Friday 8 December 2017

सड़क-नामा

भारत में सड़क सड़क नहीं है...भसड़ है.
यह घर है, दुकान है. इसे घेरना बहुत ही आसान है. इसपे सबका हक़ है, बस पैदल चलने वाले को छोड़ के. उसके लिए फुटपाथ जो था, वो अब दुकानें बना कर आबंटित कर दिया गया है. उन दुकानों के आगे कारों की कतार होती है. पदयात्री सड़क के बीचो-बीच जान हथेली पर लेकर चलता जाता है. रोम का ग्लैडिएटर. कहीं पढ़ा था कि एक होता है ‘राईट टू वाक (Right to walk)’, पैदल चलने का हक़, कानूनी हक़. बताओ, पैदल चलने का भी कोई कानूनन हक़ होता है? मतलब अगर कानून आपको यह हक़ न दे तो आप पैदल भी नहीं चल सकते. खैर, एक है पैदल चलने का हक़ ‘राईट टू वाक (Right to walk)’ और दूसरा है ‘राईट टू अर्न (Right to earn)’ यानि कि कमाने का हक़. जब इन दोनों हकों में कानूनी टकराव हुआ तो कोर्ट ने ‘राईट टू अर्न’ को तरजीह देते हुए फुटपाथ पर रेहड़ी-पटड़ी लगाने वालों को टेम्पररी जगहें दे दीं. तह-बज़ारी. अब वो अस्थाई जगह, स्थाई दुकानों को भी मात करती हैं. जिनको दीं थीं, उन में से शायद आधे भी खुद इस्तेमाल नहीं करते. किराए पर दे नहीं सकते कानूनन, भला फुटपाथ भी किराए पर दिया जा सकता है कोई? लेकिन आधे लोग किराया खाते हैं उन जगहों का. एक किरायेदार को मैं भड़का रहा था, "कितना किराया देते हो?" "छह हज़ार रुपये महीना." "क्यों देते हो? मत दो." "ऐसा कैसे कर सकते हैं, गुडविल खराब होगी. कल कोई हमें दुबारा दुकान किराए पर नहीं देगा." "अरे, दुबारा दुकान किराए पर लेने की नौबत तब आयेगी न जब मालिक तुम से यह जगह छुड़वा पायेगा. जाने दो उसे कोर्ट. यह जगह उसके बाप की ज़र-खरीद नहीं है. सड़क है." वो कंफ्यूजिया गया और मैं मन ही मन मुस्किया गया.
सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर पे भी लोग सोते हैं और वहां भी कहीं-कहीं लोगों ने घर बसा रखे हैं. अगर कोई इन सोये लोगों पे कार चढ़ा दे तो मुझे समझ ही नहीं आता कि गलती कार वाले की है या डिवाइडर-फुटपाथ पर सोने वाले की. न तो फुटपाथ सोने के लिए बना था और न ही कार चलाने के लिए. शायद दोनों की ही बराबर गलती होती है. खैर. कोर्ट में केस चलता रहता है और नतीजा ढाक के तीन पात निकलता है. हाँ, 'जॉली एल.एल. बी.' जैसी फिल्म ज़रूर बन जाती है, इस विषय पर.
सड़क पार करने के लिए जो सब-वे बनाये जाते हैं, वो ज़्यादातर प्रयोग नहीं होते चूँकि उनको भिखमंगों और नशेड़ियों ने अपना ठिकाना बना रखा है. वहां दिन में भी रात जैसा अन्धेरा होता है. खैर, बनाने थे बना दिए, पैसे खाने थे खा लिए. कौन परवा करता है कि सही बने या नहीं, प्रयोग हो रहे हैं कि नहीं और अगर नहीं हो रहे तो क्यों नहीं हो रहे? और अगर हो रहे हैं तो सही से प्रयोग हो पा रहे हैं कि नहीं?
राजू भाई के साथ पंजाबी बाग, क्लब रोड से निकल रहे थे. मैंने कहा, "भाई, अब तो रोहतक रोड़ से निकलना चाहिए, क्लब रोड पे तो अब दोनों तरफ बहुत गाड़ियाँ खड़ी होती हैं, निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है."

