Thursday 22 August 2019

सेक्युलरिज्म

सेक्युलरिज्म दुनिया के सबसे कीमती कांसेप्ट में से है. यह वही है जो मैंने लिखा कि सबको अपनी अपनी मूर्खताओं के साथ जीने का हक़ होना चाहिए, तब तक जब तक आप दूजों की जिंदगियों में दखल न दो.


यह जो संघी इसके खिलाफ हैं, वो इडियट हैं. उनमें और मुस्लिम में ख़ास फर्क नही. वो कहते हैं कि हिंदुत्व सेक्युलर है. By Default. नहीं है. होना चाहिए. लेकिन नहीं है. मैं राम के खिलाफ बोलना चाहता हूँ कृष्ण के भी. काली माता के भी. गौरी माता के भी. झंडे वाली माता के भी. कुत्ते वाली माता के भी. मुझे मन्दिर देंगे बोलने के लिए? नहीं देंगे.


सो टारगेट सेकुलरिज्म होना चाहिए किसी भी आइडियल समाज का. लेकिन यह देखने की बात है कि जो तबके/ दीन/ मज़हब By default हैं ही सेकुलरिज्म के खिलाफ. जैसे इस्लाम. उनको अगर आप सेकुलरिज्म के कांसेप्ट वाले समाज में डाल भी दोगे तो वो आपकी मूर्खता है. जैसे मैं नहीं हूँ हिन्दू. लेकिन अगर कोई मुझे हिन्दुत्व के कांसेप्ट में डाल भी देगा तो वो उसकी मूर्खता है. और यह गलती कर रहा है भारतीय समाज. और यह गलती दुनिया में और भी समाजों में हो रही है.


खतरनाक गलती है.

आज़ादी - दो पहलु

१. "क्या हम में आज़ादी बर्दाशत करने का जिगरा है ?"

यूनान, मिश्र, रोम मिट गए सब जहाँ से.

यह सिर्फ सभ्यताएं ही नहीं मिटी, इनकी देवी-देवता भी मिट गए. 

TROY फिल्म का दृश्य है,  Achilles हमला करता है तो विरोधियों के देवता 'अपोलो' की मूर्ति का भी सर कलम कर देता है. यहाँ भारत में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण हुआ, फिर अनेक मंदिर गिरा कर मस्ज़िद बना दिए गए. किसका क्या बिगाड़ लिया इन देवताओं ने? कुछ नहीं.

कहना यह चाहता हूँ कि देवी-देवता भी हम इंसानों के साथ हैं.....हमारी वजह से हैं .....हमारे बनाए हैं. 

भारत में कुछ ही मीलों की दूरी से बोली बदल जाते है....न सिर्फ बोली बदलती है....देवी-देवता भी बदल जाते हैं...ऐसे-ऐसे देवी-देवतायों के नाम है जिनको शायद ही उस इलाके से बहार किसी ने सुना हो.....जम्भेश्वर नाथ, मुक्तेश्वर नाथ...कुतिया देवी. झंडे वाली माता-डंडे वाली माता. 

लेकिन बड़ी मान्यता होती है उन इलाकों में.

कुछ मज़ारों की, कुछ मंदिरों. कुछ गुरुद्वारों की ख़ास-ख़ास मान्यता होती है. 

न तो इन स्थानों से, न इन देवी-देवतायों से कुछ मिलता है, जो मिलता है, जो बनता है, जो बिगड़ता है सब आपके अपने प्रयासों की वजह से. 

बस एक भावनात्मक सम्बल ज़रूर चाहिए होता है इंसान को, उस सम्बल का ही काम करते है यह सब देवता, देवियाँ, मंदर, मसीत, चर्च, गुरद्वार और मज़ार.

असल में इंसान आजादी तो चाहता है, लेकिन इसका मतलब ठीक-ठीक समझता नहीं है, वो कहीं डरता भी है इस आज़ादी से.

आज़ादी का मतलब है कि आप खुद जिम्मेवार हैं अपने कर्मों के प्रति.......कोई चाँद-सितारे नहीं......कोई आसमानी बाप नहीं...कोई पहाड़ों वाली माँ नहीं.

लेकिन इस तरह की आज़ादी खौफ़नाक लगती है इंसान को.

लगता है जैसे किसी ने फेंक दिया हो पृथ्वी पर, निपट अकेला....बिना किसी अभिभावक के.......You are to carry your Cross. तुम्हें सूली चढ़ना है और सूली भी खुद ही कन्धों पर लाद कर ले जानी है. चढ़ जा बेटा सूली पर.  लेकिन सच्चाई यही है. 

क्या हम इसे स्वीकार करेंगे?

क्या हमें वास्तव में ही आज़ादी चाहिए?

क्या हम में हिम्मत है अपने कर्मों की जिम्मेवारी लेने की?

क्या हम कभी खुद को काल्पनिक मातायों से, आसमानी पिता से, चाँद सितारों की काल्पनिक गुलामी से आज़ाद कर पायेंगे?

२. "असीमित आज़ादी का खतरा"

कहते हैं कि जहाँ दूसरे की नाक शुरू होती है, वहां आपकी आज़ादी खत्म हो जाती है. मतलब आज़ादी है, लेकिन असीमित नहीं है. 

लेकिन सिर्फ कहते हैं, हमारे यहाँ बहुत बहुत आज़ादी ऐसी है जो असीमित है, लेकिन असीमित होनी नहीं चाहिए. ...तभी हल है...जैसे जनसंख्या, कारों की संख्या, प्राइवेट पूंजी........एक हद के बाद इन पर व्यक्तिगत कण्ट्रोल खत्म हो जाना चाहिए.

यानि असीमित आज़ादी न तो बच्चे पैदा करने की होनी चाहिए और न ही वाहन रखने की और न ही प्राइवेट पूँजी की.

पूँजी रखने की आज़ादी हो लेकिन एक हद के बाद की पूँजी 'पब्लिक डोमेन' में आ जानी चाहिए. जैसे 'कॉपी राईट' है, वो कुछ दशकों के लिए है, फिर खत्म हो जाता है. यानि जैसे मेरी लिखी कोई किताब हो, उस पर मेरा कमाने का, प्रयोग का एक्सक्लूसिव  हक़ एक समय के बाद खत्म, वो पब्लिक डोमेन की चीज़ हो गई.  ऐसे ही पूँजी के साथ होना चाहिए. यह सीधा-सीधा पूंजीवाद में समाजवाद का सम्मिश्रण है. 

