आप नाम छोड़ दीजिये.....ये नाम परमात्मा, ईश्वर, भगवान इन्हें छोड़ देते हैं.....नाम सब काम-चलाऊ हैं.....नाम सब हमारे दिए हैं......यूँ समझ लीजिये कि ब्रह्माण्ड को अवचेतन से और ज़्यादा चेतन होने का फितूर पैदा हुआ.......उसने अपने लिए कुछ रूप गढ़ने शुरू किये.....खुद ही कुम्हार, खुद ही मिटटी, खुद ही पानी, खुद ही मूरत......बस जैसे-जैसे वो रूप गढ़े, उनमें रूप के मुताबिक़ चेतना घटित होती गई......यूँ ही इन्सान तक पहुँच हो गई......यूँ ही सब पैदा हुआ...इस सब का सिवा खेल-तमाशे के और क्या मन्तव्य? सो कहते हैं कि जगत जगन्नाथ की लीला है.

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