Thursday 31 August 2017

Biological Waste

"ब्लू व्हेल" नामक का खेल जिसने बनाया था, वो पकड़ा गया. उस पर सैंकड़ों हत्याओं का आरोप है. ऐसा खेल बनाने का कारण जब उससे पूछा गया तो जवाब में उसने जो कहा, वो बहुत कीमती है. उसने कहा कि वो इस खेल के ज़रिये सफाई कर रहा था. यह एक स्वच्छ अभियान था. Biological Waste यानि जैविक कचरे की सफाई का अभियान. अब बड़े मजे की बात है, जिसे आप-हम कत्ल कहेंगे, सोचे समझे, प्लान करके किये गए कत्ल, उनको वो सफाई अभियान कह रहा है! है कि नहीं? कुछ अंग्रेज़ी फिल्मों का थीम है, कहानी है कि विलन ने दुनिया से बहुत से बच्चे अलग-थलग कर रखे हैं. परिवारों से, माँ-बाप से अलग. और उनको अलग ही चार-दीवारी में रखा जा रहा है. तर्क यह है कि बाकी दुनिया फेल है, खात्मे के कगार पर है, बर्बाद है. इसका अब कुछ नहीं हो सकता. इन्सान अपनी चालाकी की वजह से इतना मूर्ख बन गया है कि इसने पृथ्वी का पानी, हवा, धरती, पहाड़ सब दूषित कर दिए हैं. अब बहुत दूर तक वैसे भी धरती इस इन्सान-नुमा कचरे को ढो नहीं पायेगी. इन्सान सिर्फ इन्सान से लड़ रहा है शुरू से ही, शांति से नहीं रह रहा.They are Muslims, Hindus, Sikhs etc. not human beings. They are just Biological waste. इन्सान धर्म के नाम पर, मुल्क के नाम पर, जात-पात के नाम पर, गोरे-काले के नाम पर लड़ रहा है और इस लड़ाई में खुद को ही नहीं धरती को भी बर्बाद कर रहा है, कर चुका है काफी कुछ. इन्सान इस दुनिया का सबसे बुद्धिमान नहीं, सबसे बुद्धि-हीन प्राणी साबित हुआ है. और दिक्कत यह है की इस इन्सान को तर्क से नहीं समझाया जा सकता. राजनेताओं का और अधर्म-नेताओं का ऐसा जाल है, जंजाल है कि तर्क तो विकसित ही नहीं होने दिया जा रहा. सो कुछ नहीं किया जा सकता दुनिया की बेहतरी के लिए. तर्क से तो बिल्कुल नहीं. सो ऐसे इंसानों को मरने दो या मार दो और चुनिन्दा बच्चे, जिनको अलग से पाला गया उनसे दुनिया नए सिरे से बसाओ, बनाओ. क्या लगता है आपको कि जिस तरह की दुनिया है, यहाँ तर्क से कुछ समझाया जा सकता है, कोई बदलाव लाया जा सकता है? मेरा मानना है कि नहीं. कोई चमत्कार हो जाए तो मैं कह नहीं सकता, अन्यथा नहीं. मैं पिछले चार साल से सोशल मीडिया पर लगभग 500 लेख लिख चुका हूँ. हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओँ में. सिर्फ इस उम्मीद में कि दुनिया में कुछ बेहतरी लाई जा सके. लेकिन मुझे पता है, घंटा फर्क नहीं पड़ना इस तरह मेरे किये से. नक्कार-खाने की तूती है, बजा रहा हूँ जब तक बजा पाऊँगा. चूँकि मेरे पास हथियार सिर्फ तर्क है. लेकिन तर्क से कुछ होना-जाना नहीं है. दुनिया में बदलाव, बेहतरी सिर्फ दो तरीके से आ सकती है. या तो कोई चमत्कार हो जाये या फिर 'ब्लू व्हेल' खेल बनाने वाले और जिन अंग्रेज़ी फिल्मों के विलन का मैंने ज़िक्र किया, इनको हीरो मान लिया जाये. तीसरा विकल्प मुझे नहीं सूझता. आपको सूझता हो तो बताएं? नमन.......तुषार कॉस्मिक
१. ट्रेन पटरी से रोज़ उतर रही हैं....लेकिन इसमें प्रभु मतलब 'सुरेश प्रभु' की कार्यकुशलता पर मुझे कतई शंका नहीं. २. राज्य पर देश-भक्त सरकार थी.....और राष्ट्र पर राष्ट्र-वादी चक्रवर्ती सम्राट का राज्य... जानते-बूझते हुए चालीस लोग मरने दिए गए, कई राज्यों में अफरा-तफरी का माहौल बनने दिया गया, करोड़ों रुपये का नुकसान होने दिया गया....लेकिन न तो मुझे कट्टर मतलब खट्टर सरकार की क्षमता पर कोई शंका है और न ही उनकी गोदी सरकार की. ३. नोट-बंदी सिरे से फेल हो गई, जो कि होनी ही थी.... लेकिन न तो मुझे चाय की केतली की क्षमता पर शंका है और न ही चाय बनाने वाले की. ४. असल में मुझे कभी कोई शंका नहीं होती, सिवा लघु-शंका के या दीर्घ-शंका के चूँकि मैं भक्त हूँ. भक्त शंका नहीं श्रधा में विश्वास रखते हैं. ५. हटो, तुम साले बेफ़िजूल ही बच-कोदी करते रहते हो. भक्ति-मार्ग पर चल कर तो देखो. यह भी मोक्ष तक ले जाता है. तुषार कॉस्मिक

राम-रहीम के सहारे राम पर सवाल

राम-रहीम पर तो बहुत बवाल काट रहे हो. लेकिन सवाल इस बाबे का नहीं है, सवाल तो तुम्हारी अंध-श्रधा का है, सवाल तो तुम्हारी अक्ल का है जिसे अक्ल कहना ही गलत है चूँकि इसमें अक्ल वाली तो कोई बात है नहीं. सवाल तो यह है की तुमने सिर्फ अँधा विश्वास करना सीखा है और जो तुम्हारे इस अंधे-विश्वास पर चोट करे, वो तुम्हें दुश्मन लगता है, जबकि तुम्हारा असली मित्र वही है. जैसे मैं राम-रहीम को बलात्कारी कहूं तो तुम्हें लगेगा कि सही ही तो कह रहा है लेकिन अगर मैं तुम्हें यह बताऊं कि राम, श्री राम का पूर्वज भी बलात्कारी था, अपने गुरु की बेटी का बलात्कारी और जैसे राम-रहीम खत्म हो गया ऐसे ही वो पूर्वज भी गुरु के श्राप से खत्म हो जाता है, तो यह कैसा लगेगा तुम्हें? रघु-कुल रीत. शायद बुरा. बहुत बुरा. अगर मैं तुम्हें बताऊँ कि जिन हनुमान को पूजते हो, वो अशोक वाटिका में बैठी सीता को राम की पहचान बताते हुए राम के लिंग और अंड-कोशों तक की पहचान बताते हैं. कैसे पता था हनुमान को इतनी बारीकी से? सोच कर देखिये. और रावण को मारने के बाद राम साफ़ कहते हैं सीता को कि उन्होंने रावण को सिर्फ अपने अपमान का बदला लेने के लिए मारा न कि सीता को वापिस पाने के लिए, सो सीता किसी भी दिशा में जा सकती है, किसी के भी साथ जा सकती है. मर्यादा पुरुषोत्तम. और फिर जब राम को अयोध्या वापिस प्रवेश करना था तो हनुमान संदेश लेकर जाते हैं राम के आगमन का, जानते हैं हनुमान के स्वागत में कन्याएं भी भेंट करते हैं भरत उनको? और अयोध्या में उस समय गणिका (वेश्या) आम थी. रघु-कुल राज्य. ये थोड़ी सी बात लिखीं ताकि तुम राम-रहीम पर ही नहीं, राम पर भी सोचने लगें, सवाल उठाने लगो. और अगर नहीं हिम्मत तो याद रखना तुम राम-रहीम जैसों के शिकार होवोगे ही. अवश्य. चूँकि तुम्हारी बुद्धि मंद नहीं, बंद है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Never stand for a Muslim or a Hindu or a Sikh etc. They are just Biological waste.


