Tuesday 25 August 2015

कानूनी दांव पेच—भाग 3

बड़े जजों के नाम के आगे जस्टिस लिखा जाता है. जैसे जस्टिस ढींगरा, जस्टिस काटजू . बकवास.

उपहार काण्ड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितना न्याय हुआ है, आप सबके सामने है. कितने ही लोग मारे गए और मालिकों को मात्र जुर्माना. वो भी ऐसा कि उनके कान पर जूं न रेंगे. अबे, यदि वो दोषी हैं तो जेल भेजो  और नहीं हैं तो छोड़ दो, यह पैसे लेने का क्या ड्रामा है? लेकिन दोषी तो वो हैं, तभी तो ज़ुर्माना किया है. हाँ, अमीर हैं सो उनकी सजा को जुर्माने तक  ही सीमित किया गया है. बच्चा  भी समझता है सिवा सुप्रीम कोर्ट के. 

अमीर हो तो पैसे लेकर छोड़ दो और गरीब हो तो लटका दो.....यह इन्साफ है या रिश्वतखोरी?

पीछे सुना है कि भारतीय जज समाज की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the society) की संतुष्टि के हिसाब से फैसले देने लगे हैं. लानत है. फैसले कानून के हिसाब से, तथ्यों और तर्कों के हिसाब से दिए जाने चाहिए या समाज क्या सोचता समझता है उसके हिसाब से? 

समाज ने तो सुकरात को ज़हर पिलवा दिया, जीसस को सूली पर टंगवा दिया, जॉन ऑफ़ आर्क को जिंदा जलवा दिया, सब फैसले उस समय की अदालतों ने दिए थे. अदालतों को समाज ने प्रयोग किया, दुष्प्रयोग किया. तो आज भी क्या वैसा ही होना चाहिए? हमारे समय अदालतों को समझना होगा कि कल उन पर भी वोही लानतें भेजी जायेंगे जैसे आज मैं सुकरात, जीसस या जॉन ऑफ़ आर्क के समय की अदालतों पर भेज रहा हूँ.

हमारी अदालतों के फैसलों पर भविष्य कैसे फैसले सुनाएगा, मुझे तो आज ही पता है. पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं और अदालतों के रंग फैसलों को टालने में ही दिख जाते हैं  

सही कहा जाता है कि जज सिर्फ फैसले करता है, न्याय नहीं.

ज़ाहिर के परे

सेठ जी फोन पर व्यस्त थे........उनके केबिन में कुछ ग्राहक दाख़िल हुए लेकिन सेठ जी की बात फोन पर ज़ारी रही......लाखों के सौदे की बात थी....फिर करोड़ों तक जा पहुँची.........फोन पर ही करोड़ों की डील निबटा दी उन्होंने......ग्राहक अपनी बारी आने के इंतज़ार में उतावले भी हो रहे थे....लेकिन अंदर ही अंदर प्रभावित भी हो रहे थे........ इतने में ही एक साधारण सा दिखने वाला आदमी दाख़िल हुआ.........वो कुछ देर खड़ा रहा....फिर सेठ जी को टोका, लेकिन सेठ जी ने उसे डांट दिया, बोले, "देख नहीं रहे भाई , अभी बिजी हूँ"......वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर से उसने सेठ जी को टोका, सेठ जी ने फिर से उसे डपट दिया............सेठ जी फिर व्यस्त हो गए......अब उस आदमी से रहा न गया, वो चिल्ला कर बोला , “सेठ जी, MTNL से आया हूँ, लाइनमैन हूँ, अगर आपकी बात खत्म हो गई हो तो जिस फोन  से  आप  बात कर रहे  हैं, उसका  कनेक्शन जोड़ दूं?”

आप हंस लीजिये, लेकिन यह एक बहुत ही सीरियस मामला है.

