बेचारे बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. एक दिन ईद आयेगी.
"मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर आती नहीं."
और वो दिन बकरीद है. वैसे "बलि का बकरा" सिर्फ बकरा ही नहीं बनता. इस दिन बकरे ही नहीं और भी बहुत से जानवर काट दिए जाते हैं. कोई आसमानी बाप है. जिसका नाम "अल्लाह" है, वो बहुत खुश होता है इन जानवरों के काटे जाने से, वो जो सब जानवरों का जन्मदाता है. वो खुश होता है इन जानवरों का खून गलियों में, नालियों में बहता हुआ देख कर. वैरी गुड!
साला खाना मांस खुद है, बीच में अल्लाह को ला रहे हैं. बे-ईमानी देखो ईमानदारों की.
फिर तर्क शुरू होता है कि सब्जियों में भी जान होती है तो क्या हर्ज़ है कि बकरा खा लिया? वैरी गुड! तुम्हारे बेटा-बेटी में भी जान है, उसे भी जिबह कर दो और फिर खिला दो सारे समाज को. वो भी तो तुम्हें प्यारे होंगे. उससे प्यारा शायद ही कुछ हो. अल्लाह को कुर्बानी देनी है न सबसे प्यारी चीज़ की तो वो कोई बकरा तो हो नहीं सकता. वो तुम्हारे बच्चे हो सकते हैं. उनकी दे दो क़ुरबानी. कोई बात नहीं, तुम निश्चिन्त रहो, बीच में कानून नहीं आयेगा. तुम्हारा मज़हब है न. वो तो वैसे ही कानून से ऊपर है. तुम्हारे लिए बना है न अलग से पर्सनल लॉ. यहाँ भी कानून बनेगा अलग से. ईद पर कुर्बानी के बीच कोई पुलिस, कोई कोर्ट नहीं आयेगा. कुर्बानी देनी है तो ठीक से दो. यह अल्लाह को मूर्ख मत बनाओ बकरे काट कर.
जानवर और सब्जियां खाने में क्या बेहतर है उसका सीधा फार्मूला देता हूँ. समझ आये तो गठरी में बाँध लेना. पॉकेट में डाल लेना. पर्स में सम्भाल लेना.
इंसान सब खा जाता है. कहते हैं जो जीव पृथ्वी पर रेंगता है-चलता है, आसमान में उड़ता है, समन्दर में तैरता है वो हर जीव इन्सान खा जाता है.
कोई नियम है क्या? क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, कोई फार्मूला है क्या?
तो फार्मूला यह है कि जीवन में चेतना का लेवल है. जितनी चेतना एक इन्सान में है उतनी अमीबा में नहीं होगी, उतनी सब्ज़ी में नहीं होगी. तो कम से कम चेतना वाले प्राणी को ही भोजन बनाया जाये, जहाँ तक सम्भव हो.
मिटटी, ईंट-पत्थर तो खा नहीं सकते. सब्जियां-अनाज-फल ही खाए जाएँ. मांस सिर्फ वहां खाया जाए जहाँ मजबूरी हो, जहाँ मांस के अलावा कुछ भी सुलभ न हो खाने को.
और मैं कोई अहिंसा नहीं सिखा रहा. ऐसा नहीं कह रहा कि इन्सान को जानवर नहीं मारना चाहिए. क्या हम मच्छर नहीं मारते? क्या हम खटमल नहीं मारते या फिर कॉकरोच. किसे मारते हैं? कब मारते हैं? क्यों मारते हैं? यह सब मायने रखता है.
अब इस फार्मूला को समझोगे तो 99 प्रतिशत मांसाहार खत्म हो जायेगा.
और
यह कुर्बानी/बलि वगैहरा की बकवास इस फार्मूला में कहीं नहीं टिकेगी. यह बात ही आदिम है. बचकाना है. बंद करो. चाहे किसी भी दीनी किताब में यह सब लिखा हो, न लिखा हो.
बचपन में एक कहानी सुनी थी. एक विशालकाय दानव आता है इक नगर में. आदम-बू. आदम-बू कहता हुआ. उसे इन्सान की बू आ रही होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी परजीवी जानवर-कीट-पतंगे को आती है, अपने शिकार की. वो नगर में आकर बहुत से इंसान मार देता है. कुछ खा जाता है. कई घयाल कर देता है. राजा मुकाबला नहीं कर पाता. सो वो उससे समझौता बिठाता है कि उसे रोज़ एक इन्सान भेजा जायेगा खाने के लिए ताकि ख्वाह्म्खाह बहुत से इन्सान न मारे जाएँ, घायल न किये जायें. एक-एक कर के कई नागरिक भेजे जाते हिं और दानव द्वारा खा लिए जाते हैं. शहर में मुर्दनगी छाई रहती है. पता नहीं कल किस की बारी आ जाये? फिर कोई सूरमा पैदा होता है. मरना तो है ही सबने. लड़ के मरेंगे. टीम बनाता है. गुरिल्ला तकनीक सिखाता है. सब मिल के दानव पर आक्रमण करते हैं. दानव खत्म. आज जो तुम जानवर खा रहे हो न. वो उस दानव से कम नहीं हो. जिस दिन तुम पर आक्रमण होगा तभी अक्ल आएगी तुम्हें.
कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हों, कल ही उनकी मानव-ईद हो, और उनको हिदायत हो उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए. तो कैसा लगेगा तुम्हें?
तुमने तमाम कानून बना रखे हैं कि ताकतवर इन्सान कमज़ोर का शोषण न कर सके. करता है फिर भी, वो अलग बात है लेकिन कानून तो हैं न. जानवर बड़े मजे से तुम काट देते हो, खा जाते हो. क्यों? सिर्फ इसलिए कि वो कमजोर हैं तुम्हारे मुकाबले में. इसीलिए तुमने आज तक कानून नहीं बनाये कि जानवर भी नहीं कटेगा, नहीं खाया जाएगा. कैसे भी नहीं काटा जाना चाहिए. न मुसलमान द्वारा कुर्बानी के नाम पर. न गैर-मुस्लिम द्वारा बलि के नाम पर. न त्योहार पर. न किसी भी और वार पर.
दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. घणी तमन्ना है.
चलिए चलते-चलते दो शब्द और पढ़ते जाइए.
"पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं
हर गली, हर मोहल्ला, हर बाज़ार मिलतें हैं
रोम, काबा, हरिद्वार मिलतें हैं
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मिलतें हैं
ईद, दिवाली,क्रिसमस, हर त्यौहार मिलतें हैं
गले मिल, गला काट, मेरे यार मिलतें हैं
मेरे यार, इक बार, दो बार नहीं, बार बार मिलतें हैं
पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं"
ग़ालिब ने नहीं मैंने लिखा है.....ज़ाहिर है
नोट:--आप कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
"मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर आती नहीं."
और वो दिन बकरीद है. वैसे "बलि का बकरा" सिर्फ बकरा ही नहीं बनता. इस दिन बकरे ही नहीं और भी बहुत से जानवर काट दिए जाते हैं. कोई आसमानी बाप है. जिसका नाम "अल्लाह" है, वो बहुत खुश होता है इन जानवरों के काटे जाने से, वो जो सब जानवरों का जन्मदाता है. वो खुश होता है इन जानवरों का खून गलियों में, नालियों में बहता हुआ देख कर. वैरी गुड!
साला खाना मांस खुद है, बीच में अल्लाह को ला रहे हैं. बे-ईमानी देखो ईमानदारों की.
फिर तर्क शुरू होता है कि सब्जियों में भी जान होती है तो क्या हर्ज़ है कि बकरा खा लिया? वैरी गुड! तुम्हारे बेटा-बेटी में भी जान है, उसे भी जिबह कर दो और फिर खिला दो सारे समाज को. वो भी तो तुम्हें प्यारे होंगे. उससे प्यारा शायद ही कुछ हो. अल्लाह को कुर्बानी देनी है न सबसे प्यारी चीज़ की तो वो कोई बकरा तो हो नहीं सकता. वो तुम्हारे बच्चे हो सकते हैं. उनकी दे दो क़ुरबानी. कोई बात नहीं, तुम निश्चिन्त रहो, बीच में कानून नहीं आयेगा. तुम्हारा मज़हब है न. वो तो वैसे ही कानून से ऊपर है. तुम्हारे लिए बना है न अलग से पर्सनल लॉ. यहाँ भी कानून बनेगा अलग से. ईद पर कुर्बानी के बीच कोई पुलिस, कोई कोर्ट नहीं आयेगा. कुर्बानी देनी है तो ठीक से दो. यह अल्लाह को मूर्ख मत बनाओ बकरे काट कर.
जानवर और सब्जियां खाने में क्या बेहतर है उसका सीधा फार्मूला देता हूँ. समझ आये तो गठरी में बाँध लेना. पॉकेट में डाल लेना. पर्स में सम्भाल लेना.
इंसान सब खा जाता है. कहते हैं जो जीव पृथ्वी पर रेंगता है-चलता है, आसमान में उड़ता है, समन्दर में तैरता है वो हर जीव इन्सान खा जाता है.
कोई नियम है क्या? क्या खाना है, क्या नहीं खाना है, कोई फार्मूला है क्या?
तो फार्मूला यह है कि जीवन में चेतना का लेवल है. जितनी चेतना एक इन्सान में है उतनी अमीबा में नहीं होगी, उतनी सब्ज़ी में नहीं होगी. तो कम से कम चेतना वाले प्राणी को ही भोजन बनाया जाये, जहाँ तक सम्भव हो.