Wednesday 30 August 2017

ओशो के बाद का बाबा-वर्ल्ड

ओशो के बाद बहुत से नकली बाबा-बाबियां आये. सब नकली. उनकी तरह महंगे चोगे, महंगी गाड़ियाँ, अमीरी जीवन अपना लिया. उनका mannerism चुराया, उनके कहे किस्से, चुटकले तक प्रयोग कर लिए. उनके दिए आईडिया पर आगे किस्से-कहानियाँ बना लिए और लगे प्रवचन पेलने. सब अपना लिया लेकिन उनके जैसी इमान-दारी न ला पाए, धार न ला पाए, अक्ल न ला पाए, उनके जैसी हिम्मत न जुटा पाए. भूतनी वालों ने ओशो के सब तर्क अपने हिसाब से मोड़-तरोड़ लिए. सुनने वाले भी सब चुटिया. ऊपर से नए-नए चैनल की बरसात. नकली चेलों को नकली गुरु चाहिए थे, मिल गए. जो लीपा-पोती वाली बातें सुनना चाहते थे लोग, वो ही शास्त्रीय शब्दों की चाशनी में घोल कर इन बाबाओं ने पिला दी लोगों को. ये साले गुरु थे! गुरु तुम्हारी परवाह ही नहीं करता कि तुम्हें क्या अच्छा लगेगा, क्या नहीं? वो दे लट्ठ मारेगा. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. दे दनादन. जाओ भाड़ में. मैंने सुना है कि कुछ फ़कीर तो अपने चेलों को थोक में गालियाँ देते थे और कई तो लट्ठ भी जबर-दस्त पेलते थे. तुम हो ही इसी लायक. जब तक खोपड़ी पे लट्ठ न पड़े, कोई ढंग की बात घुसती ही नहीं इसमें. ऐसा नही कि ओशो सब जगह सही थे या उनसे कभी कुछ गलती ही नहीं हुई. मैंने तो उनकी गलतियों पर कितना ही लिखा है. लेकिन वो नकली व्यक्ति नहीं थे. खालिस आदमी. और ये साले नकली. कार्बन की भी कार्बन कापियां. बस यहीं फर्क है. तुषार कॉस्मिक

Monday 28 August 2017

तीन फिल्में

अपुन मुफ्त-खोरे हैं. औकात नहीं कि बीवी-बच्चों के साथ थिएटर जा कर हजार-डेढ़ हजार रुपये खर्च किये जायें सो बड़ी ईमानदारी से अपनी बे-ईमानी स्वीकार करता हूँ कि या तो youtube पर चोरी-छुप्पे डाली गई फिल्में देखता हूँ या फिर टोरेंट से डाउनलोड की हुईं. पीछे तीन फिल्में देखीं. सब youtube पर. १.अंकुर अरोड़ा मर्डर केस. २.मसान. ३.अगली (अगली-पिछली वाला नहीं, अंग्रेज़ी वाला UGLY). मैं बहुत क्रिटिकल व्यक्ति हूँ. अक्सर पाठक कहते हैं कि नकरात्मक है मेरी सोच. लेकिन अगर मैं कुछ नकारता हूँ तो कुछ स्वीकार भी रहा होता हूँ. मिसाल के लिए ये तीन फिल्में. सबसे बढ़िया है "अंकुर अरोड़ा मर्डर केस". यह फिल्म आपको बहुत कुछ सिखाती है. मेडिकल वर्ल्ड कैसे आम आदमी को भूतिया बनाता है उसका तो सजीव चित्रण है ही लेकिन साथ-साथ वकील लोग कैसे अपने ही मुवक्किल से खिलवाड़ कर रहे होते हैं, इसका भी नमूना पेश करती है यह फिल्म. इस फिल्म को मैं भारत में आज तक बनी दस सर्वोतम फिल्मों में रखता हूँ. ज़रूर देखें. एक्टिंग, निर्देशन, कथानक सब मंझा हुआ. हाँ, बच्चे के मर्डर से जुड़ा है मामला, बहुत बड़ा दिल करके जैसे-तैसे देख पाया, आप भी देख लीजियेगा. दूसरी फिल्म दो वजह से पसंद की. एक तो वो वजह है जो अक्सर लोग नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं. हर फिल्म का एक बैक-ड्राप होता है. यानि कहानी कहाँ घूम रही है. बैक-ड्राप जंगल है, गाँव है, शहर है, पहाड़ है, क्या है. फिल्म कहानी के साथ-साथ और क्या दिखा रही है. जैसे अमोल पालेकर की फिल्में मध्यम-वर्गीय जीवन दिखाती हैं. टीवी पर आने वाले सास-बहु किस्म के सीरियल बहुत उच्च-वर्ग का जीवन दिखाते हैं. तो बैक-ड्राप. बैक-ड्राप भी फिल्म का एक करैक्टर होता है. स्ट्रांग करैक्टर. फिल्म का नाम "मसान" शायद रखा भी इसीलिए गया है. यह फिल्म काशी के पंडों का जीवन दिखती है, वो पंडे जो दाह-संस्कार कर्म में रत हैं. उनके जीवन की झलकियाँ. काशी के जीवन की झलकियाँ. तो आप इस वजह से देख सकते हैं यह फिल्म और सिनेमैटोग्राफी इतनी उम्दा है कि लगता है जैसे काशी में ही घूम रहे हैं. दूसरा पॉइंट, इस फिल्म "मसान" को देख यह समझने का है कि पुलिस वाला कैसे ब्लैक-मेल करता है एक पंडे को और पैसे ऐंठता है. और ऐसा इसलिए होता है चूँकि पंडा और उसकी बेटी कानून नहीं समझते. मेरे जीवन का तजुर्बा है कि आप सौ में से निन्यानवें मौकों पर जो रिश्वत देते हैं, खाह-मखाह देते हैं, आपको कायदे-कानून का पता ही नहीं होता और इसी का सरकारी आदमी फायदा उठाता है. अगर आपको कानून पता हो तो रिश्वत मांगने वाला खुद आपको रिश्वत देकर जान छुड़वाएगा. खैर फिल्म ज़रूर देखिये. अदाकारी भी बढ़िया है. अगली फिल्म अगली (Ugly) है. यह फिल्म आईना है हम सब के लिए. हम सब निहायत खुदगर्ज़ हो चुके हैं, बेहद सकीर्ण सोच के हो चुके हैं और इस खुदगर्ज़ी, इस संकीर्णता का नतीजा है कि पूरा समाज बुरी तरह से UGLY हो चुका है और इस कलेक्टिव ugliness का नतीजा बच्चे भुगतते हैं. कैसे? यह देखने के लिए यह फिल्म देखें. नमन..तुषार कॉस्मिक

Justice delayed is justice denied.

क्या लगता है कि सिर्फ डेरों के चीफ ही बाबा हैं? नहीं. लगभग सब राजनेता भी बाबा हैं और इनके कुकर्म भी वैसे ही हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि न्याय-व्यवस्था पंगु है. पंगु करके रखी गई है. जान-बूझ कर. वरना रोज़ एक नया बाबा/ नेता जेल में होगा. क्यों चार-छः महीने की तारीख दे जाती है कोर्टों में? क्यों तारीख पे तारीख दी जाती है? क्यों बीस-बीस साल तक कोर्ट केस घिसटते रहते हैं? जजों की संख्या कम है, यही न? नहीं है यह वजह. वजह है सब बड़े चोर नहीं चाहते कि कोर्ट सक्षम हों. नहीं चाहते कि फैसले दिनों में, महीनों में हों. मुकद्दमे दशकों तक घिसटते रहें तो कैसे होगा न्याय? कई लोग मर जायेंगे. या मार दिए जायेंगे. या फिर खरीद लिए जायेंगे. या धमका दिए जायेंगे. ऐसे में क्या घंटा न्याय होना है. यह कोई जहाँगीर का घंटा थोड़े न है, आधी रात को भी बजाओ तो भी न्याय मिलने की आशा हो. यहाँ तो नयाय के नाम पर वकीलों का पेट भरना होता है. वकील ही नहीं कोर्ट का पेट भी भरना होता है. कोर्ट भी लाखों रुपये फीस लेती है. एडवांस में. लखनऊ की एक ज़मीन का केस देख रहा हूँ, बारह साल से चल रहा है और आज तक एक पार्टी उसमें यही मुद्दा बनाए है कि सामने वाली पार्टी ने कोर्ट फीस कम जमा की है. अबे, की हो कम जमा फीस, तो क्या हुआ? अगर उसके साथ अन्याय हुआ या उसकी जेब में पैसे हों ही न देने को तो क्या उसे न्याय नहीं मिलना चाहिए? इडियट. लेकिन यहाँ ऐसे ही चलता रहता है सब. राम-रहीम के फैसले पर आम-जन खुश हैं. कोर्ट को सराह रहे हैं लेकिन यह भी देखने की बात है कि पन्द्रह साल लग गए फैसला आने में. यह भी तो अन्याय है. एक कथन है अंग्रेज़ी का , "Justice hurried is justice buried." लेकिन भारत में जिस हिसाब से केस घिसटते हैं यो तो यह कहना ज़्यादा सही है, "Justice delayed is justice denied." और कह सकते हैं, "In India Justice is not hurried, it is worried, it is buried." तुम संख्या बताओ, जितने जज चाहियें एक साल में मैं दे सकता हूँ, तुम्हारे ही समाज से दूंगा, trained. देखो कैसे नहीं होते साल-दो साल में फैसले? लेकिन फट के हाथ में आ जायेगी तुम्हारे नब्बे प्रतिशत नेताओं की, बाबाओं की, माताओं की, मौलानाओं की, फादरों की. इज्ज़त मेरा मतलब. ये क्यों चाहेंगे कि ऐसा हो जाये? असल बीमारी यह है. नमन ..तुषार कॉस्मिक

