Sunday 28 July 2019

फिलोसोफी की लड़ाई

अगर तुम्हें लगता है कि ये कोई तीर तलवार की जंग थी तो तुम गलत हो.

अगर तुम्हें लगता है कि ये कोई तोप बन्दूक की लड़ाई है तो तुम गलत हो.

अगर तुम्हें लगता है कि ये कैसे भी अस्त्र-शस्त्र की लड़ाई है तो तुम गलत हो.

न...न......फिलोसोफी की लड़ाई है...आइडियोलॉजी की लड़ाई है.....ये किताब की लड़ाई है.....ये तो शास्त्र की लड़ाई है..

ये कुरआन और पुराण की लड़ाई है......दोनों तुम्हारी अक्ल पर सवार हैं

सवार है कि किसी भी तरह तुम्हारी अक्ल का स्टीयरिंग थाम लें.

सिक्खी में तो कहते है कि जो मन-मुख है वो गलत है और जो गुर-मुख है वो सही है.....तुम्हे पता है पंजाबी लिपि को क्या कहते हैं? गुरमुखी.

मतलब आपका मुख गुरु की तरफ ही होना चाहिए......

असल में हर कोई यही चाहता है.

इस्लाम तो इस्लाम से खारिज आदमी को वाजिबुल-कत्ल मानता है....समझे?

क्या है ये सब?

इस सब में तुम्हें लगता है कि 42 सैनिक मारे जाने कोई बड़ी बात है?

इतिहास उठा कर देखो. लाल है. और वजह है शास्त्र. दीखता है तुम्हें अस्त्र.शस्त्र. चूँकि तुम बेवकूफ हो.

चूँकि जब शास्त्र पर प्रहार होगा तो तुम्हारी अपनी अक्ल पर प्रहार होगा...वो तुम पर प्रहार होगा....वो तुम्हे बरदाश्त नहीं. इसलिए तुम नकली टारगेट ढूंढते हो.

अगर सच में शांति चाहते हो तो कारण समझो. तभी निवारण समझ में आयेगा.

कारण क़ुरान-पुराण-ग्रन्थ-ग्रन्थि है. ये सब विलीन करो. दुनिया शांत हो जाएगी. शांत ही है.

विज्ञान_धर्म_और_हम

वैसे तो प्लास्टिक भी विज्ञान से आता है लेकिन प्लास्टिक या विज्ञान ये थोड़ी न कह रहा है कि प्लास्टिक प्रयोग होना ही चाहिए.

कार भी विज्ञान से आती है, लेकिन अगर ड्राईवर गधा चलाने जितनी भी अक्ल न रखता हो और एक्सीडेंट कर दे तो गलती विज्ञान की है या ड्राईवर की ?

एक मित्र कह रहे थे कि धर्म के विदा होने से कोई लाभ नहीं होगा....आदमी हिंसक इसलिए है चूँकि वो काम/क्रोध/लोभ आदि से बंधा है सो मानव-समस्याओं की असल वजह धर्म नहीं हैं.

अरे, इन्सान तो है ही जानवर.
बात यह है कि जंगल से यहाँ तक उसने सही सफर भी किया है और गलत भी.

ज्ञान/ समाज विज्ञान / मनोविज्ञान / चिकित्सा विज्ञान..... यह विज्ञान... वह विज्ञान.... इन्सान अगर सब तरफ से वैज्ञानिक हो जाये तो उसके लोभ / मोह आदि को भी सही दिशा दी जा सकती है.

फिर क्या दिक्कत है? दिक्कत हैं ये धर्म!

उदाहरण है कोई भी रेड लाइट.
रेड लाइट अगर सही है तो सब सही चलेंगे/अगर खराब है तो सब इडियट हो जायेंगे.

पॉइंट यह है कि इन्सान तो है जानवर, जंगली, कंक्रीट के जंगल का वासी.....लेकिन हमने जो भी विज्ञान विकसित किया है वो बहुत, बहुत हमारे जीवन को आज की अपेक्षा स्वर्गीय बना सकता है बशर्ते कि काल्पनिक स्वर्ग/नर्क/ अल्लाह/ भगवान/ (धर्म) विदा हो जाएँ .

बताइये, सही कह रही हूँ कि नहीं?

धर्म बेकार है. अक्ल इससे बेहतर है

हम कहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम, बहुत अच्छी बात है. लेकिन वसुधा की तो वाट लगा रखी है हमने. कल अगर यह धरा जलने लगे, पिघलने लगे और हमें कोई ग्रह मिल जाए तो क्या जो लोग भी जा पाएं, उनको वहां जाना चाहिए कि नहीं; फिर कैसे रहेगी वसुधा हमारी कुटुम्ब. और अगर बहुत से लोगों को बचाने के लिए इसे किसी की बली भी देनी पड़े तो भी जायज़ समझा जा सकता है. तो इस तरह सब कुछ वक्त / ज़रूरत / दिशा-दशा / टाइम-स्पेस के अनुसार ही तय किया जा सकता है। और क्या तय करना है, वही अक्ल का रोल है। तो धर्म शब्द बेकार है. अक्ल इससे बेहतर शब्द है. धर्म का connotation मन्दिर, मस्जिद, चर्च...पंडित, ग्रन्थी, मौलवी इत्यादि को लिए खड़ा है....ईश्वर/अल्लाह को लिए खड़ा है......क़ुरान/पुराण को लिए खड़ा है. असल में बस अक्ल ही सही शब्द है. धर्म शब्द त्याग देने योग्य है. कर्तव्य क्या है, कानून क्या है यह सब अक्ल से तय करना चाहिए. हमअक्ल से ही कानून भी बदल लेते हैं.अक्ल से ही हम नियम भी बदल लेते हैं. संविधान / विधान सब बदलते हैं. एक तरफ की सड़क बंद कर देते हैं. फिर खोल देते हैं. नियम/कायदे/कानून में बदलाव करते हैं...और अगर नियम गलत हो तो उसका विद्रोह भी करते हैं...तो धर्म नियम का पालन सर्वोपरी नहीं है बल्कि अक्ल सर्वोपरि है....और अक्ल के लिए सही शब्द अक्ल है, न कि धर्म.

क्या कहते हैं आप ?

गुरु गोबिंद सिंह

आज मेरे दफ्तर में बात कर रहा था मैं. राज कुमार मित्तल थे और भी मित्र थे. गुरु गोबिंद सिंह. कोई दिन त्यौहार नहीं है उनसे जुड़ा. लेकिन मुझे बहुत याद आते हैं. बावजूद इसके कि मैं धर्म/दीन/ मज़हब/सम्प्रदाय को गलत मानता हूँ और उन्होंने खालसा का निर्माण किया था. "सब सिक्खन को 'हुक्म' है, गुरु मान्यों ग्रन्थ" कहा था. मैं सख्त खिलाफ हूँ उनके इस काम से. लेकिन. लेकिन फिर भी मन में उनके लिए अपार सम्मान है. 

आम इन्सान कैसे जीता है? शादी करेगा. बच्चे करेगा. फिर उनकी शादी करेगा. फिर वो बच्चे करेंगे. खायेगा. पीएगा. सेक्स करेगा. और मर जाएगा. अमीर थोड़ा अच्छे लेवल पे करेगा और गरीब थोड़ा हल्के लेवल पे. लेकिन अमीर हो गरीब हो, हर इन्सान यही करेगा. 

गोबिंद सिंह. गुरु गोबिंद सिंह. गुरु शब्द का अर्थ है जिसमें गुरुता हो, गुरुत्व हो, भारीपन हो. गुरु वो इसलिए हैं कि मेरी नज़र में वो वाकई भारी व्यक्तित्व हैं. 

तो गुरु गोबिंद सिंह. उन्होंने अपने पिता को कुर्बान कर दिया. चारों बेटों को कुर्बान कर दिया. और खुद को कुर्बान कर दिया. किस लिए? हिन्दू के लिए? न. न. उनको क्या हिन्दू से मतलब? 

भाई कन्हैया (उनका शिष्य) जंग में चमड़े की मश्क से घायलों को पानी पिलाता था. लेकिन वो दुश्मन घायलों को भी पानी पिलाता था. शिष्यों ने गुरु साहेब को शिकायत की. गुरु साहेब ने उन को कहा कि कन्हैया सही करता है जो दुश्मनों को भी पानी पिलाता है और तुम भी सही करते हो जो दुश्मनों का गला काटते हो. जो वो करता है, उसे करने दो और जो तुम करते हो, वो भी करते रहो.

