मुझे दुःख है कि न्यूज़ीलैंड में मुस्लिम मारे गए.
लेकिन क्या मुस्लिम ने यह सोचा कि जब से इस्लाम आया तब से आज तक कितने गैर-मुस्लिम मुस्लिम ने मार दिए इस्लाम की वजह से?
कितने मुस्लिम मार दिए यह समझते हुए कि असल इस्लाम उसका है सामने वाले का नहीं?
कितने शहर उजाड़ दिए? कितनी Library जला दी चूँकि कुरान के अलावा सब किताब बेकार है?
कितनी औरतें सेक्स-गुलाम बना ली गईं चूँकि उनका शौहर/भाई/बाप जंग हार गया था ?
हो सकता है इस्लाम यह सब न सिखाता हो. लेकिन दुनिया क्यों कत्ल-बलात्कार-आगजनी का शिकार हो चूँकि कोई भटके हुए लोगों ने इस्लाम को सही-सही नहीं समझा? किसी की नासमझी के लिए कोई क्यों जान दे? बलात्कार का शिकार क्यों हों?
और वैसे मुझे तो यह ही शंका है कि ये तथा-कथित शांति-वादी लोग कुछ गलत समझते हैं कुरान को.
मुझे लगता है कि यही लोग सही-सही समझते हैं कुरान को चूँकि क़ुरान सीधा आदेश देता है गैर-मुस्लिम के खिलाफ.
सो जब मुस्लिम ज़हर उगल रहे हैं उनके खिलाफ जो ख़ुशी मना रहे हैं न्यूज़ीलैंड में मारे गए मुस्लिमों की मौत पर, तो जरा ठीक-ठीक समझें कि यह ख़ुशी असल में कोई ख़ुशी नहीं है. यह गम है, छुपा हुआ. यह गम है, इस्लाम की वजह से जो इनके समाज के लोगों की जान गई है, उनके लिए.
यह गम है ताकि इस्लाम इस गम को समझे. समझे कि गैर-मुस्लिम के खिलाफ अब अगर कोई भी आदमी बम बनके फूटेगा तो उसका अंजाम भी भुगतना पड़ेगा.
लेकिन क्या मुस्लिम समझेंगे?
तब तक नहीं समझेंगे, जब तक वो यह नहीं समझते कि कोई किताब आसमान से नहीं उतरती. कोई किताब अल्लाह नहीं भेजता.
अल्लाह ने इन्सान भेज दिए हैं. हर किताब अल्लाह की ही है जो भी इन्सान के ज़रिये लिखी जाती है. क्या आप को पता है अक्सर कहानीकार कहते हैं कि वो सिर्फ कहानी शुरू करते हैं? फिर पात्र खुद-ब-खुद चलते हैं. पात्र लेखक से कहानी खुद लिखवा लेते हैं. कहानी शुरू लेखक करता है लेकिन खत्म पात्र खुद करते हैं.
अक्सर लेखक को लगता है कि जैसे उस पर कोई और ही आत्मा सवार होके लिखवा लेती है सब कुछ.
क्या है यह? क्या सब किताब नाज़िल हो रही हैं?
"हां". और "नहीं" भी.
"हाँ" इसलिए चूँकि सब इन्सान अल्लाह के बनाये हैं. सब इन्सान अल्लाह का रूप हैं. इन्सान का किया अल्लाह का ही किया है.
और "न" इसलिए चूँकि अल्लाह कोई आसमान में बैठा शख्स नहीं है जो सीधे अपनी प्रिंटिंग-प्रेस से कोई ख़ास किताब छाप भेज रहा है.
किताब सिर्फ किताब हैं. और हर किताब की समीक्षा-आलोचना करनी चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे शेक्सपियर के नाटक या गोर्की के नावेल की करते हैं. बस. इससे ज्यादा कुछ नहीं. कुछ सीखने को मिले तो गुड, न मिले तो भी गुड. अलविदा. अलमारी में बंद.
मुस्लिम समझेंगे क्या यह सब?
नहीं समझेंगे.
तो फिर पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी है. क़ुरान की, इस्लाम की हर मान्यता को चैलेंज करने की. लेकिन क़ुरान/इस्लाम की वजह से दुनिया का हर नॉन-मुस्लिम अपनी बकवास/ गली-सड़ी मान्यताओं को कस के पकडे बैठा है. मुकाबला जो करना है. अपने opponent के स्तर पर आना जो पड़ता है. लेकिन यह गलत ढंग है. अगर दुनिया को अँधेरे से बचाना है तो क़ुरान को पढ़ो और चैलेंज करो.
आपको यह करने के लिए कोई भी राजनेता lead करता हुआ क्यों नहीं दिख रहा? चूँकि जब कोई क़ुरान को चैलेंज करेगा तो उसकी नज़र से गीता/गुरु ग्रन्थ/बाइबिल भी नहीं छूटेगी. वो इन सब को भी चैलेंज करेगा. और नेता ऐसा कभी नहीं चाहता. वो चाहता है कि इन्सान रोबोट बना रहे. वो इस सब चक्र-व्यूह में ही पड़ा रहे. ताकि राजनेता आसानी से उसे मूर्ख बनाता रहे.
फिर ज़म्मेदारी किसकी है?
ज़िम्मेदारी है बुद्धि-जीवी की.
बस सब भार उसी के कंधों पर है.
मुश्किल है. असम्भव जैसा. लेकिन करो. करो या मरो.
काला भविष्य दूर नहीं है.
असल में भविष्य वर्तमान बन ही चुका है.
