Friday 20 October 2017

शब्द

"अरे भाई, एक सेल्फी खींचना मेरी."

"समय चार बजे, तिथी बीस, नवम्बर दो हज़ार सत्रह को हमारे यहाँ मुख्य अतिथि होंगे श्रीमान महादेव प्रसाद." 

 "हमारे इलाके की MCD चेयरमैन चुनी गईं श्रीमति बिमला देवी."

 "प्रतिभा पाटिल हमारी राष्ट्रपति थीं."

 सेल्फी सेल्फ यानि खुद की खुद ही लेना है. लेना मतलब फोटो. मैं कोई हस्त-मैथुन की बात नहीं कर रहा. तो कोई और कैसे ले सकता है? कोई और लेगा तो फिर यह सेल्फी कैसे होगी? है कि नहीं? "एक सेल्फी खींचना मेरी." इडियट!

 तिथी छोड़ो, समय तक निश्चित है, फिर भी 'अतिथि'!

 स्त्री हैं फिर भी "चेयरमैन"! और स्त्री हैं फिर भी पति! 'चेयर-वुमन' कहने में शर्म आती है तो शब्द प्रयोग होता है चेयर-पर्सन. लेकिन 'राष्ट्र-पत्नी' तो अभी कोई शब्द घड़ा ही नहीं गया. क्या करें? हाय-हाय ये मज़बूरी. राष्ट्र का पति कोई हो जाये, यह तो बरदाश्त है, लेकिन पत्नी! यह तो शोचनीय, शौचनीय है.  

कैसे शब्दों का उल्ट-पुलट प्रयोग करते हैं हम, ये कुछ मिसाल हैं. 

 बहुत पहले एक नाटक देखा था बॉबी भाई के साथ. पता नहीं उनको याद होगा या नहीं. "मिर्ज़ा ग़ालिब इन दिल्ली." एक सीन था उसमें, ग़ालिब आते हैं दिल्ली और उनको तांगा पकड़ना है कहीं पहुंचने को. तो वो स्टैंड पर खड़े हैं और टाँगे वाला आवाज़ लगा रहा है, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी." अब ग़ालिब तो ग़ालिब. वो अड़ गए, "भैया हम 'सवार' हैं, 'सवारी' तो आपका तांगा है." उसे समझ नहीं आया. वो फिर शुरू, "दो रुपये सवारी, दो रुपये सवारी...." तो ऐसे ही बकझक चलती है.  

दो  शब्द हैं भैया....पंजाब में इसका अर्थ 'ब्रदर' नहीं है. इसका अर्थ है पूरबिया/ लेबर/ बिहारी/ .

और ब्रदर के लिए जानते हैं क्या शब्द है पंजाब में? "वीर". जिसका असली मतलब है बहादुर.

"वेस्ट बंगाल" भारत का पूर्वी राज्य है. है पूरब में लेकिन नाम है 'पश्चिम बंगाल'. कभी रहा होगा बंगाल का हिस्सा तो ठीक ही था नाम, पश्चिमी बंगाल. लेकिन आज तो भारत का हिस्सा है, फिर भी नाम पुराने चलते रहते हैं. आप रखते रहो नाम बदल के राजीव गांधी चौक, लेकिन आज भी लोग "कनाट प्लेस" बोलते हैं. मैंने किसी को महात्मा गाँधी मार्ग या हेडगवार मार्ग बोलते नहीं देखा, लोग आज भी रिंग रोड़ और आउटर रिंग रोड़ ही बोलते हैं. पंजाब  पंज आब यानि पांच नदियों वाला प्रदेश था.  अब उसके पल्ले बस दो नदियाँ रह गई हैं, वो अब दुआबा है लेकिन हम तो आज भी पंजाब ही बोलते हैं. पुराना पकड़ लेता है तो बस जकड़ लेता है, छोड़ता ही नहीं.

'सौराष्ट्र' आज गुजरात का हिस्सा है, इसके नाम से लगता है कि किसी समय यह अपने आप में एक राष्ट्र माना जाता होगा, 'सुराष्ट्र', अच्छा राष्ट्र. असल में ऐसे और भी छोटे-छोटे राष्ट्र हुआ करते होंगे, तो उन्हीं में से कुछ का जोड़ बना होगा 'महाराष्ट्र', जो आज भारत राष्ट्र का एक प्रदेश है. राष्ट्र में महाराष्ट्र. छोटे डिब्बे में बड़ा डिब्बा! और फिर गुजरात शायद गूजरों का ही राष्ट्र रहा हो, नहीं? शब्द बहुत कहानी कह देते हैं.

अंग्रेज़ी का शब्द है 'राशन'. इसका अर्थ क्या समझते हैं हम? दाल, चावल, चीनी, गेहूं. यही न? लेकिन नहीं है इस शब्द का यह मतलब. राशन शब्द का अर्थ है 'कुछ ऐसा' जिसे सीमित कर दिया गया हो. राशन कार्ड से जो सामान मिलता है वो सीमित मात्रा में ही मिलता है. लेकिन अगर हम कहीं भी और से दाल, चावल, चीनी, गेहूं लेंगे तो वहां तो कोई राशनिंग नहीं है. लेकिन हम अधिकांशत: वहां भी "राशन" ही लेते हैं. 

'स्वस्थ' शब्द को हम हेल्दी व्यक्ति के लिए प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ है इसका, स्वयं में स्थित, स्व-स्थ. ध्यान का अर्थ है ध्यान पर ध्यान. लेकिन ध्यान पर दुनिया-जहाँ की बकवास है. और स्वास्थ्य के तो पता नहीं क्या अर्थ-अनर्थ हैं?

शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं. 'दीदी' शादी के बाद 'जीजी' हो जाती हैं चूँकि अब सम्बन्ध जीजा के ज़रिये है. जीजा प्रमुख हो गए. 'जीजा जी' के आगे भी 'जी' है और पीछे भी 'जी' है, मतलब आपको सिर्फ उनके लिए 'जी' ही 'जी' करनी है. 

अंग्रेज़ी का ही शब्द है 'हसबैंड'. कहते हैं 'हसबैंडरी' से आया है, जिसका अर्थ है खेती-बाड़ी. तो कुल जमा मतलब यह कि कहीं-न-कहीं पति का कंसेप्ट खेती-बाड़ी से जुड़ा है. खेती आई तो पीछे-पीछे पति भी आ गया. 

'हरामज़ादा' शब्द हरम में पैदा हुए बच्चों के लिए प्रयोग हुआ लगता है. मतलब वो बच्चे, जिनकी माताएं बादशाह की रानियाँ नहीं थीं, बस सम्भोग के लिए प्रयोग की जाने वाली लेबर थीं. तो उनसे पैदा हुए बच्चों को दोयम दर्ज़े का माना जाता रहा होगा. हरामज़ादे. अंत:पुर-वासिनियों के बच्चे. दासी पुत्र-पुत्री टाइप. शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत कहानी शब्द ही खोल देते हैं.

मैं भी कुछ-कुछ शब्दों के अर्थ और अर्थों के शब्द बदल देता हूँ.
'ब्रह्मचारी' वो जो खूब सेक्स करे चूँकि सारे ब्रह्मांड में सेक्स का ही पसारा है.

असुर वो जो सुरा (शराब) न पीये और सुर(देवता) वो जो सुरा पान करें.
राक्षस वो जो रक्षा करें.

आस्तिकता का अर्थ है अस्तित्व को समझने का प्रयास. इस प्रकार सारे वैज्ञानिक आस्तिक हैं. और सारे पुजारी, मौलवी, पादरी नास्तिक हैं क्योंकि अस्तित्व को जानने समझने के रास्ते में सबसे जादा रोड़े, चट्टान, पहाड़ यही अटकाते हैं.

