कर्म-फल सिद्धांत

विचार बीज है कर्म का....यदि बीज खराब होगा तो फल खराब ही होगा....सो जब कोई कर्म पर जोर दे, लेकिन विचार पर नहीं तो वो आपको सिर्फ समाज की मशीनरी में चलता-पुर्जा बनने को प्रेरित कर रहा है...ऐसे लोग बकवास हैं. 

बकवास हैं ऐसे लोग जो यह गाते हैं, "कर्म करे जा इन्सान, आगे फल देगा भगवान."
बकवास हैं ऐसे लोग जो यह कहते हैं, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन." 

फल की इच्छा के बिना कोई कर्म क्यों करेगा? कार्य-कारण का सीधा सिद्धांत है. Cause and Effect. किसी को कहो कि  Effect की सोच ही मत, तू बस Cause पैदा कर, वो कहेगा, "पागल हो क्या?"

"फल की मत सोच, आये न आये, तू बस कर्म करे जा, मेहनत करे जा, श्रम करे जा." ऐसा किसी भी साधारण समझ के व्यक्ति से कहोगे तो वो तुम्हे पागल मानेगा लेकिन किसी धार्मिक व्यक्ति से, अध्यात्मिक व्यक्ति से कहोगे, कृष्ण भक्त से कहोगे तो वो धन्य-धन्य हो जायेगा. ये तर्कातीत लोग हैं भई, इनकी क्या कहें?

खैर, मेरी समझ है कि कर्म से पहले विचार पर जोर देना चाहिए और फल की इच्छा  किये बिना कोई भी कर्म करना ही नहीं चाहिए. असल  में फल की इच्छा के बिना तो कोई व्यक्ति वैसे भी कर्म कर ही नहीं सकता. कुछ देर कर भी ले लेकिन बहुत ज़्यादा देर नहीं कर पायेगा. सो इस बकवास में पड़ने का कोई मतलब नहीं है.

और कोई भगवान नहीं बैठा कहीं जो तुम्हारे अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब करेगा. नहीं, वो इतना वेहला नहीं है. कोई चित्रगुप्त नहीं बैठा बही खाते लेकर, जिसमें आपके अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा हो. बचकानी कल्पनाएँ हैं.

पहले तो अच्छे-बुरे की धारणा भी भिन्न-भिन्न होती है. इस्लाम में मांस खाना जायज़ है, जैनी के लिए बिलकुल नाजायज़. अच्छा-बुरा क्या है, यह सामाजिक मान्यताएं तय करती हैं. कल तक प्रेम विवाह कोई कर लेता था तो मोहल्ले में हल्ला हो जाता था, आज बिन शादी के भी जोड़े रह रहे हैं. सामाजिक मान्यताएं और कायदा-कानून, बस यही तय करता है कि अच्छा-बुरा क्या है और इस अच्छे-बुरे के साथ कैसा सलूक करना है. बस. इसी से तय होता है आपके अच्छे-बुरे कर्मों का फल. बाकी आपके जो पवित्र धर्म-ग्रन्थ अगले-पिछले जन्मों के साथ, ग्रहों-सूरज-चांद-तारों के साथ  आपके कर्मों को, उनके फलों को जोड़ते हैं, वो भूतिया बनाते हैं. मत बनिये.

तुषार कॉस्मिक

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