ऐसे ही कारें, अन्य वाहन. आज दिल्ली में वाहनों की संख्या एक समस्या बन चुकी है. पार्किंग के लिए कत्ल हो जाते हैं. लोग दूसरों के घरों, दुकानों की आगे, चलती सड़कों के बीचों-बीच, मोड़ों पे, कहीं भी कारें खड़ी कर चलते बनते हैं. छोटी गलियों में स्कूटर तक खड़े करने की जगह नहीं, फिर भी ज़बरन खड़ा करते हैं. 

अब यह है, असीमित उपभोग का दुष्परिणाम. न. इसे सीमित करना ही होगा. राशनिंग करनी ही होगी. आज नहीं तो कल.आज कर लें तो बेहतर.

ऐसे ही बच्चे हैं. हर व्यक्ति को असीमित बच्चे पैदा करने का हक़ छीनना ही होगा. यह हक़ जन्म-सिद्ध नहीं होना चाहिए. यह हक़ एक privilege (विशेषाधिकार) होना चाहिए. व्यक्ति स्वस्थ हो, आर्थिक रूप से सक्षम हो तो ही बच्चा पैदा करने का हक़ हो. वो भी तब, जब एक भू-भाग विशेष उस बच्चे का बोझ उठाने को तैयार हो.

मतलब आजादी होनी चाहिए, लेकिन असीमित नहीं, देश-काल के अनुरूप उस आज़ादी को पुन:-पुन: परिभाषित करना ही होगा. उसमें बड़ा हस्तक्षेप वैज्ञानिकों का होना चाहिए न कि ज़ाहिल नेताओं का. और धार्मिक किस्म के लोगों का तो इसमें कोई हाथ-पैर पाया जाए तो काट ही देना चाहिए. क्योंकि ये लोग किसी भी समस्या का हल नहीं हैं, असल में ये लोग ही हर समस्या की वजह हैं, ये ही समस्या हैं.

और आज़ादी अगर हमें चाहिए तो हमें ज़िम्मेदारी भी लेनी होगी. वो ज़िम्मेदारी है असीमिति आज़ादी को सीमित करने की वक्त ज़रूरत के मुताबिक, वरना हम सब सामूहिक आत्म-हत्या की तरफ बढ़ ही रहे हैं.

नमन...तुषार कॉस्मिक.

आइये, हम सलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें/ मंदी...बेरोज़गारी...और हमारे महान धर्म

"आइये, हम सलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें"

"#मंदी...#बेरोज़गारी...और हमारे महान धर्म"

मोमिन भाई को और लिबरल बहन को ज्यादा ही चिंता है आर्थिक मंदी की आज कल.....वैरी गुड...चिंता होनी चाहिए, सबको होनी चाहिए. 

बेरोजगारी पैदा हो रही है...होगी ही. जब आपने बच्चों की लाइन लगाई थी तो किसी से पूछा था कि इनको रोज़गार कैसे मिलेगा?

अल्लाह देगा...भगवान देगा...
"जिसने मुंह पैदा किये हैं, वो रिज़क भी देगा"
"वो भूखा उठाता है, लेकिन भूखा सुलाता नहीं है" 

ले लो फिर उसी से...फिर काहे सरकार को कोस रहे हो? 

तुम्हे पता ही नहीं कि जैसे-जैसे.....आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का दखल बढेगा दुनिया में, 'इंसानी मूर्खता' की ज़रूरत घटती जाएगी. 

जो काम एक रोबोट इन्सान से कहीं ज्यादा दक्षता से कर सकता है, कहीं कम खर्चे में कर सकता है,  उसके लिए कोई क्यों ख्वाह्म्खाह इंसानों का बोझा ढोयेगा? 

विज्ञान के साथ-साथ दुनिया बदलती जाने वाली है. जनसंख्या, वाहियात जनसंख्या, अनाप-शनाप जनसंख्या खुद ही मर जाएगी. कोई न देने वाला तुम्हें रोज़गार? 

तुम्हारी इस पृथ्वी पर कोई बहुत ज़रूरत ही नहीं रह जानी अगले कुछ सालों में. इंसानी लेबर समय-बाह्य होती जाएगी समय के साथ-साथ. ऐसे में ये जो बच्चों की लाइन लगा रखी है, यह खुद ही आत्म-घात कर लेगी. और  इसके लिए कोई मोदी ज़िम्मेदार नहीं है, कोई भी सरकार ज़िम्मेदार नहीं है, तुम खुद हो ज़िम्मेदार. 

सरकार से इत्ती ज्यादा उम्मीद रखना सिर्फ मूर्खता है.  चूँकि रोज़गार हो, जीवन के बाकी आयाम हों, ये बहुत से ऐसे फैक्टर पर निर्भर हैं जिन पर सरकार का कोई बस ही नहीं है. जैसे रोबोटीकरण है, इस को कोई सरकार कितना रोक पायेगी? मुझे नहीं लगता कि सरकार के हाथ में कुछ ज्यादा है इस क्षेत्र में. जो तकनीक आ जाती है, बस आ जाती है. उसे फिर कौन रोक पाता है?

और रोबोट के आने के बाद इंसान खाली होने ही वाला है. इसे कोई नहीं रोक पायेगा. 

लेकिन सरकार आपको क्यों बताये यह सब? वो नहीं बताएगी. चूँकि सच सुनने-समझने को आप तैयार ही नहीं होंगे.

मंदी बिलकुल मुद्दा है. होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि "इस्लाम" और "गैर-इस्लाम"  मुद्दा नहीं है. वो भी मुद्दा है. बड़ा मुद्दा है. पूरी दुनिया में मुद्दा है.  कश्मीर भी मुद्दा है. फिलस्तीन मुद्दा है.  रोहिंग्या मुस्लिम मुद्दा  है. अमेरका में ट्रम्प  का आना मुद्दा है.   जो इन मुद्दों से आंख चुराए, वो मूर्ख है. 

सो यह एकतरफा बात मत कीजिये मोमिन भाई. लिबरल बहनिया. 
सब मुद्दे हैं.  सेलेक्टिव मत बनें. 

