Saturday 30 June 2018

Intelligentsia

गर कहीं बेहतरी की गुंजाईश है लेकिन हो नहीं रही तो उसके लिए मैं सरकारों को नहीं, वहां के intelligentsia (बुद्धिजीवी वर्ग) को ज़िम्मेदार मानता हूँ. चूँकि सरकारें तो प्राय: बकवास ही होती हैं लेकिन उनके ज़रिये बेहतरी करवाता है intelligentsia. Intelligentsia, जो मुल्क में, दुनिया में विचार की हवा बनाता है और उस हवा से बनी आंधी के दबाव में सियासत को रुख बदलना पड़ता है, बात माननी पडती है.

Tuesday 26 June 2018

मौत

हम सब ऐसे जीते हैं जैसे मौत हो ही न. लेकिन आप किसी के मृत्यु-क्रिया में जाओ, पंडत-पुजारी-भाई जी कान खा जायेंगे उस एक घंटे में, आपका जीना मुहाल कर देंगे, आपको यह याद दिला-दिला कि 'मौत का एक दिन मुअययन है'. ठीक है मौत आनी है, इक दिन आनी है या शायद किसी ख़ास रात की दवानी है तो क्या करें? जीना छोड़ दें? वो हमें यह याद दिलाते हैं कि यह जीवन शाश्वत नहीं है सो हम स्वार्थी न हो जाये. सही है, लेकिन जब तक जीवन है तब तक जीवन की ज़रूरतें हैं और जब तक ज़रूरतें हैं तब तक स्वार्थ भी हैं. हाँ, स्वार्थ असीमित न हों, बेतुका न हों. जैसे जयललिता के घर छापे में इत्ते जोड़ी जूतियाँ मिलीं, जो शायद वो सारी उम्र न पहन पाई हो. लोग इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं जितना वो उपयोग ही नहीं कर सकते. धन का दूसरा मतलब है ज़िन्दगी. धन आपको ज़िदगी जीने की सुविधा देता है, ज़िन्दगी फैलाने की सुविधा देता है. धन आपको ज़िन्दगी देता है. लेकिन जब जितनी ज़िंदगी जीने की आपकी सम्भावना है उससे कई गुना धन कमाने की अंधी दौड़ में लग जाते हैं तो आप असल में पागल हो चुके होते हैं. आपको इस पागलपन का अहसास इसलिए नहीं होता, चूँकि आपके इर्द-गिर्द भी आप ही के जैसे पागलों का जमावड़ा है. ऐसे में कैसे पता लगे कि आप पागल हैं? खैर जीना ऐसे ही चाहिए कि जैसे मौत हो ही न और जीना ऐसे चाहिए कि जैसे बस यही पल हमारे पास है. अगला पल हो न हो. कल हो न हो. पल हो न हो. और मौत? मौत से बहुत डरते हैं हम. मौत को मनहूस मानते हैं. ठीक है, जहाँ पीछे परिवार को दिक्कतें आनी है किसी के जाने से, वहां तो मौत मनहूसियत लायेगी ही लेकिन हर जगह ऐसा नहीं होता. मौत बहुतों को एक सुकून देती है. चलो पिंड छूटा. बस बहुत हुआ सोना-जागना, खाना-पीना. अब चला जाये. ये जो आत्म-हत्या को बहुत बड़ा मुद्दा बना रखा है, वैसा होना नहीं चाहिए. आत्म-हत्या कोई आर्थिक तंगी से या बीमारी से परेशान हो कर रहा है तो निश्चित ही समाज के लिए चिंता का विषय है लेकिन वैसे अगर कोई राज़ी-ख़ुशी जाना चाहता है तो उसे जाने देना चाहिए. प्रेम-पूर्वक. सम्मान-पूर्वक. और हर मृत्यु पर विलाप किया जाये, वो भी कोई उचित नहीं. वैसे हमारा समाज इस बात को समझता भी है इसलिए जब कोई बहुत वृद्ध मरता है तो उसकी अर्थी पर गुब्बारे, फूल आदि लगाए जाते हैं लेकिन समाज को अपनी समझ और बढ़ानी चाहिए. ज़रूरी थोड़ा न है कि वृद्ध था इसलिए उसकी मृत्यु का शोक न किया जाये. कोई भी व्यक्ति, जैसे आढे-टेढ़े बच्चे, जन्म से ही मानसिक रुग्ण बच्चे, लाइलाज बीमारियों से ग्रस्त बच्चे. अब इनकी मौत का क्या करेंगे? मना लीजिये शोक. लेकिन शायद मृत्यु इनकी मरी-मराई ज़िंदगी से छुटकारे का साधन थी. मौत को हमने बहुत बड़ी घटना बना रखा है. कभी आपने देखा? आपके पैरों तले आ के कितने ही कीड़े-मकौड़े मारे जाते हैं. कितने ही मच्छर आप मार देते हैं. क्या फर्क पड़ता है? कोई सितारे हिल जाते हैं इनके जीवन-मरण से? या इनकी किस्मत कोई चाँद-तारों की गति से निर्धारित हो रही है? या कोई परम-पिता परमात्मा बही-खाता लेकर बैठा है इनके जीवन-मरण का हिसाब-किताब करने? कुछ नहीं है ऐसा. बस आये और चले गए. किसी को घंटा फर्क नहीं पड़ता. पड़ना भी नहीं चाहिए. "द शो मस्ट गो ऑन". हवा पार्क में भी है, कमरे में भी है, बोतल में भी, कड़ाही में भी, गिलास में भी....सब जगह है......फिर गिलास टूट गया.....उसकी हवा सर्वव्याप्त हवा से जा मिली.....बस इतनी सी कहानी है. तुम्हें वहम है कि कोई आत्मा हो तुम. नहीं हो. तुम सदैव परमात्मा हो, थे, रहोगे. असल में 'वो' ही है, हम तुम हैं ही नहीं. बस वहम है एक. एक विभ्रम कि हम कुछ अलग हैं. ठीक उस गिलास की हवा की तरह. और जब हम कुछ अलग हैं ही नहीं. अपने आप में कुछ अलग हैं ही नहीं तो कैसा पूर्व जन्म, कैसा पुनर्जन्म्? सब बकवास है, वो गीता का श्लोक बहुत भ्रम फैलाए है कि आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, शरीर रूपी वस्त्र बदलती है. उससे भ्रम होता है कि आत्मा कुछ है. नहीं है. आत्मा जन्म तो तब ले, जब वो कुछ अलग से हो. वो है ही नहीं. वो सर्व-व्याप्त ऊर्जा, शक्ति, जीवन शक्ति, चेतना सब जगह है, सदैव है. तो समझ लीजिये फिर से. आत्मा नामक कुछ नहीं है. आत्मा शब्द को समझिये, आत्मा, आत्म से आत्मा, जैसे अपना कुछ हो. पर्सनल. व्यक्तिगत. न......