पुलिस वाले यदि किसी पैसे झड़ने वाली आसामी को पकड़ लेते हैं तो उसके सामने किसी गरीब को ख्वाह-म-खाह कूटते-पीटते रहते हैं......वो कहते हैं न,  बेटी को कहना और बहू को सुनाना ....कुछ कुछ वैसा ही.

अक्सर लोग अपनी धाक दिखाने को 'फ्री होल्ड गालियाँ' देते हैं, मैं इन्हें 'थर्ड पार्टी गालियाँ' भी कहता हूँ. बातचीत में बिना मतलब  "माँ....की..... बहन की" करते   रहेंगे .........ख्वाह-म-खाह .....सिर्फ अपनी दीदा दलेरी दिखाने को

वकील लोग चाहे केस का मुंह सर न समझ रहे हों, लेकिन प्रभावित करते हैं कभी न पढ़े जाने वाली अलमारियों में सजाई गई किताबों से....... अपने इर्द गिर्द पांच सात नौसीखिए वकीलों से......फ़ोन, कंप्यूटर, चलते प्रिंटर से ........इम्प्रैशन टूल.

आपको यह सब क्यों बता रहा हूँ? बस एक ही बात समझाना......Looking beyond the obvious.....जो ज़ाहिर है, उसके पार देखने की कोशिश करें...ज़रूरी नहीं उसके परे कुछ हो ही...नहीं भी हो...लेकिन शायद हो भी

अंग्रेज़ी में कहते हैं, "Reading between the lines". लाइनों  के बीच पढ़ना, शब्दों के छुपे मंतव्य समझना. 

नमन....कॉपी राईट

भूमि अधिग्रहण

अभी अभी आज़ादी दिवस मना के हटा है मुल्क.....आपको पता हो न हो शायद कि आजादी के साथ अंग्रेज़ों के जमाने के बनाये कानून भी दुबारा देखने की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं देखे, नहीं बदले ...इतने उल्लू के पट्ठे थे हमारे नेता.....बेवकूफ , जाहिल, काहिल, बे-ईमान.....सब के सब.....सबूत देता हूँ....सन 1897 का कानून था जमीन अधिग्रहण का......अँगरेज़ को जब जरूरत हो, जितनी ज़रुरत हो वो किसान से उसकी ज़मीन छीन लेता था...कोई मुआवज़ा नहीं, कोई ज़मीन के बदले ज़मीन नहीं, कोई बदले में रोज़गार व्यवस्था नहीं...भाड़ में जाओ तुम.

आप हैरान हो जायेंगे कि मुल्क सन सैतालिस में आज़ाद हुआ माना जाता है लेकिन यह कानून अभी सन दो हज़ार तेरह में बदला गया.

पहले इस बदलाव से पहले की कुछ झलकियाँ आपको पेश करता हूँ. हमारी सरकारों ने इस भूमि  अधिग्रहण कानून का खूब दुरुप्रयोग किया. सरकारी छत्रछाया में खूब पैसा बनाया गया ज़मीन छीन छीन कर किसान से. उसे या तो कुछ दिया ही नहीं गया या दिया भी गया तो ऊँट के मुंह में जीरा. भूमि अधिग्रहण कानून से बस  किसान की ज़िंदगी पर ग्रहण ही लगाया गया.

कहते हैं भाखड़ा डैम के विस्थापितों को आज तक नहीं बसाया गया. कहते हैं दिल्ली में एअरपोर्ट बना तो किसान को नब्बे पैसे गज ज़मीन का भाव दिया गया. कहते हैं यमुना एक्सप्रेस वे, जो बना उसमें भी किसान को बड़े सस्ते में निबटा दिया गया और कहते हैं कि नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा में तो ज़मीन ली गई उद्योग के नाम पर और बिल्डरों को बेच दी गई. सरकार ने काईयाँ प्रॉपर्टी डीलर का काम शुरू कर दिया. कहते हैं, लाखों एकड़ ज़मीन किसान से तो छीन ली गई लेकिन उस पर कोई काम शुरू ही नहीं किया सरकार ने, बरसों. दशकों. कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नॉएडा का सरकारी ज़मीन अधिग्रहण रद्द कर दिया.कहते हैं कि पटवारी और कलेक्टरों ने खूब लूटा है मिल कर किसानों को. किसान अनपढ़. कानूनगो रिश्वतखोर. किसान की वो गत बनाई की तौबा तौबा.

