Showing posts with label कचहरी. Show all posts
Showing posts with label कचहरी. Show all posts

Tuesday 19 June 2018

आलोचना जज साहेब की

कोर्ट जाना होता है बहुत. वकील नहीं हूँ. अपने केस लेकिन खुद लड़ लेता हूँ और प्रॉपर्टी के विषय में कई वकीलों से ज्यादा जानकारी रखता हूँ. तो मित्रवर, आज बात जजों पर. कहते हैं कि आप जजमेंट की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जज की नहीं. बकवास बात है. इस हिसाब से तो आप क़त्ल की आलोचना करो, कातिल को किस लिए सज़ा देना? आलोचना हर विषय की-हर व्यक्ति की होनी चाहिए. आलोचना से परे तो खुदा भी नहीं होना चाहिए तो जज क्या चीज़ हैं? पीछे एक इंटरव्यू देख रहा था. प्रसिद्ध वकील हैं 'हरीश साल्वे'. जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में भारत का पक्ष रखा था कुलभूषण जाधव के केस में. यह वही जाधव है जिसे पाकिस्तान ने जासूसी के आरोप में पकड़ा हुआ है. खैर, ये वकील साहेब बड़ी मजबूती से विरोध कर रहे थे उन लोगों का जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ़ महा-अभियोग लाया था. इनका कहना था कि ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए चूँकि इस तरह तो जजों की कोई इज्ज़त ही नहीं रहेगी. कोई भी कभी भी किसी भी जज पर ऊँगली उठा देगा. हरीश साल्वे जैसे लोग लोकतंत्र का सही मायना समझते ही नहीं. यहाँ भैये, सब सरकारी कर्मचारी जनता के सेवक हैं. जज तनख्वाह लेता है कि नहीं? किसके पैसे से? जनता के टैक्स से. फिर काहे वो जनता से ऊपर हो गया? जब एक जज की जजमेंट दूसरा जज पलट देता है तो वो क्या साबित करता है? यही न कि पहले वाले ने ठीक अक्ल नहीं लगाई? अगर जज इत्ते ही इमानदार है-समझदार हैं तो आज तक कोर्ट रूम में CCTV कैमरा क्यों नहीं लगवा दिए? साला पता लगे दुनिया को कि जज कैसे व्यवहार करते हैं-कैसे काम करते हैं. जज कम हैं, यह फैक्ट है लेकिन जितने हैं उनमें अधिकांश बकवास हैं, यह भी फैक्ट है. फुल attitude से भरे. जैसे आसमान से उतरे हों. शुरू के एक घंटे में पचीस-तीस लोगों को निपटा चुके होते हैं. एक केस का आर्डर लिखवाने में मात्र चंद सेकंड का समय लेते हैं. पूरी बात सुनते नहीं. गलत-शलत आर्डर लिखवा देते हैं. जनता को कीड़े-मकौड़े समझते हैं. डरते हैं कि फैसला ही न लिखना पड़ जाये. कहीं फैसले में इनसे कोई भयंकर बेवकूफी ही न हो जाये. चाहते हैं कि मामला पहले ही रफा-दफा हो जाये. जबरदस्ती Mediation में भेज देते हैं. 'डेली आर्डर' वादी-प्रतिवादी के सामने नहीं लिखते. बाद में लिखते हैं. सामने कुछ और बोलते हैं, लिखते कुछ और हैं. और इस लिखने में गलतियाँ कर जाते हैं जिसका खमियाज़ा केस लड़ने वालों को भुगतना पड़ता है. कभी भी बदतमीज़ी से बात करने लगते हैं. अपनी गलती की सज़ा केस लड़ने वाले को देते हैं. मेरा एक केस है तीस हज़ारी कोर्ट, दिल्ली में. जज ने मेरे opponent की प्रॉपर्टी का कब्ज़ा मुझे दिलवाने का आर्डर लिखना था लेकिन आर्डर में लिख दिया कि