इस भाग में मैं आपको अपने-आपके जीवन के इर्द गिर्द घटने वाले, घटने वाले कानूनी मसलों और मिसलों और मसालों की बात करूंगा.
1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब चला नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.
आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का. कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे.
दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का.
कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.
पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के.
खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है?
2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले.
उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.
और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.
मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है.
एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.
ऊपर लिखित जजमेंट (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.
3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.
4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.
5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.
कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.
कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है.
मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो.
6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.
नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं
1) शायद याद हो आपको, एक दौर था दिल्ली में जगह जगह लाटरी के स्टाल हुआ करते थे. लोग सब धंधे छोड़ छाड़ लाटरी में लिप्त थे. जिनके पास दुकानें थीं उन्होंने, अपने चलते चलाते धंधे बंद कर अपनी जगह लाटरी के काउंटर वालों को किराए पर देनी शुरू कर दी थीं. लोग सारा सारा दिन लाटरी खेलते थे. जमघट लगा रहता था. कईयों के घर बर्बाद हो गए. फिर कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली. सरकार के कान पर जूं सरक गई. लाटरी बंद हो गई दिल्ली में. लेकिन हरियाणा में चलती रही. लोग बॉर्डर पार कर लाटरी खेलने जाने लगे लेकिन वो सब चला नहीं ज़्यादा देर. उसके बाद वो बुखार उतर गया. यह एक तल्ख़ मिसाल है कि हमारी सरकारें किस कदर बेवकूफ होती हें.
आप सोच सकते हैं कि मैं यह गुज़रा दौर क्यों याद कर करवा रहा हूँ. वजह है. वजह यह है कि लाटरी आज भी जिंदा है. जैसे रावण के सर काटो तो फिर जुड़ जाते कहे जाते हैं. जैसे रक्तबीज. सर काटो तो और पैदा हो जाते हैं.आज लाटरी ने शक्ल बदल ली है. मुखौटा लगा लिया है निवेश स्कीम का. कोई एक व्यक्ति कमिटी चलाता है. पैसे उसके पास हर माह इकट्ठे होते हैं. फिर वो सब सदस्यों की पर्चियां/ टोकन डालता है और जिसका टोकन निकल आये उसे एक मुश्त धन राशि दी जाती है, या मोटर साइकिल या फिर फ्रिज या कुछ और. इसके स्वरूप थोड़े भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मामला जारी है. पश्चिम विहार दिल्ली के टॉप मोस्ट इलाकों में से तो नहीं है लेकिन फिर भी अच्छे इलाकों में गिना जाता है. हैरान हो गया मैं पिछले हफ्ते यहाँ के अग्रसेन भवन में खुले आम यह जूआ चलते देख कर. कोई दो तीन हज़ार लोग. खुले आम टोकन निकाले जा रहे थे.
दो कानून भंग होते हैं एक तो लाटरी निषेध का दूसरा पब्लिक फण्ड लिए जाने का.
कोई भी व्यक्ति या संस्था इस तरह से पब्लिक से पैसा नहीं ले सकता. यह मना है. आप अपने दोस्त से, मित्र से पैसे का ले दे कर सकते हैं लेकिन पैसे के ले और दे को कमर्शियल ढंग से नहीं कर सकते. उसके लिए NBFC के टाइटल के अंतर्गत आपके पास मंजूरी होना ज़रूरी है. हालाँकि मैं इस कानून से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ चूंकि पैसे को पब्लिक से लेने के नियम तो कड़े होने चाहिए, वो बात ठीक है, चूँकि बहुत सी असली नकली कम्पनी लोगों से पैसा इ्कट्ठा कर चम्पत हो जाती हैं.
