Monday 26 June 2017

क़ानूनी दांव पेंच-3

कानून का मसला ऐसा है कि हम भारतीय जो अनपढ़ हैं, वो तो अनपढ़ हैं हीं, जो पढ़े-लिखे हैं, वो भी अनपढ़ हैं. सो वकील पर विश्वास, अंध-विश्वास किया जाता है. और इसी का नाजायज़ फायदा उठाते हैं वकील. यह सिर्फ किताबी आदर्श है कि वकील केस जीतने में ही दिलचस्पी लेगा, इसलिए ताकि उसे प्रतिष्ठा मिले और वो और ज़्यादा काम पा सके. असलियत ऐसी बिलकुल नहीं है. लोग केस देते हैं, वकील का ऑफिस देख कर. लम्बी कतारों में रखी किताबें देख कर. और नौसीखिए असिस्टेंट वकीलों की भीड़ देख कर, जो मुफ्त या लगभग मुफ्त मिलते हैं. और घिसे वकील इस बात को भली-भांति समझते हैं. क्या लगता है आपको कि आपके वकील को आपको केस जितवाने में रूचि है? आप केस जीत गए, तो बड़ा फायदा आपका होगा, उसके लिए तो किस्सा खतम. एक वकील का लड़का विदेश से वकालत पढ़ के भारत लौटा था. बाप कहीं बाहर गया था. पीछे से बेटे ने केस हैंडल किये. बाप जैसे ही आया, बेटा ख़ुशी से चहकता हुआ बोला, "पिता जी जिन माता जी का केस आप पिछले दस बरस से हल नहीं कर पाए, वो मैंने मात्र दो डेट में खत्म करवा दिया." पिता ने मत्था पीट लिया. बोला, “जो तूने किया, वो मैं भी कर सकता था. उसी से फीस ले ले कर ही तुझे विदेश भेजा था. इडियट.” वकील कभी गारंटी लेता है, किसी केस को जितवाने की? कभी नहीं. और अगर आप हार भी गए, तो आपको पता कैसे लगेगा कि गलती आपके वकील थी कि नहीं? कोई लापरवाही आपके वकील की थी कि नहीं? कोई बेईमानी आपके वकील की थी कि नहीं? कैसे पता लगेगा आपको? आपकी खुद की तो कोई स्टडी है नहीं, अपने केस की. आप अपनी हार को बुरी किस्मत मान बैठोगे बस. असल में मामला बुरी किस्मत का नहीं, बुरी शिक्षा का है. आपको कानूनी शिक्षा का क.ख. ग. भी नहीं पढ़ाया गया और न आपने खुद पढने की कोशिश की. आपको लगा कि केस लड़ने का मतलब वकील को फीस देना भर है. आपको लगा कि आपको क्या ज़रूरत है, रातें काली करने की. वकील को पैसे दे दिए काफी है. वो करेगा, आपकी जगह रतजगा. वो फोड़ेगा किताबों में आँखें. वो करेगा यह सब, लेकिन अपना स्वार्थ भी देखेगा. वो खुद आपको कोम्प्रोमाईजिंग स्थिति में ला खड़ा करेगा. क्यूँ? ताकि आप कोम्प्रोमाईज़ करो और उसे कमीशन मिल सके. सोच के देखिये, उसे आपको केस जितवाने में, आपका केस निपटाने में फायदा है या केस लटकवाने में फायदा है. उसे आपको इन्साफ दिलवाने में फायदा है या आपका समझौता कराने में फायदा है. केस जीतेंगे आप तो बस फीस देंगे और शुक्रिया करेंगे. केस लटकेगा अगर और समझौता करेंगे आप तो वकील को फीस भी देंगे, समझौते की कमीशन भी देंगे और शुक्रिया भी करेंगे. बठिंडा में था मैं पीछे, जानकार वकील के पास बैठा था. अपने क्लाइंट का केस पिछले आठ बरस से जीत नहीं पाए थे वकील साहेब. बहुत उत्तेजित थे उस दिन लेकिन. क्यूँ? चूँकि आज समझौते तक ले जा चुके थे मामला. आज मोटा मुनाफा मिलना था. वो अनपढ़ क्लाइंट. मिला अकेले में तो रो रहा था वकील की जान को. आठ साल से केस लड़ रहे हैं. वकील का घर भर रहे हैं. अब समझौता हो रहा है, जितना हक़ था उससे आधा मिल रहा है, उसमें भी एक बड़ा हिस्सा वकील को जा रहा है. समझ सब रहा था, लेकिन कर कुछ भी नहीं पाया. फिर वही वकील कह रहा था कि वो कभी अपने प्रोफेशन से समझौता नहीं करता. वैरी गुड. जो तुम अपने केस में लापरवाही करते हो, जो जल्द-बाज़ी करते हो, जो आगा दौड़-पीछा चौड़ करते हो, जो अपनी चद्दर से बाहर पैर पसारने की कोशिश करे हो, वो क्या है? तुम्हें चिंता सिर्फ इस बात की है कि कैसे तुम्हारे पास ज़्यादा से ज़्यादा केस आयें और तुम अपनी काम-चलताऊ आधी-अधूरी नॉलेज से उन्हें जैसे-तैसे अटकाए रखो. किसी भी केस के लिए जो गहन स्टडी की ज़रूरत होती है, वो कब करते हो? बेईमानी नहीं यह सब तो और क्या है? तो मित्रगण जैसे विज्ञापन में दिखाई लडकी नहीं मिल जायेगी अगर पान मसाला खरीदोगे तो वैसे ही वकील के चेले-चांटे, उसका दफ्तर, उसकी रखी किताबें काम नहीं आयेंगी, काम आयेगी आपकी खुद की स्टडी. विश्वास करें लेकिन अंध-विश्वास नहीं. हर कदम खुद अपने केस को देखें. और ध्यान रहे ये जो वकील व्यस्त नज़र आयें आपको बहुत ज़्यादा, तो उनसे दूर ही रहना. यह मत सोचना कि ये लोग व्यस्त हैं तो निश्चित ही अपने काम के माहिर होंगे और इनकी महारत आपके भी काम आयेगी. नहीं आयेगी. ये असली व्यस्त हो सकते हैं, नकली व्यस्त हो सकते हैं, ये माहिर हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. बाज़ार में नकली सिक्के भी चल निकलते हैं कई बार. जब Dhinchak पूजा चल सकती है तो कोई भी चल सकता है. तो बन्दा/ बंदी वो पकड़ो भाई लोग, जिस के पास आपके लिए समय हो. महारत देख लो जितनी देख सकते हो लेकिन पहले समय देखो कि समय उसके पास है कि नहीं आपके लिए. अगर नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की महारत भी आपके तो काम आने वाली है नहीं. जिसके पास आपकी बात सुनने का समय नहीं, वो आपका काम क्या खाक करेगा. जो एक ही समय में दस काम करता है, वो कोई भी काम सही से नहीं करता है. याद रखें वकील आपका एम्प्लोयी है, जब मर्ज़ी उसे विदा कर सकते हैं आप. समझौते के लिए नहीं, जीतने के लिए लड़ें, अगर आपका हक़ है तो. जब आप केस लड़ते हैं तो अपने विरोधी के खिलाफ ही नहीं, अपने खुद के वकील और जज के खिलाफ भी लड़ते हैं. छिद्र छोडेंगे तो कोई भी फायदा उठाएगा. कमज़ोर जानवर पर गिद्ध सबसे पहले झपटते हैं. याद रखियेगा. नमन...तुषार कॉस्मिक.

