Wednesday 25 July 2018

स्कूटर के पीछे लिखा था, "बड़ी हो कर कार बनूंगी." 
मैंने उसे कहा, "रहने दे, बड़ा होने में कोई बड़प्पन नहीं है. दुनिया के ट्रैफिक में फंस के रह जाएगी."

नशा




"नशा शराब में होता तो नाचती बोतल" सुना ही होगा आपने, अमिताभ पर फिल्माया गया गाना. बकवास गणित है यह. आग तिल्ली में नहीं, माचिस की डिब्बी में भी नहीं, लेकिन घिस दो तिल्ली माचिस के पतले पटल पर, आग पैदा हो जायेगी. बच्चा न लड़की में है और न लड़के में, लेकिन सम्भोग-रत हो जायेंगे दोनों तो बच्चा पैदा हो जायेगा. सिम्पल.  

खैर, मैंने अपनी ज़िन्दगी में कोई नशा शरीर में नहीं डाला है. और मेरी कभी इच्छा भी नहीं हुई. 

पिता जी, शराब पीते थे, लेकिन बहुत सम्भल कर. मीट के भी शौक़ीन थे. खुद बनाते थे और बनाते-बनाते चौथाई मीट खा जाते. जिस रात उनकी मृत्यु हुई, उस रात भी उन्होंने दारू पी थी. अस्सी के करीब थे वो तब. लाल. सीधी कमर. मुझे बस इतना ही कहते थे कि बेटा मैं तो दिहाड़ी करता था, कम उम्र था, समझाने वाला कोई था नहीं, पता नहीं कब पीने लगा लेकिन हो सके तो तू मत पीना.

और मुझे शायद उनका कहा जम गया. जो कहते हैं कि गुड़ छोड़ने की शिक्षा से पहले खुद गुड़ खाना छोड़ो, वो बकवास करते हैं. पिता जी पीते  थे, मुझे मना कर गए और मुझे उनकी मनाही पकड़ गई. 

फिर मैंने कहीं एक कहानी पढ़ी थी. अकबर बीरबल की. 

अकबर ने पूछा बीरबल से,"बीरबल पीते हो?"

बीरबल ने कहा,"जी जनाब."

"कितनी पीते हो?" 

"रोज़ाना दो जाम जनाब"

अकबर को शक हुआ. भेष बदल पहुँच गया बीरबल के घर . बीरबल दारू पी रहा था. एक जाम, दो जाम, तीन जाम..... 

अगली सुबह अकबर ने कहा,"गर्दन उतार ली जायेगी."

"क्यों जनाब?"

"झूठ बोलते हो, जिल्ले-इलाही के सामने." 

"कैसे जनाब?"

"कहते हो दो जाम पीते हो, लेकिन हमने खुद देखा कि तुम जाम पे जाम पीये जा रहे थे."

"जनाब लेकिन मैं तो दो ही जाम पीता हूँ."

"फिर से झूठ. हमने अपनी आँखों से देखा है."

"जी जनाब, आपने देखा सही है, लेकिन समझा गलत है."

"कैसे?"

"जनाब, मैं तो दो ही जाम पीता हूँ, बाकी के जाम तो पहले वाले दो जाम पीते हैं." 

बादशाह अवाक! सही कहता है. बीरबल तो बीरबल पहले दो जाम तक ही होता है. उसके बाद कहाँ बीरबल? वो तो मदहोश. फिर कैसा बीरबल? कौन बीरबल? फिर तो जाम ही जाम को पीये जा रहे हैं. 

बस ये कहानी मुझे और घर कर गई. काहे इस तरह से होश गवाना. न. न. मुझे मंजूर नहीं. मुझे नहीं लगता कि मुझ में पिता जी जितनी कूवत है सम्भल कर पीने की. 

हो सकता है, मैं गलत होवूं. बन्धु-बांध्वियाँ कह सकते हैं कि बिना पीये ही बकवास किये जा रहा है.  जो पीया नही, वो जीया नहीं. जिस लाहौर नहीं 
 डिट्ठा ओ जम्मिया ही नहीं.  लेकिन क्या ज़हर की मारक शक्ति परखने के लिए ज़हर पीकर मुझे देखना होगा. क्या डॉक्टर को बीमारी समझने के लिए खुद बीमार होना होगा? नहीं न. 

तो बस, मुझे जो समझ आया वो मैंने किया या कहें नहीं किया, नहीं पीया. 
और जो समझा आया, वैसा ही मैंने लिख दिया. 

