Tuesday 13 September 2016

गणेश विसर्जन का मतलब

कुछ साल पहले मैंने एक आर्टिकल लिखा था-- “गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू मुड़ न आ”, वो विरोध था अंध-विश्वास का, अंधे हो कर विश्वास करने का. बिना क्रिया-कारण समझे. इस तरह का विश्वास खतरनाक है. यूँ तो कोई भी, कैसे भी हांक लेगा और आप हंक जायेंगे. सो उसका तो आज भी विरोध है.

और आज  भी अधिकांश लोग तो यह सब ‘गणेश स्थापना’ और फिर ‘विसर्जना’ अंधे होकर ही करते हैं. बिना कोई क्रिया-कारण/ कॉज एंड इफ़ेक्ट समझे.

मैंने कुछ मतलब निकलने की कोशिश की है, इस सारे क्रिया-कलाप का.  अलग-अलग धारणाएं हैं इस विषय में, कुछ कहते हैं कि यह व्यर्थ है, कुछ कहते हैं, इसमें गहन अर्थ है. पोंगा पंडताई से जुड़ा है मामला. पंडितों के हांके किस्सा-कहानियों के समर्थन में खड़ा होता एक फ़िज़ूल का करतब. है भी. हम वाकई बचकानी कहानियों में यकीन कर रहे हैं. शायद हमारा मानसिक विकास बंदरों और हाथियों से ऊपर नहीं उठा है. तभी तो हम उन्हें पूज रहे हैं. किसी बन्दर या हाथी को देखा आपने कि वो इन्सान को पूज रहा हो? वो हमसे ज़्यादा समझदार है, उसे पता है कि हम पूजे जाने के काबिल ही नहीं हैं.



खैर, अगर किस्सागोई और पोंगा-पंडताई को ओझल कर प्रतिमा विसर्जन को कुछ अर्थ दिया जाए तो वो ऐसा हो सकता है :----


एक मान्यता है प्रभु की और दूसरी है स्वयम्भू की. पहली में स्रष्टि स्रष्टा से अलग है. दोनों में एक अंतर है. दूसरी मान्यता में दोनों गड-मड्ड हैं. कला में कलाकार शामिल है. नृत्य में नृत्यकार शामिल है. एक्टिंग में एक्टर शामिल है. तभी तो कहते हैं कि संसार प्रभु की लीला है. प्रभु अपनी लीला में शामिल है, वो स्वयभू है. बनने वाला, बनाने वाला, मिटाने वाला एक ही है. ब्रह्म, विष्णु, महेश.
GOD. G. O. D. Generator, Operator, Destructor.  जो त्रिमूर्ति की परिकल्पना है, यह कोई वास्तविकता नहीं है, यह बस समझने को है. प्रभु स्वयम्भु है.

तो आप समझ लीजिये कि हम ही गणेश की मूर्ती बनाते हैं, हम  ही उसे स्थापित करते हैं, और हम  ही पूजा करते हैं और हम ही विसर्जित करते हैं. यही सब चक्र तो चल रहा है सारे अस्तित्व में. पूरा अस्तित्व स्वनिर्मित है और स्वचालित है और स्वभंगुर है. यह प्रतिमा विसर्जन हमारे  जीवन दर्शन को परिलक्षित करता है. ईद गयी ही है. मुस्लिम सृष्टि और सृष्टा को अलग मानते हैं. अब सूअर जैसा गंदा, गलीज़ जानवर कैसे अल्लाह का रूप हो सकता है? हिन्दू कह सकता है कि यह भी स्वयंभू है. विराट-रूप में अच्छा बुरा सब रूप दिखाते हैं कृष्ण, असल में तो समझाते हैं कृष्ण. सब उन्ही में शामिल है. लेकिन मुसलमान की तो धारणा ही यही है कि  खालक अलग है और उसकी खलकत अलग. वो बकरीद पर जानवर काट कर अल्लाह को खुश करता है. पहले उस जानवर को प्यार से पालता, पोसता है, फिर काट देता है. है न कुछ कुछ प्रतिमा विसर्जन जैसा. हिन्दू  भी तो प्रतिमा बनाते हैं, सजाते हैं, सवारते हैं, पूजते हैं और फिर नदी में बहा देते हैं. लेकिन जीवन दर्शन बिलकुल अलग हैं. हिंदुत्व में “स्वयम्भू” का दर्शन है और इस्लाम में “स्रष्टा-सृष्टि” का. गणेश विसर्जन और बकरीद दोनों अवसर साथ-साथ पड़ते हैं, मौका है थोड़ा सोच-विचार लीजिये.


अब दूसरा पहलू लेते हैं कि हम प्रतिमा पूजन  करें ही क्यूँ, जब हमें पता है कि यह बस प्रतिमा ही है, हमारी बनाई हुई है? प्रतिमा एक साधन है. हमें  भी पता है कि वो बस प्रतिमा ही है. आपने बचपन में गणित के सवाल हल  किये होंगे. खास करके ब्याज से सम्बन्धित, जिनमें टीचर सिखाते थे, “मान लो मूलधन रुपये सौ”. और आप सवाल हल कर जाते थे. आपको पता था कि मूलधन सौ नहीं है लेकिन आप मान लेते थे, सिर्फ इसलिए कि आपको सवाल को हल करना होता था. अब कोई अड़ जाए कि नहीं, जब मूलधन सौ है ही नहीं तो मानूं क्यूँ? बिलकुल. तर्क के हिसाब से सही भी लग सकता है. मुसलमान का तर्क यही है. जब उस निराकर का, उस प्रभु का कोई रूप है ही नहीं तो उसे किसी भी रूप, किसी भी आकार  में कैसे ढाला जा सकता है? लेकिन यह तर्क सही है नहीं, चूँकि मूलधन सौ सिर्फ माना गया है, उससे मूलधन सौ हो नहीं गया. इसी तरह से प्रतिमा को प्रभु माना गया है लेकिन प्रतिमा प्रभु नहीं हो गई. वो प्रतिमा ही है. प्रतिमा सिर्फ एक माध्यम है, मानव के लिए उस विराट से, उस अनंत से, उस अनादि से सम्पर्क बनाने का. प्रभु निराकार है. वो निर्लेप है. वो निष्पक्ष है. प्रतिमा के ज़रिये आप उस निराकार का स्वाद ले सकते हैं. गहन ध्यान में उतर सकते हैं.



