Friday, 2 August 2019

Zomato प्रकरण का संदेश

यदि समाज का कोई तबका (गैर-मुस्लिम)  दूसरे तबके (मुस्लिम) को बिज़नस नहीं देना चाहता तो  क्या गलत है बे? मर्जी उसकी. बिज़नस दे न दे.

यदि समाज का कोई तबका (गैर-मुस्लिम)  दूसरे तबके (मुस्लिम) को किराए पर मकान नहीं देना चाहता तो क्या गलत है बे? मर्जी उसकी. जिसका मकान, वो दे न दे किराए पर. 

तुम्हें पता है कि मुस्लिम अपनी बेटियों की शादियाँ नहीं करते गैर-मुस्लिम से? अपवाद मत गिनवाना. 

तुम्हे पता है मुस्लिम काफिर के पूजा-स्थल में नहीं झुकते? काफिर के धर्म/मज़हब को कोई मान्यता नहीं देते? 

तुम्हे पता है मुस्लिम में 'उम्मा' का कांसेप्ट है? 'उम्मा' मतलब इस्लामिक तबका. मुस्लिम अपने आप को उम्मा से जोड़ता है. न तुम्हारे मुल्क से, न तुम्हारे समाज से, न तुम्हारे मज़हब से. तुम आस्तिक, नास्तिक, हिन्दू, सिक्ख, जैन, सवर्ण, दलित  जो मर्ज़ी होवो, उनकी उम्मत से बाहर हो. तुम काफिर हो. तुम्हारे खिलाफ हिंसा की हिदायत हैं कुरान में. 

इसीलिए मुस्लिम ने  काफिरों की पूरी दुनिया में भसड़ मचा रखा है? अल्लाह-हो-अकबर. Boom. फटाक. खुद-कुश.

ख्वाहमखाह शोर कर रखा है कि किसी ने Zomato का आर्डर मुस्लिम से लेने से मना कर दिया. बवाल काट रहे हैं कि समाज में वैमनस्य बढ़ा रहे हैं ऐसे लोग.  

तुम्हे पता है, चौदह सौ साल पहले ही मोहम्मद साहेब ने दुनिया दो फाड़ कर दी थी, एक मुसलमान और दूसरा बे-ईमान?

और ये क्या  बकवास लिखा Zomato ने, "खाने का धर्म नहीं होता. खाना अपने आप में धर्म होता है."

भूतिया लोग. अबे,  खाना खाना है. वो अपने आप में कोई धर्म नहीं होता. वो सिर्फ खाना है. लेकिन उसे खाने वालों का धर्म होता है. हलाल. झटका. शाकाहार. मांसाहार. सात्विक. तामसिक. तमाम तरह की मान्यताएं हैं खाने के साथ जुडी. कुछ लोग तो लहसुन, प्याज तक नहीं छूते. तो? खाने का कोई धर्म नहीं? जिसने आर्डर कैंसल किया था उसने कोई यह लिखा था कि खाने का कोई धर्म है? उसने लिखा था कि डिलीवरी देने वाले का धर्म है. इस्लाम.  इडियट Zomato.

क्या गलत किया उसने आर्डर कैंसल  करके  बे? पैसे अगले के हैं. खाना उसने खाना है. मर्ज़ी उसकी, जिससे मर्जी ले न ले. जिसे मर्जी बिज़नस दे न दे. 

और ये जो तर्क दे रहे हो न कि गेहूं मुसलमान ने उगाया तो भी खाओगे नहीं क्या? जहाज़ मुस्लिम चला रहा होगा तो कूद जाओगे क्या? इडियट हो. संदेश समझो. संदेश साफ़ है. सन्देश यह है कि जहाँ तक हो सके मुस्लिम का बहिष्कार करो. "खुडडे-लैंड" लगाना बोलते हैं पंजाबी में इसे, मतलब खड्ड में लैंड करवाना. और अंग्रेज़ी में "marginalize" करना. मतलब हाशिये पर फ़ेंकना. मतलब भैया कोई औकात नहीं तुम्हारी. लगभग न के बराबर.   

तो बहिष्कार. जहाँ नहीं कर सकते, वहां मजबूरी समझ के बर्दाशत किया जाए. और इसीलिए मुस्लिम और मूर्ख किस्म के सेक्युलर समाज में आग लगी पड़ी है. संदेश उनको समझ आ रहा है. 

अबे, सेक्युलर उसके साथ हुआ जाता है, जो सेकुलरिज्म को मानता हो. मुस्लिम का कलमा क्या है? "ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" इसमें कोई गुंजाईश नहीं है किसी और मान्यता की. कहाँ से आ जायेगा सेकुलरिज्म इस्लाम में? 

और तुम्हें सेकुलरिज्म का कीड़ा काट गया है. 

"ईश्वर-अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे. एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मंदे".  

