Monday 27 August 2018

No Muslim be allowed to criticise RSS, unless the one criticises Islam and Christianity because RSS is just a shadow of these Gangs.
तुम तो लगे हो अपने और अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा करने.
फिर जब नाली साफ़ न हो, सड़क पर खड्डे हों, पुलिस बदतमीज़ हो, जज बे-ईमान हो तो तुम्हें क्या? तुमने कोई योग-दान दिया था यह सब ठीक करने को? नहीं दिया था.
तब तो तुम ने यही सोचा कि मुझे क्या? मैं क्यों समय खराब करूं? कौन पड़े इस सब पच्चड़ मनें? घर-परिवार पाल लूं, यही काफी है. यही सब सोचा न.
अब जब सड़क पर तेरी बहन-बेटी के साथ कोई गुंडा-गर्दी करता है तो पुलिस सही केस नहीं लिखती, कोर्ट सही आर्डर नहीं लिखती, तो सिस्टम की नाकामी खलती है. खलती है न?
भैये जैसे अपनी, अपने परिवार की बेहतरी के लिए जी-जान लगाते हो, गिरगिटियाते हो, वैसे इस सिस्टम को सुधारने के लिए भी दिमाग लगाओ, जी-जान लगाओ, गाली सहो, छित्तर खाओ, तभी तुम हकदार हो सिस्टम को कोसने को.
वरना जहाँ तुमने कुछ दिया ही नहीं, वहां से कुछ भी पाने की उम्मीद मत रखो.
मुसलमान बिंदास मीट खाता है और हिन्दू हील-हुज्ज़त करते हुए.
मुसलमान दिन-वार की परवा नहीं करता और हिन्दू मंगल-वीर के चक्कर में पड़ा रहता है.
मुसलमान ख़ुशी-ख़ुशी खाता है और हिन्दू खाता भी है और नाक-मुंह भी सिकोड़ता है.

बाकी तो जो है, सो हैये है...

संघ की शाखा का प्रति-प्रयोग

देश के कोने-कोने में संघ की तर्ज़ पर शाखा लगाओ मितरो. संघ का 'बौद्धिक' सिर्फ हिंदुत्व सिखलाता है. तुम्हार बौद्धिक तर्क और विज्ञान सिखाये. तुम किसी भी धर्म के पक्ष-विपक्ष में मत सिखलाओ. सिर्फ क्रिटिकल थिंकिंग, वैज्ञानिक ढंग से सोचना, सवाल उठाना, जवाब ढूंढना सिखलाओ. सवाल मत सिखाओ, जवाब मत सिखाओ. सवाल उठाना सिखाओ, जवाब ढूंढना सिखलाओ. संघ की नब्बे साल की ट्रेनिंग है, फिर बिल्ली के भागों छींका टूट गया है. इस देश को, दुनिया को संघ-मुसंघ से छुटकारा दिलवाने का मात्र एक ही रास्ता है और वो है क्रिटिकल थिंकिंग. मुल्क के कोने कोने में शाखाएं लगाओ, सिर्फ संघ की शाखा का अनुसरण कर लो. बस फर्क यही रहे कि वो हिंदुत्व सिखाते हैं तुम विज्ञान सिखाओ. मुझ से सम्पर्क करें, आगे की रण-नीति के लिए.

Sunday 26 August 2018

अभी एक वीडियो देखा. नई कार कोई लाया और पंडी जी पूजन कर रहे हैं. स्वस्तिक थोप रहे हैं. 'हरे कृष्णा, हरे कृष्णा' भज रहे हैं.

अभी बेकार हूँ लेकिन जल्द ही मैं भी कार लाऊँगा और पूजा भी करूंगा. लेकिन 'हेनरी फोर्ड' की. मेरा नमन है 'हेनरी फोर्ड' को और भी उन सब को जिनका कार के आविष्कार में योगदान है.