वो बोले, "जब सड़क के दोनों और दूकानें खुल जायेंगी तो चलने की जगह कहाँ बचेगी? सड़क चलने के लिए है या बाज़ार बनाने के लिए."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं वहां. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. पीछे नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 3-4 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. रघुबीर नगर, दिल्ली, 857 का बस स्टैंड. वहां एक मस्जिद भी है. इस के आगे दोनों तरफ कुल मिला कर शायद 200 फुट चौड़ी सड़क होगी. लेकिन जुम्मे को आपको वहां से निकलना भारी हो जाएगा चूँकि मुस्लिम एक तरफ़ का रस्ता बंद कर वहां नमाज़ पढ़ते हैं. अभी दो-तीन दिन पहले ही मैं रघुबीर नगर घोड़े वाला मन्दिर से गुज़र रहा था. भगवे झंडे, ऊपर ॐ का छापा. मोटर साइकिल से रस्ता घेर कर सरकते सैंकड़ों लोग. मैंने कार में से ही पूछा, “ये क्या कर रहे हो भाई?” “शौर्य दिवस मना रहे हैं. बाबरी मस्जिद तोड़ी थी न.” पूरा जुलुस था. गाजा-बाजा. फोटो-सेल्फी लेते लोग. नाचते-शोर मचाते लोग. नारे लगाते लोग. मूर्ख-पग्गल लोग. जैसे-तैसे निकाली कार. कांवड़ के दिनों में पूरी दिल्ली की सड़कें शिव की महिमा गाती हैं “बम बम. बोल बम. बोल भोले बम बम.” बचते-बचाते हम निकलते हैं. कहीं किसी 'भोले' को टच भी हो गए तो वो सारा भोलापन भूल जाता है और तांडव मचा देता है, तीसरा नेत्र खोल देता है. तौबा. धार्मिक लोग जगह-जगह इन भोलों के खाने-पीने का इन्तेजाम करते हैं और मेरे जैसे अधर्मी-पापी इन सब को मन ही मन कोसते रहते हैं. सिक्ख बन्धु भी कहाँ पीछे हैं? गुरु नानक का जन्म-दिवस था पीछे. तो ख़ूब बाजे-गाजे के साथ शोभा-यात्रा निकाली गई. मज़ाल है कोई और निकल पाया हो सड़क से. फिर सुबह-सवेरे प्रभात-फेरी भी तो निकालते हैं. कोई चार बजे सुबह, अमृत वेले, सड़क पर ढोलकी-छैने बजाते हैं. “मिटी धुंध जग चानन होआ.” मैंने पूछा श्रीमति जी से, “दिन हो गया क्या?” “नहीं, अभी नहीं.” “अबे, फिर ये क्यों गा रहे हैं, मिटी धुंध, जग चानन होआ?” “बस करो, सोये-सोये भी उल्टा ही सोचते हो. सो जाओ.” “सोने दें ये लोग, तब न.” गर्मी में सिक्ख बन्धु सडकों पर ठंडा-मीठा पानी पिलाते हैं. जिनको नहीं प्यास उनको भी पकड़-पकड़ पिलाते हैं. ट्रैफिक रोक-रोक पिलाते हैं. सेवा करते हैं भाई अगले. आपको न करवानी हो लेकिन उनको तो करनी है न. सेवा करेंगे, तभी तो मेवा मिलेगा. आप उनके मेवे में कैसे बाधक हो सकते हैं? क्या कहा? “मीठा ज्यादा डालते हैं और दूध का सिर्फ रंग होता है.” “न. न. अच्छे बच्चे यह सब नोटिस नहीं करते. चुप-चाप गट से पी जाते हैं. प्रसाद है भाई. तुम्हें शुगर है? कोई फर्क नहीं पड़ता. इसमें गुरु साहेब का आशीर्वाद है. पी जाओ. गुरु फ़तेह.” ट्रैफिक-लाइट कुछ लोगों के लिए स्थाई धंधा देती हैं. भिखमंगे कारों के शीशे ऐसे बजाते हैं जैसे वसूली कर रहे हों. हिजड़े ताली बजाते हुए हक़ से मांगते हैं. कितने असली कितने नकली, किसी को नहीं पता. कोई समय था भीख मांगने में भी एक गरिमा