Sunday 28 February 2016

"हमारी बीमारियाँ और इलाज"

नेताओं को कोसना बंद कीजिये. नेता आता कहाँ से है? वो हमारे समाज की ही उपज है. अभी 'बार काउंसिल ऑफ इंडिया' के चेयरमैन ने खुद माना है कि 30 परसेंट वकीलों की डिग्री नकली है. नकली वकील, रिश्वतखोर जज. घटिया पुलिस. हरामखोर सरकारी नौकर. चालाक पंडे, पुजारी, मुल्ले, पादरी. ये सब कहाँ से आते हैं? सब समाज की रगों में बहने वाली सोच से आते हैं. यदि शरीर में खून गन्दला हो तो वो कैसी भी बीमारियाँ पैदा करेगा. हमें लगता है कि उन बीमारियों का इलाज किया जाए. हम समझते ही नहीं कि जड़ में क्या है. नेता को गाली देंगे. नेता हमारा पैदा किया हुआ है. पुलिसवाले को गाली देंगे, लेकिन वो पुलिसवाला भी हमारा-तुम्हारा ही प्रतिरूप है. हमारी सामूहिक सोच का नतीजा है वो. जब हमारी सोच धर्म, मज़हब, अंध-विश्वासों के वायरस से दूषित है तो वो घटिया नेता ही पैदा करेगी. बदमाश पुलिसवाले पैदा करेगी. रिश्वतखोर सरकारी कर्मचारी पैदा करेगी. नकली वकील पैदा करेगी. अतार्किक सोच घटिया नतीजे ही देगी. सो सब से ज़रूरी है कि समाज में फ़ैली एक-एक अतार्किक धारणा पर गहरी चोट. और समाज कुछ और नहीं मैं और आप हैं. हम सब का जोड़ समाज है. सो देखिये खुद को, अपने चौ-गिर्दे को, जब आपको सड़क पर गंद पड़ा नज़र आये तो समझ लीजिये कि यह सब हमारी गन्दी सोच का नतीजा है. जब रिश्वतखोर पुलिसवाला नज़र आये तो समझ लीजिये कि यह इसलिए है कि हम एक अतार्किक सोच से भरा समाज हैं. और काम कीजिये खुद पर, चोट कीजिये खुद पर और अपने आस-पास के माहौल पर, तब दिनों में आपको अपनी दुनिया बदलती नज़र आयेगी. दुनिया कोई राजनेता नहीं बदलते, दुनिया राजनीति वैज्ञानिक बदलते हैं, फिलोसोफर बदलते हैं, जिनको आप टके सेर भी नहीं पूछते, जिनको आप कत्ल कर देते हैं, जिनको आप उनके मरने के सालों बाद समझते हैं. खुद पर दोष न आये तो बस नेता को गाली देते हैं. इडियट.

