*****यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत
अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम*****
भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है.
अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं.
"जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ."
पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह सूत-पुत्र था, जब एकलव्य का अंगूठा माँगा गया था?
और महाभारत. वो कोई धर्म-युद्ध था? कोई युद्ध धर्म-युद्ध नहीं होता. युद्ध सिर्फ युद्ध होता है. युद्ध का अर्थ ही होता है कि अब बात नियमों की, धर्म की हद से बाहर हो चुकी है. आप लाख कहते रहो धर्म युद्ध, लाख करते रहो विएना समझौता, लेकिन युद्ध सब नियम, सब धर्म तोड़ देता है.
महाभारत में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा अधर्म अगर हुआ तो वो पांडवों की तरफ से हुआ था. भीष्म को गिराया गया चालबाज़ी से. शिखंडी को बीच में खड़ा करके. अब आप क्या एक्स्पेक्ट करते हैं कि सामने वाला रिश्ते निभाये? बड़ा शोर मचाया जाता है आज तक कि अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया, मारते नहीं तो और क्या करते? टेढ़-मेढ़ की शुरुआत तो पांडव पहले ही कर चुके थे. बस कौरव चाल-बाज़ियों में कृष्ण से कमज़ोर पड़ गए और मारे गए.
लेकिन क्या धर्म की स्थापना हो गई? कहते हैं कि पांडवों के वंशज भी मारे गए और कृष्ण के भी. और कृष्ण भी सस्ते में ही निपट गए अंत में.
क्या उसके बाद भारत में या दुनिया में कोई अधर्म नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर कृष्ण के इस कथन का क्या अर्थ?
शूद्रों पर अत्याचार हुए, बौधों पर अत्याचार हुए, चार्वाक पर अत्याचार हुए, फिर मुग़लों ने हाहाकार मचा दी, बंटवारे में लोग काटे गए, फिर कश्मीर में लोग मारे गए, पंजाब में, दिल्ली में, गुजरात में, जगह-जगह...
ज़रा भारत से बाहर देख लें....दो विश्व-युद्ध लड़े गए. हिटलर ने यहूदियों को हवा बना के उड़ा दिया, लाखों को.
जापानियों ने चीनियों की ऐसी-तैसी कर दी.
अंग्रेजों ने आधी दुनिया को गुलाम कर दिया.
इस्लाम चौदह सौ सालों से क़त्ल-ओ-गारत मचाये है. इस्लाम के मुताबिक जो मुसलमान नहीं, उसे जीने का हक़ ही नहीं.
कब नहीं हुई धर्म की हानि? कहाँ नहीं हुई धर्म की हानि? कौन से भगवान ने अवतार लिया और धर्म की स्थापना कर दी?
असल में अवतार की धारणा ही गलत है. कोई ऊपर से आसमान से आकर नहीं टपकता. कोई सुपर-मैन जन्म नहीं लेता. जो कोई भी पैदा होता है, हम में से ही होता है.
इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं.
रोम में इंसानों को इंसानों पर छोड़ दिया जाता था लड़ने-मरने को और सभ्य लोग यह सब देख ताली पीटते थे. इसे सभ्यता कहेंगे? आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है.
और धर्म की हानि रोज़ होती है, हर जगह होती है. और यह किसी भगवान-नुमा व्यक्ति के खुद को सृजन करने से या किसी अवतार के उद्गम से नहीं मिटेगी. यह इन्सान की सामूहिक सोच के उत्थान से घटेगी. और इसके लिए अनेक विचारकों की ज़रूरत होगी.
और वो विचारक हम हैं, आप हैं, आपके मित्र हैं, पड़ोसी है. और हम में से कोई भगवान नहीं है, अवतार नहीं है. हम सब आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी हैं-औरत हैं.
पीछे मैंने लिखा था, "एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ"
जान-बूझ कर ऐसा लिखा था. यह धारणा तोड़ने को लिखा था कि अगर कोई इस दुनिया की बेहतरी का प्रयास करता है तो वो कोई पाक-साफ़ व्यक्ति ही होना चाहिए.
जैसी दुनिया है, उसमें कोई पाक-साफ़ रह जाए, यह अपने आप में अजूबा होगा. तो छोड़ दीजिये यह धारणा कि कोई गुरु, कोई पैगम्बर, कोई मसीहा, कोई अवतार आता है और वो कोई निरमा वाशिंग पाउडर से धुला होता है, जिसकी चमकार, जिसका नूर आपको चुंधिया देता है. बेवकूफानी है यह धारणा. (लिखने लगा था 'बचकानी', लेकिन फिर सोचा कि बच्चे तो ऐसे बेवकूफ होते नहीं तो शब्द सूझा 'बेवकूफानी'.)
दुनिया की बेहतरी सोचने वाले, करने वाले लोग हममें से ही होंगे, हम ही होंगे, अपनी तमाम तथा-कथित कमियों और बुराईयों के साथ, अपनी काली करतूतों के साथ, कोयले की दलाली में काले हुए मुंह के साथ. हम आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी-औरतें.
नमन ..तुषार कॉस्मिक.
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