न... न. ऐसा कुछ भी नहीं है. न कोई आत्मा है, न किसी का जन्म होता है, न कोई मरता है. न कोई पूर्वजन्म है, न कोई पुनर्जन्म है. न कोई स्वर्ग है और न ही कोई नर्क. न जन्म से पहले कोई जीवन है और न ही मृत्यु के बाद. समझ लीजिये, यह सब. हो सकता है माँ के दूध के साथ, घोट कर पिलाए गए कुछ जाने-माने विचार कटते हों मेरी बात से. लेकिन जब तक इनको काटे जाने की तैयारी न हो, समझ लीजिये आप गुलाम हैं. अभी-अभी एक मित्र ने कमेंट किया मेरी एक पोस्ट पर , जो राम से जुड़ी किसी मान्यता के खिलाफ थी, तो कमेन्ट किया की मेरी पोस्ट जानदार नहीं लगी, हालांकि उनको मेरा लेखन वैसे बहुत पसंद था, बेबाक लगता था. मैंने जवाब दिया, "आप कोई पहली हैं जो अक्सर नहीं समझते जो नहीं समझना हो?.....मेरा लिखा बाकी सब समझ आएगा, लेकिन मैं कुछ भी लिखूं वो समझ नहीं आएगा एक सिक्ख को यदि उसकी सिक्खी मान्यताओं के कहीं विपरीत जाएगा......न मुस्लिम को कुरान के खिलाफ मेरा लिखा .....न हिन्दू को उसके किसी ग्रन्थ के खिलाफ लिखा" ये पोते गए विचार, थोपे गए विचार आपकी चमड़ी बन चुके हैं, आप चाहते हैं, लाख कोशिश करते हैं कि किसी तरह से आप अपनी चाम बचा लें. Somehow you may succeed in saving your skin. लेकिन मैं ऐसा होने न दूंगा. मैं अंतिम दम तक कोशिश करता रहूँगा कि आप इस थोपन, इस पोतन से बाहर आ जाएं. रियल एस्टेट के धंधे में पंजाबी की एक कहावत प्रचलित है है, अक्को नहीं ( बोर मत होवो), थक्को नहीं ( थको मत), झक्को नहीं ( झिझको मत) . बस समझ लीजिये यह कहावत घोट के पी चुका हूँ. जब तक सांस, तब तक आस, तब तक प्रयास. वैसे मैंने काफी जीवन जी लिया है सो मौत कभी भी आये स्वागत है लेकिन दो बिटिया हैं, उनके लिए-परिवार के लिए आर्थिक इन्तेजाम अभी करना बाकी है और बीमार माँ चारपाई पर मौजूद है. सो और जीने की बस वही वजह है. मैं बहुत कुछ करना चाहता था समाज के लिए, कुछ प्रयास भी किये, लेकिन आर्थिक स्थिति ने साथ नहीं दिया. सो बस लेखन से ही संतोष करना पड़ा. मेरे तकरीबन सात सौ लेख हैं, जो ऑनलाइन मौजूद हैं. मेरा ब्लॉग है tusharcosmic.blogspot.in. वहां मेरा लिखा काफी कुछ मौजूद है. बहुत मेहनत से लिखा है सब. बहुत समय दिया है. मेरे लेखों से समाज के लिए मेरी तड़प साफ़ दिखेगी. समाज अगर मेरा लेखन पढ़ भर ले तो बहुत बेहतरी आ सकती है. हालाँकि मेरा लेखन अधिकांश को स्वीकार ही नहीं होगा. लेकिन उससे क्या? जो है, सो है. खैर, अभी भी मौका मिलेगा तो परिवार के साथ-साथ समाज के लिए बहुत बहुत करने की तमन्ना है. मैं कोई कल ही मरना नहीं चाहता, न कोई आत्म-हत्या करने जा रहा हूँ. महज़ मौत से जुड़े मेरे ख्यालात साझे कर रहा हूँ. कहते हैं इन्सान की ख्वाहिशें तो कभी पूरी नही होती. बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन कम निकले. खैर, मैं चाहता हूँ कि अगर सम्भव हो तो मुझे उमदा साहित्य पढ़ने का बहुत समय-सुविधा मिले.
मृत्यु पर अंग-दान को बहुत सराहा जाता है. लेकिन मेरा दान में जरा कम विश्वास है. बेहतर है कि बेचा जाये. मैं तो मुफ्त में अपने लेख जो पढवाता हूँ, वो भी तभी तक जब तक मैं कोई और ढंग नहीं खोज लेता जिससे मैं कमा सकूं. तभी मेरे हर लेख के नीचे पहले 'कॉपी राईट' लिखा रहता था. आज कल लोग समझते हैं, कम चोरी करते हैं सो 'कॉपी राईट' लिखना कम कर दिया है. लेकिन आज भी चोरों को मैं बिलकुल पसंद नहीं करता, ज़्यादा को तुरत ब्लाक. सो भैया नो दान. हाँ, बेचने का कोई ढंग होगा तो वो जोड़ दूंगा लेख में. अभी तक इसलिए नहीं जोड़ा चूँकि कुछ ठीक-ठीक मामला जमता नहीं दिखा. डेड-बॉडी जलाने के लिए जो बहुत लकड़ियाँ प्रयोग की जाती हैं, वो मुझे पसंद नहीं. CNG या इलेक्ट्रिक सिस्टम से बॉडी को फूंक दिया जाये, वो ही बेहतर है. और मुझे तो पंडत-पुजारियों-भाई जी की मौजूदगी से भी कोफ़्त होती है सो इन्हें दूर ही रखा जाये. कोई किसी भी तरह का पाठ नहीं. अगर करना ही हो तो मेरे लिखे लेखों में से कुछ लेख मेरी मृत्यु पर पढ़ दिए जाएँ. बस. कोई ताम-झाम नहीं. परिवार का कैसा भी वेहला खर्च नहीं होना चाहिए. और मेरी जो छोटी सी लाइब्रेरी है वो अगर न सम्भाली जा पाए तो सब किताब किसी भी पुस्तकालय को दान दे दी जायें. परिवार को शोक होगा, ठीक है. लेकिन बाकी तो इक्का-दुक्का को छोड़ किसी को कोई फर्क पड़ने नहीं वाला और पड़ना भी नहीं चाहिए. किसलिए? क्या रोज़ लोग मर नहीं रहे? क्या रोज़ नए बच्चे पैदा नहीं हो रहे. पुराने जायेंगे तभी तो नए लोगों की जगह बनेगी. खैर ..नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday 22 June 2018