नमन....तुषार कॉस्मिक

कुहू कॉस्मिक

कुहू (मेरी छोटी बेटी) 5.5 साल की है. सारा दिन घर में मोहल्ले की हम-उम्र लड़कियों का जमघट रहता है. परसों कुहू ममी के साथ कहीं गई थी. माही (कुहू की फ्रेंड) मुझे कहने आई, "अंकल, कुहू को कहना कि माही छः बजे खेलने आयेगी." मतलब एडवांस बुकिंग. कितनी निराली है इन बच्चों की दुनिया! बार्बियाँ. ढेरों खिलौने. इनकी माँएँ कभी झल्लाती हैं, "इनका खेल ही नहीं खत्म होता." "पेट नहीं भरता इनका खेल-खेल." अभी-अभी गिन्नी (कुहू की एक और फ्रेंड) की ममी आईं, "गिन्नी...तुझे अगर ममी न बुलाये तो तू तो कभी घर ही नहीं आयेगी. " कोई माँ बन जाएगी, कोई बच्चा, कोई टीचर, कोई स्टूडेंट. सारा दिन कुछ-न-कुछ करती रहती हैं. मैंने कुहू को बोल रखा है, "बेटा, थोड़ी-थोड़ी देर में ममी, पापा और सूफी (कुहू की बड़ी बहन) को हग्गी और किस्सी ज़रूर करना है, उससे हमारी एनर्जी बनी रहती है." वो करती भी है. मेरे पास अगर कमाने का झंझट न हो तो मैं कुहू की दुनिया का हिस्सा बना रहूँ. इन सब बच्चों को खेलते हुए देख-देख निहाल होता रहूँ. थोड़ा तो सौभग्यशाली हूँ. जो समझता हूँ कुछ चीज़ें. वरना तो लोग बस बच्चे पैदा करते हैं. उनको पता ही नहीं लगता कि बच्चा बड़ा कब हो गया. बच्चे के जीवन का वो कभी भी हिस्सा नहीं बनते. बचपने को बचकाना समझने की भूल करते हैं. मुझे लगता है कि बच्चे का जीवन भरपूर है जीवन से. वरना हम तो बस जीते हैं मरी-मराई ज़िन्दगी. थोड़ा सा किस्मत वाला हूँ. कुहू के खेलों का हिस्सा हूँ. . नमन....तुषार कॉस्मिक

लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं

अमिताभ बच्चन ने बोला है यह dialogue. फेमस है. कीमती शब्द हैं, किन्ही अर्थों में. कैसे? लाइन वहीं से शुरू होनी चाहिए, जहाँ आप खड़े हों. मैं सिनेमा या रेल की टिकट लेने को खड़े लोगों की लाइन की बात ही नहीं कर रहा. न. हर इन्सान कुदरत की नई कृति है. वो किसी और की बनाई लाइन पे क्यों चले? किसी और के पीछे क्यों चले? क्यों खड़ा हो किसी के पीछे? ये बड़े ही सिम्पल से शब्द हैं मेरे. लेकिन और आगे लिखूंगा तो निन्यानवे प्रतिशत इंसानी आबादी की समझ से बाहर हो जाएगी मेरी बात. क्यों खड़े हैं आप किसी अरब के रेगिस्तानों में 1400 साल पहले पैदा हुए आदमी के पीछे? क्यों अंधे हैं आप किसी कृष्ण, किसी राम के नाम के पीछे? जो शायद हजारों साल पहले हुए. क्यों आपने दो हज़ार साल पहले पैदा हुए किसी व्यक्ति को ईश्वर का बेटा मान रखा है? आप क्या किसी और ईश्वर के बेटे हैं? ये लोग सही थे या गलत थे? यह सेकेंडरी सवाल है. प्राइमरी सवाल यह है कि इनके जीवन, इनके कथनों को काहे अंधे हो कर मानना? तुम इनसे एक कतरा भी, एक ज़र्रा भी कमतर नहीं हो. तुम किसी पैगम्बर, किसी अवतार, किसी भगवान से जरा भी कमतर नहीं हो. लाइन वहां से शुरू होती है, जहाँ हम खड़े होते हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

बे-ईमान

जानते हैं मुसलमान 'बे-ईमान' किसे समझता है? जो 'बिना ईमान वाला' हो. और कौन है 'बिना ईमान वाला'? जो 'मुस्लिम' नहीं है. क्योंकि ईमान तो दुनिया में एक ही है और वो है इस्लाम. मतलब जो मुस्लिम नहीं है, वो तो वैसे ही चोर, उचक्का, डकैत, हरामी है. आपने पढ़ा होगा, "हलाल मीट शॉप". ये इस्लामी ढंग से जिबह किये गए जानवर का मांस बेचती दुकानें हैं. लेकिन सब तो उस ढंग से नहीं काटते जानवर. तो जो बाकी ढंग हैं, वो है झटका. लेकिन जो हलाल नहीं, वो तो "हराम" ही हुआ न, चाहे वो झटका, चाहे फटका. इसलिए मुसलमान सिर्फ हलाल मीट खाते हैं. खैर, अब जो दुनिया यह समझ रही है, वो अपना अस्तित्व बचाए रखने का संघर्ष कर रही है. चाहे उस संघर्ष में वो भी इस्लाम जैसे ही होती जा रही है. जिससे आप लडेंगे, कुछ कुछ उस जैसे हो ही जायेंगे. आपको लड़ने वाले के स्तर पर आना ही होगा. एक विद्वान भी अगर किसी रिक्शे वाले से सड़क पर भिड़ेगा तो उसे एक बार तो रिक्शे वाले के स्तर पे आना ही होगा. सब किताब-कलम मतलब लैपटॉप-गूगल धरा रह जायेगा. माँ-बहन याद की जाएगी एक-दूजे की. क़ुरान से भिड़ने के लिए सड़े-गले पुराण खड़े करने ही होंगें. हालाँकि तर्क-स्थान बनाते दुनिया को तो आज यह स्वर्ग होती. लेकिन उसमें मेहनत बहुत है, सो आसान रस्ता चुन लिया गया है. बस यही कारण है कि भारत भी 'लिंचिस्तान' बनता जा रहा है.

हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही

एक मित्र ने कमेंट किया है कि मैं इस्लाम के खिलाफ लिखता हूँ तो क्या मुसलमानों के कत्ल पर सहमत हूँ. नहीं हूँ? बिलकुल नहीं हूँ. मेरे दोस्त हैं, मुस्लिम. यहाँ भी हैं. मैंने घंटों बिताएं हैं मुस्लिम मित्रों के साथ. प्रॉपर्टी डीलिंग में भी मेरे दोस्त हैं नाज़िम भाई. आज कल सबसे ज्यादा इन्ही के साथ बात-चीत होती है. Anikul Rahman दिल्ली में रहते हैं, मेरे छोटे साले साहेब के घर के बिलकुल साथ वाली सोसाइटी में द्वारका में. मैं ख़ास मिलने गया था इनसे. गपशप हुई. मुझे उनकी बातों से लगा कि वो चिंतित हैं, सेफ्टी के लिए अपने और अपने परिवार के लिए. होना भी चाहिए. एक हैं Mo Zeeshan Shafayye. ये मुझे मिले बाराबंकी में. इनकी कोई प्रॉपर्टी फंसी है कोर्ट केस में. कोई साल भर पुराना नाता है और यकीन जानिये बहुत ही प्यारा नाता है. और भी लोग हैं. जिनसे सम्पर्क रहा है घंटों, सालों. तो मेरी समझ यह है कि ये सब लोग भी एक अच्छी, सेहतमंद, सेफ ज़िन्दगी ही चाहते हैं. ये सब भी अपने परिवारों के लिए जान लड़ाते हैं. ये सब लोग भी वैसे ही हैं जैसे और तबके के लोग हैं. बुनियादी ज़रूरते, बुनियादी उम्मीदें, बुनियादी तकलीफें सब एक जैसी हैं. एक जैसी ही होंगी. अलग कैसे हो सकती हैं? बन्दर के बच्चे सब एक जैसे हैं. अब फर्क कहाँ है? फर्क है आइडियोलॉजी में. फर्क है किताबों की पकड़ में. कोई एक किताब पकड़ के बैठ गया है तो कोई दूसरी. कोई एक कहानी के पीछे पागल है तो कोई दूसरी. कहानी ही तो है. अगर कोई आया भी इस दुनिया से और विदा हो गया तो उसका जीवन पीछे कहानी ही तो छोड़ता है और क्या? बस यहीं फर्क है. यह फर्क ऐसे नहीं मिटेगा कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई. वो तो होने से रहा. यह फर्क मिटेगा अगर हिन्दू, मुस्लिम यह कहें कि कौन हिन्दू, कौन मुस्लिम? हम सब हैं एक जैसे कसाई, एक जैसे हलवाई, एक जैसे नाई. हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही. नमन...तुषार कॉस्मिक

