Friday, 22 June 2018

लंगर

शब्द सुनते ही श्रधा जग जाती होगी. नहीं? शब्द सुनते ही एक पवित्रता का अहसास होता होगा कि कुछ तो अच्छा कर रहे हैं. दान. पुण्य. धर्म. शब्द सुनते ही भाव जगता होगा कि लंगर बहुत ही स्वादिष्ट होता है, चाहे कद्दू की सब्ज़ी ही क्यों न बनी हो. आपके सब अहसास, सब भाव बकवास है. सड़कों पर गन्दगी फैलती है. प्लास्टिक के जिन्न का कद और बड़ा हो जाता है. पैसे वालों के अहंकार का जिन्न फल-फूल जाता है. उनको ख़ुशी मिलती है कि उनके पास इतना पैसा है जिसे वो बहा सकते हैं और उस पैसे से बने लंगर के लिए लोग लाइन लगा कर खड़े हो सकते हैं. उन्हें तृप्ति मिलती है कि अगर उनसे कोई पाप हुआ है, कुछ गलत हुआ है तो अब उनका पाप पाप न रहेगा. उनका गलत गलत नहीं रहेगा. पूंजीपति के संरक्षण का साधन है 'लंगर'. अमीर को लगे कि वो कुछ तो भला कर रहा है समाज का. और गरीब को भी लगे कि हाँ, अमीर कुछ तो भला कर रहा है उसका. लेकिन बस लगे. हल कुछ नहीं होता. क्या हल होता है लंगर से? क्या हल हुआ है लंगर से? क्या मुल्क की गरीबी मिट गई? भूख मिट गई? क्या हुआ? ये लंगर किसी भी समस्या का समाधान नहीं हैं. चाहे गुरूद्वारे में चले, चाहे मन्दर में, चाहे सड़क पर. भारत में अधिकांश लोग गरीब पैदा होते हैं, गरीब जीते हैं और गरीब ही मरते हैं. कौन सा मुल्क इस तरह से समृद्ध हुआ है? मुल्क समृद्ध होता ज्ञान-विज्ञान से, न कि इस तरह की मूर्खताओं से. बंद करो यह सब. कुछ न धरा इन में. नमन ..तुषार कॉस्मिक

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