आज स्थिति यह है कि सरकार को विकास के नाम पर  ज़मीन चाहिए. उधर किसान सब समझ चुका है, वो जानता है कि सरकार ने उसके साथ आज तक धक्का किया है. अब किसान आसानी  से तो ज़मीन देने को राज़ी नहीं है. मोदी सरकार को तथा कथित विकास की जल्दी है. उसे जल्दी है रेल की, सड़क की, फैक्ट्री की. बिना ज़मीन के यह सब हो नहीं सकता.

मेरे कुछ सुझाव हैं. यदि उन पर ख्याल किया जाए तो.

पहली तो बात यह कि किसान में विश्वास पैदा किया जाए. सबसे पहले तो जो भी ज़मीन अधिग्रहित हुई लेकिन प्रयोग नहीं हुई या फिर पहले   प्रयोग हुई भी  लेकिन   अब  प्रयोग नहीं हो रही या निकट  भविष्य  में प्रयोग  नहीं होनी  है  तो उसे बिना शर्त किसान को वापिस किया जाए. यह वापिसी कुछ जिस किसान से ली गई उसे और कुछ भूमिहीन किसान को दी जा सकती है.

दूसरी  बात यह कि  जो ज़मीन बंज़र है, वहां पर उद्योग लगाने का प्रयास होना चाहिए.

तीसरी बात कि जिन भी किसानों को पिछले मुआवज़े नहीं मिले  या मिले तो न मिलने जैसे, उन सब को यदि कहीं ज़मीन दे सकते हैं तो ज़मीन दी जाए और नहीं तो मुआवजा दिया जाए, आज के हिसाब से.

जब पिछला हिसाब किताब कुछ चुकता कर लेंगे, कुछ संतुलन बना लेंगे तो आगे की सोचनी चाहिए. और जब आगे की सोचते हैं तो यह भी सोचने की ज़रुरत है कि विकास का मतलब है क्या आखिर? यह कि जनसंख्या बढाते चले जाओ और फिर कहो कि अब इस के लिए घर चाहिए, रोज़गार चाहिए, रेल चाहिए, सड़क चाहिए, उद्योग चाहिए.

नालायक लोग. अबे पहले यह देखो कि कितने से ज़्यादा लोग नहीं होने चाहिए पृथ्वी के एक टुकड़े पर. पूछो अपने साइंसदानों से, पूछो अपने विद्वानों से, नहीं तो पूछो खुद कुदरत से. तुम जितना उद्योग खड़ा करते हो, कुदरत के साथ खिलवाड़ होता है, कुदरत तुम्हें कुदरती जीवन जीने की इच्छा से भरे है. तभी तो तुम्हारे ड्राइंग रूम में जो तसवीरें हैं,  वो सब कुदरत के नजारों की हैं....नदी, जंगल, पहाड़, झरने....कभी धुआं निकालती फैक्ट्री क्यों नहीं लगाते अपने कमरों में? लगाओ अपने  शयनकक्ष में, शायद नींद न आये. 

लेकिन तुम्हें उद्योग चाहिए. 
इडियट. नहीं चाहिए. बहुत कम चाहिए.

तुम्हें ज़रुरत है, आबादी कम करने के उद्योग चलाने की. बाकी सब समस्या अपने आप कम हो जायेंगी........न ज़्यादा उद्योग चाहिए होंगे, न सड़क, न ज़्यादा घर, न ही कुछ और?
लेकिन यह सब कौन समझाए?

