केजरीवाल: एक लघु समीक्षा

जब केजरीवाल ताज़े-ताज़े उभर रहे थे, शायद २०१२ की बात है, तब मैंने एक लेख लिखा था. टाइटल था, "मूर्ख केजरीवाल." और यकीन जानिये कदम-दर-कदम केजरीवाल ने मुझे सही साबित किया है. ताज़ा मिसाल उनके माफ़ीनामे हैं, जो उन्होंने मानहानि के मुकद्दमों से पीछा छुड़ाने के लिए दिए हैं. कतई अपरिपक्व हैं केजरी सर. बस लगा दिए आरोप. बिना किसी पुख्ता सबूत के. सुनी-सुनाई उड़ा दी. ऐसा तो मैं फेसबुक पर लिखते हुए भी नहीं करता. ज़रूरत हो तो थोड़ा रिसर्च कर लेता हूँ. रिफरेन्स भी खोज के डाल देता हूँ. मुझे पता है कि सवाल उठेंगे. सवाल उठेंगे तो जवाब भी होने चाहियें. और यह साहेब राष्ट्र की राजनीति बदलने चले थे. जनाब को अभी बहुत सीखना है. असल में तो यह केजरीवाल की ही बेवकूफी है कि आज मोदी विराजमान है. कांग्रेस के नीचे से सीट खींच ली, जिसे झट से भाजपा ने लपक लिया. लाइफ-टाइम अवसर था. संघ नब्बे सालों में वो न कर पाया जो केजरी-अन्ना ने उसे करने का मौका दे दिया. सो कुल मिला कर मेरा मानना यह है कि राष्ट्र केजरीवाल की मूर्खताओं का नतीजा भुगत रहा है. दूसरा उनका कमजोर पक्ष है, अपने साथियों को साथ लेकर न चलना. मैंने सुना-पढ़ा उनका डिफेन्स. "लोग आते-जाते रहते हैं. जितने गए हैं, उनसे ज़्यादा आ गए हैं." लेकिन सब बकवास है. उनके अधिकांश शुरुआती साथी साथ छोड़ चुके हैं. कुछ तो कमी होगी साहेब में. मैं आज भी दीवाली पर उन सब मित्रों को खुद मिलने जाता हूँ, जो पूरा साल मुझे जुत्ती नहीं मारते. बीवी मुझे कोसती रहती है, "ये एकतरफ़ा इश्क पालने से क्या फायदा?" लेकिन मैं ढीठ. जब तक सामने वाला मुझे घर से भगा नहीं देगा, मैं रिश्ता खत्म नहीं मान सकता. इडियट हूँ न. खैर, मुझे अफ़सोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि राष्ट्र को केजरीवाल के बेहतरीन वर्ज़न की ज़रूरत है. नमन...तुषार कॉस्मिक

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