गुरबाणी है. बात सही है, लेकिन संदेश गलत दे जाती है.  वो तुम मानते हो कि कुदरत के सब बंदे एक जैसे हैं. कोई भला, कोई मंदा नहीं है. लेकिन सामने वाला नहीं मानता है. वो तुम्हे काफिर मानता है. 

यह गैर-मुस्लिम को कुछ-कुछ समझ आ रहा है. इसीलिए बहस है.  

एक मुल्क जिसमें बड़ी संख्या के लोग मानते हैं राम को, तुम (मुस्लिम)  मन्दिर नहीं बनने दे रहे उसका. पूछते हो राम वहां पैदा हुए थे कि नहीं साबित करो. तुम्हारे मोहम्मद साहेब का ही बाल है 'हज़रत बल' में तुम साबित कर सकते हो? बस मानते हो. अल्लाह ने तो सौ साल पहले मरे गधे को ज़िदा कर दिया था कुरान के मुताबिक. साबित कर सकते हो? बस मानते हो. 

मैं भी राम मंदिर के खिलाफ हूँ, राम के ही खिलाफ हूँ. लेकिन मैं इस्लाम के भी खिलाफ हूँ और मोहम्मद के नबी होने के भी खिलाफ हूँ. सब बकवास हैं. 

लेकिन साली एक तरफ़ा गुडागर्दी! कमाल है!! 

तुम किसी को चूं न करने दो इस्लाम के खिलाफ़. 
क्या करना है ऐसे समाज का जिसमें आप किसी किताब के खिलाफ सोच ही न सकते होवो, जहाँ गुलाम की तरह आपको कुछ ख़ास मान्यताओं के अनुसार ही अपनी सोच को ढालना पड़े?

हिंदुत्व बकवास है. कांसेप्ट ही मन-घडंत है. सीमित ही सही लेकिन तुम्हें आज़ादी देता है. तुम राम के खिलाफ, कृष्ण के खिलाफ सोच सकते हो, लिख सकते हो. मेरे लेख मौजूद हैं. सबूत हैं. 

और जो संघी किस्म की गुंडा-गर्दी हुई है न इस मुल्क में, वो भी इस्लाम की वजह से है. इस्लाम के जवाब में वैसा ही बनना पड़ रहा है इस समाज को. जानवर से लड़ोगे तो जानवर के स्तर पर आना ही पड़ेगा.  वरना भारतीय समाज (मुस्लिम छोड़ कर) ऐसा है, जहाँ आप कुछ भी बकवास सोच सकते हो, कुछ भी बक सकते हो,और ऐसे ही समाज से आप वैश्विक संस्कृति की तरफ बढ़ सकते हो, वैज्ञानिक संस्कृति की तरफ बढ़ सकते हो. 

M S Sidhu मेरे सगे भाई हैं. केशधारी हैं. सिक्ख है. मुझे गोद लिया गया था तो इकलौता पला-बढ़ा हूँ. उनको पता है कि मैं नहीं मानता किसी धर्म को. सिक्खी को भी नहीं मानता. लेकिन है कोई दिक्कत? यह है भारतीय समाज. कोई गुंजाईश नहीं है इस्लाम में ऐसी. इसीलिए खिलाफ हूँ

इस्लाम वैश्विक संस्कृति की राह में सबसे बड़े रोड़ों में से है, इसीलिए उसका इत्ता विरोध करता हूँ. और इडियट हैं, जो मेरे इस्लाम के विरोध को हिंदुत्व का समर्थन समझते हैं. मैं हिंदुत्व के भी खिलाफ हूँ. और हर इस तरह के "त्व" के खिलाफ हूँ. इस्लाम का ज्यादा विरोध मात्र इसलिए है कि पोटाशियम  साइनाइड ज्यादा घातक है बाकी ज़हर से. 

ऊपर एक शब्द लिखा है मैंने "खुद-कुश". एक  और  शब्द ध्यान आ गया.  "हिन्दू-कुश". 

अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक दर्रा  है 'हिन्दू-कुश'. दर्रा तंग पहाड़ी रस्ते को कहते हैं. इस जगह का यह नाम इसलिए दिया गया चूँकि यह हिन्दुओं की कत्लगाह थी. ऐसी जगह जहाँ हिन्दू मारे जाते थे. शब्द दुबारा देखो. हिन्दू-कुश. खुद-कुश. जो खुद को मारे वो खुद-कुश, जो हिन्दू को मारे वो हिन्दू-कुश.  

मुस्लिम काफिर को पूरी दुनिया में  इस्लाम की दावत देते फिर रहे हैं. जहाँ नहीं माना जा रहा, उस जगह को  "काफिर-कुश" बनाने पर तुले  हैं. एक प्लेट 'दाल बम्बानी' और एक प्लेट 'हथगोला मशरूम', चार रोटी के साथ. Zomato से भी क्विक डिलीवरी. 

बाकी खुद सोचो और लिखो यार.

स्वागत.

कॉपी पेस्ट कर लीजिये, जिसने करना हो, कोई दिक्कत नहीं.....नमन...तुषार कॉस्मिक

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