मेरा समाज--एक झलक

मैं पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. मेरे बगल में ही एक इलाका है मादी पुर. यह एक पुनर्वास कॉलोनी है. इस कॉलोनी के लगभग हर चौक पर मैं अक्सर टोन-टोटके करे हुए देखता हूँ. निश्चित ही यहाँ के परेशान निवासियों की समस्याओं का हल बामन, मौलवी या बाबा ने इनको यह सब करने में बताया होगा. मादीपुर के एक तरफ पश्चिम विहार और दूसरी तरफ पंजाबी बाग. आपको गलियों या सड़कों के बीचों-बीच इन दोनों इलाकों में इस तरह की बेहूदगी नहीं मिलेगी. पंजाबी बाग तो वेस्ट दिल्ली के सबसे अमीर इलाका है. जिन्न-भूत-प्रेत लगता है अमीरों से दूर भागते हैं. असल में सब कहानी अनपढ़ता की है. और जब मैं अनपढ़ लिखता हूँ तो उसका मतलब यह नहीं कि कोई पढ़ना लिखना जानता है तो वो अनपढ़ नहीं हो सकता. नहीं, वो निपट अनपढ़ से ज्यादा अनपढ़ हो सकता है चूँकि उसकों वहम हो जाता है कि वो पढ़ा-लिखा है अब उसको आगे पढ़ने, खुद को गढ़ने की ज़रूरत नहीं है. वो खुद के लिए एवं समाज के लिए अनपढ़ों से भी ज्यादा खतरनाक है. लोग अनपढ़ हैं, अनगढ़ हैं. जिधर मर्ज़ी हंक जाते हैं. कुछ समय पहले यहाँ दिल्ली के हर मोड़ पर साईं बाबा की विशाल चौकी के लिए पैसे इकट्ठे करने की दूकान लगी होती थी. मोहल्ले के चार चोर जुड़ जाते थे और घर-घर, दूकान-दूकान जा-जा लोगों हलकान कर के वसूली करते थे. फिर होड़ होती थी कि 'हमसर हयात' (तथा-कथित सूफी गायक, जिसे मैंने इन साईं संध्याओं से ही जाना) को बुलाया कि नहीं. लेकिन 'जगत-गुरु शंकराचार्य' ने बोल दिया कि साईं तो मुसलमान थे, मन्दिर में कैसे रख सकते हैं उनकी मूर्ति? व्हाट्स-एप पर साईं के खिलाफ़ मेसेज फ्लोट करने लगे. भला उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे? भला मेरा ग्राहक तोड़ के वो कैसे ले गया? खैर, वो ज्वार कटा तो नहीं, घटा ज़रूर है. वैसे ये साहेबान 'जगद्गुरु' कैसे हो गए? यह भी समझ नहीं आया आज तक. विश्व में ईसाई और इस्लाम दो बड़े धर्म ईसा और मोहम्मद को मानते हैं. इनको क्यों मानेंगे अपना गुरु? और यहाँ भारत में, मैं इनको अपना गुरु नहीं मानता तो ये कैसे हो गए जगद्गुरु? खैर, आज-कल दिल्ली का हिन्दू समाज 'गुरु जी' के पीछे लगा है. ये जब जिंदा थे तो मैंने कभी इनका नाम तक नहीं सुना था. अब दिल्ली में हर तीसरी कार के पीछे लिखा होता है 'गुरु जी'. इनके सत्संग घर-घर होते रहते हैं. ध्यान किया जाता है. किसलिए? आर्थिक और दुनियावी समस्यायों के हल के लिए. कल पता लगेगा कि किसी और फोटो, मूर्ति, जिंदा-मुर्दा शख्सियत को पकड़ लेगा हमारा समाज. यह सब चलता ही रहता है. समस्याओं का हल विज्ञान में है. वैज्ञानिक सोच में है. वैज्ञानिकता में है. इन सब बकवास-बाज़ियों में नहीं है. कांवड़ यात्रा शुरू हो जाएगी. यकीन जानें, कांवड़ लाने वाले अधिकाँश लोग, ये जो मैंने ऊपर ज़िक्र किया मादीपुर, ऐसे इलाकों से हैं. कोई अमीर लोग कांवड़ लेने नहीं जाते. अमीर इनको पोषित ज़रूर करता है, ताकि अपने पाप कटवा सके. एक बकवास होड़ है, हर साल. साल दर साल. सडकें जाम कर दो, जो पहले ही बस रेंगती हैं. हल्ला-गुल्ला करो. ये धर्म है. हिन्दू धर्म. कोई खिलाफ कैसे बोल सकता है? विधर्मी कहीं के. इस्लाम के खिलाफ़ बोल के दिखाओ तो जानें. बोल बम. जय श्री राम. हिन्दू बड़ा खुश है, ख़ास कर के मन्दिर में बैठा बामन. अग्निवेश को पीट दिया. आपने सुना अग्निवेश का भाषण, वो बता रहे हैं कि अमर नाथ का शिव लिंग मात्र एक कुदरती घटना है, इसमें कुछ भी दिव्यता नहीं है. वो जियोग्राफी का तथ्य बता रहे हैं. मैं भी ऐसा ही लिखता हूँ, बहुत पहले से. बिलकुल सही बात है, वैज्ञानिक बात है. लेकिन यह तो हमला हो गया मंदिर पर. बामन पर. बामन के इर्द-गिर्द खड़ी राजनीति पर. कैसे बरदाश्त किया जा सकता है? सो कूट दो. मार दो. कत्ल कर दो. मैं कहता हूँ कि समाज जिसके खिलाफ नहीं, वो इन्सान बोदा है, थोथा है. यह सीधी कसौटी है. अग्निवेश में कुछ अग्नि है, जो उन्होंने ऐसा कहा. ऐसे ही लोग चाहिए भारत को. वरण यह समाज भूत-प्रेत-हैवान-भगवान में फंसा रहेगा. इसे बाहर निकालो, मितरो. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Wednesday 18 July 2018

सबसे ज्यादा छित्तर इन्सान खुद को मारता रहता है.
ज़रा गलती हो जाये, खुद को कचोटता रहता है.
अच्छे काम पर खुद को शाबाशी भी देनी चाहिए.

हाँ, लेकिन न्यूट्रल नज़र बहुत ज़रूरी है, खुद के प्रति भी और यहीं सब नाप-तोल गड़बड़ा जाता है.

तकड़ी का काँटा कहीं भी एक्सट्रीम पकड़ लेता है.
या तो खुद को हम आसमान पर चढ़ा लेते हैं या फिर खड्ड में गिरा लेते हैं.

बैलेंस बना ही नहीं पाते चूँकि हमारी नजरों पर हज़ार-हज़ार पर्दे हैं बेवकूफियों के.

खैर, अल्लाह-ताला नाम का ताला खुल जाए सबसे ज़रूरी तो यही है.