हमें वैज्ञानिक समाज चाहिए. हमें बच्चे नहीं चाहियें. हमें कैसा भी धर्म/ दीन/ मजहब नहीं चाहिए. हमें समृद्ध समाज  चाहिए.

उसके लिए आपको शुरुआत करनी होगी इस्लाम के खात्मे से. चूँकि जब तक आप इस्लाम को नहीं ललकारेंगे तब तक बाकी सब दीन/धर्म भी इस्लाम जैसे बने रहेंगे चूँकि उनको इस्लाम का मुकाबला इसी तरह से करना समझ में आता है. लेकिन आपको तर्क से करना है मुकाबला सबका. शुरुआत इस्लाम से करें, चूँकि वो सबसे ज्यादा आदिम है. कैसे है? उसके लिए गूगल करें, कुरान ऑनलाइन है, खुद देख लीजिये कि मोहम्मद साहेब क्या कह गए हैं.   

सब को वैज्ञानिकता के धरातल पे ला पटकें..... सब दम तोड़ देंगे. क्या इस्लाम? क्या हिंदुत्व? क्या कुछ भी और? 

आईये कुछ उस तरह से हिम्मत करें. यह सेलेक्टिव बनना-बनाना छोड़ दें.

नमन...तुषार कॉस्मिक

तुम हो बलि का बकरा

पाकिस्तान की हालत देख कर, काबुल में ताज़ा धमाके में साठ से ज़्यादा मुसलमानों का मुसलमानों द्वारा क़त्ल देख कर, मुसलमानों की रक्त-रंजित  हिस्ट्री देख कर, मोहम्मद साहेब के अपने ही परिवार का मुसलमानों द्वारा कत्ल देख कर, मोहम्मद साहेब को समझ जाना चाहिए कि उनका बनाया हुआ दीन हीन है. 

चलो उनको न भी समझ आये, मुसलमानों को समझ जाना चाहिए कि उनका दीन हीन है.

चलो मुसलमानों को न भी समझ आये बाकी दुनिया को समझ जाना चाहिए कि मोहम्मद साहेब का बनाया हुआ दीन हीन है. समझ जान चाहिए कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए? 

और बाकी दुनिया में सब को तो नहीं लेकिन कुछ को तो समझ आने ही लगा है. उसी का नतीजा है कि इस्लाम  के खिलाफ ट्रम्प खड़ा हो जाता है, आरएसएस खड़ा हो जाता है, चीन खड़ा हो जाता है, म्यांमार का बौद्ध भिक्षु खड़ा हो जाता है. 

लेकिन यह नतीजा अभी नाकाफी है. रोज़ 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे के साथ इंसानी जिस्म की हवा में उड़ती बोटियाँ  देखते-सुनते हुए भी कुछ लोग अंधे-बहरे बने हुए हैं. 

कब तक  इस्लाम को सही-सही समझने के लिए अपनी बलि देते रहोगे? 

न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ जहाँ वालो, तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दास्तानों में. 

अब तो समझो मूर्खो तुम इस्लाम के लिए सिर्फ बलि का बकरा हो .

मानव भविष्य -- #कश्मीर और #इस्लाम के सन्दर्भ में

आपको न #मुसलमान बन कर सोचना है और न ही #हिन्दू बन कर. आपको सिर्फ सोचना है. तटस्थ हो कर.

और किसी भी घटना-दुर्घटना के पीछे इतिहास भी हो सकता है, यह भी देखना चाहिए, कोई आइडियोलॉजी भी हो सकती है, और वो आइडियोलॉजी खतरनाक भी हो सकती है,  यह भी देखना चाहिए. 

शिकारी जब खुद शिकार बनने लगे तो वो चीखने लगता है, देखो मैं विक्टिम हूँ, मैं विक्टिम हूँ. इसे 'विक्टिम कार्ड' खेलना कहते हैं.

चोर पकड़ा न जाए, इसलिए चोरी करने के बाद सबसे ज्यादा वोही चिल्लाता है, "चोर, चोर, पकड़ो, पकड़ो." ताकि कम से कम यह तय हो जाये कि वो चोर नहीं है. किसी का भी शक कम से कम उस पर न जाए.

जब दो लोग लड़ रहे होते हैं तो दोनों एक जैसे लगते हैं, लोग अक्सर कमेंट करते हैं कि साले ये लड़ाके लोग हैं, लड़ते रहते हैं, वो इत्ती ज़हमत ही नहीं उठाते कि शायद उन में से कोई एक ऐसा भी हो सकता है, जो सही लड़ाई लड़ रहा हो. लोग समझते ही नहीं कि शायद कोई एक सिर्फ इसलिए लड़ रहा है कि उस पर अटैक किया जा रहा है. बार-बार किया जा रहा है. क्रिया की प्रतिक्रिया है. आपको जो मुसलामानों पर अत्याचार लग रहा है. वो उनकी अपनी करनी का फल है. वो उनकी अपनी आइडियोलॉजी का बैक-फायर है. क्या सोचते थे? सरदार खुस्स होगा, साबासी देगा? दुनिया कहीं तो जवाब देगी?

मेरा तर्क यह है कि आप हिन्दू, सिक्ख, जैन, बौध हो कर सोचते हैं तो गलत है. न. फिर आप इक छोटे इस्लाम में खुद को कैद कर रहे हैं. एक गंदे बदबूदार दड़बे में न सही, एक सज धजे कमरे में खुद को कैद कर रहे हैं. लेकिन है कैद ही.

आज का हर समाज समय-बाह्य है. मतलब जैसे विज्ञान ने सीवर सिस्टम दे दिया लेकिन आप फिर भी अड़े रहें कि नहीं ये तो हमारी सदियों की परम्परा है, हम तो डब्बा लेकर खेत में ही जायेंगे शौच करने.  

तो हर समाज लगभग ऐसा ही है. वो बहुत कुछ अड़ा हुआ है, सड़ा हुआ है. हमें अंततः हर धर्म/ दीन/ हर इस तरह के समाज का विरोध करना ही होगा तो ही इन्सान नए दौर में जा पायेगा. वरना सारी पृथ्वी को ले डूबेगा. "हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे." डूब ही रहा है, डुबा ही रहा है.