विकास चाहिए, बहनों और भाईयो, हमारी  सरकार  आयेगी   तो  रोज़गार पैदा होगा,  विकास पैदा होगा....तुम बस बच्चे पैदा करो बाकी सब साहेब पर छोड़ दो, अपने आप पैदा होगा.

लानत! कुछ पैदा नहीं होगा यही   हाल  रहा  तो, सिवा झुनझुने के देखते रहिये मेरे साथ. 

नमन......कॉपीराईट लेखन....चुराएं न.....साझा कर  सकते हैं

Thursday 20 August 2015

कानूनी दांव पेच--- भाग -2

इस भाग में मैं आपको अपने-आपके  जीवन के इर्द गिर्द घटने वाले, घटने वाले कानूनी मसलों और मिसलों और मसालों की बात करूंगा.

1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब  चला  नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार  उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.

आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का.   कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े  भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे. 

दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का. 

कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से  पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.

पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के. 

खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है? 

2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले. 

उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.

और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.

मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है. 

एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.

ऊपर लिखित  जजमेंट  (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.

3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.

4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.

5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.

कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.

कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है. 

मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके  और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो. 

6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.

नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं

Wednesday 12 August 2015

मुझे प्रधान मंत्री बना दे रे...ओ भैया दीवाने

मुझे कोई कह रहा था कि मुझे छोटे-मोटे  चुनाव जीतने चाहिए पहले, फिर प्रधान मंत्री  पद तक की सोचनी चाहिए.

ठीक है  यार, जहाँ सुई का काम हो,  वहां तलवार नहीं चलानी चाहिए
जहाँ बन्दूक का काम हो, वहां तोप नहीं चलानी चाहिए

लेकिन इससे उल्टा भी तो सही है, आप तलवार से सुई का काम लोगे तो वो भी तो गलत होगा, आप तोप से बन्दूक का काम लोगे तो वो भी तो सही नहीं होगा

हम तोप हैं भाई जी, इंडिया की होप हैं 

वैसे मैंने सुना है भारत में चुनाव हारे हुए लोग भी मंत्री वन्त्री बन जाया करते हैं और बिना चुनाव लड़े भी  प्रधान संत्री मंत्री 

मैं तो फिर भी प्रधानमंत्री पद की  दावेदारी बाकायदा ठोक रहा हूँ 

हूँ कौन भाई मैं? मैं आप हूँ मित्र, आप.

लोक तंत्र है न भाई...लोगों का तंत्र...हम लोगों का तन्त्र 
ऐसा तन्त्र जिसमें कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता हो 

तो फिर मैं क्यों नहीं?

इस “मैं” में आप खुद को देखिये, खोजिये, खो मत  जईये , खोजिये

डरपोक धर्म

जिस तरह से किसी को मंदिर मस्ज़िद में दिन रात यह कहने का हक़ है कि भगवान, अल्लाह, गॉड ऐसा है, वैसा है...... उसके अवतार, उसके पैगम्बर ये  हैं, वे हैं, उसी तरह से किसी को भी यह कहने का हक़ है कि वो इन सब बातों को गलत मानता है.....और उसको हक़ है यह  कहने  का  कि  उसकी नज़र में सही क्या है......

सेकुलरिज्म का और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का मतलब यही है........इसमें तथाकथित मदिरवाद, मस्ज़िदवाद गुरुद्वारावाद की यदि छूट है तो इसमें इन सब को न मानने की भी छूट है......आप भगवान, अल्लाह, दीन, धर्म, मज़हब के बारे में अपना मत रख सकते हैं.

आप किसी भी चली आ रही परिपाटी को "हाँ" कर सकते हैं और मैं न कर सकता हूँ......आप उसके समर्थन में खड़े हो सकते हैं.....मैं उसके विरोध में खड़ा हो सकता हूँ.....आपके हिसाब से हिन्दू या मुस्लिम या ईसाई जीवन पद्धति सही हो सकती है, मेरे हिसाब से कोई और जीवन पद्धति .....आप मेरी विचारधारा को गलत कह सकते हाँ, मैं आपकी विचार धारा को....इसमें तकलीफ क्या है?