अब अगला पहलु लेते हैं कि लोग गणेश की मूर्ती विसर्जित करते हुए उसके कान में अपनी इच्छाएं बुदबुदाते हैं, इसका क्या मतलब? क्या वाकई इसका कोई मतलब होता होगा? देखिये एक तो मनोवैज्ञानिक पहलू है, मानव मन को एक सम्बल मिलता है कि कोई तो है उसका सहारा जो उसकी मुश्किलात को हल करने में मदद देगा. वो मानसिक सम्बल बहुत काम आता है. उस विश्वास के सहारे मानव खुद भी प्रयासरत रहता है और समय के साथ बहुत कुछ हल होता जाता है. एक और पहलु है. वो यह कि पूरा अस्तित्व तो जुड़ा है. अस्तित्व के अलग-अलग रूपों का एक दूसरे पर प्रभाव भी होता है. स्थूल रूप से समझें कि दो आदमी लड़ रहे हैं तो अस्तित्व ही अतित्व से लड़ रहा है. थोड़ा और सूक्ष्म समझें तो कहते हैं कि आप एक पेड़ को गाली दो और दूसरे को प्यार दो, जिसे गाली दी होगी वो मुरझा जाएगा जिसे प्यार दिया होगा वो फल–फूल जाएगा. जिन लोगों ने पानी पर प्रयोग किये है वो कहते हैं कि पानी पर भी ऐसा ही प्रभाव होता है. मेरा मानना है कि कायनात में कुछ भी मुर्दा नहीं. जीवन के अलग-अलग रूप हैं, डिग्री हैं. सो मिटटी भी जिंदा है. उसे भी महसूस होता है, आज आपके यंत्र न पकड़ पाएं लेकिन वो भी प्यार, दुलार और मार को महसूस करती है. कल तक आप पेड़ों को जिंदा नहीं कह सकते थी लेकिन आज उन्हें जिंदा कहना आपकी मज़बूरी है. दिल थाम बैठिये, जल्द ही आपको मिटटी को भी जिंदा कहना होगा. सो प्रतिमा भी जिंदा है. जब आप उसे अपनी कुछ मदद करने को कह रहे हैं तो आप उसके ज़रिये अस्तित्व तक एक पहुँच बना रहे हैं, आपकी मदद हो भी सकती है. अब अस्तित्व में और भी बहुत सी शक्तियाँ काम कर रही हो सकती हैं. जैसे आज मोबाइल फ़ोन के लिए एयरटेल का सिग्नल भी आपके कमरे में हो सकता है,  वोडाफोन का भी और रिलायंस का भी. हो सकता है सिर्फ एयरटेल काम करे, बाकी न करें. इसी तरह से अस्तित्व में कौन सी शक्ति कैसे काम करेगी, इसका तो अभी कुछ पक्का नहीं किया जा सकता लेकिन अस्तित्व को अपनी मदद करने के लिए प्रतिमा को एक जरिया बनाया जा सकता है.   


देखिये ‘प्रभु’ और ‘अस्तित्व’ हालाँकि एक ही है. एक सूक्षम है, सूक्ष्मतम  है और दूसरा स्थूल है, उसी का स्थूल रूप है. लेकिन प्रभु जो है न, आप लाख सर पटकते रहो, वो आपकी सुनने वाला है नहीं. वो आपके बच्चे को परीक्षा में प्रथम स्थान पर लाने  वाला नहीं है. चूँकि बाकी बच्चे  भी उसी के हैं. वो आपको मुकदमा जितवाने वाला नहीं है, चूँकि आपका विरोधी भी उसी का बच्चा है.   
  

लेकिन ‘अस्तित्व’ जो है, वो आपकी मदद कर सकता है. भविष्य में विज्ञान साबित कर देगा कि आप हवा, पानी, धूप, मिटटी सब को प्रभावित कर सकते हैं और सब आपको प्रभावित कर सकते हैं, तब शायद प्रतिमा का महत्व इन अर्थों में साबित हो सके. तब तक आप अपनी प्रार्थनाएं हवाओं से कह सकते हैं, सीधे न कह पाएं तो वायुदेव की प्रतिमा बना लें. धूप को कह सकते हैं, सीधे न कह सकें तो सूर्यदेव की प्रतिमा बना सकते हैं. मिटटी के  लिए धरती माता हैं. पानी के लिए वरुणदेव हैं.

अगली बार जब गणेश या किसी भी प्रतिमा के सामने नत-मस्तक हों तो पोंगा-पंडताई और किस्सागोई को तो एक तरफ रख दें और थोड़ा तार्किक और वैज्ञानिक पहलु सोच-समझ कर करें, जो भी करें.

और याद रखिये मास्टर  जी ने कहा था. “मान लीजिये मूल धन सौ रुपये”, उन्होनें यह नहीं कहा था कि मूलधन सौ रुपैये ही है, वो तो बस हल तक पहुँचने का जरिया है.

नमन....तुषार कॉस्मिक