Sunday 27 August 2017

कृष्ण की बकवास गीता-एक और नमूना

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन. अर्थ है कि कर्म का अधिकार है लेकिन फल का नहीं.......यानि फल पर आपका अधिकार नही, हक नहीं.........मतलब कर्म करे जा भाई....फल पर अधिकार तेरा नहीं है....हक़ नही है. तो फिर किसका हक़ है? (पंडों का. राजनेताओं का.) कौन करेगा ऐसे कर्म? सिर्फ अक्ल के अंधे...जिन्हें धर्म की जहर पिला दी गई हो. एक अर्थ यह भी किया जाता है कि कर्म तुम्हारे हाथ में है करना लेकिन फल तुम्हारे हाथ में नही है, वश में नही है. सो फल की चिंता मत कर. अब कर्म के फल पर "वश" की बात कर लेते हैं. कैसे नहीं है फल पर वश? आज कहीं भी McDonald खुलता है, सम्भावना यह है कि चलता ही है. क्यों? फल तो "वश" में नहीं है. जब आप पहले से ही मान बैठेंगे कि फल आपके वश में नहीं है तो इस तरह से कर्म करने की प्रेरणा भी नहीं आएगी. फल आपके कमों के अनुरूप ही आता है. कर्मों से अर्थ मात्र शारीरिक लेबर नहीं है. कर्मों से अर्थ है डेटा कलेक्शन, प्लानिंग, ब्रेन स्टोर्मिंग और फिर सही से Execution. ऐसे आता है इच्छित फल. मात्र गीता में लिखे होने से, कृष्ण के कहे होने से कोई बात सही नहीं हो जाती. पॉइंट सिर्फ इतना है कि कर्म से फल के चिंतन को, फल की इच्छा को, फल के अधिकार को, फल के वश में होने को अगर हटाने की कोई फिलोसोफी कह रही है तो वो कहाँ तक ठीक-गलत है. फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?" "फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें? खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है. एक तर्क यह भी है कि विचार भी किया जाता है, कर्म भी किया जाता है फिर भी इच्छित फल नहीं मिलता. क्यों? समझ लीजिये यह भी. अगर कोई दस मंजिल से कूदेगा तो कितना चांस है कि उसे चोट नहीं लगेगी? क्या सम्भावना है? यह कि वो मर जाये. कर्म का फल तय है कि नहीं. डेढ़ बोतल दारु पीया व्यक्ति सड़क पर गाड़ी चलाए जाता है. होश है नहीं फिर भी ....कितनी सम्भावना है कि दो सौ किलोमीटर दूर घर सुरक्षित पहुँच जाए भीड़ वाले हाईवे के ज़रिये? लगभग जीरो. कर्म का फल तय हुआ कि नहीं. किसान बीज बोता है......बारिश होती है......धूप पड़ती है.....फसल होती है......पिछले साल भी हुई थी...उससे पीछे भी.....लेकिन दस साल पहले हुआ था कि सही बारिश नहीं हुई, धूप नहीं मिली तो फसल पूरी तबाह हो गई...उससे पीछे भी उसके पिता के समय लगभग 15 साल पहले भी ऐसा हुआ था.....इस साल भी हो सकता है लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता.....किसान सम्भावना के सिद्धांत को जानता है....उसे पता है कि फसल खराब हो सकती है लेकिन वो सब अपवाद है. वो अपवाद को अपवाद मानता है नियाम नहीं. आशा है आप भी अपवाद को नियम नहीं मानेंगे और अपवाद से नियम सही साबित होता है न कि गलत, यह भी समझ जायेंगे. नमन...तुषार कॉस्मिक

Saturday 26 August 2017

राम हों, रहीम हों, राम-रहीम हों, अंध-श्रधा खतरनाक है

आसाराम, रामपाल और राम रहीम के पकडे जाने के बाद सब समझदार मित्र कह रहे हैं कि अंध-भक्ति नहीं होनी चाहिए....... बिलकुल नहीं होनी चाहिए मैं तो मुस्लिम मित्रों को भी जोश में आया देख रहा हूँ, वो भी खूब फरमा रहे हैं कि समाज को इन जैसे लोगों से बचना चाहिए बजा फरमाते हैं सब, बिलकुल..... लेकिन लगता नहीं कि मुझे ये मेरे मित्रगण ठीक से समझ रहे हैं कि बीमारी कहाँ है, इलाज कहाँ है........और शायद न ही हिम्मत है विषय के अंदर तक जाने की चलिए फिर भी एक कोशिश करते हैं आसा राम, राम पाल और राम रहीम जैसे व्यक्ति नहीं होने चाहिए..इनके प्रति अंध-श्रधा, अंध-भक्ति नहीं होनी चाहिए.....लेकिन है, पता है क्यों? क्यों कि आपके समाज में अंध-भक्ति जन्म से घुटी में पिलाई जाती है......आप जब पैदा हुए तभी हिन्दू , मुस्लिम थे या बाद में बनाये गये थे?..निश्चित ही बाद में बनाये गये थे.....आपको हिन्दू मुस्लिम आदि तर्क से बनाया गया था या बस बना दिया गया था?...निश्चित ही बस बना दिया गया था....तर्क तो बहुत जानकारी, बहुत तजुर्बा, बहुत समझ मांगता है, वो तो पनपने से पहले ही आप पर हिन्दू मुस्लिम की मोहर लगा दी गयी थी. अब आप समझ लीजिये, रामपाल, आसाराम और राम रहीम के प्रति अंध-श्रधा इसलिए हो जाती है आसानी से क्योंकि राम पर श्रधा सिखाई गयी, अंध-श्रधा सिखाई गयी...क्योंकि जीवन की समझ आप तक तर्क से, तजुर्बों से नहीं आने दी गए बल्कि समझ के नाम पर कुछ मान्यताएं आप पर बस थोप दी गयी......जैसे सुबह स्कूल में जाते ही आपके गले से रोज़ बिला नागा 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' उतारा गया'.....मालिक कोई है या नहीं, यह सोचने, अपनी समझ से समझने का मौका ही नहीं दिया गया....बस आपको श्रधा करना, अंध-श्रधा करना सिखा दिया गया. आपको बता दिया गया कि कोई अल्लाह है, उसकी भेजी कोई किताब है 'कुरआन' और उसका कोई पैगम्बर है, आखिरी पैगम्बर.......बस अल्लाह की किताब में जो लिखा है.......वो ही आखिरी सत्य है.....आपको समझने का मौका ही नहीं दिया गया कि अल्लाह ही है जो चारों तरफ बरसता है और हर किताब जिसमें कुछ अक्ल है, शांति का संदेश है , वो अल्लाह की ही भेजी गयी है...और वो किताब रोज़ उतरती है...आगे भी उतरती रहेगी....और जो भी इन्सान कोई अक्ल की बात करता है, शांति की बात करता है, वो अल्लाह का ही पैगम्बर होता है...उसी का पैगाम दे रहा होता है.....और कोई पैगम्बर आखिरी नहीं होता, न होगा.....जब अल्लाह रोज़ नए बंदे इस दुनिया में भेज रहा है तो पैगम्बर नये क्यूँ नहीं भेजेगा भाई? लेकिन यह सब शायद मेरे मुस्लिम मित्रों के लिए समझना आसान न हो.........हाँ , आसाराम और रामपाल और राम रहीम गलत है. राम ग़लत नहीं हो सकते, मोहम्मद गलत नहीं हो सकते....उनके प्रति श्रधा जायज़ है, लेकिन आसाराम और रामपाल और राम रहीम के प्रति श्रधा नाजायज़ है! दूसरे कूएं में गिरे नज़र आते हैं लेकिन खुद का दलदल में धंसा होना नहीं नज़र आता. दूसरे की कश्ती में छेद नज़र आते हैं लेकिन अपना बेडा गर्क होता नज़र नहीं आता...शायद बेड़ा बड़ा है इसलिए. ज़रा फिर से सोचें वैसे यह सब सोचना आसान नहीं है.. सोचने लगे गर आवाम तो निजाम गिर जाएगा ज़मीन ही नहीं आसमान गिर जाएगा आंधी ही नहीं, तूफ़ान घिर जाएगा पांडा ही नहीं इमाम गिर जाएगा हिन्दू गिर जाएगा, मुसलमान गिर जाएगा सियासत और सरमाया तमाम गिर जाएगा नंगा और नंगे का हमाम गिर जाएगा सोचने लगे गर आवाम तो निजाम गिर जाएगा सादर नमन..तुषार कॉस्मिक

Friday 25 August 2017

कर्म-फल सिद्धांत

विचार बीज है कर्म का....यदि बीज खराब होगा तो फल खराब ही होगा....सो जब कोई कर्म पर जोर दे, लेकिन विचार पर नहीं तो वो आपको सिर्फ समाज की मशीनरी में चलता-पुर्जा बनने को प्रेरित कर रहा है...ऐसे लोग बकवास हैं. 

बकवास हैं ऐसे लोग जो यह गाते हैं, "कर्म करे जा इन्सान, आगे फल देगा भगवान."
बकवास हैं ऐसे लोग जो यह कहते हैं, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन." 

फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि  Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?"

"फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें?

खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा  किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल  में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है.

और कोई भगवान नहीं बैठा कहीं जो तुम्हारे अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब करेगा. नहीं, वो इतना वेहला नहीं है. कोई चित्रगुप्त नहीं बैठा बही खाते लेकर, जिसमें आपके अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा हो. बचकानी कल्पनाएँ हैं.

पहले तो अच्छे-बुरे की धारणा भी भिन्न-भिन्न होती है. इस्लाम में मांस खाना जायज़ है, जैनी के लिए बिलकुल नाजायज़. अच्छा-बुरा क्या है, यह सामाजिक मान्यताएं तय करती हैं. कल तक प्रेम विवाह कोई कर लेता था तो मोहल्ले में हल्ला हो जाता था, आज बिन शादी के भी जोड़े रह रहे हैं. सामाजिक मान्यताएं और कायदा-कानून, बस यही तय करता है कि अच्छा-बुरा क्या है और इस अच्छे-बुरे के साथ कैसा सलूक करना है. बस. इसी से तय होता है आपके अच्छे-बुरे कर्मों का फल. बाकी आपके जो पवित्र धर्म-ग्रन्थ अगले-पिछले जन्मों के साथ, ग्रहों-सूरज-चांद-तारों के साथ  आपके कर्मों को, उनके फलों को जोड़ते हैं, वो भूतिया बनाते हैं. मत बनिये.