"न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ ईमान वालों
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में"
तुषार कॉस्मिक
लेकिन क्या मुस्लिम ने यह सोचा कि जब से इस्लाम आया तब से आज तक कितने गैर-मुस्लिम मुस्लिम ने मार दिए इस्लाम की वजह से?
कितने मुस्लिम मार दिए यह समझते हुए कि असल इस्लाम उसका है सामने वाले का नहीं?
कितने शहर उजाड़ दिए? कितनी Library जला दी चूँकि कुरान के अलावा सब किताब बेकार है?
कितनी औरतें सेक्स-गुलाम बना ली गईं चूँकि उनका शौहर/भाई/बाप जंग हार गया था ?
हो सकता है इस्लाम यह सब न सिखाता हो. लेकिन दुनिया क्यों कत्ल-बलात्कार-आगजनी का शिकार हो चूँकि कोई भटके हुए लोगों ने इस्लाम को सही-सही नहीं समझा? किसी की नासमझी के लिए कोई क्यों जान दे? बलात्कार का शिकार क्यों हों?
और वैसे मुझे तो यह ही शंका है कि ये तथा-कथित शांति-वादी लोग कुछ गलत समझते हैं कुरान को.
मुझे लगता है कि यही लोग सही-सही समझते हैं कुरान को चूँकि क़ुरान सीधा आदेश देता है गैर-मुस्लिम के खिलाफ.
सो जब मुस्लिम ज़हर उगल रहे हैं उनके खिलाफ जो ख़ुशी मना रहे हैं न्यूज़ीलैंड में मारे गए मुस्लिमों की मौत पर, तो जरा ठीक-ठीक समझें कि यह ख़ुशी असल में कोई ख़ुशी नहीं है. यह गम है, छुपा हुआ. यह गम है, इस्लाम की वजह से जो इनके समाज के लोगों की जान गई है, उनके लिए.
यह गम है ताकि इस्लाम इस गम को समझे. समझे कि गैर-मुस्लिम के खिलाफ अब अगर कोई भी आदमी बम बनके फूटेगा तो उसका अंजाम भी भुगतना पड़ेगा.
लेकिन क्या मुस्लिम समझेंगे?
तब तक नहीं समझेंगे, जब तक वो यह नहीं समझते कि कोई किताब आसमान से नहीं उतरती. कोई किताब अल्लाह नहीं भेजता.
अल्लाह ने इन्सान भेज दिए हैं. हर किताब अल्लाह की ही है जो भी इन्सान के ज़रिये लिखी जाती है. क्या आप को पता है अक्सर कहानीकार कहते हैं कि वो सिर्फ कहानी शुरू करते हैं? फिर पात्र खुद-ब-खुद चलते हैं. पात्र लेखक से कहानी खुद लिखवा लेते हैं. कहानी शुरू लेखक करता है लेकिन खत्म पात्र खुद करते हैं.
अक्सर लेखक को लगता है कि जैसे उस पर कोई और ही आत्मा सवार होके लिखवा लेती है सब कुछ.
क्या है यह? क्या सब किताब नाज़िल हो रही हैं?
"हां". और "नहीं" भी.
"हाँ" इसलिए चूँकि सब इन्सान अल्लाह के बनाये हैं. सब इन्सान अल्लाह का रूप हैं. इन्सान का किया अल्लाह का ही किया है.
और "न" इसलिए चूँकि अल्लाह कोई आसमान में बैठा शख्स नहीं है जो सीधे अपनी प्रिंटिंग-प्रेस से कोई ख़ास किताब छाप भेज रहा है.
किताब सिर्फ किताब हैं. और हर किताब की समीक्षा-आलोचना करनी चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे शेक्सपियर के नाटक या गोर्की के नावेल की करते हैं. बस. इससे ज्यादा कुछ नहीं. कुछ सीखने को मिले तो गुड, न मिले तो भी गुड. अलविदा. अलमारी में बंद.
मुस्लिम समझेंगे क्या यह सब?
नहीं समझेंगे.
तो फिर पूरी दुनिया की ज़िम्मेदारी है. क़ुरान की, इस्लाम की हर मान्यता को चैलेंज करने की. लेकिन क़ुरान/इस्लाम की वजह से दुनिया का हर नॉन-मुस्लिम अपनी बकवास/ गली-सड़ी मान्यताओं को कस के पकडे बैठा है. मुकाबला जो करना है. अपने opponent के स्तर पर आना जो पड़ता है. लेकिन यह गलत ढंग है. अगर दुनिया को अँधेरे से बचाना है तो क़ुरान को पढ़ो और चैलेंज करो.
आपको यह करने के लिए कोई भी राजनेता lead करता हुआ क्यों नहीं दिख रहा? चूँकि जब कोई क़ुरान को चैलेंज करेगा तो उसकी नज़र से गीता/गुरु ग्रन्थ/बाइबिल भी नहीं छूटेगी. वो इन सब को भी चैलेंज करेगा. और नेता ऐसा कभी नहीं चाहता. वो चाहता है कि इन्सान रोबोट बना रहे. वो इस सब चक्र-व्यूह में ही पड़ा रहे. ताकि राजनेता आसानी से उसे मूर्ख बनाता रहे.
फिर ज़म्मेदारी किसकी है?
ज़िम्मेदारी है बुद्धि-जीवी की.
बस सब भार उसी के कंधों पर है.
मुश्किल है. असम्भव जैसा. लेकिन करो. करो या मरो.
काला भविष्य दूर नहीं है.
असल में भविष्य वर्तमान बन ही चुका है.
"न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ ईमान वालों
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में"
तुषार कॉस्मिक
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