मुझे movable प्रोपर्टी का कब्ज़ा दिलवाया जाये. movable प्रोपर्टी होती हैं मेज़, कुर्सी, फ्रिज, टीवी आदि. जिनको लेने का मेरा कोई मतलब ही नहीं था चूँकि प्रॉपर्टी के बयाने का केस है, जिसमें मैंने बकाया रकम देनी है और प्रॉपर्टी लेनी है. अब जज साहेब को जब आर्डर अमेंड करने को लिखा तो चिढ़ गए हैं. खैर, आर्डर तो वो अमेंड कर देंगे लेकिन उनकी इस गलती की वजह से मेरे तीन महीने खराब हो चुके हैं. लेकिन उनका क्या गया? वो तो जज हैं. जज साहेब. इन्सान की तरह तो व्यवहार ही नहीं कर रहे होते जज साहेब. ऐसे काम करते हैं जैसे पूरी दुनिया के कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. अरे, भगवान नहीं हैं, वो. इसी करप्ट समाज की करप्ट पैदवार हैं. कोर्ट में मौजूद हर कारिन्दा रिश्वत ले रहा होता है तो यह कैसे मान लिया जाये कि जज साहेब अछूते होंगे? आपको पता है सुकरात को ज़हर पिलाया गया था उस समय की कोर्ट के फैसले के मुताबिक? जीसस को सूली भी कोर्ट ने लगवाई थी. 'जॉन ऑफ़ आर्क' नाम की लड़की को जिंदा जलवा दिया था कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उसे संत की उपाधि दी. और यह उपाधि कोई हिन्दू संत जैसी नहीं है कि पहना गेरुआ और हो गए संत. वहां बाकायदा वेटिकेन से घोषणा होती है. तब जा के किसी को संत माना जाता है. गलेलियो को बुढ़ापे में घुटनों के बल माफी मंगवा दी कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उससे भी बाकायदा माफी मांग ली है. भगत सिंह. किस ने फांसी दे उसे? कोर्ट ने भाई. आज आप भगत सिंह के नाम से ही इज्ज़त से भर जाते हो. तो मित्रवर, अक्ल की गुल-बत्ती को रोशन कीजिये और कोर्ट क्या-रेड फोर्ट क्या, सब पर सवाल उठाना सीखें. 'सवाल' उठाने से ज्यादा पवित्र शायद कुछ भी नहीं. यह वो आग है जो कूड़ा कचरा खुद ही जला देती है. सवाल उठाएं जजमेंट पर भी और जज साहेब के आचार-व्यवहार पर भी. जनतंत्र में जन से ऊपर कुछ भी नहीं. सारा निज़ाम उसकी सेवा के लिए है. लेकिन वो सेवा आपको यूँ ही नहीं मिलने वाली. आज आपका सेवक आपका मालिक बना बैठा है. सरकारी नौकर आपका नौकर नहीं है. वो नौकर ही नहीं है. वो जनता का जमाई राजा है. जम गया तो बस जम गया. अब उखाड़ लो क्या उखाड़ोगे उसका? अपना हक़ आपको छीनना पड़ेगा. लेकिन छीनोगे तो तब जब आपको पहले अपना हक़ पता हो. खैर, वो मैंने बता दिया है. अब आगे का काम आप करो. फैला दो इस लेख को जैसे हो जंगल में आग, शैम्पू की झाग. भाग मिल्खा भाग. नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday 30 March 2018

कानून और हम