Sunday 25 June 2017

हमारी लखनऊ यात्रा

एक ऑफर था विवादित सम्पत्ति का, सो जाना हो गया. जाना अकेले ही था. टिकेट भी अकेले की बुक कर चुका था, लेकिन फिर लगा कि छुट्टियाँ हैं ही बच्चों की, तो साथ ले चलता हूँ. श्रीमति जी विरोध कर रही थीं कि गर्मी है, मात्र दो दिन का स्टे है वहां, इतने के लिए बच्चों को क्या ले जाना. मैंने जिद्द की. कहा कि चलो एक से भले दो. जिस डील के लिए जाना है, वहां उनकी भी राय शामिल हो जाती, फिर सपरिवार गए बंदे को निश्चित ही ज़्यादा क्रेडिबिलिटी मिलती है. खैर, अब उनकी टिकेट भी बुक कर दीं. जाने से मात्र तीन दिन पहले सब तय हुआ तो कोई ढंग की बुकिंग नहीं मिली. सब तरफ लम्बी वेटिंग लिस्ट थी. बुकिंग मिली गोमती एक्सप्रेस की. कैब लेकर नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचे. श्रीमति जी को कहा था कि कम से कम एक घंटा पहले पहुँच जाएं, इस हिसाब से घर से निकला जाए. वहां वेट कर लेंगे, लेकिन ट्रेन मिस नहीं होनी चाहिए. बावज़ूद इसके, मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे और हम पहाड़-गंज तक ही पहुँच पाए थे. मैं लड़ने लगा. श्रीमति घबरा गईं, लेकिन जैसे-तैसे हम नई दिल्ली स्टेशन तक पहुँच ही गए टाइम से पहले. फटाफट उतरे कैब से. सामान खुद उठाया सबने और भागे. प्लेटफार्म नम्बर कुली से पता किया और भागते-भागते ट्रेन तक पहुँच ही गए. हमारी सीट पर पहले ही एक अंकल-आंटी विराजमान थे. उठने को राज़ी न हों और मैं कैसे छोड़ दूं सीट? लम्बा सफर, साथ में बच्चे. गरज पड़ा. सीट छोड़नी पड़ी उनको. खैर, किन्ही और दरिया-दिल लोगों ने उनको एडजस्ट किया. ऐसे दरिया-दिल खुद ज्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले होते हैं.शायद बिना टिकट वाले भी. ट्रेन राईट टाइम थी. बैठते ही चल पड़ी. अब यह जो सफर था, बहुत ही सफरिंग साबित हुआ. बदबू थी, गर्मी थी. रिजर्वेशन को धत्ता बताती भीड़ थी. भारतीय रेल की बेहतरीन मिसाल थी. ट्रेन सिर्फ ट्रेन नहीं होती, एक बाज़ार भी होती है, जहाँ हर थोड़ी देर बाद चने, मूंगफली, नकली बोतलबंद पानी, पानी जैसी चाय, दुआ-प्रार्थना बेचने वाले गुजरते हैं. रेला-मेला लगा रहता है. एक आता है, दूसरा जाता है.वाह! जीवन का सत्य. एक आता है, दूसरा जाता है. आना-जाना लगा रहता है इन्सान का. "आदमी मुसाफिर है, आता है, जाता है, आते जाते रस्ते में, यादें छोड़ जाता है." गूगल कीजिये, यह गाना आपको मिल जाएगा. प्रभु, सुरेश प्रभु जी की कृपा से हम पहुँच ही गए लखनऊ. फॅमिली को छोड़ा स्टेशन पर और खुद निकला होटल ढूँढने. मुझे पहले से ही काफी तजुर्बा है इस सबका. कभी फॅमिली को साथ लिए-लिए नहीं डोलना चाहिए होटल लेना हो तो. यह कुछ मेहनत का काम साबित हो सकता है. बाहर निकलते ही एक रिक्शा वाले से रस्ता पूछा होटलों का. उसने कहा कि वो छोड़ देगा. मैंने कहा कि मैं सिर्फ रास्ता पूछ रहा हूँ. उसने कहा कि मात्र दस रुपये लेगा और छोड़ देगा. मैंने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं कहीं भी उसे साथ नहीं लेकर जाऊंगा होटल में, होटल के बाहर भी नहीं रुकने दूंगा, पचास कदम दूर छोडूंगा और फिर देखने जाऊंगा खुद. उसने मुंह बना लिया. अब लगा रस्ता बताने सड़ कर. मैंने कहा कि मैं तो पहले ही रास्ता ही पूछ रहा था. कुछ कदम चला, एक और रिक्शा वाले से रास्ता पूछा तो उसने भी पहुँचाने की सेवा हाज़िर की, मात्र दस रुपये में. मैं बैठ गया. पहले होटल पहुंचा तो मैंने कहा रिक्शा वाले को कि दूर रहना. अंदर गया. मामला नहीं जमा. वापिस आ कर देखा तो रिक्शा वाला गेट पर खड़ा था. मैंने उसे कहा कि मना किया था कि साथ नहीं आना. खैर अगले होटल को ले गया वो. अब मैंने सख्ती से कहा कि मेरे साथ नहीं आना, हाँ, दस रुपये से ज़्यादा दूंगा अगर मैंने लिया कोई कमरा तो. वो मुंह सा बनाता रहा. मैं गया और लौट आया. लेकिन अब रिक्शा वाला समझ चुका था कि दाल नहीं गलने वाली, कमीशन नहीं मिलने वाली. गुस्से में बोला कि मेरे पैसे दे दो. मैंने दस रुपये दे दिए. वो उड़ता बना और मैं चलता बना. मेरे बला से. भाड़ में जा. चार-पांच होटल देखने के बाद ‘होटल मिडास’ फाइनल हो गया. सब्ज मंडी, चार बाग़. AC कमरा. तीन दिन के लिए. वैसे ही कमरे के पीछे दोगुने पैसे मांग रहे थे. फॅमिली ले आया. थके थे. करीब रात बारह बज चुके थे. फिर भी हाथ-मुंह धो घूमने निकले. नीचे बाज़ार लगभग बंद थी. इक्का-दुक्का दूकान खुली. थोड़ा खा-पी के वापिस. जिनके साथ प्रॉपर्टी डील की मीटिंग थी उनको अगली सुबह नौ बजे का समय दे दिया था. वो साढ़े नौ बजे तक आये. हम सब तैयार हो पहले ही रिसेप्शन पर मौजूद थे. तकरीबन आधा घंटा लगे रहे कि ओला-उबेर की कोई कैब आ जाए. बुक तो हो गई, लेकिन पहुँची कोई भी नहीं. आखिर मेरे अकेले का ही उनके साथ जाना तय हुआ उनके साथ. उनके पास एक कार तो थी ही, जिसमें एक सीट उन्होंने मेरे लिए पहले ही रख़ छोड़ी थी. वो लोग पहले मुझे प्रॉपर्टी दिखाने ले गए. दोतरफा चलते मेन रोड़ की ज़मीन, कोई तीन हज़ार गज से ज़्यादा. लोकेशन और साइज़ के मुताबिक मुझे मामला जम गया. वहीं पास में कोर्ट था. कोर्ट-रूम पुरानी किताबों में से निकला लग रहा था. AC छोड़ो, कूलर तक नहीं था वहां. कोई तीस फीट ऊँची छत से ये लम्बे पाइप के सहारे लटके बाबा आदम के जमाने के पंखे अपनी कानूनी ड्यूटी निभा रहे थे जैसे-तैसे. कोर्ट ‘रूम’ क्या था, किसी खेल का मैदान था. खूब बड़ा. एक तरफ लकड़ी का बड़ा सा कटघरा बना था, जिसमें कई कैदी ज़मीन पर बैठे थे. छत से ईंटे झांक रहीं थी. जज साहेब के लिए बने चबूतरे का पलस्तर जाने कब का झड़ चुका था. रोशनी के लिए जज साहेब के सर एक तरफ नई पीढ़ी का LED बल्ब लटका था, तो दूसरी तरफ पुरातन पीढ़ी का पीला लट्टू. नए-पुराने का समन्वय बना रखा था. पूरा माहौल मायूस था. मुझे लगा कि जैसे दिल्ली में दस बजे कोर्ट शुरू होते हैं, वैसा ही वहां भी होगा, लेकिन बारह बजे तक भी जज साहेब सीट पर नहीं थे. शायद एक दौर चल चुका हो. पता नहीं लेकिन. फिर कुछ ही समय में वकील लोग उनके टेबल के सामने जमा होने लगे. “साहेब आ रहे हैं”, कर्मचारी चिल्लाया. सब खड़े हुए. फिर साहेब के बैठते ही बैठ गए. “जज की न सही, कानून की इज्ज़त कर लो भाई” डायलॉग याद आ गया ‘जॉली एल-एल-बी’ फिल्म का. अगर उठक-बैठक लगाने से इज्ज़त होती है, तो यहाँ इज्ज़त थी. मेरे वाली पार्टी का नम्बर आया, लेकिन फिर लंच बाद पर चला गया. वो लोग मुझे कोर्ट रूम से बाहर ले आये. किसी पूड़ी-छोले वाले की दुकान पे. अभी बैठे भी नहीं थे कि धम्म से चार पूड़ी, छोले, अचार और प्याज़ पटक दिया गया. गर्मी में गर्म-गर्म खाना. खाना तो नहीं था, लेकिन सोचने का मौका भी नहीं मिला, खाना पड़ा. क्वालिटी में कोई कमी नहीं थी. मैं हैरान रह गया कि वो मात्र बीस रुपये में ये सब कैसे दे रहे थे! लेकिन खूब बिक रहा था तो सूट करता होगा इस भाव बेचना. वापिस कोर्ट रूम पहुंचे. साहेब फिर से आये. फिर से उठक-बैठक हुई. यह उठक-बैठक की रवायात गुरूद्वारे में भी होती है. मंगल ग्रह पर पानी खोजने की साथ ही इज्ज़त दिखाने का कोई और आसान तरीका भी खोजना चाहिए. खैर, मेरी पार्टी को पन्द्रह दिन बाद की डेट दी गई. वो लोग मुझे वापिस होटल छोड़ गए. आगे “आपसी अग्रीमेंट” की जुबानी सहमति मैंने दे दी. कोई तीन बजने को थे. बीवी-बच्चे चाहते थे कि अभी घूमने निकला जाए. मैं चाहता था कि जिस काम के लिए ख़ास कर के आये थे, उसकी जो भी इनफार्मेशन दिमाग में थी, अभी उस पर ही विचार किया जाए. अभी उस मेमरी में कुछ और मेमोरी मिक्स न की जाए. थोड़ा आराम किया जाए. सोने का असफल प्रयास किया. कोई दो घंटे बाद निकलना चाहा लेकिन अब छोटी बेटी जिद्द पकड़ गई कि दूध पीना है. बीवी कहें कि दूध पीते ही ये सो जायेगी. कहाँ उठा-उठा घूमेंगे? लेकिन वो न मानी. दूध मंगाया, इस शर्त पर कि सोयेगी नहीं. हम निकल पड़े. 'टुंडा कबाबी' चौक. 'प्रकाश कुल्फी'. “कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं”, लिखा था. सही बात है. सबको पता है. लेकिन उनके इस कथन के पीछे मन्तव्य यह बताना नहीं था कि कुल्फी कुल्फी होती है, आइस-क्रीम नहीं होती. मन्तव्य था कि कुल्फी का वजूद आइस-क्रीम से अलग तो है ही, उससे कम भी नहीं है. मैं सहमत हूँ उनके कथन से. और उनकी कुल्फी मजेदार भी थीं. मात्र पचास रुपये में ठीक-ठाक क्वांटिटी. एक प्लेट में थोड़ा नमकीन फ्लेवर आ गया, शिकायत देते ही बदल दी गई. यही बढ़िया दूकान-दारी की निशानी है. ऐसी दूकान-दारी पाने की अपेक्षा हर कोई करता है, लेकिन देने की कोई-कोई सोचता है. थ्री इडियट्स का डायलॉग है, " स्तन सबके पास होता है, देता कोई नहीं?" बस वैसा ही कुछ. कुहू ने वायदा निभाया, जहाँ तक उससे हो सका. अब बाहर निकलते ही वो सो गई. उसे गोदी उठाये टुंडा कबाबी तक गए. बिलकुल जामा मस्ज़िद, दिल्ली के करीम होटल का माहौल. हम मांस नहीं खाते, बस देखने गए थे. बाहर निकल शाकाहारी खाने की जगह पूछी किसी से, तो उसने दुर्गमा होटल बताया, वहां पहुंचे लेकिन जमा नहीं देखने से ही, वापिस अपने होटल आ गए. खाना मंगाया. सिरे का बकवास. दाल-मक्खनी का नास किया हुआ था. छोलों में नमक कम. दिन में बच्चों ने चाइनीज़ वहीं से खाया था, उनको ठीक लगा तो उम्मीद थी कि अभी भी खाना ठीक ही होगा. बेशक उम्मीद पर ज़माना कायम है लेकिन हर उम्मीद खरी कहाँ उतरती है? अगली सुबह तैयार हो कर कोई दस बजे रिसेप्शन पर पहुंचे. लखनऊ दर्शन के लिए अपने होटल के ज़रिये गाड़ी मंगाई. ११०० रुपये तय हुए. बकवास गाड़ी. AC चल तो रहा था, लेकिन न चलने जैसा. इमामबाड़ा ले गया वो, लेकिन वहां नमाज़ चल रही थी तो बताया गया कि शाम को अंदर जाने देंगे. कैसा ड्राईवर था, जिसे यह नहीं पता था कि कब कहाँ नहीं जाना चाहिए! खैर, जनेश्वर मिश्र पार्क पहुंचे. कुछ भी खास नहीं. जैसे आपके घर के पास वाले किसी साफ़-सुथरे पार्क को बहुत बड़ा कर दिया गया हो. बीवी अपना हैण्ड-बैग एक बेंच पर भूल गईं. लेकिन भीड़ तो थी ही नहीं. सो वापिस मिल गया. अंदर कुछ था ही नहीं देखने जैसा, जैसे घुसे थे, वैसे ही लौट आये. अब पहुंचे समता पार्क. यहाँ सिर्फ ग्रेनाइट थोपा गया था. यहाँ भी देखने जैसा कुछ नहीं था. ऊपर से सूरज देव अपनी फुल कृपा बरसा रहे थे. वापिस निकले. टैक्सी ड्राईवर कह रहा था कि पहला पार्क अखिलेश यादव ने बनवाया था, दूसरा मायावती ने बनवा दिया. इतने पैसों में कोई फैक्ट्री लगवा देते तो लोगों को रोज़गार ही मिल जाता. मैंने कहा कि अब तीसरा पार्क योगी जी बनवा देंगे. उसने कहा कि अब जगह ही नहीं बची. मैंने कहा कि जगह का क्या है, वो तो दाएं-बाएं पैदा कर ली जायेगी. उसने कहा कि हो सकता है, कुछ भी हो सकता है. बड़े लोग हैं. अब वो Residency ले गया. यह जगह सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई से सम्बन्धित है. बस खंडहर हैं. दीवारें और उन पर गोलियों के निशाँ. अंदर एक म्यूजियम था, लेकिन शुक्रवार था तो बंद था. लौटे तो ‘शहीद स्मारक स्थल’ पहुंचे. गोमती नदी के किनारे बना है. गोमती को अब नदी कहना गलत है, यह एक नाला है, जैसे यमुना. रेंगती हुई, नाला-नुमा नदियाँ. इन्सान के चरणों में जीवन की भीख मांगती हुई नदियाँ. बेचारी नदियाँ. वो नदियाँ जिनके किनारे इन्सान ने घर बसाए, जिन्होंने इन्सान को जीवन दिया. अब उन्हीं नदियों का जीवन इन्सान ने छीन लिया है. शहीद स्मारक स्थल मुझे शहीदों का सम्मान कम और अपमान ज़्यादा लगता है, जनेश्वर मिश्र पार्क और मायावती के समता पार्क के मुकाबले में देखता हूँ तो. इसके ठीक दस-पन्द्रह फीट पीछे गोमती नदी से निकले कूड़े का ढेर था. वापिस आये तो श्रीमति ने ड्राईवर को कहा कि गोमती किनारे कोई हनुमान मंदिर है, वहां ले चलो. वो ले तो गया, लेकिन फिर कहने लगा कि अभी मंदिर बंद होगा. सो बस मंदिर की शक्ल दिखा दी चलती गाड़ी में से. कैसा ड्राईवर था और कैसे ट्रिप मेनेजर थे! कौन सी जगह कब खुलेगी, उसके मुताबिक ट्रिप तक नहीं घड़ सके! अब उसने कहा कि साठ किलोमीटर ही चलना था, और वो अब पूरे होने वाले थे, सो वापिस छोड़ सकता था बस. मैंने कहा कि कैसे पता कि साठ किलोमीटर हो गए. उसने मीटर दिखा दिया. मैंने कहा कि जब चले थे, तब तो नहीं दिखाया मीटर, ऐसे क्या पता लगता है. कोई जवाब नहीं था. वापिस चलने लगा वो. रास्ते में एक चिकन वर्क की कपड़े की दूकान पर खुद ही रोक दिया. लगा कोशिश करने कि हम घुस भर जाएँ दूकान में. मैंने कहा कि हमने नहीं लेना कुछ और नहीं देखना कुछ. हार के उसे माननी पड़ी मेरी बात. अपनी कमीशन के चक्कर में था बस. इडियट. ग्यारह सौ रुपये के मुताबिक सर्विस नदारद थी. मैंने कहा कि हज़रत गंज छोड़ दो. वहां उतरे हम तो पैसे मांगने लगा जबकि होटल वाले ने पहले ही कहा था कि पैसे होटल वापिस पहुँच देने हैं. जिद्द करता रहा, लेकिन फिर मान गया. हज़रत-गंज कुछ-कुछ दिल्ली के कनाट-प्लेस जैसा है. घूमते-घामते हम ‘मोती महल रेस्तरां’ पहुँच गए. खाना बढ़िया, हमारी उम्मीद से बेहतर. दाम भी सही. बाहर निकले तो दो रिक्शा तय हुए इमामबाड़ों के लिए साठ रुपयों में, लेकिन फिर वो भी जिद्द करने लगे चिकन वर्क की दुकानों पर ले जाने की. मैंने मना किया लेकिन माने ही नहीं वो. हमने दोनों रिक्शा छोड़ दिए. मैं मन ही मन उनको कोसने लगा. पता नहीं क्या समझते हैं? जैसे हमारे सर पर सींग हैं. बड़ी मुश्किल एक ऑटो मिला. दो सौ रूपये में तय हुआ कि इमामबाड़ा और साथ लगते Monument दिखा देगा. मैंने कहा कि अढाई सौ दूंगा, ठीक से दिखा दे बस. मान गया. बड़े इमामबाड़ा में एंट्री हुई. आर्किटेक्चर, बिल्डिंग बढ़िया दिख रही थी. लेकिन जूते तक रखवाने के पैसे लिए जा रहे थे. मैं गुरूद्वारे याद करने लगा. वहां गरीब-अमीर सब जूतों की सेवा देते हैं, जूते साफ़ करते हैं, निशुल्क. ‘गाइड’ मुझे गाइड के साथ ‘मिस-गाइड’ भी लगा. कहानियाँ कहे जा रहा था लेकिन अपनी धारणाएं भी बता रहा था, जिन पर मैं असहमति दिखा सकता था, लेकिन उस वक्त गाइड वो था, सो बहस नहीं की. भूल-भूलैया मुझे पहली बार में ही कुछ तो याद हो गया. ख़ास नहीं लगा. हां, अंदर हाल में इको सिस्टम खूब बढ़िया बनाया गया था. लाउड स्पीकर से पहले की ईजाद. छोटा इमामबाड़ा. आर्किटेक्चर. बिल्डिंग. और पैसा ऐंठते लोग. जूते रखने के पैसे, अंदर दिखाने, समझाने के पैसे. रूमी दरवाज़ा. यह मुझे खूबसूरत लगा. ये बड़ा. दिल्ली में भी गेट बने हैं , लेकिन ऐसा एक भी नहीं. घंटा-घर. यह भी सुन्दर है लेकिन क्रिकेट खेला जा रहा था उसकी दीवार के सहारे. हेरिटेज बिल्डिंग तक की औकात नहीं मिली थी उसे. शाम के छह बजे थे और घडियाल साढ़े दस दिखा रहा था. अब ऑटो वाले भैया जी, हमें चिकन वर्क की दूकान ले गए. शाम हो चुकी थी. कोई दिलचस्पी नहीं थी. लेकिन चले गए. हमारी बला से. बड़ी दूकान. कई वर्कर. सब पलक-पावड़े बिछाए. उलटे-सीधे रेट. बकवास. फिर भी मेरे लिए एक कुरता ले लिया. बार्गेन करके. वापिस पहुँच गए अपने ठिकाने. अगली सुबह वापिसी थी. पैकिंग करते-कराते एक बज गया. सुबह चार बजे उठ गए. सामान उठाया, बिल दिया और स्टेशन पहुंचे. पूछ-ताछ वाले सब मौजूद थे केबिन में लेकिन कोई सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था. Literally मुंह उलटी दिशा में कर के बैठे थे. स्टेशन पर गन्दगी थी. कूड़े से भरी रेहड़ी ऐसे ही छोड़ रखी थी. रेल लाइन पर टट्टियाँ बिखरी पडीं थी. ट्रेन छह बजे के करीब चल पड़ी. सीट रिज़र्व थीं. लेकिन थोड़ा चलते ही भीड़ से बुरा हाल हो गया. ज़्यादातर बिना रिजर्वेशन वाले. लोग सामान रखने की जाली तक पे सोये हुए. टॉयलेट सीट घेर बैठे हुए. रास्ते सब भर गए. टॉयलेट तो जा ही नहीं सकते इतनी भीड़. हमारे पास बस यही सुविधा थी कि हमारी सीट रिज़र्व थीं, जिन्हें घेर हम बैठे थे. लेकिन बावजूद इसके लड़ना पड़ रहा था. लोग ऊपर गिरे जा रहे थे. पहुँच गए दिल्ली. शुक्रिया भारतीय रेल. ऑटो वाले को पूछा तो एक ने मना कर दिया. एक ने दोगुना पैसे मांगे. मुझे इनसे यही उम्मीद थी. फिर कहते हैं कि कैब ने इनका काम खा लिया. खा ही लेना चाहिए, बचा-खुचा भी, ये हैं ही इसी लायक. कैब मंगाई और घर वापिस. कुछ नतीजे निकाले मैंने अपनी यात्रा के. हाज़िर हैं. 1. मात्र सीट रिज़र्व कराना काफी नहीं है. अगर डिब्बा AC नहीं है तो बुकिंग वाला डिब्बा भी थर्ड क्लास की तरह ही प्रयोग होता है. और ऐसा जान-बूझ कर किया गया है. सरकार को पता सब है कि लेकिन इसकी मंशा है कि भारत की बेतहाशा जनता को जैसे-तैसे सफर करने दिया जाए. अँगरेज़ लिखते थे कि भारतीय और कुते उनके डिब्बों में न चढ़ें. गुस्सा आता है भारतीय को कि उसे कुत्तों के समकक्ष रख दिया. अब क्या किया जा रहा है? खुल के कुत्ता नहीं लिखा लकिन भेड़-बकरियों की तरह तो ठूंसा जा रहा है. बिना रिजर्वेशन वाला कहीं भी चढ़ रहा है, कोई रोकने वाला नहीं. ट्रेन में लड़ाई हो जाए, कोई पुलिस वाला नहीं. सफाई नहीं हो रही, टॉयलेट गंधा रहे हैं, कोई देखने वाला नहीं. टिकट ली-नहीं ली, कोई चेक करने वाला नहीं. यह सब क्या है? सरकार अव्यवस्था खुद चाहती है. वोट जो लेना है गरीब जनता से, तो चलने दो गाड़ी बस. 2. जो भी होटल लें, पहले से पूछें कि बत्ती जायेगी तो क्या इंतेज़ाम है. AC चलेगा या बंद होगा. हमारे होटल में जनरेटर तो था लेकिन AC नहीं चलता था उससे. बहुत दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन हो सकती थी, होटल बदलना पड़ सकता था. 3. कहीं पढ़ा था कि उत्तर प्रदेश ने सबसे ज़्यादा प्रधान-मंत्री दिए भारत को, लेकिन इनमें से कोई भी अपने प्रदेश को विकास नहीं दे पाया. यह मैंने साक्षात् देखा. दिल्ली में बत्ती न के बराबर जाती है, वहां बार-बार जा रही थी. दिल्ली को गंदा मानता हूँ. दिल्ली से साफ़ मुझे बठिंडा लगता है. लेकिन लखनऊ दिल्ली से ज़्यादा गंदा लगा. 'अक्षर-धाम दिल्ली' में शाम को वाटर प्ले होता है. एक पूल के सब और लोग बिठाल दिए जाते हैं. फिर म्यूजिक के साथ अलग-अलग फव्वारे नाचते हैं. रंगीन लाइटों, साउंड और पानी का खेला. लखनऊ घंटा-घर के ठीक साथ ऐसा ही एक स्थल बनाया गया है. सुन्दर बना है, लेकिन धूल खा रहा है, जाने कब चालू करेंगे? जनता के पैसे का सत्य-नास. 4. घर से चलते हुए मैंने अपने लिए साइड बैग लिया था. सबको कहा कि साइड बैग उठा लें. बड़ी बिटिया ने ले लिया. श्रीमति को मेरी सलाह खास न लगी. वहां जब जनेश्वर पार्क में बैग खो दिया, तो मैंने याद दिलाया कि साइड बैग लेने को कहा था मैंने. इसलिए कहा था कि वो शरीर का हिस्सा बन जाता है. आपका एक हाथ बंधा नहीं रहता उसे सम्भालने को. यह टशन नहीं, ज़रुरत है. मुझे स्त्रियों का ऊंची हील पहनना, मुंह पर बहुत रंग-रोगन लगाना और हैण्ड-बैग उठाना समझ नहीं आता. मेरे मशवरे पर आप भी गौर कर सकते हैं. 5. जब जाना था तो बड़ी बेटी को उसके किसी मित्र ने बताया कि लखनऊ की तहज़ीब बहुत बढ़िया है. वापिस आये तो बिटिया का नतीजा था कि 'लीजियेगा, दीजियेगा, कीजियेगा' से ही गर तहज़ीब तय होती है तो निश्चित ही वहां की तहज़ीब बेहतर है लेकिन तहज़ीब मात्र भाषा में ही नहीं, व्यवहार में-कंडक्ट में भी होनी चाहिए. भाषा मात्र की तहज़ीब तो खतरनाक है, धोखा दे सकती है, इसका बहुत फायदा नहीं है. मैंने कहा कि इन्सान सब जगह एक सा होता है. वो अपनी ज़रूरतों और स्वार्थों के हिसाब से जीता है. लखनवी या किसी भी और तहज़ीब से ज़्यादा अपेक्षा करना ही गलत है. इतना ही काफ़ी है कि लखनवी लोग शब्दों के हरियाणवी लट्ठ नहीं मारते. क्या ख्याल है आपका? नमन....तुषार कॉस्मिक