हो नहीं पाता अक्सर. अधिकांश इन्सान इत्ते खुश-किस्मत नहीं होते. अंधेरों में पैदा होना, अंधेरों में जीना और अंधेरों में ही मरना, यही नियति है अधिकांश जन की.
जितना व्यक्ति जानदार होगा उतना ही दीन-दुनिया उससे परेशान होगी. जानदार से मतलब डौले-शोले वड्डे होना नहीं है. रीढ़ मज़बूत होना है. और वो रीढ़ मजबूत योग या जिमनास्टिक करने से नहीं गहन सोच से होती है, जो कि अधिकांश जन की होती नहीं. दुनिया में आये हैं तो बस खाओ, पीओ, बच्चे पैदा करो और मर जाओ. बस इससे ज्यादा सोच ही नहीं है. पागल थे वो लोग जिन्होंने आविष्कार करने में जिंदगियां गला दीं, जिन्होंने समाज को दिशा देने में हाथ-पैर कटवा दिए, जिन्होंने दुनिया को रोशनी मिल सके इसलिए ज़हर पी लिया. बस तुम ठीक हो, जो सिर्फ अपनी औलादों और अपने लिए पैसे का ढेर खड़ा करने में ही मोक्ष पा लेते हो. उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं पीछे, इस धरती पर गंद डालने को. जरा योगदान नहीं कि दुनिया कि बेहतरी हो सके. लंगर लगा देंगे सड़क पर, हो गया काम. सड़क पर गंद डालेंगे, ट्रैफिक जाम कर देंगे, प्लास्टिक का ज़हर फैला देंगे और इतने में निहाल हो जायेंगे.
इडियट हो, मर जाओ
अधिकांश लोग अपनी नाक से आगे नहीं सोच पाते.

दूर के बड़े फायदे को नहीं देख पाते. दूर तक होते हुए फायदे नहीं देख पाते. नहीं देख पाते कि सामने वाला सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित हो सकता है.

वो बस नजदीक का फायदा देखते हैं. तुरत होने वाला फायदा देखते हैं. मुर्गी को तुरत हलाल या हराम करने में यकीन करते हैं.

इडियट हैं. होना तो यह चाहिए कि कई बार दूर के बड़े फायदे के लिए निकट का छोटा फायदा भी कुर्बान कर देना चाहिए. ऐसा मेरा मानना है.

मैं लम्बे रिश्ते बनाने में यकीन रखता हूँ. लेकिन रख नहीं पाता हूँ चूँकि आप लम्बे रिश्ते तभी रख सकते हैं जब सामने वाला भी ऐसा ही सोचता हो. अन्यथा आप मुर्दा किस्म के रिश्ते ढोते रहेंगे.
'Unconditional Love' is just a myth. An 'Urban Myth'.

इडियट केजरीवाल

तभी कहता हूँ कि केजरीवाल नहीं है भविष्य भारत का. भारत का भविष्य मैं हूँ. ये जनाब तो हिन्दुओं को मुफ्त तीर्थयात्रा करवा रहे हैं और मुस्लिमों को हज की बधाइयां देते फिर रहे हैं.

स्टेट सेक्युलर है. और स्टेट्समैन को भी सेक्युलर होना मांगता. मांगता कि नहीं?

न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.

संविधान सेक्युलर है. संविधान तो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात भी करता है.

अब मैं जैसे नहीं मानता किसी भी धर्म को तो मेरे जैसे लोगों के साथ तो ना-इन्साफी है न कि मेरे पैसे से हज या तीर्थ करवाए जाएँ या कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दिया जाए.

इडियट हैं ये नेता. दफा करो इनको. सिर्फ मेरे जैसों को बढ़ाओ, जो तुम्हारे समाज की बकवास मान्यताओं को तार-तार कर के रख देंगे.
सबक आपको हर पल सिखाता है, बशर्ते आप 'अक्ल-बंद' हों.
ज़मीन पर अग्निवेश नहीं, भारत की खुली सोच गिरा दी गई है. सदियों तक जंगल-राज की तैयारी है.
"मुसीबत आने वाली है तेरी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में, ना संभलोगे तो मिट जाओगे ए हिंदोस्तां वालों तुम्हारी दास्तां भी न होगी दास्तानों में", इकबाल ने सही लिखा था.
2 और 2 चार होते हैं, सब 5 करने की कोशिश में लगे रहते हैं. ढेर श्याणे.

धार्मिक मूर्खताएं

बड़ा मजाक उड़ाया जा रहा है कि जगन नाथ भगवान बीमार हुए, उनका इलाज हुआ, अब शायद ठीक हैं.

ये कुछ खास बात नहीं है.

हिन्दू तो शिव पार्वती मूर्तियों का बाकायदा हर साल विवाह भी करते हैं. बारात निकलती है, भजन-भोजन होता है, कन्या-दान होता है, विदाई होती है, सब.

सिक्खों में किताब (ग्रन्थ) को जिंदा मानते हैं. चंवर से हवा करते हैं, वस्त्र पहनाते हैं, बदलते हैं.

मुसलामानों में पत्थर मारते हैं कहीं, तो समझते हैं कि शैतान को मार रहे हैं. बकरा काट के खुद खा जाते हैं और समझते हैं कि अल्लाह को कुर्बानी दे दी.