तुषार कॉस्मिक

Thursday 24 August 2017

चोर, उचक्के, गला-काट लोगों को हल्के माना जाता है...जैसे ये जो अरबों डकार जाते हैं...ये सफेद -पोश .....ये तो जैसे साधू हों.....बुद्धत्व के हकदार.

असलियत ये है कि ये सफेद-पोश डकैत ही ज़िम्मेदार हैं....चोरों, उचक्कों के लिए

Why should the creator and the creation be different?

Why should the creator and the creation be different?

It is no Creation and there is no Creator. It is both. Like  Dance and Dancer, Acting and Actor.Cause is effect and Effect is Cause. No difference.

यह प्रभु नहीं स्वयम्भू है.


अवचेतन से अधिचेतन का सफर है.

कहा ही जाता है, आत्म से अध्यात्म ...हालांकि आत्म की अवधारणा ही गलत है....भ्रम है......लेकिन वो अवधारणा टूटना ही तो अध्यात्म कहा जाता है लेकिन यह संज्ञा भी  विभ्रमित करती है.

असल में न कोई आत्म है और न ही कुछ अध्यात्म......जब आत्म नहीं तो अध्यात्म कैसे होगा?

 आत्मा एक भ्रम है. अध्यात्म उससे बड़ा भ्रम है.

तो फिर इसे क्या कहें?

मैं इसे कॉस्मिक होना कहता हूँ, आप वैश्विक होना कह सकते हैं या फिर कुछ और.

नामकरण खुद करें.

Thursday 17 August 2017

खाकी वर्दी वाले और वो औरत

पश्चिम विहार से आज फिर तीस हज़ारी कोर्ट जाना हुआ. बर्फखाना से ठीक पहले के ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ी रोकी. वो कोई साठ के पेटे में हैं. खाकी कपड़े पहने. काले जूते, फीते वाले. पुराने लेकिन पोलिश किये हुए. उनका चेहरा और जूते दोनों पर सलवटें हैं. दूर से देखने पर वो पुलिस वाले लगते हैं लेकिन हैं नहीं. जी-जान से ट्रैफिक संभालते हुए. पिछली बार मेरी कार का दरवाज़ा एक औरत ठक-ठकाती रही लेकिन मैंने उसे कुछ नहीं दिया. हाँ, इन खाकी वर्दी वालों को इशारे से बुलाया और पचास का नोट थमा दिया. वो औरत मेरा चेहरा ताकती रही और खाकी वर्दी वाले भी. वो इस बार फिर से वहीं थे. आज कोई औरत नहीं आई और मैं उनको चालीस रुपये ही दे पाया. पैसे लेते ही वो फिर से ट्रैफिक सम्भालने लौट गए. मैं सोचने लगा, "क्या उस दिन उस औरत को कुछ भी न देकर मैंने गलत किया? वो भी तब जब मैंने उसके सामने इन खाकी वर्दी वालों को पचास की पत्ती दी?" फिर ख्याल आया, "अब मांगने वालों में भी कहाँ कोई गरिमा बची? अब कहाँ हैं ऐसे लोग, जो कहते हों, "जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला"? ये जो लोग मेरे शहर में मांगते हैं, ये तो गाड़ी का शीशा ऐसे बजाते हैं जैसे भिक्षा नहीं, कर्ज़ा वसूल रहे हों, जैसे न दिया तो शीशा तोड़ के गाड़ी में घुस आयेंगे, जैसे साफ़ कह रहे हों, "दो नहीं तो चैन से बैठने नहीं देंगे." अपने ही तर्कों से थोड़ा सा शांत हो चला मैं. तीस हज़ारी कोर्ट भी आने को ही था. गाड़ी पार्किंग में और मैं कोर्ट में. सब हवा हो गया. वापिस आया तो लगा आप सबको लिखना चाहिए. सो हाज़िर है वाकया.