Saturday 24 June 2017

किताब -- वरदान या अभिशाप

किताबें ज्ञान का दीपक हैं.....ह्म्म्म....

इतिहास उठा कर देखो,,,,,किताबों के ज़रिये  ही सबसे ज़्यादा बड़ा गर्क किया गया है दुनिया का........किताबें, जो बहुत ही पवित्र मानीं गयीं. आसमानी, नूरानी. इलाही.

इन किताबों के  पीछे कत्ल करता रहा इंसान, तबाही बरसाता रहा इंसान. उसके पास पवित्र मंसूबे रहे हर दम....कोई सवाल भी उठाये तो कैसे? उसने दुनिया का हर जुल्म इन किताबों की पीछे रह कर किया.......किताब का क्या कसूर? अब तुम चाकू से किसी का पेट चाक कर दो या फिर नारियल काट, पेट भर दो..........तुम्हारी मर्ज़ी.

किताब की ईजाद इंसान को चार कदम आगे ले गई तो शायद आठ कदम  कहीं पीछे ले गई......डार्विन ने कहा ज़रूर कि इंसान बन्दर का सुधरा रूप है लेकिन जैसे ही किताब आई,  इंसान बंदरों के मुकाबले  सदियों पीछे गिर गया, गिरता गया.

हर ईजाद खतरनाक हो सकती है और फायदेमंद भी.......कहते हैं बन्दर के हाथ में उस्तरा दो तो ख़ुद को ही लहुलुहान कर लेगा.....उस्तरे से ज़्यादा नुक्सान पूँछ झड़े बन्दर के हाथ में किताब के आने से हुआ है.

इंसान चंद किताबों का, ख़ास मानी गई किताबों का गुलाम हो गया और अपनी अगली पीढ़ियों को इन किताबों की गुलामी देता गया है.

अब आप इन महान किताबों के खिलाफ सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते.....इन किताबों के हिसाब से ही आपको जीना होगा. आपको इनकी गुलामी स्वीकार करनी ही होगी...वरना आपको कत्ल कर दिया जाएगा....या फिर घुट-घुट के मरते-मरते जीते रहना  होगा.

ये किताबें ग्रन्थ बन गईं.  इंसान के जीवन  की ग्रन्थियां बन गईं.  ग्रन्थियों जिनमें उलझ कर रह गया इंसान

जब तक इंसान किताबों को पवित्र मानना नहीं छोड़ेगा, तब तक इन्हीं ग्रन्थियों में उलझा रहेगा. जब  तक यह नहीं समझेगा कि  किताब कोई भी हो, यदि उस पर सही-गलत सोचने का हक़ ही नहीं दिया जाता तो वो  बेकार है......यदि उसके ज़रिये इंसान की सोच-विचार करने की आजादी पर ही अंकुश लगाया जाता है तो वो किताब बेकार है. 

इंसान की अक्ल को गुलाम बनाने का हक़ किसी को नहीं, भगवान  को भी नहीं.

किसी भी किताब को मात्र एक सलाह मानना चाहिए, मश्वरा. सजेशन. सर पर उठाने की ज़रुरत नहीं है, पूजा करने की ज़रुरत नहीं है..... किताबें मात्र किताबें हैं.....उनमें बहुत कुछ सही हो सकता है, बहुत कुछ गलत भी हो सकता है, आज शेक्सपियर को हम कितना ही पढ़ते हों....पागल थोड़ा हो जाते है उनके लिए, मार काट थोड़ा ही मचाते हैं...और शेक्सपियर, कालिदास, प्रेम चंद सबकी प्रशंसा करते हैं तो आलोचना भी करते हैं खुल कर.....है कि नहीं?

यही रुख चाहिए सब किताबों के प्रति......एक खुला नजरिया.....चाहे गीता हो, चाहे शास्त्र, चाहे कुरआन, चाहे पुराण, चाहे कोई सा ही ग्रन्थ हो.

लेकिन ग्रन्थ इंसान के सर चढ़ गए हैं...ग्रन्थ इंसान का मत्था खराब करे बैठे हैं.

इनको मात्र किताब ही रहने दें.....ग्रन्थ तक का ओहदा ठीक नहीं.

'ग्रन्थ' शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मात्र इतना है कि पन्नों को धागे की गाँठ से बांधा गया है...धागे की ग्रन्थियां.

लेकिन आज यह शब्द एक अलग तरह का वज़न लिए है...ऐसी किताबें जिनके आगे इंसान सिर्फ़ नत-मस्तक ही हो सकता है...जिनको सिर्फ "हाँ" ही कर सकता है....तुच्छ इंसान की औकात ही नहीं कि वो इन ग्रन्थों में अगर कुछ ठीक न लगे तो "न" भी बोल भी सके...ये ग्रन्थ कभी गलत नहीं होते...इंसान ही गलत होते हैं, जो इनको गलत कहें, इनमें कुछ गलत देखें, वो इंसान ही गलत होते हैं.

सो ज़रुरत है कि इन ग्रन्थों को किताबों में बदल दिया जाए....इनमें कुछ ठीक दिखे तो ज़रूर सीखा जाए और अगर गलत दिखे तो उसे खुल कर गलत भी कहा जाए...इनको मन्दिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों से बाहर किया जाए..इनके सामने अंधे हो सर झुकाना, पैसे चढ़ाना बंद किया जाए.

अक्सर लोग एक तरह की नामों की गुलामी में ही जी रहे होते हैं...बड़े नामों की गुलामी...चाहे वो नाम किसी किताब का हो या किसी व्यक्ति का......

मेरे जैसे हकीर आदमी की हिमाकत ही कैसे हो गयी?

किसी महान किताब / शख्सियत पर कोई ऐसी टिप्पणी करने की, ऐसी टिप्पणी जो जमी जमाई जन-अवधारणा को ललकारती हो...

मानसिक गुलामी.

मुझसे अक्सर कहा जाता है, मैं कौन हूँ जो फलां विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति के बारे में या उसके किसी कथन या किताब के बारे में टिप्पणी करूं, मेरी औकात क्या है, मुझे क्या हक़ है

मैं बताना चाहता हूँ कि ऐसा करने का सर्टिफिकेट मुझे जनम से ही कुदरत ने दे दिया था, सारी कायनात मेरी है और मैं इस कायनात का...

और मेरा हक़ है, कुदरती हक़, दुनिया के हर विषय के पर, हर व्यक्ति पर बोलने का, लिखने का

और यह हक़ आपको भी है, सिर्फ इस भारी भरकम नामों की गुलामी से बाहर आने की ज़रुरत है

और एक बात और जोड़ना चाहता हूँ, कोई भी व्यक्ति- कोई भी किताब  कितना ही बड़ा नाम हो उसका....कहीं भी गलत हो सकता/सकती है.

नमन..तुषार कॉस्मिक

Monday 19 June 2017

मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ, और इस्लाम को पोटैशियम साइनाइड. लेकिन अगर मेरे सामने किसी बेगुनाह को मारा जा रहा हो तो वो मुसलमान ही क्यों न हो, अगर बचा सकता होवूँगा तो जी-जान से कोशिश करूंगा बचाने की. और यह लिखते हुए खुद को कोई महान साबित नहीं करना चाह रहा. वो तो मैं पहले ही लिख चुका कई बार कि अपुन हैं घटिया ही. जैसा अपना समाज है, वैसे ही अपुन हैं. और अगर यह कोई थोड़ी सी अच्छाई है भी तो वो भी इसलिए कि अपने समाज में कुछ अच्छाई भी है. बस. मेरा मुझ में किछ नाहीं, जो किछ है, सभ तेरा.

अप्प दीपो भव

मैंने लिखा कि मैं सभी तथा-कथित धर्मों को ज़हर मानता हूँ तो एक मित्र का सवाल था कि क्या बौद्ध धर्म को भी?

मैंने कहा, "हाँ".

एक ने पूछा, "क्या सिक्ख धर्म को भी?"

मैंने कहा, "हाँ".

वजह पहली तो यह है कि व्यक्ति को अपनी ही रोशनी से जीना चाहिए. कहा भी है बुद्ध ने, "अप्प दीपो भव." लेकिन बौद्ध फिर भी  बुद्ध को पकड़ लेता है. जब अपना दीपक खुद ही बनना है तो फिर बुद्ध को भी छोड़ दीजिये, फिर बौद्ध भी मत बनिये. और भिक्षु बनना और बनाना कोई जीवन का ढंग नहीं है. फिर स्त्रियों को दीक्षा न देना भी समझ से परे है. फिर अहिंसा भी कोई जीवन दर्शन नहीं है. हिंसा अवश्यम्भावी है. उससे बच ही नहीं सकते. जहाँ हिंसा की ज़रूरत हो, वहां हिंसक होना ही चाहिए. अहिंसा आत्म-घाती है.

क्यूँ बनना मुसलमान? हो गए मोहम्मद. अगर कुछ सीखने का है तो सीख लीजिये. 

काहे कृष्ण-कृष्ण भजे जा रहे हैं, वो हो चुके, आ चुके, जा चुके. अब कुदरत ने, कायनात ने आपको घड़ा है. अब आपका अवसर है. 

अब राम-राम कहना बंद कीजिये. राम ने जो धनुष तोड़ना था तोड़ चुके, जो तीर छोड़ने थे छोड़ चुके. जिसे-जिसे मारना था मार चुके. वो अपना रोल अदा कर चुके. अब आपको अपना रोल अदा करना है. अगर कुछ सीखने का है राम से तो सीख लो. लेकिन अब आपको अपनी लीला खेलनी है. छोड़ो यह सब राम-लीला. अगर कुदरत  को राम की लीला से ही सब्र हो जाता तो आपको नहीं भेजती इस धरती पर.   

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से  कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं?

"सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं.

जीसस हमें बचायेंगे. हमारे पापों से. इडियट. पहली बात तो पाप-पुण्य कुछ होता नहीं. और क्या बचायेंगे जीसस जो खुद को सूली लगने से नहीं बचा सके?

भैया जी, बहिनी, सुनो सबकी करो मन की. सीखो सबसे, जीयो अपनी अक्ल से. मत बनो किसी भी लकीर के फकीर. मत बनो हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई. 

अप्प दीपो भव.

नमन...तुषार कॉस्मिक

मेरी तरफ से कुछ जीवन सूत्र

१. उम्र और अनुभव माने रखता है, लेकिन हमेशा नहीं. एक कम उम्र शख्श भी सही हो सकता है. और एक कम अनुभवी व्यक्ति भी गहन सोच सकता है, कह सकता है. एक बेवकूफ को बेवकूफात्मक अनुभव ही तो होंगे, वो चाहे कितने ही ज़्यादा हों. २. व्यक्ति को न तो बहुत संतोष होना चाहिए और न ही बहुत असंतोष. बहुत संतोषी व्यक्ति कभी आगे नहीं बढ़ पाता जीवन में और बहुत असंतोषी व्यक्ति खुद को पागल कर लेता है, बीमार कर लेता है. एक संतुलन चाहिए संतोष और असंतोष में. यही जीवन का ढंग है. सन्तोषी माता फिल्म मात्र बेवकूफ बनाये रखने के लिए बनाई गई थी. ३. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. और जब नज़र बंध गई तो फिर वो नज़रिया आज़ाद कैसे हुआ? खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमती दिखानी हो वहां सहमति दिखाई जाए.

सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ

ये जो किसी ग्रन्थ को गुरु मानना, कहाँ की समझ है? कोई भी किताब सिखा सकती है. क्या शेक्सपियर से, ऑस्कर वाइल्ड से, खुशवंत सिंह से, प्रेम चंद से. मैक्सिम गोर्की से, दोस्तोवस्की से कुछ नहीं सीखा जा सकता? हम सब सीखते हैं इनसे. इनकी आलोचनाएं भी लिखते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन गुरु ग्रन्थ की कितनी आलोचनाएं पढ़ीं आपने. दंगा हो जायेगा. मार-काट हो जाएगी. इसे धर्म कहूं मैं? "सभ सिक्खन को हुक्म है, गुरु मान्यो ग्रन्थ." हुक्म सिर्फ गुलाम बनाते हैं और यहाँ रोज़ गुरुद्वारों से हुक्मनामे ज़ारी होते हैं. जब पहले से ही किसी ग्रन्थ को गुरु मानना है तो काहे की स्वतन्त्रता? काहे की सोचने की आज़ादी? स्वतंत्र होने अर्थ है अब किसी और तन्त्र से नहीं अपने ही तन्त्र से बंधेंगे. लेकिन यहाँ तो बंधना है किसी ग्रन्थ से तो फिर कैसी स्वतन्त्रता? अब हुक्म हुक्म में फर्क होता है. मैं विद्रोही हूँ लेकिन क्या ट्रैफिक के नियम भी तोड़ने को कहता हूँ. नहीं? नियम नियम में फर्क है. ट्रैफिक के नियम कोई इलाही बाणी नहीं माने जाते. वो कभी भी बदले जा सकते हैं. असल में मैं तो कहता हूँ कि पैदल चलने वालों को हमेशा दायें चलना चाहिए ताकि सामने से आता ट्रैफिक दिख सके. जब आप किसी ग्रन्थ को पहले से ही गुरु मान लेंगे तो आप उसमें लिखे हर शब्द को सिर्फ सही ही मानेंगे. आप कैसे आलोचना करेंगे? कैसे आलोचना समझेंगे? आलोचना के लिए तो हर पूर्व-स्थापित मान्यता रद्द होनी चाहिए. आलोचना का अर्थ निंदा नहीं होता. आलोचना का अर्थ है स्वतंत्र नज़रिया. आलोचना शब्द लोचन से आता है, जिसका अर्थ है आँख और नज़रिया शब्द भी नज़र से आता है जिसका अर्थ है आँख. जब आँख आज़ाद हो तो वो जो देखती है उसे कहते हैं आलोचना. आलोचना निंदा नहीं है. और जहाँ आलोचना नहीं है, वहां सिवा गुलामी के कुछ नहीं है. खुला नज़रिया ऊँगली उठाना नहीं होता...खुला नज़रिया मतलब जहाँ ऊँगली उठानी हो वहां ऊँगली उठाई जाए और जहाँ सहमति दिखानी हो वहां सहमति दिखाई जाए. सीखना ही सिक्खी है लेकिन लेकिन जब आप सिर्फ शीश नवायेंगे,कैसे सीखेंगे किसी ग्रन्थ से? या तो आप सही मानों में सिक्ख हो सकते हैं, ऐसे सिक्ख जो सही गलत पहले से ही नहीं माने बैठा, जो खुले दिमाग का है, जो किसी ग्रन्थ को गुरु या लघु नहीं माने बैठा है, या फिर आप वो सिक्ख हो सकते हैं जो हुक्म का गुलाम है और पहले से ही ग्रन्थ को गुरु माने बैठा है. कौन से सिक्ख हैं आप? नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday 18 June 2017

जब तक आप नाकामयाबियों के छित्तर पे छित्तर खाने को तैयार न हों, कामयाब होना मुश्किल समझिये.

क्रिकेट में हार शुभ है

एक होता है गर्व. गर्व होता है अपनी उपलब्धियों की ठीक-ठीक मह्त्ता समझना, यह जायज़ बात है.   

और एक होता है घमंड.  मतलब हो झन्ड फिर भी रखे हो  घमण्ड. हो गोबर फिर भी रखे हो गौरव. यह नाजायज़ बात है.

यह फर्क क्यूँ स्पष्ट किया, आगे देखिये. 

भारत कहीं खड़ा नहीं होता वर्ल्ड  लेवल पर खेलों में. इक्का-दुक्का उपलब्धियां. इत्ता विस्तार लिया हुआ मुल्क. इत्ती बड़ी जनसंख्या. लेकिन उपलब्धि लगभग शून्य .

ओलंपिक्स की मैडल तालिका देखो तो शर्म आ जाए. और वो शर्म आती भी है. भारतीयों को पता है कि वो फिस्सडी हैं. झन्ड हैं. गोबर हैं.लानती हैं.

कैसे सामना करें खुद का? कैसे नज़र मिलाएं खुद से? खुद से नैना मिलाऊँ कैसे? हर खेल में पिट-पिटा के घर जाऊं कैसे? तो चलो क्रिकेट पकड़ते हैं. इसके रिकॉर्ड बनाते हैं. वर्ल्ड रिकॉर्ड. इसके चैंपियन बनते हैं. वर्ल्ड चैंपियन. 

वर्ल्ड ने आज तक क्रिकेट खेला नहीं सीरियसली.  चंद मुल्क खेले जा रहे हैं बस. ओलंपिक्स में आज तक शामिल नहीं क्रिकेट.लेकिन हम वर्ल्ड चैंपियन. हमारे खिलाड़ी वर्ल्ड प्लेयर. 

यही हाल कबड्डी का है. कबड्डी का भी वर्ल्ड टूर्नामेंट होता है. खेलते कितने मुल्क हैं अभी इसे? या खेलते भी हैं तो कितनी रूचि से खेलते हैं? खेलने को तो यहाँ भारत में भी बहुत खेल खेले जाते हैं जो कहाँ खेले जाते हैं, पता ही नहीं लगता. आपने अपने इर्द-गिर्द के कितने लोग  पोलो या स्क्वाश या गोल्फ खेलते देखे सुने हैं?

तो भाई लोग, वर्ल्ड लेवल का खेल वहीं होता है जिस में ढंग से दुनिया रूचि लेती हो, खेलती हो. 

"मास्टर जी, मास्टर जी मैं दौड़ में तीसरे नम्बर पर आया?"
मास्टर हैरान, फिस्सडी छोरा, कैसे आ गया तीजे नम्बर पे!
"कित्ते थे रे तुम, जो दौड़े थे?"
"मास्टर जी, तीन."

समझ लीजिये, न तो क्रिकेट और न ही कबड्डी कोई वर्ल्ड लेवल का खेल है.  न ही  इन खेलो के खिलाड़ी कोई वर्ल्ड चैंपियन हैं, और न ही इन खेलों के रिकॉर्ड कोई वर्ल्ड  रिकॉर्ड हैं.

आप खेलों में झन्ड हैं. आप को क्रिकेट  का सिर्फ घमंड है. सो इसमें आपकी हार शुभ है. आपका घमंड तोडती है. आपको अपना असल चेहरा दिखाती है. इस हार के हार को गले में डाल लीजिये और समझ लीजिये कि आप खेलों में  ही नहीं, जीवन के बाकी पहलुओं में भी वैश्विक स्तर पर मुकाबले में कहीं खड़े नहीं होते. खेल सारी कहानी बयान कर देते हैं. आपका पर्दा-फाश कर देते हैं. आपको दिगम्बर कर देते हैं. नागा बाबा. 

अपनी नग्नता स्वीकार करें. अपनी नाकामयाबी  स्वीकार करें. अपना रोग स्वीकार करें. जब तक रोगी खुद को रोगी नहीं मानेगा, इलाज कैसे करवाएगा? जो रोगी खुद को निरोग ही मानता रहेगा, वो तो मारा जाएगा.

और यही हो रहा है. कहते रहो खुद को महान. विश्व गुरु. चैंपियन. लेकिन तुम झन्ड हो और झन्ड रहोगे, अगर ऐसे ही घमंड पाले रहोगे तो.

क्रिकेट में हार तुम्हारा घमंड तोड़ती है. क्रिकेट में हार तुम्हारे लिए अतीव शुभ है. उत्सव मनाओ.  नाचो, गाओ कि तुम हारे हो.

तुषार कॉस्मिक.....नमन

Saturday 17 June 2017

तोप से गुलेल का काम न लेना चाहिए. हम तोप हैं, दुनिया की होप हैं ए ज़िंदगी. बाकी मर्ज़ी.
जिस दिन 'छोले भठूरे' और 'पकौड़े समोसे' बेचने को आप Entrepreneurship समझने लगेंगे, समझ लीजियेगा कि बिज़नस समझ आने लगा.

Friday 16 June 2017

वकील मित्रों के चैम्बर में था....खाकी लिफाफे लीगल नोटिस भेजने को तैयार किये जा रहे थे......डाक टिकेट लगाये जा रहे थे... उचक कर देखा मैंने. टिकेट पर एक चेहरा था, नाम लिखा था 'श्रीलाल शुक्ल'.
मैं उत्साहित हो कर बोला, "मैडम, आपको पता है ये कौन हैं?"
"नहीं."
"मैडम, ये हिंदी के बड़े लेखक हैं श्रीलाल शुक्ल...इनकी कृति है 'राग दरबारी'. महान कृति मानी जाती है."
उनका ध्यान अपने काम में चला गया और मैं खुश होता रहा मन ही मन. कितना अच्छा है कि लेखक और वो भी हिंदी के लेखक को सम्मान दिया गया. क्या हम मुंशी प्रेम चंद, भगवती चरण वर्मा, अमृता प्रीतम, खुशवंत सिंह, नानक सिंह आदि को बच्चों तक पहुंचा पायेंगे? क्या हम अपने पेंटर, मूर्तिकार, नाटक-कार को कभी सम्मान देंगे? मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
ध्यान आया कि गायकों को हम जो आज सर आँखों पर बिठाते हैं, हमेशा ऐसा नहीं था. गाना-बजाना बहुत हल्का पेशा समझा जाता था. मिरासियों का काम. पंजाब के ज़्यादातर गायक जो पचीस तीस साल पीछे के हैं, वो हल्के समझे जाने वाले समाज से आते थे. फिर समाज पलटा, गाने को वो स्थान मिला कि आज जो नहीं है गायक, वो भी गायक बने जा रहा है. मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.
काश लेखकों, गायकों, कहानीकारों, गीतकारों, मूर्तिकारों, चित्रकारों, वैज्ञानिकों के नाम डाक टिकटों पर नहीं, लोगों के ज़ेहनों में अंकित हों! काश!!
मैं मन ही मन बड़बड़ाता रहा.