यह दृश्य मुझे सारी उम्र याद आता रहा है. महान दृश्य है. कौन कह सकता है इतनी बड़ी बात? निश्चित ही गुरु साहेब सबमें एक ही ब्रह्म देख रहे थे. दुश्मन में भी. मारना इसलिए ज़रूरी है चूँकि कोई और चारा नहीं लेकिन है तो वो भी वही जो हम सब है. वाह! वाह!! क्या बात है!!! 

उन्होंने सब कुर्बान इसलिए कर दिया चूँकि उनकी समझ में जबरन मुस्लिम बनाया जाना गलत था. उनके शिष्यों ने भी आगे यही किया. "खालसा धर्म नहीं हारेया. सीस कटवा दिए." 

बस एक ही जिद्द थी. जो उनकी नज़र में गलत है, वो गलत है. उसके लिए चाहे कुछ भी कुर्बान करना पड़े. 

और पुरजा, पुरजा कटवा लिया. उन्होंने. उनके शिष्यों ने. लेकिन पीछे नहीं हटे. पीछे नहीं हटने का मतलब यह नहीं कि गुरिल्ला युद्ध नहीं किया. गुरिल्ला युद्ध ही किया. लेकिन अपनी सोच से पीछे नहीं हटे. यही होना चाहिए जीवन का ढंग. मरना हम सब ने है. क्या मर-मर के जीना? सोच से गद्दारी करके क्या जीना? 

"सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तब गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ."
गिनती में कम थे सिक्ख, लेकिन टक्कर ऐसी दी कि इतिहास फख्र करता है. 

उपर-लिखित असहमति के बावजूद मेरा उनको शत-शत नमन. 

तुषार कॉस्मिक

नोट:--- ध्यान रहे कि मैं किसी धर्म को नहीं मानता और सब धर्मों के खिलाफ हूँ. सो धर्म-विशेष का प्रचार मान कर न पढें. 

 कमेंट कीजिये और बताएं कि आपका अपना क्या विचार है इस विषय में?

न्यूज़ीलैंड में मुस्लिमों का कत्ल

मुझे दुःख है कि न्यूज़ीलैंड में मुस्लिम मारे गए.

लेकिन क्या मुस्लिम ने यह सोचा कि जब से इस्लाम आया तब से आज तक कितने गैर-मुस्लिम मुस्लिम ने मार दिए इस्लाम की वजह से? 

कितने मुस्लिम मार दिए यह समझते हुए कि असल इस्लाम उसका है सामने वाले का नहीं? 

कितने शहर उजाड़ दिए? कितनी Library जला दी चूँकि कुरान के अलावा सब किताब बेकार है?

कितनी औरतें सेक्स-गुलाम बना ली गईं चूँकि उनका शौहर/भाई/बाप जंग हार गया था ? 

हो सकता है इस्लाम यह सब न सिखाता हो. लेकिन दुनिया क्यों कत्ल-बलात्कार-आगजनी का शिकार हो चूँकि कोई भटके हुए लोगों ने इस्लाम को सही-सही नहीं समझा? किसी की नासमझी के लिए कोई क्यों जान दे? बलात्कार का शिकार क्यों हों?

और वैसे मुझे तो यह ही शंका है कि ये तथा-कथित शांति-वादी  लोग कुछ गलत समझते हैं कुरान को. 

मुझे लगता है कि यही लोग सही-सही समझते हैं कुरान को चूँकि क़ुरान सीधा आदेश देता है गैर-मुस्लिम के खिलाफ. 

सो जब मुस्लिम ज़हर उगल रहे  हैं उनके खिलाफ जो ख़ुशी मना रहे हैं न्यूज़ीलैंड में मारे गए मुस्लिमों की मौत पर, तो जरा ठीक-ठीक समझें कि यह ख़ुशी असल में कोई ख़ुशी नहीं है. यह गम है, छुपा हुआ. यह गम है, इस्लाम की वजह से जो इनके समाज के लोगों की जान गई है, उनके लिए. 

यह गम है ताकि इस्लाम इस गम को समझे. समझे कि गैर-मुस्लिम के खिलाफ अब अगर कोई भी आदमी बम बनके फूटेगा तो उसका अंजाम भी भुगतना पड़ेगा.  

लेकिन क्या मुस्लिम समझेंगे? 

तब तक नहीं समझेंगे, जब तक वो यह नहीं समझते कि कोई किताब आसमान से नहीं उतरती. कोई किताब अल्लाह नहीं भेजता. 

अल्लाह ने इन्सान भेज दिए हैं. हर किताब अल्लाह की ही है जो भी इन्सान के ज़रिये लिखी जाती है. क्या आप को पता है अक्सर कहानीकार कहते हैं कि वो सिर्फ कहानी शुरू करते हैं? फिर पात्र खुद-ब-खुद चलते हैं. पात्र लेखक से कहानी खुद लिखवा लेते हैं. कहानी शुरू लेखक करता है लेकिन खत्म पात्र खुद करते हैं. 

अक्सर लेखक को लगता है कि जैसे उस पर कोई और ही आत्मा सवार होके लिखवा लेती है सब कुछ. 

क्या है यह? क्या सब किताब नाज़िल हो रही हैं?
"हां". और "नहीं" भी. 

"हाँ" इसलिए चूँकि सब इन्सान अल्लाह के बनाये हैं. सब इन्सान अल्लाह का रूप हैं. इन्सान का किया अल्लाह का ही किया है. 

और "न" इसलिए चूँकि अल्लाह कोई आसमान में बैठा शख्स नहीं है जो सीधे अपनी प्रिंटिंग-प्रेस से कोई ख़ास किताब छाप भेज रहा है. 

किताब सिर्फ किताब हैं. और हर किताब की समीक्षा-आलोचना करनी चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे शेक्सपियर के नाटक या गोर्की के नावेल की करते हैं. बस. इससे ज्यादा कुछ नहीं. कुछ सीखने को मिले तो गुड, न मिले तो भी गुड. अलविदा. अलमारी में बंद.

मुस्लिम समझेंगे क्या यह सब? 
नहीं समझेंगे. 

तो फिर पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी है. क़ुरान की, इस्लाम की हर मान्यता को चैलेंज करने की. लेकिन क़ुरान/इस्लाम की वजह से दुनिया का हर नॉन-मुस्लिम अपनी बकवास/ गली-सड़ी मान्यताओं को कस के पकडे बैठा है. मुकाबला जो करना है. अपने opponent के स्तर पर आना जो पड़ता है. लेकिन यह गलत ढंग है. अगर दुनिया को अँधेरे से बचाना है तो क़ुरान को पढ़ो और चैलेंज करो. 

आपको यह करने के लिए कोई भी राजनेता lead करता हुआ क्यों नहीं दिख रहा? चूँकि जब कोई क़ुरान को चैलेंज करेगा तो उसकी नज़र से गीता/गुरु ग्रन्थ/बाइबिल भी नहीं छूटेगी. वो इन सब को भी चैलेंज करेगा. और नेता ऐसा कभी नहीं चाहता. वो चाहता है कि इन्सान रोबोट बना रहे. वो इस सब चक्र-व्यूह में ही पड़ा रहे. ताकि राजनेता आसानी से उसे मूर्ख बनाता रहे. 

फिर ज़म्मेदारी किसकी है? 
ज़िम्मेदारी है बुद्धि-जीवी की. 
बस सब भार उसी के कंधों पर है. 
मुश्किल है. असम्भव जैसा. लेकिन करो. करो या मरो. 

काला भविष्य दूर नहीं है. 
असल में भविष्य वर्तमान बन ही चुका है.  

"न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ ईमान वालों 
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में"

तुषार कॉस्मिक

जवाब--- इस्लामिक वार का

"जवाब--- #इस्लामिक वार का"

इस्लाम तलवार और सलवार दोनों से फैलाया जाता है.

बाकी #धर्म भी विदा होने चाहिए लेकिन उनसे तर्क किया जा सकता है लेकिन कुरान चूँकि तर्क नहीं, सीधी हिंसा का आदेश देता है इस्लाम न मानने वालों के खिलाफ तो उसे हिंसा और तर्क दोनों से जवाब दिया जाना चाहिए

इस्लामिक आबादी तेज़ी से बढ़ी है, और यह भी बाकी दुनिया की गलती से है...जिन्होंने मूरखों की तरह इनकी आबादी बढ़ने दी......वैसे बाकी दुनिया भी यही कर रही थी....वंश-वृद्धि.....लेकिन जो गैर-मुस्लिम अब चालीस-पचास तक के हैं, उन्होंने फिर सीख लिया था कि आबादी नहीं बढ़ानी...मुसलमान ने नहीं सीखा...मेरे मित्र हैं कासिम भाई...पांच बच्चे हैं उनके...मेरे दो हैं (दो भी नहीं चाहता था, लेकिन श्रीमती के क्लेश के आगे झुकना पड़ा). सो अब कासिम भाई के बच्चे अगर आगे दो-दो बच्चे पैदा करेंगे तो अगले बीस-पचीस वर्षीं में उनका वंश में मेरे वंश से अढाई गुना हो चुका होगा. यह है फर्क. 