लेकिन तकलीफ है, तथा कथित धार्मिक को बड़ी तकलीफ है?

उसे बड़ा डर है....सदियों से जमी दुकानदारी गिर न जाए.......कहीं मंदिर मस्ज़िद ध्वस्त न हो जाएं...इसलिए तमाम तरह के तर्क घड़े जाते हैं.

किसी धर्म के खिलाफ मत बोलो? अटैक मत करो... तुम्हारा धर्म जो अटैक करता है हर रोज़ हमारी विचारधारा पर...हर रोज़ मंदिर से तुम चीखते हो, भगवान ऐसा है, वैसा है....वो जो अटैक करता है  तुम्हारा पंडित, वो? 

मुझे कहते  रहेंगे कि यदि मैंने अलां धर्म में से कुछ गलत देख लिख दिया तो दूसरे धर्म के विषय में क्यों नहीं लिखा.........असल मतलब बस इतना है कि  किसी तरह से अपना धंधा बंद न हो जाए...जो मैंने लिखा उसकी ठीक गलत की तहकीकात तो करनी नहीं है? उसके विषय में कोई खोजबीन नहीं करनी है.....उसमें तथ्य कितना है वो तो देखना  नहीं है ....अपने धार्मिक ग्रन्थ पलट कर देख लें ...फिर अपनी बुद्धि पलट कर देख लें ......न न...वो सब नहीं करना है......मेरे धर्म पर अटैक कयों किया? 

अटैक तब होता है जब तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थ में जो लिखा है उससे कोई सन्दर्भ लिए बिना ही कोई बात कही जाए......वहां लिखे शब्द भी मेरे नहीं होते....और कई बार तो व्याख्या भी मेरी नहीं होती, फिर भी तकलीफ है....फिर भी इनको लगता है कि अटैक हो गया.

मैंने लिखा कि वाल्मीकि रामायण में शबरी के जूठे बेर खाने का कोई किस्सा नहीं है.....इसमें अटैक हो गया.....किताब उठा कर देख लो....यदि मैं सही हूँ तो तुम्हें तो मुझे धन्यवाद देना चाहिए कि मैंने एक नामालूम जानकारी सामने ला कर रख दी.....एक झूठ का पर्दाफाश किया.नहीं?लेकिन यह अटैक है...यह इनके धर्म पर अटैक है...यह धर्म है या झूठों का पुलिंदा?

और अब यदि व्याख्या मैं कर दूं अपने हिसाब से तो और भी परेशानी है ......ये लोग ...ये मुल्ले मौलवी, ये पोंगे पंडित ...ये व्याख्या करते रहें दिन रात.....अपने हिसाब से समझाते रहें ...किताबों में लिखे का मतलब....मैंने समझा दिया अपने गणित से तो तकलीफ हो गई.

बहुत डर है इनको........

डरो मत भाई...स्वागत करो.......यदि कोई आपकी किताबों पर दिमाग लगाना चाहता है तो लगाने दो 

जिसे जो ठीक लगता हो, उसे मानने दो.

दूसरे के धर्म को गलत साबित करने से तुम्हारा धर्म कैसे सही हो जायेगा?

और जब तुम यह कहते हो कि दूसरे के धर्म पर कमेंट करो.....मात्र मेरे ही धर्म पर क्यूँ...जब तुम यह कहते हो कि यदि दलेरी है तो फिर दूसरे धर्म पर बात करो, इस धर्म पर करो, उस धर्म पर करो...तो तुम्हारी कायरता साफ़ दीखती है....तुम इतना डरे हो कि तुम चाहते ही नहीं कोई भी  तुम्हारे धर्म की छानबीन करे.........तुम्हारी  इच्छा मात्र इतनी है कि किसी भी तरह से तुम्हारी दूकान जमी रहे.....कहीं लोग सवाल न उठाने लगें...कहें लोग अपना दिमाग प्रयोग न करने लगें ...बस

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THREE IMPORTANT WORDS

There are 3 words in English language.