कहते ही हैं, शब्द का वार तलवार के वार से भी भयंकर होता है. शब्द ब्रह्म है. मैं तो कहता हूँ शब्द ब्रह्मास्त्र है. बहुत सोच कर चलायें. आप तो बेहोशी में जीते हैं. न आपको अपने तन का होश, न मन का. थोड़ा होश में आयें. आपके बेहोशी में कहे गए शब्द, किसी का जीवन बिगाड़ देते हैं. 


मैं पहले भी ज़िक्र कर चुका हूँ, बहुत पहले लैंड-मार्क फोरम अटेंड किया था मैंने. साउथ दिल्ली स्थित "हरे रामा, हरे कृष्णा मन्दिर" में. एक सरदार जी थे वक्ता. तीन दिन लगातार. सोने तक का समय मुश्किल मिलता था. उस सारी एक्सरसाइज का जो नतीजा उन्होंने निकाला अंत में, वो यह कि इन्सान एक मशीन है जो दूसरों के कहे शब्दों को कभी-न कभी पकड़ के खुद को डिफाइन कर लेता है और उस डेफिनिशन के आधार पर ही उसके जीवन का ब्लू प्रिंट बन जाता है.  वो शब्द, दूसरों के कहे शब्द उसके मन पर इंप्रिंट हो जाते हैं और ब्लू प्रिंट बना जाते हैं. 

बात सही है. मैं आठवीं तक एक औसत स्टूडेंट था. आठ क्लास कैसे पास हो गईं, मुझे पता ही नहीं. फिर एक बार एक टीचर ने मेरी पढाई-लिखाई की  कुछ प्रशंसा कर दी और बस मैं उनके शब्दों को सही साबित करने लगा. उसके बाद मैंने हर एग्जाम टॉप किया. 

दिक्कत यह है कि लोग शब्दों की ताकत नहीं समझते. शब्दों का सही प्रयोग नहीं समझते. मिसाल के लिए लोग अक्सर किसी की ख़ूबसूरती की प्रशंसा करते हैं, वहां तक ठीक लेकिन किसी की शक्ल नरम हो तो भी कमेंट करने से नहीं चूकते, बिना यह समझे कि उनके शब्द सामने वाले को कितनी चोट पहुँचायेंगे. खास करके तब जब न तो सामने वाले की कोई गलती है और न ही अपने नाक-नक्शे में वो कोई खास सुधार कर सकता है. लेकिन आपने अपने कमेंट से अगले के सेल्फ-कॉन्फिडेंस की वाट लगा दी. कई बार तो सारे जीवन का रुख ऐसा एक ही कमेंट मोड़ देता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि चाहे हम लड़ाई-झगड़े में लाख एक दूजे को धमकाने के लिए चिल्लाते रहें कि मैं ये हूँ, मैं वो हूँ लेकिन भीतर से हमारी सेल्फ-इमेज बहुत बकवास होती है, छिन्न-भिन्न होती है. 

शब्द ब्रह्मास्त्र है. सोच कर प्रयोग करें.

शब्दों पर ध्यान दीजिये, बहुत पोल तो शब्द ही खोल देते हैं. आप "जीजा जी" बोलते हैं या "बहन का खसम", चाहे अर्थ एक ही हो, लेकिन आपके शब्दों का चुनाव आपके बारे बहुत भेद खोल देता है. 

कॉपी राईट.....नमन...तुषार कॉस्मिक

Monday 16 October 2017

राजनीति का कूड़ा सफाई का ढंग

मिसाल:----आपको पता है डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील को प्रचार करना मना है चूँकि ऐसा माना जाता है कि ये लोग सिर्फ अपनी काबलियत के दम पर ही काम पाएं न कि प्रचार करके. चूँकि इनके हाथ में लोगों के जीवन के बेहद नाज़ुक फैसले होते हैं. सो कोई घटिया डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील पैसे के दम पर प्रचार कर के किसी का बेड़ा-गर्क न कर दे.
पॉइंट:--- क्या हर राजनेता का चुनाव भी बिना प्रचार के नहीं होना चाहिए. बस अपना प्लान पेश करें, कैसे क्रियान्वित करेंगे यह पेश करें. और चुन लिए जायें. असल में चुनाव प्लान का ही होना चाहिए. व्यक्ति चुना जाए, लेकिन व्यक्ति गौण हो, प्लान प्रत्यक्ष हो, प्लान प्रमुख हो. एक ही झटके में राजनीति का कूड़ा साफ़.

सनातन

सनातन सिर्फ यह है कि कुछ भी सनातन नहीं है. Change is the only Constant.

सनातन, तथा-कथित सनातन अगर वाकई सनातन है तो open डिबेट मन्दिरों में आयोजित करे, चाहे वो राम के खिलाफ हो, चाहे पक्ष में...चाहे कृष्ण को खंडित करे, चाहे मंडित....चाहे कोई पंडित हो चाहे खंडित ....सनातन को क्या परवा?.....बदलने दो अगर कुछ बदलाव आता है तो...Change is the only Constant.

मीठे-2 फॉरवर्डड मेसेज

बिटिया पूछ रही थी, "आजकल व्हाट्स-एप्प और फेसबुक पर इतनी मीठी-मीठी परोपकार और पारस्परिक भाईचारे की बातें लोग भेजते हैं एक-दूसरे को लेकिन इस सब से असल ज़िन्दगी में तो कोई फर्क आया लगता नहीं. लोग खूब चालाकी, होशियारी, धोखा-धड़ी करते हैं. ऐसा क्यों है?" "बिटिया, लोगों के फैसले उनकी ज़रूरतें तय करती हैं न कि इस तरह के फॉरवर्ड किये गए मीठे मेसेज. करना उन्होंने वही है जिससे उनकी ज़रूरत पूरी होती हो. और ज़रूरतें बिना चालबाज़ी किये पूरी हो जायें, वैसा समाज अभी तो बनने नहीं जा रहा, चूँकि वैसे समाज के लिए बदलाव की प्रक्रिया को समझने तक की भी औकात नहीं इन फसबुकियों और व्हाट्स-एप्पियों की." "तो फिर आप क्यों लिखते हो सोशल मीडिया पर?" "वैसे ही. शायद कोई चमत्कार हो जाए."

पटाखे

पटाखे बंद होना स्वागत-योग्य है. पटाखों का हिन्दू धर्म से-दीवाली से कोई लेना-देना है ही नहीं. और हो भी तब भी कोई भी बकवास चाहे वो किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो, बेहिचक बंद कर दी जानी चाहिए. मुझे याद है, जब बड़ी बिटिया पैदा हुई तो उसकी पहली दीवाली पर मैं उसे गोदी लेके बैठा था. यूरेका फोर्ब्स का एयर प्यूरी-फायर नया-नया लिया था. बब्बू के कानों को ढक रखा था अपने हाथों से और एयर प्यूरी-फायर चला रखा था. बब्बू अब इतनी समझदार हो चुकी है कि पटाखों को सिरे से बकवास मानती है. अब छोटी वाली को खांसी रहती है. बाजारी खाना भी ज़िम्मेदार है, कितना ही मना करो बच्चे गंद-मंद खा ही लेते हैं. लेकिन एक वजह दिल्ली की खराब हवा भी समझता हूँ. मुझे ख़ुशी है कि पटाखे नहीं मिल रहे. और उम्मीद करता हूँ कि न मिलें और दीवाली बिना धुयें-धक्कड़ के बीते. कोर्ट को धन्य-वाद. जज साहेब को मेरे बच्चों की तरफ से बेहद प्यारभरा नमन. वरना इस मुल्क में राजनेताओं के हाथों तो कुछ भी अच्छा होने से रहा. कैसे हो सकता है? जो आते ही पागल भीड़ का फायदा उठा कर हैं, वो उस भीड़ के पागल-पन के खिलाफ कोई भी फैसला कैसे कर सकते हैं? सो मौजदा हालात में सरकार किसी की भी हो, बेहतरी कोर्ट-चुनाव कमीशन जैसी स्वतंत्र संस्थाओं के हाथों ही हो सकती है. शेषन को लोग आज तक याद करते हैं. वो आज भी शेष हैं. विशेष हैं......नमन.