इस्लाम का सबसे ज्यादा विरोध इसलिए है चूँकि वो हिंसक भी है. सिर्फ शारीरिक तौर पर ही नहीं. वैचारिक तौर भी. वहां आपकी एक न चलेगी. सब विचार खत्म. आपको बंधना होगा. आपकी सोच को बंधना होगा. कुरान और मोहम्मद के गिर्द. और यह घातक है.

'पोटाशियम साइनाइड' इस्लाम है, बाकी छोटे ज़हर हैं, कुछ तो इतने धीमे कि जहर जैसे लगें भी न.

माफिया इस्लाम है, बाकी छोटे-मोटे गुंडे हैं.

कश्मीर. आपको कश्मीर पर मेरी राय जाननी है तो यह समझना होगा कि मेरी दीन-दुनिया के बारे में क्या राय है? 

मेरी राय है कि कोई भी धर्म/ दीन से बंधना मूर्खता है. क्या आप सारी उम्र एक ही सब्जी खाने पर अड़े रहते हैं? क्या आप एक ही रंग के कपड़े पहनते हैं ता-उम्र? क्या आप अपने शरीर को बंधन में बांधना पसंद करते हैं? 

फिर किसी और की सोच से क्यों बंधना? चाहे कोई चौदह सौ साल पहले हुआ या चौदह हजार साल पहले?

चाहे कोई अरब में पैदा हुआ, चाहे अयोध्या में. 
हम हमारी सोच से क्यों न जीयें? हम बिना ठप्पा लगे ही क्यों न जीयें?

मेरी सोच यह है जैसे विज्ञान आगे बढ़ता है, वैसे ही 'समाज विज्ञान' को भी आगे बढ़ना चाहिए और इंसान को इस 'समाज विज्ञान' को आत्म-सात करना चाहिए. 

लेकिन सब समाज किसी न किसी धर्म से बंधे हैं. लगभग सब कहते हैं कि नहीं, हमारे नबी/ अवतार/ भगवान/गुरु जो फरमा गए वही सही है. इस्लाम इसमें सबसे ज़्यादा कट्टर है. वो तो टस से मस हो के राज़ी नहीं. सो खड़ा है. जस का तस. 

और इस्लाम पूरी दुनिया को अपनी लपेट में लेने को उत्सुक हैं. लोग इस्लाम की दावत देते फिर रहे हैं. "इस्लाम कबूल करो."  कोई गुनाह है कि कबूल करना है? 

और इस्लाम हिंसक है. बम फटाक. 

इसलिए इस्लाम को पूरी दुनिया से खदेड़ना ज़रूरी है. 

कश्मीर का मसला कोई मसला नहीं होता अगर वहां सिर्फ मुस्लिम न होते. इस मसले की न कानून अहम वजह है, न इतिहास और न राजनीति. 
अहम् वजह इस्लाम है. 

भारत की एक तरफ पाकिस्तान है. मुस्लिम मुल्क है. वो पाकिस्तान और भारत नापाक-स्तान. दूसरी तरफ बांगला-देश है. मुस्लिम बहुल मुल्क है. उधर कश्मीर है. मुस्लिम बहुल प्रदेश है. और कहते हैं कि भारत के अंदर जितने मुस्लिम हैं, उतने किसी और मुल्क में नहीं है. ऐसे में यदि गैर-मुस्लिम को अपना कल्चर बचाए रखना है तो उसे हर तरह से इस्लाम का विरोध करना ही होगा. कोई और चॉइस नहीं है.

और आरएसएस का शक्ति में आने की एक वजह यह है कि भारत का गैर-मुस्लिम अपने समाज को इस्लाम के आक्रमण से बचाए रखना चाहता है.

मेरा मानना यह है कि धरती माता ने किसी के नाम रजिस्ट्री नहीं कि वो किसकी है. लेकिन 'सर्वाइवल ऑफ़ दी फिटेस्ट' की थ्योरी बिलकुल काम करती है. 'वीर भोग्या वसुंधरा'. वीर भोगते हैं वसुंधरा. हिन्दू पॉवर में थे तो उन्होंने कश्मीर पर राज कर लिया. अंग्रेज़ पावरफुल थे तो उन्होंने  अपना सिक्का जमाया. मुस्लिम शक्ति में आये तो उन्होंने वहां से हिन्दू भगा दिए. 

आरएसएस शक्ति में आया तो उन्होंने अब कानून में रद्दो-बदल कर दिए. मैं इसका स्वागत करता हूँ. इसलिए चूँकि यह इस्लामिक शक्तियों को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकता है. 

और जब मैं इस्लाम का विरोध करता हूँ तो वो कोई हिन्दू का समर्थन नहीं है. हिन्दुत्व का समर्थन नहीं है. लाख कहते रहें आरएसएस वाले कि हिंदुत्व अपने आप में सेक्युलर है, हिन्दुत्व में सब मान्यताओं का सम्मान है लेकिन आप मांगें  कोई मन्दिर कि मुझे राम के खिलाफ प्रवचन करना है, आपको भगा दिया जायेगा. 

फिर भी यह समाज उतना लगा-बंधा नहीं है जितना इस्लाम. इस्लाम की तरह एक दम डिब्बा-बंद, सील-बंद  समाज नहीं है. यहाँ फिर गुंजाईश है, बहुत गुंजाईश है कि आप कुछ भी सोच सकते हैं, लिख सकते हैं, बोल सकते हैं. 

इस समाज को 'नव-समाज' की तरफ अग्रसर किया जा सकता है. इस्लाम के साथ ऐसी कोई सम्भावना नहीं है. 'नव-समाज' का रास्ता इस्लाम से होकर नहीं गुजरेगा. न. इस्लाम तोे  इस राह में  चीन की दीवार है.  इसे गिराना ही होगा. 

मैं जानता हूँ कि 'मुल्क' बकवास कांसेप्ट है.  पूरी पृथ्वी, कायनात एक है. लेकिन मेरे मानने से क्या होता है? सब लोग बंटे हैं. धर्मों में. विभिन्न मान्यताओं में. और अपने-अपने ज़मीन के टुकड़े को पकड़ के बैठे हैं. सो जब तक कोई 'वैश्विक संस्कृति', 'ग्लोबल कल्चर' पैदा नहीं होती तब तक तो मुल्क रहेंगे और तब तक रहने भी चाहियें ताकि ऐसा न हो कि ग्लोबल कल्चर ऐसी हो जाये कि हमें आगे ले जाने की बजाए चौदह सौ या चौदह हजार साल पीछे धकेल दे. अगर हम इस्लाम का विरोध नहीं करते तो यही होने वाला है. हमें ग्लोबल  कल्चर चाहिए जो समाज-विज्ञान पर आधारित हो. ऐसा कल्चर चाहिए जो आज के विज्ञान के अनुरूप हो. जो खुद को हर पल बदलने को तैयार हो. जो किसी अवतार, किसी गुरु, किसी नबी, किसी कुरान-पुराण से बंधा न हो.

