आपने ग्लैडिएटर फिल्म देखी होगी. गुलामों को एक बड़े मैदान में छोड़ दिया जाता था, एक दूजे के ऊपर मरने-मारने को. भद्र-जन देखते थे इनका लड़ना-मरना और ताली बजाते थे, खुश होते थे इनको लहू-लुहान होते हुए, मरते हुए.
कितनी असभ्य थी रोमन सभ्यता! नहीं? क्या लगता है आपको कि आज बड़े सभ्य हो गए हैं हम?
नहीं हुए. बस अपनी असभ्यता थोड़ी और गहरे में छुपा ली हमने. बॉक्सिंग क्या है? एक-दूजे को मुक्कों से मारते हुए लोग. कई मौतें हो चुकी हैं रिंग में.
इन्सान आज भी सभ्य होने के लिए संघर्ष-रत है. वो कभी सभ्य हुआ ही नहीं. आज भी स्कूल में पढ़ाते हैं यूनानी सभ्यता, रोमन सभ्यता, चीनी सभ्यता, भारतीय सभ्यता. सब झूठ बात. इनमें कोई सभ्यता सभ्य नहीं थी. इंसान तो आज भी सभ्य नहीं है. तमाम सभ्यताएं सभ्य होने का प्रयास भर हैं.
आज भी आधी से ज़्यादा दुनिया गरीब पैदा होती है, गरीब जीती है और गरीब मरती है. इसे सभ्यता कहेंगे? एक अकेली औरत रात को छोड़ दो रास्ते पर, सुबह तक कटी-फटी मिलेगी. यह सभ्यता है?
नहीं है इन्सान सभ्य. सिर्फ बेल-बूटों के जंगल से ईंट-पत्थर के जंगल में पहुँच गया है.
सभ्यता शब्द सभा से आता है. मतलब इन्सान सभा में बैठने लायक हो जाये तो सभ्य. वो एक उपमात्मक शब्द है. एक इशारा है. सभा में बैठने लायक कब होता है इंसान? जब वो इतना समझ-दार हो जाए कि उसके बीच के मसले बात-चीत से, प्यार से हल होने लगें न कि लड़ के, कट के, मर के. गले मिल के मसले हल होने लगें, न कि गले काट के, तब इन्सान सभ्य है.
तो है क्या इन्सान सभ्य?
मेरा जवाब है, "नहीं".
और आपका?
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