जय शाह बनाम 'द वायर' केस

अस्सी करोड़ रुपये के आरोप के खिलाफ सौ करोड़ रुपये का मान-हानि का मुकद्दमा! आप तो अपनी औकात अस्सी करोड़ रुपये भी नहीं मानते तो फिर सौ करोड़ रुपये का मुकद्दमा कैसे? चलो अस्सी करोड़ रुपये मान भी लें तो भी सौ करोड़ का मुकद्दमा कैसे कर दिए भइये? 20 करोड़ का घोटाला तो यहीं कर दिए हो. पक्का हारोगे, बुरी तरह से. मुकद्दमा करना कोई तीर मारना नहीं होता और तुमने तो वैसे ही तुक्का मारा है.... वो क्या नाम है तुम्हारा अमित शाह के बेटे जी.

Friday 13 October 2017

सरकार और कोर्ट

"जब इस देश में सारे फैसले कोर्ट को ही करने है- जैसे के रोहिंग्या मुसलमान हिंदुस्तान में रहेंगे या नहीं रहेंगे, कश्मीर में सेना पैलेट गन चलाएगी या कौनसा गन चलाएगी, दिवाली पर पटाखे चलाएंगे या नहीं चलाएंगे, मूर्ति विसर्जन होगा कि नहीं होगा, दही हांडी की ऊंचाई कितनी होगी, राम मंदिर बनेगा या नहीं बनेगा तो फिर यह वोट डाल कर सरकार बनाने की क्या जरूरत है कोर्ट से ही पूछ लिया करो - कि प्रधानमंत्री भी कौन बनाना है...?" Ambrish Shrivastava जी ने लिखा है. मैंने जवाब दिया है, "सरकार की शक्ति और कम होनी चाहिए......कोर्ट, सीबीआई, इलेक्शन कमीशन जैसी ही स्वतंत्र संस्थाएं होनी चाहिए...जनतंत्र का यही अर्थ है....वरना यह पूरी तरह से डिक्टेटरशिप हो जाएगी....और प्रधान-मंत्री कौन तो नहीं लेकिन कैसे बने इस पर निश्चित ही कोर्ट को संज्ञान लेना चाहिए....यह जिस तरह से 'पैसा फेंक तमाशा देख' चलता है चुनाव में, यह तो लोकतंत्र नहीं लोक के खिलाफ षड्यंत्र है..."

मोदी के मुकाबला का सही ढंग

अगर आप चाहते हैं कि भाजपा को अगले चुनाव में पिछली बार जैसी जीत न मिल पाए तो एक तरीका है.....आपको मोदी भक्तों (चाहे असली-चाहे नकली) द्वारा फैलाए गए तर्कों-कुतर्कों के खिलाफ बेहद शालीनता से, तर्कों से, आंकड़ों से, सबूतों से भरी पोस्ट सोशल मीडिया पर फैलानी चाहिए. संघ-भक्तों से कैसे भी विवाद में मत पड़िए, कुछ फायदा नहीं, मात्र समय और ऊर्जा खराब होगी. बस इनकी पोस्टों को इन्हीं के खिलाफ प्रयोग कीजिये. लेकिन आपको यह सब करने का हक़ तभी है जब आप किसी भी और धर्म के ठेकेदार न हों. यदि आप मुस्लिम हैं, सिक्ख हैं, ईसाई हैं या फिर कोई भी और धर्मो को कस के पकड़े हैं तो फिर रहने दीजिये क्यों कि यह सलाह सिर्फ उनके लिए है, जिनका धर्म-कर्म क्रिटिकल थिंकिंग, तार्किक वैचारिकता फैलाना है न कि कोई ख़ास धर्म-ध्वजा फहराना. यह सलाह उनके लिए है जो संघ-भक्ति ही नहीं सब तरह की भक्ति-पैरोकारी के खिलाफ बोलने-लिखने की हिम्मत रखते हों. यह सलाह उनके लिए है जो लिख सके कि इस्लाम, सिक्खी, ईसाईयत और अन्य सब तरह के तथा-कथित धर्म इंसानी दिमाग की सोचने-समझने की शक्ति हर लेते हैं चूँकि हर धर्म इंसानी सोच को किसी किताब या किसी इंसान का गुलाम बनाता है. हर धर्म छद्म गुलामी है. और अगर आप यह सब नहीं कर सकते तो अकेले संघ के खिलाफ़ डुग-डुगी अगर पीटेंगे तो आप में और संघ-भक्तों में कोई फर्क थोड़ा है. बस ट्रेड-मार्क अलग है. जैसे ज़हर की अलग-अलग शीशियाँ सजा के रखी हों दूकान में. अलग-अलग ब्रांड की. कोई तुरत असर करती हो, कोई दो दिन में कोई दो साल में और किसी का असर इतना धीमा हो कि ज़हर पकड़ में ही न आये. बस इतना ही फर्क है. कहाँ खड़े हैं आप? देख लीजिये. नमन...तुषार कॉस्मिक

नई राजनीति

मिसाल:----आपको पता है डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील को प्रचार करना मना है चूँकि ऐसा माना जाता है कि ये लोग सिर्फ अपनी काबलियत के दम पर ही काम पाएं न कि प्रचार करके. चूँकि इनके हाथ में लोगों के जीवन के बेहद नाज़ुक फैसले होते हैं. सो कोई घटिया डाक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील पैसे के दम पर प्रचार कर के किसी का बेड़ा-गर्क न कर दे.
पॉइंट:--- क्या हर राजनेता का चुनाव भी बिना प्रचार के नहीं होना चाहिए. बस अपना प्लान पेश करें, कैसे क्रियान्वित करेंगे यह पेश करें. और चुन लिए जायें. असल में चुनाव प्लान का ही होना चाहिए. व्यक्ति चुना जाए, लेकिन व्यक्ति गौण हो, प्लान प्रत्यक्ष हो, प्लान प्रमुख हो. एक ही झटके में राजनीति का कूड़ा साफ़.

