वो का हैं बे ?
झूट्टे कहीं के!
राम भगवान ने रावण मारा था. अबे, जब मार ही दिए थे एक बार, फिर हर साल काहे मारते हैं, हर साल काहे जलाते हैं? अगर सच में रावण मर गया था तो बार-बार-हर-बार का ज़रूरत यह सब नाटक-नौटंकी करने की?
बेखूफ़ समझ रक्खे हो का बे?
झूट्टे कहीं के!
इस पोस्ट का श्रेय ससम्मान ओशो को.

यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है

इलेक्शन आते हैं, अँधा पैसा खर्च होता है. झंडे, डंडे, सूरज, तारे, नारे, सब घुमा दिए जाते हैं. गली...गली..घर घर. जब तक सूरज चंद रहेगा.....@#$%& तेरा नाम रहेगा. "हर हर महादेव" तब्दील हो कर "हर हर मोदी, घर घर मोदी" बन जाते हैं और कोई हिन्दू मठाधीश ने इस पर ऐतराज़ नहीं उठाता! जिसे सारी उम्र आपने नहीं देखा, जिसकी किसी उपलब्धि को आप नहीं जानते, उसका चेहरा आप अपने चेहरे से ज़्यादा बार देख चुके होते हैं इलेक्शन के चंद दिनों में. जनतंत्र धनतंत्र में बदल गया, सबको पता है. चुनाव काबलियत से कम और पैसे से ज़्यादा जीता जाता है, सबको पता है. घूम-फिर कर संसद में राजे, महाराजे, और अमीर पहुँच जाते हैं, सबको पता है. इसे जनतंत्र कहते हैं? यह जनतंत्र के नाम पर एक बहूदी बे-वस्था है, जिसे जनतंत्र होने का गुमान बहुत है. जब भी सुनता हूँ "भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है" तो समझ नहीं आता कि हंसू कि रोऊँ. कॉर्पोरेट मनी का नंगा नाच है यह तथा-कथित जनतंत्र. कुछ भी कहो इसे यार, लेकिन जनतंत्र मत कहना, मुझे मितली सी आती है. "यहाँ शुद्ध भोजन मिलता है", ऐसा बोर्ड लगाने से मक्खियों से भिनभिनाता ढाबा शुद्ध-बुद्ध हो जाता है क्या? बोर्ड. बोर्ड से भ्रमित होते हैं लोग. बोर्ड बढ़िया होना चाहिए. इस गलगली सी, लिजलिजी सी बे-वस्था पर एक बहुत बढ़िया बोर्ड टांग दिया गया है. जनतंत्र. प्रजातंत्र. जन खुश है कि उसका तन्त्र है. प्रजा खुश है कि उसका तन्त्र है. जनता का तन्त्र. लानत!

मैं

मैं नहीं कहता कि मेरा लिखा अंतिम है किसी भी विषय पर. मैं कोई 'मैसेंजर ऑफ़ गॉड' नहीं हूँ, जिसका कहा अंतिम हो. दिल्ली मेट्रो में सफर करने वाला आम बन्दा हूँ जो छुटपन में घर के बाहर गली में भरने वाले नालियों के पानी में मिक्स बारिश के पानी में नहाता था, जो नालियों में गिरे अपने कंचे निकाल लेता था, जो आज भी सोफ़ा पर ही सोता है या ज़मीन पर, जो रेहड़ियों पर बिकने वाला खाना खाता है. बचपने में मेरा एक नाम रखा हुआ था "नली चोचो", चूँकि मेरी नली मतलब नाक हर दम चूती मतलब बहती रहती थी. तो मेरे जीवन में कुछ भी खास जैसा ख़ास है नहीं. तो मैं तो शायद 'डॉग ओफ मैसेंजर' होऊँ. सो मुझे छोड़िये लेकिन मेरी कही बात पकड़िये, वो भी अगर सही लगे तो. विभिन्न विषयों पर विभिन्न राय रखता हूँ मैं, वो सही-गलत कुछ भी हो सकती हैं. मेरी राय से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आप अपनी राय बनाने लगें, राय जो तर्क पर, वैज्ञानिकता पर, फैक्ट पर, प्रयोगों पर आधारित हों. बस, मेरी चिंता इतनी ही है.
नमन..तुषार कॉस्मिक