वकालत की अंधेर-गर्दियाँ

अकबर इलाहाबादी ने कहा है, "पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा, लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए" न्याय-मशीनरी का अहम पुर्जा है वकील. और वकालत के पेशे में निरी अंधेर-गर्दी है. मैंने भुगती है, देखी है, निपटी है, निपटाई है. वकील कोर्ट को, अपने विरोधी वकील को, अपने मुवक्किल को, अपने नीचे काम करने वाले जूनियर वकीलों का, इंटर्नशिप करने वाले बच्चों तक को फुल्ल-बटा-फुल्ल गुमराह करते हैं. अगर कोई सफ़ल वकील नहीं बनते, जो कि अधिकांश इंटर्न (प्रशिक्षु) नहीं बनते तो उसकी एक बड़ी वजह यह है कि वो बरसों तक सीनियर वकीलों द्वारा गुमराह किये जाते हैं. इंटर्न को लगता है कि वो काम सीख रहे हैं और सीनियर, घिसे वकील काम सिखाने के नाम पर उनसे सिर्फ मजदूरी कराते हैं, बेगार करवाते हैं. स्टाम्प पेपर मंगा लेंगे, ओथ कमिश्नर-नोटरी के पास भेज ठप्पे लगवा लेंगे, सर्टिफाइड कापियों अप्लाई करवा देंगे, काउंटर पर plaint जमा करवा लेंगे-किराया जमा करवा लेंगे, कोर्ट में ऐसी तारीखों पर भेज देंगे जिन पे सिर्फ शक्ल दिखानी होती है या फिर सिर्फ कोई डॉक्यूमेंट सबमिट करने होते हैं, टाइपिंग करवा लेंगे. ये सब काम सीखने ज़रूरी हैं, लेकिन यह सब सीखना दो-चार महीने का काम है, इसके लिए 5-10 साल नहीं चाहिए होते. यह बस LEG-WORK है. असल वकालत सीखी जाती है, रिसर्च से. BRAIN-WORK से. लॉ वृहद क्षेत्र है. और जितना मुझे पता है, LLB में बस कुछ बेसिक एक्ट पढ़ाए जाते हैं. असल में एक बढ़िया वकील के लिए केस से जुड़े एक्ट पढने ज़रूरी हैं, और उन एक्ट से जुडी बहुत सी जजमेंट पढ़ना भी ज़रूरी है. इसके अलावा उसे यह भी देखना ज़रूरी है कि वो अपने प्रयासों से क्या नए सबूत इक्कठे कर सकता है. बस यही है मूल-मन्त्र. बाकी एक वकील की हिंदी-अंग्रेज़ी-क्षेत्रीय भाषा अच्छी होनी चाहिए, उसका कंप्यूटर ज्ञान अच्छा होना चाहिए, उच्चारण सही होना चाहिए, लहज़े में क्षेत्रीयता नहीं झलकती होनी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज सही होनी चाहिए. और टाइपिंग भी आनी चाहिए और इसके साथ ही उसे इन्टरनेट का प्रयोग भी करना आना चाहिए. अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत वकील मेरे दिए हिसाब-किताब से बाहर हो जाते हैं. चिढ़ी-मार. कैसे? बताता हूँ. आपको जानकार शायद हैरानी हो कि भारतीय बार कौंसिल खुद मानती है कि 50% वकील नकली हैं. ऑन-रिकॉर्ड मानती है. लानत! गए पचास प्रतिशत. अब जो बाकी बचे पचास प्रतिशत, इनमें से ज्यादातर अंग्रेज़ी के दो पेज बिन गलती के टाइप नहीं कर सकते. बोलना तो दूर की बात. यहाँ पॉइंट यह नहीं कि साहेब, हिंदी में काम चला लेंगे. चला भी सकते हैं, लेकिन चला नहीं पायेंगे चूँकि सारे एक्ट अंग्रेज़ी में पढ़े-पढाये जाते हैं, फिर इन्टरनेट सामग्री अंग्रेज़ी में है. सब जज-मेंट अंग्रेज़ी में हैं. सो, नहीं बच पायेंगे अंग्रेज़ी से. कितने वकील साहेब तो ऐसे हैं, जिनको टाइप करना ही नहीं आता. कैसे करते हैं ये लोग ड्राफ्टिंग? किसी टाइपिस्ट को देते हैं केस की डिटेल और वो करके देता है ड्राफ्टिंग. यह है इनका तरीका. सवाल यह नहीं है कि बिना टाइपिंग के भी काम चलाया जा सकता है. चलाया तो जा सकता है लेकिन आज के जमाने में, ई-मेल, whats-app, इन्टरनेट के जमाने में यदि किसी को बेसिक टाइपिंग नहीं आती, ख़ास करके ऐसे प्रोफेशन में जहाँ टाइपिंग की हर वक्त ज़रूरत है, तो निश्चित ही ऐसे व्यक्ति को दिक्कतों का सामान करना पड़ेगा, और उसकी दिक्कतों की वजह से क्लाइंट को दिक्कत होने की सम्भावना रहेगी ही रहेगी. समझ लीजिये मित्रगण, केस जीते जाते हैं, रिसर्च वर्क से, बाकी तो बस Execution है. कैसे करेंगे रिसर्च ये लोग, जो अंग्रेज़ी नहीं जानते, जो टाइपिंग नहीं जानते, जो इन्टरनेट से दूर हैं? आप सोच सकते हैं कि बिना इन्टरनेट के भी तो रिसर्च की जा सकती है. किताबों से. की जा सकती है, बिलकुल की जा सकती है, लेकिन आज के दौर में यह ऐसा ही है कि आप के पास है रिवाल्वर और आपको मुकाबला करना है AK-47 वाले के साथ. किताबों का दौर अब पीछे छूटता जा रहा है जनाब-ए-आली. दरिया-गंज में रविवार को किताबें बेचने वाले के पैरों तले रो रही होती हैं. लगभग रद्दी के भाव बिकतीं हैं. बुक से ज़माना e-notebook की तरफ बढ़ चला है सर. अब यह अलग ही मुद्दा है कि ज्यादातर वकीलों का उद्देश्य केस जीतना होता ही नहीं. ये लोग दलाल का, कमीशन एजेंट का काम कर रहे होते हैं. मुवक्किल से बीस-पचास हजार पहले ही झाड़ लेते हैं. फिर तारीख पर पैसे मिलने ही होते हैं. अगला जाए भाड़ में. केस जीतेगा तो इनको क्या फ़ालतू मिलने वाला है? कुछ ख़ास नहीं. लेकिन अगर समझौता करेगा तो वहां दोनों तरफ के वकीलों को कमीशन मिलनी होती है. तो ज़्यादा इंटरेस्ट समझौता कराने में ही रहता है या फिर केस को लटकाने में ताकि तारीख-दर-तारीख वसूली होती रहे. बहुतेरे वकील तो बस ट्राफिक चालान भुगताने से ज़्यादा कूवत ही नहीं रखते. पसीने से अकड़े, काले कोट पहने हुए लोग, ऐसे कोट जिन पर सफेद पाउडर के निशाँ चमक रहे होते हैं. गर्मी में और गर्मी का अहसास देते काले कपड़े पहने काले पेशे वाले लोग. ओह्ह्ह सॉरी....यह तो नोबल प्रोफेशन माना जाता है. लेकिन जब मैं वकीलों के पेशे को काला कहता हूँ तो उसका मतलब यह कतई नहीं कि मैं अपने या आपके पेशे को सफेद-गोरा-चिट्टा कह रहा हूँ. नहीं, वो मतलब नहीं है मेरा कतई. असल में तो हम सब के पेशे काले ही हैं. हमारा समाज ही काला है तो इसमें से सफेदी कहाँ से निकलेगी? वकील भी उसी कालिमा से निकल रहा है, वो सफेद कैसे हो सकता है? आप क्या कर सकते हैं कि वकीलों की अंधेर-गर्दी से, कालिमा से बच सकें? कुछ सलाहें हैं, शायद काम आयें:-- १. पहले तो यह समझें कि केस आपका है, वकील का नहीं. आप जितने मर्ज़ी पैसे दें, जितने मर्ज़ी आपके अच्छे सम्बन्ध हों वकील के साथ, आपका केस वकील के लिए बहुत से केसों में से एक है. हो सकता है, उस केस पर आपके जीवन की दशा और दिशा टिकी हो, लेकिन वकील के लिए ऐसा कुछ नहीं होता. सो आप को खुद अपने केस का स्टूडेंट बनना होता है, केस से पहले, केस के दौरान और केस जीतने-हारने के बाद भी चूँकि मामला अपील में जा सकता है. केस से जुड़े एक्ट पढ़ें, जजमेंट पढ़ें, और अपने पक्ष में सबूत इक्कठे करने का जी-तोड़ प्रयास करें. २. कोर्ट में जो भी सबमिशन हों, चाहे आपके, चाहे आपके विरोधी के, उन सबकी सर्टिफाइड कॉपियां ले लें. अगर कभी कोर्ट की फाइल में कोई हेर-फेर करने की कोशिश करेगा तो पकड़ा जाएगा. और अगर कोर्ट की फाइल गुम गई, गुमा दी गयी तो आपके पास होगी न एक फाइल, बेक-अप जो काम आयेगा. ३. बहुत बिजी वकील कभी न लें. जो पहले से ही बिजी है या बिजी दिखा रहा है खुद को, वो क्या ख़ाक समय निकालेगा आपके लिए? लाख काबिल हो लेकिन उसकी क़ाबलियत आपके काम नहीं आने वाली. ४. जो वकील खुद को जूनियर वकील कहे, उसे कभी hire मत करना. जो जूनियर होने की हीनता-ग्रन्थि से पीड़ित है, वो सिवा पीड़ा के क्या देगा? ५. जो वकील आपको सिर्फ अपने दफ्तर, गाड़ी, चेले-चांटों की फौज, अपने लैपटॉप, कंप्यूटर, फ़ोन आदि से प्रभावित करना चाहे, उससे तो कोसों दूर रहें. वकील वो करें जो खुद स्टडी कर सके और आपको करने में मदद कर सके. ६. हमेशा एक से ज़्यादा वकीलों के सम्पर्क में रहें, आपका वकील क्या सही-गलत कर रहा है, वो क्रॉस-चेक होता रहेगा और इमरजेंसी में अगर मौजूदा वकील को अलविदा करना होगा तो दूसरा हाज़िर रहेगा. ७. शुरूआत में कभी किसी वकील को एक-मुश्त मोटी रकम न दें, वरना आपके लिए वकील छोड़ना मुश्किल हो जायेगा. और पैसा लेने के बाद वकील ऐसे व्यवहार करेगा जैसे आपने उसे नहीं, उसने आपको hire किया है. आपके मेसेज का जवाब नहीं देगा, आपके फ़ोन नहीं सुनेगा, तारीख पर लेट आएगा या आएगा ही नहीं. ८. वकालतनामा एक तरह का ऑथोर्टी लैटर है जो आप देते हैं वकील को. इसमें आप उसे जितना करने का हक़ देंगे वो उतना ही कर पायेगा, उससे रत्ती भर ज़्यादा नहीं. तो उसे केस वापिस लेने का, अपने साइन किये बिना कोई भी कागज़ात कोर्ट में दाखिल करने का, खुद की मौजूदगी के बिना कोर्ट में हाज़िर होने का हक़ मत दीजिये वकालतनामे में. और आपके वकील को फीस कितनी मिलनी है, वो भी इसमें लिख दीजिये. अब आपका वकील खुद-मुख्तियार नहीं होगा बल्कि आपके दिए मुखित्यार-नामे के मुताबिक ही काम कर पायेगा. ९.कोर्ट मे जहाँ तक हो सके, हर बात लिखित में दें. लिखित का रिकॉर्ड है, जिसे जज भी इग्नोर नहीं कर सकता. बोले का कोई रिकॉर्ड नहीं है. जंगल में मोर नाचा किसने देखा? कोर्ट में CCTV लगेंगे, लेकिन कब? पता नहीं. लेकिन आप तो बहस भी लिखित में दे सकते हो. जहाँ आप लिखित से चूके, वहीं आपने विरोधी को, जज को, अपने वकील को मौका दे दिया Manipulation का. १०. manupatra.com, indiankanoon.org, lawyersclubindia.com, caclubindia.com, rtiindia.org कुछ काम की वेबसाइट हैं. देख सकते हैं. ११. अपने केस को स्ट्रोंग बनाने के लिए अगर कहीं RTI से जानकारी निकाल कर स्ट्रोंग बनता हो तो ऐसा ज़रूर करें.पुराने फोटो, काल रिकॉर्डिंग, विडियो रिकॉर्डिंग भी खंगाल सकते हैं. १२. तारीख सिर्फ कोर्ट में शक्ल दिखाने और वकील को पैसे देने के लिए नहीं होती. दो तारीखों के बीच का वक्फा जो है उसमें बहुत कुछ काम करना होता है, काम किया जा सकता है. स्थिति के मुताबिक रिसर्च की जा सकती है. सबूत जुटाए जा सकते हैं. ये सब आप वकील पर छोड़ देंगे इस उम्मीद में कि वो कर ही लेगा तो आप मूर्ख साबित होंगे. और यही सब 'वो' है, आपके केस की जीत या हार तय करता है. १३. नीचे आर्बिट्रेशन क्लॉज़ दे रहा हूँ. इसे पढ़िए, समझिये. यह आपके वर्षों बर्बाद होने से बचा सकती है. यह क्लॉज़ तकरीबन सभी तरह के AGREEMENTS/ CONTRACTS में प्रयोग की जा सकती है. जैसे बयाने का अग्रीमेंट. किराए का अग्रीमेंट. फिर भी क्लॉज़ का प्रयोग करने से पहले आर्बिट्रेशन क्या है, इसे स्टडी कर लें. बस इतना समझ लें कि है जादू की छड़ी. खैर, यह है क्लॉज़:--- “If any dispute or difference whatsoever arising between the parties out of or relating to the construction, meaning, scope, operation or effect of this Contract or the validity or the breach thereof shall be settled by arbitration in accordance with the Rules of Arbitration of the ‘Indian Council of Arbitration’ and the award made in pursuance thereof shall be binding on the parties. Arbitration is to be referred to ‘Indian Council of arbitration’ and the place of arbitration will be the office of ‘Indian Council of Arbitration’, situated at Federation House, Tansen Marg, New Delhi-110001. The fees of the arbitrators and all the other charges of the arbitration whatsoever will be borne by both the parties equally. The party failing to pay these expenses will be ex parte. If requested by any party, ‘Indian Council of Arbitration’ may resolve the matter within 3 months under fast track arbitration. No Legal action can be taken under this agreement for the enforcement of any right without resorting to the arbitration. There-after if any court case is initiated by any of the party of this deed, the case shall be exercised within the jurisdiction courts of the ……… courts.” ये कुछ टिप्स हैं जो वकालत की अंधेर-ग्रदियों से मुवक्किलों को ही नहीं, कामयाब वकील बनने की चाह रखने वालों को भी बचा सकते हैं. कमेंट ज़रूर लिखें. प्लीज, अच्छा लगेगा मुझे, मैं सिर्फ दो दिन और हूँ आपके साथ. "Lawyers lose the cases due to their own mistakes and win due to their opponents' mistakes",तुषार कॉस्मिक.