लंगर

शब्द सुनते ही श्रधा जग जाती होगी. नहीं? शब्द सुनते ही एक पवित्रता का अहसास होता होगा कि कुछ तो अच्छा कर रहे हैं. दान. पुण्य. धर्म. शब्द सुनते ही भाव जगता होगा कि लंगर बहुत ही स्वादिष्ट होता है, चाहे कद्दू की सब्ज़ी ही क्यों न बनी हो. आपके सब अहसास, सब भाव बकवास है. सड़कों पर गन्दगी फैलती है. प्लास्टिक के जिन्न का कद और बड़ा हो जाता है. पैसे वालों के अहंकार का जिन्न फल-फूल जाता है. उनको ख़ुशी मिलती है कि उनके पास इतना पैसा है जिसे वो बहा सकते हैं और उस पैसे से बने लंगर के लिए लोग लाइन लगा कर खड़े हो सकते हैं. उन्हें तृप्ति मिलती है कि अगर उनसे कोई पाप हुआ है, कुछ गलत हुआ है तो अब उनका पाप पाप न रहेगा. उनका गलत गलत नहीं रहेगा. पूंजीपति के संरक्षण का साधन है 'लंगर'. अमीर को लगे कि वो कुछ तो भला कर रहा है समाज का. और गरीब को भी लगे कि हाँ, अमीर कुछ तो भला कर रहा है उसका. लेकिन बस लगे. हल कुछ नहीं होता. क्या हल होता है लंगर से? क्या हल हुआ है लंगर से? क्या मुल्क की गरीबी मिट गई? भूख मिट गई? क्या हुआ? ये लंगर किसी भी समस्या का समाधान नहीं हैं. चाहे गुरूद्वारे में चले, चाहे मन्दर में, चाहे सड़क पर. भारत में अधिकांश लोग गरीब पैदा होते हैं, गरीब जीते हैं और गरीब ही मरते हैं. कौन सा मुल्क इस तरह से समृद्ध हुआ है? मुल्क समृद्ध होता ज्ञान-विज्ञान से, न कि इस तरह की मूर्खताओं से. बंद करो यह सब. कुछ न धरा इन में. नमन ..तुषार कॉस्मिक

Tuesday 19 June 2018

सरकारी नौकरियां- पुराने व्यवधान--नए समाधान

१. हर सरकारी नौकर wearable वीडियो कैमरा पहने हो और CCTV तले भी हो. २. कम से कम सैलरी का जो टेंडर भरे, नौकरी उसे मिलनी चाहिए. ३. जो काम उससे करवाया जाना है, बस उसमें महारत हो उसे, जैसे बैंक केशियर बनने के लिए फिनांस की दुनिया की महारत नहीं, बस अपना काउंटर सम्भालने जितनी क्षमता हो. ४. साफ़-सफाई, सीवर हैंडलिंग जैसे काम में सैलरी आम कामों से दोगुनी हो. ५. शिकायत का वीडियो या ऑडियो सही साबित होते ही बर्खास्तगी और सज़ा का प्रावधान भी. ६. जो काम प्राइवेट ठेके पर हो सकते हैं, उनमें सरकारी टांग खत्म हो, जैसे सफाई का काम प्राइवेट कम्पनियों को दिया जा सकता है. ७. अब अगर कोई रिजर्वेशन मांगता भी है तो दे दो. हमें क्या है? ८. नमन...तुषार कॉस्मिक

आज थोड़ा गीत-संगीत

੧. किशोर दा की सिंगिंग में मुझे रफी साहेब के मुकाबले ज़्यादा रेंज लगती है. आवाज़ में ज़्यादा खुलापन. २. लता बहुत ज्यादा परफेक्ट गाती थीं, ऐसे लगता था जैसे उनकी आवाज़ किसी परफेक्ट मशीन में से आ रही हो. मुझे आशा उनसे बेहतर लगीं. आवाज़ में थोड़ा नमकीन-पन. लता बहुत ज्यादा मीठीं. डायबिटीज हो जाये. ३. जगजीत सिंह कभी खास नहीं लगे. उनके जैसा गाना मुझे लगा थोड़े प्रयास से कोई भी गा दे. ४. नुसरत फ़तेह अली साहेब. वाह. लेकिन उनके गानों में दोहराव महसूस होता था. और उनके आखिरी दिनों में उनकी आवाज़ ज़्यादा गाने की वजह से या शायद किसी और वजह से फटने लगी थी. ५. उषा उत्थूप ने साबित किया है कि मीठी और सुरीली आवाज़ ही ज़रूरी है गाने के लिए, यह सरासर गलत है. उनकी आवाज़ मरदाना किस्म की है. लेकिन पसंद किया जाता है उनको. ७. और आज के गानों के न बोल अच्छे हैं न संगीत. और उसकी वजह यह है कि लोग सब तुचिए हो गए हैं. न उनमें गाने की समझ है, न संगीत की. मतलब समझना तो उनके बस की बात ही नहीं. बस कूदना है. उसके लिए बिना बोल के संगीत प्रयोग किया करो बे, ये भद्दे-भद्दे बोल वाले गाने क्यों? ७. बाकी मैंने एक लेख लिखा था, अंग्रेज़ी में. लिंक दे रहा हूँ. पढ़ लेना अगर अंग्रेज़ी से परहेज़ न बता रखा हो डॉक्टर ने तो. ८. नमन....तुषार कॉस्मिक.

बाबरी मस्ज़िद का गिरना और मेरी ख़ुशी

मुझे ख़ुशी है कि बाबरी मस्जिद गिरी. हर मस्जिद गिरनी चाहिए. साथ ही मन्दिर भी.साथ ही गुरुद्वारे भी. गिरजा भी. ये मन्दिर, मसीत, गुरूद्वारे जो इन्सान को हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख में बांटे ये धर्म नहीं अधर्म के अड्डे हैं. यहाँ का प्रसाद अमृत नहीं, ज़हर है. यहाँ के शब्द बुद्धि-हरण वटी हैं. धर्म-स्थल होने चाहियें, जहाँ व्यक्ति शांत हो बैठना चाहे बैठ सके. सोना चाहे सो सके. नाचना चाहे नाच सके. सम्भोग करना चाहे, कर सके. लेकिन ऐसे स्थल कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख के न हों. कोई अलग पहचान न छोडें, जिससे इंसानियत टुकड़ों में बंटे. बोलिए समझ में आई मेरी बात? तुषार कॉस्मिक