थी. “जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला.” लेकिन अब तो भिखारी को दिए बिना आप भला बात भी कैसे कर सकते हो? भीख दया भाव से नहीं, जान छुडाने के लिए देनी पड़ती है. गाड़ी का शीशा साफ़ करता हुआ व्यक्ति पैसे ऐसे मांगेगा जैसे हमने उससे अग्रीमेंट किया हो कि हमारी गाड़ी ट्रैफिक लाइट पर आयेगी और वो शीशा साफ़ करने का नाटक करेगा और हम उसे पैसे निकाल कर देंगे. तौबा! छोटी बच्चियां, कोई 5 से 10 साल की, जिमनास्टिक टाइप का खेला दिखायेंगी और फिर भीख मांगेंगी. मैं सोचता हूँ, “इनके माँ-बाप अगर इनके हितैषी होते तो इनको पैदा ही नहीं करते.” गुब्बारे बेचता बच्चा. आपको नहीं लेने गुब्बारे लेकिन उसे आपसे पैसे लेने ही हैं. वो पहले गुब्बारे लेने का आग्रह करेगा, मना करने पर भीख मांगेगा. कुछ चौक पर इतने ज़्यादा मांगने वाले होते हैं कि बत्ती ग्रीन से रेड करा देते हैं. "ट्रैफिक सिग्नल", यह फिल्म ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगने वालों की ज़िन्दगी दिखाती है. देखने के काबिल है. दारु से धुत लोग अक्सर सडकों पर पसरे दीखते हैं. तीस हज़ारी से वापिस आ रहा था तो सड़क के बीच एक पग्गल अधलेटा देखा. उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा ट्रैफिक से. अपने आप बचते रहो और उसे बचाते रहो. अगर उसे लग गई तो गलती आपकी, आपके बाप की. कुछ अँधेरे मोड़ों पर हिजड़े और लड़कियां खड़े हो ग्राहक ढूंढते हैं. ऐसा कम है, लेकिन है. दिल्ली की सड़कों को नब्बे प्रतिशत कारों ने घेरा होता है. कार चाहे लाखों रुपये की हो लेकिन अक्ल धेले की नहीं होती. कहीं भी गाड़ी खड़ी कर देंगे. मोड़ों पर नहीं खड़ी करनी चाहिए लेकिन वहीं खड़ी करेंगे. होती रहे मुड़ने वाले वाहनों को दिक्कत. सड़क इनकी है, इनके रसूख-दार बाप की है. मज़ाल है किसी की, जो इनको ‘ओये’ भी कह जाये. रसूख-दार बाप. याद आया, वो तो अपने नाबालिग बच्चों को कारें पकड़ा देते हैं. किसी को उड़ा भी देंगे तो क्या फर्क पड़ता है? बाप का पैसा और रसूख किस दिन काम आयेगा? वैसे भी नाबालिग को कहाँ कोई सजा होती है. कुछ महान लोग खटारा ही नहीं, कबाड़ा कारें भी खड़ी रखते हैं. शायद जगह घेरे रखें इसलिए, शायद उनकी लकी कार है वो कबाड़ा इसलिए, शायद वो अक्ल के अंधे हैं इसलिए. पार्किंग के लिए अब कत्ल तक होने लगे हैं. जगह होती नहीं लेकिन जो कार ले आया, वो समझता है कि जब गाड़ी उसने ले ली है तो उसे आपके घर के आगे गाड़ी खड़ी करने का हक़ है. लड़ते रहो आप अब. अब कारें दिल्ली की सड़कों पर चलती नहीं, रेंगती हैं. इंच-इंच. मैं तो चलते-चलते सोता रहता हूँ. सोते-सोते जगता रहता हूँ. किसी को गाड़ी लग जाये तो लोग गन निकाल लेते हैं, निकाल ही नहीं लेते, ठोक भी देते हैं. मैंने अपनी कार से राजस्थान, हिमाचल, उत्तरांचल, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के ट्रिप किये हैं, 15-15 दिन के. मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं, जैसे लोग 3-4 दिन निकाल घूमने जाते हैं. ऐसे क्या घूमना होता है? इत्ता समय तो आने-जाने