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Tuesday 26 June 2018

मौत

हम सब ऐसे जीते हैं जैसे मौत हो ही न. लेकिन आप किसी के मृत्यु-क्रिया में जाओ, पंडत-पुजारी-भाई जी कान खा जायेंगे उस एक घंटे में, आपका जीना मुहाल कर देंगे, आपको यह याद दिला-दिला कि 'मौत का एक दिन मुअययन है'. ठीक है मौत आनी है, इक दिन आनी है या शायद किसी ख़ास रात की दवानी है तो क्या करें? जीना छोड़ दें? वो हमें यह याद दिलाते हैं कि यह जीवन शाश्वत नहीं है सो हम स्वार्थी न हो जाये. सही है, लेकिन जब तक जीवन है तब तक जीवन की ज़रूरतें हैं और जब तक ज़रूरतें हैं तब तक स्वार्थ भी हैं. हाँ, स्वार्थ असीमित न हों, बेतुका न हों. जैसे जयललिता के घर छापे में इत्ते जोड़ी जूतियाँ मिलीं, जो शायद वो सारी उम्र न पहन पाई हो. लोग इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं जितना वो उपयोग ही नहीं कर सकते. धन का दूसरा मतलब है ज़िन्दगी. धन आपको ज़िदगी जीने की सुविधा देता है, ज़िन्दगी फैलाने की सुविधा देता है. धन आपको ज़िन्दगी देता है. लेकिन जब जितनी ज़िंदगी जीने की आपकी सम्भावना है उससे कई गुना धन कमाने की अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो आप असल में पागल हो चुके होते हैं. आपको इस पागलपन का अहसास इसलिए नहीं होता, चूँकि आपके इर्द-गिर्द भी आप ही के जैसे पागलों का जमावड़ा है. ऐसे में कैसे पता लगे कि आप पागल हैं? खैर जीना ऐसे ही चाहिए कि जैसे मौत हो ही न और जीना ऐसे चाहिए कि जैसे बस यही पल हमारे पास है. अगला पल हो न हो. कल हो न हो. पल हो न हो. और मौत? मौत से बहुत डरते हैं हम. मौत को मनहूस मानते हैं. ठीक है, जहाँ पीछे परिवार को दिक्कतें आनी है किसी के जाने से, वहां तो मौत मनहूसियत लायेगी ही लेकिन हर जगह ऐसा नहीं होता. मौत बहुतों को एक सुकून देती है. चलो पिंड छूटा. बस बहुत हुआ सोना-जागना, खाना-पीना. अब चला जाये. ये जो आत्म-हत्या को बहुत बड़ा मुद्दा बना रखा है, वैसा होना नहीं चाहिए. आत्म-हत्या कोई आर्थिक तंगी से या बीमारी से परेशान हो कर रहा है तो निश्चित ही समाज के लिए चिंता का विषय है लेकिन वैसे अगर कोई राज़ी-ख़ुशी जाना चाहता है तो उसे जाने देना चाहिए. प्रेम-पूर्वक. सम्मान-पूर्वक. और हर मृत्यु पर विलाप किया जाये, वो भी कोई उचित नहीं. वैसे हमारा समाज इस बात को समझता भी है इसलिए जब कोई बहुत वृद्ध मरता है तो उसकी अर्थी पर गुब्बारे, फूल आदि लगाए जाते हैं लेकिन समाज को अपनी समझ और बढ़ानी चाहिए. ज़रूरी थोड़ा न है कि वृद्ध था इसलिए उसकी मृत्यु का शोक न किया जाये. कोई भी व्यक्ति, जैसे आढे-टेढ़े बच्चे, जन्म से ही मानसिक रुग्ण बच्चे, लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त बच्चे. अब इनकी मौत का क्या करेंगे? मना लीजिये शोक. लेकिन शायद मृत्यु इनकी मरी-मराई ज़िंदगी से छुटकारे का साधन थी. मौत को हमने बहुत बड़ी घटना बना रखा है. कभी आपने देखा? आपके पैरों तले आ के कितने ही कीड़े-मकौड़े