राष्ट्र और राष्ट्र-वाद

राष्ट्र हैं और अभी रहेंगे. लेकिन हमारा राष्ट्रवाद यदि विश्व-बंधुत्व के खिलाफ है तो फिर वो कूड़ा है और सच्चाई यही है कि वो कूड़ा है. जभी तो आप गाते हैं, “सारे जहाँ से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा” “सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी”. तभी तो आपको “विश्व-गुरु” होने का गुमान है. सही राष्ट्र-वाद यही है जो अंतर-राष्ट्रवाद का सम्मान करता है, जो दूसरे राष्ट्रों की छाती पर सवार होने की कल्पनाएँ नहीं बेचता.
मैं हैरान होता था जब बाबा रामदेव जैसा उथली समझ का व्यक्ति अपने भाषणों में अक्सर कहता था कि भारत को विश्व-गुरु बनाना है. क्यूँ भई? भारत अभी ठीक से विश्व-शिष्य तो बना नहीं और तुम्हें इसको विश्व-गुरु बनाना है.
यह सब बकवास छोडनी होगी. पृथ्वी एक है.......यह देश भक्ति, मेरा मुल्क महान है, विश्व गुरु है, यह सब बकवास ज़्यादा देर नहीं चलेगी.......हम सब एक है......बस एक अन्तरिक्ष यात्री की नज़र चाहिए......उसे पृथ्वी टुकड़ा टुकड़ा दिखेगी क्या?
अगर कोई बाहरी ग्रह का प्राणी हमला कर दे तो क्या सारे देश मिल कर एक न होंगे....तब क्या यह गीत गायेंगे, "सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा"?
सिर्फ इसलिए कि कोई हिंदुस्तान में पैदा हो गया तो वो गा रहा है सारे जहाँ से अच्छा.....अहँकार का ही फैलाव है इस तरह का देश प्रेम.....और जी-जान से लगा है भारतीय साबित करने में कि नहीं, भारत ही विश्वगुरु है, सर्वोतम है...
हमने विश्व को जीरो दिया
लेकिन यह कभी न सोचेगा कि जीरो देकर जीरो हो गया
जीरो देना ही काफी नहीं था, बुनियाद डालना ही काफी नहीं होता, इमारत आगे भी खड़ी करनी होती है
आज ग्लोबल होती दुनिया में नज़रिया भी ग्लोबल रखना होगा. एक दूजे से सीखना होता है. कहीं हम गुरु होते हैं तो कहीं शिष्य.
अब राष्ट्र-वाद को एक ‘नेसेसरी ईविल’ मतलब ज़रूरी बुराई की तरह समझना होगा. जैसे फिजिक्स में पढाते हैं. 'फ्रिक्शन' एक ‘नेसेसरी ईविल’ है. गति रोकती है, जितना ज़्यादा फ्रिक्शन होगी उतनी गति घटेगी. जैसे कार अगर पथरीली सड़क पर होगी तो धीरे ही चलानी होगी. चूँकि फ्रिक्शन बढ़ गई है. अब अगर कार बिलकुल चिकनी सड़क पर हो, जहाँ तेल गिरा हो तो भी नहीं चल पायेगी. तो फ्रिक्शन गति कम करती है लेकिन ज़रूरी भी है गति के लिए. बुराई है, लेकिन ज़रूरी है, उसके बिन गति नहीं है.
इसी तरह से मजहबों में बंटी दुनिया, विभिन्न धारणाओं में जकड़ी दुनिया अभी तो एक ग्लोबल इकाई होती नहीं दीखती. अभी तो यह राष्ट्रों में बंटी रहेगी. अभी ताज़ा मिसाल हरियाणा की है. एक होना दूर, जाट और नॉन- जाट में बंट गया एक प्रदेश.
लेकिन आगे सम्भावना है कि दुनिया ग्लोबल होगी और निश्चित ही होगी. और उम्मीद से जल्द होगी, चूँकि भविष्य की तकनीक और सहूलतें ऐसा कर ही देंगी. लेकिन तब तक राष्ट्र एक हकीकत रहेंगे और राष्ट्र-वाद भी. ‘नेसेसरी ईविल.
हम जानते हैं कि ग्लोब पर डाली गयी राजनीतिक लकीरें नकली हैं, घातक हैं. लेकिन क्या करें? हमारा जानना काफी नहीं हैं. सारी दुनिया तो ऐसा नहीं जानती या समझती. सो राष्ट्र हकीकत हैं अभी. लेकिन घमंडी किस्म के राष्ट्र-वाद से तुरत छुटकारा पाना होगा. हम सर्वोतम हैं, इस तरह की बकवास से पिंड छुडाना होगा.
मेरा राष्ट्रवाद मेरे राष्ट्र तक ही सीमित नहीं होना चाहिए. उसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और हर स्थान तक फैलना चाहिए. वो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘विश्व बंधुत्व’ की धारणा को समोए होना चाहिए न कि दूसरे राष्ट्रों की छाती पर सवार होकर खुद को ‘विश्व-गुरु’ स्थापित करनी की छद्म इच्छा से आपूर्त होना चाहिए.

नमन......कॉपीराईट मैटर....तुषार कॉस्मिक

Friday 26 February 2016

हिंद्त्व यानि क्या?

(1) हिंदुत्व, यह आरएसएस का आविष्कार है. इस्लाम के विरुद्ध भारतीय मान्यताओं का इस्लामीकरण. हिन्दू कोई धर्म है ही नहीं. और हिंदुत्व फिक्स जीवन शैली भी नहीं.

जिनको हम हिन्दू कहते हैं, वो तो कुछ भी मान लेते हैं. कुछ समय पहले तक माता के रात्रि जागरणों का चलन था. जिसमें परिवार के लोग सोते-जागते हुए पूरे मोहल्ले की नींद कानफोडू लाउड स्पीकर लगवा, फटी आवाज वालों की गायकी से नींद हराम करते थी. आज कल कुछ रहमों-करम किया गया है. कुछ अक्ल आई इन लोगों को कि यार, मामला आधी रात तक ही निपटा दिया जाए. कुछ वजह यह भी है कि लाउड स्पीकर पर मध्य रात्रि के बाद कानूनी पाबंदी है. सो आज कल माता को परेशान नहीं किया जाता. आज कल साईं बाबा को पुकारा जाता है. उनकी चौकी लगाई जाती है. मंदिरों में साईं बाबा की मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं हैं. बिना यह परवा करे कि साईं कि साईं मुस्लिम थे कि हिन्दू कि कौन.

मजारों पर मत्था रगड़ते आपको तथा-कथित हिन्दू ही मिलेंगे. इस्लाम में तो सिवा अल्लाह की बन्दगी के बाकी सब मना है. हिन्दू ही कब्रों पर सर नवाता है.

राम और कृष्ण को तो हिन्दू अपना प्रमुख देव मानते हैं. लेकिन राम तो खुद को कभी हिन्दू कहते ही नहीं. जब भी अपना परिचय देते हैं तो अपने पूर्वजों के नाम से देते हैं. इक्ष्वाकुवंशी बताते हैं खुद को.

कृष्ण भी कहते हैं, “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर भवति भारत, अभुथानाम धर्मस्य, सम्भवामि युगे युगे.” वो तो नहीं कहते कि ‘हिन्दू धर्म’ के लिए जन्म लेता हूँ. इसकी रक्षा के लिए आता हूँ. वो कहते हैं कि धर्म के लिए आता हूँ.

दुर्गा माता तो यूँ लगता है कि राजाओं ने अपने किलों यानि दुर्गो की सुरक्षा के लिए गढ़ी हो. दुर्ग से दुर्गा. इसका हिन्दू से क्या मतलब?