#इस्लाम में जितना मर्ज़ी मतभेद हो....कुरान पर सब एक हैं

इस्लाम को सिर्फ एक ही नज़रिए से देखना चाहिए और वो है कुरान और इतिहास.....दोनों खून से लाल हैं

श्रीमन, मेरा कोई धर्म/ दीन/ मज़हब नहीं है....और चूँकि मैं इन्सान हूँ तो इस लिहाज़ से सारी इंसानियत मेरी है और इस इंसानियत की सारी मूर्खातायें भी मेरी हैं...सो अब धर्म मेरे हैं.

आपको फर्क बताता हूँ..बाकी धर्मों में और इस्लाम में....आपको कोई जैन, बौद्ध, हिन्दू, सिक्ख नहीं मिलेगा बम्ब बन कर फटता हुआ........बहुत कम, इक्का दुक्का.........आपको मिलेगा मुसलमान.........इस्लाम में कायदे क़ानून सामाजिक व्यवस्था सब अंतर-निहित है जो बाकी दुनिया के ज्ञान/ विज्ञान/ सोच/ समझ से अलग-थलग  है और इस्लाम में इस्लाम को मनवाने की जबरदस्ती भी है......सो सबसे ज्यादा जोर इस्लाम के खात्मे पर लगाना होगा........जनसंख्या कण्ट्रोल करनो होगी मुसलामानों की....और इस्लामिक सोच-समझ-कुरान सब मान्यताओं को तर्क में लाकर छिन्न-भिन्न करना होगा.

और बाकी धर्मों के साथ भी यही करना होगा...लेकिन इस्लाम चूँकि ज्यादा हिंसक है, जनसंख्या-वर्धक है, विस्तारवादी है सो उसके साथ ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी

इस समय सबसे बड़ा खतरा इस्लाम है...इस्लाम बड़ी वजह है कि इन्सान वैज्ञानिक सोच इंसान से दूर है.....सब लोग इस्लाम की वजह से अपनी-अपनी बकवास मान्यताओं को और कस के पकड़े बैठे हैं.

इस्लाम का मुकाबला तभी होगा जब तलवार,सलवार और विचार तीनों तरफ से मुकाबला किया जाये

और एक बात....जब आप इस लेख के विरुद्ध तर्क दें तो किसी भी और धर्म की कमियों से इस्लाम को बैलेंस करने का प्रयास न करें. किसी भी और ग्रुप की मान्यता कितनी ही गलत हो उससे आप सही साबित नहीं होते....आपका गलत होना अपनी जगह होता है....गलत को गलत से सही साबित नहीं किया जा सकता

रेफरेन्स के लिए कुरान का लिंक दिया है, ज़रूर पढ़ें और अपने दोस्तों, बच्चों, परिवार सबको पढवाएं. अक्ल होगी तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी. नहीं होगी तो अक्ल आ जाएगी. 

https://quran.com/8/12

एक और लिंक दे रहा हूँ. यह वेबसाइट इस्लामिक जिहाद के नाम पर जो आये दिन हमले होते हैं, गैर-मुस्लिम का क़त्ल होता है उसका लेखा-जोखा रखती है. विजिट ज़रूर करें. आंख-नाक-कान खुल जायेंगे.

https://www.jihadwatch.org/

दो लिंक दिए हैं...वेरीफाई करें.......एक है जिसमें क़ुरान गैर-मुस्लिम के खिलाफ मार-काट का आदेश देती हैं....दूसरा है जो यह बताता है कि जिहाद के नाम पर रोज़ कितने लोग मारे जा रहे हैं.....सीधा सबूत.

भाई...क़ुरान आसमान से उतरी है.....अल्लाह मियां ने भेजी है....एक हर्फ़ इधर से उधर नहीं हो सकता,,,,,और मोहम्मद अल्लाह के दूत हैं, उनसे कुछ गलत नहीं हो सकता...सो कैसी समीक्षा? बुद्धि को ताला लगा तो अल्लाह-ताला आपके. जन्नत आपकी. यह है इस्लाम. कैसे होगी समीक्षा?

नमन...तुषार कॉस्मिक

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मैं सहमत हूँ कि राहुल गाँधी पप्पू है. "पप्पू काँट डांस साला." लेकिन मोदी क्या है? वो कोई जीनियस है? क्या इन्वेंट किया है उसने? रामलीला की स्टेज पर मोटे-मोटे dialogue फेंकने वाला स्थूल किस्म का कलाकार है वो. इससे ज्यादा कुछ नहीं. उसके भाषण उठा कर देख लो. एक से एक तथ्यात्मक गलतियाँ पाओगे. उसे समाज विज्ञान-राजनीति विज्ञान का क-ख-ग भी नहीं आता. भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ अभी राजनीति की जगह सिर्फ "ब्रांडिंग" चल रही है. जनतन्त्र की जगह धनतंत्र चल रहा है. ज़्यादा एक्साइट मत होईये. कुछ नहीं बदलेगा, चुनाव के बाद भी. उस मुकाबले कुछ भी नहीं जो बदल सकता है. जिसके बदलने की पूरी सम्भावना वर्तमान लिए खड़ा है लेकिन तुच्छ राजनीती जिसे अटकाए है. वो इसलिए चूँकि समाज की सोच-समझ तुच्छ है. वो इसलिए चूँकि आम जन की सोच-समझ तुच्छ है. तुछिये. तुचिए लोग. "यथा प्रजा, तथा राजा."

रोबोटी-करण

मैंने गुरु गोबिंद सिंह के विषय में एक लेख लिखा था पीछे. 

मैं उनका प्रशंसक हूँ. दुनिया में चंद महान लोगों में से मुझे वो नज़र आते हैं. 

लेकिन उन्होंने खालसा का निर्माण किया. यह मुझे हमेशा उलझन में डालता है. शायद इस्लामिक आक्रमण का मुकाबला करने के लिए उस समय यही ज़रूरी लगा होगा उनको. आपको दुश्मन का मुकाबला करने के लिए कई बार उसके स्तर पर उतरना पड़ता है, कुछ-कुछ उसके जैसा होना पड़ता है. इसलिए सिक्खी को जन्म दे गए गुर साहेब. न चाहते हुए भी. "आपे गुर, आपे चेला" कह गए लेकिन फिर "सब सिक्खन को हुकम है, गुरु मान्यों ग्रन्थ" भी कह गए. अब हुक्म को मानने से तो गुलाम ही पैदा होते हैं. आज़ाद-ख्याल इन्सान नहीं. 

पीछे खबर थी कि गुरुद्वारा कमेटी के मेम्बरान की दाढ़ियों को धोया जायेगा, उनका केमिकल टेस्ट होगा...अगर उनकी दाढ़ियों में से कलर निकला तो उनको निष्कासित कर दिया जीएगा. 
अल्लाह!

और पीछे मैंने देखा, तिलक नगर में .लड़की दाढ़ी-मूंछ के साथ. फिर लिपस्टिक भी लगी थी और कटार भी पहनी थी. सिक्खी केशों से ही तो निभेगी. 
वल्लाह!!

और पीछे सुना था कि "तुन्नी ते मुन्नी नहीं चल्लेगी". मतलब जो दाढ़ी कटी होगी या रोल करके ठुंसी होगी, वो सिक्खी में नहीं चलेगी. 
माशा-अल्लाह!!!

"एक औंकार सतनाम" पर किसी ने डांस कर दिया तो उसके खिलाफ शिकायत हो गई.
सुभान-अल्लाह!!!!

वाह! वल्लाह!! माशा-अल्लाह!!! सुभान-अल्लाह!!!! क्या है यह सब? 

रोबोट. हर धर्म रोबोट पैदा करता है. कुछ ने मूंछ कटवा दी, दाढ़ी रख ली, कुछ दाढ़ी-मूंछ रखे हैं और केश भी, कुछ सर पर एंटीना लगाये घूम रहे हैं.