जिगर मुरादाबादी के शब्द और फैशन

जिगर मुरादाबादी के शब्द हैं जो राज कुमार के होठों पर आ कर अमर हो गए. "ज़माना हम से है, हम जमाने से नहीं." जब आप फैशन की दुनिया में कदम रखते हैं तो यहाँ आप बस जमाने के कदम-ताल से कदम मिलाने को ही प्रयास-रत रहते हैं. हम ज़माने से हैं, ज़माना हम से नहीं. जिस्म पर क्या जमेगा, इसकी परवा नहीं करते, 'इन' 'आउट' की परवा करते हैं बस. कहाँ 'इन' है, क्या 'इन' है, किसके 'इन' है, और अगर कुछ 'इन' है भी तो आप भी उसे 'इन' करें, यह मुझे आज तक समझ नहीं आया. अभी कपूरथला में इंगेजमेंट का आयोजन था. किसी से बात कर रह था, "ब्याह शादी पर ये जो अचकन, चूड़ी-दार पायजामे पहनते हो, क्यूँ?" कारण उसे नहीं पता था. मैंने कहा, "शायद सब पहनते हैं, इसलिए तुम भी पहनते हो." उसने कहा, "नहीं, मुझे यह सब पहनना अच्छा लगता है." मैंने कहा कि उसे अच्छा क्या इसलिए नहीं लगता कि सबको अच्छा लगता है. अब वो कुछ गोता खा गया. ईमानदार लड़का था, वरना साफ़ मुकर जाता कि नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं था. मुझ से कोई पूछ रहा था कि वकील गर्मी में काला कोट और काला गाउन सा क्यूँ पहनते हैं? मैंने कहा, "कोई वजह जैसी वजह समझ नहीं आती. सब अज़ीब है. जब कोई डिग्री लेता है, तो अज़ीब सी टोपी और अज़ीब सा गाउन पहनता है. मुझे इन सब में से किसी के पीछे कोई तार्किकता नज़र नहीं आती." देवी शकीरा पहले ही कह चुकी हैं. हिप्स झूठ नहीं बोलते. हिप्स क्या शरीर का कोई भी अंग-प्रत्यंग झूठ नहीं बोलता. तभी तो स्किन टाइट कपड़े पहने जाते हैं. कपड़ों में भी शरीर दिखाने की चाह. नग्न होने की चाह. हिप्स झूठ नहीं बोलते, चाहे शकीरा के हों, चाहे किसी के भी हों. अमेरिकी कैदी अपने पायजामे नीचे सरका देते थे, ताकि बिन बोले ही देखने वाले समझ जाएँ कि उनकी सहमति है सेक्स सहभागिता में. अब आज के नौजवान और नौजवानियाँ जॉकी का कच्छा दिखाते हुए नीचे सरकी अपनी पतलून से क्या मेसेज देना चाहते हैं, वो ही जानें, बस गुज़ारिश इतनी सी है कि शकीरा जी के शर्करा शब्द याद रखें. रवीश कुमार को मैं काफी संजीदा टीवी एंकर मानता हूँ...पर जनाब तपती गर्मी में कोट पहने टाई लगाये समाचारों पर समीक्षा प्रस्तुत कर रहे थे............कहीं तो सोच में गड़बड़ है कपड़े तक पहनने में लोग अंध-विश्वासी हैं...न सिर्फ अनपढ़, कम पढ़े लिखे बल्कि ठीक ठाक पढ़े लिखे लोग भी. अब कोट, टाई पहना व्यक्ति ही संजीदा लगेगा, सभ्य लगेगा, यह अंध विश्वास नहीं तो क्या है मेरा धंधा है कपड़े का, कौन सा कपड़ा Casual है, कौन सा Formal, सब अंध विश्वास है आदमी मरे मरे रंग पहने, औरत चटकीले रंग, यह अंध विश्वास है बुजुर्ग हैं तो मरे-मरे रंग पहने, यह अंध विश्वास है ऊँची एड़ी वाली स्त्री अच्छी दिखती हैं, यह अन्धविश्वास है....चीन में तो स्त्री के छोटे पैर सुन्दर दीखते हैं, इसका इतना जबरदस्त अंध विश्वास था कि बच्चियों को इतनी छोटे लोहे के जूते पहनाये जाते थे कि उनका बाकी शरीर तो बढ़ जाता था लेकिन पैर छोटे रह जाते थे, इतने छोटे कि वो अपाहिज हो जातीं थी.....हमेशा के लिए....अभी भी शायद एक आध औरत उन बदकिस्मत औरतों में से जीवित हो. मैं मुक्त हूँ, उन्मुक्त हूँ, लम्बे बाल रखता हूँ. स्त्रियों जैसे. तंग पतलून के साथ कुरता पहनता हूँ और गले में रंग-बिरंग रेशमी वस्त्र. 'अजीबो-अमीर' लुक्स. "बोहेमियन" लुक्स. आप मुझे एक बार मिलेंगे तो कभी नहीं भूलेंगे. खैर, अगली बार जब आप कपडे पहने तो ध्यान रखें कि आप कहीं पिछलग्गू तो नहीं. ध्यान रखें कि आप एक के पीछे एक चलने वाली भेड़ तो नहीं. ध्यान रखें कि ज़माना आप से है, या आप जमाने से हैं.

