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Sunday 29 January 2017

काटजू साहेब की मूर्खता के चंद नमूने

मार्कंडेय काटजू नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मूर्ख कहते हैं. मैं सहमत हूँ उनसे शत-प्रतिशत. बस एक बात है. उन मूर्खों में काटजू साहेब को भी शामिल करता हूँ. पहली मिसाल देता हूँ उनकी मूर्खता की. हाल-फिलहाल सौम्या मर्डर केस में कोर्ट की जजमेंट पर टिप्पणी करने के लिए बेशर्त माफी माँगनी पड़ी उनको. दूसरी मिसाल. वो समझते हैं कि पाकिस्तान और बांगला-देश भारत के साथ दुबारा मिल जायेंगे. मेरे से लिखवा लो, ग्र्र्रर...बल्कि मैं लिख ही रहा हूँ, ये दोनों मुल्क तैयार हो भी जाएं, आज भारतीय खुद इनके साथ जुड़ना पसंद नहीं करेंगे. और यदि एक करना ही है तो पूरी दुनिया को एक करने की कोशिश क्यूँ की न जाए? दुनिया वैसे भी एक ही है. लकीरें इंसानी बेफकूफियों ने ही तो डाली हैं. उस दिशा में काम क्यूँ न किया जाए? यह आधा-अधूरा क्यूँ सोचना? तीसरा मिसाल. जनवरी सोलह, दो हजार सत्रह को लिखा उन्होंने, "My prediction about the forthcoming Punjab Assembly elections is based on reason, not emotion. If Punjab elections had been held an year back, AAP would have got a majority. But in the past year its image has been sullied by many scandals, involving even Ministers in the Delhi Govt.. On the other hand, Capt. Amrinder Singh enjoys a good image, and he is a Punjabi. AAP has projected Kejriwal, a non Punjabi, as its Chief Minister ( though I wonder how he can be C.M. of 2 states ?). Why should Punjabis want a non Punjabi as their Chief Minister ? So I believe Congress will get a majority and form the next govt. in Punjab." पहली तो बात यह कि कांग्रेस के अपने दम पर दूर-दूर तक कोई चांस नहीं पंजाब में सरकार बनाने के. हाँ, आम आदमी पार्टी बना ले सरकार इसकी पूरी सम्भावना है. और दूसरी बात, केजरीवाल ने खुद को पंजाब के मुख्य-मंत्री पद का दावेदार कभी नहीं कहा. चौथी मिसाल. जनवरी चौदह, दो हजार सत्रह को लिखा उन्होंने, "Many people criticized me for my views on Gandhi in my earlier posts. I do not mind polite criticism, but I will block people making impolite criticism or giving abuses. I have already blocked many, and shall block more" मतलब आलोचना हो लेकिन विनम्र हो. सही है. जब वो नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मूर्ख कहते हैं और ऐसा कहने के कारण भी बताते हैं, मुझे खुशी होती है लेकिन जब वो अपनी आलोचना में विनम्रता की आकांक्षा रखते हैं तो मुझे लगता है कि उन मूर्ख भारतीयों में उनका नाम जोड़ कर मैंने सही ही किया है. पांचवी मिसाल. अभी-अभी लिखा उन्होंने, “I see from the Jallikattu Rules which I have posted on my previous fb post that they were issued by Mr. Gagandeep Singh Bedi, I.A.S., Secretary, Animal Husbandry, Tamilnadu Govt. Do you Tamilians know who Bedis are ? They are the direct descendants of Guru Nanak, the founder of the Sikh religion, and therefore the most venerated of all Sikhs. Guru Nanak had 2 sons. One remained a bachelor, but the other married and had several