1) Proactive.
2) Active
3) Reactive

These are not merely words but life philosophies. I explain.

1) Proactive is an individual who gets every bit of his car up-to-date. He will timely get air pressure, balancing, alignment of tyres checked & corrected. He will get brake oil, engine oil, gear oil changed/ fulfilled time to time. He will get his car thoroughly serviced on-time. 

2) Active is an individual who gets his car repaired  on slight recommendation of the mechanic.

3) And  reactive is an individual who gets his car repaired after meeting with an accident due to some malfunctioning of the same. In-fact the word re-pair was meant for such an individual. His vehicle gets  'im-paired', so had to be 're-paired'.

Which one of these you are, now find out.

Namas- car....Copy-right

गुरु शिष्य सम्बन्ध — कुछ अनछूए पहलु

शिष्य  गुरु को माफ़ नहीं करते...........जीसस को जुदास ने बेचा था, उनके परम शिष्यों में से एक था......ओशो का अमेरिका स्थित कम्यून  जो नष्ट हुआ उसमें मा शीला का बड़ा हाथ था....... उनकी सबसे प्रिय शिष्या थी

अक्सर आप देखते हैं कि आप किसी को कोई काम सिखाओ ...वो आप ही के सामने अपनी दूकान सजा कर बैठ जाता है........इसलिए तो सयाने व्यापारी  अपने कर्मचारियों के लिए अलग केबिन बनाते है.....खुद से दूर रखते हैं........अपने कारोबार में जितना पर्दा रख सकते हैं, रखते हैं.

गुरु भी समझते हैं इस बात को....वो अक्सर शिष्यों को खूब घिसते हैं, बेंतेहा पिसते हैं ..........कभी कार मिस्त्री के पास काम करने वाले लड़कों को देखो...वो उस्ताद की मार भी खाते हैं और गाली भी और गधों की तरह काम भी करते हैं........उनको काम जो सीखना है और गुरु भी गुरु घंटाल है, उसे भी पता है कि जितना काम ले सकूं, ले लूं.........खुर्राट वकील के पास काम करने वाले नए नए वकीलों को देखो.....उनसे मजदूरों की तरह काम लिया जाता है,.... निपट मजदूरी.....सालों घिसा जाता है उनको

ऑस्कर वाइल्ड मुझे बहुत प्रिय हैं...... पता नहीं मेरे बाल उनसे कुछ मेल खाते हैं इसलिए या ख्याल ......वो एक जगह कहते हैं कि कोई भी बेहतरीन  काम बिना सजा पाए रहता नहीं........No good deed remains unpunished.....आप किसी को कुछ सिखाओ ....वो आपको माफ कर दे ऐसा होना बहुत मुश्किल है.....जिसे आप कुछ सिखाओ उसका ईगो...उसका अभिमान  आहत हो जाता है...आप उससे ज़्यादा कैसे जानते हैं........हो कौन आप...ठीक है वक्त आने पर आपको औकात दिखा दी जायेगी.....

पढ़ा था कहीं कि पैसे से सक्षम गुरु भी भिक्षा मांगते हैं.....असली गुरु....शिक्षा देते हैं लेकिन फिर साथ में भिक्षा भी मांगते हैं....भिक्षा इसलिए कि जिसे शिक्षा दी गयी है वो जब भिक्षा दे तो उसे लगे कि उसने भी कुछ दिया है बदले में...शिक्षा यूँ ही नहीं ली.........आप देखिये न   भिक्षा और शिक्षा  दोनों शब्द कितने करीब  हैं...सहोदर 