रक्षा-बंधन

"रक्षा बंधन" एक बीमार समाज को परिलक्षित करता है यह दिवस. और हम इत्ते इडियट हैं कि अपनी बीमारियों के भी उत्सव मनाते हैं. एक ऐसा समाज हैं हम, जहाँ औरत को रक्षा की ज़रूरत है. किस से ज़रूरत है रक्षा की? लगभग हर उस आदमी से जो उसका बाप-भाई नहीं है. यह है हमारे समाज की हकीकत. और इसीलिए रक्षा-बंधन की ज़रूरत है. इस तथ्य को समझेंगे तो यह भी समझ जायेंगे कि यह कोई उत्सव मनाने का विषय तो कतई नहीं है. इस विषय पर तो चिंतन होना चाहिए, चिंता होनी चाहिए. और हम एक ऐसा समाज है, जिसमें बहन अगर प्रॉपर्टी में हिस्सा मांग ले तो भाई राखी बंधवाना बंद कर देता है. "जा, मैं नहीं करता तेरी रक्षा." वैरी गुड. शाबाश. तुषार खुस हुआ. वैसे एक तथ्य यह भी है कि जितने भी बलात्कार होते हैं, करने वाले मामा, ज़्यादातर चाचा, चचेरे-ममेरे भाई, भाई के दोस्त आदि ही होते हैं. सब रिश्तेदार ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कहता, रिश्तों पर जान लुटाने वाले लोग भी होते हैं. अरे यार, बहना से मिलना है, भाई से मिलना है, मिलो. उत्सव मनाना है मना लो. मुझे कोई एतराज़ ही नहीं. लेकिन ये सब ढकोसले जो हम ढोते आ रहे हैं न, इन पर थोड़ा विचार भी कर लो. समाज ऐसा बनाओ कि औरत को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े. उसे आर्थिक-समाजिक-शारीरिक रूप से सक्षम बनाओ ताकि वो खुद लड़ सके. लेकिन इतनी भी सक्षम मत बना देना कि वो मर्दों पर छेड़-छाड़ के झूठे कोर्ट केस ठोक कर जेल करवा दें या फिर दहेज़ या घरेलू हिंसा के झूठे केसों में न सिर्फ पति बल्कि उसकी शादी-शुदा कहीं और बसी बहन का भी जन्म हराम कर दें. एक मित्र हैं विनय कुमार गुप्ता मेरी लिस्ट में. उनका कमेंट था, "राखी मात्र बहन भाई का पर्व नहीं है।अपने धर्म संस्कृति की रक्षा का संकल्प दिलाते थे समाज के अग्रजन आज के दिन." मुझे इनकी बात कुछ खुटकी. बात तो सही लगी. मैंने देखा है कई बार, ब्रहामणों को लाल रंग का धागा कलाई पर बांधते हुए धार्मिक किस्म के आयोजनों में. पंडित साथ-साथ कुछ बुदबुदाते भी हैं. जिसे मन्त्र कहा जाता है, हालांकि उन शब्दों का अर्थ किसी को भी नहीं पता होता, शायद पंडित जी को भी नहीं. खैर, मुझे बस दो शब्द "माचल: माचल:" याद आ गए, चूँकि ये शब्द बार-बार बोले जाते हैं. मैंने कुछ खोज-बीन की, कुछ गूगल किया, फेसबुक खंगाला तो विनय जी बात सही साबित हुई. जो मैंने पढ़ा वो हाज़िर है:-- 1. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम बांधी थी राजा बलि को राखी, तब से शुरू हुई है यह परंपरा. लक्ष्मीजी ने सर्वप्रथम राजा बलि को बांधी थी। ये बात है तब की जब दानवेन्द्र राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे। तब नारायण ने राजा बलि को छलने के लिए वामन अवतार लिया और तीन पग में सब कुछ ले लिया। फिर उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिए दे दिया। इसके बाद उसने प्रभु से कहा कि कोई बात नहीं, मैं रहने के लिए तैयार हूं, पर मेरी भी एक शर्त होगी। भगवान अपने भक्तों की बात कभी टाल नहीं सकते थे। तब राजा बलि ने कहा कि ऐसे नहीं प्रभु, आप छलिया हो, पहले मुझे वचन दें कि मैं जो मांगूंगा, वो आप दोगे। नारायण ने कहा, दूंगा-दूंगा-दूंगा। जब त्रिबाचा करा लिया तब बोले बलि कि मैं जब सोने जाऊं और जब मैं उठूं तो जिधर भी नजर जाए, उधर आपको ही देखूं। नारायण ने अपना माथा ठोंका और बोले कि इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया है। ये सबकुछ हारकर भी जीत गया है, पर कर भी क्या सकते थे? वचन जो दे चुके थे। वे पहरेदार बन गए। ऐसा होते-होते काफी समय बीत गया। उधर बैकुंठ में लक्ष्मीजी को चिंता होने लगी। नारायण के बिना उधर नारदजी का आना हुआ। लक्ष्मीजी ने कहा कि नारदजी, आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं। क्या नारायणजी को कहीं देखा आपने? तब नारदजी बोले कि वे पाताल लोक में राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं। यह सुनकर लक्ष्मीजी ने कहा कि मुझे आप ही राह दिखाएं कि वे कैसे मिलेंगे? तब नारद ने कहा कि आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले त्रिबाचा करा लेना कि दक्षिणा में मैं जो मांगूंगी, आप वो देंगे और दक्षिणा में अपने नारायण को मांग लेना। तब लक्ष्मीजी सुन्दर स्त्री के वेश में रोते हुए राजा बलि के पास पहुंचीं। बलि ने कहा कि क्यों रो रही हैं आप? तब लक्ष्मीजी बोलीं कि मेरा कोई भाई नहीं है इसलिए मैं दुखी हूं। यह सुनकर बलि बोले कि तुम मेरी धरम बहन बन जाओ। तब लक्ष्मी ने त्रिबाचा कराया और बोलीं कि मुझे आपका ये पहरेदार चाहिए। जब ये मांगा तो बलि अपना माथा पीटने लगे और सोचा कि धन्य हो माता, पति आए सब कुछ ले गए और ये महारानी ऐसी आईं कि उन्हें भी ले गईं। (https://m dot dailyhunt.in/news/india/hindi) फिर दूसरी जगह यह पढ़ा:--- २. "येन बद्धो बलिराजा,दानवेन्द्रो महाबलः तेनत्वाम प्रति बद्धनामि रक्षे,माचल-माचलः" अर्थात दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे,उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे ! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो,चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहत अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे,उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं,यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना,स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है। (http://pandyamasters dot blogspot dot com/2016/08/) अब बात तो विनय जी की सही साबित हुई लेकिन नतीजा मेरा वो नहीं है, जो विनय जी ने दिया. नतीजा मेरा यह है कि यह उत्सव यदि सच में ही उपरोक्त कथा से जुड़ा है तो फिर साफ़ है कि ब्रहामणों ने मात्र अपनी रक्षा के उद्देश्य से यह परम्परा घड़ी. अब मेरे पास इस उत्सव को नकारने का यह दूसरा कारण है. किसलिए करनी ब्राह्मणों की रक्षा? आज के जमाने में उनका कैसा भी योगदान नहीं जिसके लिए समाज उनकी रक्षा के लिए अलग से प्रतिबद्ध हो. न. परम्परा का अर्थ यह नहीं कि बस ढोए जाओ आंख बंद करके. भविष्य में जब कलाई पर पंडित बांधे लाल धागा (मौली) तो यह सब याद रखियेगा. नमन....तुषार कॉस्मिक