वकील नहीं हूँ. प्रॉपर्टी बिज़नस का छोटा सा कारिन्दा हूँ. वक्त-हालात ने कोर्टों के चक्कर लगवाने थे-लगवा दिए. शुरू में बड़ी मुसीबत लगती थी, अब खेल जैसा लगता है. बहुत कुछ सिखा गया ज़िन्दगी का यह टुकड़ा. ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़ (Blessing in Disguise)...यानि छुपा हुआ वरदान. कानून व्यवस्था कैसे बेहतर हो-फायदेमंद हो - व्यक्ति और समाज दोनों के लिए? यही विषय है यहाँ .....तो चलिए मेरे साथ ....... 1) अगर आपके पास प्रॉपर्टी है तो 'रजिस्टर्ड वसीयत' ज़रूर करें अन्यथा बाद आपके लोग उस प्रॉपर्टी के लिए दशकों कोर्टों में लड़ते रहेंगे. और हो सके तो प्रॉपर्टी का विभाजन भी कर दें, मतलब किसको कौन सा फ्लोर मिलेगा, कौन सी दूकान मिलेगी, ज़मीन का कौन सा टुकड़ा मिलेगा. यकीन जानें, लाखों झगड़े सिर्फ इस वजह से हैं कोर्टों में चूँकि प्रॉपर्टी छोड़ने वाले ने यह सब तय नहीं किया. Partition Suit कहते हैं इनको. दशकों लटकते हैं ये भी. 2) कोर्ट में जो भी डॉक्यूमेंट दाखिल किये जाते हैं, वो एफिडेविट यानि हल्फिया-बयान यानि शपथ-पत्र के अतंर्गत दिए जाते हैं. इसे ओथ कमिश्नर से attest करवाने के बाद दाखिल किया जाता है. ध्यान रहे, कोई भी झूठा स्टेटमेंट कोर्ट को देना या नकली कागज़ात दाखिल करना पर्जरी/फोर्जरी (perjury/forgery) कहलाता है, जिस पर जेल भी हो सकती है. आपका प्रतिद्वंदी झूठा/ गलत केस थोपने के आरोप में आप पर वापिसी केस ठोक सकता है. कोर्ट केस को हल्के में न लें. यह आग से खेलने जैसा है. "ये केस नहीं आसां, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है." 3) ड्राफ्टिंग बहुत ही ध्यान मांगती है. बात-चीत के दौरान हम अपनी बात को कैसे भी एक्सप्लेन कर लेते हैं लेकिन जब उसी बात को लिखित में लाना हो तो बहुत ध्यान से करना होता है. एक गलत comma किसी इंसान की जान ले सकता है, किसी कम्पनी को करोड़ों का नुक्सान कर सकता है, आपके केस की किस्मत उलट-पुलट सकता है. गूगल करें, कई किस्से मिल जायेंगे. 4) आम-तौर पर वकील को दस से बीस हज़ार रुपये शुरू में दिए जाते हैं, फिर पांच सौ से दो हज़ार तक तारीख पे. मेरे ख्याल से, किसी भी केस को यदि जीतने जितनी मेहनत लगानी हो तो यह पैसे बहुत ही कम हैं. आम-जन चाहते हैं कि वकील पैसे भी कम ले और केस भी जितवा दे, जो कि लगभग असम्भव है. यकीन मानें, अपने विरोधी के सात पन्ने के दावे का जवाब तैयार किया है मैने. ड्राफ्टिंग के पचास पन्ने बने हैं और फिर कोई सवा सौ पन्नो की 18 जजमेंट हैं. कुल मिला कर 177 पन्ने. समय लगा अढाई महीने. अढाई महीने की तपस्या. कौन वकील दस-बीस हज़ार लेकर ऐसा कर सकता है? काम-चलाऊ पैसों में काम-चलाऊ काम ही तो मिलेगा. बाद में निकालते रहो, वकील को गालियाँ. अरे, भैया, खुद लड़ लेते न अपना केस. कानून हरेक को अपना केस खुद लड़ने की छूट देता है. मैं अपने केस खुद लड़ता हूँ. खुद लड़ो या फिर ढंग के पैसे खर्च करो. लेकिन ढंग के पैसे खर्च करने के बाद भी आपको अपना केस खुद पढ़ना चाहिए, आधा तो खुद ही लड़ना चाहिए, यह मैं कई बार लिख चुका हूँ. सौ प्रतिशत लड़ाई वकीलों पर छोड़ना, सौ प्रतिशत मूर्खता है. 