किताब -- वरदान या अभिशाप

किताबें ज्ञान का दीपक हैं.....ह्म्म्म....

इतिहास उठा कर देखो,,,,,किताबों के ज़रिये  ही सबसे ज़्यादा बड़ा गर्क किया गया है दुनिया का........किताबें, जो बहुत ही पवित्र मानीं गयीं. आसमानी, नूरानी. इलाही.

इन किताबों के  पीछे कत्ल करता रहा इंसान, तबाही बरसाता रहा इंसान. उसके पास पवित्र मंसूबे रहे हर दम....कोई सवाल भी उठाये तो कैसे? उसने दुनिया का हर जुल्म इन किताबों की पीछे रह कर किया.......किताब का क्या कसूर? अब तुम चाकू से किसी का पेट चाक कर दो या फिर नारियल काट, पेट भर दो..........तुम्हारी मर्ज़ी.

किताब की ईजाद इंसान को चार कदम आगे ले गई तो शायद आठ कदम  कहीं पीछे ले गई......डार्विन ने कहा ज़रूर कि इंसान बन्दर का सुधरा रूप है लेकिन जैसे ही किताब आई,  इंसान बंदरों के मुकाबले  सदियों पीछे गिर गया, गिरता गया.

हर ईजाद खतरनाक हो सकती है और फायदेमंद भी.......कहते हैं बन्दर के हाथ में उस्तरा दो तो ख़ुद को ही लहुलुहान कर लेगा.....उस्तरे से ज़्यादा नुक्सान पूँछ झड़े बन्दर के हाथ में किताब के आने से हुआ है.

इंसान चंद किताबों का, ख़ास मानी गई किताबों का गुलाम हो गया और अपनी अगली पीढ़ियों को इन किताबों की गुलामी देता गया है.

अब आप इन महान किताबों के खिलाफ सोच नहीं सकते, बोल नहीं सकते.....इन किताबों के हिसाब से ही आपको जीना होगा. आपको इनकी गुलामी स्वीकार करनी ही होगी...वरना आपको कत्ल कर दिया जाएगा....या फिर घुट-घुट के मरते-मरते जीते रहना  होगा.

ये किताबें ग्रन्थ बन गईं.  इंसान के जीवन  की ग्रन्थियां बन गईं.  ग्रन्थियों जिनमें उलझ कर रह गया इंसान

जब तक इंसान किताबों को पवित्र मानना नहीं छोड़ेगा, तब तक इन्हीं ग्रन्थियों में उलझा रहेगा. जब  तक यह नहीं समझेगा कि  किताब कोई भी हो, यदि उस पर सही-गलत सोचने का हक़ ही नहीं दिया जाता तो वो  बेकार है......यदि उसके ज़रिये इंसान की सोच-विचार करने की आजादी पर ही अंकुश लगाया जाता है तो वो किताब बेकार है. 

इंसान की अक्ल को गुलाम बनाने का हक़ किसी को नहीं, भगवान  को भी नहीं.

किसी भी किताब को मात्र एक सलाह मानना चाहिए, मश्वरा. सजेशन. सर पर उठाने की ज़रुरत नहीं है, पूजा करने की ज़रुरत नहीं है..... किताबें मात्र किताबें हैं.....उनमें बहुत कुछ सही हो सकता है, बहुत कुछ गलत भी हो सकता है, आज शेक्सपियर को हम कितना ही पढ़ते हों....पागल थोड़ा हो जाते है उनके लिए, मार काट थोड़ा ही मचाते हैं...और शेक्सपियर, कालिदास, प्रेम चंद सबकी प्रशंसा करते हैं तो आलोचना भी करते हैं खुल कर.....है कि नहीं?

यही रुख चाहिए सब किताबों के प्रति......एक खुला नजरिया.....चाहे गीता हो, चाहे शास्त्र, चाहे कुरआन, चाहे पुराण, चाहे कोई सा ही ग्रन्थ हो.

लेकिन ग्रन्थ इंसान के सर चढ़ गए हैं...ग्रन्थ इंसान का मत्था खराब करे बैठे हैं.

इनको मात्र किताब ही रहने दें.....ग्रन्थ तक का ओहदा ठीक नहीं.

'ग्रन्थ' शब्द का शाब्दिक अर्थ तो मात्र इतना है कि पन्नों को धागे की गाँठ से बांधा गया है...धागे की ग्रन्थियां.

लेकिन आज यह शब्द एक अलग तरह का वज़न लिए है...ऐसी किताबें जिनके आगे इंसान सिर्फ़ नत-मस्तक ही हो सकता है...जिनको सिर्फ "हाँ" ही कर सकता है....तुच्छ इंसान की औकात ही नहीं कि वो इन ग्रन्थों में अगर कुछ ठीक न लगे तो "न" भी बोल भी सके...ये ग्रन्थ कभी गलत नहीं होते...इंसान ही गलत होते हैं, जो इनको गलत कहें, इनमें कुछ गलत देखें, वो इंसान ही गलत होते हैं.

सो ज़रुरत है कि इन ग्रन्थों को किताबों में बदल दिया जाए....इनमें कुछ ठीक दिखे तो ज़रूर सीखा जाए और अगर गलत दिखे तो उसे खुल कर गलत भी कहा जाए...इनको मन्दिरों, गुरुद्वारों और मस्जिदों से बाहर किया जाए..इनके सामने अंधे हो सर झुकाना, पैसे चढ़ाना बंद किया जाए.

अक्सर लोग एक तरह की नामों की गुलामी में ही जी रहे होते हैं...बड़े नामों की गुलामी...चाहे वो नाम किसी किताब का हो या किसी व्यक्ति का......

मेरे जैसे हकीर आदमी की हिमाकत ही कैसे हो गयी?

किसी महान किताब / शख्सियत पर कोई ऐसी टिप्पणी करने की, ऐसी टिप्पणी जो जमी जमाई जन-अवधारणा को ललकारती हो...

मानसिक गुलामी.

मुझसे अक्सर कहा जाता है, मैं कौन हूँ जो फलां विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति के बारे में या उसके किसी कथन या किताब के बारे में टिप्पणी करूं, मेरी औकात क्या है, मुझे क्या हक़ है

मैं बताना चाहता हूँ कि ऐसा करने का सर्टिफिकेट मुझे जनम से ही कुदरत ने दे दिया था, सारी कायनात मेरी है और मैं इस कायनात का...

और मेरा हक़ है, कुदरती हक़, दुनिया के हर विषय के पर, हर व्यक्ति पर बोलने का, लिखने का

और यह हक़ आपको भी है, सिर्फ इस भारी भरकम नामों की गुलामी से बाहर आने की ज़रुरत है

और एक बात और जोड़ना चाहता हूँ, कोई भी व्यक्ति- कोई भी किताब  कितना ही बड़ा नाम हो उसका....कहीं भी गलत हो सकता/सकती है.

नमन..तुषार कॉस्मिक

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