कानूनी दांव पेच—भाग 3

बड़े जजों के नाम के आगे जस्टिस लिखा जाता है. जैसे जस्टिस ढींगरा, जस्टिस काटजू . बकवास.

उपहार काण्ड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितना न्याय हुआ है, आप सबके सामने है. कितने ही लोग मारे गए और मालिकों को मात्र जुर्माना. वो भी ऐसा कि उनके कान पर जूं न रेंगे. अबे, यदि वो दोषी हैं तो जेल भेजो  और नहीं हैं तो छोड़ दो, यह पैसे लेने का क्या ड्रामा है? लेकिन दोषी तो वो हैं, तभी तो ज़ुर्माना किया है. हाँ, अमीर हैं सो उनकी सजा को जुर्माने तक  ही सीमित किया गया है. बच्चा  भी समझता है सिवा सुप्रीम कोर्ट के. 

अमीर हो तो पैसे लेकर छोड़ दो और गरीब हो तो लटका दो.....यह इन्साफ है या रिश्वतखोरी?

पीछे सुना है कि भारतीय जज समाज की सामूहिक चेतना (Collective Consciousness of the society) की संतुष्टि के हिसाब से फैसले देने लगे हैं. लानत है. फैसले कानून के हिसाब से, तथ्यों और तर्कों के हिसाब से दिए जाने चाहिए या समाज क्या सोचता समझता है उसके हिसाब से? 

समाज ने तो सुकरात को ज़हर पिलवा दिया, जीसस को सूली पर टंगवा दिया, जॉन ऑफ़ आर्क को जिंदा जलवा दिया, सब फैसले उस समय की अदालतों ने दिए थे. अदालतों को समाज ने प्रयोग किया, दुष्प्रयोग किया. तो आज भी क्या वैसा ही होना चाहिए? हमारे समय अदालतों को समझना होगा कि कल उन पर भी वोही लानतें भेजी जायेंगे जैसे आज मैं सुकरात, जीसस या जॉन ऑफ़ आर्क के समय की अदालतों पर भेज रहा हूँ.

हमारी अदालतों के फैसलों पर भविष्य कैसे फैसले सुनाएगा, मुझे तो आज ही पता है. पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं और अदालतों के रंग फैसलों को टालने में ही दिख जाते हैं  

सही कहा जाता है कि जज सिर्फ फैसले करता है, न्याय नहीं.

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