मारे जाते हैं. कितने ही मच्छर आप मार देते हैं. क्या फर्क पड़ता है? कोई सितारे हिल जाते हैं इनके जीवन-मरण से? या इनकी किस्मत कोई चाँद-तारों की गति से निर्धारित हो रही है? या कोई परम-पिता परमात्मा बही-खाता लेकर बैठा है इनके जीवन-मरण का हिसाब-किताब करने? कुछ नहीं है ऐसा. बस आये और चले गए. किसी को घंटा फर्क नहीं पड़ता. पड़ना भी नहीं चाहिए. "द शो मस्ट गो ऑन". हवा पार्क में भी है, कमरे में भी है, बोतल में भी, कड़ाही में भी, गिलास में भी....सब जगह है......फिर गिलास टूट गया.....उसकी हवा सर्वव्याप्त हवा से जा मिली.....बस इतनी सी कहानी है. तुम्हें वहम है कि कोई आत्मा हो तुम. नहीं हो. तुम सदैव परमात्मा हो, थे, रहोगे. असल में 'वो' ही है, हम तुम हैं ही नहीं. बस वहम है एक. एक विभ्रम कि हम कुछ अलग हैं. ठीक उस गिलास की हवा की तरह. और जब हम कुछ अलग हैं ही नहीं. अपने आप में कुछ अलग हैं ही नहीं तो कैसा पूर्व जन्म, कैसा पुनर्जन्म्? सब बकवास है, वो गीता का श्लोक बहुत भ्रम फैलाए है कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, शरीर रूपी वस्त्र बदलती है. उससे भ्रम होता है कि आत्मा कुछ है. नहीं है. आत्मा जन्म तो तब ले, जब वो कुछ अलग से हो. वो है ही नहीं. वो सर्व-व्याप्त ऊर्जा, शक्ति, जीवन शक्ति, चेतना सब जगह है, सदैव है. तो समझ लीजिये फिर से. आत्मा नामक कुछ नहीं है. आत्मा शब्द को समझिये, आत्मा, आत्म से आत्मा, जैसे अपना कुछ हो. पर्सनल. व्यक्तिगत. न......न... न. ऐसा कुछ भी नहीं है. न कोई आत्मा है, न किसी का जन्म होता है, न कोई मरता है. न कोई पूर्वजन्म है, न कोई पुनर्जन्म है. न कोई स्वर्ग है और न ही कोई नर्क. न जन्म से पहले कोई जीवन है और न ही मृत्यु के बाद. समझ लीजिये, यह सब. हो सकता है माँ के दूध के साथ, घोट कर पिलाए गए कुछ जाने-माने विचार कटते हों मेरी बात से. लेकिन जब तक इनको काटे जाने की तैयारी न हो, समझ लीजिये आप गुलाम हैं. अभी-अभी एक मित्र ने कमेंट किया मेरी एक पोस्ट पर , जो राम से जुड़ी किसी मान्यता के खिलाफ थी, तो कमेन्ट किया की मेरी पोस्ट जानदार नहीं लगी, हालांकि उनको मेरा लेखन वैसे बहुत पसंद था, बेबाक लगता था. मैंने जवाब दिया, "आप कोई पहली हैं जो अक्सर नहीं समझते जो नहीं समझना हो?.....मेरा लिखा बाकी सब समझ आएगा, लेकिन मैं कुछ भी लिखूं वो समझ नहीं आएगा एक सिक्ख को यदि उसकी सिक्खी मान्यताओं के कहीं विपरीत जाएगा......न मुस्लिम को कुरान के खिलाफ मेरा लिखा .....न हिन्दू को उसके किसी ग्रन्थ के खिलाफ लिखा" ये पोते गए विचार, थोपे गए विचार आपकी चमड़ी बन चुके हैं, आप चाहते हैं, लाख कोशिश करते हैं कि किसी तरह से आप अपनी चाम बचा लें. Somehow you may succeed in saving your skin. लेकिन मैं ऐसा होने न दूंगा. मैं अंतिम दम तक कोशिश करता रहूँगा कि आप इस थोपन, इस पोतन से बाहर आ जाएं. रियल एस्टेट के धंधे में पंजाबी की एक कहावत प्रचलित है है, अक्को नहीं ( बोर मत होवो), थक्को नहीं ( थको मत), झक्को