नमन...तुषार कॉस्मिक

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दुनिया दो हिस्सों में बाँट दी मोहम्मद साहेब ने. "मुसलमान और बे-ईमान"

दुनिया दो हिस्सों में बाँट दी मोहम्मद साहेब ने.
"मुसलमान और बे-ईमान"

इक जंग है. आसमानी और ज़मीनी किताबों के बीच. आसमानी किताबें हावी हैं. और ज़मीन को जहन्नुम बना रखा है.

इक जंग है. 
आसमानी और ज़मीनी किताबों के बीच. 
आसमानी किताबें हावीइक जंग है. 
आसमानी और ज़मीनी किताबों के बीच. 
आसमानी किताबें हावी हैं. 
और ज़मीन को जहन्नुम बना रखा है. हैं. 
और ज़मीन को जहन्नुम बना रखा है.
लाइब्रेरी-- यह इकलौती जगह है जो पवित्र कहलाने लायक है. वरना तुम्हारे मन्दिर-मस्जिद तो सडांध मारते हैं. वो सुंदर हैं. वहां धूप-अगरबत्ती की सुगंध हो सकती है. लेकिन वहां वैचारिक सड़ांध हैं. चूँकि विचार की वहां रोज़, हर पल हत्या की जाती है. और लाइब्रेरी विचार की ख़ुराक है. विचार को जीवन देती है. लंगर चलाने वाल इडियट हैं. लाइब्रेरी चलाने वाले महान हैं. नमन.

Thanus- थेनस

Thanus की ज़रूरत है दुनिया को.

Thanus क्या करता है? 
हर प्लेनेट की आधी आबादी साफ़ करता है.

चूँकि आबादी अगर बिना किसी रोक के बढ़ती गई तो प्लेनेट को ही साफ़ कर देगी.

उसके प्लेनेट पर ऐसा ही हुआ होता है.

उसे पता है कि धरती पर भी ऐसा ही होगा.

वो हीरो है मेरी नज़र में.

इन्सान जिस तरह का है, उसे जीने का कोई हक़ नहीं है. मुझे अक्सर लोगों की मौत पर कोई अफ़सोस नहीं होता. जिनकी मौत पर मैं अफ़सोस ज़ाहिर करने जाता हूँ उनकी मौत पर भी नहीं.

कीड़े-मकौड़े हैं, मर गए तो अच्छा ही हुआ.

क्या फर्क पड़ता है? इन्होने किया क्या इस दुनिया की बेहतरी के लिए?

खाया-पीया, हगा-मूता और ढेर बच्चे पैदा किये.

सब इडियट. अगर नहीं मरेंगे तो धरती को चूस जायेंगे. इनका मरना शुभ है.

Thanus इसलिए हीरो है चूँकि वो धरती को इन्सान रूपी जोंक से आज़ाद करवाना चाहता है.

हाँ, उसे थोड़ा और एडवांस होना चाहिए. थोड़ा सेलेक्टिव. कचरा ही साफ़ करे. बुद्धिमान, कलाकार रख ले. बाकी जाने दे. कोई बात नहीं. आगे वो या उसका कोई और पैरोकार ऐसा कर सकता है.

नमन...तुषार कॉस्मिक
इन्सान दुनिया का सबसे मूर्ख जानवर है. 
विदाई का वक्त नजदीक है. 
"जय श्री थेनस"
There are things which "you do not know".

AND

There are things about which "you do not know that you do not know."
सवाल---तुषार, सो रहा है तू?
जवाब-- हाँ, गहरी नींद में हूँ.

सवाल--- आ गए आप?
जवाब-- नहीं, पीछे बाज़ार में छूट गया.

सवाल--- हेल्लो, हेल्लो, आवाज़ आ रही है?
जवाब-- नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं आ रही.

Online मित्र

मतलब आभासी मित्र. मतलब ऐसे मित्र जो लगते हैं कि मित्र हैं लेकिन असल में होते नहीं, वो ज़िन्दगी से दूर जो  होते हैं. 

हम्म. मैं सहमत हूँ. 

पीछे बहुत बुरा वक्त गया, चूँकि पैसों कि बहुत किल्लत रही. अभी है. लेकिन मामला सम्भल चुका है. 

दशकों पुराने एक मित्र से दस हज़ार रुपये मांगे मैंने. असल में ज़रूरत तो कोई दो लाख की थी. लेकिन मुझे लगा मुझे कोई देगा नहीं इतने पैसे तो मैंने सोचा क्यों न दस-दस हज़ार करके भीख की तरह मांगूं और बीस लोगों से पैसे इकट्ठे करूं? 

खैर, डरते-डरते मांगे मैंने पैसे. उस पहले मित्र ने मना कर दिए. टूटती हिम्मत से दूसरे मित्र से मांगे, उसने भी मना कर दिए. तीसरे से मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई. 

असल में ये लोग जानते थे मुझे, वो जानते थे कि मेरी औकात नहीं है दस हज़ार की भी. मैं ले तो लूँगा लेकिन लौटा नहीं पाऊंगा. और मेरे जैसे फटीचर इन्सान के साथ रिश्ता खोने का भी कोई गम तो था नहीं. सो उन्होंने दिमाग से काम लिया. 

अब कोई चारा ही न बचा. सो एक ऑनलाइन मित्र से गुहार लगाई. और बस बात बन गई. उस ऑनलाइन मित्र से चूँकि ऑनलाइन मित्रता थी, उसे तो पता नहीं था कि मेरी हैसियत लगभग जीरो है. सो उसने बेवकूफी कर दी. उस ने मुझे एक लाख कैश दिया और तो और अपने घर के कुछ जेवरात भी दे दिए. तकरीबन दो लाख जुटा लिए मैंने. 

मेरा काम चल गया.  मैंने सत्तर हज़ार लौटा भी दिए हैं. बाकी भी लौटा दूंगा. 

लेकिन मैं कहना यही चाहता हूँ कि सच में जो लोग कहते हैं कि ऑनलाइन यारी आभासी है, वो सही कहते हैं. मैं सबूत हूँ. उस आभासी मित्र को आभास कहाँ पता था मेरी बकवास हालात का? ऑफलाइन मित्र मेरे ज्यादा करीब थे, उनको पता था कि मुझे पैसे देना कूएं में पैसे फेंकने के बराबर था. 

वैसे मेरा समय एक दम से सही हो चुका है. मैं पहले भी लाखों की डील करता था और अब फिर से करने लगा हूँ. उस ऑनलाइन मित्र के पैसे अमानत हैं. लौटा दिए जायेंगे. 

लेकिन मैं सहमत हूँ कि ऑनलाइन मित्र सिर्फ आभासी होते हैं. उनको आभास होता है कि सामने वाला पता नहीं कितना महान है!  उसे पता ही नहीं कि एक क्लिक के साथ मित्रता खत्म हो जायेगी. पैसे लेने के बाद ब्लाक किया जा सकता है. या ऑनलाइन अकाउंट ही बंद किया जा सकता है. लेते रहो स्क्रीन शॉट. आप बंडल भर लिखवा लो कागज़ों के तो किसी का बाल बांका करना मुश्किल है भारत में, स्क्रीनशॉट से कितना कुछ होगा, शंका है. खैर, असलियत सिर्फ ऑफलाइन मित्रों को ही पता होती है. 

और जब मैं यह लिख रहा हूँ तो आंखें गीली हैं. मैं Salute करता हूँ मेरे ऑफलाइन मित्रों की समझ-दारी को. 

नमन...तुषार कॉस्मिक
मुसलमान बहुत कमिटेड है कि किसी भी तरह वो हावी हो जाये दूसरे समाजों पर...और उसे पता है कि आज वोट भी एक ताकत है...बड़ी ताकत है....सो वो जनसंख्या बढ़ा रहा है और वो वोट भी कमिटेड होकर देता है कि कोई जीते लेकिन जो मुस्लिम के खिलाफ हो वो हारना चाहिए....उसके लिए वोट में भी बड़ा मुद्दा इस्लाम है. सो गैर-मुस्लिम को यह बात समझनी चाहिए और लामबंद होकर मुस्लिम के खिलाफ़ होकर वोट देना ही चाहिए...चूँकि मेरी नज़र में इस्लाम दुनिया को अँधेरे में धकेल रहा है.
If we make our system better, even the poor shall not be poor.
And if our system is idiotic, which it is, even our rich shall be sick, over-weight, idiot, too much selfish, short sighted, which he is.
इस्लाम का मुकाबला मुस्लिम के कत्ल से नहीं कर सकते. 
1. जनसंख्या कण्ट्रोल से कर सकते हो. 
2. कुरान पे तार्किक हमला करके कर सकते हो.
"हिंदुत्व" की कोई परिभाषा नहीं. और जो है वो नकली है. गढी गई है. घड़ी गई है. मजबूरी में. चूँकि इस्लाम/ इसाईयत जैसे धर्म परिभाषित हैं. सो उनका मुकाबला करने के लिए.