इसी परिप्रेक्ष्य में मुझे लगता है कि कश्मीर का भारत में विलय सही है. कश्मीर क्या धरती के हर कोने से इस्लामिक शक्तियों को कमजोर करने का जो भी प्रयास हो उसका स्वागत होना चाहिए. एक बार इस्लाम को आपने बाहर कर दिया, बाकी धर्म बाहर करना इत्ता मुश्किल न होगा.
एक बार माफिया खत्म तो बाकी छोटे-मोटे गुंडे ज़्यादा देर टिक न पायेंगे. लेकिन यह भी तभी आसान होगा जब पूरी दुनिया के बुद्धिजीवी हर धर्म की बखिया उधेड़ते रहें. सो कश्मीर का भारत में विलय का फिलहाल स्वागत है. 

इस्लाम का विरोध रहेगा लेकिन विरोध हिंदुत्व का भी रहेगा. चूँकि टारगेट 'विश्व बन्धुत्व' है. इसमें न हिंदुत्व चलेगा और न इस्लाम. 

और कश्मीर का भारत में विलय का स्वागत भी वक्ती है चूँकि टारगेट 'वसुधैव  कुटुम्बकम' है. इसमें न कोई इस तरह का प्रदेश चलेगा और न देश. 

नमन.....तुषार कॉस्मिक

Saturday 10 August 2019

"सभी का खून है इस मिट्टी में शामिल, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है." मोमिन भाई बड़े जोश से मुस्लिम की कुर्बानियां, उपलब्धियां गिनवाते हुए कहते हैं.

ठीक है भाई. दे तो दिया पाकिस्तान. आपकी कुर्बानियों, अहसानों का बदला. प्रॉपर्टी डीलर हैं क्या हम जो प्लाट काट-काट कर देते रहें आपको?

बकरीद

बेचारे बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. एक दिन ईद आयेगी. 

"मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर आती नहीं."  

और वो दिन बकरीद है. वैसे "बलि का बकरा" सिर्फ  बकरा ही नहीं बनता.  इस दिन बकरे ही नहीं और भी बहुत से जानवर काट दिए जाते हैं. कोई आसमानी बाप है. जिसका नाम "अल्लाह" है, वो बहुत खुश होता है इन जानवरों के काटे जाने से, वो जो सब जानवरों का जन्मदाता है. वो खुश होता है इन जानवरों का खून गलियों में, नालियों में बहता हुआ देख कर. वैरी गुड!

साला खाना मांस खुद है, बीच में अल्लाह को ला रहे हैं. बे-ईमानी देखो ईमानदारों की. 

फिर तर्क शुरू होता है कि सब्जियों में भी जान होती है तो क्या हर्ज़ है कि बकरा खा लिया? वैरी गुड! तुम्हारे  बेटा-बेटी में भी जान है, उसे भी जिबह कर दो और फिर खिला दो सारे समाज को. वो भी तो तुम्हें प्यारे  होंगे. उससे प्यारा शायद ही कुछ हो. अल्लाह को कुर्बानी देनी है न सबसे प्यारी चीज़ की तो वो कोई बकरा तो हो नहीं सकता. वो तुम्हारे बच्चे हो सकते हैं. उनकी दे दो क़ुरबानी. कोई बात नहीं, तुम निश्चिन्त रहो,  बीच में कानून नहीं आयेगा. तुम्हारा मज़हब है न. वो तो वैसे ही कानून से ऊपर है. तुम्हारे लिए बना है न अलग से पर्सनल लॉ. यहाँ भी कानून बनेगा अलग से. ईद पर कुर्बानी के बीच कोई पुलिस, कोई कोर्ट नहीं आयेगा. कुर्बानी देनी है तो ठीक से दो. यह अल्लाह को मूर्ख मत बनाओ बकरे काट कर.    

जानवर और सब्जियां खाने में क्या बेहतर है उसका सीधा फार्मूला देता हूँ. समझ आये तो गठरी में बाँध लेना. पॉकेट में डाल लेना. पर्स में सम्भाल लेना. 

इंसान सब खा जाता है. कहते हैं जो जीव  पृथ्वी पर रेंगता है-चलता है, आसमान  में उड़ता है, समन्दर में तैरता है वो हर जीव इन्सान खा जाता है.

कोई नियम है क्या? क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, कोई फार्मूला है क्या? 

तो फार्मूला यह है कि जीवन में चेतना का लेवल है. जितनी चेतना एक इन्सान में है उतनी अमीबा में नहीं होगी, उतनी सब्ज़ी में नहीं होगी. तो कम से कम चेतना वाले प्राणी को ही भोजन बनाया जाये, जहाँ तक सम्भव हो.  

मिटटी, ईंट-पत्थर तो  खा नहीं सकते. सब्जियां-अनाज-फल ही खाए जाएँ.  मांस सिर्फ वहां खाया जाए जहाँ मजबूरी हो, जहाँ मांस के अलावा कुछ भी सुलभ न हो खाने को. 

और मैं कोई अहिंसा नहीं सिखा रहा. ऐसा नहीं कह रहा कि इन्सान को जानवर नहीं मारना चाहिए. क्या हम मच्छर नहीं मारते? क्या हम खटमल नहीं मारते या फिर कॉकरोच. किसे मारते हैं? कब मारते हैं? क्यों मारते हैं? यह सब मायने रखता है. 

अब इस फार्मूला को समझोगे तो 99 प्रतिशत मांसाहार खत्म हो जायेगा. 

और

यह कुर्बानी/बलि वगैहरा की बकवास इस फार्मूला में कहीं नहीं टिकेगी. यह बात ही आदिम है.  बचकाना है. बंद करो. चाहे किसी भी दीनी किताब में यह सब लिखा हो, न लिखा हो. 