sons. Bedis are his direct descendant. So you Tamilians should feel honoured to have him as a senior officer in Tamilnadu.” श्रीमान काटजू से मूर्खता की उम्मीद तो करता हूँ मैं, लेकिन इतने हल्के लेवल की मूर्खता की कतई नहीं. एक दसवीं का छात्र यदि दूसरी कक्षा के छात्र जैसी गलती करे तो निश्चित ही निराशा होती है. श्रीमान काटजू नानक साहेब के बेटों का ऐसे ज़िक्र कर रहे हैं जैसे ‘नानक साहेब के बेटे’ होना कोई मायने रखता हो. अब्राहम लिंकन के पिता एक मोची थे. आप किस लिए जानते हैं लिंकन को? इसलिए कि उनके पिता मोची थे या इसलिए कि वो अमेरिका के प्रेसिडेंट थे? आइंस्टीन को आप उनकी अपनी वजह से सम्मान देते हैं या उनके पिता की वजह से? आप नानक साहेब को सम्मान इसलिए देते हैं क्या कि वो कालू मेहता के बेटे थे? असल में तो किसी का बेटा होना कोई मायने नहीं रखता और नानक साहेब के बेटे होना तो उनकी अपनी नज़र में कुछ माने नहीं रखता था. उन्होंने अपना descendent अपने बेटों में से नहीं चुना था. अपने शिष्यों में से चुना था. और सिक्खों में 'बेदी' होने पर कोई अलग से सम्मान दिया जाता है, इसलिए कि वो नानक साहेब के बेटों के बेटे हैं, यह मैं आज पहली बार काटजू साहेब द्वारा जान रहा हूँ. मेरा जन्म सिक्ख परिवार में ही हुआ है. हमारे परिवारों में आधे लोग केशधारी हैं. सिक्खी में जात-पात मानी जा रही है, यह सच है, लेकिन उसे एक बुराई की तरह समझा जाता है यह भी एक सच है चूँकि सिक्खी में जात-पात का कोई कांसेप्ट नहीं है. और काटजू साहेब उस बुराई को हवा दे रहे हैं. उस कांसेप्ट को हवा दे रहे हैं, जो सिक्खों में तो फिर भी है लेकिन सिक्खी में नहीं है. और जो IAS ऑफिसर खुद को 'बेदी' लिख रहा है, वो इंसान सिक्खी ठीक से समझा है, मुझे तो नहीं लगता. ऐसे व्यक्ति की वजह से तमिलनाडू वासियों को सम्मानित महसूस करना चाहिए, इसलिए कि वो अपने आपको 'बेदी' समझता है, ऐसा महान विचार जनाब काटजू ही दे सकते है. और जहाँ तक मुझे लगता है बेदी शब्द वेदी से आया है. जैसे द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी. वैसे ही वेदी मतलब बेदी. गुरु नानक साहेब के बेटे और उनके बेटों से इस शब्द की उत्पति हुई हो, ऐसा मुझे तो नहीं लगता. और नानक साहेब सिक्ख धर्म के संस्थापक नहीं हैं. उन्होंने कोई धर्म नहीं चलाया. मुझे कहीं दिखा दें कि उन्होंने कहीं कहा हो कि वो कोई धर्म चला रहे हैं. गगन मै थाल, रवि चंद दीपक बने, तारका मंडल जनक मोती। धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे, सगल बनराइ फुलन्त जोति॥ कैसी आरती होइ॥ भवखंडना तेरी आरती॥ अनहत सबद बाजंत भेरी॥ ये नानक साहेब के शब्द हैं. खुद अंदाज़ा लगायें बाकी आप. न तो काटजू साहेब को सिक्खों की जानकारी है और न ही सिक्खी की. छठी मिसाल. उन्होंने लिखा था,"Why I go to Dargahs? Within a few days of taking over as Chief Justice of Madras High Court in November, 2004 I enquired whether there was a dargah in Chennai. I was told there is one called the Anna Salai Dargah ( Dargah Hazrat Syed Moosa Shah Qadri ) on Mount Road. I sent a message there that I would like to come to pay my respects to the holy saint who has his grave there, and is said to have died about 450 years ago.