भारत माता ध्वस्त होनी चाहिए

संघी सोच है. भारत माता की जय! असल में भारत माता ध्वस्त होनी चाहिए और चीन माता भी और जापान माता भी और अमेरिका माता भी. और इस तरह की बाकी सब माता. जब तक ये सब माता विदा न होंगी, 'वसुधैव कुटुम्बकम'-'विश्व बंधुत्व' ये शब्द बस शब्द ही रहेंगे. ये माता बीमारियाँ हैं. आपको शायद ध्यान हो, हमारे यहाँ तो चेचक की बीमारी को भी माता समझा जाता था. इस भारत माता को बीमारी पता नहीं कब समझेंगे? दीवारें. हमारे घर की दीवारें ही तो हैं, जो मुझ में और आप में एक गैप बनाये रखती हैं. वरना फर्क क्या है, मुझ में और आप में? ये घर, मोहल्ला, प्रदेश, देश सब दीवारें हैं. सब दीवारें ध्वस्त होनी चाहियें. धरती माता की जय हो जाएगी. कल हमारा यह कुटुम्ब और ग्रहों-नक्षत्रों तक फ़ैल सकता है. उनकी भी जय. लेकिन हम तो यही सोच छोड़ के राज़ी नहीं कि कोई हिन्दू-भूमि है और कोई पाकिस्तान है. जैसे धरती माता ने रजिस्ट्री कर के दे रखी हो अलग-अलग. संघ की शाखा में रोज़ प्रार्थना गाई जाती है, जिसमें एक लाइन हैं, "त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्." हे हिन्दू-भूमि तूने मेरे सुख में वृद्धि की है. और उन्होंने तो अपने मुल्क का नाम ही रख दिया पाकिस्तान, जैसे बाकी सब नापाक-स्तान हों. शिट मैन, कुछ तो अक्ल लगाओ. या दिमाग में गोबर मतलब शिट ही भरी है? गोबर गोबर ही होता है, चाहे गाय का हो. उपयोग हो सकते हैं गोबर के भी. उपले बनते हैं, रसोई में ईंधन की तरह प्रयोग होते हैं. लेकिन दिमाग में भरा होने का कोई उपयोग हो, यह मैंने आज तक पढ़ा-सुना नहीं है. की मैं कोई झूट बोल्या? की मैं कोई कुफर तोल्या? ऊं..आहूँ ....आहूँ ....आहूँ ! ऊं..आहूँ ....आहूँ ....आहूँ ! नमन.....तुषार कॉस्मिक

Thursday 12 October 2017

अमिताभ बच्चन जन्म-दिवस स्पेशल


लानत है, उस मुल्क कि सभ्यता संस्कृति पे, जहाँ सदी के महानायक के रूप में ऐसे व्यक्ति को प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है ----

1) जिन्होंने ने फिल्मों में काम करने के अलावा लगभग कुछ नहीं किया...अरे यदि मानदंड फिल्मों में काम ही रखना था तो बेहतर था गुरुदत्त को या आम़िर खान जैसे व्यक्ति को महानायक मान लेते.....कम से कम इन लोगों ने समाज को अपनी फिल्मों के ज़रिये बहुत कुछ सार्थक देने का प्रयास तो किया ....अमिताभ की ज्यदातर फिल्मों में दिखाया क्या गया...एक एंग्री यंग मैन .....जो समाज की बुराईयों से लड़ता है शरीर के जोर पे.....सब बकवास ....शरीर नहीं विचार के जोर से समाज की बुराई खतम की जा सकती है..और जिन कलाकारों ने यह सब दिखाने का प्रयास किया, वो चले गए नेपथ्य में...उनकी फिल्मों को आर्ट फिल्में, बोर फिल्में कह के ठुकरा दिया गया.....समाज को कचरा चाहिए था..अमिताभ की फिल्मों ने कचरा परोस दिया.....काहे की महानता? कला में क्या बलराज साहनी, ॐ पूरी, नसीरुद्दीन शाह किसी से कम रहे हैं....अगर सिनेमा के महानायक की ही बात कर लें तो भी अमिताभ मात्र कचरा सिनेमा के ही महानायक हैं. कुछ फिल्में अच्छी की हैं, लेकिन अधिकांश कचरा.

2) जिन्होंने पैसों की खातिर अंट-शंट advertisements की, इनसे तो बेहतर गोपी चंद पुलेला हैं, जिन्होंने पेप्सी की advertisement का बड़ा ऑफर ठुकरा दिया और इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें पता है कि पेप्सी सेहत के लिए हानिकारक है

कुछ ही समय पहले अमिताभ ने एक advertisement किया है ....पारले जी बिस्कुट का .......इस में वो एक अमीर व्यक्ति दिखाये गए हैं जो अपने नौकर पे इसलिए खफा होते हैं कि वो "सोचता" है ...श्रीमानजी फरमाते हैं , "अच्छा, तो अब आप सोचने भी लगे हैं"...जैसे सोचने का ठेका सिर्फ मालिक को है....जैसे नौकर ने सोच लिया तो गुनाह कर दिया

http://www.youtube.com/watch?v=x9VmK0L5vrk

Life taught me that Khushiyan (Happiness) can be brought in life through understanding of Life, but Amitabh Bachan is teaching me that Khushiyan are can be brought by eating MAGGI (2 Minute Me Khushiyan).

http://www.youtube.com/watch?v=ww8o0aCNDR0

3) जिनमें राजनीति की न सोच थी, न समझ... बस कूद गए बिना सोचे समझे....लेकिन फ़िर भागे मैदान छोड़ के तो दोबारा नहीं पलटे...अरे, मुल्क का समय, पैसा, उम्मीदें सब बर्बाद होती हैं ऐसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं की वजह से ..... यदि वास्तव में ही जज़्बा होता देश सेवा का, तो सीखते और टिके रहते मैदान में.

4) जो अमर सिंह जैसे नेता को साथ चिपकाये रहे......वो अमर सिंह... जिनका शायद ही देश की दिशा-दशा सुधारने में कोई योगदान किसी को पता हो.

5) लानत है..... इस देश को सदी महानायक के लिए आंबेडकर, सी वी रमण, जगदीश बसु, मुंशी प्रेम चंद, भगत सिंह, आज़ाद, सुरजो सेन, अशफाकुल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे लोग न दिखे...

ऐसे लोग न दिखे जो समाज के दिए में तेल कि जगह अपना लहू जलाते रहे, दिखे तो पाद मारने के भी पैसे लेने वाले एक्टर, लानत है.

जन-जीवन के लिए जो असली नायक हैं, महानायक हैं...वो चले गए हाशिये पे और ऐसे व्यक्तियों ने जगह घेर ली जिनका योगदान नगण्य है या फिर ऋणात्मक है.

6) हमारा समाज यदि उन्हें मात्र सिनेमा का ही महानायक मानता तो वो आपको मैगी, कोला जैसी अंट-शंट advertisement में न दीखते... व्यापारी वर्ग कोई मूर्ख नहीं है जो उनको करोड़ों रुपये देगा चंद सेकंड की परदे पे मौजूदगी के....व्यापारी को पता है कि भारतीय समाज सिनेमा के नायक को भगवान् की तरह पूजता है, मंदिर तक बनाता है, और यहीं मेरा विरोध है .....आप लाख कहते रहो कि वो तो मात्र सिनेमा के नायक हैं, महानायक हैं......लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म-कलाकार भारतीय जनमानस के देवता हैं.

7 ) लाख गीत गाते रहो अपनी महान सभ्यता संस्कृति के, महानायक के चुनाव से सब ज़ाहिर होता है कितनी महान सभ्यता है, कितनी महान है संस्कृति.

8 ) जिस दिन इस देश के मापदंड बदलेंगे उस दिन कोई उम्मीद बनेगी, वरना जैसी देश की कलेक्टिव सोच है, वैसे ही नायक मिलेंगें, वैसे ही महानायक, वैसी ही सरकार बनेगी, वैसे ही बे-असरदार सरदार मिलेंगें, और खिलाड़ी ओलंपिक्स में पिटते रहेंगें और रुपया बाज़ार में धूल फांकता रहेगा.

9) यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो न नेता है 
न अभिनेता है 

जो क्रिकेट नहीं खेलता 
पर रोज़ दंड पलता  

वो जो पहाड़ धकेलता 
उत्तराखंड को झेलता

वर्दी वाला देवता 
छोटी पगार लेवता  

बचा रहा है तुम को
बचा रहा है हम को 

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो दिन रात लगाता है 
भेद कुदरती सुलझाता है 

सियासत पर भार बना 
मज़हब का शिकार बना 

कचहरी में उलझाया गया 
जिंदा जलाया गया 

जिसने बिजली दी कार दी
नवजीवन की फ़ुहार दी

सुविधायों की बौछार दी
जीवन को नयी धार दी  

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है 

जो पत्थर घढ़ता है 
जो शब्द गढ़ता है 

कथा कहानी कहता है 
खोया खोया रहता है 

मीठा तो कभी ख़ार है 
वो ही कलाकार है 

जो मूर्तिकार है 
जो चित्रकार है 

यार मेरे थम तो 
ले थोडा दम तो 
पहचान असली हीरो कौन है 
वो जो कुछ कुछ मौन है

नमन.......तुषार कॉस्मिक

Wednesday 11 October 2017

भगवान

'भगवान' शब्द का संधि-विच्छेद करें तो यह है भग+वान. भग वाला. योनि वाला. योनि, जहाँ से सब जन्म लेते हैं. ध्यान दीजिये, 'भगवान' शब्द पुरुषत्व और स्त्रीत्व दोनों लिए है. हम भगवान शब्द को पुलिंग की तरह प्रयोग करते हैं. लेकिन वो 'पु-लिंग' है तो 'स्त्री-भग' भी है. वो 'भगवान' है. वो अर्द्ध-नारीश्वर है. वो 'भगवान' है.


वो शून्य है

अब है तो फिर शून्य कैसे

और शून्य तो फिर है कैसे


लेकिन वो दोनों

कबीर समझायें तो उलटबांसी हो जाए

गोरख समझायें तो गोरख धंधा हो जाए

वो निराकार है

और साकार भी

साकार में निराकार

और निराकार में साकार

वो प्रभु

वो स्वयम्भु

वो कर्ता और कृति भी

वो नृत्य और नर्तकी भी

वो अभिनय और अभिनेता भी

वो तुम भी

और वो मैं भी

बस वो ...वो ...वो ...वो


मैं नास्तिक नहीं हूँ......हाँ, लेकिन जिस तरह आस्तिकता समझी जाती है, उन अर्थों में आस्तिक भी नहीं हूँ. मेरे लिए हमारा समाज ही भगवान है, हमारी धरती ही भगवती है, हमारा ब्रह्मांड ही ब्रह्मा है. मैं कॉस्मिक हूँ. मैं तुषार कॉस्मिक हूँ.


केवल कुछ प्रश्न  और सभी धर्म और इन धर्मों पर आधारित संस्कृतियाँ धराशायी हो जाएँगी:---

प्रश्न 1:- यदि आप मानते हैं कि हर चीज़ का निर्माण किसी ने किया है और कोई ईश्वर या ईश्वर जैसी इकाई है, तो उस इकाई का निर्माण किसने किया? यदि वह इकाई स्वयं निर्मित हो सकती है, तो यह ब्रह्माण्ड क्यों नहीं?

प्रश्न 2: इस बात का प्रमाण कहां है कि आपके मंदिर, मस्जिद, चर्च, आपकी प्रार्थनाएं और आपके पुजारी उस ईश्वरीय इकाई से जुड़ने का एक तरीका हैं?


प्रश्न 3: इसका प्रमाण कहां है कि यदि आप प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर जैसी इकाई आपकी इच्छाओं पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देती है?


कुदरत ही भगवान है. जहान ही भगवान है. प्रभु से बढ़िया शब्द है. स्वयम्भू. सेल्फ क्रिएशन. शम्भू. लेकिन इसे पूजने से कोई फायदा नहीं. आदमी पूजन के चक्कर में इसे खराब करता है उल्टा. फूल चढ़ा ही हुआ है भगवान् को. उसे काट के, पत्थर की मूर्ती पे चढ़ा देता है. इडियट है. इन्सान को करना बस इतना है कि इस दुनिया में कुदरत के मुताबिक जीए. यही पूजा काफी है. बिलकुल हम भी कुदरत का हिस्सा हैं, कुदरत ही हैं. लेकिन इन्सान तक आते आते कुदरत ने इन्सान को सेल्फ डिसिशन की शक्ति दी है. और होता यह है कि इन्सान संस्कृति के चक्कर में विकृति कर देता है. अब ज़रूरत यह है कि जितना जल्द हो सके कुदरत की और लौटना चाहिए. उसमें बहुत कम छेड़-छाड़, न के बराबर ही करनी चाहिए.

धर्मों पर मेरा नज़रिया है कि मैं किसी भी तथा-कथित धर्म को नहीं मानता. लेकिन आपको ईश्वर, अल्लाह, वाहगुरू जो मर्ज़ी मानना हो, आप आज़ाद होने चाहिए. आस्तिक्ता की आजादी होनी चाहिए और नास्तिकता की भी. धर्म निहायत निजी मामला होना चाहिए. और आज़ादी बस वहीं तक जहाँ तक दूसरे की आज़ादी में खलल न डालती हो. लाउड स्पीकर बंद. सड़कों का दुरूपयोग बंद. कोई लंगर नहीं, कोई नमाज़, कोई शोभा यात्रा नहीं सड़क पर. जागरण भी करना हो तो साउंड प्रूफ कमरों में करो. नमाज़ की कॉल करने के लिए sms प्रयोग करें या कुछ भी और जिससे बाकी समाज को दिक्कत न हो. और स्कूलों में भगवान की कोई प्रार्थना नहीं. स्कूल शिक्षा स्थल है, वहां तो चार्वाक और मार्क्स भी पढ़ाया जाना है, वो पक्षपात कैसे कर सकता है?


सरकारी कामों में किसी भी धर्म का समावेश नहीं होना चाहिए. कोई भूमि-पूजन नहीं, कोई नारियल फोड़न नहीं. पश्चिम ने चर्च और सरकार को अलग किया. हमारे यहाँ भी सैधांतिक तौर पर ऐसा ही है, लेकिन असल में धर्म जीवन के हर पहलु पर छाया हुआ है. यहाँ नेता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहता है. ओवेसी साफ़ बोलता है कि मैं मुस्लिम -परस्त हूँ. भाजपा हिन्दू-परस्त है. और ये सब गरीब-परस्त है. जबकि प्रजातंत्र की परिभाषा ही यह है कि जो सरकार बने, वो सेकुलर हो, तो ये मुस्लिम-हिन्दू-गरीब-परस्त सेकुलर कैसे होंगे? इन पर तो दसियों वर्षों के लिए पाबंदी लगनी चाहिए. अक्ल ठिकाने आ जाए.


और जिस तरह सुबह-शाम धार्मिक स्थल, बाबा, गुरु लोग प्रवचन करते हैं धार्मिकता पर, वैसे ही वैज्ञानिकता पर भी समाज में प्रवचन करवाने चाहियें. वैज्ञानिकता से मतलब फिसिक्स, केमिस्ट्री ही नहीं होता. जीवन के हर पहलु में वैज्ञानिकता लाए जाने की दरकार है.