आलोचना जज साहेब की

कोर्ट जाना होता है बहुत. वकील नहीं हूँ. अपने केस लेकिन खुद लड़ लेता हूँ और प्रॉपर्टी के विषय में कई वकीलों से ज्यादा जानकारी रखता हूँ. तो मित्रवर, आज बात जजों पर. कहते हैं कि आप जजमेंट की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जज की नहीं. बकवास बात है. इस हिसाब से तो आप क़त्ल की आलोचना करो, कातिल को किस लिए सज़ा देना? आलोचना हर विषय की-हर व्यक्ति की होनी चाहिए. आलोचना से परे तो खुदा भी नहीं होना चाहिए तो जज क्या चीज़ हैं? पीछे एक इंटरव्यू देख रहा था. प्रसिद्ध वकील हैं 'हरीश साल्वे'. जिन्होंने अन्तराष्ट्रीय न्यायालय में भारत का पक्ष रखा था कुलभूषण जाधव के केस में. यह वही जाधव है जिसे पाकिस्तान ने जासूसी के आरोप में पकड़ा हुआ है. खैर, ये वकील साहेब बड़ी मजबूती से विरोध कर रहे थे उन लोगों का जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्र के खिलाफ़ महा-अभियोग लाया था. इनका कहना था कि ऐसे लोगों को जेल में डाल देना चाहिए चूँकि इस तरह तो जजों की कोई इज्ज़त ही नहीं रहेगी. कोई भी कभी भी किसी भी जज पर ऊँगली उठा देगा. हरीश साल्वे जैसे लोग लोकतंत्र का सही मायना समझते ही नहीं. यहाँ भैये, सब सरकारी कर्मचारी जनता के सेवक हैं. जज तनख्वाह लेता है कि नहीं? किसके पैसे से? जनता के टैक्स से. फिर काहे वो जनता से ऊपर हो गया? जब एक जज की जजमेंट दूसरा जज पलट देता है तो वो क्या साबित करता है? यही न कि पहले वाले ने ठीक अक्ल नहीं लगाई? अगर जज इत्ते ही इमानदार है-समझदार हैं तो आज तक कोर्ट रूम में CCTV कैमरा क्यों नहीं लगवा दिए? साला पता लगे दुनिया को कि जज कैसे व्यवहार करते हैं-कैसे काम करते हैं. जज कम हैं, यह फैक्ट है लेकिन जितने हैं उनमें अधिकांश बकवास हैं, यह भी फैक्ट है. फुल attitude से भरे. जैसे आसमान से उतरे हों. शुरू के एक घंटे में पचीस-तीस लोगों को निपटा चुके होते हैं. एक केस का आर्डर लिखवाने में मात्र चंद सेकंड का समय लेते हैं. पूरी बात सुनते नहीं. गलत-शलत आर्डर लिखवा देते हैं. जनता को कीड़े-मकौड़े समझते हैं. डरते हैं कि फैसला ही न लिखना पड़ जाये. कहीं फैसले में इनसे कोई भयंकर बेवकूफी ही न हो जाये. चाहते हैं कि मामला पहले ही रफा-दफा हो जाये. जबरदस्ती Mediation में भेज देते हैं. 'डेली आर्डर' वादी-प्रतिवादी के सामने नहीं लिखते. बाद में लिखते हैं. सामने कुछ और बोलते हैं, लिखते कुछ और हैं. और इस लिखने में गलतियाँ कर जाते हैं जिसका खमियाज़ा केस लड़ने वालों को भुगतना पड़ता है. कभी भी बदतमीज़ी से बात करने लगते हैं. अपनी गलती की सज़ा केस लड़ने वाले को देते हैं. मेरा एक केस है तीस हज़ारी कोर्ट, दिल्ली में. जज ने मेरे opponent की प्रॉपर्टी का कब्ज़ा मुझे दिलवाने का आर्डर लिखना था लेकिन आर्डर में लिख दिया कि मुझे movable प्रोपर्टी का कब्ज़ा दिलवाया जाये. movable प्रोपर्टी होती हैं मेज़, कुर्सी, फ्रिज, टीवी आदि. जिनको लेने का मेरा कोई मतलब ही नहीं था चूँकि प्रॉपर्टी के बयाने का केस है, जिसमें मैंने बकाया रकम देनी है और प्रॉपर्टी लेनी है. अब जज साहेब को जब आर्डर अमेंड करने को लिखा तो चिढ़ गए हैं. खैर, आर्डर तो वो अमेंड कर देंगे लेकिन उनकी इस गलती की वजह से मेरे तीन महीने खराब हो चुके हैं. लेकिन उनका क्या गया? वो तो जज हैं. जज साहेब. इन्सान की तरह तो व्यवहार ही नहीं कर रहे होते जज साहेब. ऐसे काम करते हैं जैसे पूरी दुनिया के कुत्ते इनके पीछे पड़े हों. अरे, भगवान नहीं हैं, वो. इसी करप्ट समाज की करप्ट पैदवार हैं. कोर्ट में मौजूद हर कारिन्दा रिश्वत ले रहा होता है तो यह कैसे मान लिया जाये कि जज साहेब अछूते होंगे? आपको पता है सुकरात को ज़हर पिलाया गया था उस समय की कोर्ट के फैसले के मुताबिक? जीसस को सूली भी कोर्ट ने लगवाई थी. 'जॉन ऑफ़ आर्क' नाम की लड़की को जिंदा जलवा दिया था कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उसे संत की उपाधि दी. और यह उपाधि कोई हिन्दू संत जैसी नहीं है कि पहना गेरुआ और हो गए संत. वहां बाकायदा वेटिकेन से घोषणा होती है. तब जा के किसी को संत माना जाता है. गलेलियो को बुढ़ापे में घुटनों के बल माफी मंगवा दी कोर्ट ने. बाद में ईसाईयों ने उससे भी बाकायदा माफी मांग ली है. भगत सिंह. किस ने फांसी दे उसे? कोर्ट ने भाई. आज आप भगत सिंह के नाम से ही इज्ज़त से भर जाते हो. तो मित्रवर, अक्ल की गुल-बत्ती को रोशन कीजिये और कोर्ट क्या-रेड फोर्ट क्या, सब पर सवाल उठाना सीखें. 'सवाल' उठाने से ज्यादा पवित्र शायद कुछ भी नहीं. यह वो आग है जो कूड़ा कचरा खुद ही जला देती है. सवाल उठाएं जजमेंट पर भी और जज साहेब के आचार-व्यवहार पर भी. जनतंत्र में जन से ऊपर कुछ भी नहीं. सारा निज़ाम उसकी सेवा के लिए है. लेकिन वो सेवा आपको यूँ ही नहीं मिलने वाली. आज आपका सेवक आपका मालिक बना बैठा है. सरकारी नौकर आपका नौकर नहीं है. वो नौकर ही नहीं है. वो जनता का जमाई राजा है. जम गया तो बस जम गया. अब उखाड़ लो क्या उखाड़ोगे उसका? अपना हक़ आपको छीनना पड़ेगा. लेकिन छीनोगे तो तब जब आपको पहले अपना हक़ पता हो. खैर, वो मैंने बता दिया है. अब आगे का काम आप करो. फैला दो इस लेख को जैसे हो जंगल में आग, शैम्पू की झाग. भाग मिल्खा भाग. नमन...तुषार कॉस्मिक
आज शायद कोई गुर-पर्व था. सिक्ख बन्धु भी वही बेअक्ली कर रहे थे जो अक्सर हिन्दू करते हैं.