CANNIBALISM

इसका अर्थ है इन्सान का इंसानी मांस खाना. मानवाहार. क्या लगता है आपको कि इंसान सभ्य हो गया, वो कैसे ऐसा काम कर सकता है? कैसे कोई प्यारे-प्यारे बच्चों का मांस खा सकता है? कैसे कोई बेटी जैसी लड़की का मांस खा सकता है? कैसे कोई बाप जैसे वृद्ध का मांस खा सकता है? लेग-पीस. बोटी. पुट्ठा. कैसे? कैसे? गलत हैं आप. कहीं पढ़ा था कि ईदी अमीन नाम का शख्स, किसी अमेरिकी मुल्क का अगुआ, जब पकड़ा गया तो उसके फ्रिज में इंसानी मांस के टुकड़े मिले. अभी कुछ साल पहले नॉएडा में पंधेर नामक आदमी और उसका नौकर मिल कर बच्चों को मार कर खाते पाए गए थे. और आप और हम क्या करते हैं? हम इक दूजे का मांस खाते हैं, बस तरीका थोड़ा सूक्ष्म हो गया है, ऊपरी तौर पर दीखता नहीं है. जब आप किसी गरीब का पचास हजार रूपया मार लेते हैं, जो उसने तीन साल में इकट्ठा किया था तो आपने उसके तीन साल खा लिए. आपने उसके जिस्म-जान का लगभग दस प्रतिशत खा लिया. आप उसके बच्चों का, प्यारे बच्चों के तन का, मन का कुछ हिस्सा खा गए. उसके बूढ़े बाप को खा गए, उसकी बेटी को खा गए. बाबा नानक एक बार सैदपुर पहुंचे.शहर का मुखिया मालिक भागो ज़ुल्म और बेईमानी से धनी बना था. जब मलिक भागो को नानक देव जी के आने का पता चला, तो वो उन्हें अपने महल में ठहराना चाहता था, लेकिन गुरु जी ने एक गरीब के छोटे से घर को ठहरने के लिए चुना. उस आदमी का नाम भाई लालो था. भाई लालो बहुत खुश हुआ और वो बड़े आदर-सत्कार से गुरुजी की सेवा करने लगा. नानक देव जी बड़े प्रेम से उसकी रूखी-सूखी रोटी खाते थे. मलिक को बहुत गुस्सा आया और उसने गुरुजी को पूछा, "गुरुजी मैंने आपके ठहरने का बहुत बढ़िया इंतजाम किया था. कई सारे स्वादिष्ट व्यंजन भी बनवाए थे, फिर भी आप उस लालो की सूखी रोटी खा रहे हो, क्यों?" गुरुजी ने उत्तर दिया, "मैं तुम्हारा भोजन नहीं खा सकता, क्योंकि तुमने गरीबों का खून चूस कर ये रोटी कमाई है. जबकि लालो की सूखी रोटी उसकी ईमानदारी और मेहनत की कमाई है". गुरुजी की ये बात सुनकर, मलिक भागो ने गुरुजी से इसका सबूत देने को कहा. गुरुजी ने लालो के घर से रोटी का एक टुकड़ा मंगवाया. फिर शहर के लोगों के भारी जमावड़े के सामने, गुरुजी ने एक हाथ में भाई लालो की सूखी रोटी और दूसरे हाथ में मलिक भागो की चुपड़ी रोटी उठाई. दोनों रोटियों को ज़ोर से हाथों में दबाया तो लालो की रोटी से दूध और मलिक भागो की रोटी से खून टपकने लगा. यह कहानी हुबहू सच्ची न भी हो तब भी सच्ची है. है कि नहीं? आप शाकाहारी हैं, मांसाहारी है, मुद्दा है लेकिन आप मानवाहारी हैं या नहीं, यह भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा. अब कहो खुद को सभ्य. है हिम्मत? गर्व से खुद को हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान बाद में कहना भाई, पहले गर्व से खुद को सभ्य कहने लायक तो हो जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Thursday 15 June 2017

डॉक्टर भगवान का रूप माना जाता है, मैं तो कहता हूँ वकील भी भगवान है और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी. आपकी जमानत न हो रही हो, तब देखो आपको वकील भगवान लगेगा कि नहीं? आपको इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की प्रेम पाती मिली हो तो आप कहाँ मत्था टेकेंगे? सीधे सी ए के पास. मुसीबत में यही आपको-हमको बचाते हैं. बस मामला वहां गड़बड़ा जाता है, जब भगवान खुद पैसों के पुजारी बनने लगते हैं. अगर पैसों का संतुलन भी बना रहे तो ये वाले पेशे वाकई नोबल हैं, जैसे कि कहे भी जाते हैं. लेकिन संतुलन बना रहे तभी.
"बहुत मारा साब आपने, अपुन बस एक मारा, लेकिन सच्ची बोलो, सॉलिड मारा कि नहीं?" अमिताभ विनोद खन्ना से पिटने के बाद.
"बहुत लिखते हैं फेसबुक पे धुरंधर, मठाधीश. अपुन तो बस चिंदी-पिंदी, गैर-मालूम आदमी. लेकिन जित्ता लिखते हैं, करारा लिखते हैं कि नहीं बॉस?" तुषार कॉस्मिक

अबे तुम इंसान हो या उल्लू के पट्ठे, आओ मंथन करो

उल्लू के प्रति बहुत नाइंसाफी की है मनुष्यता ने.......उसे मूर्खता का प्रतीक धर लिया...... उल्लू यदि अपने ग्रन्थ लिखेगा तो उसमें इंसान को मूर्ख शिरोमणि मानेगा......जो ज्यादा सही भी है.........अरे, उल्लू को दिन में नही दिखता, क्या हो गया फिर? उसे रात में तो दिखता है. इंसान को तो आँखें होते हुए, अक्ल होते हुए न दिन में, न रात में कुछ दिखता है या फिर कुछ का कुछ दिखता है. इसलिए ये जो phrase है न UKP यानि "उल्लू का पट्ठा" जो तुम लोग, मूर्ख इंसानों के लिए प्रयोग करते हो, इसे तो छोड़ ही दो, कुछ और शब्द ढूंढो.

और गधा-वधा कहना भी छोड़ दो, गधे कितने शरीफ हैं, किसी की गर्दनें काटते हैं क्या ISIS की तरह? या फिर एटम बम फैंकते हैं क्या अमरीका की तरह?

कुछ और सोचो, हाँ किसी भी जानवर को अपनी नामावली में शामिल मत करना...कुत्ता-वुत्ता भी मत कहना, बेचारा कुत्ता तो बेहद प्यारा जीव है......वफादार. इंसान तो अपने सगे बाप का भी सगा नही.

तो फिर घूम फिर के एक ही शब्द प्रयोग कर लो अपने लिए..."इन्सान"...तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई गाली नही हो सकती...चूँकि इंसानियत तो तुम में है नहीं....और है भी तो वो अधूरी है चूँकि उसमें कुत्तियत, बिल्लियत , गधियत, उल्लुयत शामिल नही हैं...सो जब भी एक दूजे को गाली देनी हो, "इंसान" ही कह लिया करो....ओये इन्सान!!!! तुम्हारे लिए खुद को इंसान कहलाना ही सबसे बड़ी गाली हो सकती है.

अब मेरी यह सर्च-रिसर्च 'डॉक्टर राम रहीम सिंह इंसान' को मत बताना, वरना बेचारे कीकू शारदा की तरह मुझे भी लपेट लेगा...हाहहहाहा!!!!!
ये जो किसान के लिए टसुये बहा रहे हैं कि उसकी फसल की कीमत कम मिलती है, ज़रा तैयार हो जाएँ गोभी सौ रुपये किलो खरीदने को.

जब किसान एकड़ों के हिसाब से ज़मीन का मालिक था तब तो गाने गाता था, "पुत्त जट्टां दे बुलाओंदे बकरे......" ज़्यादा पीछे नहीं, मात्र पचीस-तीस साल पुरानी बात है.

बच्चों-पे-बच्चे पैदा किये गया, ज़मीन बंटती गई, दिहाड़ी मजदूर रह गया तो अब सड़क पर आ गया है. और करो बच्चे पैदा और फिर कहो कि सरकार की गलती है. सरकार पेट भरे. सरकार काम-धेनु गाय है न.

भैये, सरकार के पास पैसा आसमान से नहीं गिरता, टैक्स देने वालों से आता है. सिर्फ सरकार पर ही दोषारोपण मत करो.
किसी के नाम के आगे "जी" न लगाना अपमान नहीं है, सम्मान नहीं देना है. और दोनों एक ही बात नहीं है. अगर मैं किसी को सम्मान नहीं दे रहा तो इसका अर्थ बस इतना ही है कि मैं उसे सम्मान नहीं दे रहा, इसका मतलब अपमान करना नहीं है. अपमान इससे अगला कदम है. है कि नहीं? यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि किसी बन्धु ने बड़ा इशू बना लिया कि मैंनेे उस के नाम के आगे "जी" नहीं लगाया.

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते

मुझे आप पसंद कर ही नहीं सकते. मैं चीज़ ही ऐसी हूँ.
अगर मैंने राम के खिलाफ लिखा तो आरक्षण-भोगी खुश हुआ, मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैंने आरक्षण के खिलाफ लिखा और इस्लाम के खिलाफ लिखा, तो इनने सोचा यह क्या बीमारी है.
जब मैंने सब तथा-कथित धर्मों के खिलाफ लिखा तो नास्तिक खुश हुआ लेकिन जब मैंने कहा कि मैं नास्तिक नहीं हूँ तो उनने सोचा कि यह क्या गड़बड़झाला है.

जब मैंने आरएसएस के खिलाफ लिखा, मोदी के खिलाफ लिखा तो मुसलमान खुश हुआ लेकिन जब मैं कुरान की विध्वंसक आयतें ला सामने रखी तो त्राहि-त्राहि मच गई.
जब मैंने भिंडरावाले के खिलाफ लिखा तो उन्हें लगा कि मैं संघी हूँ, फिर साबित करना पड़ा कि मैं तो लम्बा आर्टिकल लिख चुका, "मैंने संघ क्यूँ छोड़ा".
केजरीवाल के खिलाफ लिखा तो संघी खुश हुआ, लेकिन उससे ज़्यादा तो संघ के खिलाफ लिख चुका.
बहुत कम चांस हैं कि आप मेरे लेख पसंद कर सकें. लेकिन फिर भी पढ़ें मेरा लिखा. इसलिए नहीं कि आपको पसंद आएगा. इसलिए कि आपको जीवन के अलग-अलग पहलूओं पर मेरा नज़रिया नज़र आएगा. और उससे हो सकता है आपकी नज़र तेज़ हो जाए या फिर नज़रिये पर लगा चश्मा उतर जाए.
और मेरे छुप्पे पाठक भी हैं, जो छुप-छुप पढ़ते हैं. आप बड़े लोग हो भई, ऐसे ही बने रहें, बस बने रहें.
और जो कोई मित्र यदा-कदा किसी महानता का मुझ में दर्शन करते हैं, उनको बता दूं ऐसा कुछ भी नहीं है, मैं आज भी तीस रुपये वाले मटर-कुलचा खाता हूँ रेहड़ी पर, और गुस्सा आने पर गाली-गलौच करता हूँ. इससे ज़्यादा मेरी औकात नहीं है और महान वाली कोई बात नहीं है
मैं तो आज ही कह रहा था वी.....तीस हजारी कोर्ट अपने वकील मित्रों के चैम्बर में बैठा था तो, "मेरा बस चला कभी तो बठिंडा वापिस जा बसूँगा..... बच्चे जाएँ, जहाँ जाना हो, जापान, कनाडा....मैं तो दिल्ली से ही आजिज़ आ चुका, आगे कहाँ जाऊँगा? वापिस जाऊँगा बठिंडा...और हो सका तो वहां भी शहर नहीं, किसी साथ लगती बस्ती में."
मुझे पता है दुनिया आगे बढ़ती है....पीछे लौट ही नहीं सकती...और मैं भी नहीं लौट पाऊँगा. जानता हूँ कि कभी हो नहीं पायेगा...... लेकिन क्या करूं? मुझे तो नहीं भाता महानगर.
कुछ यही बात मेरी भाषा पर भी लागू होती....मेरी अधिवक्ता कहती हैं कि मेरी हिंदी भाषा बहुत अच्छी है, अंग्रेज़ी भी ठीक ही है....लेकिन मुझ पर तो पंजाबी हावी है आज तक...वो भी मालवा वाली.....पेंडू टाइप.....गंवारू ....मुझे Iqbal Singh Shahi ने फोन किया था कुछ दिन पहले और दोनों ठेठ पंजाबी बोल रहे थे.........वारिस शाह न आदता जान्दियाँ ने, भावें कटटीए पोरियाँ पोरियाँ जी.....वादडीयां सज्जादडीयां निभन सिरा दे नाल.
अपुन ठहरे बैकवर्ड लोग. थोड़ा झेल लीजिये बस.
सीखना हो तो आप कैसे भी सीख सकते हैं.
कैलकुलेटर में एक होता है "री-चेक बटन". कमाल की चीज़ है. यह आपको हर शाम अपने दिमाग में प्रयोग करना चाहिए, गलतियाँ सही करने में मदद मिलेगी.
फेसबुक का "ब्लाक बटन" बहुत काम की चीज़ है. इसे ज़िन्दगी में भी प्रयोग करें. जिससे नहीं ताल-मेल बैठता दफा करें. सबकी सबके साथ थोड़ा न ट्यूनिंग बैठती है.