सच बात यह है कि आप कभी किसी ढंग की शिक्षा की कीमत चुका ही नहीं सकते....आप जो भी चुकाते हैं वो आपकी चुकाने की सीमा है, न कि उस शिक्षा की कीमत......मिसाल के लिए जिसने भी बल्ब दिया दुनिया को आप उसकी देन की कीमत कैसे चुकायेंगे...सदियों सदियों नहीं चुका सकते,,,,,,जिसने दुनिया  को आयुर्वेद  दिया उसकी कीमत  कैसे चुकायेंगे .....आप दवा की   कीमत  दे सकते  हैं, लेकिन उस के पीछे  के ज्ञान की कीमत कैसे चुकायेंगे? सही शिक्षा  बेशकीमती है. .

मैं तो गुरु शिष्य सम्बन्धों को पारम्परिक ढंग से नहीं मानता...मेरा मानना है कि हर व्यक्ति गुरु है कहीं, तो कहीं शिष्य है......बहुत लोगों से मैंने सीखा और बहुतों ने मुझ से सीखा....पहले तो लोग मानने को ही तैयार नहीं होते कि उन्होंने आपसे कुछ सीखा है....क्रेडिट देने में ही जान निकल जाती है....यहीं फेसबुक पर ही देख लीजिये......मेरा लिखा अक्सर चुराते हैं और यदि मना करूं तो मुझे ही गरियाते हैं.....क्रेडिट देकर राज़ी नहीं....जो लोग मान भी लेते हैं कि मुझ से कुछ सीखा है उनमें से कुछ के मानने में भी मानने जैसा कुछ है नहीं, वो वक्त पड़ने पर मुझ पर तीर चलाने से नहीं चूकते ......

एक लड़का  झुग्गियों में रहता था.....सालों पहले की बात बता रहा हूँ...मेरा दफ्तर था प्रॉपर्टी का......उसे काम पर लगा लिया....कुछ नहीं आता था उसे....साथ रह रह बहुत कुछ सीख गया....आज भी कहता है कि मुझ से सीखा है बहुत कुछ.....लेकिन पीछे उसके ज़रिये कुछ माल खरीदना था.....पट्ठा कमीशन मारने से नहीं चूका......कमीशन लेना गलत नहीं लेकिन उसे मैं अलग से उसके समय की कीमत दे रहा था इसलिए गलत था......महान शिष्य.

एक और मित्रनुमा शत्रु.....दोस्त की खाल में दुश्मन......बहुत कुछ मुझ से सीखा उसने.........जूतों के छोटे मोटे काम में था.......प्रॉपर्टी में आ गया ....आज तक खूब जमा हुआ है लेकिन पीठ पीछे कभी  मेरे खिलाफ  लात या बात चलाने में नहीं चूका...महान शिष्य.

जब भी कोई मुझे कहता है कि उसने मुझ से बहुत कुछ सीखा है, जीवन बदल  गया है, दशा और दिशा सुधर गयी है,  मेरा दिल दहल जाता है, पसीने छूट जाते हैं, पैर काँप जाते हैं, नज़र धुंधला जाती है, चींटी भी हाथी नज़र आती है  

मैंने ही लिखा था कहीं, “No Guru is real Guru until half the world wants him dead.”कोई गुरु महान नहीं जब तक आधी दुनिया उसकी मौत  न चाहती हो.



सिखाने की कीमत चुकानी पड़ती है बाबू मोशाय........

 गुरु शिष्य परम्परा बहुत महान मानी जाती है, मैं नहीं कहता कि जो मैंने लिखा है  वो ही एक मात्र सच है.....लेकिन वो भी एक सच है ....  यह थोड़ा वो पहलु है जो कम ही दीखता है, दिखाया जाता है,  सो बन्दा हाज़िर है, अपने फन के साथ, अपने ज़हर उगलते फन के साथ  

नमस्कार.....तुषार कोस्मिक.....कॉपी राईट