आज एक राज़फाश करता हूँ......ये जो भगवान, परमात्मा, प्रभु, अल्लाह, वाहगुरू जो भी नाम प्रयोग करते हो न और मांगते हो...मंदर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे में झुक-झुक कर. आरतियाँ उतारते हो, अरदासें करते हो, सब मोनोलोग हैं.मतलब तुम्हारी तुमसे ही बातचीत.सड़क पर चलते अक्सर देखे होंगे ऐसे लोग, जो खुद से ही बतियाते चलते हैं. क्या समझते हैं ऐसे लोगों को देख कर? यही कि कुछ पेच ढीला है. सुनने वाला कोई नहीं, फिर भी सुनाए जाते हैं....लेकिन मन्दिर, गुरुद्वारे, चर्च में तुम्हे खुद पर हैरानी नहीं होती...झुक-झुक जाते हो, बक-बकाये जाते हो.....कोई नहीं देख रहा, कोई नहीं सुन रहा.लेकिन तुम्हें वहम है......और पुजारी, भाई जी, मौलवी जी को कुछ-कुछ पता है कि सब ड्रामा है लेकिन वो कभी सच तुम पर उजागर नहीं होने देंगे...वरना रोज़ी-रोटी छिन्न जाएगी......सो वो पूरा दम-खम लगाए रहते हैं कि तुम्हारा वहम कायम रहे.........जो मांगे ठाकुर आपने ते, सो ही सो ही देवे.......कुछ नहीं देने वाला है, वो. जो देना था, दे चुका.....हाथ पैर दे दिए, सर दे दिया, सर में दिमाग दे दिया. छुट्टी. प्रयोग करो, इन एसेट को. उसके बाद न वो कुछ देता है, न देने वाला है, समझ लो. लेकिन अगर समझ लोगे तो ये गिरजे, गुरूद्वारे, मंदर, मसीत गिर जायेंगे, इनकी डिमांड न के बराबर हो जायेगी, मात्र इस इकलौती बात के समझ आते ही.

क्या दयालु भगवान? सुनता हूँ कि भगवान बड़ा दयावान है, कृपालु है.....सभी धर्मों में कहते हैं...कुरआन में तो शुरू में ही लिखा है.

मेरा ख्याल है कि यदि भगवान कोई है भी तो वो कतई दयालु, कृपालु नहीं है....दुनिया देख कर तो यह लगता है कि जैसे वो कोई बदला ले रहा हो इन्सान से.....या मज़ा ले रहा हो जैसे रोमन सम्भ्रांत वर्ग अपने योद्धाओं   को लड़वा कर खेल की तरह मजा लेते थे........योद्धा (ग्लैडिएटर ) लड़ते थे, एक दूसरे का लहू बहाते थे.......कत्ल करते थे और सम्भ्रांत वर्ग ताली पीटता था....ऐसी ही है यह  दुनिया....अधिकांश लोग कीड़े मकोड़ों की तरह पैदा होते हैं........गरीबी में जीते हैं, गरीबी में मर जाते हैं........एक संघर्ष, इंसान का इन्सान के बीच  संघर्ष...... सम्भ्रांत का बाकी समाज के साथ संघर्ष सब जगह व्याप्त है ..

इतिहास उठा कर देख लो...वर्तमान देख लो........छोटी बेटी के लिए नर्सरी गीत लगाते हैं हम यू- ट्यूब पर.....बाबा ब्लैक शीप........उसमें भेड़ से ऊन  माँगी जाती है.........ऊन माँगी जाती है मालिक के लिए, मालकिन के लिए और सड़क पर रहने वाले के लिए.......रामायण पढ़ो.गणिका मौजूद है. रावण को मार जब सब लौटते हैं तो भरत हनुमान को बहुत सी लड़कियां उपहार स्वरूप देता है......व्यवस्था कैसी थी, ठीक आज जैसी.......मालिकों, मालकिनों, मजदूरों और बेघर गरीबों से भरी .......यह है दुनिया......दयालु है भगवान?

कहा जाता है कि यह दुनिया उसी की लीला है...ठीक है उसके लिए तो लीला है लेकिन बहुत लोगों की खुशी को लील रही है यह लीला..... काहे का दयालू? वो  तो सर्वशक्तिमान है. वो तो दाता है. वो तो दयालु है, कृपालु है. दुनिया का सुलतान है, मालिक है तो फिर क्यों नहीं इस तरह की दुनिया सही करता? ज्यादातर इन्सान सुखी होने चाहियें, खुश होने चाहिए, जीवन की ख़ास न सही लेकिन आम ज़रूरतें तो आराम से मौजूद होनी चाहियें .......दुनिया में तंदुरुस्ती और मनदुरुस्ती होनी चाहिए....कोई कोई भूखा हो, दुखी हो अपवाद स्वरूप तो माना जा सकता है कि अल्लाह दयालु है......लेकिन दुनिया देखो...उल्टा है........कोई कोई सुखी दीखता है, खुश दीखता है.......धन धान्य  जिनके पास भरपूर है, वो चंद लोग ही हैं .........बस चंद लोग मज़ा मारते दीखते हैं....बाकी तो चक्रव्यूह में फंसे फंसे दुनिया से चले जाते हैं ........दुनिया एक बड़ा पागलखाना लगती है....बीमार....गरीबी की मार. ये कैसी दुनिया बनाई है भगवान ने, खुदा ने? दयालु, कृपालु ने?

लेकिन नहीं.....असल बात यह है कि लीला अवश्य उसी की है.....लेकिन व्यवस्था उस की नहीं है...व्यवस्था हमने बनानी है और बनाने के औज़ार उसने हमें दिए हैं...इन औजारों  से हम चाहें तो जो उसने दिया उससे खुद को बेहतर कर लें    या नीचे गिरा लें...और इन्सान को देख साफ़ हो जाता है कि उसने खुद को नीचे गिरा लिया है.....प्रकृति से ऊपर उठ संस्कृति नहीं, नीचे गिर  विकृति पैदा की है....संस्कृति शब्द को देखें ...सम+ कृति ....ऐसी कृति जिसमें कोई समता हो. कैसी समता पैदा की है हमने? चंद लोग "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्ज़ी" गायें और बाकी "दुनिया में आये हैं तो जीना ही पड़ेगा, ज़िंदगी अगर ज़हर है तो पीना ही पड़ेगा" गायें ....यह संस्कृति है?  

न....न...वो भगवान, वो खुदा...तटस्थ है....वो बस हमें संघर्ष  करते, बेहतर होते देखना चाहता है.........उसने इन्सान को जो देना था दे दिया...और 'वो' जो देना था, वो 'बुद्धि' है, 'फ्री विल' है, 'मुक्त इच्छा'.......बुद्धि प्रयोग करो, अपने चुनाव करो,अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि से अपने चुनाव करो....अच्छे बुरे के लिए तुम स्वयम ज़िम्मेवार हो....वो तटस्थ रहता है.......मौन, मग्न, ....दूर से देखता हुआ, दूर दर्शक.......वो बीच में नहीं आता.