धर्म का मतलब है, अक्ल पे पर्दा गिरना, जो न करवाए, वही बढ़िया, वरना तौबा! तौबा!! तौबा!!!

Schooling is an organised way to rob the intelligence of the children. Beware!


कश्मीरियों से मेरा ताज़ा वास्ता

प्रॉपर्टी डीलर हूँ. कल कुछ कश्मीरी आये थे किराए पर लेने. चार लोग, दो लड़के, दो लड़की. मैंने लड़की के लहजे से पहचान लिया कि वो कश्मीरी हैं. वो यहाँ नर्सिंग जैसा कुछ कर रही थी. मैंने बोला कि जब सीखना यहीं है, काम यहीं करना है, तो सब कश्मीरी भारत ही आ जायें. भारत तो कहता ही है कि कश्मीर हमारा है तो फिर कश्मीरी भी हमारे ही हुए. लड़की पता क्या बोली? बोली, "लेकिन कश्मीरी मत मानते कि हम भारत के हैं." यह सब बस flow में बात हुई. नार्मल flow. यह बात मामला खोल गई. मैं बाद में मेरे साथ वाले डीलर, जो कि खुद मुस्लिम है, को कह रहा था, "जब ये लोग खुद को भारत से अलग मानते हैं तो फिर यहाँ किराए का घर किस लिए ढूंढ रहे हैं?" उसने कहा, "हाँ, इसको यह बात कहनी नहीं चाहिए थी?" मतलब.....'कहनी' नहीं चाहिए थी...चाहे दिल में कुछ भी हो. वाह! लेकिन यह बात तो सब कुछ ही कह गयी. मेरा बस यही पॉइंट है कि.....जब कश्मीरी खुद को मानते ही नहीं भारतीय तो फिर यहाँ क्या कर रहे हैं? उनके जैसे तो और भी बहुत हैं यहाँ भारत में. और भारत सरकार इनको एंट्री ही क्यों दे रही है? मेरा एक दोस्त है कश्मीरी....ब्राह्मण है ..वो भी यही सब बताता था. कोई भी कश्मीरी मुस्लिम....खुद को भारतीय नहीं मानता. मुझे लगता है कि वजह है कि इनको पता है कि कश्मीर टूरिज्म से बहुत अमीर हो सकता है. पैसा एक बड़ी वजह है. अब जब वहां नहीं है टूरिज्म तो गरीबी है. गरीबी है तो ये लोग भारत को भाग रहे हैं. लेकिन अंदर से भारत के प्रति खोटे हैं. नहीं होना चाहते भारत के साथ. चाहते हैं भारत दफा हो और वो अपनी सरकार बना लें और टूरिज्म से पैसा कमायें. कश्मीर की समस्या की वजह इस्लाम है. और पैसा है और कुछ यह भी है कि कश्मीर कभी भारत का उस तरह से हिस्सा रहा ही नहीं जैसे और स्टेट हैं. फिर से लिखता हूँ ......वजह....वजह.....है...इस्लाम......टूरिज्म का पैसा और पुराने कोई राजनीतिक इकरार-नामे. नमन...तुषार कॉस्मिक

ये मेरा झापढ़ है भैया


Written By My  Australian Friend Veena Sharma 

अक्सर लोग मेरी भारत पे की गयी टीका टिप्पणियों को वैयक्तिगत ले लेते हैं और मुझे हैरान कर देते हैं और सोचने पे मजबूर कि भाई तुम्हें प्यार है भारत से पर मेरा प्यार तुमसे कम है ये तुमसे किसने कह दिया। मैं वो अंधी माँ नहीं जिसे दुनिया में अपने बच्चे के सिवा कोई और सुंदर नहीं लगता। मैं वो बच्चा भी नहीं जिसे बस अपनी माँ ही सबसे बढ़िया दिखायी दे। सत्य का अपनेपन से क्या लेना देना। क्या सत्य भी तेरा या मेरा होता है?

ख़ैर आज अपने अनुभव से भारत के प्राइवट स्कूल माफ़िया की बात करूँगी। बच्चों से जम के फ़ीस ले कर ये अधपढ़ क़िस्म की अध्यापिकाएँ अनपढ़ टाइप के माँ बाप को उल्लू बनाने के लिए रख लेते हैं। मैं स्वयं कई साल भारत के प्राइवट स्कूलो में पढ़ाती रही।सच कहूँ तो कॉलेज में लेक्चरर बनने का सपना तो पूरा हो ना सका अब मरते क्या ना करते। सरकारी स्कूल से पढ़े अंग्रेज़ी साहित्य में M.A तो कर लिया कॉन्वेंट में पढ़े जैसे अंग्रेज़ी बोलनी अब आए नहीं। तो कुछ घसियारे टाइप के स्कूल हमपे कृपा का बैठे। अब अच्छी अंग्रेज़ी बोलने वाले उन स्कूल्ज़ में क्यूँ पढ़ाएँगे जिनके मालिक अनपढ़ लाला लोग।

एक दिन बहुत थक गयी तो कुर्सी पे बैठ गयी। प्रिन्सिपल राउंड पे निकले तो मुझे बाहर बुला के बोले “ मैडम कुर्सी बैठने के लिए नहीं” अब मन हुआ पूछूँ “ कि भाई इस पे तू लटक के फाँसी के फंदे पे झूल ले फिर”

मैडम बच्चों की लाइन सीधी नी बनवा पाते वीना मैडम, वीना मैडम फ़लाँ मैडम से आप ज़्यादा बात ना करो अच्छा नहीं आपके लिए, मैडम आपकी कापी देखी आप तो ग़लतियाँ ढंग से निकालती नहीं, वीना मैडम बहुत नम्बर दे देते हो आप,मैडम छुट्टी के पैसे कटेंगे वग़ैरह वग़ैरह...