में ही निकल जाता है. भगे-भगे जाओ और थके-टूटे लौट आओ. न. कम से कम पन्द्रह दिन लो और एक स्टेट घूम लो. अपना यही तरीका रहा. खैर, लम्बी ड्राइव का अपना मज़ा था. उस दौर में हाई-वे पर पंच-तारा किस्म के ढाबे अवतरित नहीं हुए थे. सुविधाओं का अभाव था. मैं अक्सर सोचता, “क्या हर दो-चार किलो-मीटर की दूरी पर पुलिस वैन, एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड, टॉयलेट नहीं होना चाहिए? हाई-वे रात को रोशन नहीं होने चाहियें क्या?” देखता हूँ वो अभी भी नहीं हुआ. बीच-बीच में सड़क से खींच रेप, मर्डर, लूट-पाट की खबरें आती रहतीं हैं. अलबत्ता ढाबे आज बेहतर मिल जाते हैं. लेकिन उनको ढाबा कहना सही नहीं है, वो रेस्तरां हैं. अगर आपको ढाबा ही चाहियें तो जहाँ ट्रक वाले खाते हैं, वहां रुकिए और कीजिये आर्डर दाल फ्राई, मज़ा आ जायेगा. घर से कदम बाहर धरते ही हम कहाँ होते हैं? सड़क पर. और सड़क से कदम बाहर रखते ही हम कहाँ होते हैं? अमूमन घर में. लेकिन हम अपना घर सजा-संवार लेते हैं. सड़क से हमें कोई मतलब ही नहीं. सड़कों को सुधार की आज भी बहुत ज्यादा ज़रूरत है. और सड़कों को ही नहीं सड़क पर चलने वालों को भी सुधार की बहुत-बहुत ज़रूरत है. रोड़-सेंस जीरो है. लोग सड़क को सड़क नहीं समझते, ड्राइंग रूम समझते हैं, जैसे मर्ज़ी चलते-फिरते रहते हैं. आगे वाला बिलकुल सही गाड़ी चला रहा हो, जितना ट्रैफिक की स्पीड हो, उसी स्पीड से गाड़ी चला रहा हो, फिर भी पीछे वाले को सब्र नहीं होता. उसे हॉर्न बजाना है तो बस बजाए जाना है. जन्मसिद्ध अधिकार का उचित प्रयोग! होता रहे आपका ब्लड प्रेशर ऊपर-नीचे. की फरक पैंदा ए? असल में उसे समस्या यह नहीं कि आपकी गाड़ी की स्पीड क्या है, उसे समस्या यह है कि आपकी गाड़ी उसके आगे है ही क्यों. उसका बस चले तो अपनी गाड़ी उड़ा ले या आपकी गाड़ी उड़ा दे. छोटी-मोटी रेड-लाइट पर रुकना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं महान लोग. अगर आपने गाड़ी रोक भी दी तो पीछे वाला आपको हॉर्न मार-मार परेशान करेगा कि क्यों रुके हो, मतलब रेड-लाइट जम्प क्यों नहीं करते? अगर आप ज़ेबरा-क्रासिंग पर रुके हो तो भी पीछे वाले आपको हॉर्न मार-मार अहसास करवा देंगे कि आपको गाड़ी आगे बढ़ानी चाहिए, मतलब रोको भी तो ज़ेबरा-क्रासिंग पार करके. यह तो हाल है. आमने-सामने अड़ जाती हैं कारें, कोई पीछे हटने को राज़ी नहीं, सारा ट्रैफिक जाम कर देते हैं. गाड़ियाँ नहीं इक दूजे के ईगो अड़ जाते हैं कहीं पढ़ा था की एक संकरे पुल पर दो रीछ आमने सामने आ गए. पुल इतना संकरा था कि पीछे तक नहीं जा सकते थे. आधा रस्ता आ चुके थे. नीचे गहरी नदी. लेकिन इनके ईगो नहीं अड़े. रीछ इंसानों से समझ-दार निकले. एक रीछ बैठ गया और दूसरा उसके ऊपर से निकल गया. कितनी समझ-दारी! यहाँ ज़रा सा ट्रैफिक धीमा हो जाये, लोग अपनी साइड छोड़ सामने वाली की साइड में घुस जाते हैं. श्याणे सारे ट्रैफिक की ऐसी-तैसी फेर देते हैं. इंसानों से ज़्यादा समझ-दार तो चींटियां होती हैं, कभी ट्रैफिक जैम में नहीं फंसती.