Tuesday 15 August 2017

जन्माष्टमी स्पेशल

1. गाते हो, "होली खेलत रघुबीरा अवध माँ"

"ब्रज में होली खेलत नन्दलाल"

लानत! खेलनी हैं होली तुम खेलो भाई. तुम क्या किसी रघुबीर या नंदलाल से कम हो?

अपना बच्चा चलना शुरू करेगा तो गाने लगेंगे.
"ठुमक-ठुमक चले श्याम."

अबे ओए, तुम्हारे बच्चे किसी शाम, किसी राम से कम नहीं है.

जीसस सन ऑफ़ गॉड!
वैरी गुड!! बाकी क्या सन ऑफ़ डॉग हैं?

मोहम्मद. अल्लाह के रसूल. वो भी आखिरी.
शाबाश!! अल्लाह मियां चौदह सौ साल पहले ही बुढा गए. थक गए. चुक गए. या फिर सनक गए. 

होश में आओ मित्रवर, होश में आओ. 

आप, आपके बच्चे किसी राम, श्याम, किसी जीसस, किसी भी रसूल से कम नहीं हो. 

आप, हम सब कोई इस धरती पर सेकंड क्लास, थर्ड क्लास कृतियाँ नहीं हैं उस कुदरत की, उस प्रभु की, उस स्वयंभू की. नहीं. ऐसा कुछ भी नहीं है. 

हम सब किसी अवतार, किसी रसूल, किसी परमात्मा के इकलौते पुत्र की चबी-चबाई कहानियाँ चबाने को नहीं हैं. हम कोई आसमानी किताबों की, कोई धुर की बाणी, कोई भगवत गीता की गुलामी को नहीं हैं यहाँ इस धरती पर.

इस मानसिक गुलामी से बाहर आओ.

चबे-चबाये चबेने थूक दो. कुछ नहीं रखा इन सब में. आखिर चीऊंग-गम भी कितनी देर चबाते हैं आप?

मेरा मेसेज साफ़ है,  हम सब अपनी लीला खेलने आये हैं. क्यूँ किसी और की लीला ही देखते रहें? हम किसी से कम नहीं. और यदि अपनी लीला को बेहतर बनाने के लिए किसी और की लीला से कुछ सीखना भी हो तो यह कोई तरीका नहीं कि किसी एक ही की लीला को देखे जाओ और वो भी बंद अक्ल के, सब कुछ सही गलत पहले से ही मान कर?

फ़ोन स्मार्ट हो गए, हम पता नहीं कब होंगे? हम तो बस स्मार्ट फ़ोन से भी राम-लीला के दृश्य कैद करने में लगे हैं. नहीं, भई, दिमाग खोलो, स्मार्ट बनो और स्मार्ट फ़ोन ही नहीं, स्मार्ट ज़िन्दगियाँ आविष्कृत करो.

२, कृष्ण का झूठा दावा
***यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवित भारत
अभ्युथानम धर्मस्य, तदात्मानम सृजामयहम***

भगवद-गीता यानि भगवान का खुद का गाया गीत. बहुत सी बकवास बात हैं इसमें. यह भी उनमें से एक है.

अक्सर ड्राइंग-रुम की, दफ्तरों की दीवारों पर ये श्लोक टंगा होता है. कृष्ण रथ हांक रहे हैं और साथ ही अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं.

"जब-जब भी धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं यानि कृष्ण धर्म के उत्थान के लिए खुद का सृजन करता हूँ."

पहले तो यही समझ लीजिये कि महाभारत काल में भी कृष्ण कोई धर्म की तरफ नहीं थे. कैसा धर्म? वो राज-परिवार का आन्तरिक कलह था. दोनों लोग कहीं गलत, कहीं सही थे. धर्म-अधर्म की कोई बात नहीं थी. जो युधिष्ठर जुए में राज्य, भाई, बीवी तक को हार जाए उसे कैसे धर्म-राज कहेंगे? द्रौपदी को किसने नंगा करने का प्रयास किया? उसके पति ने जो उसे जुए में हार गया या दुर्योधन ने जो उसे जुए में जीत गया? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए जब द्रौपदी दांव पर लगाई जा रही थी? कृष्ण तब क्यूँ नहीं प्रकट हुए, जब  द्रौपदी दुर्योधन का उपहास करके आग में घी डालती है? जब कर्ण को रंग-भवन में अपमान झेलना पड़ा था चूँकि वह सूत-पुत्र था, जब एकलव्य का अंगूठा माँगा गया था? 

और महाभारत. वो कोई धर्म-युद्ध था? कोई युद्ध धर्म-युद्ध नहीं होता. युद्ध सिर्फ युद्ध होता है. युद्ध का अर्थ ही होता है कि अब बात नियमों की, धर्म की  हद से बाहर हो चुकी है. आप लाख कहते रहो धर्म युद्ध, लाख करते रहो विएना समझौता, लेकिन युद्ध सब नियम, सब धर्म तोड़ देता है.

महाभारत में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा अधर्म अगर हुआ तो वो पांडवों की तरफ से हुआ था. भीष्म को गिराया गया चालबाज़ी से. शिखंडी को बीच में खड़ा करके. अब आप क्या एक्स्पेक्ट करते हैं कि सामने वाला रिश्ते निभाये? बड़ा शोर मचाया जाता है आज तक कि अभिमन्यु को घेर कर मार दिया गया, मारते नहीं तो और क्या करते? टेढ़-मेढ़  की शुरुआत तो  पांडव पहले ही कर चुके थे. बस कौरव चाल-बाज़ियों में कृष्ण से कमज़ोर पड़ गए और मारे गए.

लेकिन क्या धर्म की स्थापना हो गई? कहते हैं कि पांडवों के वंशज भी मारे गए और कृष्ण के भी. और कृष्ण भी सस्ते में ही निपट गए अंत में.

क्या उसके बाद भारत में या दुनिया में कोई अधर्म नहीं हुआ? अगर हुआ तो फिर कृष्ण के इस कथन का क्या अर्थ?

शूद्रों पर अत्याचार हुए, बौधों पर अत्याचार हुए, चार्वाक पर अत्याचार हुए, फिर मुग़लों ने हाहाकार मचा दी, बंटवारे में लोग काटे गए, फिर कश्मीर में लोग मारे गए, पंजाब में, दिल्ली में, गुजरात में, जगह-जगह...

ज़रा भारत से बाहर देख लें....दो विश्व-युद्ध लड़े गए. हिटलर ने यहूदियों को हवा बना के उड़ा दिया, लाखों को.

जापानियों ने चीनियों की ऐसी-तैसी कर दी.

अंग्रेजों ने आधी दुनिया को गुलाम कर दिया.

इस्लाम चौदह सौ सालों से क़त्ल-ओ-गारत मचाये है. इस्लाम के मुताबिक जो मुसलमान नहीं, उसे जीने का हक़ ही नहीं.

कब नहीं हुई धर्म की हानि? कहाँ नहीं हुई धर्म की हानि? कौन से भगवान ने अवतार लिया  और धर्म की स्थापना कर दी? 

असल में अवतार की धारणा ही गलत है. कोई ऊपर से आसमान से आकर नहीं टपकता. कोई सुपर-मैन जन्म नहीं लेता. जो कोई भी पैदा होता है, हम में से ही होता है. 

इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. 

रोम में इंसानों को इंसानों पर छोड़ दिया जाता था लड़ने-मरने को और सभ्य लोग यह सब देख ताली पीटते थे. इसे सभ्यता कहेंगे? आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है?  नहीं है  इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है.

और  धर्म की हानि रोज़ होती है, हर जगह होती है. और यह किसी भगवान-नुमा व्यक्ति के खुद को सृजन करने से या किसी अवतार के उद्गम से नहीं मिटेगी. यह इन्सान की सामूहिक सोच के उत्थान से घटेगी. और इसके लिए अनेक विचारकों की ज़रूरत होगी.

और वो विचारक हम हैं, आप हैं, आपके मित्र हैं, पड़ोसी है. और हम में से कोई भगवान नहीं है, अवतार नहीं है. हम सब आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी हैं-औरत हैं.

पीछे मैंने लिखा था, "एतद्वारा घोषित करता हूँ कि मुझ में कैसी भी खासियत नहीं है. मैं वैसा ही हूँ जैसे कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता है. मुझ में तमाम लालच, स्वार्थ, घटियापन, टुच्चा-पन, चोट्टा-पन और कमीनपन है जो आप कहीं भी और पा सकते हैं. मैने कितने ही ऐसे काम किये होंगे, जो नहीं करने चाहिए थे और शायद आगे भी मुझ से ऐसे कई काम हो जाएँ. लेकिन लिखता वही हूँ, जो सही समझता हूँ और निश्चित ही एक बेहतर दुनिया चाहता हूँ"

जान-बूझ कर ऐसा लिखा था. यह धारणा तोड़ने को लिखा था कि अगर कोई इस दुनिया की बेहतरी का प्रयास करता है तो वो कोई पाक-साफ़ व्यक्ति ही होना चाहिए. 

जैसी दुनिया है, उसमें  कोई पाक-साफ़ रह जाए, यह अपने आप में अजूबा होगा. तो छोड़ दीजिये यह धारणा कि कोई गुरु, कोई पैगम्बर, कोई मसीहा, कोई अवतार आता है  और वो कोई निरमा वाशिंग पाउडर से धुला होता है, जिसकी चमकार, जिसका नूर आपको चुंधिया देता है. बेवकूफानी  है यह धारणा. (लिखने लगा था 'बचकानी', लेकिन फिर सोचा कि बच्चे तो ऐसे बेवकूफ होते नहीं तो शब्द सूझा 'बेवकूफानी'.)