पीछे एक दौर रहा जब बहुत सी प्लांटेशन कम्पनी कुकुरमुत्ते की तरह उग आई थीं. इन्होने लोगों को सपने दिखाए कि उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पता नहीं कहाँ कहाँ इन्होने ज़मीन ले रखी थी, वहां सफेदे के पेड़ लगायेंगे. और फिर कुछ ही सालों बाद लोगों के पैसे कई गुणा कर के वापिस देंगे. इस तरह की बहुत सी स्कीम पश्चिमी मुल्कों में भी चलती रही हैं और वहां इनको PONZI SCHEME कहा जाता है. इसी का बाद में एक स्वरूप MLM (Multi Level Company) कम्पनियां थीं. खैर न तो प्लांटेशन कम्पनियों ने कुछ दिया लोगों को और न ही MLM कम्पनियों ने....सिवा ह्रदयघात के. तन मन और धन के नुक्सान के.
खैर, मेरा ख्याल है कि पैसा लेने के नियम तो कड़े रखना सही बात है लेकिन पैसा देने के नियम इतने कड़े नहीं होने चाहियें. यदि कोई अपना पैसा किसी को भी ब्याज पर देना चाहता है तो उसमें सरकार काहे का पंगा डालती है. आखिर बैंक भी तो यही काम करते हैं. NBFC (Non Banking Finance Company) भी यही करती हैं. बैंक लोगों का पैसा ही तो घुमाता है. बैंक के पास सिवा ब्याज के कौन सा धंधा है? NBFC भी सिवा ब्याज के कौन सा धंधा करती है?
2) अगला कानूनी मुद्दा जो आपकी नज़र में लाना चाहता हूँ वो है दिल्ली में चलने वाले "रेंट अग्रीमेंट" का. कानून यह कहता है कि ग्यारह महीने तक का अग्रीमेंट आप बिना रजिस्टर कराये मात्र पचास रूपये के स्टाम्प पेपर पर कर सकते हैं लेकिन यदि ग्यारह माह से ज़्यादा का अग्रीमेंट करते हैं तो फिर इसे रजिस्टर कराया जाना लाज़िमी है. इस क्लॉज़ को मालिकों ने इस तरह से लिया कि वो अपने मकान दूकान मात्र ग्यारह माह के लिए ही देने लगे. ग्यारह माह का ही बैरियर बना लिया गया. अब ग्यारह माह में किरायेदार को अपना सामान लाने ले जाने की सर दर्दी करनी होती है. उसका खर्च वहन करना होता है. अपने बच्चों के स्कूल आदि में दाखिला कराना होता है. और अपने राशन कार्ड, वोटर कार्ड आदि को बदलवाना होता है. वो यह सब काम अभी कर ही चुकता है कि ग्यारह माह पूरे हो जाते हैंऔर उस पर जगह छोड़ने का डंडा सवार हो जाता है. अब वो फिर से नई जगह तलाश करे. नए सिरे से प्रॉपर्टी डीलर को कमिशन दे, बस इस चक्रव्यूह में फंस जाता है. इस में प्रॉपर्टी डीलर को सबसे ज़्यादा फायदा है. वो इसलिए कि हर नये किरायेदार से वो कमीशन लेता है, उसकी तो चांदी है यदि रोज़ किरायेदार बदले.
उस पर तुर्रा यह है कि जो अग्रीमेंट बनाये जाते हैं, वो पूरी तरफ से एक तरफ़ा. किरायेदार को कभी भी सड़क पर खड़ा किया जा सकता है. अग्रीमेंट में एक क्लॉज़ लिखा जाता है कि एक महीने के नोटिस पर किरायेदार कभी भी खाली कर सकता है और मकान मालिक कभी भी खाली करवा सकता है. इस क्लॉज़ पर कोई किरायेदार ध्यान नहीं देता. उसे लगता है कि उसके साथ ग्यारह माह का अग्रीमेंट किया जा रहा है और ग्यारह माह तक तो उसे कोई हिला नहीं पायेगा. लेकिन उसे पता ही नहीं होता कि अग्रीमेंट मात्र एक माह का है. उसे कभी भी एक महीने के नोटिस पर बाहर निकाला जा सकता है. यह ना-इंसाफी है. ऊपर से कोढ़ में पड़े खाज की तरह इस अग्रीमेंट के आधे पैसे भी किरायेदार से लिए जाते हैं. चूँकि उसे जगह किराए पर लेनी होती है सो वो सब बर्दाश्त करता है.
