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Wednesday 8 August 2018

केजरीवाल नहीं है भविष्य: मिसाल

इन्द्रलोक, दिल्ली मेट्रो स्टेशन के ठीक एक बड़ी सी ट्रैफिक लाइट है. बड़ी इसलिए कि बहुत ट्रैफिक होता है यहाँ. सब तरफ ये.... चौड़ी सड़क हैं. एक सड़क जो शहज़ादा बाग़ को जाती है, इसका मुहाना बंद किया गया है. किसलिए? इसलिए चूँकि यहाँ कांवड़ियों के लिए शिविर लगाया गया है. इसमें क्या ख़ास है? शायद कुछ नहीं. चूँकि ऐसा दिल्ली में जगह-जगह है. ख़ास मुझे जो दिखा, वो यह कि इस शिविर के बाहर एक बड़ा सा होर्डिंग लगा है, जिस पर अरविन्द केजरीवाल जी विराज रहे हैं और कांवड़ियों का स्वागत कर रहे हैं.

इसलिए लिखता हूँ कि केजरीवाल भारत का भविष्य नहीं है. एक सेक्युलर स्टेट के स्टेट्समैन को सेक्युलर होना चाहिए. उसे इन सब पच्चड़ में पड़ना ही नहीं चाहिए. अब केजरी के ऐसा करने से मेरी अधार्मिक भावनाएं आहत हो गईं हैं, उसका क्या? मेरी अधार्मिक आस्था खतरे में पड़ गई, उसका क्या?

चलो, वो तो किया जो किया. मतलब इस हद तक चले गए कि तथा-कथित धार्मिक कृत्यों के लिए सड़क बंद हो तो हो. क्या फर्क पड़ता है?

मतलब चीफ मिनिस्टर का काम यही तो बचा है कि एक बिजी सड़क बंद करवा के धार्मिक(?) कार्यक्रम आयोजित करवाए. वाह रे मेरे भारत!

Saturday 21 April 2018

केजरीवाल: एक लघु समीक्षा

जब केजरीवाल ताज़े-ताज़े उभर रहे थे, शायद २०१२ की बात है, तब मैंने एक लेख लिखा था. टाइटल था, "मूर्ख केजरीवाल." और यकीन जानिये कदम-दर-कदम केजरीवाल ने मुझे सही साबित किया है. ताज़ा मिसाल उनके माफ़ीनामे हैं, जो उन्होंने मानहानि के मुकद्दमों से पीछा छुड़ाने के लिए दिए हैं. कतई अपरिपक्व हैं केजरी सर. बस लगा दिए आरोप. बिना किसी पुख्ता सबूत के. सुनी-सुनाई उड़ा दी. ऐसा तो मैं फेसबुक पर लिखते हुए भी नहीं करता. ज़रूरत हो तो थोड़ा रिसर्च कर लेता हूँ. रिफरेन्स भी खोज के डाल देता हूँ. मुझे पता है कि सवाल उठेंगे. सवाल उठेंगे तो जवाब भी होने चाहियें. और यह साहेब राष्ट्र की राजनीति बदलने चले थे. जनाब को अभी बहुत सीखना है. असल में तो यह केजरीवाल की ही बेवकूफी है कि आज मोदी विराजमान है. कांग्रेस के नीचे से सीट खींच ली, जिसे झट से भाजपा ने लपक लिया. लाइफ-टाइम अवसर था. संघ नब्बे सालों में वो न कर पाया जो केजरी-अन्ना ने उसे करने का मौका दे दिया. सो कुल मिला कर मेरा मानना यह है कि राष्ट्र केजरीवाल की मूर्खताओं का नतीजा भुगत रहा है. दूसरा उनका कमजोर पक्ष है, अपने साथियों को साथ लेकर न चलना. मैंने सुना-पढ़ा उनका डिफेन्स. "लोग आते-जाते रहते हैं. जितने गए हैं, उनसे ज़्यादा आ गए हैं." लेकिन सब बकवास है. उनके अधिकांश शुरुआती साथी साथ छोड़ चुके हैं. कुछ तो कमी होगी साहेब में. मैं आज भी दीवाली पर उन सब मित्रों को खुद मिलने जाता हूँ, जो पूरा साल मुझे जुत्ती नहीं मारते. बीवी मुझे कोसती रहती है, "ये एकतरफ़ा इश्क पालने से क्या फायदा?" लेकिन मैं ढीठ. जब तक सामने वाला मुझे घर से भगा नहीं देगा, मैं रिश्ता खत्म नहीं मान सकता. इडियट हूँ न. खैर, मुझे अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि राष्ट्र को केजरीवाल के बेहतरीन वर्ज़न की ज़रूरत है. नमन...तुषार कॉस्मिक