बाहुबली और संघी सोच

बाहुबली...संघी सोच को हवा देती है. भारतीय योद्धाओं का महिमा-मंडली-करण. भारतीय योद्धा लड़े थे लेकिन अधिकांश हारे हैं. युद्ध "बाहुबल" से कम और युद्ध-विद्या और अस्त्र-शस्त्रों की आधुनिकता से अधिक जीते जाते हैं, "बुद्धिबल" से अधिक जीते जाते हैं. देर-सबेर हार ही पल्ले पड़नी थी चूँकि हम आविष्कारक नहीं थे. पोरस मुझे लगता है कि अगर जीता नहीं तो हारा भी नहीं था. युद्ध में उसका बेटा, जिसका नाम भी पोरस था, वो मारा गया था, लेकिन इन्होने मिल कर सिकन्दर को आगे बढ़ने से रोक दिया था, तो इसे हार नहीं कह सकते. शिवाजी, गुरु गोबिंद, बन्दा बहादुर, हरी सिंह नलुआ, रणजीत सिंह जैसे योद्धाओं ने सख्त टक्कर दी. जहाँ तक मैंने पढ़ा, पृथ्वीराज के सत्रह बार गौरी को हराने की बात विवादित है. हाँ, एक बार ज़रूर गौरी उससे हारा था. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि एक बार हारा या कितनी बार हारा. एक बार भी हारा तो भी हारा तो था. मेरा पॉइंट यह है कि एक बार भी हारने पर उसे क्यूँ छोड़ा? युद्ध युद्ध होता है, इसमें कोई गहरी फिलोसोफी ढूँढना बकवास है. पृथ्वीराज ने बेवकूफी की जिसे गौरी ने नहीं दोहराया. गौरी ने वही किया जो युद्ध के हिसाब से करना बनता था. और पृथ्वीराज राज-धर्म को भूल गया था. उसने जयचंद की बेटी जो रिश्ते में उसकी भी बेटी जैसी ही लगती थी, संयोगिता (संयुक्ता) को उठा लाया था. हमें यह याद रखना चाहिए कि राम अगर राज-धर्म के लिए सीता को छोड़ देते हैं तो पृथ्वी राज-धर्म भूल संयुक्ता को उठा लाते हैं, नतीजा सब जानते हैं. जयचंद को कोसने से पहले पृथ्वी को कोसें भगवन. एक और बात ध्यान दें कि उस समय तक आज के भारत जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था. सब राजाओं का अपना इलाका था, अपना देश था. सो यह सोचना कि जयचंद ने बाहरी का साथ दिया, कोई सही नहीं है. वो राजा था, उसे जो ठीक लगा उसने किया, बाहरी, भीतरी जैसी कोई बात नहीं थी. ये सब वैसे भी अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए लड़ते रहते थे. अशोक ने कलिंग में जो भयंकर मार-काट की थी, वो कोई किसी बाहरी के खिलाफ थी? नहीं, मरने और मारने वाले सब यहीं के थे. वाल्मीकि रामायण के अंत में साफ़ लिखा है कि राम ने अपने सीमाएं बढ़ाने के लिए ऐसे राज्यों पर हमला किया जिनकी उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी. वो अश्वमेध यज्ञ, घोडा