और भी बड़ी ना-इंसाफी यह कि दिल्ली में प्रॉपर्टी के रेट पिछले तीन साल में आधे रह गए हैं और किराए भी गिरे हैं लेकिन मकान-दूकान मालिक लोग हर ग्यारह माह में किराया दस प्रतिशत बढाये जाने का क्लॉज़ अग्रीमेंट में डाले रहते हैं. चूँकि किरायेदार को अपना सब ताम झाम उखाड़ना बहुत भारी पड़ता है सो वो यह सब बर्दाश्त करता है.
मैंने अपनी जगह किराए पर दी भी हैं और दूसरों की जगह किराए पर ली भी हैं. मेरा मानना है कि हमारे मुल्क में दोनों तरफ से ना-इन्साफियाँ हुई हैं और हो रही हैं. आपको पुरानी दिल्ली में हजारों लाखों घर दूकान ऐसे मिल जायेंगे जो किरायेदारों के होकर रह गए और लाखों लोग आज ऐसे मिल जायेंगे, नए किरायेदार, जो नए अग्रीमेंट का शिकार हैं. यदि वो एक अति है तो यह भी एक अति है.
एक बैलेंस की ज़रुरत है. मेरे ख्याल से नया किरायेदार यदि किराया समय पर देता है और किराया भी वाजिब देता है तो उसे निश्चित ही तीन से पांच साल तक एक जगह पर टिके रहने का हक़ दिया जाना चाहिए और यदि उससे जगह खाली भी करानी हो तो कम से कम छह माह का समय दिया जाना चाहिए. यह ग्यारह माह की नौटंकी तुरत खत्म होनी चाहिए. और इसे खत्म करने का ही प्रयास किया भी गया है. सुप्रीम कोर्ट ने सन २०११ में कुछ नियम दिए थे कि कोई किरायेदार से पांच साल तक जगह खाली नहीं कराई जा सकती यदि वो किराया, बिजली पानी और प्रॉपर्टी टैक्स आदि सही समय पर भरता है तो. यह फैसला मेरी नज़र में बहुत हद तक सही था.इसमें दो बात मुझे नहीं जंची. पहली प्रॉपर्टी टैक्स किरायेदार क्यूँ भरे? दूसरी किराया अग्रीमेंट के तहत बढाये जा सकता है, ऐसा माना गया. अब किराए पर लेते समय किरायेदार की मजबूरी होती है, उसे सब बात मंज़ूर करनी ही होती हैं. जैसा मैंने ऊपर लिखा कि उससे तो ग्यारह माह का अग्रीमंट कह कर एक माह पर खाली करने वाली क्लॉज़ भी लिखा ली जाती है, तो उस समय उसकी मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है. सो मेरा मानना है कि यदि किरायेदार किराया और बिजली पानी समय पर चुकता करता है तो उसे तीन से पांच साल तक रहने दिया जाना चाहिए और किराया तीन साल से पहले नहीं बढाया जाना चाहिए. तीन साल बाद दस प्रतिशत किराया बढाया जा सकता है.
ऊपर लिखित जजमेंट (Judgement ---Rent Paying Tenants cannot be evicted before 5 years--- C.A. No.__@ SLP(C)No. 6319 of 2007/ http://www.lawyersclubindia.com/forum/files/120292_185668_36_hon_ble_sc_judgment___guidelines.pdf ) को आये लगभग चार साल बीत गए हैं लेकिन आज भी इसका नामलेवा कोई नहीं है. हमारे समाज को मकान दूकान किराए पर देने में और एक टेंट किराए पर देने में फर्क को समझना चाहिए.
