विषैली सोच भगवत गीता में
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
।।2.22।।मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह.
समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर.....
इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया?
इडियट.
अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking.
तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और फिर यकायक सब खत्म.
ऐसा कैसे हो सकता है?
इंसान अपना न होना कैसे स्वीकार कर ले? सारी उम्र वो खुद के होने को साबित करता है. ज़रा झगड़ा हो जाए, कहेगा, "जानते हो, मैं कौन हूँ?" कैसे मान ले कि एक समय आएगा कि वो नहीं रहेगा? वो जानता है कि मृत्यु है, उसे तो झुठला नहीं सकता. रोज़ देखता है, हर पल देखता है. न चाहते हुए भी मृत्यु का होना तो मानना ही पड़ता है.
लेकिन अपना खात्मा मृत्यु के साथ हो जाता है, यह वो नहीं मान सकता. बस यहीं से शुरू होती है, यह Wishful Thinking. यह विष से भरी सोच.
वो आत्मा है, जो शरीर बदलती है. वैरी गुड. तुमने देखा क्या कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जा रही है? तुमने मनुष्य को देखा कपड़े बदलते हुए, आत्मा को देखा क्या शरीर बदलते हुए?
लेकिन मौत के साथ किस्सा खत्म हुआ नहीं चाहते, सो नए शरीर के साथ नया एपिसोड शुरू. जैसे टीवी के सीरियल कभी खत्म नहीं होते. सास भी कभी बहु थी. छाछ भी कभी दही थी. कभी खत्म न होने को पैदा हुई कहानियाँ.
गलत सिखाया है कृष्ण ने. वो बस अर्जुन को लड़वाना था तो कुछ भी बकवास चलाए रखी.
असल बात यह है कि हम-तुम हैं ही नहीं. बस होने का एक भ्रम हैं. ऊपरी तौर पर हैं, गहरे में नहीं हैं. जैसे एक ग्लास रख दें खाली कमरे में. असल में खाली ग्लास भी खाली नहीं होता. हवा रहती है उसमें. यह हवा सिर्फ उसी में है क्या? नहीं. वो तो पूरे कमरे में है. जो खाली बोतल पड़ी है उसमें भी और कटोरी में भी और फूलदान में भी. है कि नहीं? हम "हैं" लेकिन "हम" नहीं हैं.
अब आपका हाथ लगा और वो ग्लास टूट गया. छन्न से. वो जो हवा उसमें थी, वो ग्लास थी क्या? उसका ग्लास से क्या लेना-देना? अब क्या आप दूसरा ग्लास रखोगे, नया ग्लास रखोगे तो यह कहोगे कि वो ही हवा वापिस उसमें आ गई. आत्मा. नया वस्त्र. क्या बकवास है यह?
"जल विच कुम्भ कुम्भ विच जल, विघटा कुम्भ जल जल ही समाना ये गति विरले न जानी", कबीर साहेब ने कहा है.
कमरे में ग्लास की मिसाल और जल में कुम्भ और कुम्भ में जल वाली मिसाल काफ़ी कुछ एक ही हैं.
ग्लास की हवा को और कुम्भ के जल को वहम है कि वो कुछ अलग है, उसका कोई अपना अस्तित्व है, जबकि ऐसा है नहीं....कुम्भ फूटा और उसका जल फिर से नदी के जल में मिल गया. वो पहले भी नदी का ही जल था, लेकिन चूँकि वो कुम्भ में था तो उसे वहम हो गया था कि वो नदी से अलग है कुछ.
इसी तरह से इन्सान को वहम हो गया है कि वो परम-आत्मा से अलग कुछ है, सर्वात्मा से अलग कुछ है.....तभी वो खुद को आत्मा माने बैठा है, जिसका पुन:-पुन: जन्म होना है....तभी वो मोक्ष माने बैठा है.......जबकि मौत के साथ सब खत्म है.
इन्सान को दूसरे ढंग से समझें......शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है.
मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में.
सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा.
जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी.
अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद.
पहले तो यह समझ लें कि अगर परमात्मा को, सर्वात्मा को, कुदरत को आपके मन को, सोच समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करता है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट.
यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद.
शरीर तो निश्चित ही आत्मा नाही मानते होंगे आप?
अब क्या बचा? जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है.
जागतिक चेतना को आप कोई भी नाम दे सकते हैं....परमात्मा, अल्लाह, भगवान, खुदा.....मैंने नया नाम दिया, सर्वात्मा.
हो सकता है यह पहले से हो प्रयोग में, लेकिन मैंने नहीं सुना, पढ़ा......मैंने बस घढ़ा.
भूत, प्रेत बकवास बात हैं. और न ही कर्म अगले जन्म में जाते हैं, जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे? जिसे आप सनातनी धारणा कह रहे हैं, उसे ही मैं वहम कह रहा हूँ.
वो जो वेदांत कहता है...'सर्वम खलविंदम ब्रह्म'.....वो सही बात है. और जिसे मैं जागतिक चेतना कह रहा हूँ उसे आप और लोग परमात्मा तो कह सकते हैं लेकिन आत्मा नहीं....आत्मा से अर्थ माना जाता है किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा.
लोग अगर वेदांत की बात समझ लेते तो फिर तो सब कुछ परमात्मा है ही...आत्मा का कांसेप्ट ही नहीं आता.
इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना?
कुछ नहीं, ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान कुछ है जो कायनात से हट कर, कुछ व्यक्तिगत है....सो वो व्यक्तिगत आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घुमते रहना होगा.
जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं.
उस जागतिक चेतना ने, परमात्मा ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.
बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि परमात्मा कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब परमात्मा खेल में दखल नहीं देता.
लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? कहानी खत्म. जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?
यहीं मेरी सोच सनातन, इस्लाम, सिक्खी, चर्च सबसे टकराती है. मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं. झूठे आश्वासन दाता. इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े.
मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे.
बस यह समझ आ जाये कि कोई आत्मा-वात्मा होती ही नहीं. जैसे सब और हवा व्याप्त है, ऐसे ही सब और एक चेतना व्याप्त है, वो ही विभिन्न रूप ले रही है. रूप को वहम है कि वो सर्व-व्यापी चेतना न होकर, रूप मात्र है. वो सर्वात्मा न होकर को आत्मा है. लहर को वहम हो रहा है कि वो समन्दर न होकर, बस लहर है.
गीता का यह श्लोक लहर के भ्रम की सपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है. ग्लास में जो हवा को वहम है कि वो कुछ अलग है, उस वहम को बनाये रखने का ज़रिया मात्र है.
Wishful Thinking, विषैली सोच.
तुषार कॉस्मिक.....चोरी न करें..शेयर करें........नमन
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