जितनी फ़ज़ीहत जितना अपमान उन दिनों सहा उस से अधिक सम्मान मैं अपने घर पे काम करने वाली बाई को देती थी। “ आजा सुनिता बहन चल दोनों चाय पीते हैं फिर करियो सफ़ाई “

सजी धजी साड़ियों में घूमती और स्कूल के प्रांगण को सुशोभित करती ये हसीनाएँ सिवा सजे धजे मज़दूरों के कुछ नहीं।

और यहाँ प्लीज़ सारी थैंक यू , मेरी बॉस भी मुझे एक बात में चार बार कहती है तो वो ग़ुलामी के दिन याद आ जाते हैं मन ही मन कहती हूँ “ अबे वीना तेरी इतनी औक़ात कहाँ है, याद हैं वो दिन जब प्रिन्सिपल राउंड पे आता था कैसे एक मिनट में आगे गीला पीछे पीला हो जाता था, मन चकरा जाता था, घिग्गी बंध जाती थी”

अरे भाई हम पीछे रह गए फिसड्डी देशों से भी उसकी वजह तो होगी और वजह देश की मिट्टी थोड़ा ही है अब वजह कौन है सोच लो। सोचोगे तभी तो सुधरोगे। पर नहीं यहाँ तो गीत भी ऐसे ही बनते हैं “ हम तो ऐसे हैं भैया” गोबर सनी सड़कों पे धूल उड़ाते हुए गाओ “ ये अपना टशन है भैया” मन तो करता है एक रसीद करके कहूँ “ ये मेरा झापढ़ है भैया, ये मेरा थप्पड़ है भैया”

अंत करते हुए कहूँ कि ख़यालों में मैंने उन सब प्रिन्सिपल्ज़ के मुँह पे ख़ूब झापड़ लगाए।अब क्या करें सच में तो लगा नहीं पाए।ख़याली पुलाव ख़ूब बनाए।


Veena Sharma from Australia

खतरनाक वकील

वकील का पेशा बहुत ही नोबल(भद्र) माना जाता है. लेकिन सिर्फ माना जाता है. है नहीं. कैसे हो सकता है? एक समाज, जो नोबल न हो, उसकी कोई भी चीज़ कैसे नोबल हो सकती है? वकील भी उतना ही हरामी है, जितने आप है, जितना मैं हूँ. नहीं, गलत लिख गया मैं. वकील हम से ज्यादा हरामी है. वजह है. वजह है, उसका हमसे ज़्यादा कायदा-कानून जानना. सो वो एक हैंकड़ में रहता है कि मैं वकील हूँ. मैं कुछ खास हूँ. ऐसी की तैसी बाकी टुच्चे-मुच्चे लोगों की. ये बिगाड़ क्या सकते हैं मेरा? तीस हज़ारी कोर्ट में K ब्लाक के पास पार्किंग के ठीक ऊपर एक गंदा सा ढाबा है. सुना था मैंने कि उसमें किसी वकील साहेब का कत्ल हो गया था. किसी सिविलियन ने कर दिया था. कर दिया होगा. चल गया अगले का दांव, वरना तो कोर्टों में वकील वैसे ही एक-जुट होते हैं, फुल बदमाशी. किसी को कुछ नहीं समझते. पीछे सर्टिफाइड कापियां लेने के लिए लाइन में खड़ा था तो एक वकील मोहतरमा लाइन छोड़ सीधे ही घुस गई खिड़की में और मेरे रोकने पर लगी मुझे ही तमीज़ का पाठ पढ़ाने. हाथा-पाई होते होते बची. उसके अगले ही दिन, मेट्रो की लाइन में टिकट लेने को खड़ा तो देखा एक वकील महोदया बिना लाइन की परवाह किये सीधे ही पहले नम्बर पर पहुँच गईं. ये घटनाएं बताती हैं कि वकील आम लोगों को ठेंगे पे रखते हैं. वजह है, लोगों का कानून में शून्य होना. वजह है, कानून व्यवस्था लचर होना. कौन भिड़े, इन से? बरदाश्त कर लो, इनकी बदमाशियां, बस इसी में समझ-दारी है. कल-परसों की खबर है, दिल्ली साकेत कोर्ट में वकील औरत का बलात्कार वकील आदमी ने कर दिया. झाडें अब वकील होने का रौब एक दूजे पर. वैसे अधिकांश वकील वकालत में फेल होते हैं. न इनको ढंग से अंग्रेज़ी आती है, न टाइपिंग, न ड्राफ्टिंग, न बहस. ये लोग लगभग जीरो हैं, लेकिन इनके पास काला कोट है. वो भी असली-नकली डिग्री की बदौलत. कहते हैं कि भारत के आधे वकीलों की डिग्री फर्ज़ी है, शायद इनमें से कोई तो जज भी बन चुके हों. तौबा! खैर, आपको कई वकील मिल जायेंगे, जिनके कोट पसीने से सफेद हो रखे होंगें. जूते घिसे, फटे. सौ-दौ सौ रुपये के काम के लिए कोर्टों के बाहर-अंदर ग्राहक पकड़ते हुए. ट्रैफिक चालान निपटवाते हुए. प्रॉपर्टी डीलर हूँ, अधिकांश लोग वकीलों को किराए पर मकान नहीं देते. मुझे लगता है कि सही करते हैं. अपने आपको, अपने परिवार को कानून सिखाएं. ज़रूरी है. वकील आपका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, आपको बेवकूफ न बना पायेगा, वरना सावधान रहिये, काले कोट वालों से. खतरनाक हैं. नोट:--- हो सकता है कोई वकील सच में नोबल हों, वैसे न हों, जैसा मैंने लिखा है. तो यह लेख उनके बारे में नहीं है. अपवाद तो कहीं भी हो सकते हैं. और अपवाद नियम के खिलाफ नहीं होते, नियम को साबित करते हैं. नमन................तुषार कॉस्मिक