Monday 20 August 2018

सब चाहते हैं कि मिठाई की दूकान हो जाऊं मैं. लेकिन मैं तो ज़हर बेचता हूँ. पोटैशियम साइनाइड. खाओ और मर जाओ. फिर जिंदा होकर निकलो. लेकिन नए. बिना धर्मों की बकवास के. जैसे शुरू में थे, जब पैदा हुए थे.
"मन्दिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला" लिखने वाले हरिवंश राय बच्चन साहेब के वंश को अगर आप जानते हैं तो अमिताभ बच्चन से. लेकिन हरिवंश जी आग थे, अमिताभ राख़ है. हरिवंश जी मन्दिर मस्जिद दोनों को ललकारते हैं. अमिताभ गणेश वन्दना गा देते हैं. अफ़सोस यह कि इस मुल्क का महानायक बेटे को माना जा रहा है, जबकि बाप बाप था और है. नमन हरिवंश जी को.
Atal was a RSS man and this is a Govt. of RSS hence this much hue & cry, otherwise the man had nothing substantial.
Cancerous thinking generates Cancer.
Knotty thoughts create knots in the body.
Clarity of thinking is essential for a clear body.

नींद

“वो मुर्दों से शर्त लगा कर सो गया.” सुरेन्द्र मोहन पाठक अक्सर लिखते हैं यह अपने नोवेलों में. लेकिन जैसे-जैसे जीवन में आगे बढ़ते हैं, कब सोते हैं ऐसे? नींद आती भी है तो उचटी-उचटी. बचपने में ‘निन्नी’ आती है तो ऐसे कि समय खो ही जाता है. असल में समय तो अपने आप में कुछ है भी नहीं. अगर मन खो जाये तो समय खो ही जायेगा. तब लगता है कि अभी तो सोये थे, अभी सुबह कैसे हो गई? लेकिन यह अहसास फिर खो जाता है. न वैसी गहन नींद आती है, न वैसा अहसास. ‘नींद’. इस विषय पर कई बार लिखना चाहा, लेकिन आज ही क्यों लिखने बैठा? वजह है. मैं खाना खाते ही लेट गया और लेटते ही सो गया. नींद में था कि सिरहाने रखा फोन बजा. अधनींदा सा मैं, फोन उठा बतियाने लगा और आखिर में मैंने सामने वाले को कहा, “सर, थोड़ा तबियत खराब सी थी, सो गया था, मुझे तो लगा कि शायद सुबह हो चुकी लेकिन अभी तो रात के ग्यारह ही बजे हैं.” डेढ़-दो घंटे की नींद और लगा जैसे दस घंटे बीत चुके. समय का अहसास गड्ड-मड्ड हो गया था इस नींद में. फिर नींद के विषय में सोचने लगा और सोचते-सोचते सोचा कि लिख ही दूं इस विषय पर, सो बन्दा हाज़िर-नाज़िर है. मेरा मानना है कि ‘जब जागो तब सवेर और जब सोवो तब अंधेर’. मतलब यह जो सूरज के साथ उठना और सूरज के सोने पर सोना, यह वैसे तो सही है, सुबह सब कायनात जागती है, उसके साथ ही जगना चाहिए लेकिन अगर आप ऐसा न भी कर पाओ तो भी कोई पहाड़ न टूट पड़ेगा. मैं उठता हूँ सुबह-सवेरे भी. पार्क भी जाता हूँ और फिर आकर सो भी जाता हूँ. कभी भी कुर्सी पर बैठे-बैठे सो जाता है. सोफ़ा चेयर हो-ऑफिस चेयर हो, मैं कहीं भी सो सकता हूँ. सिटींग पोजीशन में. रात को तो ज़मीन पर बिना कुछ बिछाए सोता हूँ. बस तकिये और गद्दियाँ ढेर सारी होनी चाहियें. लेफ्ट साइड ज्यादा सोता हूँ, कहीं पढ़ा था कि हार्ट के लिए अच्छा होता है और मैंने महसूस भी किया कि यह सही है, अगर कभी दर्दे-दिल हो तो इस तरह लेटने से तुरत राहत मिलती है. दोनों घुटनों में गद्दियाँ दबी होती है. दो गद्दियाँ दोनों बाँहों के बीच और एक तकिया सर के नीचे. यानि कुल मिला कर चार गद्दियाँ और एक तकिया. नीचे सफेद मार्बल का फर्श. यह है मेरे सोने का ढंग. और टुकड़ों में सोता हूँ. कभी भी दिन में झपक लेता हूँ. ध्यान पे ध्यान करते हुए कब सो जाता हूँ पता ही नहीं लगता. मैं बहुत छोटा था तो माँ-पिता जी के साथ वैष्णों देवी जाता था, देखता था लोग चट्टानों पर सोये होते थे. आज भी अनेक लोग सड़कों पर-फुटपाथों पर सोते हैं. और कई महानुभाव तो सड़क की बीचों-बीच बने डिवाइडर पर बड़े शान से मौत को ललकारते हुए सो रहे होते हैं. मुझे तो फिर भी मार्बल का साफ़ सुथरा फ़र्श मुहैया है सोने को. जिनको ध्यान का कुछ नहीं पता निश्चित ही जीवन में कुछ खो रहे हैं. भैया, आप सिद्ध-बुद्ध होवो न होवो लेकिन ध्यान अगर सीखा होगा तो आप स्वस्थ होंगे, स्वयम में स्थित होंगे और स्वयम में स्थित होते ही सब तरह की चिंता-फ़िक्र तिरोहित हो जाती हैं और ऐसा होते ही तन भी शांत हो जाता है. खैर, बड़ी बेटी जब बहुत छोटी थी तो मैं उसके कान में बहुत धीरे-धीरे बुदबुदाता था, इतना कि वो उठे न, इतना कि मेरी आवाज़ उस तक पहुंचे. अब पहुँचती थी या नहीं, कितना पहुँचती थी, कितना नहीं, यह सब पक्का कुछ नहीं लेकिन मेरे कथन जो होते थे उनका असर तो उस पर दीखता था. मैं बुदबुदाता था उसके कान में कि वो हेलदी है, जीनियस है, सुंदर है, प्रसन्न है. और वो खेलती रहती थीं, नाचती रहती थी, कूदती रहती थी. नींद के साथ यह छोटा सा प्रयोग था. इसे आप सम्मोहन कह सकते हैं. नींद में दखल था लेकिन उसे हिन्दू-मुस्लिम