Sunday 11 June 2017

"सरकार समर्थन मूल्य घोषित करती है । लेकिन मंडी में इससे कम में बिचोलिये खरीदते है। इसपर शक्ति से रोक लगनी चाइए। गरीबो के नाम पर भाव नहीं बढ़ाते ।गरीबो को पालने का बोझ किसान पर नहीं डाल कर सरकार को उठाना चाइये" Gopal Chawda ji.
"आपकी बात सही है कि गरीबों को पालने के लिए यह सब दिक्कत है......असल बात ही यह है कि जनसंख्या वृद्धि अनियंत्रित है.....गरीब बच्चा पैदा करता जाता है...उसका पैदईशी हक है पैदा करना.....लेकिन उसके लिए पूरे समाज को भुगतना पड़ता है...सो कहीं न कहीं, किसी न किसी को उसके और उसके परिवार का भरण-पोषण का खर्च वहन करना पड़ता है. अगर यह बोझ किसान के सर से हटा भी लेंगे तो कहीं और पड़ेगा...तो हल यह नही है कि बोझ सरकार उठाये...वो टैक्स भरने वालों पर ही पड़ेगा...लेकिन पड़े ही क्यूँ? यह है असल मुद्दा. तो जन्म वृद्धि पर नए नियम, नए नियंत्रण करे बिना समस्या हल नहीं होगी." तुषार कॉस्मिक
मैंने केजरीवाल की नियत पर कभी शक नहीं किया है लेकिन उनकी अक्ल पर मुझे हमेशा शंका रही है. बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था "मूर्ख केजरीवाल". एक मिसाल देता हूँ अपनी मान्यता के पक्ष में.
जरनैल सिंह राजौरी गार्डन दिल्ली सीट के सिटींग MLA थे. उन्हें उखाड़ कर पंजाब में चुनाव लड़वा दिया.
नतीजा जानते हैं क्या हुआ? दोनों सीट गवा दीं.
यह केजरीवाल की महान मूर्खता का जिंदा नमूना है. पंजाब के चुनाव में पंजाब का व्यक्ति न लड़वा कर दिल्ली का व्यक्ति लड़वाना यह कहाँ की समझदारी थी? पंजाब के लोग टिकट लेने को मरे जा रहे थे, लेकिन टिकट दी दिल्ली के आदमी को. वाह भाई वाह!
और दिल्ली की जीती सीट को छोड़ना, यह कहाँ की समझदारी थी? क्या सोचा कि सरदार खुस होगा? साबासी देगा?
सरदार ने धो दिया. बम्पर वोट से भाजपा के मनजिंदर सिंह सिरसा जीते. कल्लो बात. बड़े आये.
केजरीवाल के रूप में एक उम्मीद तो भारत में जगी थी, लेकिन उनकी अक्ल की कमी ने वो धुल-धूसरित कर रखी है. हां, हम और आप होते तो बात कुछ और होती. नहीं?

Saturday 10 June 2017

औकात

भिखारी अपनी औकात के हिसाब से भीख नहीं मांगता, सामने वाले की औकात के अनुसार मांगता है. जैसे साइकिल वाला होगा तो उससे दस-बीस रूपया नहीं, एक दो रूपया ही मांगेगा. और ऑडी या मरसडीज़ कार वाला होगा तो पचास-सौ रूपया मांगेगा.
तो साहेबान-कद्रदान, यह मसल सिर्फ भीख मांगने में ही फिट नहीं होती, हर व्यापार में फिट होती है.
डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील से लेकर इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर, नाई, हलवाई तक आपको अपनी हैसियत, अपनी लियाकत के अनुसार चार्ज नहीं करते, आपकी हैसियत के हिसाब से 'काटते' हैं.
यह 'काटना' शब्द बिलकुल सही है. इंसान इंसान को 'काटता' है. शारीरिक रूप से न सही, आर्थिक रूप से सही. और अर्थ शरीर का ही हिस्सा है, जैसे किसी ने ऑटो चला के दस लाख रुपये जोड़े दस साल में तो यह उसके शरीर, उसकी उम्र के दस साल को काटना हुआ कि नहीं अगर उसके साथ धोखा हो गया दस लाख का तो?
अब अक्सर सही लगता है कि जो पिछली पीढी के लोग रूपया जेब में होते हुए भी चवन्नी ही दिखाते थे.

बिजी-बिजी

सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन से आप बात कर रहे हैं, उसका कनेक्शन जोड़ दूं?” आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है. बहुत दिखाते हैं कुछ लोग अपनी व्यस्तता. दोगुनी, तिगुनी करके. जैसे व्यस्त अगर हैं तो कोई अहसान है हम पर. जैसे कद्दू में तीर मार लिया हो व्यस्त हो कर. बहुत पहले मैंने लिखा था कि दो तरह के गरीब होते हैं, एक जिनके पास पैसा नहीं है, दूजे जिनके पास समय नहीं है. अंग्रेज़ी में afford शब्द दो अर्थों में प्रयोग होता है. afford मतलब क्रय शक्ति और afford मतलब समय निकालना. यानि धन और समय का होना कहीं एक ही पलड़े में तौला गया है. इस हिसाब से बिज़नसमैन गरीब ही कहलायेगा, चाहे अरबपति हो तो भी. चूँकि वो तो रहेगा ही बिजी. बिजनेसमैन. कहते भी हैं कि एम्प्लोयी आठ घंटे काम करता है लेकिन एम्लोयर चौबीस घंटा काम करता है. इन अर्थों में जो चौबीस घंटे काम करे, जिसके पास खिलते फूल, हंसते बच्चे, उगते सूरज को देखने का समय न हो वो तो महा-फटीचर हुआ. होता रहे अरबपति. और ध्यान रहे ये जो वकील, डॉक्टर, प्रोपर्टी डीलर, चार्टर्ड-अकाउंटेंट, आर्किटेक्ट, कैटरर या कोई भी व्यस्त नज़र आयें आपको बहुत ज़्यादा, तो इनसे दूर ही रहना. यह मत सोचना कि ये लोग व्यस्त हैं तो निश्चित ही अपने काम के माहिर होंगे और इनकी महारत आपके भी काम आयेगी. नहीं आयेगी. ये असली व्यस्त हो सकते हैं, नकली व्यस्त हो सकते हैं, ये माहिर हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं. बाज़ार में नकली सिक्के भी चल निकलते हैं कई बार. जब Dhinchak पूजा चल सकती है तो कोई भी चल सकता है. तो बन्दा/ बंदी वो पकड़ो भाई लोग, जिस के पास आपके लिए समय हो. महारत देख लो जितनी देख सकते हो लेकिन पहले समय देखो कि समय उसके पास है कि नहीं आपके लिए. अगर नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की महारत भी आपके तो काम आने वाली है नहीं. और मेरा संदेश व्यस्त बन्धु-गण को भी है. अंग्रेज़ी का afford शब्द याद रखें, अगर बहुत बिजी हैं आप तो गरीब हैं, पैसे होते हुए भी और आपका बहुत बिजी होना, खुद को बिजी दिखाना कोई प्लस नहीं माइनस पॉइंट है जनाब/ मोहतरमा. नमन....तुषार कॉस्मिक

Thursday 8 June 2017

एक संवैधानिक सलाह

जनसंख्या वृद्धि पर संविधान में एक अनुच्छेद जुड़ना चाहिए. कोई भी धर्म-विशेष के लोग एक सीमा के बाद जनसंख्या वृद्धि नहीं कर पाएं. इस पर सख्त रोक लगनी चाहिए. बल्कि अगर मुल्क जनसंख्या घटाने का निर्णय लेता है तो हर धर्म के लोग उसमें अपनी जनसंख्या के अनुपात में अनिवार्य-रूपेण कमी लाएं. हर जन्म, हर मृत्यु कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड पर हो. यह इसलिए ज़रूरी है कि युद्ध सिर्फ तीर-तलवार से ही नहीं, इंसानी पैदावार से भी जीते जाते हैं. अगर किसी मुल्क पर हमला करना हो तो वहां घुस जाओ और फिर बच्चे ही बच्चे पैदा कर दो. जब आपकी जनसंख्या बढ़ेगी तो, वोटिंग पॉवर बढ़ेगी और इसके साथ ही आप वहां की सरकार में पैठ बनाते हुए धीरे-धीरे पूरी तरह से हावी हो जायेंगे. यूरोप में इस्लाम का दखल इसी तरह से हुआ है और नतीजा भुगत रहा है. अमेरिका इससे आगाह हो चुका है. भारत को अधिकारिक रूप से आगाह अभी होना है.

क्या हम सभ्य हैं?

आपने ग्लैडिएटर फिल्म देखी होगी. गुलामों को एक बड़े मैदान में छोड़ दिया जाता था, एक दूजे के ऊपर मरने-मारने को. भद्र-जन देखते थे इनका लड़ना-मरना और ताली बजाते थे, खुश होते थे इनको लहू-लुहान होते हुए, मरते हुए. कितनी असभ्य थी रोमन सभ्यता! नहीं? क्या लगता है आपको कि आज बड़े सभ्य हो गए हैं हम? नहीं हुए. बस अपनी असभ्यता थोड़ी और गहरे में छुपा ली हमने. बॉक्सिंग क्या है? एक-दूजे को मुक्कों से मारते हुए लोग. कई मौतें हो चुकी हैं रिंग में. इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं. आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है? नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है. सभ्यता शब्द सभा से आता है. मतलब इन्सान सभा में बैठने लायक हो जाये तो सभ्य. वो एक उपमात्मक शब्द है. एक इशारा है. सभा में बैठने लायक कब होता है इंसान? जब वो इतना समझ-दार हो जाए कि उसके बीच के मसले बात-चीत से, प्यार से हल होने लगें न कि लड़ के, कट के, मर के. गले मिल के मसले हल होने लगें, न कि गले काट के, तब इन्सान सभ्य है.
तो है क्या इन्सान सभ्य? मेरा जवाब है, "नहीं". और आपका?
जब तक सर पे छत, पेट में दाना और तन पर कपड़ा है.......हम अमीर हैं....."अजीबो-अमीर". नहीं सुना होगा शब्द. "अजीबो-गरीब" सुना होगा. मल्लब अज़ीब हो गए तो गरीब, लेकिन हम उलटे हैं, अज़ीब भी हैं और अमीर भी.