जबरन कारें रोक पानी पिला रहे थे. ट्रैफिक जैम. लानत!

सड़कों पर जूठे गिलास, पत्तल आदि का गंद ही गंद. लक्ख लानत!!
और गंद भी प्लास्टिक का. लानत ही लानत!!!
अबे तुम कोई पुण्य नहीं, पाप कर रहे हो मूर्खो.

इसीलिए कहता हूँ कि धर्म ही अधर्म है. अच्छे-भले इन्सान की बुद्धि घास चरने चल देती है. मूर्खता के महा-अभियोजन हैं धर्म.

बचो. और बचाओ.
आरक्षण एक गलत सुझाव है...बुनियादी रूप से

मानो सौ मीटर की दौड़ होनी है और कोई दौड़ाक को जान बूझ कर घटिया डाइट दी गयी हो सालों और वो हारता ही आया हो. तो अब इस समस्या का इलाज क्या है? क्या यह इलाज है कि उसे जबरन जितवा दिया जाये? यह तो पूरे खेल को ही खराब करना हुआ. इसका इलाज यह है कि उसे डाइट बेहतर दी जाये. बेहतर से भी बेहतरीन. लेकिन दौड़ तो दौड़ है. इसमें कैसा आरक्षण?

आशा है समझा सका होवूँगा.

बदलिए कोर्ट का माहौल

कभी कोर्ट का सामना किया हो तो आप मेरी बात समझ जायेंगे. जज एक ऊंचे चबूतरे पर कुर्सी पर बैठते हैं. वकील, वादी, प्रतिवादी उनके सामने खड़े होते हैं. बीच में एक बड़ा सा टेबल टॉप होता है. वकील आज भी 'मी लार्ड' कहते दिख जाते हैं. क्या है ये सब? आपको-मुझे, जो आम-अमरुद-आलू-गोभी लोग हैं, उन्हें यह अहसास कराने का ताम-झाम है कि वो 'झाऊँ-माऊं' हैं. जज कौन है? जज जज है. ठीक है. लेकिन है तो जनता के पैसे से रखा गया जनता का सेवक. तो फिर वो कैसे किसी का 'लार्ड' हो गया? तो फिर काहे उसे इत्ता ज्यादा सर पे चढ़ा रखा है. उसे ऊंचाई पर क्यों, हमें निचाई पर क्यों रखा गया है? उसे बैठा क्यों रखा है, हमें खड़ा क्यों कर रखा है? सोचिये. समझिये. आप जनता नहीं हैं. आप ही मालिक हैं. जज और हम लोग आमने-सामने होने चाहियें...एक ही लेवल पर. बैठे हुए. खतरा है तो गैप रख लीजिये.....बुलेट प्रूफ गिलास लगा लीजिये बीच में . फिर दोनों तरफ की आवाज़ साफ़ सुने उसके लिए माइक का इन्तेजाम कर लीजिये. कार्रवाई की वीडियो रिकॉर्डिंग कीजिये. हो सके तो youtube पर भी डालिए. माहौल बदल जायेगा जनाब. नमन........तुषार कॉस्मिक