उसने तुम्हें ‘फ्री विल’ दी, ‘मुक्त इच्छा’ दी लेकिन तुम्हारे पण्डे, मौलवी, पादरी, महात्मा  तुम्हें परमात्मा की मर्ज़ी मानने को कहते रहेंगे....नहीं, उसकी मर्ज़ी यही है कि तुम अपनी मर्ज़ी से जीवन जीयो.....अपना भार अपने कन्धों पर लो......अपनी ज़िम्मेदारी खुद लो.......लेकिन तुम्हे समझाया जाता रहता है कि मनमति मत प्रयोग करो......गुरमति प्रयोग करो......कोई कहेगा कि फलां किताब से हुक्मनामा लो, हिदायत लो, कमांडमेंट लो ....सब षड्यंत्र हैं.....अष्टयंत्र हैं, सहस्त्रयंत्र हैं....... सब परमात्मा की इच्छा के खिलाफ हैं.....उसकी इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीवन जीयो और तुम्हारे धर्म कहते हैं कि नहीं, परमात्मा की इच्छा से जीयो........लेकिन जब वो कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा से जीयो तो उनका कहना यह नहीं होता कि परमात्मा की इच्छा यह है कि तुम अपनी इच्छा से जीयो, यदि यह कहना हो तो फिर कहने की ज़रूरत ही नहीं कुछ....नहीं उनका मतलब होता है...अलां किताब, फलां किताब के हिसाब जीयो.....किसी गुज़रे जमाने के इंसान के हिसाब से जीयो......सब बकवास है यह ...इंसान से उसकी आज़ादी, वो आज़ादी जो खुद खुदा ने दी है, वो छीनने का घिनोना खेल है 

तुम प्रार्थना करोगे या नहीं करोगे उस अल्लाह, खुदा, भगवान को कोई मतलब है नहीं.......तुम्हारी मन्नतों से, तुम्हारी प्रार्थनाओं से, अरदासों से उसे कोई मतलब है ही नहीं......तुम्हारे सवा रुपैये या सवा लाख या सवा करोड़ रुपैये चढ़ाने से उसे कोई मतलब ही नहीं है....आकर पढता हूँ कि शिर्डी मंदिर में, या दक्षिण के किसी मंदिर में किसी ने करोड़ों रुपये का सोना चढ़ा दिया.......मूर्ख हैं, बेहतर हो पैसे का कोई बेहतर उपयोग खोजें....कुछ भी समझ न आये तो मुझे दे दें....मैं रोज़ लिखता हूँ, लिखता क्या लड़ता हूँ, जूझता हूँ कि दुनिया बेहतर हो सके...लेकिन नहीं, मैं कोई उस तरह का सौदा नहीं कर सकता. कोई गारंटी नहीं दे सकता कि आप मुझे एक रूपया दोगे तो बदले में आपको हज़ार, लाख, करोड़ मिलेंगे...मैं तो कहूँगा कि इस तरह का सौदा ही झूठा सौदा होता है....अक्सर कहा जाता है कि कोई भी डील यदि बहुत बढ़िया दीखती हो, असम्भव फायदे का वायदा करते दीखती हो तो बहुत सम्भावना है कि वो डील ही झूठी हो....मेरे हिसाब से मंदिर, मज़ार, गुरुद्वार में जो डील की जाती हैं सब असम्भव डील हैं, झूठी डील हैं ...मैं दूसरी डील दे सकता हूँ....डील दे सकता हूँ कि सडकें बेहतर बनें, स्कूल,  अस्पताल सही चलें, शिक्षा बेहतर हो ......लेकिन मेरे जैसे बंदे को कोई फूटी कौड़ी नहीं देगा.....अस्तु, न दे.....मैं फिर भी हाज़िर हूँ  

मेरे यह चंद शब्द मजहबों की मूल धारणा की जडें हिला सकती है....चूँकि धर्मों की तो दुकानीं ही इस बात पर चलती हैं कि भगवान आपकी प्रार्थना सुनता है.........उसका जवाब भी देता है...यदि आपने ठीक से चापलूसी की तो आपको मदद भी करता है........ सब मंदिर, गुरुद्वारे, मजारें बस ठिकाने हैं प्रार्थनाओं के, अरदासों के, मन्नतों के.......आप रब, खुदा, भगवान की सिफतें गाओ........ थोड़ा पैसा खर्च करो मतलब दान दो और बदले में हजारों गुणा वापिस पाओ....यह है सौदा

लेकिन जब मैं यह कहूं कि वो खुदा, परमात्मा बिलकुल तटस्थ है, तो फिर क्यूँ कोई जाए मंदिर, गुरुद्वारे, मस्ज़िद? ये लोग  वहां कोई ज्ञान, कोई जीवन दर्शन सीखने थोडा पहुँचते हैं...सब एक अलिखित सौदे के तहत वहां मौजूद होते हैं, हाजिरी लगवाते हैं...और कहीं कहीं तो लिखित अर्जियां भी लगती हैं.....मैं बहुत पहले राजस्थान मेह्दीपुर बालाजी गया था...वहां लिखित में बालाजी को अर्जियां लगती थीं

अस्तु, मेरा गणित कहता है कि सब प्रार्थनाएं व्यर्थ हैं........कव्वों की कांव कांव से अगर ढोर मरने लगें तो सारा गाँव श्मशान हो जाए.....न न....कुदरत/परमात्मा/खुदा का अपना एक चक्कर है............वो कभी हमारी प्रार्थनाओं, अरदासों, मन्नतों के चक्कर में नहीं पड़ती/पड़ता.....वो कभी उस चक्कर में हस्तक्षेप नहीं करती/करता.

#भगवान #प्रभु #परमात्मा #ईश्वर #गॉड #अल्लाह #God #Allah

#Jesus #Bhagwanednesday 28 December 201

Tuesday 10 October 2017

होय वही जो राम रची राखा/ जो तुध भावे साईं भलीकार/ तेरा भाना मीठा लागे/ जो होता है अल्लाह की रजा में होता है

कहानी सुनी-पढ़ी होगी आपने कि एक राजा और मंत्री  शिकार खेलते हुए  चोट-ग्रस्त हो जाते हैं. राजा  बड़ा परेशान हो जाता है. लेकिन मंत्री कहता है, जो होता है ईश्वर भले के लिए करता है. फिर उन्हें आदिवासी पकड़ लेते हैं और बलि देने लगते हैं. तो राजा बड़ा परेशान होता है. मंत्री फिर भी शांत रहता है. धीमी आवाज़ में राजा को कहता है, जो करता है ईश्वर अच्छा ही करता है. राजा परेशान. आग तेज़ की जा रही है, बस भूने ही जाने वाले हैं वो दोनों और मंत्री को सब सही लग रहा है? भूने जाने से पहले दोनों के कपड़े उतारे जाते हैं तो दोनों चोटिल दीखते हैं. दोनों को छोड़ दिया जाता है, चूँकि घायल व्यक्ति को बली न देने की परम्परा थी उन आदिवासियों की. घर को लौटते हुए मंत्री कहता है राजा से, " राजा साहेब, मैं न कहता था, ईश्वर जो करता है सही ही करता है." राजा सहमति में सर हिलाता है. 

लेकिन मेरा सर  असहमति में हिल रहा है. मेरा मानना है कि  इन्सान तक आते-आते वो अल्लाह, वाहेगुर, राम अपना दखल छोड़ देता है. 

इन्सान को उसने अक्ल दी है, अपने क्रिया-कलापों की  फ्रीडम दी है. 

और फिर इन्सान ने अक्ल लगाते हुए उस फ्रीडम को बढ़ाया है. आज बहुत से काम जो सिर्फ रब, अल्लाह, भगवान के हाथ में माने जाते थे, उनको इन्सान ने अपने हाथ में ले लिया है.

उस फ्रीडम को समझना चाहिए. पशु शब्द पाश से आता है, उसके पास वो फ्रीडम नहीं है. वो पाश में है. बंधन में है. पशु है. इन्सान के पास वो फ्रीडम है.

उस फ्रीडम को पहचानें. पशु मत बनें. 

यह सोच, "होय वही जो राम रची राखा. जो तुध भावे साईं भलीकार. तेरा भाना मीठा लागे. जो होता है अल्लाह की रजा में होता है" पशुत्व की और ले जाती है. 

जैसे उस अल्लाह ने पंछी उड़ाए, इन्सान तो नहीं उड़ाया लेकिन इन्सान को अक्ल की आज़ादी दी और इन्सान उड़ने लगा. 