और इस्लाम कोई धर्म/दीन/मज़हब नहीं. Quran पढ़िए.
समझ आएगा, इस्लाम किसी कबीले के डकैतों का 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' ज़्यादा है.
फांसी कोई न चढ़ना चाहता. 

जिंदाबाद बोला ही इसलिए जाता कि चढ़ जा बेटा तू सूली पर, मौज हम 
करेंगे.
बीज वहां फेंकों जहाँ उसके उगने गुंजाईश हो. समय व ऊर्जा बंजर ज़मीन पर व्यर्थ मत करो. स्टॉक सीमित है. हरेक से बहस मत करें.
1400 साल से मुस्लिम मार-मार के समझा रहे हैं कि इस्लाम अमन का दीन है, लेकिन काफ़िर हैं कि समझने को तैयार ही नहीं.

बसई हत्या-कांड

मेरे घर से मात्र चार-पांच किलोमीटर दूर है 'बसई'. त्यागी लोगों का गाँव है. दिल्ली देहात. पंखों की मशहूर मार्केट है. मुस्लिम किरायेदार हैं. अब मालिक भी होंगे. ध्रुव त्यागी को घेर कर मुस्लिम लोगों ने मार दिया. 
बेटी को छेड़ने का विरोध किया, बस यही कसूर था. मारने वाले 11 लोग. औरतें भी शामिल. सब मुसलमान.

कुछ शिक्षा लो. एक तो हथियार को अपना यार बनाओ. गुरु गोबिंद सिंह ने ऐसे ही नहीं कृपाण दी थी शिष्यों को. वजह थी. हथियार किसी भी चीज़ को बना सकते हो. चाहे बांस ही क्यों न हो. चलाना आना चाहिए और हिम्मत होनी चाहिए. सीखो. सिक्खों से सीखो. 

और समझ लो कि मुसलमान का दीन अलग है, ईमान अलग है, जीवन शैली अलग है, अंतर-निहित कायदे-कानून अलग है. 

उसके साथ भाई-चारा एक सीमा तक  निभेगा. वो तुम्हारा भाई तभी तक है  जब तक चारा तुम होवोगे. 

वो गंगा-जमुनी तहज़ीब तभी तक निभाएगा जब तक गंगा भी तुम्हारी होगी और यमुना भी तुम्हारी. 

वो डेमोक्रेसी, सेकुलरिज्म और  मल्टी-कल्चरिज्म  का प्रशंसक तभी तक है जब तक संख्या से कमज़ोर है. 

वरना उसके लिए कल्चर सिर्फ एक ही है, वो है इस्लाम.

उसके लिए ग्रन्थ सिर्फ एक है, वो है कुरान. 

उसके लिए दीन/धर्म. सिर्फ एक है वो है इस्लाम.

उसके लिए इन्सान सिर्फ दो तरह के हैं. एक मुसलमान और दूसरे बे-ईमान. 

और बे-ईमान अल्लाह की बनाई कायनात पर बोझ है. उसे जीने का कोई हक़ नहीं. सो उसका क़त्ल वाज़िब है. वाज़िबुल-क़त्ल. 

समझ लो नासमझो. 

लड़ के मरो, मरना ही है तो. सीखो, सीखो सिक्खों के इतिहास से. 

नमन.....तुषार कॉस्मिक
थोड़े-थोड़े दिनों में उनको दौरा पड़ता है. मिर्गी जैसा. और वो ढोलकी-छैने लेकर क्रन्दन करती हैं.

 खूब हो-हल्ला.

कीर्तन से दुखी मोहल्ला.

फैसले

पीछे झांको तो अपने कई फैसले गलत लगते हैं. गलत इसलिए लगते हैं कि हमने उन्हें सही साबित करने के लिए उत्ती जद्दो-ज़हद नहीं की जितनी ज़रूरत थी. न हमारी उन फैसलों के प्रति ख़ास कमिटमेंट थी. न हमने ढंग से बुद्धि लगाई.

फैसले फैसले होते हैं. सही लगने वाले फैसले भी गलत साबित हो जायेंगे, अगर प्रयास सही न किये गए हों तो. और गलत लगने वाले फैसले भी सही हो सकते हैं बशर्ते कि हम उन्हें सही करने के लिए अड़े रहें.
नाज़िम भाई और मैंने मिल के बहुत प्रॉपर्टी डील की हैं. सो रोज़ मिलते हैं. उनकी वाइफ की तबियत खराब थी. सुबह से पास वाले गुरूद्वारे गए हुए थे. वहां लगभग मुफ्त इलाज होता है.

पीछे उनकी खुद की तबियत खराब थी तो "जैन स्थानक" गए थे. वहां भी बहुत से इलाज लगभग न जैसे खर्च पर होते हैं.

मैंने  पूछा, "क्या मस्ज़िदों में भी इस तरह के इलाज होते हैं नाजिम भाई?"

उनका जवान "न" में था.

फिर मैने पूछा, "जब इस्लाम गैर-मुस्लिम को मान्यता देता ही नहीं तो यह तो गलत हुआ न कि मुस्लिम गैर-मुस्लिम धर्म-स्थलों पर जाए, चाहे इलाज के लिए ही?"

"शायद"

"अच्छा, आपसे गुरूद्वारे या जैन मन्दिर में इलाज से पहले आपका धर्म पूछा गया था?"

"नहीं."

"क्या कभी आपने यह देखा है कि कोई मुस्लिम संस्था गैर-मुस्लिम को भी इस तरह या किसी भी और तरह की सुविधा देती हो?"

"नहीं"

"यही फर्क है नाजिम भाई. मैं किसी धर्म को नहीं मानता. लेकिन फिर भी इस्लाम बाकी धर्मों जैसा नहीं है, यह मानता हूँ."

नाजिम भाई तो सीधे आदमी हैं. ज़्यादा हेर-फेर नहीं जानते. जल्दी मान जाते हैं. लेकिन मुझे लगता नहीं कि सब मुस्लिम यह मानेंगे.

लुच्चा लंडा चौधरी, गुंडी रन्न परधान

"लुच्चा लंडा चौधरी, गुंडी रन्न परधान"

पंजाबी की कहावत है, "ਲੁੱਚਾ ਲੰਡਾ ਚੌਧਰੀ, ਗੁੰਡੀ ਰਨ ਪਰਧਾਨ."

मोहल्ले के चंद महा-इडियट लोग चल पड़ते हैं हर चार-छह महीने बाद. चंदा इकट्ठा करने कि रामलीला करनी है, दशहरा है, रावण जलाना है कि साईं संध्या करनी है. 

गुट बना चलते हैं, घर-घर, दुकान-दुकान पैसे मांगते हैं. आदमी श्रधा से दे न दे लेकिन शर्म से देगा. मोहल्ले के लोग हैं. मिलने-जुलने वाले लोग हैं. कल इन्हीं से काम पड़ना है. 

शर्मा जी को नाराज़ करेंगे तो कल मेरी दुकान से सौदा नहीं लेंगे. वर्मा जी को नाराज़ किया तो मेरे बच्चे को जो टयुशन देते हैं, वो ठीक से न देंगे. सबसे दुआ सलाम है. 

लेकिन मैं ढीठ हूँ. होते रहें नाराज़. मुझे काहे की चिन्ता? इनको चिंता होनी चाहिए कि मैं नाराज़ हो सकता हूँ ऐसी बकवास डिमांड लाये जाने पर. अगर नाराज़ होंगे तो ये बदकिस्मत हैं, जो मेरे जैसे जीनियस व्यक्ति का साथ पाने से चूक जायेंगे. 

साला चंदा नहीं, धंधा है. मुझे धंधे से कोई एतराज़ नहीं. लेकिन गंदा धंधा है. 

जिन लोगों में कैसी भी बुद्धि नहीं, कैसा भी चिंतन नहीं, विचार का बीज तक प्रस्फुटित नहीं हुआ, वो प्रधान बने फिरते हैं. लोगों के घर जा-जा पैसे उगाहेंगे और फिर सार्वजनिक आयोजनों में ऐसे प्रधान बनेंगे जैसे इनके बाप के पैसे खर्च हो रहे हों. बचे पैसों से तीर्थ-यात्रा के बहाने ऐश बोनस में. 