3) आपको पता ही हो शायद हमारे यहाँ पर प्रॉपर्टी की खरीद फरोख्त की रजिस्ट्री पर सरकार छह से आठ प्रतिशत टैक्स लेती है. यह सीधी सीधी लूट है. कोई जायदाद चाहे बीस लाख की हो, चाहे बीस करोड़ की, सरकार को उसके रजिस्ट्री पर एक जैसा ही खर्च पड़ता है फिर यह कैसी लूट? और मात्र रिकॉर्ड रखने की इतनी फीस? यह ना-इंसाफी है. आज जब सब कुछ डिजिटल किया जा सकता है तो इस तरह की स्टाम्प ड्यूटी लिया जाना सरासर डकैती है. सरकार कह सकती है कि उसका खर्च आता है यह सब सुविधा देने में, लेकिन आप देखेंगे कि सरकार फ़िज़ूल खर्च कर रही है. अभी पिछले कुछ सालों में रजिस्ट्री ऑफिस पञ्च तारा होटल जैसे बना दिए गए हैं, कॉर्पोरेट स्टाइल. इधर प्रॉपर्टी के रेट औंधे मुंह गिरे हैं अब वहां इक्का दुक्का रिजिस्टरी होती हैं.....सब फ़िज़ूल खर्च.
4) कभी बिल देखें हैं बिजली पानी के. निश्चित तारिख तक न भरो तो आसमानी जुर्माना. अब किसने हक़ दिया इनको कि इस तरह का जुर्माना वसूला जा सकता है. ठीक है कोई लेट हो गया तो उससे जुर्माना लो लेकिन किस हद तक? असल में जहाँ कम्पनी और सरकार शब्द आ जाता है, वहां अधिकांश व्यक्तियों को लगता है कि जैसे एक दीवार से सर टकराना है, सामने कोई इंसान तो है नहीं, जिससे लड़ा जाए. खैर, बता दूं कि कानून की नज़र में कम्पनी, सरकार और व्यक्ति में कोई भेद नहीं.
5) बयाने पर आप बयाने का लेन देन नहीं कर सकते, जब तक आप किसी प्रॉपर्टी के मालिक नहीं हैं, आप कैसे उसे बेचने का वायदा कर सकते हैं? क्या आप कोई सरकरी पार्क बेच सकते हैं? नहीं न. समझ लीजिये कि किसी को बयाना देने से आप मालिक नहीं बन जाते. और जब तक आप मालिक नहीं तो आप आगे बयाना ले नहीं सकते.
कोई भी अग्रीमेंट जब तक कानून संगत न हो, उसका कोई अर्थ नहीं.
कौरव पांडव जूआ खेलते हैं और एक अग्रीमेंट करते हैं कि द्रौपदी कैसे हारी या जीती जा सकती है. उस अग्रीमेंट पर भीष्म पितामह, कर्ण, कौरव, पांडव सबके दस्तखत हैं. मामला कोर्ट पहुँचता है....क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा. यह कोई अग्रीमेंट करने का है.
मैं और आप कनपटी पर भरी गन चलाने का खेल खेलना चाहते हैं. एक अग्रीमेंट बनाते हैं. आप और मैं दस्तखत कर चुके और बहुत से लोग गवाही भी. अब आपने गोली चलाई और आप बच गए. मेरी बारी आई, मैं मुकर गया. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. क्या लगता है आपको? क्या होगा? कोर्ट सबको मुर्गा बना देगा और अंडा देने को विवश भी करेगा. अग्रीमेंट का मतलब यह नहीं कि कैसा भी अग्रीमेंट कर लो.
6) मैं वकील नहीं हूँ. लेकिन कानून मात्र वकील ही समझे यह ज़रूरी नहीं. मेरी समझ गलत भी हो सकती है, सो कोई दावा नहीं है. लेकिन सही होने की सम्भावना ज़्यादा होगी ऐसा मेरा मानना है. यह कुछ मुद्दे सामने लाया हूँ. ऐसे अनेक मुद्दे हो सकते हैं. कुछ आपकी नज़र में भी हो सकते हैं, सांझे कीजियेगा, मिल कर विचार करेंगे. प्रचार करेंगे और कहीं कहीं हाथ दो चार भी करेंगे.
नमस्कार.....हमेशा की तरह कॉपी राईट......चुराएं न, साझा कर सकते हैं
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