मिटटी, ईंट-पत्थर तो खा नहीं सकते. सब्जियां-अनाज-फल ही खाए जाएँ. मांस सिर्फ वहां खाया जाए जहाँ मजबूरी हो, जहाँ मांस के अलावा कुछ भी सुलभ न हो खाने को.
और मैं कोई अहिंसा नहीं सिखा रहा. ऐसा नहीं कह रहा कि इन्सान को जानवर नहीं मारना चाहिए. क्या हम मच्छर नहीं मारते? क्या हम खटमल नहीं मारते या फिर कॉकरोच. किसे मारते हैं? कब मारते हैं? क्यों मारते हैं? यह सब मायने रखता है.
अब इस फार्मूला को समझोगे तो 99 प्रतिशत मांसाहार खत्म हो जायेगा.
और
यह कुर्बानी/बलि वगैहरा की बकवास इस फार्मूला में कहीं नहीं टिकेगी. यह बात ही आदिम है. बचकाना है. बंद करो. चाहे किसी भी दीनी किताब में यह सब लिखा हो, न लिखा हो.
बचपन में एक कहानी सुनी थी. एक विशालकाय दानव आता है इक नगर में. आदम-बू. आदम-बू कहता हुआ. उसे इन्सान की बू आ रही होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भी परजीवी जानवर-कीट-पतंगे को आती है, अपने शिकार की. वो नगर में आकर बहुत से इंसान मार देता है. कुछ खा जाता है. कई घयाल कर देता है. राजा मुकाबला नहीं कर पाता. सो वो उससे समझौता बिठाता है कि उसे रोज़ एक इन्सान भेजा जायेगा खाने के लिए ताकि ख्वाह्म्खाह बहुत से इन्सान न मारे जाएँ, घायल न किये जायें. एक-एक कर के कई नागरिक भेजे जाते हिं और दानव द्वारा खा लिए जाते हैं. शहर में मुर्दनगी छाई रहती है. पता नहीं कल किस की बारी आ जाये? फिर कोई सूरमा पैदा होता है. मरना तो है ही सबने. लड़ के मरेंगे. टीम बनाता है. गुरिल्ला तकनीक सिखाता है. सब मिल के दानव पर आक्रमण करते हैं. दानव खत्म. आज जो तुम जानवर खा रहे हो न. वो उस दानव से कम नहीं हो. जिस दिन तुम पर आक्रमण होगा तभी अक्ल आएगी तुम्हें.
कल दूर ग्रह के विशालकाय, शक्तिशाली प्राणी पृथ्वी पर उतरने वाले हों, कल ही उनकी मानव-ईद हो, और उनको हिदायत हो उनके पैगम्बर की कि कल के दिन मुस्लिम मानवों की कुरबानी उनके प्यारे अल्लाह को हर हाल में दी जानी चाहिए. तो कैसा लगेगा तुम्हें?
तुमने तमाम कानून बना रखे हैं कि ताकतवर इन्सान कमज़ोर का शोषण न कर सके. करता है फिर भी, वो अलग बात है लेकिन कानून तो हैं न. जानवर बड़े मजे से तुम काट देते हो, खा जाते हो. क्यों? सिर्फ इसलिए कि वो कमजोर हैं तुम्हारे मुकाबले में. इसीलिए तुमने आज तक कानून नहीं बनाये कि जानवर भी नहीं कटेगा, नहीं खाया जाएगा. कैसे भी नहीं काटा जाना चाहिए. न मुसलमान द्वारा कुर्बानी के नाम पर. न गैर-मुस्लिम द्वारा बलि के नाम पर. न त्योहार पर. न किसी भी और वार पर.
दीवाली का दीवाला निकल जाए और ईद की लीद. गुरु की विदाई हो जाए शुरू. पादरी के निकल जाएँ पाद. घणी तमन्ना है.
चलिए चलते-चलते दो शब्द और पढ़ते जाइए.
"पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं
हर गली, हर मोहल्ला, हर बाज़ार मिलतें हैं
रोम, काबा, हरिद्वार मिलतें हैं
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वार मिलतें हैं
ईद, दिवाली,क्रिसमस, हर त्यौहार मिलतें हैं
गले मिल, गला काट, मेरे यार मिलतें हैं
मेरे यार, इक बार, दो बार नहीं, बार बार मिलतें हैं
पागलों की कमी नहीं ग़ालिब, एक ढूँढो हज़ार मिलतें हैं"
ग़ालिब ने नहीं मैंने लिखा है.....ज़ाहिर है
नोट:--आप कॉपी पेस्ट कर सकते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं.
नमन...तुषार कॉस्मिक
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