भारत----एक खोज--आज-कल-और कल

मोदी काल एक विशेषता के लिए याद किया जाता रहेगा. इत्ते लोग पलायन कर गए भारत से, जित्ते शायद कभी नहीं किये. इत्ते कि भाई साहेब को आयोग गठित करना पड़ गया यह पता करने के लिए कि इस पलायन की वजह क्या है. क्या वजह है? इसके लिए क्या कोई आयोग चाहिए था? चार लोगों से पूछ लेते गर अपनी अक्ल नहीं चलती तो. भारत में आरक्षण जड़ जमाए है. जो अभी तो विदा होने से रहा. कितना ही तर्क दो, कुछ होने वाला है नहीं. लोग सार्वजनिक सीट पर रूमाल रख चले जाते हैं तो सीट रिज़र्व मानी जाती है, लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं उस सीट के लिए. यहाँ तो नौकरियों की बात है. और ये नौकरियां कोई नौकरियां नहीं हैं, उम्र भर का गिफ्ट हैं. मोटी तनख्वाह. भत्ते. साहिबी. पक्की नौकरी. ऐसे गिफ्ट को कोई कैसे छोड़ देगा? न, यह होने वाला नहीं. तो जनरल श्रेणी की नई पौध में जिनके भी माँ-बाप सक्षम हैं, स्टडी वीज़ा पर उन्हें बाहर भेजे जा रहे हैं. ज्यादातर बच्चे कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड का रुख कर चुके हैं. कुछ को बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों ने बाहर भेज रखा है. एक और श्रेणी है. जिनके पास भी यहाँ दो-चार-पांच करोड़ रुपये हो चुके, वो भारत छोड़ चुके या छोड़े जा रहे हैं. वजह साफ़ है. उन्हें पता है कि अपने पैसे से वो अपना घर तो सुधार-संवार सकते हैं लेकिन बाहर गली की गन्दगी जस की तस रहेगी, गली के खड्डे जस के तस रहेंगे, गली में नाली ओवर-फलो करती ही रहेगी. पुलिस वाला बदतमीज़ ही रहेगा, रिश्वत-खोर ही रहेगा, न्यायालय सिर्फ तारीखें देगा, सरकारी अस्पताल बदबूदार ही रहेगा और प्राइवेट अस्पताल पैसे लूटेगा. इनके पास क्या विकल्प था बेहतर ज़िन्दगी का? यही कि बेहतर मुल्क में चले जायें. यह भारत प्रेम की कहानी सब बकवास है. सबको बेहतर ज़िंदगी चाहिए. भारत में रहने वाले जो मुसलमान भी भारत प्रेम दर्शाते हैं, वो मात्र इसलिए कि पाकिस्तान भारत से हल्का मुल्क है, बाकी इर्द-गिर्द भी भारत से कोई बेहतर मुल्क नहीं है, वरना किसी को भारत से कोई टिंडे लेने हैं क्या? और यही हाल, तथा-कथित हिंदुओं का है. यह 'वन्दे मातरम' के नारे सब बकवास हैं. 'भारत माता की जय' बस खोखले शब्द हैं. आज इनको अमेरिका-कनाडा की रिहाईश दे दो, आधा भारत खाली हो जायेगा. और शायद सारा ही. बात करते हैं. इडियट. और जब मैं इडियट लिखता हूँ, तो समझ जाईये कि यह एक ऐसी शाकाहारी गाली है, जिसमें सब मांसाहारी गालियाँ शामिल हैं. क्या है भारत का भविष्य? भारत की राजनीति-समाजनीति पांच साल पहले बदलती-बदलती रह गयी. कांग्रेस की कुर्सी गिराने वाले थे, अन्ना और अन्ना के साथ खड़े लोग. यह बहुत ही कीमती समय था. लोग, पढ़े लिखे लोग जुट रहे थे. कीमती नौकरियां छोड़-छोड़ आने लगे थे. भारत में ऐसा कुछ होने जा रहा था, जो भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ था. हर क्षेत्र के लोग जुटने लगे थे. भारत का सौभाग्य जागने वाला था. लेकिन जगा नहीं, दुर्भाग्य जाग गया. कांग्रेस के नीचे से ज़मीन खींच ली गयी, उस की पतंग काट दी गयी, लेकिन वो कटी पतंग कोई और लूट ले गया. अन्ना के साथ खड़े लोग, एक साथ न रह पाए. सबके अपने-अपने ईगो. रामदेव भी इनके करीब आया, लेकिन उसे साथ नहीं लिया गया. किरण बेदी भाजपा में चली गईं, वही भाजपा जिसका वो विरोध कर रही थीं. अन्ना को भी विदा कर दिया गया. धीरे-धीरे सब बिखर गए. आरएसएस के पास नब्बे सालों का संगठन था. पुरानी पार्टी थी भाजपा. और पार्टी-फंड था. बाकी जुटा लिया गया. फिर धन-तन्त्र का खेला हुआ. खुल के पैसे का नंगा नाच. टीवी, रेडियो, अखबार, फेसबुक, व्हाट्स-एप, सड़क सब जगह अँधा पैसा फेंका गया. बस यही मौका था. नब्बे साल में अपने दम पर संघ समाज में स्वीकार्यता नहीं बना पाया था. लेकिन इस बार मैदान खाली था. सामने खिलाड़ी कोई था नहीं. जीतना ही था. 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी' होने लगा. 