( see link below ). I was told I was welcome. I went there and offered a chaadar. Since then I have been regularly visiting that Dargah whenever I go to Chennai. The old maulvi saheb who was there has since died, but others look after the shrine. They know me, and give me a lot of respect whenever I go there. I go to dargahs wherever and whenever I can, e.g. Ajmer Sharif, Nizamuddin Aulia ( and Amir Khusro, which is just next ), Kaliyar Sharif, Deva Sharif, etc.I get a lot of happiness and peace there. Some people may find it strange that a confirmed atheist like me visits dargahs. It is true that I do not believe in God. But it is also true that I respect the good things in Indian culture, and I respect people of all religions. Some of my closest friends are non Hindus. Why do I go to dargahs ? I go there because dargahs are shrines constructed over the graves of sufi saints, and I have great respect for sufi saints, who preached love, compassion and humanitarianism towards all. They made no distinction between Hindus, Muslims, Christians, Sikhs etc..THOUGH THE SUFI SAINTS WERE MUSLIMS, THEY HAD MANY HINDUS AND SIKH DISCIPLES. Some sufi saints were persecuted by fanatical and bigoted people. Hindus do not go to mosques, Muslims do not go to Hindu temples, BUT EVERYONE GOES TO, and is welcome, in dargahs. Often there are more Hindus than Muslims in some dargahs. So dargahs are places which unite all Indians, and I love whatever unites us, and am strongly against whatever divides us, like religious bigotry and intolerance. India is a country of great diversity. To progress we must remain united. So whatever promotes our unity, like dargahs, is good for us, and whatever divides us, like religious extremism and fanaticism, is bad for us..The Sufi spirit of TOLERANCE and compassion is what all Indians must inculcate and imbibe." यह एक और नमूना है काटजू साहेब की मूर्खता का. सूफी संत मुसलमान थे, यह लिखा है उन्होंने. पता नहीं संत की परिभाषा क्या है इनकी? जो हिन्दू या मुसलमान हो वो संत कैसे हो सकता है और जो संत हो वो हिन्दू-मुसलमान कैसे हो सकता है? यह है मेरी समझ तो. और हिन्दू या मुसलमान परिवार में जन्म लेने से, धर्म-विशेष में पलने बढ़ने से कोई व्यक्ति उसी धर्म को मानने वाला होगा, यह कहाँ ज़रूरी है? सूफी मुस्लिमों में पैदा हुए लेकिन मुस्लिम नहीं थे. मुस्लिमों में विद्रोही थे. मुस्लिम और हिन्दू, तमाम बीमरियों के विरोधी थे. ऐसे ही तो मंसूर को नहीं काटा गया. अगर वो मुसलमान ही था तो फिर क्यूँ मारना? जानते हैं किसलिए? वो अनलहक अनलहक (अहम ब्रह्म अस्मि) कहता था. आठ साल जेल में रखा गया. तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद जला दिया गया. फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है. ऐसे ही तो नहीं सूफी फकीरों की दरगाहों को तालिबान तबाह नहीं कर रहे. 