Monday 2 July 2018

Theory of Karma is just a wishful thinking of the victim or the one who considers oneself a victim.
बच्चियां न हिन्दू थीं जन्म से, न मुस्लिम. पहला बलात्कार तो उनको हिन्दू मुस्लिम बना कर किया गया. यह उनके मन से बलात्कार था. बलात्कार क्या है? बल से किया गया कार्य, ज़बरन किया गया कार्य. फिर तन से ज़बरन सम्भोग कर के किया गया. मैं दुखी हूँ. मैं इनको हिन्दू मुस्लिम के खांचे में बाँट नहीं देख सकता. सॉरी,बच्चों को ऐसे नहीं देख सकता. मेरी दो बेटियां हैं. मैं सेक्स के बंधन के खिलाफ हूँ लेकिन बलात्कार के और भी खिलाफ हूँ. यह गलत है. बिना मर्ज़ी के तो किसी को हाथ लगाने तक की हिम्मत नहीं होनी चाहिए बलात्कार तो बहुत ज़्यादा है. न. न.
बॉलीवुड ने संजय दत्त का जीवन दिखाया और हॉलीवुड ने रामानुजन का. सलाम हॉलीवुड. महान गणितज्ञ को दुनिया के रूबरू किया आपने.
फिल्म बनाने के लिए जब संजय दत्त का जीवन ही मिले तो साबित हो ही जाता है कि काटजू ने सही कहा था कि अधिकांश भारतीय तुचिए हैं.
जब तुम मशहूर करोगे, "सेल्फी मैंने ले ली आज" और "हेलो फ्रेंड्स चाय पी लो" कहने वालियां को तो तुम्हें लीडर भी बकलोल ही मिलेंगे.
न तो मेरा मंगलवार हनुमान का है और न ही शनिवार शनिदेव का. 
मेरा हर वार सिर्फ मेरा है.
यदि सही लोकतंत्र चाहिए तो अपने क्षेत्र के नेता को ललकारें खुली बहस के लिए कि जिस काम के लिए वो नेता बने हैं, वो कैसे करेंगे.
जिसे बर्फानी बाबा का लिंग समझते हो उसे विज्ञान स्टेलगमाईट कहता है. फ्रीजर बंद रहे कई दिन तो वैसे लिंग बर्फ के बने दिखेंगे वहां.
पीछे खबर थी कि 'राधा-स्वामी-सत्संग' ने सैंकड़ों एकड़ लैंड कब्जा रखी है दिल्ली में. सच है क्या? GK बढ़ानी है बस.
मैं केजरी की दिल्ली को पूर्ण राज्य की मांग का पूर्णतया समर्थन करता हूँ. दिल्ली की ऐसे-तैसी हो रखी है. यह एक आम शहर से बदतर है.
गर्म मुल्क. फिर भी कोट. वो भी काला. ऊपर से गल-फांस भी. और ऊपर से काला चोगा भी. चले हैं औरों को न्याय दिलाने. हमारे वकील. इडियट.
जो मोदी का विकल्प पूछते हैं, उन्हें मेरा नाम सुझा दो. बन्दा तैयार है, मोदी हो, राहुल हो, कोई हो खुली बहस कर लें. पॉइंट टू पॉइंट.
दान देना है. मत दीजिये मंदर, गुरूद्वारे, गिरजे को. किसी वैज्ञानिकता से भरे व्यक्ति को खोजिये, उसे दीजिये.किसी कवि को.किसी लेखक को.
तुम्हारा लिंग बहुत बढ़िया है और बड़ा है. लेकिन उसे सड़क पे लहराते नहीं फिरते न. तो फिर अपना धर्म सड़क पे काहे लाते हो बे?