और वो अल्लाह, भगवान, रब  अब कहीं कोई दखल ही नहीं देता कि इन्सान करता क्या  है. जैसे कोई चेस का खेल बना दे, नियम बना दे और फिर पीछे हट जाये. खेलने वाले खेलते हैं, खेल बनाने वाला कोई हर मूव में पंगे थोड़ा न ले रहा है. जो कोई हारेगा-जीतेगा अपनी अक्ल से, अपने प्रयास से. 

सो "भाना" उसका खेल बनाने तक था, "रज़ा" उसकी खेल बनाने तक थी, "रचना" उसकी खेल रचने तक थी, उसके आगे नहीं कोई दखल नहीं. उसके आगे जो होता है, वो उसके दखल के बिना होता है. 

हमें उसका दखल इसलिए लगता है कि हमें पता नहीं होता कि उसके खेल के गहन नियम क्या हैं. जैसे परबत खिसकते हैं, बहुत से लोग मारे जाते हैं, लग सकता है कि कुदरती आपदा है, अल्लाह की मार है, लेकिन वो इंसानी कुकर्मों का नतीजा भी हो सकती है. इन्सान नहीं समझता तो कोई क्या करे? वो उस अल्लाह के नियम नहीं समझना चाहता, वो नहीं समझना चाहता कि अल्लाह ने पहाड़ दुर्गम क्यों बनाए? अगर वो चाहता कि इन्सान वहां रहे, बस्तियां बसाए, लगातार बसें चलाए,  तो वो उन्हें सुगम न बनाता?

मिसाल के लिए, किसी का जवान बेटा एयर एक्सीडेंट में मारा जाए और गलती बेस स्टाफ की हो, तो हो सकता है उसे यह रब की रज़ा लगे, भाना लगे, राम की रचना लगे लेकिन यह एक इंसानी गलती थी, जिसे भविष्य में बहुत हद तक कण्ट्रोल किया जा सकता है. 

अब कल कोई उल्का पिंड आ कर टकरा जाए और पृथ्वी का कोई बड़ा हिस्सा नष्ट हो जाए, तो आप इसे क्या कहेंगे? रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना. कह सकते हैं, तब तक जब तक हमारे वैज्ञानिक ऐसी उल्काओं को रस्ते में नष्ट करने में सक्षम न हो जाएँ. 

सो कुल मतलब यह कि यह, "रब की रज़ा. अकाल पुरख का भाना, राम की रचना" का  कांसेप्ट मात्र इन्सान को शांत किये रखने का टूल है, इससे ज़्यादा इसका कोई अर्थ नहीं है.

नमन....तुषार कॉस्मिक

हमारी दिवाली-हमारे पटाखे

बड़ा दुखित हैं मेरे हिन्दू वीर. कोर्ट ने पटाखों पर बैन लगा दिया दिवाली पर. धर्म खतरे में आ गया. धर्मों रक्षति रक्षतः. व्हाट्स-एप्प और फेसबुक का जम कर प्रयोग हो रहा है, हिन्दुओं को जगाने में. मैंने सुना था कि लोगों ने ख़ुशी से घी के दीपक जलाए थे राम जी वापिस आये थे तो. दीपावली शब्द का अर्थ ही है दीपों की कतार. लेकिन पटाखे भी चलाये थे, यह तो मैंने नहीं सुना. शायद आविष्कृत भी नहीं हुए थे. चीन ने आतिश-बाज़ी का आविष्कार किया था शायद. नहीं, लेकिन यह कैसे हो सकता है? हम तो पुष्पक विमान, एटम बम तक खोज चुके थे. निश्चित ही आतिश-बाज़ी भी हमारी खोज है. पटाखे निश्चित ही हम ने चलाए थे, जब राम जी लौटे थे तो. लेकिन वाल्मीकि रामायण तो कहती है कि राम के आगमन पर सारा ताम-झाम भरत की आज्ञा से शत्रुघ्न ने करवाया था, लेकिन उसमें पटाखों का तो कोई ज़िक्र नहीं है. रास्तों के खड्डे भरे गए थे, उन पर पानी छिड़का गया था, फूल बिखेरे गए थे. घरों पर झंडे लगाए गए थे और स्वागत में गण्य-मान्य लोगों के साथ गणिकाएं (वेश्याएँ) तक खड़ी की गयीं थी राम के स्वागत में. सो यह बकवास भूल जायें कि लोग राम के आगमन पर खुश थे और स्वयमेव घरों के बाहर घी के दीपक जला रहे थे. कहीं नहीं लिखा कि लोगों ने खुद घी के दीपक जलाये थे, पटाखे चलाना तो दूर की बात. सब गाजा-बाजा सरकारी हुक्म से था मित्रवर. नीचे वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ दिए हैं, अंग्रेज़ी में है, हिंदी में मिले तो दे दीजियेगा. चेप देंगे वो भी. कुल बात इतनी कि कोर्ट ने जो कहा है सही कहा है, दूसरा अगर भूतिया है तो खुद सुपर-भूतिया नहीं बनना चाहिए, बल्कि अपना भुतियापा खत्म करना चाहिए ताकि वो भी सही रास्ते पर अग्रसर हो. संघ अग्रसर. यह, "हम तो डूबेंगे तुझे भी ले डूबेंगे", वाली पालिसी छोड़ दीजिये. अगले बच्चे पैदा करे जाते हैं तो हम भी लाइन लगा देंगे. अगले नालियां खून से भर देते हैं हर साल जानवर काट-काट, हम भी गंद डालेंगे. यह भुतियापे का गुणनफल है. छोड़ दीजिये. अन्यथा वो कुदरत जब बदला लेगी तो हिन्दू-मुस्लिम नहीं देखेगी, सबकी लेगी..जान. चूँकि आप भी अपने भुतियापों में कोई फर्क नहीं छोड़ रहे, एक दूजे से बढ़-चढ़ के कर रहे हैं. आप समझो-न समझो, समझाना मेरा फर्ज़ है. बाकी आप जानो, आपकी मर्ज़ी है-आपका मर्ज़ है. "Hearing the news of a great happiness from Hanuma, Bharata the truly brave ruler and the destroyer of enemies, commanded (as follows) to Shatrughna, who too felt delighted at the news." ६-१२७-१ "Let men of good conduct, offer worship to their family-deities, sanctuaries in the city with sweet-smelling flowers and to the accompaniment of musical instruments." ६-१२७-२ "Let bards well-versed in singing praises and Puranas (containing ancient legends, cosmogony etc.) as also all panegyrists, all those proficient in the use of musical instruments, PROSTITUTES all collected together, the queen-mothers, ministers, army-men and their wives, brahmanas accompanied by Kshatriyas (members of fighting class), leaders of guilds of traders and artisans, as also their members, come out to see the moon-like countenance of Rama." ६-१२७-३/ ६-१२७-४ "Hearing the words of Bharata, Shatrughna the destroyer of valiant adversaries called together, laborers working on wages, numbering many thousands and dividing them into gangs, ordered them (as follows):६-१२७-५ "Let the CAVITIES on the path from Nandigrama to Ayodhya be levelled. Let the rough and the even places be made flat."६-१२७-६ "Let the entire ground be sprinkled with ice-gold water. Let some others strew it all over with parched grains and flowers."६-१२७-७ "Let the streets in Ayodhya, the excellent City, be lined with flags. Let the dwellings (on the road-side) be decorated, till the time of rising of the sun."६-१२७-८ Hahahahah...... does not it seem modern day politics? नमन....तुषार कॉस्मिक