दुनिया की बेहतरी सोचने वाले, करने वाले लोग हममें से ही होंगे, हम ही होंगे, अपनी तमाम तथा-कथित कमियों और बुराईयों के साथ, अपनी काली करतूतों के साथ, कोयले की दलाली में  काले हुए मुंह के साथ. हम आम, अमरुद, केला, सेब, संतरा आदमी-औरतें.

2. विषैली सोच भगवत गीता में

"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही"।।2.22।।

"मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है." ।।2.22।।

गीता के सबसे मशहूर श्लोकों में से है यह.

समझ लीजिये साहेबान, कद्रदान, मेहरबान यह झूठ है, सरासर. सरसराता हुआ. सर्रर्रर.....

इसका सबूत है क्या किसी के पास? कृष्ण ने कहा...ठीक? तो कहना मात्र सबूत हो गया? 

इडियट. 

अंग्रेज़ी में एक टर्म बहुत चलती है. Wishful Thinking. आप की इच्छा है कोई, पहले से, और फिर आप उस इच्छा के मुताबिक कोई भी कंसेप्ट घड़ लेते हैं. मिसाल के लिए आप खुद को हिन्दू समझते हैं और इसी वजह से मोदी के समर्थक भी हैं. तो अब आप हर तथ्य को, तर्क को मोदी के पक्ष में खड़ा देखते हैं. आपके पास चाहे अभी कुछ भी साक्ष्य न हो कि मोदी अगला लोकसभा चुनाव जीतेंगे या नहीं लेकिन आप फिर भी मोदी को ही अगला प्रधान-मंत्री देखते हैं. इसे कहते हैं Wishful Thinking.

तो मित्रवर, इंसान मरना नहीं चाहता. यह जीवन इतना बड़ा जंजाल. यह जान का जाल और फिर यकायक सब खत्म. 

ऐसा कैसे हो सकता है? 

इंसान अपना न होना कैसे स्वीकार कर ले? सारी उम्र वो खुद के होने को साबित करता है. ज़रा झगड़ा हो जाए, कहेगा, "जानते हो, मैं कौन हूँ?" कैसे मान ले कि एक समय आएगा कि वो नहीं रहेगा? वो जानता है कि मृत्यु है, उसे तो झुठला नहीं सकता. रोज़ देखता है, हर पल देखता है. न चाहते हुए भी मृत्यु का होना तो मानना ही पड़ता है. 

लेकिन अपना खात्मा मृत्यु के साथ हो जाता है, यह वो नहीं मान सकता. बस यहीं से शुरू होती है, यह Wishful Thinking. यह विष से भरी सोच. 

वो आत्मा है, जो शरीर बदलती है. वैरी गुड. तुमने देखा क्या कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जा रही है? तुमने मनुष्य को देखा कपड़े बदलते हुए, आत्मा को देखा क्या शरीर बदलते हुए? 

लेकिन मौत के साथ किस्सा खत्म हुआ नहीं चाहते, सो नए शरीर के साथ नया एपिसोड शुरू. जैसे टीवी के सीरियल कभी खत्म नहीं होते. सास भी कभी बहु थी. छाछ भी कभी दही थी. कभी खत्म न होने को पैदा हुई कहानियाँ. 

गलत सिखाया है कृष्ण ने. वो बस अर्जुन को लड़वाना था तो कुछ भी बकवास चलाए रखी.

असल बात यह है कि हम-तुम हैं ही नहीं. बस होने का एक भ्रम हैं. ऊपरी तौर पर हैं, गहरे में नहीं हैं. जैसे एक ग्लास रख दें खाली कमरे में. असल में खाली ग्लास भी खाली नहीं होता. हवा रहती है उसमें. यह हवा सिर्फ उसी में है क्या? नहीं. वो तो पूरे कमरे में है. जो खाली बोतल पड़ी है उसमें भी और कटोरी में भी और फूलदान में भी. है कि नहीं? हम "हैं" लेकिन "हम" नहीं हैं.

अब आपका हाथ लगा और वो ग्लास टूट गया. छन्न से. वो जो हवा उसमें थी, वो ग्लास थी क्या? उसका ग्लास से क्या लेना-देना? अब क्या आप दूसरा ग्लास रखोगे, नया ग्लास रखोगे तो यह कहोगे कि  वो ही हवा वापिस उसमें आ गई. आत्मा. नया वस्त्र. क्या बकवास है यह?

 "जल विच कुम्भ कुम्भ विच जल, विघटा कुम्भ जल जल ही समाना ये गति विरले न जानी", कबीर साहेब ने कहा है.

कमरे में ग्लास की मिसाल और जल में कुम्भ और कुम्भ में जल वाली मिसाल काफ़ी कुछ एक ही हैं. 

ग्लास की हवा को और कुम्भ के जल को वहम है कि वो कुछ अलग है, उसका कोई अपना अस्तित्व है, जबकि ऐसा है नहीं....कुम्भ फूटा और उसका जल फिर से नदी के जल में मिल गया. वो पहले भी नदी का ही जल था, लेकिन चूँकि वो कुम्भ में था तो उसे वहम हो गया था कि वो नदी से अलग है कुछ.

इसी तरह से इन्सान को वहम हो गया है कि वो परम-आत्मा से अलग कुछ है, सर्वात्मा से अलग कुछ है.....तभी वो खुद को आत्मा माने बैठा है, जिसका पुन:-पुन: जन्म होना है....तभी वो मोक्ष माने बैठा है.......जबकि मौत के साथ सब खत्म है.

इन्सान को दूसरे ढंग से समझें......शरीर हमारा हार्ड-वेयर है.....मन सॉफ्ट-वेयर है. इन दोंनो को चलाती है बायो-इलेक्ट्रिसिटी और इसके पीछे जागतिक चेतना है, वही बायो-इलेक्ट्रिसिटी से हमारे सारे सिस्टम को चलाती है. 

मौत के साथ हार्ड-वेयर खत्म, हाँ, कुछ पार्ट फिर से प्रयोग हो सकते हैं, किसी और सिस्टम में. 

सॉफ्ट-वेयर भी प्रयोग हो सकता है, लेकिन अभी नहीं, आने वाले समय में मन भी डाउनलोड कर लिया जा पायेगा.

जागतिक चेतना ने ही तन और मन को चलाने के लिए बायो-इलेक्ट्रिसिटी का प्रावधान बनाया, जब तन और मन खत्म तो बायो-इलेक्ट्रिसिटी का रोल भी खत्म. और जागतिक चेतना तो सदैव थी, है, और रहेगी.

अब इसमें किसे कहेंगे आत्मा? मुझे लगता है कि इन्सान को वहम है कि उसका मन यानि जो भी उस की सोच-समझ है, आपकी मेमोरी जो है, वो आत्मा है और वो दुबारा पैदा होती है मौत के बाद.

पहले तो यह समझ लें कि अगर परमात्मा को, सर्वात्मा को, कुदरत को आपके मन को, सोच समझ को आगे प्रयोग करना होता तो वो बच्चों को पुनर्जन्म की याद्-दाश्त के साथ पैदा करता. उसे नहीं चाहिए यह सब कचरा, सो वो जीरो से शुरू करता है, हर बच्चे के साथ. साफ़ स्लेट.

यह काफी है समझने को कि आपकी मेमोरी, आपकी सोच-समझ का कोई रोल नहीं मौत के बाद.

शरीर तो निश्चित ही आत्मा नाही मानते होंगे आप?

अब क्या बचा? जागतिक चेतना को क्या करना जल में कुम्भ का, कुम्भ तो पहले ही जल में है और फूटेगा तो जल जल में ही मिलेगा? असल में तो मिला ही हुआ है.......कुम्भ को वहम है कि नहीं मिला हुआ, ग्लास को वहम है कि उसके अंदर की हवा, कमरे में व्याप्त हवा से अलग है, रूप को वहम है कि उसकी चेतना जागतिक चेतना से अलग है.

जागतिक चेतना को आप कोई भी नाम दे सकते हैं....परमात्मा, अल्लाह, भगवान, खुदा.....मैंने नया नाम दिया, सर्वात्मा. 

हो सकता है यह पहले से हो प्रयोग में, लेकिन मैंने नहीं सुना, पढ़ा......मैंने बस घढ़ा.

भूत, प्रेत बकवास बात हैं. और न ही कर्म अगले जन्म में जाते हैं, जब अगला जन्म नहीं तो कर्म कहाँ से आगे जायेंगे? जिसे आप सनातनी धारणा कह रहे हैं, उसे ही मैं वहम कह रहा हूँ.

वो जो वेदांत कहता है...'सर्वम खलविंदम ब्रह्म'.....वो सही बात है. और जिसे मैं जागतिक चेतना कह रहा हूँ उसे आप और लोग परमात्मा तो कह सकते हैं लेकिन आत्मा नहीं....आत्मा से अर्थ माना जाता है किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा.

लोग अगर वेदांत की बात समझ लेते तो फिर तो सब कुछ परमात्मा है ही...आत्मा का कांसेप्ट ही नहीं आता.

इस्लाम में आखिरत की धारणा है....उसमें भी कुछ तर्क नहीं है.... जो मर गया सो मर गया...अब आगे न जन्नत है, न जहन्नुम......जब सब खत्म है तो फिर किसका फैसला होना?