बनाने को नहीं था, उसे स्वस्थ और समझदार बनाने को था. और वो समझदार है. कई बार तो मुझ से बहुत तेज़ और आगे पाता हूँ उसे. हो सकता है बाप की बापता हो यह, लेकिन उसके सामने कई बार लगता है कि मैं गुज़रे जमाने की चीज़ हूँ. यह प्रयोग जिसका मैंने ज़िक्र किया, यह खुद भी खुद पर किया जा सकता है. इसे आप आत्म-सम्मोहन या योग-निद्रा कह सकते हैं. आप सोते हुए खुद को जो निर्देश देंगे, वो काफी हद तक फली-भूत होंगे. आप खुद को कह कर सोयें कि गहरी नींद सोना है, बीच में नहीं उठना है, अच्छे सपने देखने हैं तो लगभग ऐसा ही होगा. ‘स्वीट-ड्रीम्स’, जो एक दूजे को कहते हैं उसका यही तो मतलब है. कई बार आप अलार्म लगा के सोते हैं, लेकिन अलार्म बाद में बजता है आप उससे ठीक पहले उठ जाते हैं, उसका यही तो मतलब है. बहुत से हार्ट-अटैक सोते हुए या अर्द्ध-निद्रा जैसी अवस्था में होते हैं, किसलिए? इसलिए चूँकि व्यक्ति का अंतर्मन हावी रहता है. किसी का बच्चा बीमार है, किसी ने कर्ज़ा देना है, किसी की बेटी भाग गयी है पड़ोसी के साथ. किसी को कोई टेंशन. किसी को कोई और चिंता. सब घेर लेती हैं अर्द्ध-निद्रा में. बस हार्ट-अटैक हुआ ही हुआ. अधरंग हुआ कि हुआ. दिमाग की नस फटी ही फटी. नींद न आ रही हो तो ज़बरन नींद में जाने का प्रयास न करें. उल्टा करें. लेटे हैं तो बैठ जायें, बैठे हैं तो उठ जायें, उठे हैं तो चलने लगें, चल रहे हैं तो भागने लगें. थक जायेंगे तो नींद अपने आप आ जायेगी. और जिनको नींद न आने की सतत समस्या है, उनको लेबर चौक पर बैठना शुरू कर देना चाहिए. चार-पांच सौ रुपये दिहाड़ी मिलेगी और नींद भी. "तुषार, तू सो गया है क्या?" ऑफिस की सेट्टी पर अक्सर सो जाता था मैं और मुझे यह पूछ कर मेरा वो कमीना दोस्त उठाता था. कितनी बार चाहा कि उसे कहूं कि हाँ, मैं सोया हुआ हूँ, गहरी नींद में हूँ और एक हफ्ते से पहले नहीं उठूंगा. इडियट. गलत सवाल का जवाब सही कैसे हो सकता है? अक्सर पढ़ता-सुनता हूँ कि फलां आदमी फलां औरत के साथ सोता है, मतलब सेक्स करता है. अबे ओये, जब कोई आदमी-औरत सेक्स करते हैं तो वो जागना हुआ, परम जागना हुआ कि सोना हुआ? उलटी दुनिया! पीछे परिवार सहित 857, रघुबीर नगर के बस स्टैंड से गुज़र रहा था, वहां सड़क पर एक परिवार सोया था. खुली-चौड़ी सड़क है. सोते हैं लोग ऐसे. एक बच्चा, शायद साल भर का होगा, नंगा सोया था. लड़का. लिंग लेकिन उत्थान पर था. Morning Erection! लेकिन तब तो सुबह नहीं थी. रात का वक्त था. असल में यह 'Morning Erection' है ही एक गलत कांसेप्ट. आदमी जब भी गहन नींद में होगा, जब भी अच्छे सपने देख रहा होगा, जब भी खुश होगा, उसे Erection हो सकती है. उसका लिंग उत्थान पर हो सकता है. व्यक्ति जितना चिंता फ़िक्र में होगा, सेक्स के लिए उसका शरीर उतना ही कम तैयार होगा, जितना खुश, जितना शांत उतना ही सेक्स के लिए ज़्यादा तैयार होगा. कुदरत खुद गवाह है भई. सिम्पल. और स्त्रियों में यह चाहे न दीखता हो लेकिन होगा उनमें भी ज़रूर ऐसा ही. क्यों? चूँकि वो भी तो इसी कुदरत की बेटियां हैं, कुदरत उनके साथ कोई भेद-भाव थोड़ा न करती है. और ये जो हमारे सपने हैं न, ये सिर्फ हमारी सोच, हमारे मन का प्रक्षेपण है. मन में जो भी हो, चाहे डर, चाहे ख़ुशी, चाहे कोई दबी इच्छा, सब प्रकट हो जाता है नींद में. बस. इससे ज़्यादा कुछ नहीं है इनमें. न तो कोई भविष्य के संकेत हैं इनमें और न ही कोई देवी-देवता या आपके दादा पड़दादा आते हैं सपनों में. जो आता है, वो सब अंतर-मन में निहित जो है उससे आता है. जैसे किसी तह-खाने को खोल दिया गया हो. जल्द ही आप के सपने डाउनलोड हो जाया करेंगे और आप फिल्म की तरह देख पायेंगे उनको. ये फिल्में व्यक्ति की बीमारियाँ समझने में बहुत मदद करेंगे, शायद क्राइम हल करने में भी मदद-गार हों, शायद किसी के छुपे टैलेंट का हिंट मिले इनसे, शायद राजनीतिज्ञों के-अपराधियों के हाथ पड़ खतरनाक भी साबित हों. वक्त बतायेगा क्या होगा. वैसे तो इनको देख कर आप बोर ही होंगे. कुछ न होगा इनमें बकवास के सिवा. इन्सान इतना बेवकूफ है कि उसने नींद जैसे प्राकृतिक चीज़ को भी उलझा दिया. 'चीकू' कुत्ता है. हमारे घर के बाहर ही रहता है हमेशा. गधा सा सारा दिन घोड़े बेच सोया रहता है. इसे कोई किताब पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं कि सोना कैसे है. मैं सोचता हूँ इसे यह वाला लेख पढ़ के सुना दूं. कोशिश करूंगा, लेकिन यह सुनते-सुनते इतना बोर हो जायेगा कि फिर सो जायेगा. मैं जानता हूँ इसे. अब आप भी सो जायें. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Wednesday 8 August 2018

