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Monday 1 May 2017

बाहुबली और संघी सोच

बाहुबली...संघी सोच को हवा देती है. भारतीय योद्धाओं का महिमा-मंडली-करण. भारतीय योद्धा लड़े थे लेकिन अधिकांश हारे हैं. युद्ध "बाहुबल" से कम और युद्ध-विद्या और अस्त्र-शस्त्रों की आधुनिकता से अधिक जीते जाते हैं, "बुद्धिबल" से अधिक जीते जाते हैं. देर-सबेर हार ही पल्ले पड़नी थी चूँकि हम आविष्कारक नहीं थे. पोरस मुझे लगता है कि अगर जीता नहीं तो हारा भी नहीं था. युद्ध में उसका बेटा, जिसका नाम भी पोरस था, वो मारा गया था, लेकिन इन्होने मिल कर सिकन्दर को आगे बढ़ने से रोक दिया था, तो इसे हार नहीं कह सकते. शिवाजी, गुरु गोबिंद, बन्दा बहादुर, हरी सिंह नलुआ, रणजीत सिंह जैसे योद्धाओं ने सख्त टक्कर दी. जहाँ तक मैंने पढ़ा, पृथ्वीराज के सत्रह बार गौरी को हराने की बात विवादित है. हाँ, एक बार ज़रूर गौरी उससे हारा था. मेरा पॉइंट यह नहीं है कि एक बार हारा या कितनी बार हारा. एक बार भी हारा तो भी हारा तो था. मेरा पॉइंट यह है कि एक बार भी हारने पर उसे क्यूँ छोड़ा? युद्ध युद्ध होता है, इसमें कोई गहरी फिलोसोफी ढूँढना बकवास है. पृथ्वीराज ने बेवकूफी की जिसे गौरी ने नहीं दोहराया. गौरी ने वही किया जो युद्ध के हिसाब से करना बनता था. और पृथ्वीराज राज-धर्म को भूल गया था. उसने जयचंद की बेटी जो रिश्ते में उसकी भी बेटी जैसी ही लगती थी, संयोगिता (संयुक्ता) को उठा लाया था. हमें यह याद रखना चाहिए कि राम अगर राज-धर्म के लिए सीता को छोड़ देते हैं तो पृथ्वी राज-धर्म भूल संयुक्ता को उठा लाते हैं, नतीजा सब जानते हैं. जयचंद को कोसने से पहले पृथ्वी को कोसें भगवन. एक और बात ध्यान दें कि उस समय तक आज के भारत जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था. सब राजाओं का अपना इलाका था, अपना देश था. सो यह सोचना कि जयचंद ने बाहरी का साथ दिया, कोई सही नहीं है. वो राजा था, उसे जो ठीक लगा उसने किया, बाहरी, भीतरी जैसी कोई बात नहीं थी. ये सब वैसे भी अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए लड़ते रहते थे. अशोक ने कलिंग में जो भयंकर मार-काट की थी, वो कोई किसी बाहरी के खिलाफ थी? नहीं, मरने और मारने वाले सब यहीं के थे. वाल्मीकि रामायण के अंत में साफ़ लिखा है कि राम ने अपने सीमाएं बढ़ाने के लिए ऐसे राज्यों पर हमला किया जिनकी उनसे कोई दुश्मनी नहीं थी. वो अश्वमेध यज्ञ, घोडा छोड़ना क्या था? यही कि अधीनता स्वीकार करो, वरना लड़ो. अब समझ लीजिये कि हमारे यहाँ के राजाओं के युद्ध कोई 'धर्म-युद्ध' नहीं थे, मात्र युद्ध थे. और तो और महाभारत जिसे धर्म-युद्ध कहा जाता है उसमें भी धर्म जैसी कोई बात नहीं थी. कृष्ण की चाल-बाज़ियों से अधिकांश कौरव मारे गए थे. तो पृथ्वी राज चौहान, महाराणा प्रताप, लक्ष्मी बाई और अनेक लोग अंततः हारे थे. अगर हारे न होते तो कैसे गुलाम हो जाते? लेकिन संघ हमेशा सिखाता है कि हमारा सब सही सही था. संघ तरीके से इस्लाम के खिलाफ घड़ा गया है...लगभग हर बात.......जैसे जैसे सोचो वैसे यह बात पक्की होती जाती है. संघ उसकी प्रति-छाया है. इस्लाम शुद्ध-रूपेण एक बकवास आइडियोलॉजी है. और उसी को जवाब देने के लिए बहुत सी बकवास आइडियोलॉजी खड़ी की गयी हैं. बाला साहेब, मोदी, योगी, ट्रम्प सब इस्लाम का जवाब हैं. खालसा, संघ और अमेरिका और यूरोप में कई संस्थाएं इस्लाम के खिलाफ जवाब हैं. इस्लाम एक विध्वंसक आइडियोलॉजी है, जो येन-केन-प्रकारेण सब को मुस्लिम बनाने में यकीन रखती है. सो वक्त ज़रूरत के हिसाब से इसका मुकाबला करने के लिए, जिसे जो सही लगा, उसने वो किया. लेकिन वो सही भी अंततः गलत साबित हुआ. होना ही था. हम एक गड्डे में गिर गए, पर फायदा सिर्फ इतना है कि बड़ी खाई में गिरने से बच गए. छोटी गलती ने बड़ी गलती करने से रोका. छोटे कांटे से बड़ा काँटा निकाला गया. लेकिन छोटा काँटा गड गया. उसे भी निकालना है. छोटे गड्डे से भी निकलना है. आप इस्लाम के खिलाफ संघ खड़ा कर लो. एक बकवास के खिलाफ एक और बकवास. एक अंधत्व के खिलाफ एक और अंधत्व. नहीं.....दुनिया की हर बकवास आइडियोलॉजी का जवाब तर्क-युद्ध है, न कि एक और बकवास आइडियोलॉजी खड़ी करना. वो कहते हैं न कि अगर कोई एक आंख फोड़े तो आप बदले में उसकी आंख फोड़ देंगे तो फिर अंत में दुनिया में सब अंधे ही बचेंगे. एक अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ हिन्दूत्व या और ऐसे ही कोई 'त्व' खड़े करने से समस्या हल नहीं होगी, गुणित हो जायेगी. अयान हिरसी अली का बहुत सम्मान है आज की दुनिया में. इस्लाम की ज़बरदस्त विरोधी हैं. उन्होंने कहा कि ट्रम्प की इस्लाम के खिलाफ नीति से बेहतर है कि तार्किकता फैलाई जाये, क्रिटिकल थिंकिंग. और यही मेरा मानना है. 'क्रिटिकल थिंकिंग' ही आखिरी इलाज है, हर अंधत्व, गधत्व, उल्लुत्व, इडियटत्व के खिलाफ. नमन...तुषार कॉस्मिक