5) बार-बार कहा जा रहा है, चीफ-जस्टिस तक ने कहा कि जजों की संख्या बहुत कम है, बढ़ाई जानी चाहिए. अभी तारीख दो-तीन महीने की दी जाती है, सिविल मैटर में. इसे यदि दस-पन्द्रह दिन तक लाया जाये तो केस बड़ी तेज़ी से निपटने लगेंगे. लेकिन उसके लिए जजों की संख्या चार गुना करनी होगी. क्या नहीं की जा सकती? की जा सकती है. लेकिन आपका आला नेता ऐसा चाहता ही नहीं. क्यों? ताकि खुद के काले कारनामों की सज़ा जीते जी न मिल सके. बस. कभी सुना आपने कि किसी नेता ने कहा तक हो कि वो न्याय-व्यवस्था में सुधार लाएगा? वादा तक नहीं किया किसी ने. चुनावी जुमला तक नहीं उछाला. 6) मेरा मानना है कि एक भ्रष्ट समाज का तकरीबन हर बाशिंदा-कारिन्दा सम्भवतः भ्रष्ट ही होगा. जजों के बारे में तो मैं ठीक से कुछ नहीं कह सकता, लेकिन कोर्ट-स्टाफ छोटी-मोटी रिश्वत खुल्ले-आम लेता है. फिर यह भी पढ़ा है कि कुछ बड़े केसों की फाइल गुम हो गईं, जल गईं. इंसानी गलती है... कभी भी, किसी से भी हो सकती है......नहीं? ऐसा न हो, तो कोर्ट परिसर के चप्पे-चप्पे में CCTV रिकॉर्डिंग होनी चाहिए. आपको अमेरिका के कोर्टों की प्रक्रिया youtube पर दिख जायेगी, यहाँ अभी तक कोर्ट-रूम में विडीयो कैमरा नहीं हैं. 7) अगला यह किया जा सकता ही कि आर्बिट्रेशन को बढ़ावा दिया जाये. अब यह क्या होती है? समझ लीजिये आर्बिट्रेशन मतलब 'प्राइवेट कोर्ट'. जज कौन होगा, यह अग्रीमेंट करने वाले लोग पहले से ही तय करते हैं. वो कोई भी हो सकता है. बस फैसला कानूनी विधा के अनुरूप ही दिया जाना होता है. तो कोई भी वकील या रिटायर्ड जज अक्सर आर्बिट्रेटर नियुक्त किये जाते हैं. सबसे बढ़िया है INDIAN COUNCIL OF ARBITRATION, : Room 112, Federation House, Tansen Marg, New Delhi, 110001,011 2371 9102 को आर्बिट्रेटर नियुक्त किया जाए. सरकारी संस्थान है. "बांगड़ सीमेंट सस्ता नहीं सबसे अच्छा." आर्बिट्रेशन की विडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए, अन्यथा बाद में हारने वाला पक्ष नंगे-पन की हद तक मुकर जाता है और आर्बिट्रेटर तक को कोर्ट में घसीट लेता है. मुल्क में आर्बिट्रेटरों की फ़ौज खड़ी की जा सकती है. यकीन जानें, प्रॉपर्टी-चेक बाउन्सिंग जैसे मैटर जो दशकों चलते हैं कोर्टों में, महीनों में निपट जायेंगे, वो भी बिना कोर्ट जाए. 8) बहुत केस मात्र इसी बात पर घिसटते रहते हैं कि कोई एक पार्टी कोर्ट में यही कहती रहती है कि उसे अलां-फलां नोटिस नहीं मिला या समय पर नहीं मिला. इसे बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है. आज प्रक्रिया यह है कि रजिस्टर्ड AD लैटर भेजा जाता है, जिसे पोस्टमैन रिसीव करवाता है. आलम यह है कि पोस्टमैन बेचारा बड़ा ही हकीर-फकीर सा कारिन्दा होता है इस निज़ाम का, सीढ़ी का सबसे निचला स्टेप, जो बड़े थोड़े से पैसों में बिक जाता है. आखिर दुनिया की चमक–दमक-धमक उसे भी लुभाती है. इस बे-ईमान दुनिया में जो ईमान-दार रहे, वो तूचिया साबित होता है अन्त-पन्त, यह उसे भी समझ आता है. फिर लैटर बंद होता है, बड़ी आसानी से कोर्ट में बका जा सकता है कि लिफाफा खाली था. मुझे याद है, कुछ सालों पहले तक रमेश नगर, दिल्ली डाक-खाना खुली RTI एप्लीकेशन ले लेता था. और उसकी कॉपी