भारतीय समाज को सब बामनी किस्सों को छोड़ आगे बढ़ना होगा, वरना वहीं गोल-गोल घूमता रहेगा सदियों.

वही रास-लीला, वही राम-लीला. वही दशहरा, वही राम. वही रावण. वही कृष्ण. वही शिव. वही पार्वती.....

इन सब में ही जब उलझा रहेगा तो वैज्ञानिक, दार्शनिक, ज्वलन्त लेखक पश्चिम में ही पैदा होंगे यहाँ तो बारिश के गड्डे भरे जायें उत्ता ही काफी है.
दलित बन्धु बहुत ही नाराज़ रहते हैं सवर्णों से. मैं सहमत हूँ. सवर्णों को अलग मुल्क दे देना चाहिए. 
"सवर्ण-स्थान."
आज ही जुडें.
'दोस्त की खाल में दुश्मन', यह पढ़ा होगा. 
'दुश्मन की खाल में दोस्त', यह न पढ़ा होगा. मैं वही हूँ. 
मूर्ख हो जो समझते हो कि तुम्हारा वंश पुत्रों से चलता है. नहीं चलता है. तुम्हारा वंश न पुत्र से चलता है और न ही पुत्री से. असल में तुम्हारा कोई वंश ही नहीं है. यह तो कुदरत का तरीका है, तुम्हारे ज़रिये खुद को आगे बढ़ाने का. तुम एक गुड्डा न बना पाओ, बच्चा पैदा करोगे! इडियट.
The problem is not that you don't know. 

The problem is, you don't know that you don't know.

हम

हम पार्कों में नकली हंसी हंसते हैं, चूँकि हमारी कुदरती हंसी-ख़ुशी खो चुकी है. 'हास्य-योग' बना रखा है हमने.

हम हस्त-मैथुन कर रहे हैं, चूँकि कुदरती काम-क्रीड़ा पर हमने पहरे लगा रखे हैं, कानून बांध रखे हैं.

हम ऐसे लोगों के मरण पर अफ़सोस ज़ाहिर कर आते हैं जिनके मरने से हमें ख़ुशी होती है. चलो पिंड छूटा.

हम नेता को गाली देते हैं लेकिन सामने पड़ जाये तो पूँछ हिलाते हैं.

हम भूल चुके हैं कि असली क्या है और नकली क्या है. हमारे असल में नकल है और नकल में असल है. स्त्रियाँ नकली सम्भोग-आनन्द दर्शाती हैं ताकि पुरुष खुश रहे. नकली चीखती चिल्लाती हैं. नकली ओर्गास्म. अंग्रेज़ी में तो कहावत ही है, Fake it till you make it". जब सोना न खरीद सको तो नकली सोना पहन लो.