2010 में बाबा फरीद की दरगाह पर अटैक में दस लोग यूँ ही मारे गए? ऐसे ही तो सरमद की गर्दन जामा मस्ज़िद की सीढ़ियों पर काट नहीं लुढकाई गई. काटजू साहेब लिखते हैं कि हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते, मुस्लिम मंदिर नहीं जाते लेकिन सब दरगाह जाते हैं. वाह! वाह!! जनाब हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते तो उसका कारण मुस्लिम हैं न कि हिन्दू. मस्ज़िद में नॉन-मुस्लिम को जाने ही नहीं दिया जाता. और दरगाह भी सब नहीं जाते. मुस्लिम कब्रों को पूजना सही नहीं मानते सो बहुत कम मुस्लिम दरगाह जाते हैं और जो जाते हैं वो धर्म-च्युत माने जाते हैं. शिर्क माना जाता है यह सब. खुदा के ओहदे में शिरकत. जो मना है इस्लाम में. आगे लिखते हैं काटजू साहेब कि सूफियों के बहुत से शिष्य थे जो हिन्दू, सिक्ख आदि थे. यह कथन और साफ़ करता है कि काटजू साहेब सूफिओं को बिलकुल नहीं समझते. न तो सूफी हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख थे और न ही उनका शिष्य कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख हो सकता था. वैसे भी चेलों से गुरु को तौलना ऐसे ही है जैसे आप अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्म की समीक्षा रामसे ब्रदर की ऐसी फिल्म देख करने लगें जो उसकी थर्ड क्लास नकल हो. "मक्के गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ जुमा पढ़ आईये गंगा गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ गोते खाईये गया गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ पंड पढ़ाईये बुल्ले शाह गल ताइयों मुक्दी जदो "मैं" नूं दिलों गंवाईये ----- बाबा बुल्लेशाह" पढ़ पढ़ आलम पागल होया, कदी अपने आप नू पढ़या नईं जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने आप चे वड़या नई एवईं रोज शैतान नाल लड़दा, कदी अक्स अपने नाल लड़या नई बुल्ले शाह आसमानी उड दियां फड़दा, जेड़ा घर बैठा उह नूं फड़िया नईं ----- ----- बाबा बुल्लेशाह फरीदा जे तू वंजें हज, हब्यो ही जीआ में। लाह दिले वी लज, सच्चा हाजी तां थीएं॥.....बाबाफरीद गंजेशक्कर कंकर पत्थर जोड़ के,,,,, मस्जिद लई चिनाय ता पर मुल्ला बांघ दे,,,क्या बहरा हुआ खुदाय.... कबीर साहेब" ये हैं असली सूफी. पता नहीं किन सूफियों का ज़िक्र कर रहे हैं काटजू साहेब. TOLERANCE सिखाने वाले नकली सूफी पकड़े बैठे हैं. नकली सूफी और नकली उनके शिष्य. असली शिष्य भिगो-भिगो जूते मारता रहा है और बदले में जूते खाता रहा है. सातवीं मिसाल. काटजू साहेब लिखते हैं, “99% of all people are good. Despite the Paris attack in which several persons were killed, and despite Haji Yaqoob Qureshi, I will repeat again what I have been repeatedly been saying : 99% people of all communities are good people. So 99% Hindus are good people, and so are 99% Muslims, Christians, Sikhs, Parsis, and people of all religions, castes, races, languages, regions and nationalities. 99% Pakistanis are good people, and so are 99% Indians and 99% Bangladeshis, Nepalese, Sriklankans, Burmese, Americans, Europeans, Chinese, Arabs, Africans, etc This is what my teacher, the great French thinker Rousseau taught me over 50 years ago when i was a very young man, and this is the belief I will retain till my death. I will disgrace myself before my teacher ( who for me is still alive ) if I deviate an inch from