नहीं ( झिझको मत) . बस समझ लीजिये यह कहावत घोट के पी चुका हूँ. जब तक सांस, तब तक आस, तब तक प्रयास. वैसे मैंने काफी जीवन जी लिया है सो मौत कभी भी आये स्वागत है लेकिन दो बिटिया हैं, उनके लिए-परिवार के लिए आर्थिक इन्तेजाम अभी करना बाकी है और बीमार माँ चारपाई पर मौजूद है. सो और जीने की बस वही वजह है. मैं बहुत कुछ करना चाहता था समाज के लिए, कुछ प्रयास भी किये, लेकिन आर्थिक स्थिति ने साथ नहीं दिया. सो बस लेखन से ही संतोष करना पड़ा. मेरे तकरीबन सात सौ लेख हैं, जो ऑनलाइन मौजूद हैं. मेरा ब्लॉग है tusharcosmic.blogspot.in. वहां मेरा लिखा काफी कुछ मौजूद है. बहुत मेहनत से लिखा है सब. बहुत समय दिया है. मेरे लेखों से समाज के लिए मेरी तड़प साफ़ दिखेगी. समाज अगर मेरा लेखन पढ़ भर ले तो बहुत बेहतरी आ सकती है. हालाँकि मेरा लेखन अधिकांश को स्वीकार ही नहीं होगा. लेकिन उससे क्या? जो है, सो है. खैर, अभी भी मौका मिलेगा तो परिवार के साथ-साथ समाज के लिए बहुत बहुत करने की तमन्ना है. मैं कोई कल ही मरना नहीं चाहता, न कोई आत्म-हत्या करने जा रहा हूँ. महज़ मौत से जुड़े मेरे ख्यालात साझे कर रहा हूँ. कहते हैं इन्सान की ख्वाहिशें तो कभी पूरी नही होती. बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन कम निकले. खैर, मैं चाहता हूँ कि अगर सम्भव हो तो मुझे उमदा साहित्य पढ़ने का बहुत समय-सुविधा मिले.
मृत्यु पर अंग-दान को बहुत सराहा जाता है. लेकिन मेरा दान में जरा कम विश्वास है. बेहतर है कि बेचा जाये. मैं तो मुफ्त में अपने लेख जो पढवाता हूँ, वो भी तभी तक जब तक मैं कोई और ढंग नहीं खोज लेता जिससे मैं कमा सकूं. तभी मेरे हर लेख के नीचे पहले 'कॉपी राईट' लिखा रहता था. आज कल लोग समझते हैं, कम चोरी करते हैं सो 'कॉपी राईट' लिखना कम कर दिया है. लेकिन आज भी चोरों को मैं बिलकुल पसंद नहीं करता, ज़्यादा को तुरत ब्लाक. सो भैया नो दान. हाँ, बेचने का कोई ढंग होगा तो वो जोड़ दूंगा लेख में. अभी तक इसलिए नहीं जोड़ा चूँकि कुछ ठीक-ठीक मामला जमता नहीं दिखा. डेड-बॉडी जलाने के लिए जो बहुत लकड़ियाँ प्रयोग की जाती हैं, वो मुझे पसंद नहीं. CNG या इलेक्ट्रिक सिस्टम से बॉडी को फूंक दिया जाये, वो ही बेहतर है. और मुझे तो पंडत-पुजारियों-भाई जी की मौजूदगी से भी कोफ़्त होती है सो इन्हें दूर ही रखा जाये. कोई किसी भी तरह का पाठ नहीं. अगर करना ही हो तो मेरे लिखे लेखों में से कुछ लेख मेरी मृत्यु पर पढ़ दिए जाएँ. बस. कोई ताम-झाम नहीं. परिवार का कैसा भी वेहला खर्च नहीं होना चाहिए. और मेरी जो छोटी सी लाइब्रेरी है वो अगर न सम्भाली जा पाए तो सब किताब किसी भी पुस्तकालय को दान दे दी जायें. परिवार को शोक होगा, ठीक है. लेकिन बाकी तो इक्का-दुक्का को छोड़ किसी को कोई फर्क पड़ने नहीं वाला और पड़ना भी नहीं चाहिए. किसलिए? क्या रोज़ लोग मर नहीं रहे? क्या रोज़ नए बच्चे पैदा नहीं हो रहे. पुराने जायेंगे तभी तो नए लोगों की जगह बनेगी. खैर ..नमन...तुषार कॉस्मिक