'चाय पर चर्चा' के लिए खर्चा किया गया. ये बड़ी रैलियां की गईं. रैले. रेलम-पेल. एक ऐसे आदमी को प्रधान-मंत्री बना दिया गया, जिस में जीरो प्रतिभा थी. उसे कुछ पता ही नहीं था कि करना क्या है. उसकी क्वालिफिकेशन मात्र इतनी कि वो संघ का सदस्य था. कि गुजरात में मुस्लिम का दमनकारी था. गुजरात मॉडल की तरक्की का प्रचार किया गया, जिसका असल में किसी को कुछ पता नहीं था कि वो है क्या. इस्लाम के खिलाफ खूब प्रचार किया गया. उधर से इस्लामिक आतंक की खबरें पूरी दुनिया से आने लगीं. बस बात बन गई. मोदी प्रधान-मंत्री. बहुमत के साथ. अब लोगों को लगा कि अच्छे दिन आने ही वाले हैं. पन्द्रह लाख आने ही वाले हैं. महिला सुरक्षा होने ही वाली है. नौकरियों की बारिश होने ही वाली है. लेकिन हुआ क्या? गाय-गोबर. गौ रक्षक दल उभर आये. आश्रमों, से मन्दिरों से उठा-उठा के लोगों को मंत्री बना दिया गया. न नौकरियां आ पाईं, न महिला सुरक्षा हुई, न किसी को पन्द्रह लाख मिले, न अच्छे दिन मिले. स्वीकार भी कर लिया कि वो तो चुनावी जुमले थे, हमने कोई तारीख नहीं दी थी, अभी तो बीस साल और लगेगें, तीस साल, पचास साल. हाँ, मिले अच्छे दिन, लेकिन मोदी को. वो देश-विदेश खूब घूमे. वहां किराए की भीड़. 'मोदी- मोदी-मोदी'. घंटा.....बस वो घंटा बजाते रहे हर जगह मन्दिरों में. चार साल बीत गए हैं. भारत के हाथ कुछ नहीं आया सिवा खोखले शब्दों के. अब अगले चुनाव आने वाले हैं. और भारत का दुर्भाग्य है कि भारत के पास कोई भविष्य नहीं है. एक तरफ संघी दल भाजपा है और दूसरी तरफ छितरी हुई कई पार्टियाँ, जिनके अपने रिकॉर्ड खराब हैं. ऐसे में होगा क्या? भारत के पास एक भविष्य है कि फिर से नए लोग आयें. जुटें. पढ़े-लिखे. नई सोच के साथ. तार्किकता के साथ. वैज्ञानिकता के साथ. और भारत की जमी-जमाई बकवास सोच को धक्का मार सकें. ऐसे में मैं हाज़िर हूँ, मेरे जैसे और कई लोग मिल सकते हैं. लेकिन ऐसा होने की सम्भावना बहुत कम है. चूँकि भारत की राजनीति ब्रांडिंग का खेल है. अरबों रुपये फेंका जाता है. अभी मोदी ने एक्सरसाइज करते हुए कोई वीडियो डाला. करोड़ों लोगों ने देखा. ये एक्सरसाइज व्यायाम के नाम पर कलंक हैं. ऐसे चल रहे हैं, जैसे अण्डों पर चल रहे हों. ऐसे हाथ-पैर हिला रहे हैं, जैसे मोच ही न आ जाये. क्या है यह सब? ब्रांडिंग. यहाँ राजनीति 'विचार' किसके पास बढ़िया है, उससे नहीं चल रही, पैसा किस के पीछे बढ़िया है, ब्रांडिंग किसकी बढ़िया, इससे चलती है. नतीजा. फिलहाल भारत का कोई भविष्य नहीं. अगले पांच साल भी नहीं. ऐसे में समझ-दार भारत न छोड़े तो और क्या करे? यह समझने के लिए आयोग नहीं, अक्ल का सहयोग चाहिए, जो मोदी सरकार के पास है नहीं. एक और ट्रेजेडी यह हुई है मोदी काल में कि हर तरह की 'सोच' जो भी 'संघी सोच' के विरुद्ध है उसे दबाने का प्रयास किया गया है. खुशवंत सिंह को इसलिए नकारा जा रहा है चूँकि उसके पिता ने भगत सिंह के खिलाफ गवाही दी थी. हो सकता है दी हो, लेकिन उससे क्या? उनका लेखन अपनी जगह है. लेकिन असल वजह यह है कि वो हिन्दू पोंगा-पंथी के भी खिलाफ लिखते रहे हैं. कलबुर्गी, पंसरे, गौरी लंकेश आदि की हत्या करवा दी गई.मार्क्स को तो ठीक से लोगों तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा. बस पोंगा-पंथी पेली जा रही है. भारत विश्व-गुरु था. यहाँ महाभारत काल में इन्टरनेट था, यहाँ रामायण काल में विमान था, सीता टेस्ट-टयूब बेबी थीं. वैरी गुड. था, तो अब क्या करें? नाचें. नहीं गर्व करो. 'गर्व से कहो कि हम हिन्दू हैं'. नहीं कहेंगे तो भारत में रहने नहीं देंगे. 'यदि भारत में रहना होगा तो वन्दे मातरम कहना होगा'. संघ की एक-एक शाखा में ये सब विचार बच्चों और बड़े बच्चों को पेले-ठेले जा रहा हैं, जिनको पता भी नहीं कि इस सब का असल मन्तव्य क्या है, मतलब क्या है. ऐसे में क्या होगा भारत का? यहाँ कोई वैज्ञानिकता नहीं फैलने वाली. यहाँ कोई सामाजिक-राजनीतिक सुधार होने वाले नहीं हैं. इस्लाम का डर है संघ को, जिसे उसने हिन्दू समाज तक पहुँचाया है और यह डर सच्चा है. इस्लाम सिर्फ नमाज़, रोज़े, ईद का नाम नहीं है. उसमें अपने कायदे-कानून हैं, जो किसी भी और विचार-धारा को नहीं मानते. और जनसंख्या अगर बढ़ गई मुसलमान की तो फिर सारा का सारा जनतंत्र-सेकुलरिज्म धरा का धरा रह जायेगा. इस्लाम सिर्फ मोहम्मद और कुरआन को मानता है. और कुरआन से निकले नियम-कायदे-कानून को मानता है. तो मैं जैसे हिंदुत्व के खिलाफ हूँ वैसे ही इस्लाम के भी खिलाफ हूँ. भारत में इस्लाम का प्रभुत्व न हो, हिंदुत्व का प्रभुत्व न हो, खालिस्तानियों का प्रभुत्व न हो, इसके लिए हर कम्युनिटी की जनसंख्या निर्धारित करनी ज़रूरी है. जनसंख्या एक ख़ास प्रतिशत से ऊपर कोई भी न बढ़ा पाए, इसके लिए कानून बनाने की ज़रूरत है. ऐसा कोई कानून न होने की ही वजह है कि आपको हिन्दू ब्रिगेड में से आवाजें आती हैं कि हिन्दू जनसंख्या बढाएं, चार बच्चे पैदा करें, छह पैदा करें. चाहे आत्म-हत्या की नौबत आ जाये, लेकिन घर में बच्चे ही बच्चे पैदा कर लें. खैर, मैं निराश हूँ. मुझे इस मुल्क का भविष्य अभी तो खराब ही दिख रहा है. जो होना चाहिए, वो होने वाला नहीं दिख रहा और जो नहीं होना चाहिए, वो सब होता दिख रहा है. नमन....तुषार कॉस्मिक