आज बहुत शोर शराबा है कि गौ को माता माना जाए. विवेकानंद खुद बताते हैं कि प्राचीन भारत में गौ का मांस खाया जाता था.

जो शिव को मानें, लिंग को पूजे उनको लिंगायत या शैव कहते थे और जो विष्णु को माने वो वैष्णव. लेकिन शैव और वैष्णवों के बीच खूब मार काट रही है.

आज आरएसएस सिक्खी को भी हिन्दू कहता है. नानक साहेब ने तो जनेऊ को इनकार कर दिया था बचपने में ही. हरिद्वार में सूर्य की उल्टी दिशा में पानी चढ़ा दिया था. जगन्नाथ में होती आरती का भी विरोध किया था.

आज आरएसएस बौद्ध मत को भी हिन्दू कहता है बिना यह समझे कि बुद्ध ने तो आत्मा परमात्मा सब को इनकार कर दिया था. और जबकि कृष्ण तो गीता में कहते हैं आत्मा अजर अमर है, मात्र वस्त्र बदलती है.

प्रचलित हिंदुत्व में खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनी सम्भोग की मूर्तियों का क्या मतलब? न निगलते बनता है न उगलते. जिस समाज में सेक्स को पर्दों में दबा रखा है वहां इस तरह की मूर्तियाँ और वो भी मंदिरों में,क्यूँ, यह JNU में कंडोम के प्रयोग होने वाले संघी तो न समझा पायेंगे और न ही भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था.

एक समझ यह भी है कि असुर वो लोग थे जो सुरा यानि दारू नहीं पीते थे और राक्षस वो लोग थे जो रक्षा करते थे. अब यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि देवता लोग सोमरस पीते कहे जाते हैं. तो निश्चित ही दारू न पीने वाले असुर हुए. जबकि आप और हमें तो यह समझाया गया कि राक्षस कोई बहुत विलन और व्यसनी किस्म के लोग थे.

जब हिन्दू यह कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी पर आक्रमण नहीं किया तो झूठ बोलते हैं........खूब लड़ते-मरते थे......कलिंगा के युद्ध में घोर रक्त-पात कोई मुसलमानों ने नहीं किया था.....पृथ्वीराज चौहान भरे दरबार में से संयोगिता को उठा लाया था और खूब युद्ध हुआ था जयचंद और उसका...........महाभारत में न सिर्फ भारत बल्कि आस-पास के राजा भी लड़े मरे थे....तभी तो नाम महाभारत हुआ....भारत से भी बड़ा युद्ध .......बात सिर्फ इतनी है कि यदि तैमूर-लंग तबाही मचाये तो वो विदेशी आक्रान्ता है, निंदनीय है और यदि अशोक राज्य फैलाए तो वो सम्माननीय है, सड़कों को उसका नाम दिया जा सकता है, अशोक चक्र को तिरंगे में लगाया जा सकता है.

आरएसएस अक्सर विष्णु पुराण के एक श्लोक का ज़िक्र करता है. “उत्तरम यत समुद्रस्य, हिमाद्रे चेव दक्षिणं” भारतं ततं नाम, भारती यत्र संत्तती.” जिस भू-भाग के उत्तर में समुद्र है और दक्षिण में हिमालय है वर्षों से उस जगह का नाम भारत है और वहां की संतानों को भारती कहा जाता है.

लेकिन आरएसएस का जोर भारत या भारती शब्द पर बहुत कम है, सारा जोर हिन्दू शब्द पर है और इस बात पर है कि सब हिन्दू हैं चाहे वो सिक्ख, बौध या जैन कोई भी हों.

अब मैं विकीपेडिया से हुबहू एक हिस्सा उठा कर पेश कर रहा हूँ.

+++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने "हिन्दुस्थान" नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश "हिन्दुस्तान" है। "बृहस्पति आगम" के अनुसार:
हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥

अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

"हिन्दू" शब्द "सिन्धु" से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं - पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा - कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर "हि" एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर "न्दु", इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना "हिन्दु" और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रुप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए "हिन्दू" शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।

आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों ने विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसीशब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है - वो भूमि जहाँ आर्यसबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की "स्" ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन "स्") ईरानी भाषाओं की "ह्" ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हफ्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

‘हिन्दू’ नाम दो तरह से आया माना जा सकता है एक प्राचीन भारत से और दूसरा भारत से बाहरी लोगों से जो सिन्धु को हिन्दू बोलते थे. दोनों ही धारणाओं से कहीं भी यह प्रकट नहीं होता कि हिन्दू कोई धर्म है या किसी ख़ास जीवन शैली का नाम है. आज आप अमेरिका में रहने वालों को अमेरीकी बोलते हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं कि अमेरीकी कोई धर्म हो गया या किसी ख़ास जीवन शैली का ही नाम है. वहां अनेक तरह की मान्यताओं के लोग हो सकते हैं. हम उनको अमेरीकी मात्र एक भू-भाग की वजह से बुलाते हैं जिसका नाम अमेरिका है. वही भारत के साथ हुआ है. यहाँ अनेक तरह की धारणायों और मान्यताओं के लोग थे. बाहरी लोगों ने उनको हिन्दू कहा या पहले से ही वो हिन्दू कहलाये जाते थे तो सिर्फ एक भू-भाग के नाम की वजह से न कि किसी एक निश्चित या फिक्स जीवन शैली की वजह से.