जो सबसे तेज़ रफ्तार गाड़ियों के लिए लेन होती है, वहां सबसे कम रफ्तार वाले वाहन चलते हैं. मस्त. हाथियों की तरह. बड़े ट्रक. ट्राले. अब आप निकलते रहो, जिधर मर्ज़ी से. यहाँ लेन से कुछ लेना-देना है ही नहीं.

आपने विडियो गेम खेला होगा आपने जिसमें एक कार या मोटर-साईकल होती है आपकी, जिसे आपको तेज़ चलती दूसरी गाड़ियों से बचाना होता है. अब हम सब वो गेम रोज़ खेलते हैं, लेकिन असली. 
पढ़ा था कहीं कि सड़कें युद्ध-स्थल तक तोपें और टैंक आदि लाने-ले जाने के लिए बनाई जातीं थीं, लेकिन आज तो हर सड़क ही अपने आप में युद्ध-स्थल बन चुकी है.लोग सड़कों पर ही लड़ते-मरते हैं. और पढ़ा था कि युद्धों में उतने लोग नहीं मरते जितने सड़क एक्सीडेंटों में मरते हैं. यह बात कितनी सही-गलत है, नहीं पता लेकिन बहुत लोग मरते हैं, ज़ख्मी होते हैं सड़कों पर, यह पक्का है. मैं तो किसी का पलस्तर चढ़ा देखते ही पूछ बैठता हूँ, "टू-व्हीलर से गिरे क्या?" और ज़्यादातर जवाब "हाँ" में मिलता है. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का बेटा विवेक सिंह, अजहरुद्दीन का बेटा, जसपाल भट्टी, साहेब सिंह वर्मा जैसे लोग एक्सीडेंट में ही मारे गाये तो आम आदमी की क्या औकात? लोग पीछे से ही गाड़ी से उड़ा देते हैं. मैं हमेशा नियमों के पालन का तरफ-दार हूँ, लेकिन नियमों के साथ-साथ अक्ल लगाने का भी तरफ-दार हूँ. "लीक लीक गाड़ी चले, लीक चले कपूत, ये तीनो लीक छोड़ चलें, शायर, शेर और सपूत." महान शब्द हैं ये, लेकिन लीक छोड़ने का मतलब यह नहीं कि लीक छोड़ने के लिए लीक छोड़नी है. लीक छोड़नी मात्र इसलिए कि वो छोड़ने के ही लायक है, लीक छोड़नी क्योंकि उसपे चलना खतरनाक है, घातक है. बचपन से हमें सिखाया गया कि हमेशा बाएं (लेफ्ट) हाथ चलो. सड़क पर पैदल चलते हुए मैं अक्सर सोचता कि ऐसे तो पीछे से आती हुई कोई भी गाड़ी हमें उड़ा सकती है. सामने से आती हुई गाड़ी से तो हम खुद भी बचने का प्रयास कर सकते हैं. बार-बार पीछे मुड़-मुड़ कर देखते हुए कैसे चला जा सकता है? सो मैं हमेशा पैदल चलता तो दायें(राईट) हाथ. अभी पीछे ट्रेड-फेयर गये तो वहां से ट्रैफिक पुलिस के कुछ पम्फलेट लिए. साफ़ हिदायत लिखी थी कि पैदल चलने वाले राईट चलें. वाह! मेरा दिमाग दशकों आगे चलता है. जब कोई और आपको टके सेर भी न पूछे तो आप खुद ही अपनी पीठ थप-थपा दें. और क्या? पुलिस सिर्फ पर्सनल वसूली में रूचि लेती है न कि ट्रैफिक कैसे सुधरे इस में. सड़कों पर जगह-जगह मूवी कैमरे लगा देने चाहियें, जो-जो नियम तोड़ता दिखे, उसे चालान भेज दिए जायें, जो न भरे उसे फयूल मत दें. जो न भरे उसकी गाड़ी की सेल ट्रान्सफर मत करो. फिर रोड सेंस सिखाने की वर्कशॉप भी चलायें, उस में हाजिरी के बिना दुबारा गाड़ी सड़क पर मत लाने दें. जो पैसा इक्कट्ठा हो, उसे सड़कों की बेहतरी में लगायें. मामला हल. खैर, बंद किये जाएँ सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दुकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं. लोगों ने अपने घर चमका लिए हैं लेकिन सडकें बाहर टूटी हैं, चूँकि सड़कें सार्वजनिक हैं. "सांझा बाप न रोये कोई." सड़क नेता के लिए, लोकल बाबुओं के लिए तो कमाई का साधन है. वहां सदैव खुदाई, भराई, बनवाई, तुड़वाई चलती रहती है. अन्त-हीन. सड़क में गड्डे हैं या गड्डे में सड़क, पता ही नहीं लगता. अभी कहीं पढ़ा था कि सड़क के गड्डे के कारण स्कूटर फिसलने से किसी की मौत हो गई तो उसके परिवार ने सरकार पर लाखों रुपये हर्ज़ाने का केस ठोक दिया. ऐसा ही होना चाहिए, लेकिन वो पैसा ज़िम्मेदार नेता और बाबुओं की जेबों से निकलना चाहिए, तब मज़ा है. कल समालखा गए थे दिल्ली चण्डीगढ़ हाई-वे से, तो Sanjay Sajnani भाई कह रहे थे, "सड़क तो पूरी तरह से बनी नहीं है, फिर सरकार ये टोल किस चीज़ का वसूल रही है?" "पता नहीं भाई, मुझे तो लगता है सरकार पहले ही ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स ले रही है लोगों से?" "पूछना नहीं चाहिए RTI लगा के?" "बिल्कुल और फिर जवाब अगर ढंग का न हो तो PIL(जनहित याचिका) लगानी चहिये." ह्म्म्म....हम्म्म्म.....सोचते रहे हम... सरकार को कोसते रहे हम. हमारी सडकें हमारे सड़ चुके तन्त्र का लाइव टेलीकास्ट हैं. लेकिन अव्यवस्था/ कुव्यवस्था/ बेवस्था को ही व्यवस्था मान लिया गया है, स्वीकार कर लिया है. आप अगर धन कमा भी लेंगे, तो भी आपके घर के बाहर सड़क टूटी मिलेगी.....सड़को पर बेहूदगी से गाड़ियाँ चलाने वाले-पार्क करने वाले लोग मिलेंगे.....बदतमीज़ पुलिस मिलेगी.....स्नेल की चाल से रेंगता ट्रैफिक मिलेगा....आपके धन कमाने से आप सिर्फ अपने घर का इन्फ्रा-स्ट्रक्चर सही कर सकते हैं, मुल्क का नहीं.....उसके लिए आप को या तो मुल्क छोड़ देना होगा या फिर मेरे जैसे किसी सर-फिरे के साथ होना होगा. एक किताब पढी थी मैंने 'बिल गेट्स' द्वारा लिखित "दी रोड अहेड (The Road Ahead)" (आगे की सड़क). यह किताब इंसानी भविष्य किस सड़क पर दौड़ेगा, इसकी भविष्य-वाणियों से भरी है. किताब कोई दस बरस पहले पढ़ी थी. ठीक से याद कुछ नहीं, लेकिन मुझे लगता है उसमें कई भविष्य-वाणियाँ सो सत्य साबित भी हो चुकी होंगी. भविष्य सिर्फ तिलक-टीका-धारी पंडित ही नहीं बताते बिल गेट्स जैसे लोग भी बताते हैं और ज़्यादा सटीक बताते हैं. भारत की सड़कों का भविष्य आप बताएं-बनाएं. नमन..तुषार कॉस्मिक

