हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही

एक मित्र ने कमेंट किया है कि मैं इस्लाम के खिलाफ लिखता हूँ तो क्या मुसलमानों के कत्ल पर सहमत हूँ. नहीं हूँ? बिलकुल नहीं हूँ. मेरे दोस्त हैं, मुस्लिम. यहाँ भी हैं. मैंने घंटों बिताएं हैं मुस्लिम मित्रों के साथ. प्रॉपर्टी डीलिंग में भी मेरे दोस्त हैं नाज़िम भाई. आज कल सबसे ज्यादा इन्ही के साथ बात-चीत होती है. Anikul Rahman दिल्ली में रहते हैं, मेरे छोटे साले साहेब के घर के बिलकुल साथ वाली सोसाइटी में द्वारका में. मैं ख़ास मिलने गया था इनसे. गपशप हुई. मुझे उनकी बातों से लगा कि वो चिंतित हैं, सेफ्टी के लिए अपने और अपने परिवार के लिए. होना भी चाहिए. एक हैं Mo Zeeshan Shafayye. ये मुझे मिले बाराबंकी में. इनकी कोई प्रॉपर्टी फंसी है कोर्ट केस में. कोई साल भर पुराना नाता है और यकीन जानिये बहुत ही प्यारा नाता है. और भी लोग हैं. जिनसे सम्पर्क रहा है घंटों, सालों. तो मेरी समझ यह है कि ये सब लोग भी एक अच्छी, सेहतमंद, सेफ ज़िन्दगी ही चाहते हैं. ये सब भी अपने परिवारों के लिए जान लड़ाते हैं. ये सब लोग भी वैसे ही हैं जैसे और तबके के लोग हैं. बुनियादी ज़रूरते, बुनियादी उम्मीदें, बुनियादी तकलीफें सब एक जैसी हैं. एक जैसी ही होंगी. अलग कैसे हो सकती हैं? बन्दर के बच्चे सब एक जैसे हैं. अब फर्क कहाँ है? फर्क है आइडियोलॉजी में. फर्क है किताबों की पकड़ में. कोई एक किताब पकड़ के बैठ गया है तो कोई दूसरी. कोई एक कहानी के पीछे पागल है तो कोई दूसरी. कहानी ही तो है. अगर कोई आया भी इस दुनिया से और विदा हो गया तो उसका जीवन पीछे कहानी ही तो छोड़ता है और क्या? बस यहीं फर्क है. यह फर्क ऐसे नहीं मिटेगा कि हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई. वो तो होने से रहा. यह फर्क मिटेगा अगर हिन्दू, मुस्लिम यह कहें कि कौन हिन्दू, कौन मुस्लिम? हम सब हैं एक जैसे कसाई, एक जैसे हलवाई, एक जैसे नाई. हम सब सिर्फ बन्दर हैं. इन्सान-नुमा ही सही. नमन...तुषार कॉस्मिक

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