हम इन्सान हैं. 
हम सब जानवरों से बुद्धिमान हैं, हम महान हैं..

कौन है असली हीरो?

"हेलो फ्रेंड्स, चाय पी लो" पूछने वाली मैडम को आप फेमस कर देते हैं. जैसे स्क्रीन में से निकल चाय का लंगर चला देंगी और सबका चाय का बजट घट जायेगा या कट जायेगा. "सेल्फी मैंने ले ली आज" गाने वाली को सर पे बिठा लेते हैं. जैसे सेल्फी लेना कोई दुर्गम पहाड़ चढ़ना हो, जिसे आज चढ़ ही लिया मैडम ने. सेल्फी इनने ले ली ही आज. "सही खेल गया भेन्चो" कहने वाले 'झंडू बाम', नहीं-नहीं, सॉरी-सॉरी, 'भुवन बाम' को आप हीरो बना देते हैं. क्या है यह सब? यह इन लोगों का हल्कापन नहीं दर्शाता. यह आप लोगों की उथली सोच को दिखाता है. आपकी सोच 'चाय', 'सेल्फी' और 'भेन्चो' पे अटकी है. इससे आगे जाती ही नहीं. कैसे पहचानोगे आप कि कौन है असल हीरो? गोविंदा जैसा नाच अगर किसी अंकल ने कर लिया तो आप फ्लैट हो गए, फ्लोर हो गए, कोठी हो गए, हवेली हो गए, महल हो गए. कोई थर्ड क्लास फिल्मों का एक्टर, उसे आप हीरो मान लेते हैं. मतलब जिसने कभी एक मीनिंग-फुल फिल्म नहीं की हो, लेकिन आपको क्या? आपके लिए उसका ओवर-एक्टिंग वाला स्टाइल ही काफी है. जिसने साबुन, तेल, जांघिया, बनियान, ईमान सब बेच दिया लेकिन समाज के किसी एक मुद्दे को नहीं छेड़ा, जी-गुर्दा ही नहीं जिसमें. लेकिन आपको क्या? आपके लिए वो हीरो है. कोई नेता, जो नेतृत्व की परिभाषा भी ठीक से न समझता हो चाहे, वो आपके लिए हीरो हो जाता है. हीरो क्या, देवता हो जाता है, अवतार हो जाता है. कुछ नहीं समझते लोग. निन्यानवें प्रतिशत लोग तुचिए हैं, जिनका जीवन एक कीड़े से ज्यादा नहीं, जिनको सिर्फ खाना-पीना और बच्चे पैदा करना है और मर जाना है. जिनका सामाजिक योगदान जीरो है. क्या फर्क पड़ता है, इनके मरने-जीने से? चलिए मैं बता देता हूँ कि आपका असली हीरो कौन है. आपका असली हीरो-असली नायक न गायक है, न एक्टर है, न सिपाही है, न फौजी है, न नेता है, न वकील, न जज. आपका असली हीरो है 'वैज्ञानिक'. वो भी कौन सा? विज्ञान शब्द 'एक' है लेकिन विषय बड़ा है. तो कौन सा वैज्ञानिक है असली हीरो? गणितज्ञ हो, भौतिक वैज्ञानिक हो, रसायन वैज्ञानिक हो, इनका समाज से सीधा-सीधा टकराव नहीं होता. इनकी खोजें न तो आम समाज को समझनी होती हैं और न ही उनके समझ में आनी होती हैं. असली हीरो है "समाज वैज्ञानिक". कैसे? वो ऐसे कि समाज वैज्ञानिक को उन्हीं लोगों के जूते खाने होते हैं, गाली-गोली सहानी होती है जिनका वो भला सोचता है, जिनके भले के लिए वो शोध कर रहा होता है. समाज वैज्ञानिक का जीवन हमेशा दांव पर लगा रहता है. वो कु-व्यवस्था, आउटडेटिड व्यवस्था को चैलेंज कर रहा होता है, अब जमी-जमाई दुकानदारी कैसे बरदाश्त कर ले कि कोई उसका धंधा ही चौपट कर दे? न. सो वो टूट पड़ती है समाज वैज्ञानिक पर. मंदर-मस्जिद-चर्च सब टूट पड़ता है, समाज वैज्ञानिक पर. राजनेता टूट पड़ता है. और पूरी कोशिश की जाती है कि समाज वैज्ञानिक को तोड़ दिया जाये-मरोड़ दिया जाये. आम आदमी तो तुचिया है, उसने कभी दिमाग नामक यंत्र को कष्ट दिया ही नहीं. वो बड़ी जल्दी जिधर हांको, हंक जाता है. उसे पता ही नहीं लगता कि कौन उसके फायदे में है और कौन नुक्सान में. उसे अपना मित्र भी शत्रु दीखता है. यह 'समाज वैज्ञानिक' कोई भी रस्ता अख्तियार कर सकता है अपनी बात समाज तक पहुँचाने के लिए. वो गा सकता है, नाच सकता है, लिख सकता है, भाषण दे सकता है. कुछ भी कर सकता है. उसका मेथड गौण है, उसका 'कंटेंट' महत्वपूर्ण है. उसके कंटेंट में आग है. आपके अधिकांश सेलब्रिटी बकवास हैं. उनमें आग है नहीं. वो राख हैं, बुझी हुई. जिसे देख-सुन समाज को गुस्सा न आये, आंखें लाल न हो जायें, डौले फड़-फड़ न करने लगें, वो असल हीरो है ही नहीं. असल हीरो है, जो मरे समाजों को तबाह करने पर आमादा हो. "कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ." आ जाओ बेटा, जिसने सर फुड़वाना हो. असल हीरो अराजक है, असामाजिक है. बेजान राज्य को जब तक तोड़ा न जाये, जर्जर समाज को जब तक गिरा न दिया जाये, तब तक कैसे नव-निर्माण होगा? आप मर चुके हैं, जिंदा हैं लेकिन बेजान हैं. असल हीरो वो है, जो आपको जिंदा करने आये लेकिन आप उसे मारने पर अमादा हो जायें. उम्मीद है समझा सका होवूंगा. नमन...तुषार कॉस्मिक