आलोचक

हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना.

सेकुलरिज्म

नहीं, हम एक सेक्युलर स्टेट बिलकुल नहीं है........एक सेक्युलर स्टेट में नास्तिक, आस्तिक, अग्नास्तिक सबकी जगह होनी चाहिए... स्टेट को किसी भी धारणा से कोई मतलब नहीं होता. वो निरपेक्ष है. उसका धर्म संविधान और विधान है. पुराण या कुरान नहीं.....ऐसे में किसी भी तरह की प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है स्कूलों में....लेकिन आपके सब स्कूल चाहे सरकारी हों चाहे पंच-सितारी हों, सुबह-सुबह बच्चों को गैर-सेक्युलर बनाते हैं....उनकी सोच पर आस्तिकता का ठप्पा लगाते हैं. आपके तो अधिकांश स्कूलों के नाम भी संतों, गुरुओं के नाम पर हैं. मैंने नहीं देखा कि किसी स्कूल का नाम किसी वैज्ञानिक, किसी फिलोसोफर. किसी कलाकार के नाम पर हो. आपने देखा कि किसी स्कूल का नाम आइंस्टीन स्कूल हो, नीत्शे स्कूल हो, गलेलियो स्कूल हो, या फिर वैन-गोग स्कूल हो......देखा क्या आपने? नाम होंगे सेंट फ्रोएब्ले, सेंट ज़विओर, गुरु हरी किशन स्कूल या फिर दयानंद स्कूल..... अगर प्रार्थना ही करवानी है तो दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिकों, कलाकारों, समाज-शास्त्रियों, फिलोसोफरों को धन्य-वाद की प्रार्थना गवा दीजिये. उसमें ऑस्कर वाइल्ड भी, शेक्सपियर भी, एडिसन भी, स्टीव जॉब्स, मुंशी प्रेम चंद भी, अमृता प्रीतम भी भी हों... यह होगा सेकुलरिज्म का बीजा-रोपण. अभी हम सेकुलरिज्म को सिर्फ किताबों में रखे हैं. और यह जो हिन्दू ब्रिगेड सेकुलरिज्म का विरोध करती है, वो कुछ-कुछ सही है. असल में वो विरोध अब अमेरिका तक में होने लगा है. वो विरोध सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लाम जो फायदा उठाता है उसका है. इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई धारणा नहीं है. इस्लाम तो सिवा इस्लाम के किसी और धर्म को धर्म ही नहीं मानता. इस्लाम में जिहाद है. इस्लाम में अपनी सामाजिक व्यवस्था है. इस्लाम में अपना निहित कायदा-कानून है. तो फिर ऐसे में सेकुलरिज्म का क्या मतलब रह जाता है? लेकिन यहाँ विरोध इस्लाम का होना चाहिए न कि सेकुलरिज्म का. लेकिन भारत में चूँकि अधिकांश समय सरकार कांग्रेस की रही है. यहाँ हज सब्सिडी चलाई गई, यहाँ मुस्लिम के लिए अलग पर्सनल सिविल लॉ बनाया गया. यहाँ का बुद्धिजीवी भी हिन्दू की कमी तो लिखता-बोलता रहा लेकिन इस्लाम के खिलाफ चुप्पी साधे रहा. यहाँ तक कि ओशो भी कुरान के खिलाफ बोले तो जीवन के अंतिम वर्षों में. हिन्दू को अखरता है. उसे लगता है कि यह छद्म सेकुलरिस्म है. बात सही है. किसी एक तबके के साथ गर्म और किसी दूसरे के साथ नर्म व्यवहार किया जाए, और फिर खुद को सेक्युलर भी कहा जाए तो यहाँ कहाँ का सेकुलरिज्म हुआ? लेकिन हिंदुत्व वालों को तो सेकुलरिज्म वैसे ही अखरता है जैसे मुस्लिम को. जैसे इस्लाम में सेकुलरिज्म की कोई कल्पना नहीं, ऐसे ही हिंदुत्व वालों को भी सेकुलरिज्म एक आँख नहीं भाता. उन्हें तो सब वैसे ही हिन्दू लगते हैं, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध, चाहे जैन. ईसाईयत और इस्लाम को वो भी धर्म नहीं मानते. तो विरोध सबका का होना चाहिए- इस्लाम का भी और इस्लाम या किसी भी और तबके की नाजायज़ तरफ़दारी का भी, छद्म सेकुलरिज्म का भी. और हिंदुत्व का भी. लेकिन सेकुलरिज्म का नहीं. सेकुलरिज्म अपने आप में दुनिया की बेहतरीन धारणाओं में से है. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Thursday 7 December 2017