के हर पन्ने पर अपनी मोहर मार के देता था. यह था 'बेस्ट तरीका'. लेकिन सरकार को समझ आ गया कि जनता को बेस्ट सर्विस तो मिलनी ही नहीं चाहिए, सो यह ढंग जल्द ही बंद कर दिया गया. अब आप भेजते रहो RTI रजिस्टर्ड डाक से, घंटा नहीं परवा करता कोई. खैर, कोर्ट को शुरुआती नोटिस भेजने का जिम्मा भी खुद पर लेना चाहिए, जिसमें दस्ती का प्रावधान हो, भेजने वाला साथ खुद जा सके 'प्रोसेस सर्वर' के साथ, या फिर अपना कोई बन्दा भेज सके. उस विजिट की विडियो रिकॉर्डिंग हो. मसला हल. और RTI एप्लीकेशन लेने का ‘बेस्ट तरीका’ फिर से शुरू कर लेना चाहिए. इसके साथ ही 'तार/ टेलीग्राम' व्यवस्था भी फिर से शुरू की जा सकती है. कम से कम कानूनी नोटिस भेजने के लिए तो इसका उपयोग किया ही जा सकता है. E-post कुछ-कुछ इसका ही विकल्प है, लेकिन पोस्ट जिसे भेजी गई उसे मिली या नहीं, E-post यह सुनिश्चित नहीं करती. सो फिलहाल यह एक निकम्मी सर्विस है इस मामले में. लेकिन अगर E-post को रजिस्टर्ड भी कर दिया जाये तो कम से कम भेजे गए कंटेंट को चैलेंज करना मुश्किल होगा, बशर्ते रिसीव ठीक से हुई हो. 9) आपको पता है, पप्पू की शादी में विडियो रिकॉर्डिंग क्यों करवाई गयी थी? यादगार के लिए न. सही बात. लेकिन एक और बात है, और वो भी सही बात है. रिकॉर्डिंग इसलिए करवाई गई थी चूँकि वो एक कानूनी सबूत है. जी हां. समझ लीजिये, पूरी शादी ही कानूनी प्रक्रिया है. जो बाराती-घराती हैं, वो गवाह हैं और विडियो-रिकॉर्डिंग विडियो-एविडेंस है. कोई मुकर सकता है कि उसकी शादी ही नहीं हुई? न. आसान नहीं है. लगभग असम्भव. तो मल्लब यह कि आपको भी गवाह और विडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की अहमियत समझनी है. किसी को पैसा उधार दें-प्रॉपर्टी किराए पर दें, खरीदें-बेचें, तो हो सके तो सारी प्रक्रिया की ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग कर लें. बहुत काम आयेगी. आसान नहीं है मुकरना. कोर्ट पर भी केसों का वज़न कम पड़ेगा, अगर मसले वहां तक जाएँ ही नहीं. जब कच्चे-पक्के ढंग से कोई डील की जाती है तो डिफाल्टर पार्टी को मौका मिल जाता है डील को चैलेंज करने का और मसला सालों कोर्ट में खिंचता रहता है. तो इससे बचने के लिए पुख्ता ढंग से डील करें, आर्बिट्रेशन का क्लॉज़ हर अग्रीमेंट, हर डीड में डालें, ऑडियो-विडियो रिकॉर्डिंग करें. मज़बूत गवाहों की मौजूदगी में डील करें. ऐसे आप पर और कोर्ट पर केसों का बोझ कम पड़ेगा. 10) वैसे तो एक अच्छे समाज में पुलिस, कोर्ट, फ़ौज की मौजूदगी नाममात्र होनी चाहिए. इनका प्रयोग अपवाद के तौर पर होना चाहिए. लेकिन यह तब तक नहीं होगा जब तक निजी सम्पति का उन्मूलन नहीं होगा, परिवार के कंसेप्ट की विदाई नहीं होगी, मुल्कों की अर्थी नहीं निकलेगी. दिल्ली अभी बहुत-बहुत दूर है. लेकिन दिल्ली कितनी ही दूर हो कभी तो निकट भी होगी. कभी तो वहां पहुंच भी होगी. सो यह सब सुझाव बीच के समय के लिए है. अपने सुझाव दीजिये, स्वागत है. नमन.....तुषार कॉस्मिक