केजरीवाल नहीं है भविष्य: मिसाल

इन्द्रलोक, दिल्ली मेट्रो स्टेशन के ठीक एक बड़ी सी ट्रैफिक लाइट है. बड़ी इसलिए कि बहुत ट्रैफिक होता है यहाँ. सब तरफ ये.... चौड़ी सड़क हैं. एक सड़क जो शहज़ादा बाग़ को जाती है, इसका मुहाना बंद किया गया है. किसलिए? इसलिए चूँकि यहाँ कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया गया है. इसमें क्या ख़ास है? शायद कुछ नहीं. चूँकि ऐसा दिल्ली में जगह-जगह है. ख़ास मुझे जो दिखा, वो यह कि इस शिविर के बाहर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है, जिस पर अरविन्द केजरीवाल जी विराज रहे हैं और कांवड़ियों का स्वागत कर रहे हैं.

इसलिए लिखता हूँ कि केजरीवाल भारत का भविष्य नहीं है. एक सेक्युलर स्टेट के स्टेट्समैन को सेक्युलर होना चाहिए. उसे इन सब पच्चड़ में पड़ना ही नहीं चाहिए. अब केजरी के ऐसा करने से मेरी अधार्मिक भावनाएं आहत हो गईं हैं, उसका क्या? मेरी अधार्मिक आस्था खतरे में पड़ गई, उसका क्या?

चलो, वो तो किया जो किया. मतलब इस हद तक चले गए कि तथा-कथित धार्मिक कृत्यों के लिए सड़क बंद हो तो हो. क्या फर्क पड़ता है?

मतलब चीफ मिनिस्टर का काम यही तो बचा है कि एक बिजी सड़क बंद करवा के धार्मिक(?) कार्यक्रम आयोजित करवाए. वाह रे मेरे भारत!