this belief. I would rather die than do that.” पहली तो बात यह कि यह सोच ही गलत है कि किसी विचार को जीवन के अंत तक पकड़े ही रखना है. यह जड़ता है. यह अखंड मूर्खता है. चाहे हम अपने गुरु को कितना ही प्यार करते हों लेकिन जब तक हम उससे मुक्त नहीं हो जाते, आगे नहीं बढ़ सकते. कहीं पढ़ा था कि जब तक बच्चा अपने माँ-बाप की हत्या नहीं कर लेता, वो तरक्की नहीं कर पाता. हत्या से मतलब माँ-बाप से मुक्त होने से है. और मुक्त होने से मतलब उनके दिए हुए संस्कारों की ज़ंजीरों से मुक्त होने से है. पढ़ा था कि शिष्य गहन ध्यान में थे ईष्ट देवी के. उनके गुरु ने कहा कि उठा तलवार और देवी को काट दे. पहले मना किया लेकिन फिर ध्यान में ही काल्पनिक तलवार उठाई और काल्पनिक देवी को काट दिया. कितना ही प्यार हो गुरु से, माँ-बाप से, ईष्ट से, लेकिन उनसे बंधे ही रहना है, यह सोच ही जीवन के बहाव को रोक देगी. जीवन बहती धारा न होकर खड़ा पानी हो जाएगा. गन्दला पोखर. और अपने गुरु-प्यारे की सिखावन से इतर जाना, उस गुरु-प्यारे का अपमान कैसे हो गया? मेरी बड़ी बिटिया तर्क में मुझे चारों खाने चित्त कर देती है. मामला शुरू होने से पहले ही खत्म कर देती है. मैं बहुत नाराज़ होता हूँ? नहीं. मैं खुश होता हूँ. मुझ से बेहतर है. उससे हारना अपमान नहीं, सम्मान का विषय है. और हम सब किसी एक व्यक्ति के शिष्य नहीं है कभी भी. हम सब जीवन के शिष्य हैं. जीवन से बड़ा गुरु कोई नहीं. It is the life, that is a life-long teacher. अब श्रीमान काटजू साहेब अपने गुरु, अपने प्यारे रूसो की सिखावन को जीवन के अंत तक पकड़े-जकड़े रखना चाहते हैं, मर्ज़ी है उनकी. लेकिन यह मर्ज़ी मर्ज़ है, यह मेरा ख्याल है. और यह सिखावन क्या है जिससे वो इंच भर हिलना नहीं चाहते, जिसके लिए वो जान तक देने पर उतारू हैं? यह सिखावन यह है कि 99% लोग अच्छे होते हैं, चाहे वो किसी भी कौम से हों, किसी भी मुल्क से हों, किसी भी भाषा का प्रयोग करते हों, किसी भी जात-बिरादरी के हों. अब विडम्बना यह है कि काटजू साहेब ही कहते हैं कि नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा भारतीय और पाकिस्तानी मूर्ख हैं. अब मूर्ख भी हैं और अच्छे भी हैं! यह कुछ मामला गड़बड़-झाला है. मूर्ख होना अच्छा है या अच्छा होना मूर्खता है? अच्छाई मूर्खता का नतीजा है या मूर्खता अच्छाई का नतीजा है? शायद काटजू साहेब कहना चाहते हैं कि लोग हैं तो अच्छे लेकिन हैं मूर्ख. तो मेरा कहना यह है कि लोग मूर्ख हैं और मूर्ख लोग अच्छे नहीं हो सकते. तब तक नहीं जब तक वो मूर्खता न छोड़ दें. इंसानी मूर्खता का नतीजा है कि पृथ्वी मरने की कगार पर है. इसे अच्छा कहना चाहते हैं, कह लीजिये. उनको इस पोस्ट में टैग किया है मैंने. और मेरी आप सब से भी गुज़ारिश है, अगर हो सके तो मेरा संदेश काटजू साहेब तक पहुंचा दें. सम्मान से न्योता दे रहा हूँ उनको कि मैंने अगर कुछ गलत लिखा तो वो सही करें. न मैं गाली-गलौच करता हूँ, न करने देता हूँ. और मूर्ख कहना न वो गलत मानते हैं और न मैं. वो दोनों तरफ जन्म-सिद्ध अधिकार है. मार्कंडेय काटजू साहेब का मैं सम्मान करता हूँ कि सुप्रीम कोर्ट के जज रहने के बाद, वो सार्वजानिक तौर पर अपने विचार प्रकट करते रहते हैं, करने चाहिएं, चाहे कहीं-कहीं खुद ही मूर्ख साबित होते रहें. नमन है उनको. नमन आप सब को ..तुषार कॉस्मिक...कॉपी राईट