किसान की समस्याएं और हल

भारत कृषि प्रधान मुल्क है. ज़रा शहर से बाहर निकलो, खेत ही खेत.फिर किसान बेहाल क्यूँ हैं और समाधान क्या है? मैं कोई कृषि विशेषज्ञ नहीं हूँ, फिर भी कुछ सुझाव हैं, शायद काम के हों:-- 1. ज़मींदार तो राजा था. लेकिन मजदूर बेहाल था. तो ज़मीदारी प्रथा खत्म करने के लिए ज़मींदारी अबोलिश्मेंट एक्ट लाया गया. इससे खेतीहर को लगभग मालिकाना हक़ मिल गए ज़मीन के. अच्छा कदम था. लेकिन फिर किसान ने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि वो ज़मीन किसी का पेट भरने को नाकामयाब हो गयी. तो एक तो हल यह है कि अब आगे किसान बच्चे कम पैदा करे. लेकिन क्या सिर्फ किसान ही ऐसा करे? तो जवाब है नहीं.सबको ही जनसंख्या घटानी चाहिए. चूँकि गरीब जनता को फिर से कम कीमत पर अनाज देना सरकार की मज़बूरी बन जाती है और जिसमें किसान पिसता है. 2. किसानों को आधुनिकतम ट्रेनिंग दी जाये. और फसल वो उगायें जिसको निर्यात भी किया जा सके. मिसाल के लिए आयुर्वेदिक दवा उगा सकते हैं. 3. घरेलू खपत में किसान को उसकी फसल का ज़्यादा से ज़्यादा फायदा मिल सके इसके लिए हो सके तो आढ़ती सिस्टम खत्म किया जाए. बिचौलिए ही सब खा जायेंगे तो किसान को क्या मिलेगा? हो सके तो किसान खुद मंडी में डायरेक्ट बेचें. कैसे बेचें इसका सिस्टम खड़ा किया जा सकता है, इसकी भी ट्रेनिंग किसान को दी जा सकती है. 4. यातायात के सिस्टम सही किये जाएँ ताकि फसल खराब होने से पहले ही भूखे पेटों में पहुँच सके, गोदामों में न सड़ जाये, रस्तों में ही न अड़ जाए. 5. बाकी किसान को मुआवजा आदि दिया जा सकता है अगर बहुत त्रासदी हो तो, लेकिन यह कोई स्थायी समाधान है नहीं. दो और लेख हैं मेरे इस विषय से सम्बन्धित, पेश हैं:------- 1. " किसान को मौसम की मार, कारण और सम्भावित निवारण " मुआवजा दे तो सकते हैं, कर्जा माफ़ कर तो सकते हैं ...लेकिन यह भी तो समाज पर बोझ ही होगा, सामाजिक असंतुलन पैदा करेगा. यह ज़रूरी तो है लेकिन क्या यह कोई हल है? किसान की ऐसी हालात इस बारिश की वजह से नहीं हुआ है, उसकी वजह यह है कि जनसंख्या के बढ़ने से ज़मीन टुकड़ों में बंटती चली गयी, और बंटते बंटते वो इतनी कम रह गयी कि अब वो किसी एक परिवार के पेट पालने लायक भी नहीं रही, आज अगर एक किसान परिवार के पास पहले जैसा बड़ा टुकड़ा हो ज़मीन का, तो उसकी कमाई से ही वो अपना वर्तमान और भविष्य सब संवार लेगा खेती तो है ही कुदरत पर निर्भर, वो कभी भी खराब हो सकती है सो यदि किसान होगा पूरा-सूरा तो निश्चित ही कुदरत की मार उसकी कमर तोड़ देगी, लेकिन यदि वो मज़बूत होगा तो निश्चित ही इस तरह की बारिशें तो उस पर कभी कहर बन कर न टूट सकेंगी........ सो मेरे ख्याल से मुआवजा फ़ौरी हल तो हो सकता है लेकिन इससे कोई मुद्दा हल नहीं होगा .....आज आप बचा लो किसान, कल वो और बच्चे पैदा करेगा, फिर उनकी दिक्कतें बढ़ती जायेंगी.......आप कब तक मुआवजें देते रहेंगे और मुआवज़े कोई आसमान से तो गिरते नहीं.....वो भी समाज का पैसा है.......समाज का एक हिस्सा दूसरे हिस्से को कब तक पाले, क्यों पाले? सो हल तो निश्चित ही कुछ और हैं कहीं पढ़ा था कि विज्ञान की मदद से बारिश पर नियंत्रण किया जाए. बेमौसम बारिश का इलाज होना चाहिए लेकिन ऐसी बारिश हुई क्यों? चूँकि हमने कुदरत की ऐसी तैसी कर रखी है मुझे लगता है विज्ञान की मदद से हम जो जनसंख्या बढ़ा लेते हैं, प्रकृति अपने प्रकोप से घटा देती हैं ये बाढ़, बेमौसम बरसात, भूकम्प सब उसी का नतीजा है ... हर जगह हमने अपनी जनसंख्या का दबाव बना रखा है कुदरत बैलेंस नहीं करेगी? विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल प्रकृति चक्र को और खराब कर सकता है यह देखना बहुत ज़रूरी है सो पहले विज्ञान का उपयोग यह जानने को करना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है क्या वजह हमारा प्रकृति का अनाप शनाप दोहन तो नहीं? मेरे ख्याल से है. विज्ञान के उत्थान के साथ साथ मानव प्रकृति को बड़ी तेज़ी से चूस रहा है बजाए विज्ञान से बारिश, धूप, हवा पर कण्ट्रोल के, मानव की संख्या और गुणवत्ता पर कण्ट्रोल ज़रूरी है, अन्यथा यह सब तो चलता ही रहेगा, एक जगह से रोकेंगे, दूसरी जगह से प्रकृति फूटेगी......जैसे बहुत तेज़ पानी के बहाव को एक छेद से रोको तो दूसरी जगह से फूट निकलता है हमें विज्ञान से यह जानने में मदद लेनी चाहिए कि किस इलाके में कितने मानव बिना कुदरत पर बोझ बने रह सकते हैं, किस इलाके में कितने वाहन से ज़्यादा नहीं होने चाहिए, किस जगह कितनी फैक्ट्री से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, किस पहाड़ पर कितने लोगों से ज़्यादा यात्री नहीं जाने चाहिए. जब हम इस तरह से जीने लगें तो निश्चित ही कुदरत के चक्र अपनी जगह आ जायेंगे अभी हम कहाँ सुनते हैं कुदरत की या विज्ञान की?......सो भुगत रहें हैं ये सब चलता रहेगा, किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं जैसे बचपन में खेलते ......बैठते थे गोल चक्कर बना, पीछे से दौड़ते दौड़ते लड़का मुक्का मरता था, "कोकला छपाकी जुम्मे रात आई है, जेहड़ा मुड़ के पिच्छे देखे उसदी शामत आई है" किसकी शामत कब आयेगी, पता नहीं आज किसान की फसल बारिश से मर रही है, कल कश्मीरी बाढ़ से मर रहा था, परसों केदारनाथ के पहाड़ खिसक गए थे......बचा लो, मुआवज़े दे दो, राहतें दे दो ..अच्छी बात है.....वाहवाही मिलेगी लेकिन समस्या के असल हल तक कोई क्यों जाए? उस तरफ तो सिवा गाली के कुछ नहीं मिलने वाला....वोट या नोट तो दूर की बात हल तो समाज के ढाँचे में आमूल चूल परिवर्तन हैं, और समाज को समझना चाहिए कि उसकी समस्याओं के निवारण के लिए कोई सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं.....ज़िम्मेदार समाज खुद है, समाज की सोच समझ है, सामाजिक व्यवस्था है....... लेकिन यह सब समाज यूँ ही तो समझेगा नहीं....समझाने के लिए भी कोई संगठन चाहिए, जो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा, आपको दिख रहा हो तो ज़रूर बताएं 2. "भूमि अधिग्रहण कानून का ग्रहण" अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ, जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1894 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम. आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया. पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. इक्का दुक्का मिसालों को छोड़, हमारी सरकारों ने इस भूमि अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया. कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई कि तौबा तौबा. आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता. मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो. पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले प्रयोग हुई भी लेकिन अब प्रयोग नहीं हो रही या निकट भविष्य में प्रयोग नहीं होनी है तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है. दूसरी बात यह कि जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए. तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से. जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए. नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं, वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने शयनकक्ष में, शायद नींद न आये. लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए. इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए. तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और? लेकिन यह सब कौन समझाए? विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी सरकार आयेगी तो रोज़गार पैदा होगा, विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा. लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही हाल रहा तो, सिवा झुनझुने के. देखते रहिये मेरे साथ. नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर सकते हैं

Wednesday 7 June 2017

ट्रैफिक मैनेजमेंट

जहाँ-जहाँ सम्भव हो, सरकारी तन्त्र के हाथों से शक्ति छीन लेनी चाहिए.....मिसाल के लिए ट्रैफिक चालान बड़ी आसानी से वीडियो रिकॉर्डिंग करवा कर, प्राइवेट मैनेजमेंट से करवाए जा सकते हैं, पुलिस का कोई रोल ही नहीं होना चाहिए इसमें.....चालान के साथ वीडियो CD भी भेजी जानी चाहिए...अगले को केस फाइट करना हो कर ले अन्यथा जुर्माना भरे.....रोजाना लाखों चालान किये जाने चाहियें....अक्ल ठिकाने आ जायेगी लोगों की...और जो पैसा इक्कठा हो उससे ट्रैफिक ट्रेनिंग की CD बनवा कर जिसका चालान हो उसे फ्री दी जाए, ताकि इनको थोड़ी अक्ल आये. ...अक्ल आ जायेगी कि सड़क का प्रयोग कैसे करना है...अक्ल आ जायेगी कि सड़क-सड़क है उनका ड्राइंग रूम नहीं....सडकों पर होने वाले झगड़े-कत्ल घट जायेंगे....एक्सीडेंट घट जायेंगे...सड़क पर मरने वालों की संख्या घट जायेगी....और पुलिस के हाथों एक शक्ति निकल जायेगी....अभी वैसे भी वो ट्रैफिक इसलिए बाधित करती है कि उसे दिहाड़ी बनानी होती है और अगर सच में ही चालान करते भी हैं तो लोग उनसे जिद्द बहस कर रहे होते हैं, कानून झाड़ रहे होते हैं, उनसे अपनी जान-पहचान, रिश्तेदारी निकाल रहे होते हैं, या अपनी पहुँच का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं.....यह सब एक झटके से खत्म किया जा सकता है... कैसा है आईडिया?
संघ और मुसंघ.....यह टर्मिनोलॉजी सही नहीं है. इससे लगता है कि संघ क्रिया है और मुसंघ प्रतिक्रिया. लेकिन है उल्टा. इस्लाम क्रिया है और संघ प्रतिक्रिया. सो बेहतर है कहें "इस्लाम" और "संघीस्लाम" और दोनों को विदा होना चाहिए....दोनों एक दूजे के परिपूरक हैं.....नूरा कुश्ती करते रहेंगे......मोदी और ओवेसी लड़ते दिखेंगे.....लेकिन गंगाधर ही शक्तिमान है......क्लार्क ही सुपरमैन है.

दाग अच्छे हैं, टैग सच्चे हैं.

कभी सुना है कि टैग करने को भी कोई पसंद कर रहा हो? नहीं सुना होगा. मुझ से सुनें.
असल में टैगिंग बहुत अच्छी चीज़ है लेकिन भूतिया लोग अच्छी-से-अच्छी चीज़ को बकवास कर देते हैं. टैगिंग करेंगे, जैसे दुनिया इनके घूमने-फिरने-खाने-पीने-नहाने-धोने-हगने-मूतने को देखने को ही बैठी हो.
मैं भी टैग करता हूँ. लेकिन सॉफ्ट टैग. यह मुझे Hans Deep Singh जी ने सिखाया था. इसमें बस एक नोटिफिकेशन जाता है अगले को, कि मैंने याद किया है. कोई ज़बरदस्ती नहीं, अपनी किसी पोस्ट को अगले की टाइम लाइन पर भेजने की. बस एक आमन्त्रण है, अपनी पोस्ट देखने का.
यकीन करिये कोई एतराज़ नहीं करता. बल्कि मित्र-गण पसंद ही करते हैं. और करे कोई एतराज़, तो मित्र सूची से बाहर, चूँकि अपना तो क्राइटेरिया ही यही है कि आप और "हम साथ-साथ हैं" तो मात्र इसलिए कि एक-दूजे की पोस्ट देखना-पढ़ना चाहते हैं और अगर नहीं है ऐसा, तो फिर "हम आपके हैं कौन"?