बचपन में एक कहानी सुनी थी. एक विशालकाय दानव आता है इक नगर में. आदम-बू. आदम-बू कहता हुआ. उसे इन्सान की बू आ रही होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी परजीवी जानवर-कीट-पतंगे को आती है, अपने शिकार की.   वो नगर में आकर बहुत से इंसान मार देता है. कुछ खा जाता है. कई घयाल कर देता है. राजा  मुकाबला नहीं कर पाता. सो वो उससे समझौता बिठाता है कि उसे रोज़ एक इन्सान भेजा जायेगा खाने के लिए ताकि ख्वाह्म्खाह बहुत से इन्सान न मारे जाएँ, घायल न किये जायें. एक-एक कर के कई नागरिक भेजे जाते हिं और दानव द्वारा खा लिए जाते हैं. शहर में मुर्दनगी छाई रहती है. पता नहीं कल किस की बारी आ जाये? फिर कोई सूरमा पैदा होता है. मरना तो है ही सबने. लड़ के मरेंगे. टीम बनाता है. गुरिल्ला तकनीक सिखाता है. सब मिल के दानव पर आक्रमण करते हैं. दानव खत्म. आज जो तुम जानवर खा रहे हो न. वो उस दानव से कम नहीं हो. जिस दिन तुम पर आक्रमण होगा तभी अक्ल आएगी तुम्हें.

कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हों, कल ही उनकी मानव-ईद हो, और उनको हिदायत हो उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए. तो कैसा लगेगा तुम्हें? 
  

तुमने तमाम कानून बना रखे हैं कि ताकतवर इन्सान  कमज़ोर का शोषण न कर सके. करता है फिर भी, वो अलग बात है लेकिन कानून तो हैं न.  जानवर  बड़े मजे से तुम  काट देते हो, खा जाते हो. क्यों? सिर्फ इसलिए कि वो कमजोर हैं तुम्हारे मुकाबले में. इसीलिए तुमने आज तक कानून नहीं बनाये कि जानवर भी नहीं कटेगा, नहीं खाया जाएगा. कैसे भी नहीं काटा जाना चाहिए. न  मुसलमान द्वारा कुर्बानी  के नाम पर.  न गैर-मुस्लिम  द्वारा  बलि के नाम पर. न त्योहार पर. न किसी भी और वार पर. 

दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. घणी तमन्ना है.

 चलिए चलते-चलते दो शब्द और पढ़ते जाइए.

"पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं 
हर गली, हर मोहल्ला, हर बाज़ार मिलतें हैं 

रोम, काबा, हरिद्वार मिलतें हैं 
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मिलतें हैं 

ईद, दिवाली,क्रिसमस, हर त्यौहार मिलतें हैं 
गले मिल, गला काट, मेरे यार मिलतें हैं 

मेरे यार, इक बार, दो बार नहीं, बार बार मिलतें हैं 
पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं"

ग़ालिब ने नहीं मैंने लिखा है.....ज़ाहिर है 

नोट:--आप कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं. 

नमन...तुषार कॉस्मिक

मंदिर वहीं बनायेंगे

मोमिन भाई बड़ी मासूमियत से कहते हैं, "वहां राम मंदिर की जगह लाइब्रेरी बना लेते, अस्पताल बना लेते, कुछ भी आम-जन के फायदे की चीज़ बना लेते, लेकिन मानते ही नहीं."

मैं तो बिलकुल सहमत हूँ. यही बात अगर आप काबा या गिरजे के लिए भी कहें तो ही Valid है? 

मैं तो मानता हूँ. साले सब भूतिया राग हैं. कहिये ऐसे, कहा जैसे मैंने. कह सकते हैं?  अन्यथा आप सिर्फ एक मुस्लिम हैं. और चूँकि आप मुस्लिम हैं, इसीलिए वो हिन्दू हैं. इस तरह के हिन्दू हैं. हिन्दुत्व वाले हिन्दू हैं. 

वो बात, मंदिर की है ही नहीं. बात है कल्चरल कनफ्लिक्ट की. मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाईं गईं थीं यह एतिहासिक तथ्य  है. मंदिर मतलब अगलों की कल्चर तोड़ी गयी थी. अब वो तथा-कथित मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाया जाना है. तुमने उनका कल्चर तोडा, वो तुम्हारा कल्चर इनकार कर रहे हैं.   और वो तुम भी जानते हो. 

असल में दुनिया को न तो तुम्हारे कल्चर की ज़रूरत है और न उनके. न इस्लाम की ज़रूरत है और न ही हिंदुत्व की. दुनिया धर्मों के बिना बड़े आराम से चल सकती है. कहीं बेहतर चल सकती है. सामाजिक नियमों को हमने कानूनी-जामा पहना रखा है. वो काफी है. 

लेकिन तुम इत्ते मूर्ख हो कि चौदह सौ साल पहले किसी आदमी से शुरू हुई बात-बेबात से आगे सोच के राज़ी ही नहीं. पत्थर की लकीर. और तुम लकीर के फकीर. पत्थर टूट जायेगा लेकिन लकीर रहेगी. 

दुनिया ने अनके किताब पैदा कर दीं. सोशल मीडिया पर इत्ता साहित्य लिखा जा चुका जो मानव इतिहास में न लिखा गया होगा उससे पहले. लेकिन तुम मान के बैठे हो कि नहीं कोई किताब आसमान से उतरती है. प्रिंटिंग प्रेस है अल्लाह के पास. जिससे कोई-कोई किताब उतरती है.  कैसी मूर्खों जैसी बात है? आज तक तुमने देखी कोई किताब आसमान से डाउन-लोड होते हुए? किसी और ने देखी? बस मान लो कुछ भी. 

फर्क सिर्फ इतना है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं. उसकी कोई एक किताब नहीं. उसकी कोई जिद्द नहीं कि नहीं जो किसी किताब में कहा गया, वही अंतिम है. यहाँ अनेक तरह की किताब हैं. अनेक तरह के विचार हैं. और ऐसा ही समाज मानव का भविष्य है. तुम्हारा समाज नहीं. 