यहाँ अनेक मान्यताएं रही हैं, और आज भी हैं. एक दूसरे की विरोधी मान्यताएं भी. आज अगर राम के मदिर हैं तो रावण पूजने वाले भी हैं. कृष्ण को पूजने वाले हैं तो दुर्योधन को पूजने वाले भी हैं. यहाँ की मान्यताओं को प्रभाषित करना, परिसीमित करना बुनियादी रूप से गलत है.

फिर आरएसएस ने ऐसा क्यूँ किया? मात्र. इस्लाम की वजह से. इस्लाम एक परिसीमित, परिभाषित जीवन शैली है. उसका मुकाबला करने के लिए यह सब ज़रूरी समझा गया आरएसएस के चिंतकों द्वारा. उसी चिंतन का नतीजा है हिंदुत्व.

(2) असल में हिन्दू कोई धर्म था ही नहीं और न है. हिन्दू कोई एक संस्कृति भी नहीं है, जैसा संघ समझाता आ रहा है. यहाँ विभिन्न तरह के विचारों का जन्म हुआ.....एक दूसरे के विरोधी तक.....यहाँ चार्वाक हुए, बुद्ध हुए, महावीर जो परमात्मा को इनकार किये....यहाँ राम को मानने वाले हुए तो रावण को मानने वाले भी.....यहाँ वेद को मानने वाले हुए तो आप को वेद विरोधी भी मिल जायेंगे.....

जब राम पिता के कहने से अयोध्या छोड़ निकलते ही हैं तो उन्हें जाबाल मिलता है....वो रोकता है राम को इस तरह छोड़ कर जाने से...... जो वो कहता है राम से, वो बहुत ही मूल्यवान है. चार्वाक जैसे तर्क देता है. लेकिन राम तर्क से उसे जवाब देने की बजाए, अपने बाहुबल से धमका कर भेज देते हैं.

मैं तो जाबाल के पक्ष में हूँ.

मैं तो बुद्ध के पक्ष में हूँ जो कहते हैं कि कोई परमात्मा है नहीं, बिलकुल नहीं है वैसे, जैसे आपके मंदिरों, गुरुद्वारों में समझाया जाता है कि कोई दाता बैठा है आपकी खाली झोलियाँ भरने को, बिलकुल नहीं है

मैं तो रोज़ भिगो भिगो के जूतियाँ मारता हूँ तथा कथित हिन्दू समाज की बकवासबाज़ी को.....अब आप मुझे हिन्दू कहोगे? कहोगे? जबकि मैं खुद अपने आपको हिन्दू नहीं मानता.
क्या बौध मानते हैं कि वो हिन्दू हैं, क्या सिक्ख मानते हैं कि वो हिन्दू हैं? नहीं.

मैं हैरान हुआ कहीं पढ़ा कि एक कोई पश्चिम की लेखिका है वेंडी डोनिजर, ये लिखती हैं हिन्दू धर्म पर और उन लोगों को भी शामिल कर लेती हैं हिन्दुओं में जो खुल कर कहते रहे कि वो हिन्दू नहीं हैं

यही हुआ, यदि आप मोटे हैं बहुत तो आपको एक कम मोटा कमज़ोर लगेगा. मेरी बिटिया जो कि हर लिहाज़ से तंदुरुस्त है, वो सबको कमज़ोर लगती है, डॉक्टर ने तो पर्चे पर लिख तक दिया कि उसकी ग्रोथ सही नहीं है.

यही हुआ भारत के साथ. जिन लोगों की आँखों पर चश्मा चढ़ा था एक लगे बंधे धर्म का, वो यहाँ की मान्यताओं को भी उसी तरह से परिभाषित करने लगे. और अब संघ के तमाम प्रयास हैं ऐसे लोगों की परिभाषा को सही साबित करना.

दुर्भाग्य है भारत का.

दुर्भाग्य है भारत का, विभिन्न विचारधाराओं को हिन्दू शब्द के झंडे तले एकत्र करने का प्रयास

दुर्भाग्य है हिंदुत्व शब्द का प्रयोग

वीर सावरकर को डर यह था की यह जो विदेशों से आये धर्म मुस्लिम, इसाई आदि हैं, ये यहाँ की संस्कृति को खा न जाएँ. उसके लिए उसने संघ की विचारधारा को प्रतिपादित किया. हिंदुत्व को परिभाषित किया. यहाँ की विभिन्न मान्यताओं को घेरे में बाँधने का प्रयास किया.

बस यहीं चूक हो गई. किसी भी विचारधारा से आप असहमत है तो उसका विरोध करें, विचार से न कि किसी भी अन्य तरह की सही-गलत विचारधारा खड़ी करके.

धर्म के नाम पर या किसी भी तरह की जोर जबरदस्ती का विरोध करना है तो ज़रूरी नहीं कि लोगों को लामबंद करने के लिए एक और धर्म खड़ा किया जाए या धार्मिक लाम बंदी की जाए.