सम्भोग

सम्भोग शब्द का अर्थ है जिसे स्त्री पुरुष समान रूप से भोगे. लेकिन कुदरती तौर पर स्त्री पुरुष से कहीं ज़्यादा काबिल है इस मामले में. उसका सम्भोग कहीं गहरा है, इतना गहरा कि वो हर धचके के साथ कहीं गहरा आनंद लेती है, पुरुष ऊपर-ऊपर तैरता है, वो गहरे डुबकियाँ मार रही होती है, जभी तो हर कदम में बरबस उसकी सिसकियाँ निकलती हैं. और फिर ओर्गास्म. वो तो इतना गहरा कि पुरुष शायद आधा भी आनंदित न होता हो. कोई सेक्सो-मीटर हो तो वो मेरी बात को साबित कर देगा. और उससे भी बड़ी बात पुरुष एक ओर्गास्म में खल्लास, यह जो शब्द है स्खलित होना, उसका अर्थ ही है, खल्लास होना. खाली होना, चुक जाना. लेकिन वो सब पुरुष के लिए है, वो आगे जारी नहीं रख सकता. लेकिन स्त्री के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. वो एक के बाद एक ओर्गास्म तक जा सकती है. जाए न जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और एच्छिकता, लेकिन जा सकती है. तो मित्रवर, निष्कर्ष यह है कि सम्भोग शब्द बहुत ही भ्रामक है. सेक्स में सम्भोग बिलकुल भी नहीं होता. स्त्री की कई गुणा सेक्स शक्ति के आगे पुरुष बहुत बौना है. मैं अक्सर सोचता कि कुदरत ने ऐसा भेदभाव क्यूँ किया? पुरुष को काहे नहीं स्त्री के मुकाबले बनाया? लेकिन फिर याद आया कि बच्चे को जन्म देने की पीड़ा भी तो वो ही सहती है, शायद उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत ने. पुरुष सेक्स में स्त्री से कमतर सामाजिक कारणों से भी है. वो सामाजिक बोझ को ढोता हुआ, पहले ही चुक चुका होता है. वो स्त्री के मुकाबले कहीं ज़्यादा बीमार रहता है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त रहता है. एकाधिक ओर्गास्म छोड़िये, पुरुष अक्सर स्त्री को एक ओर्गास्म भी नहीं दे पाता. वो जैसे -तैसे बस अपना काम निपटाता है. अब आप इसे सम्भोग....समान भोग कैसे कहेंगे? किसी की क्षमता हो तीन रोटी खाने की और उसे आप आधी रोटी खिला दें तो कैसे उसका पेट भरे? यह स्त्री की त्रासदी. और समाजिक घेराबंदी कर दी गयी उसके गिर्द. वो चूं भी न करे. कई समाजों में तो उसकी भग-नासा तक काट दी जाती है बचपन में ही. ताकि उसे कम से कम सेक्स का आनन्द अनुभव हो. सही सभ्यता तब होगी जब स्त्री अपनी सेक्स की क्षमताओं को पूर्णतया अनुभव करेगी. और करवाना हर पुरुष की ज़िम्मेदारी है. उसे सीखना होगा बहुत कुछ. और सामाजिक ताना-बाना भी बदलना होगा. स्त्री उम्र में बड़ी हो, पुरुष छोटा हो तो ही बेहतर. अलावा इसके दोनों को बाकायदा ट्रेनिंग की ज़रुरत है. जैसे क्लच, ब्रेक दबाने और स्टीयरिंग घुमाना सीखने से कोईड्राइविंग नहीं सीखता, उसके लिए रोड के कायदे भी समझ में आना ज़रूरी है,रोड सेंस होना भी ज़रूरी है, उसी तरह से लिंग और योनि तक ही सेक्स सीमित नहीं है, उसके लिए स्त्री पुरुष के तन और मन का ताल-मेल होना ज़रूरी है, जो सीखने की बात है, जो मात्र शब्दों में ही सीखा सीखाया नहीं जा सकता, जो आप सबको सेक्स करते कराते सीखना होगा. अधिकांश पुरुष जल्द ही चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट, तो कोई शराब, तो कोई मोटापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो, स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दीजिये, सम्भोग को गतिशील रखें, उसका सम्भोग पुरुष के सम्भोग की तरह ओर्गास्म के साथ ही खत्म नहीं होता, बल्कि ज़ारी रहता है. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकम शरणम् व्रज . सब धर्मों को त्याग, एक मेरी ही शरण में आ. कृष्ण कहते हैं यह अर्जुन को. मेरा मानना है,"सर्वधर्मान परित्यज्य, सम्भोगम शरणम् व्रज." सब धर्मों को छोड़ इन्सान को नाच, गाना, बजाना और सम्भोग की शरण लेनी चाहिए. बस. बहुत हो चुकी बाकी बकवास. बिना मतलब के इशू. नाचते, गाते, सम्भोग में रत लोगों को कोई धर्म, देश, प्रदेश के नाम पर लडवा ही नहीं सकेगा. और हाँ, सम्भोग मतलब, सम्भोग न कि बच्चे पैदा करना. कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ. देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित.. और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए. आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही और आपका समाज पागल है आपकी संस्कृति विकृति है आपकी सभ्यता असभ्य है आपके धर्म अधर्म हैं नमन....तुषार कॉस्मिक

तीन पॉइंट

1.जिसे आप संस्कृति समझते हैं, वो बस विकृति है. 2.जिसे आप धार्मिकता कहते हैं, उसे मैं मूर्खता कहता हूँ, सामूहिक मूर्खता. 3. जिसे आप सनातन समझते हैं, वो मात्र पुरातन है, जितना पुराना, उतना ही सड़ा हुआ.