इन्ही से होना है न भारत में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार-प्रचार? 
ऐसे ही लोग भारत की तरक्की में बाधा हैं भई.

धर्म-कर्म करना है न तो अपने घर से खर्च करें, हर साल क्या, हर महीने विशाल भगवती जागरण करें. माँ इनका दीवाला अगली दीवाली से पहले ही निकाल देगी. साईं नाथ की कृपा छत्त फाड़ कर बरसेगी और छत्त रिपेयर कराने के पैसे तक न बचेंगे. भोले नाथ की महिमा से इत्ते भोले हो जाएँ कि मकान दुकान बेच भोले बाबा के नाम पर भंडारा चला दें. जय भोले भंडारी. न रहेगा मकान, न बचेगी दुकान. बोल बम. बम्ब-फटाक.
इडियट. महा-इडियट.  

नमन....तुषार कॉस्मिक
A Muslim is a Muslim is a Muslim.

ईमानदार - बेईमान

ईमानदार = Honest
बेईमान = Dishonest

Right?

WRONG.

The real meanings are:---

ईमानदार=मुस्लिम
बेईमान= गैर-मुस्लिम

1400 साल पहले मोहम्मद साहेब ने दुनिया दो भाग में बाँट दी थी. मुसलमान और बेईमान
2+2=4

सब जानते हैं लेकिन मानते नहीं.

हम वो हैं जो दो और दो पांच बना दें. लेकिन पांच तभी बनेंगे जब आप किसी और के दो और दो तीन बनायेंगे.

फिर कोई कुपित इन्सान आपके दो और दो जीरो कर देगा तो आप कहेंगे कि यह तो "क्राइम" है.

वल्लाह!
दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. एक तमन्ना.
गली का जमादार हो, मोची हो, झाड़ू चौका करने वाली बाई हो. खुद से नमन करता हूँ. वैसे मैं सिरे का अधार्मिक आदमी हूँ.
हालंकि मैं आरक्षण का धुर विरोधी हूँ लेकिन हर गटर साफ़ करने वाले को मोटी सैलरी देने के पक्ष में हूँ.
अधिकांश भारतीय युवा की अक्ल चंदा इक्कठा कर के रामलीला, साईं संध्या, भागवत और भंडारे कराने तक सीमित है.
जो इस्लाम का विरोध नहीं कर सकता उसे संघ/हिंदुत्व का विरोध करने का हक़ नहीं है. तुम साला माफिया के खिलाफ जा नहीं सकते और छोटे गुंडे का जम के विरोध करते हो.

ये तो नेता लोग हैं जो लड़वा रहे हैं पब्लिक को?

बड़े मासूम हैं वो मुस्लिम, जो शरीफ से बन कहते हैं, "ये तो नेता लोग हैं जो लड़वा रहे हैं पब्लिक को......ऊपर से ये टीवी वाले डिबेट ऐसी करवाते हैं कि दंगा न होना हो तो भी हो जाये...."

मेरे प्यारे दोस्तो, कभी कुरान भी समझ लिया करो या सिर्फ रटते हो. आपके मोहम्मद साहेब ने दुनिया को क्लियर दो हिस्सों में बाँट रखा है. ईमानदार और बे-ईमान. मुसलमान और बे-ईमान.

और बे-ईमान के लिए हिदायत हैं, आयत हैं कि वो तो दुश्मन है. तुम्हारा. अल्लाह का. कायनात का.

तुम किस मुंह से कहते हो मियां भाई कि नेता ने लड़ा दिया, टीवी एंकर ने भिड़ा दिया?

न..न..ये तो माध्यम हैं. मीडिया हैं. गैर-मुस्लिम को समझाया जा रहा है और उसे समझ आ भी रहा है.

नतीजा तुम्हारे सामने है. जीरो ही नहीं, नेगेटिव परफॉरमेंस के बावज़ूद मोदी फिर से गद्दी पर है.

अगर गलत है तो बोलिए भाई-जान. और सही है तो भी बोलिए भाई-साहेब.

प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ

प्रॉपर्टी के धंधे में हूँ. बड़ा ही नाशुक्रा किस्म का धंधा है. कोई सिस्टम ही  नहीं है. 

लोग किसी भी प्रॉपर्टी डीलर के साथ महीनों घूमते रहेंगे. वो सिखाता रहेगा. समझता रहेगा. फिर बिन उसकी किसी गलती के ही उसे छोड़ देंगे. 

डीलर भी जानते हैं यह सब, सो वो भी जल्द-बाज़ी में रहते हैं. बस किसी तरह से फंसा दे डील. सही गलत की ज्यादा चिंता नहीं करते. देख जायेगा जो होगा. बस अपना टांका फिट होना चाहिए.

होना तो यह चाहिए की डीलर सब देख-भाल के, ठोक-बजा के ही डील दे खरीद-दार को. 

लेकिन खरीद-दार कौन सा उसका सगा है? वो कभी भी बेहतरीन डीलर को छोड़ देता है और दूजे किसी के पल्ले पड़ जाता है. 

सब चाहते हैं कि डीलर खरा हो. लेकिन खुद डीलर के साथ कभी खरे नहीं है. उसकी तय-शुदा कमीशन देने में भी सौ नखरे करते हैं. डीलर को कोई रेस्पेक्ट दे के राजी नहीं है. बयाने के अग्रीमेंट की कोपी तक उसे नहीं दी जाती कि कहीं वो कोई Mis-use  न कर ले. इत्ता ही डर है तो डीलर को क्यों लेते हो डील में भाई? खुद ही कर लो सारी डील.

खैर, न प्रॉपर्टी लेने-देने वाले खरे हैं और न ही डीलर खरे. अब बीच में मेरे जैसे बंदे को दिक्कत ही दिक्कत. 

धंधा है. लेकिन गंदा है.  

Why property dealers are not committed with the parties?
Because parties are not committed with the property dealers.

Why parties are not committed with the property dealers?
Because the property dealers are not committed with parties.

'मेरा-मेरा' तो कर नहीं सकता लेकिन नानक साहेब की तरह 'तेरा-तेरा' भी नहीं कर सकता. सो चला रहे हूँ अपने ही नियम-कायदों पर.

मेरी छोटी बेटी

जन्नत मेरी छोटी बेटी की आँखों में है. उसके लिए ज़िन्दगी चहकती है. महकती है.  खिलखिलाती है. 

हंसती है तो हंसती रहती है. हमें डर लगने लगता है. उसकी माँ कहती है, "इसपे जिन्न सवार हो गया है, देखो तो कैसे हंसी जा रही है? अरे, मत हंस इत्ता. डाकिनी, पिशाचिनी." वो और जोर से हंसती जाती है. 

"ममा, आप बाज़ार गए थे, मेरे लिए क्या लाये?" माँ, उसके लिए लाये कपड़े दिखाती हैं. फिर वो एक-एक पहनेगी और नाचती रहेगी. खुद को देख-देख खुश होती रहेगी. 

मुझे अपनी माँ से बात तक नहीं करने देती. "आप अपनी बिज़नस की बातें करते रहते हो, मैं बोर होती हूँ." 

बड़ी बहन को खूब सताती है. उससे प्रिंट आउट मांगती रहती है, ताकि कलर कर सके. कुछ भी लेगी तो फिर वैसा ही उसे सूफी दीदी के लिए भी चाहिए. घर आएगी तो उसे कहेगी, "ये आपके लिए है सूफी दीदी और ये मेरे लिए." 

पैसा कहाँ से आता है, ये पता तो है, लेकिन मुश्किल आता है ये नहीं पता है. उसे लगता है कि बस शौपिंग ही काम होता है. 

खैर, मेरी बेटी, आपकी बेटी, सब खुश रहें, यही तमन्ना है.

क्यों हैं इत्ते ज्यादा लोग मुस्लिम?--जवाब हाज़िर

मोमिन भाई अक्सर बड़े भोलेपन से पूछते हैं "अगर इस्लाम इत्ता ही बुरा है तो फिर इत्ती सारी दुनिया मुस्लिम क्यों है?"

इसके कई जवाब हैं. 

१.मुस्लिम द्वारा जान-बूझ कर जनसंख्या वृद्धि.

 २.इस्लाम का वन-वे-ट्रैफिक होना. अंदर तो जा  सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते. कत्ल कर दिए जायेंगे. 