नहीं, आप बिना धार्मिक गुटबन्दी करे भी लामबंदी कर सकते हैं, मात्र वैचारिक सांझ पर. थोड़ा मुश्किल काम है लेकिन ऐसा हो सकता है.

धर्म के नाम पर इक्कट्ठ कदापि आसान है लेकिन बिना धर्म का प्रयोग किये भी यह काम हो सकता है. एक मिसाल अन्ना आन्दोलन है. कितना सही गलत, वो मुद्दा यहाँ नहीं. लेकिन हर धर्म के लोग खड़े हो गए, भ्रष्टाचार के खिलाफ.

फौजें बनाई जाती हैं, वहां हर धर्म के लोग भर्ती भी किये जाते हैं. इसी तरह अगर किन्ही मान्यताओं से पूरी इंसानियत को खतरा हो तो उसके लिए भी एकजुट हुआ जा सकता है बिना एक नया धर्म चलाए या बिना धार्मिक गुटबन्दी किये.

मुश्किल है, लेकिन किया सकता है, किये जाने के काबिल है.
और करना वो ही चाहिए जो किये जाने की काबिल हो, अन्यथा आसान रास्ता और मुश्किल रास्ते पर डाल सकता है.

संघ का प्रयास ऐसा ही है. भारतीय समाज को खुली सोच देने की बजाए एक डिब्बाबंद सोच पकड़ाए दे रहा है, इसलिए कि संघ अन्य डिब्बाबंद सोचों से डरता है.

सब तरह की डिब्बाबंदी का विरोध किया जाना चाहिए, डट के किया जाना चाहिए. खुल कर किया जाना चाहिए, बिना कोई और नई डिब्बाबंदी चलाए.

सो संघ का चुना आसान रास्ता भारत को और मुश्किल रास्तों पर डाल देगा, डाल रहा है.

आज ज़रुरत है सभी डिब्बाबंदी को बंद करने की.
मुश्किल है, लेकिन वही किये जाने के काबिल है

(3) मैं अक्सर देखता हूँ कई लोग कहते हैं कि मुस्लिम बाहर से आये हम पर हमलवार थे...क्या किसी ने यह पूछा कि अशोक ने कलिंग के युद्ध में खून बहाया तो क्या वो कलिंग के लिए बाहर से आया हमलावर नहीं था?

वाल्मीकि रामायण में साफ़ लिखा है कि राम अपने ऐसे पड़ोसी राजाओं पर हमला करता है जिनका कभी कोई झगड़ा ही नहीं था उससे ....वो क्या था.....वो हमलावर नहीं था क्या?

सच बात तो यह है कि यहाँ का हर राजा का अपना देश था......और हर पड़ोसी राज्य उसके लिए विदेश था...बाहरी था

यहाँ आज तक दिल्ली में बिहारी मज़दूर कहता है कि वो अपने मुलुक वापिस जा रहा हूँ और आप कहते हैं कि देश एक था....मुहावरे आपको इतिहास बताते हैं

और एक बात कही जाती है कि चाहे आपस में संघर्ष था लेकिन सांस्कृतिक तौर पर हम एक थे......राम रावण एक ही देवता के पुजारी थे.......महाभारत तो खैर हुआ ही एक ही परिवार में था...सो एक ही तरह की आस्थाएं थी.....सो भारत चाहे राजनीतिक तौर पर एक देश न रहा हो लेकिन सांस्कृतिक तौर पर तो रहा है

आरएसएस का राष्ट्र्वाद तो टिका ही इस बात पर है कि भारत एक ऐसे भू भाग का नाम है जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि शामिल हैं.......संघ में तो ऐसा एक नक्शा भी दिखाया जाता है....अब मज़े की बात यह है कि भारत में कभी अंग्रेज़ों के समय के अलावा यह सब इलाके एक झंडे तले रहे नहीं.....अशोक के समय एक बड़ा राज्य रहा लेकिन अशोक बौद्ध हो गया...और बौद्ध कभी हिन्दू की जो मुख्य धारा थी उसमें शामिल नहीं थे.....उनका विरोध रहा है....रामायण में बुद्ध को चोर कहा गया है.....आरएसएस का राष्ट्रवाद इस बात पर भी टिका है कि यहाँ कि संस्कृति को हिंदुत्व कहा जाए.....अजीब ज़बरदस्ती है.......जो लोग खुद को हिन्दू नहीं मानते......वो भी खुद को हिन्दू ही कहें.....और तो और जो देश आज भारत के नक़्शे में नहीं हैं हम उनको भी भारत का हिस्सा मानें.....राजनीतिक न सही सांस्कृतिक तौर पर तो मानें....अगले चाहे न मानें लेकिन हम तो मानें.......वहाँ यहाँ चाहे कितनी ही विरोधी मान्यताओं के लोग रहे हों, रह रहे हों लेकिन सबको एक संस्कृति से जुड़ा मानें....और वो संस्कृति हिंदुत्व है......और वो संस्कृति दुनिया की महानतम संस्कृति है...अब यह अजीब जबरदस्ती है ...जिसे शब्द जाल से उलझाया गया है ...थोड़ा सुलझाने का प्रयास करता हूँ