दो तरह के पदार्थं पढाये गए थे हमको. घुलनशील और अघुलनशील. Soluble and Insoluble. अधिकांश समाज घुलनशील हैं. इक दूजे में घुल-मिल जाते हैं. रोटी-बेटी का रिश्ता भी रख लेते हैं. एक दूजे के पूजन-स्थल पर चले जाते हैं. एक दूजे की मान्यताओं में शामिल हो जाते हैं. और कोई इक दूजे को जबरन अपने मज़हब में खींचने की दावत नहीं देता फिरता. बम-फटाक. तुम्हारा समाज बंद समाज है. कुरान की घेरा-बंदी से बंधा. इसका कुछ नहीं हो सकता. या तो इसे छोड़ो या फिर पूरी दुनिया से रुसवा हो जाओ. और तुम हर जगह रुसवा हो रहे हो. अब तुम हर जगह हार रहे हो.

कश्मीर हो, इसराईल हो, चीन हो, अमेरिका हो, जहाँ तुम हो वहां पंगा है. और यह पंगा अब नंगा है. वो जो इन्टरनेट है उसने सब नंगा कर दिया है. 

मोहम्मद साहेब ने 1400 साल पहले बता दिया था कि तुम ईमानदार हो, तुम मुसलमान हो और बाकी सब बे-ईमान हैं. ठीक है. जब बाकी हैं ही तुम्हारी निगाह में बे-ईमान तो ठीक है. अब वो बे-ईमान लोग तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहते. वो बे-ईमान लोग तुम्हारा हर जगह विरोध कर रहे हैं. यह कल्चर की लड़ाई है. यह आइडियोलॉजी की लड़ाई है. 

बस हमने तो यह देखना है कि इस लड़ाई में हम कोई और इस्लाम न पैदा कर लें. इसलिए समझदार इंसान को मोहम्मद के विरोध के साथ राम का भी विरोध करना चाहिए. इस्लाम के साथ हिंदुत्व का भी विरोध करना चाहिए. न हमें गिरजा चाहिए और न ही गुरुद्वारा. न हमें मन्दिर चाहिए और न ही मस्जिद. 

सो यह जो राम मंदिर वाली जगह पर  लाइब्रेरी बनाने की बात है, हक़ में हूँ मैं पूरी तरह से इसके.  मंदिर नहीं लाइब्रेरी बननी चाहिए. लेकिन वो काबा तोड़ के भी बननी चाहिए और वेटिकेन का गिरजा भी. यह सब इंसान की छाती पर बोझ हैं. हटाओ बे इन सब को. 

है हिम्मत यह कहने की? अगर नहीं है तो मत कहो कि हमने तो अस्पताल/लाइब्रेरी बनाने को कहा था, ये लोग माने नहीं?

इडियट.

नमन...तुषार कॉस्मिक

नोट:-- कॉपी पेस्ट कर लीजिये अगर, पोस्ट इस लायक लगे तो, मेरा नाम देना कोई ज़रूरी नहीं है.

Friday 2 August 2019

Zomato प्रकरण का संदेश

यदि समाज का कोई तबका (गैर-मुस्लिम)  दूसरे तबके (मुस्लिम) को बिज़नस नहीं देना चाहता तो  क्या गलत है बे? मर्जी उसकी. बिज़नस दे न दे.

यदि समाज का कोई तबका (गैर-मुस्लिम)  दूसरे तबके (मुस्लिम) को किराए पर मकान नहीं देना चाहता तो क्या गलत है बे? मर्जी उसकी. जिसका मकान, वो दे न दे किराए पर. 

तुम्हें पता है कि मुस्लिम अपनी बेटियों की शादियाँ नहीं करते गैर-मुस्लिम से? अपवाद मत गिनवाना. 

तुम्हे पता है मुस्लिम काफिर के पूजा-स्थल में नहीं झुकते? काफिर के धर्म/मज़हब को कोई मान्यता नहीं देते? 

तुम्हे पता है मुस्लिम में 'उम्मा' का कांसेप्ट है? 'उम्मा' मतलब इस्लामिक तबका. मुस्लिम अपने आप को उम्मा से जोड़ता है. न तुम्हारे मुल्क से, न तुम्हारे समाज से, न तुम्हारे मज़हब से. तुम आस्तिक, नास्तिक, हिन्दू, सिक्ख, जैन, सवर्ण, दलित  जो मर्ज़ी होवो, उनकी उम्मत से बाहर हो. तुम काफिर हो. तुम्हारे खिलाफ हिंसा की हिदायत हैं कुरान में. 

इसीलिए मुस्लिम ने  काफिरों की पूरी दुनिया में भसड़ मचा रखा है? अल्लाह-हो-अकबर. Boom. फटाक. खुद-कुश.

ख्वाहमखाह शोर कर रखा है कि किसी ने Zomato का आर्डर मुस्लिम से लेने से मना कर दिया. बवाल काट रहे हैं कि समाज में वैमनस्य बढ़ा रहे हैं ऐसे लोग.  

तुम्हे पता है, चौदह सौ साल पहले ही मोहम्मद साहेब ने दुनिया दो फाड़ कर दी थी, एक मुसलमान और दूसरा बे-ईमान?

और ये क्या  बकवास लिखा Zomato ने, "खाने का धर्म नहीं होता. खाना अपने आप में धर्म होता है."

भूतिया लोग. अबे,  खाना खाना है. वो अपने आप में कोई धर्म नहीं होता. वो सिर्फ खाना है. लेकिन उसे खाने वालों का धर्म होता है. हलाल. झटका. शाकाहार. मांसाहार. सात्विक. तामसिक. तमाम तरह की मान्यताएं हैं खाने के साथ जुडी. कुछ लोग तो लहसुन, प्याज तक नहीं छूते. तो? खाने का कोई धर्म नहीं? जिसने आर्डर कैंसल किया था उसने कोई यह लिखा था कि खाने का कोई धर्म है? उसने लिखा था कि डिलीवरी देने वाले का धर्म है. इस्लाम.  इडियट Zomato.

क्या गलत किया उसने आर्डर कैंसल  करके  बे? पैसे अगले के हैं. खाना उसने खाना है. मर्ज़ी उसकी, जिससे मर्जी ले न ले. जिसे मर्जी बिज़नस दे न दे. 