३.मुस्लिम लड़की का गैर-मुस्लिम से शादी की सख्त मनाही. मुस्लिम लड़के द्वारा गैर-मुस्लिम लड़की से शादी का स्वागत करना. 

4.बच्चों को कुरान-इस्लाम घोंट के पिलाना. उन्हें मुस्लिम 'सोच' से नहीं 'सोच के कत्ल' से बनाना. (वैसे इस इस तरह की ना-इंसाफी सभी धर्म वाले करते हैं)

५.आदमी के औरत के मुकाबले कहीं ज्यादा हकूक होना---आसान तलाक, मल्टीप्ल शादी का हक़.  

6. क़ुरान की आलोचना की सख्ती से मनाही. अगर आलोचना करोगे तो कत्ल कर दिए जाओगे. यानि आप सोच ही नहीं सकते कि कुरान में जो लिखा है वो सही है या गलत. आपको मानना ही है कि सब सही ही है. 

७. लेकिन एक और कारण है. और वो यह है कि दुनिया में अक्ल कमानी पड़ती है. और इसमें पैसा कमाने जैसी ही मेहनत लगती है. अपने आपको तर्क और ज्ञान के औज़ारों से घड़ना पड़ता है. सालों लगते हैं. लोग पेट पालने से फुरसत पाएं तो ही तो अक्ल पालने तक पहुंचेंगे. तो अक्ल का आसान Substitute दीन/मज़हब/धर्म पकड़ा दिया जाता है. कि लो कोई डेढ़ हज़ार साल पहले सब अक्ल लगा गया है तुम्हारे लिए. लो पकड़ो यह किताब. यह आसमान से उतरी है. इसमें सब है. अब तुम्हें अक्ल लगाने की ख़ास ज़रूरत नहीं है. अक्ल लगाना लेकिन इस किताब में जो लिखा है उस घेरा-बंदी के बीच-बीच. उससे बाहर कुछ नहीं है. बस. मामला खत्म. अब उस किताब में सबसे ज़्यादा मूर्खताएं हैं.  और अधिकांश लोग परले दर्ज़े के मूर्ख हैं. सो जोड़-मेल मिल गया. इसलिए अधिकांश लोग मुस्लिम हैं."  

नमन...तुषार कॉस्मिक

सर ही कूड़ा है

"कबीर खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ।
जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।।"

"जो तो प्रेम खेलन का चाव, सिर धर तली गली मोरी आओ.
एस मार्ग पैर धरीजै, सर दीजे कान न कीजै"

कबीर और गुरु गोबिंद, लग-भग एक ही बात कह रहे हैं

एक लाठी लेकर खड़े हैं, "आ जाओ, सर फोड़ दूंगा".
दूजे तो सीधे ही सर मांग रहे हैं.

असल में सर ही कूड़ा है, इसलिए
सर ही कचरा है इसलिए
सर ही सब फसाद से भरा है

सर सबसे कीमती लगता है इन्सान को, सर जो गीता, कुरान, पुराण से भरा है.

इसलिए सर माँगा है.

कुरआन शरीफ-- मरे गधे की बिखरी हुई हड्डियों का ज़िक्र

*"कुरआन शरीफ" सूरा 2, अल-बकरह, आयत संख्या 259:--

100 वर्ष पहले मरे गधे की बिखरी हुई हड्डियों से गधे को ज़िंदा कर के अल्लाह ने अपनी क्षमता/ताकत दिखाई थी.

कुरआन शरीफ में तो बना हुआ भोजन सौ वर्षो बाद भी ताजा, खाने लायक बना रहता है, और मरा हुआ गधा, बिखरी हड्डियों से जिंदा हो जाता है*

SAHIH INTERNATIONAL
Or [consider such an example] as the one who passed by a township which had fallen into ruin. He said, "How will Allah bring this to life after its death?" So Allah caused him to die for a hundred years; then He revived him. He said, "How long have you remained?" The man said, "I have remained a day or part of a day." He said, "Rather, you have remained one hundred years. Look at your food and your drink; it has not changed with time. And look at your donkey; and We will make you a sign for the people. And look at the bones [of this donkey] - how We raise them and then We cover them with flesh." And when it became clear to him, he said, "I know that Allah is over all things competent."

NOTE:-- FOR THEM WHO SAY THERE IS NOTHING WRONG IN THE QURAN.
किसी भी भारतीय से किसी भी विषय पर बात करके देखो. विश्व-गुरु. उसे सब चीज़ों के बारे में सब पता होता है. और असल में उसे घंटा पता नहीं होता.

रजिस्ट्री

बिना बेचने वाले की अनुमति से आप किसी ज़मीन के मालिक हो सकते हैं क्या? न. तो दिखा दें एक भी रजिस्ट्री जो धरती माता ने किसी नाम की हो.

आस्तिक नास्तिक

अपुन आस्तिक नास्तिक के चक्कर में ही नहीं पड़ते. अपने लिए खुदा कोई बड़ा मुद्दा नहीं. खुद से बड़ा तो कभी भी नहीं.

Saturday 27 July 2019

कीर्तन

कीर्तन है. कबीर-रहीम के दोहे हैं. घंटा नहीं पता किसी को किसी दोहे का मतलब. कीर्तन इसलिए कि गुरु जी इन के बिगड़े-बिगड़ते काम संवारे.

लेखन

लेखन ऐसा होना चाहिए कि सामने वाले को हेलमेट, Knee Guard, Elbow Guard, पहन के पढ़ना पड़े.

अगले के पंजे, छक्के, सत्ते, कच्छेे सब छूट जाएँ.

मूंछे हों तो नत्थू लाल जी जैसी, वरना न हों.

क्यों मुंशी जी?

मेक-अप

ये लिपे-पुते चेहरे, जैसे रामलीला की सीता माता हो और महिलाएं इस सब के लिए आजकल लाखों रुपये दे रही हैं. अबे, आदमी मेक-अप नहीं, तुम्हें चाटना चाहता है. पैकिंग नहीं, डिश खाना चाहता है. इडियट.

बारगेनिंग

बारगेनिंग की कला पर सैंकड़ों किताब हैं. क्या ज़रूरत है? भारतीयों से सीखो. इत्ती बारगेनिंग करेंगे कि डील ही खराब हो जाये. पीछे दो बहिनें आईं मेरे पास कोई डील लेने. हर चीज़ तय हो गयी. प्रॉपर्टी का किराया, कागज़ात का खर्च, हमारी ब्रोकरेज. सब तय. फिर अगले दिन नए सिरे से बारगेनिंग. "नहीं जी, हम कागज़ात का खर्च आधा देंगे. हम ब्रोकरेज भी आधी देंगे. आप तो ज़्यादा ले रहे हैं." मैंने सीधा डांट दिया. "जाओ. नहीं ले रहे कुछ भी आप से. कम ज़्यादा कुछ भी नहीं ले रहे आपसे. हम आपको डील ही नहीं दे रहे. जाएँ आप और दुबारा न फोन करें और न ही मेरे पास आयें." साला बारगेनिंग करो लेकिन इत्ती भी नहीं कि सामने वाला हत्थे से ही उखड़ जाए. रबड़ इत्ती भी मत खींचो कि टूट ही जाये.

Why Muslims wanna live in the West?

One reason is quest for 'better life'. But they fail to understand that why the better life exists in Non-Muslim countries. Ask any Muslim that what is the first choice to live and the answer shall be a country in the West. Why not an Arabian country? Because Islam has nothing to offer for a better life. Evident. Self evident. Still these Muslims shall ask for Sharia in the white countries after a few years of habitation.

