मंदिर वहीं बनायेंगे

मोमिन भाई बड़ी मासूमियत से कहते हैं, "वहां राम मंदिर की जगह लाइब्रेरी बना लेते, अस्पताल बना लेते, कुछ भी आम-जन के फायदे की चीज़ बना लेते, लेकिन मानते ही नहीं."

मैं तो बिलकुल सहमत हूँ. यही बात अगर आप काबा या गिरजे के लिए भी कहें तो ही Valid है? 

मैं तो मानता हूँ. साले सब भूतिया राग हैं. कहिये ऐसे, कहा जैसे मैंने. कह सकते हैं?  अन्यथा आप सिर्फ एक मुस्लिम हैं. और चूँकि आप मुस्लिम हैं, इसीलिए वो हिन्दू हैं. इस तरह के हिन्दू हैं. हिन्दुत्व वाले हिन्दू हैं. 

वो बात, मंदिर की है ही नहीं. बात है कल्चरल कनफ्लिक्ट की. मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाईं गईं थीं यह एतिहासिक तथ्य  है. मंदिर मतलब अगलों की कल्चर तोड़ी गयी थी. अब वो तथा-कथित मस्जिद तोड़ कर मंदिर बनाया जाना है. तुमने उनका कल्चर तोडा, वो तुम्हारा कल्चर इनकार कर रहे हैं.   और वो तुम भी जानते हो. 

असल में दुनिया को न तो तुम्हारे कल्चर की ज़रूरत है और न उनके. न इस्लाम की ज़रूरत है और न ही हिंदुत्व की. दुनिया धर्मों के बिना बड़े आराम से चल सकती है. कहीं बेहतर चल सकती है. सामाजिक नियमों को हमने कानूनी-जामा पहना रखा है. वो काफी है. 

लेकिन तुम इत्ते मूर्ख हो कि चौदह सौ साल पहले किसी आदमी से शुरू हुई बात-बेबात से आगे सोच के राज़ी ही नहीं. पत्थर की लकीर. और तुम लकीर के फकीर. पत्थर टूट जायेगा लेकिन लकीर रहेगी. 

दुनिया ने अनके किताब पैदा कर दीं. सोशल मीडिया पर इत्ता साहित्य लिखा जा चुका जो मानव इतिहास में न लिखा गया होगा उससे पहले. लेकिन तुम मान के बैठे हो कि नहीं कोई किताब आसमान से उतरती है. प्रिंटिंग प्रेस है अल्लाह के पास. जिससे कोई-कोई किताब उतरती है.  कैसी मूर्खों जैसी बात है? आज तक तुमने देखी कोई किताब आसमान से डाउन-लोड होते हुए? किसी और ने देखी? बस मान लो कुछ भी. 

फर्क सिर्फ इतना है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं. उसकी कोई एक किताब नहीं. उसकी कोई जिद्द नहीं कि नहीं जो किसी किताब में कहा गया, वही अंतिम है. यहाँ अनेक तरह की किताब हैं. अनेक तरह के विचार हैं. और ऐसा ही समाज मानव का भविष्य है. तुम्हारा समाज नहीं. 

दो तरह के पदार्थं पढाये गए थे हमको. घुलनशील और अघुलनशील. Soluble and Insoluble. अधिकांश समाज घुलनशील हैं. इक दूजे में घुल-मिल जाते हैं. रोटी-बेटी का रिश्ता भी रख लेते हैं. एक दूजे के पूजन-स्थल पर चले जाते हैं. एक दूजे की मान्यताओं में शामिल हो जाते हैं. और कोई इक दूजे को जबरन अपने मज़हब में खींचने की दावत नहीं देता फिरता. बम-फटाक. तुम्हारा समाज बंद समाज है. कुरान की घेरा-बंदी से बंधा. इसका कुछ नहीं हो सकता. या तो इसे छोड़ो या फिर पूरी दुनिया से रुसवा हो जाओ. और तुम हर जगह रुसवा हो रहे हो. अब तुम हर जगह हार रहे हो.

कश्मीर हो, इसराईल हो, चीन हो, अमेरिका हो, जहाँ तुम हो वहां पंगा है. और यह पंगा अब नंगा है. वो जो इन्टरनेट है उसने सब नंगा कर दिया है. 

मोहम्मद साहेब ने 1400 साल पहले बता दिया था कि तुम ईमानदार हो, तुम मुसलमान हो और बाकी सब बे-ईमान हैं. ठीक है. जब बाकी हैं ही तुम्हारी निगाह में बे-ईमान तो ठीक है. अब वो बे-ईमान लोग तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहते. वो बे-ईमान लोग तुम्हारा हर जगह विरोध कर रहे हैं. यह कल्चर की लड़ाई है. यह आइडियोलॉजी की लड़ाई है. 

बस हमने तो यह देखना है कि इस लड़ाई में हम कोई और इस्लाम न पैदा कर लें. इसलिए समझदार इंसान को मोहम्मद के विरोध के साथ राम का भी विरोध करना चाहिए. इस्लाम के साथ हिंदुत्व का भी विरोध करना चाहिए. न हमें गिरजा चाहिए और न ही गुरुद्वारा. न हमें मन्दिर चाहिए और न ही मस्जिद. 

सो यह जो राम मंदिर वाली जगह पर  लाइब्रेरी बनाने की बात है, हक़ में हूँ मैं पूरी तरह से इसके.  मंदिर नहीं लाइब्रेरी बननी चाहिए. लेकिन वो काबा तोड़ के भी बननी चाहिए और वेटिकेन का गिरजा भी. यह सब इंसान की छाती पर बोझ हैं. हटाओ बे इन सब को. 

है हिम्मत यह कहने की? अगर नहीं है तो मत कहो कि हमने तो अस्पताल/लाइब्रेरी बनाने को कहा था, ये लोग माने नहीं?

इडियट.

नमन...तुषार कॉस्मिक

नोट:-- कॉपी पेस्ट कर लीजिये अगर, पोस्ट इस लायक लगे तो, मेरा नाम देना कोई ज़रूरी नहीं है.

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