किसी एक भू खंड में लोगों की सोच समझ में असमानता होते हुए यदि एक संस्कृति माननी है तो फिर पूरी पृथ्वी को एक संस्कृति मानना चाहिए.....होता रहे आपस में संघर्ष...संघर्ष तो कलिंग के युद्ध में भी हुआ, और महाभारत में भी और राम रावण युद्ध में भी.....यदि ये सब एक ही संस्कृति के लोग है तो फिर पूरी दुनिया क्यों एक संस्कृति नहीं है? सोच के देखिये

और फिर यहाँ भारत में भी लोग रहे हैं जो एक दूसरे के विरोधी विचारधारा वाले थे और हैं...तो फिर मात्र इसलिए कि कोई इस पृथ्वी के किसी और भू भाग से है और किसी और तरह की मान्यताओं से जुड़ा है अलग कैसे हुआ? .....वो भी हमारी ही संस्कृति का हिस्सा कैसे न हुआ?

हम अपनी सांस्कृतिक सोच को सार्वभौमिक क्यूँ नहीं रख सकते?

काहे किसी एक भू भाग तक सीमित करें?

और संस्कृति क्या मात्र इतनी ही है कि कोई लोग किस तरह की धार्मिक मान्यताओं से जुड़े हैं?

संस्कृति शब्द को देखें.......तीन शब्द है....प्रकति.....विकृति और संस्कृति.....जब आप प्रकृति से नीचे गिर जाएँ तो विकृति है ऊपर उठ जाएँ तो संस्कृति है....

अब हमारे यहाँ जिस तरह का जीवन रहा है वो कुछ मामलों में संस्कृत था तो कुछ में विकृत......यहाँ कि चातुरवर्ण व्यवस्था ......वो विकृति थी.....यहाँ की पाक कला, नृत्य कला, गायन कला संस्कृति थी

और संस्कृति कोई तालाब का खड़ा पानी थोड़ा होता है....वो तो बहाव है.....कलकल करती नदी

और संस्कृति कोई किसी भू भाग तक सीमित थोड़ा होती है....वो असीम होती है

संस्कृति मतलब समय के हिसाब से सर्वोतम रहनसहन......और वो सर्वोतम कहीं से भी आता हो सकता है पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण कहीं से भी .....कल दूसरे ग्रहों से भी .....यह है संस्कृति, जो संस्था संस्कृति को किसी भू भाग तक सीमित समझे वो खुद विकृत है.

वैसे जिस समाज के अधिकांश लोग गरीब हों, जीवन की साधारण ज़रूरतों से ऊपर न उठ पाएं वो समाज संस्कृत नहीं विकृत है..इस लिहाज़ से अभी दुनिया में कहीं कोई संस्कृति है ही नहीं

हम सिर्फ पुरानी परम्पराओं के जोड़ को....संस्कृतियाँ समझ रहे हैं.

मानव इतिहास उठा कर देखो......मार काट से भरा है....खून से भरा है...यह कोई संस्कृतियों का इतिहास है.?...या विकृतियों का इतिहास है?

दुनिया के अधिकांश लोग गरीबी में पैदा हुए है और गरीबी में मरे हैं...यह कोई संस्कृतियाँ हैं?
और आज भी दुनिया के अधिकांश लोग गरीब पैदा होते है , गरीब मरते हैं......यह कोई संस्कृति है?

चंद लोग चांदी काटें, बाकी बस दिन काटें, यदि यह संस्कृति है तो फिर विकृति क्या होती है?

प्रकृति तो कोई बच्चा गरीब पैदा नहीं करती, फिर आप की महान संस्कृति ठप्पा लगाती है कि कौन अमीर कौन गरीब. इसे संस्कृति कहते हैं? फिर विकृति क्या होती है?
लानत है!

संस्कृति अभी तक इस धरती पर ठीक से पैदा हुई ही नहीं है, हो सकती है, लेकिन हुई नहीं है

और क्या मात्र धार्मिक मान्यताओं से ही कोई संस्कृति निर्धारित होती है?
ये धार्मिक मान्यताएं सिवा अंध विश्वास के हैं क्या?

इसे संस्कृति तो कदापि नहीं कहा जा सकता, हाँ विकृति जरूर कह सकते हैं

जीवन कुछ मामलों में समृद्ध ज़रूर हुआ है, संस्कृत ज़रूर हुआ है लेकिन अधिकांश मामलों में विकृत है

उम्मीद है हम सब इस भ्रम से बाहर आ पाएं कि हमारे पूर्वजों की कोई संस्कृति थी या हम किसी संस्कृति में जी रहे हैं

नमन.....कॉपीराईट मैटर...शेयर कीजिये स्वागत है
तुषार कॉस्मिक

कार्टेल

मैं प्रॉपर्टी के धंधे में अभी नया ही था. विकास सदन DDA जाना होता था. कई प्रॉपर्टी ऑक्शन में भी बिकती थीं. तब पता लगा कि बोली देने वाले आपस में मिले होते थे. एक निश्चित सीमा से ऊपर बोली जाने ही नहीं देते थे.

उसके बहुत बाद में जब यह शब्द "कार्टेल" सामने आया तो वो चलचित्र सामने घूम गया और इस शब्द का मतलब भी समझ आ गया.