खालसा खड़ा ही मुसलमान आक्रान्ता के खिलाफ था

आक्रान्ता मुस्लिम था? था कि नहीं? था. जी मुख्य रूप से आक्रान्ता मुस्लिम ही था, बाकी हर समय हर किस्म के लोग होते हैं. एवरेज समझते हैं आप. कितने हिन्दू थे जो सिख गुरुओं के खिलाफ थे? कोई इक्का-दुक्का. और सिक्ख आये कहाँ से थे? कितने मुस्लिम घरों से सिक्ख आये थे? इक्का दुक्का. शायद कोई भी नहीं. और कितने गुरु और उनके परिवार मुस्लिम ने शहीद किये थे. जितने भी शहीद हुए शायद सभी. सहमत हूँ. अगर उस वक्त हिन्दू आक्रान्ता होता, ज़ालिम होता तो उसके खिलाफ खड़े हो जाते. लेकिन ऐसा था नहीं. आक्रान्ता मुस्लिम थे और गैर-मुस्लिम/ हिन्दू में से ही लोग खड़े हुए जो खालसा हुए. हिन्दू नहीं हैं, लेकिन आये हिन्दू से. मुस्लिम से नहीं आये थे. इसलिए आज सिक्ख को मात्र इत्ता समझने की ज़रूरत है कि चाहे खालसा किसी मज़हब के खिलाफ नहीं लेकिन इतिहास क्या है. ऐतिहासिक एक्शन क्या है और रिएक्शन क्या है? और सही है कि सिक्ख किसी धर्म के खिलाफ नहीं है लेकिन आज यह समझने की ज़रूरत है कि मूलतः मुस्लिम सबके खिलाफ है. सिक्ख इतिहास भी यही बता रहा है. खालसा अन्याय के खिलाफ है. सही है. लेकिन अन्याय इस्लाम में है. कुरान में है. और आज भी है. न कुरान बदली, न इस्लाम. बस इत्ता समझें. और यह जो आप समझते हैं न कि अगर खालसा किसी धर्म के खिलाफ होता तो साईं मिंया मीर से अमृतसर गुरुदवारे की नींव पत्थर ना रखवाया जाता. उसे भी समझिये. सूफी मुस्लिम नहीं होते. चूँकि मुस्लिम कभी किसी और धर्म को नहीं मानता सो अगर साईं मिंया मीर असल मुस्लिम होते तो कभी नींव पत्थर रखने ही न नहीं जाते. और आपको गुरुद्ववारों में अनगिनत लोग मिलेंगे जो सिक्ख नहीं होते लेकिन इनमें मुस्लिम शायद ही कोई मिले. इससे समझें कि इस्लाम क्या है. और मुस्लिम का सिक्ख से नहीं, हिन्दू का सिक्ख से रोटी-बेटी का रिश्ता है. असल में सिक्ख चाहे खुद को अलग माने, लेकिन हिन्दू सिक्ख को अलग नहीं मानता. दोनों में खूब शादी-ब्याह होते हैं. समझें. और यह मेरी ही अवधारणा है कि यदि मुस्लिम आक्रान्ता न होते तो खालसा करने की कोई ज़रूरत नहीं थी. खालसा खुद चाहे कुछ भी माने. इस लेख से मेरा बिलकुल भी यह स्थापित करना नहीं है कि सिक्ख कोई हिन्दू हैं. नहीं हैं. हिन्दू से निकलने का मतलब यह कदापि नहीं कि वो हिन्दू हैं. वो वही हैं, जो वो खुद को मानते हैं. वो सिर्फ सिक्ख हैं. उन पर हिन्दू का ठप्पा न ही लगाया जाए तो ही बेहतर है. और यह पोस्ट इसलिए भी नहीं कि मैं कोई यह स्थापित करना चाहता हूँ कि सिक्ख कोई हिन्दू की रक्षा के लिए थे. न. उनको क्या मतलब हिन्दू से? उस समय दलित हिन्दू था सो उसकी मदद के लिए खालसा उठ खड़ा हुआ. लेकिन यह सब खालसा के गुण हैं. मैं इस कंट्रास्ट में इस्लाम समझाना चाह रहा हूँ. यह पोस्ट इस्लाम और इस्लाम को मानने वाले क्या हैं, मुख्यतः यह समझाने को है. सिक्ख इतिहास के परिप्रेक्ष्य से. नमन....तुषार कॉस्मिक

भविष्य - इस्लाम के सन्दर्भ में

आक्रान्ता मुस्लिम था तो खालसा खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो ट्रम्प खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो आरएसएस खड़ा हुआ. 

आक्रान्ता मुस्लिम है तो मोदी खड़ा हुआ.और लोगों ने उसे तमाम मूर्खताओं के बाद फिर से चुना. 

खैर, इस्लाम  के खिलाफ पूरी  दुनिया को खड़ा होना चाहिए. समझना चाहिए. 

सवाल यह नहीं है कि आप क्या मानते हैं. हो सकता है आप किसी धर्म-विशेष के खिलाफ न हों. आप अहिंसक हों. शांति-वादी हों. आप कुछ भी हों. किसी भी मान्यता के हों. लेकिन इस्लाम इस्लाम है. 

आपको इस्लाम को अपने नजरिये से नहीं समझना है. इस्लाम को इस्लाम के नजरिये से समझना है. आप अपनी मान्यताएं इस्लाम पर मत थोपिए. यह देखिये कि इस्लाम खुद क्या मानता है. मेरे इन शब्दों से शायद उन लोगों को कुछ समझ आये जो यह कह रहे हैं कि खालसा  इस्लाम के खिलाफ नहीं है. न हो खालसा इस्लाम के खिलाफ. न हो किसी और धर्म के खिलाफ. लेकिन इस्लाम सब धर्मों के खिलाफ है. इस्लाम आक्रामक था, इसलिए खालसा का उदय हुआ. और इस्लाम ने अपनी मान्यताएं कोई बदल नहीं ली हैं. वो आज भी वही है.  

और दुनिया समझ भी रही है. खड़ी भी हो रही है.  उस में इन्टरनेट/ सोशल मीडिया सहयोगी है. 

दो फायदे हैं. आज आप बरगला नहीं सकते. सब ऑनलाइन मौजूद है. कुरान. उसका अनुवाद. व्याख्या. लेख. विडियो. बहुत कुछ. जरा श्रम कीजिये, सब समझ आ जायेगा. 

पहले इस्लाम आवाज़ ही नहीं उठाने देता था. 

आज भी ईश-निंदा का कानून है इस्लामिक मुल्कों में. आपने जरा बोला इस्लाम/ मोहम्मद के खिलाफ, तो वाज़िबुल-क़त्ल हो गए. 

वो पाकिस्तान में एक आसिया बीबी का केस बड़ा आग पकड़ा था. उसके घर के बाहर शायद कुरान के कोई पन्ने मिले थे. बेचारी हो गयी वाज़िबुल-कत्ल. 

कितने ही लोग मात्र इसलिए काट दिए गए कि उन्होंने इस्लाम के खिलाफ बोलने  की जुर्रत की. 

लेकिन अब यह बिलकुल नहीं रुक पायेगा. 
आप कितना ही रोको. लोग रक्तबीज की तरह पैदा होंगे. 
एक मारोगे, सौ पैदा होंगे. इन्टरनेट चीज़ ही ऐसी है. 

इसलिए तमाम बकवास-बाज़ी के बावज़ूद सोशल मीडिया से ही सूर्य उगेगा और इस्लाम समेत तमाम धर्मों/ मज़हब का अँधेरा दूर होगा. 

इस्लाम का सबसे ज़्यादा विरोध इसलिए ज़रूरी है चूँकि यह सबसे ज़्यादा हिंसक  है. कुरान में  गैर-इस्लामिक  के खिलाफ सीधे हिदायत हैं. हिंसक हिदायत. और दुनिया भर में इसे मानने वाले फैले हैं.

और  इसके विरोध में तमाम बेवकूफियां फैल  रहीं हैं. इस्लाम की मूर्खताओं की वजह से लोग अपनी मूर्खताओं को छोड़ने की बजाए और  कस के पकड़े  हैं. 

मोदी  इसका उदहारण हैं. मोदी का पिछला टर्म देखो. गलतियों से भरा है. लेकिन फिर भी लोग जिता दिए. फिर भी हिन्दू-हिन्दू हो रही है. 

मोदी कोई अपनी परफॉरमेंस की वजह से नहीं जीता है. बहुत बार वकील अपनी लियाकत से केस नहीं जीतते, सामने वाले की मूर्खताओं की वजह से जीतते हैं. मोदी हिन्दू की वजह से नहीं आया है. वो मुस्लिम की वजह से आया है. वोट चाहे उसे हिन्दू ने दिया है. लेकिन दिया मुसलमान के डर से है. सो असल में मोदी को पॉवर में लाने वाले असल में मुसलमान ही हैं. 

 माफिया के जवाब में गुंडे खड़े हैं. एक बार माफिया खत्म हो छोटे गुंडे अपने आप खत्म हो जायेंगे, समय- बाह्य हो जायेंगे. और इसमें सोशल मीडिया का प्रमुख रोल रहेगा ही.  

अभी तो जुम्मा-जुम्मा कुछ साल ही हुए है सोशल मीडिया आये और आग लग गयी है धर्मों के खेमों में. देखते जाओ, बस कुछ ही दिन की बात और है. अंत में जीत तर्क की होगी, वैज्ञानिकता की होगी.

नमन...तुषार कॉस्मिक