कुछ नहीं, ये सब स्वर्ग, नरक, मोक्ष की धारणाएं खड़ी ही इस बात पर हैं कि इन्सान कुछ है जो कायनात से हट कर, कुछ व्यक्तिगत है....सो वो व्यक्तिगत आत्मा है...और मौत के बाद उस आत्मा को मोक्ष मिला तो दुबारा जन्म नहीं होगा.....वरना उसे स्वर्ग-नरक-पुनर्जन्म के चक्र में घुमते रहना होगा.

जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है..सब गपोड़-शंख हैं. 

उस जागतिक चेतना ने, परमात्मा ने खेल रच दिया है.....बिसात बिछा दी है, मोहरे सजा दिए हैं....लेकिन वो हर वक्त खेल में पंगे नहीं लेता रहता.....मोहरे खुद मुख्तियार हैं......अब अपने खेल के खुद ज़िम्मेदार हैं.........नियन्ता ने मोटे नियम तय कर दिए हैं.....लेकिन आगे खेल मोहरे खुद खेलते हैं.

बस यहीं फर्क है.....सब धर्मों में और मेरी सोच में...धर्म कहते हैं कि परमात्मा कभी भी इस खेल में दखल दे सकता है...मोहरे अरदास करें, दुआ करें, प्रार्थना करें बस....लेकिन मेरा मानना यह है कि मोहरा जो मर्ज़ी करता रहे......अब परमात्मा खेल में दखल नहीं देता.

लेकिन धर्म कैसे मान लें? मान लें तो कोई क्यूँ जाए मन्दिर, गुरूद्वारे, मसीद? कहानी खत्म. जब कोई सुनने वाला नहीं तो किसे सुनाएं फरयाद?

यहीं मेरी सोच सनातन, इस्लाम, सिक्खी, चर्च सबसे टकराती है. मेरे ख्याल से ये सब झूठ के अड्डे हैं. झूठे आश्वासन दाता. इन्सान के भीतरी डर की वजह से खड़े.

मेरी बात समझ आ जाए तो आपको मंदिर , मस्ज़िद, गुरूद्वारे विदा करने नहीं पडेंगे, वो अपने आप ही विदा हो जायेंगे.

बस यह समझ आ जाये कि कोई आत्मा-वात्मा होती ही नहीं. जैसे सब और हवा व्याप्त है, ऐसे ही सब और एक चेतना व्याप्त है, वो ही विभिन्न रूप ले रही है. रूप को वहम है कि वो सर्व-व्यापी चेतना न होकर, रूप मात्र  है. वो सर्वात्मा न होकर को आत्मा है. लहर को वहम हो रहा है कि वो समन्दर न होकर, बस लहर है. 

गीता का यह श्लोक लहर के भ्रम की सपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है. ग्लास में जो हवा को वहम है कि  वो कुछ अलग है, उस वहम को बनाये रखने का ज़रिया मात्र है.

Wishful Thinking, विषैली सोच.

"JANAMASHTMI SPECIAL"

Krishan, a Wrong Idol--- Krishan birth day is being celebrated as if he was a great idol, but as I see he should be thrown outta temples, he does not deserve any such kinda attention at all. Why I say so, kindly walk with me for awhile........

1) He did not stop Yudhishtra for putting Draupadi on stake in the game of dice but later on appeared to help Draupadi. What a god! What an ill-timed appearance!

2) And the Paandavas were not the dharmik (virtuous) ones at all. Who lost everything- everyone, including Draupadi and themselves, in the game of dice? The Paandvas. 

Did not Yudhishtra know that there is a difference between things & beings? And how could he be called a great king, a king who lost his kingdom in a game of dice. Even Draupadi was questioning again and again his act of putting her at stake in the game of dice but remained unanswered. How can anyone call Yudhishtra as "Dharma Raj" (King of Virtues)?

The Paandavas lost everything in the game of dice, had been returned everything but indulged again in the same game and lost again.

It seems that Duryodhana insulted Draupadi but was not Yudhishtra himself responsible for her insult, who could not see the difference between the things and his wife? I feel, Duryodhana was the least culprit out of all, in the insult of Draupadi.

And even after losing everything, Yudhishtra learnt nothing, in the period of exile, along with his brothers; Yudhisthira spent his last year of exile in the kingdom of king Virata. He disguised himself as a Brahmin named Kanka and taught the game of dice to the king, Virat.

It seems that he considered himself as a master of the game of the dice but Shakuni was far better and the allegations that Shakuni used some unfair methods in the game against Yudhishtra, is false. If Shakuni was using some unfair method, why Yudhisthra or anyone else did not catch him on the spot? After losing a game everyone can allege the winner for a cheating.

3) It was a quarrel between Kauravas & Panndavas, no matter directly related to him, but he made the Kurukshetra war happened. He gifted his military (Narayani Sena) to the Kauravas and remained himself from the Paandavas, thus kept the Laddus (read as the game) in both of his hands.

4) Krishna took the vow that he personally would not raise any weapon in the war. But picked up a carriage wheel to challenge Bhishma.

5) He made it an adhramyudha (Unjust war) from a dharamyudha (Just war), it was he, who suggested to put Shikhandi in front of Arjun, to kill Bhishama. He started this ugly game in this War and later on every fighter of Kauravas was killed due to his ill-methodology.

6) It was the Paandavas, who distributed Draupadi amongst themselves making her just like a whore.

7) It were the Paandavs, who let Karna get insulted due to his low-caste issue and it was Duryodhana who identified the value of Karna and gave him a proper respect.

 And even in the childhood, Bheem being the bulkiest, used to tease and hurt Kaurvas.

9) And it is so sad that in those days, there was no value of the nobility and the ability of an individual, the kingdom were run by the bloodline of the kings only, that too only by the eldest sons, such sheer stupidity. And Krishna never stood against this dis-system; he was just favoring the Paandvas considering Yudhishtra as the eldest son out of the Paandavas & the Kaurvas both. It is vivid that if the nobility and the ability had been considered, Karna was the most eligible individual for the throne, and after knowing that he was the eldest of the Paandavs, Krishna should have immediately stopped the war, because he was favoring the Paandavs only because he felt that being the eldest, Yudhishtra was the only successor of the throne. But he let the people of both sides killed.

And the greatest wrong had been done by Kunti, mother of the Paandavas, she knew that Karna was her son and the eldest Paandav but never opened up her mouth and let the injustice go on happening with Karna, the Kauravas and the Paandavas, later on she asked Karna to declare himself as her son but the worthy Karna declined her suggestion, what a mother, a shame on the Motherhood, responsible for all the injustice, all the mess, all the bloodshed.

10) If the Kauravas were so bad, why Krishna offered his unbiased help to them, why he offered Duryodhana to choose either himself or his Narayani sena, why Balram his real brother, Guru of Bheem & Duryodhana did not participate in the war, why Balram, himself an incarnation, was angry at the killing of Duryodhana, why Krishna took the vow that he personally would not raise any weapon in the war and then why he picked up a carriage wheel to challenge Bhishma, why Krishna’s dynasty perished by his descendants themselves, killing each other within next 36 years, why Krishna could do nothing to stop this, why he was killed by Jara,an ordinary hunter man, so called incarnation of Bali? 

11) Why he never declared that the leaders of the world cannot be decided just by the births, blood lines or by the game of the dice or by the wars? He showed the Viraat Roop (Cosmic Appearance) to the others, why he himself could not see that a true individual, born in any times, supports the right and opposes the wrong, a true individual is not bound to the traditional follies, a true individual is like Socrates, never like himself.

12) I am amazed to see that people are running workshops to clear Karma. Hahahahaha! Merely the understanding that Karma has nothing to do with your lives, only the understanding (right or wrong) creates acts/non-acts and those acts further create effects/ fruits/fruitlessness, this much understanding is enough.

And Krishna favors this theory, when he says “Karmanyeva adhikaraste ma faleshu kadachan” {O humans, U have right upon acts, not upon the fruits of the act} as if effects are different to the causes. The whole science is based upon theory of cause & effect and here is Krishna teaching as if effects has nothing to do with the causes, life is vast hence many times because of some other external unexpected causes, the effects may be different than the expectations but by studying these other factors, the effects can be brought according to the wishes but it is wrong to say that effects are not according to the causes.

This theory of Karma is very misleading & makes one effortless because if one is not supposed to get the wished effects/fruits why the one will act & even if one will act that will be half-hearted. India has many foolish confusing theories, this is one of them, let it be cleared.

The social system is such, you almost never get what U deserve, do U feel the sons & daughters of the well established actors, business people prosper because they deserve, no, never, they are mostly getting name & fame just because of their birth, not because of their ability, so see this theory of Karma is just a tool to keep the under-privileged under controlled.

That is why, Santoshi Mata was also devised, to keep such under-privileged people contented, satisfied in their under-explored life-less lives.

13) Some people, who used to adore Stalin, when felt that they were adoring a wrong idol, destroyed his images but we the Indians, I do not think, are so much intelligent, we will first see, whether Geeta allows us to do so or not, we will take shelter of the scriptures, not of our own intelligence.

Krishna, I do not feel, is worthy of being adored. 

Opportunism, insincerity, cunningness such are the values, rendered by him to the world.

Another name of Krishna is Hari (thief); he used to steal the makhan (butter), clothes of young girls. He was a born THIEF, he has stolen character of the Indian people also, let him bade good-bye, no need of such an idol.

तुषार कॉस्मिक.....चोरी न करें..शेयर करें........नमन