और ये जो तर्क दे रहे हो न कि गेहूं मुसलमान ने उगाया तो भी खाओगे नहीं क्या? जहाज़ मुस्लिम चला रहा होगा तो कूद जाओगे क्या? इडियट हो. संदेश समझो. संदेश साफ़ है. सन्देश यह है कि जहाँ तक हो सके मुस्लिम का बहिष्कार करो. "खुडडे-लैंड" लगाना बोलते हैं पंजाबी में इसे, मतलब खड्ड में लैंड करवाना. और अंग्रेज़ी में "marginalize" करना. मतलब हाशिये पर फ़ेंकना. मतलब भैया कोई औकात नहीं तुम्हारी. लगभग न के बराबर.   

तो बहिष्कार. जहाँ नहीं कर सकते, वहां मजबूरी समझ के बर्दाशत किया जाए. और इसीलिए मुस्लिम और मूर्ख किस्म के सेक्युलर समाज में आग लगी पड़ी है. संदेश उनको समझ आ रहा है. 

अबे, सेक्युलर उसके साथ हुआ जाता है, जो सेकुलरिज्म को मानता हो. मुस्लिम का कलमा क्या है? "ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" इसमें कोई गुंजाईश नहीं है किसी और मान्यता की. कहाँ से आ जायेगा सेकुलरिज्म इस्लाम में? 

और तुम्हें सेकुलरिज्म का कीड़ा काट गया है. 

"ईश्वर-अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे. एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मंदे".  

गुरबाणी है. बात सही है, लेकिन संदेश गलत दे जाती है.  वो तुम मानते हो कि कुदरत के सब बंदे एक जैसे हैं. कोई भला, कोई मंदा नहीं है. लेकिन सामने वाला नहीं मानता है. वो तुम्हे काफिर मानता है. 

यह गैर-मुस्लिम को कुछ-कुछ समझ आ रहा है. इसीलिए बहस है.  

एक मुल्क जिसमें बड़ी संख्या के लोग मानते हैं राम को, तुम (मुस्लिम)  मन्दिर नहीं बनने दे रहे उसका. पूछते हो राम वहां पैदा हुए थे कि नहीं साबित करो. तुम्हारे मोहम्मद साहेब का ही बाल है 'हज़रत बल' में तुम साबित कर सकते हो? बस मानते हो. अल्लाह ने तो सौ साल पहले मरे गधे को ज़िदा कर दिया था कुरान के मुताबिक. साबित कर सकते हो? बस मानते हो. 

मैं भी राम मंदिर के खिलाफ हूँ, राम के ही खिलाफ हूँ. लेकिन मैं इस्लाम के भी खिलाफ हूँ और मोहम्मद के नबी होने के भी खिलाफ हूँ. सब बकवास हैं. 

लेकिन साली एक तरफ़ा गुडागर्दी! कमाल है!! 

तुम किसी को चूं न करने दो इस्लाम के खिलाफ़. 
क्या करना है ऐसे समाज का जिसमें आप किसी किताब के खिलाफ सोच ही न सकते होवो, जहाँ गुलाम की तरह आपको कुछ ख़ास मान्यताओं के अनुसार ही अपनी सोच को ढालना पड़े?

हिंदुत्व बकवास है. कांसेप्ट ही मन-घडंत है. सीमित ही सही लेकिन तुम्हें आज़ादी देता है. तुम राम के खिलाफ, कृष्ण के खिलाफ सोच सकते हो, लिख सकते हो. मेरे लेख मौजूद हैं. सबूत हैं. 

और जो संघी किस्म की गुंडा-गर्दी हुई है न इस मुल्क में, वो भी इस्लाम की वजह से है. इस्लाम के जवाब में वैसा ही बनना पड़ रहा है इस समाज को. जानवर से लड़ोगे तो जानवर के स्तर पर आना ही पड़ेगा.  वरना भारतीय समाज (मुस्लिम छोड़ कर) ऐसा है, जहाँ आप कुछ भी बकवास सोच सकते हो, कुछ भी बक सकते हो,और ऐसे ही समाज से आप वैश्विक संस्कृति की तरफ बढ़ सकते हो, वैज्ञानिक संस्कृति की तरफ बढ़ सकते हो. 

M S Sidhu मेरे सगे भाई हैं. केशधारी हैं. सिक्ख है. मुझे गोद लिया गया था तो इकलौता पला-बढ़ा हूँ. उनको पता है कि मैं नहीं मानता किसी धर्म को. सिक्खी को भी नहीं मानता. लेकिन है कोई दिक्कत? यह है भारतीय समाज. कोई गुंजाईश नहीं है इस्लाम में ऐसी. इसीलिए खिलाफ हूँ

इस्लाम वैश्विक संस्कृति की राह में सबसे बड़े रोड़ों में से है, इसीलिए उसका इत्ता विरोध करता हूँ. और इडियट हैं, जो मेरे इस्लाम के विरोध को हिंदुत्व का समर्थन समझते हैं. मैं हिंदुत्व के भी खिलाफ हूँ. और हर इस तरह के "त्व" के खिलाफ हूँ. इस्लाम का ज्यादा विरोध मात्र इसलिए है कि पोटाशियम  साइनाइड ज्यादा घातक है बाकी ज़हर से. 

ऊपर एक शब्द लिखा है मैंने "खुद-कुश". एक  और  शब्द ध्यान आ गया.  "हिन्दू-कुश". 

अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक दर्रा  है 'हिन्दू-कुश'. दर्रा तंग पहाड़ी रस्ते को कहते हैं. इस जगह का यह नाम इसलिए दिया गया चूँकि यह हिन्दुओं की कत्लगाह थी. ऐसी जगह जहाँ हिन्दू मारे जाते थे. शब्द दुबारा देखो. हिन्दू-कुश. खुद-कुश. जो खुद को मारे वो खुद-कुश, जो हिन्दू को मारे वो हिन्दू-कुश.  

मुस्लिम काफिर को पूरी दुनिया में  इस्लाम की दावत देते फिर रहे हैं. जहाँ नहीं माना जा रहा, उस जगह को  "काफिर-कुश" बनाने पर तुले  हैं. एक प्लेट 'दाल बम्बानी' और एक प्लेट 'हथगोला मशरूम', चार रोटी के साथ. Zomato से भी क्विक डिलीवरी. 

बाकी खुद सोचो और लिखो यार.

स्वागत.

कॉपी पेस्ट कर लीजिये, जिसने करना हो, कोई दिक्कत नहीं.....नमन...तुषार कॉस्मिक