जेम्स बांड हूँ मैं

कैसे? सिम्पल है, समझाता हूँ. मैं जिस माहौल में रहता हूँ, उसकी सोच कुछ और है और मेरी सोच कुछ और है. वो उत्तर जाता है तो मैं दक्षिण. वो पूरब जाता है तो मैं पश्चिम. मैं तो रहता भी पश्चिम विहार, दिल्ली में हूँ. लेकिन क्या मैं अपनी सोच इस माहौल में ज़ाहिर करता हूँ? जी करता हूँ, लेकिन हर वक्त नहीं, हर जगह नहीं. अक्सर तो मैं माहौल की सोच में शुमार हो जाता हूँ. ऊपर-ऊपर से ही सही, लेकिन हो जाता हूँ. मिसाल के लिए मैंने कांवड़ यात्राओं के लिए शिविरों में अपनी उपस्थिती दर्ज़ करवाई हैं जबकि इनको मैं परले दर्ज़े का अहमकाना काम मानता हूँ. अरे यार, मन की शक्ति पैदा करनी है तो मैराथन में हिस्सा ले लो, पहाड़ चढ़ लो, नदियाँ साफ़ कर लो, तालाब खोद लो, कुछ भी और कर लो. बहुत कुछ किया जा सकता है. रोज़ लोग नए-नए कारनामे करते ही हैं. खैर. मेरी मौसी के बड़े बेटे हैं, उम्र-दराज़ हैं, हर साल दिल्ली के रिज रोड़ पर कांवड़ियों के लिए बड़ा इन्तेजाम करते हैं. हमें बुलाते रहे हैं और हम जाते भी रहे हैं. अब यह क्या है? एक तरफ विरोध, दूजी तरफ हाज़िरी. यह तो गोरख-धंधा हो गया. लेकिन याद रखें, जेम्स बांड हूँ मैं. दुश्मन देस. सो बदला भेस. श्रीमति जी को पता है मेरी उल्ट खोपड़ी का. लेकिन दफ्तर में 'गुरु जी' की फोटो टांग गई हैं, स्कूटी पे 'गुरु जी' लिखवा छोड़ा है. क्या करूं? लडूं. नहीं लड़ता. दफ्तर उनका भी है, स्कूटी उनकी भी है. ठीक है, कर लो मर्ज़ी. साले साहेब गणेश स्थापित करते रहे, विसर्जन में उनके साथ शामिल होते रहे हम भी. अभी पीछे पड़ोसी ने मन्दिर में माता का जागरण किया, गए हम सपरिवार. मामा जी सिक्ख हैं. वो अपने कार्यक्रम गुरूद्वारे में करते हैं, जाते हैं हम. आप सोच सकते हैं, कैसा गिरगिटिया आदमी है. कहता कुछ है, करता कुछ और है. कथनी और करनी में कितना फर्क है. बिलकुल है जनाब. असल में मेरे गणित से कथनी और करनी में फर्क होना ही चाहिए वरना सीधा-सीधा आत्म-हत्या करने जैसा है, व्यक्ति 4 दिन सर्वाइव नहीं कर पायेगा. समाज ऐसा है ही नहीं कि कोई सीधा-सच्चा जी सके. क्या व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीना चाहता है, जिस तरह के जीवन मूल्य जीना चाहता है, वैसा जी पाता है, आसानी से जी पाता है, जी सकता है? क्या ज़रूरी है कि हर व्यक्ति सुकरात हो जाए? और जो सुकरात नहीं होते या नहीं होना चाहते क्या उनको विचार का, विमर्श का कोई हक़ नहीं? तो हज़रात मेरा मानना यह है कि जिस तरह का सामाजिक ताना बाना हमने बनाया है, उसमें यह कतई ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति की सोचनी और कथनी एक हो, कोई ज़रूरी नहीं कि कथनी और करनी एक हो, कोई ज़रूरी नहीं कि सोचनी और कथनी और करनी एक हो. असल में तो समाज का भला करने के लिए भी व्यक्ति वही कामयाब हो पायेगा, जिसकी सोचनी कुछ और हो, कथनी कुछ और हो और करनी कुछ और इस चालबाज़ समाज का तो भला करने के लिए भी व्यक्ति को इस समाज से चार रत्ती ज़्यादा चालबाज़ होना होगा जेम्स बांड की तरह ही जीया जा सकता है. जब मौका लेगे, जहाँ मौका लगे, चौका-छक्का लगा दो. दुश्मन देस में उसी के भेस में घुसे रहो. While in Rome, do as the Romans do. लेकिन जब मौका लगे दुश्मन का शिविर ढहा दो. जेम्स बांड किसी भी मुल्क में रहे, कैसे भी रहे, उसकी निष्ठा अपने मुल्क के प्रति है. बस आम जन में और जेम्स बांड में यही फर्क है और यह बड़ा फर्क है. आम-जन अगर कहीं गलत देखते हैं तो विरोध नहीं करते, सही करने का प्रयास नहीं करते. आराम-परस्त हो जाते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ. मैं जेम्स बांड हूँ. मेरी निष्ठा है तर्क के प्रति, वैज्ञानिकता के प्रति, समाज की बेहतरी के प्रति. मैं बीच-बीच में जहाँ मौका लगता है, लोगों को ऐसे शब्द, ऐसे तर्क पकड़ा ही देता हूँ कि वो कुछ देर तो सर धुनते रहें. फिर अपने पास 'सोशल मीडिया' नामक चौपाल है ही. अब लगातार विडियो बनाने का भी प्लान है. मैं कैसे भी जीऊँ, जेम्स बांड कैसे भी जी रहा हो, मौके पे अस्त्र-शस्त्र चलाने से न वो चूकता है और न मैं. मैं जेम्स बांड ही हूँ. Licensed to Kill. जेम्स बांड महान करैक्टर है. वो दारू पीता है, औरत-बाज़ है. मतलब वो कोई सही आदमी की परिभाषा में शायद ही फिट हो. लेकिन वो अपनी सोच का पक्का है. ऐसे ही लोग दुनिया का भला कर सकते हैं. यही हैं नए पीर-पैगम्बर. महान इसलिए नहीं कि वो दारू पीता है या औरत-खोर है. ...न....न. वो मतलब नहीं है मेरा. मेरा मतलब है कि वो माहौल में फिट होता है ज़रूरत के मुताबिक और दुश्मन का किला ढहा देता है, दुश्मन का व्यूह तोड़ देता है. इसीलिए महान है. तमाम टेढ़े-मेढ़े कृत्य करता हुआ. जीवन में सही क्या है, गलत क्या है....यह आकलन स्थिति क्या है उसके मददे-नज़र ही किया जाना चाहिए.इसे ऐसे समझें.......हमारे क्रांतिकारी रेल गाड़ी लूट लेते थे......यह महान काम था, लूट ही सही थी.....अन्यथा लड़ते कैसे? मौका तय करता है कि क्या करना है. जैसे सच बोलना चाहिए. मैं भी मानता हूँ. वरना व्यक्ति की वैल्यू ही खत्म है. कौन यकीन करता है झूठे आदमी पर? वो कहानी सुनी होगी आपने कि रोज़ रोज़ शेर आया, शेर आया चिल्लाता था गडरिया. गाँव वाले आते बचाने और वो उनका मज़ाक उड़ाता कि देखो, कैसे बेवकूफ बनाया. एक दिन सच्ची शेर आ गया, वो फिर चिल्लाया लेकिन आज कोई नहीं आया. सबको लगा मूर्ख बना रहा है. शेर फाड़ के खा गया उसे. छुट्टी. सो सच बोलना चाहिए. लेकिन अगर भगत सिंह को अँगरेज़ पकड़ पूछें कि बता राजगुरु कहाँ छुपा है, सुखदेव कहाँ छुपा है तो क्या उसे बता देना चाहिए सच सच? नहीं बताना चाहिए. यहाँ सच बोलना गलत है. सो स्थिति के मुताबिक तय करना होता है. जेम्स बांड स्थिति के मुताबिक फिट होता है. तुरत. क्विक. यह है उसकी एक बड़ी ख़ासियत. और मैं जेम्स बांड हूँ. नमन...तुषार कॉस्मिक