छोड़ना क्या था? यही कि अधीनता स्वीकार करो, वरना लड़ो. अब समझ लीजिये कि हमारे यहाँ के राजाओं के युद्ध कोई 'धर्म-युद्ध' नहीं थे, मात्र युद्ध थे. और तो और महाभारत जिसे धर्म-युद्ध कहा जाता है उसमें भी धर्म जैसी कोई बात नहीं थी. कृष्ण की चाल-बाज़ियों से अधिकांश कौरव मारे गए थे. तो पृथ्वी राज चौहान, महाराणा प्रताप, लक्ष्मी बाई और अनेक लोग अंततः हारे थे. अगर हारे न होते तो कैसे गुलाम हो जाते? लेकिन संघ हमेशा सिखाता है कि हमारा सब सही सही था. संघ तरीके से इस्लाम के खिलाफ घड़ा गया है...लगभग हर बात.......जैसे जैसे सोचो वैसे यह बात पक्की होती जाती है. संघ उसकी प्रति-छाया है. इस्लाम शुद्ध-रूपेण एक बकवास आइडियोलॉजी है. और उसी को जवाब देने के लिए बहुत सी बकवास आइडियोलॉजी खड़ी की गयी हैं. बाला साहेब, मोदी, योगी, ट्रम्प सब इस्लाम का जवाब हैं. खालसा, संघ और अमेरिका और यूरोप में कई संस्थाएं इस्लाम के खिलाफ जवाब हैं. इस्लाम एक विध्वंसक आइडियोलॉजी है, जो येन-केन-प्रकारेण सब को मुस्लिम बनाने में यकीन रखती है. सो वक्त ज़रूरत के हिसाब से इसका मुकाबला करने के लिए, जिसे जो सही लगा, उसने वो किया. लेकिन वो सही भी अंततः गलत साबित हुआ. होना ही था. हम एक गड्डे में गिर गए, पर फायदा सिर्फ इतना है कि बड़ी खाई में गिरने से बच गए. छोटी गलती ने बड़ी गलती करने से रोका. छोटे कांटे से बड़ा काँटा निकाला गया. लेकिन छोटा काँटा गड गया. उसे भी निकालना है. छोटे गड्डे से भी निकलना है. आप इस्लाम के खिलाफ संघ खड़ा कर लो. एक बकवास के खिलाफ एक और बकवास. एक अंधत्व के खिलाफ एक और अंधत्व. नहीं.....दुनिया की हर बकवास आइडियोलॉजी का जवाब तर्क-युद्ध है, न कि एक और बकवास आइडियोलॉजी खड़ी करना. वो कहते हैं न कि अगर कोई एक आंख फोड़े तो आप बदले में उसकी आंख फोड़ देंगे तो फिर अंत में दुनिया में सब अंधे ही बचेंगे. एक अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ हिन्दूत्व या और ऐसे ही कोई 'त्व' खड़े करने से समस्या हल नहीं होगी, गुणित हो जायेगी. अयान हिरसी अली का बहुत सम्मान है आज की दुनिया में. इस्लाम की ज़बरदस्त विरोधी हैं. उन्होंने कहा कि ट्रम्प की इस्लाम के खिलाफ नीति से बेहतर है कि तार्किकता फैलाई जाये, क्रिटिकल थिंकिंग. और यही मेरा मानना है. 'क्रिटिकल थिंकिंग' ही आखिरी इलाज है, हर अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ. नमन...तुषार कॉस्मिक