अभी मेरे cousin के बेटे को तेज़ सरदर्द हुआ. एक डॉक्टर के पास गए, उसने बोला कि ब्रेन खिसक कर रीढ़ को टच कर रहा है, ऑपरेशन करके ऊपर उठाना होगा, वरना बेटा अपंग भी हो सकता है. फिर ऑपरेशन भी करा लिया. आठ- दस लाख लग भी गए. मैं जब देखने गया तो पूछा, "आपने और डॉक्टरों से राय ली था, सेकंड ओपिनियन, थर्ड ओपिनियन?"

उन्होंने कहा, "बिलकुल..बिलकुल....सबने यही राय दी कि ऑपरेशन करा लीजिये." Cousin करोड़ोपति हैं......अपने धंधे के माहिर हैं...ज़्यादा पढ़े नहीं हैं. अक्ल के अंधे, गाँठ के पूरे ग्राहक किसे नहीं चाहिए होते? पता नहीं क्यूँ, मेरे ज़ेहन में वही शब्द कौंध रहा था.... “कार्टेल”

कोई दस साल पहले मुझ पर ज़ुकाम का प्रकोप हुआ....सर्दियां मेरी बिस्तर में गुजरती.....छींकते, नाक, मुंह पोंछते, खांसते.........अपोलो, मैक्स, लोहिया, गंगा राम हॉस्पिटल के अलावा और न जाने कितने ही डॉक्टरों को दिखाया. कितनी ही दवाएं खा लीं......नाक का ऑपरेशन तक करवा लिया........नतीजा सिफ़र. जानते हैं कैसे ठीक हुआ? एक नैचुरोपैथ ने गर्म और ठंडे पानी से भरे कपड़े का बारी-बारी नाक पर सेक करने को कहा.......धूप सेकने को कहा. दिनों में फर्क पड़ गया. आज भी ज़रा सी दिक्कत होने पर यही करता हूँ और ठीक रहता हूँ......आप भी ऐसा कर सकते हैं....मेरा यकीन है, फायदा पायेंगे. कितना ही समय और पैसा बर्बाद हुआ, तकलीफ सही, वो अलग......नतीजा सिफ़र . अब डॉक्टरों और अस्पतालों को याद करता हूँ तो एक ही शब्द ज़ेहन में कौन्धता है “कार्टेल”

कभी आप टीवी पर अलग-अलग राजनेताओं की बहस देखो........ अगर एक पार्टी के प्रवक्ता के पास कोई जवाब नहीं होगा तो वो बदले में अपोजिट पार्टी पर अटैक करेगा...........कांग्रेस यदि गुजरात में मुस्लिमों पर हुए अत्याचार पर सवाल उठायेगी तो भाजपा उसे चौरासी की दिल्ली याद करा देगी...........और मुझे बस एक ही शब्द ध्यान आता रहेगा “कार्टेल”

देव नगर से मेरी एक पार्टी थीं छोटी देवी........उनकी बेटी ने भी मेरे द्वारा प्रॉपर्टी का कुछ आदान-प्रदान किया.............मंदिर जाने वाले लोग. हिन्दू किस्सा-कहानियों में यकीन करने वाले.....ब्राह्मण जब शिव, गणेश, दुर्गा, राम कृष्ण के किस्से सुनाएं तो विभोर होने वाले लोग. फिर न जाने कैसे ईसाई गुट में आ गए ....अब जीसस के किस्सों में यकीन करते हैं....पानी को शराब बना दिया........पानी पर चल पड़े थे...........हमारे पापों के लिए सूली चढ़ गए............जब मैं पंडे और फादर को याद करता हूँ तो एक ही शब्द याद आता है. "कार्टेल”

अगाथा क्रिस्टी मर्डर मिस्ट्री की मास्टर राइटर मानी जाती हैं.....आर्थर कानन डोयल के शेर्लोक्क होल्म्स के बाद क्रिस्टी का “हेरकुले पोइरोट” बहुत मशहूर करैक्टर है. कॉलेज के जमाने में कई नावेल पढ़े थे अगाथा क्रिस्टी के. एक है “मर्डर ऑन ओरिएंट एक्सप्रेस.” चलती ट्रेन में मर्डर हो जाता है. पोइरोट भी उसी ट्रेन में है. सभी यात्रियों के पास परफेक्ट ‘एलीबाई’ है. एलीबाई एक ख़ास गवाही को कहते हैं, मतलब घटना के वक्त कौन कहाँ था, इस बात कि गवाही, ताकि पता लग सके कि असल कातिल कौन है. जिसके पास एलीबाई न हो उसके कातिल होने की सम्भावना समझी जाती है, लेकिन इस केस में सबके पास परफेक्ट एलीबाई. अब यह कैसे सम्भव? पोइरोट परेशान. कातिल ढूंढना लगभग असम्भव. फिर पोइरोट को सूझ ही जाता है कि ऐसा तभी सम्भव है जब सभी मिले हुए हों. “कार्टेल”

जब कोई मकान-दूकान खरीदता था तो निश्चित ही इलाके के प्रॉपर्टी डीलरों से पूछताछ करता था......आखिर रेट जो वो बताते, वो ही तो माना जाता. लेकिन बाज़ार कोई डिमांड-सप्लाई से थोड़ा तय होती थी.....बाज़ार तय करते थे फाइनेंसर और डीलर...........बाज़ार गिरने ही नहीं देते थे...गिरे भी तो उसका फायदा आम-जन तक पहुँचने ही नहीं देते थे. मात्र तीन साल पहले की दिल्ली की कहानी है यह. “कार्टेल”

ध्यान कीजिये....अपने इर्द गिर्द...अपने जीवन के पीछे-आगे, दायें-बायें, ऊपर-नीचे..........इस शब्द का मर्म समझ में आ जाना बहुत काम आ सकता है “कार्टेल”

नमन...........कॉपी-राईट मैटर...........तुषार कॉस्मिक

Monday 15 February 2016

ज़ाकिर नालायक

एक कॉलेज के लड़के ने पूछा जाकिर नायक से कि डार्विन की ‘थ्योरी ऑफ़ एवोलुशन’ सही है या गलत. जाकिर साहेब कहते हैं कि यह मात्र थ्योरी है, सत्य नहीं है. थ्योरी का मतलब नहीं समझते? मात्र थ्योरी. सत्य से कोई लेना देना नहीं. इसलिए हम इसे नहीं मानते. हम मानते हैं ‘थ्योरी ऑफ़ क्रिएशन’, जैसी इस्लाम में बताई गयी हैं.
वाह! 'थ्योरी ऑफ़ एवोलुशन' गलत है चूँकि यह मात्र एक थ्योरी है लेकिन 'थ्योरी ऑफ़ क्रिएशन' सही है चूँकि इस्लाम कहता है, वाह! जाकिर साहेब वाह! भूल ही गए कि थ्योरी सिर्फ थ्योरी होती है.

लिंक दिया है, देख लीजिये, बात समझ आयेगी. https://l.facebook.com/l.php?u=https%3A%2F%2Fwww.youtube.com%2Fwatch%3Fv%3DNdpsuvg48fc&h=QAQGB5x4L

Osho on Islam

Osho refused to comment on Quran because he found it meaningless and he commented on various scriptures and other people like Kabir, Bulle Shah, Meera Bai etc because he found some essence in the words and lives of these people. That is the reason. Quran, he found worthless and that he said in the last phase of his life. (Also read this article:--- नुपुर शर्मा ) Osho said all organized religions are worthless, yeah, that is okay. But there is some essence in Japji Saheb, which came long before Sikhi became an organized religion, he chose it and spoke on it. He chose Kabir's words and spoke on them. He spoke on Budha's words, but it does not mean that he conformed to Buddhist rituals, he just found some essence and talked on the subject. He chose to speak on many less known saints and fakirs. About Islam though he had spoken somewhat positive also in the initial stages but later-on declined it altogether. That is it. Osho exhaustively talks on Quran proving it divine, equivalent to Dhammpada, Upanishads, Geeta, Tao te Ching. He tells that in-spite of Muhammad being an illiterate man, his words are no less deeper than the sophisticated words of Budha or the sages of Upanishads.----Deepak Baar Naam Ka, discourse No.5 This he said before but later on see what he said. In 'From Unconsciousness to Consciousness/ Chapter #5' "Mohammed was an absolutely illiterate man, and the Koran, in which his sayings are collected, is ninety-nine percent rubbish. You can just open the book anywhere and read it, and you will be convinced of what I am saying. I am not saying on a certain page -- anywhere. You just open the book accidentally, read the page and you will be convinced of what I am saying. Whatsoever one percent truth there is here and there in the Koran is not Mohammed's. It is just ordinary, ancient wisdom that uneducated people collect easily -- more easily than the educated people, because educated people have far better sources of information -- books, libraries, universities, scholars. The uneducated, simply by hearing the old people, collect a few words of wisdom here and there. And those words are significant, because for thousands of years they have been tested and found somehow true. So it is the wisdom of the ages that is scattered here and there; otherwise, it is the most ordinary book possible in the world. Mohammedans have been asking me, "Why don't you speak on the Koran? You have spoken on The Bible, on the Gita, this and that." I could not say to them that it is all rubbish; I simply went on postponing. Even just before I went into silence, a Mohammedan scholar sent the latest English version of the Koran, praying me to speak on it. But now I have to say that it is all rubbish, that is why I have not spoken on it -- because why unnecessarily waste time? And this is from a paigambara, a messenger from God!" Yeah, he said that all organized religions are dangerous for humanity. But he also knew that Islam is the most dangerous, that is why he abstained from criticizing Islam. And he said this also. Why to take risk of life? When you have something important to do? He said that. " So many Mohammedan friends have asked me, "You have spoken on many religions, why don't you speak on the Koran?" I said, "Do you want me to be murdered?" I have something else to do meanwhile. Finally, when I think that it is time for me to leave the body, I will speak on the Koran. And I will manage to have one of my sannyasins kill me and get 2.6 million dollars for my work! While my work is incomplete, I am not going to speak on holy scriptures, because they are the most primitive kind of literature." ----celebr05 I myself came to the conclusion that all religions are poisons but Islam is Potassium Cyanide. And I think he too concluded the same hence he refrain from commenting upon Islam. And whatever criticism came from him, that too came just in last phase of his life, when he felt that his work has been almost done. What ever important he was to say, he has already delivered, then only he took the risk of saying that Quran is jut rubbish. That is it. Nmn.