CYBORG

मुझे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में किताबें, फिल्में, ऑडियो आदि सीधा मानव मस्तिष्क में ट्रांसप्लांट किये जा पायेंगे...इससे व्यक्ति के वर्षों बचेंगे.
और डाटा को सुपर कंप्यूटर में डाला जायेगा, जिसकी लॉजिकल प्रोसेसिंग के बाद वो रिजल्ट दे देगा कि सही क्या है या यूँ कहें कि सबसे ज़्यादा सम्भावित सही क्या है....और यह डाटा भी इन्सान पलों में ही access कर पायेगा. इससे तर्क-वितर्क और भी साइंटिफिक हो जायेगा.
इस तरह से किस उम्र में कितना डाटा डाला जाये, कंप्यूटर प्रोसेसिंग के रिजल्ट भी किस तरह से ट्रांसप्लांट किये जाएँ, यह सब भविष्य तय करेगा.
इंसानी जानकारियाँ और उन जानकारियों के आधार पर की गई उसकी गणनाएं/ कंप्यूटिंग/ तार्किकता/Rationality भविष्य में आज जैसी नहीं रहेंगी, यह पक्का है. इंसान कुछ-कुछ CYBORG हो जायेगा. यानि रोबोट और इन्सान का मिक्सचर.
तकनीक ही गेम-चेंजर साबित होगी. समाज खुद से तो बदलने से रहा. और नेता तो इसे जड़ ही रखेंगे ताकि उनका हित सधता रहे.

Monday 4 December 2017

सेक्स और इन्सान

माना जाता है कि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है. लेकिन यह इन्सान ही है, जो सेक्स न करके हस्त-मैथुन कर रहा है. "एक...दो...तीन...चार...हा...हा...हा....हा........." यह इन्सान ही है, जो पब्लिक शौचालय में लिख आता है, "शिवानी रंडी है.....", "भव्या गश्ती है", "मेरा लम्बा है, मोटा है, जिसे मुझ से Xदवाना हो, फ़ोन करे......98..........", आदि अनादि. यह इन्सान ही है, जो हिंसक होता है तो दूसरे की माँ, बहन, बेटी को सड़क पे Xद देता है. "तेरी माँ को xदूं........तेरी बेटी को कुत्ते xदें ........तेरी बहन की xत मारूं". यह इन्सान ही है, जो बलात्कार करता है और सेक्स के लिए न सिर्फ बलात्कृत लड़की का बल्कि अपना भी जीवन दांव पर लगा देता है. यह इन्सान ही है, जो गुब्बारे तक में लिंग घुसेड़ सुष्मा, सीमा, रेखा की कल्पना कर लेता है. यह इन्सान ही है, जो कपड़े पहने है, चूँकि उससे अपना नंग बरदाश्त ही नहीं हुआ. लेकिन फिर ढका अंग बरदाश्त नहीं होता तो वही कपड़े स्किन-टाइट कर लेता है. आज की फिल्में देखो तो हेरोइन अधनंगी है, पुरानी फ़िल्में देखो तो हेरोइन ने कपड़े पूरे पहने हैं लेकिन इत्ते टाइट कि अंग-अंग झाँक रहा है. वैजयंती माला-आशा पारेख की फिल्में याद करें. यह इन्सान ही है, जो सेक्स नहीं करता सो दूसरों को सेक्स करते देखता है. पोर्न जितना देखा जाता है उतना तो लोग मंदिर-गुरूद्वारे के दर्शन नहीं करते होंगे. यह इन्सान ही है, जो गीत भी गाता है तो उसमें सिवा सेक्स के कुछ नहीं होता. "तू मुझे निचोड़ दे, मैं तुझे भंभोड़ दूं. आहा...आहा." यह इन्सान ही है, जिसने शादियों का आविष्कार किया, जिससे परिवार अस्तित्व में आया, जिससे यह धरती जो सबकी माता है, उसे टुकड़ों में बांट दिया गया, ज़मीन को जायदाद में बदल दिया गया और इन्सान इन्सान के बीच दीवारें खिंच गईं, दीवारें क्या तलवारें खिंच गईं. "ज़र, ज़ोरू और ज़मीन, झगड़े की बस वजह तीन." लेकिन तीन नहीं, वजह एक ही है....और वो है सेक्स का गलत नियोजन चूँकि सेक्स के गलत नियोजन की वजह से ही ज़र, जोरू और ज़मीन अस्तित्व में आये हैं. "ये तेरी औरत है." "ये तेरा मरद हुआ आज से." जबकि न कोई किसी की औरत है और न ही कोई किसी का मर्द. इन्सान हैं, कोई कुर्सी-मेज़ थोड़ा न हैं, जिन पर किसी की मल्कियत होगी? वैसे और गहरे में देखा जाए तो वस्तुओं पर मलकियत भी इसीलिए है कि इंसानों पर मल्कियत है. अगर इन्सानों पर मलकियत न हो, अगर परिवार न हों तो सारी दुनिया आपकी है, आप कोई पागल हो जो मेज़-कुर्सी पर अपना हक जमाओगे. सारी दुनिया छोड़ टेबल-कुर्सी पर हक़ जमाने वाले का तो निश्चित ही इलाज होना चाहिए. नहीं? वो सब पागल-पन सिर्फ घर-परिवार-संसार की वजह से ही तो है. जब पति-पत्नी सम्भोग करते हैं तो वहां बेड पर दो लोग नहीं होते, चार होते हैं. पति की कल्पना में कोई और ही औरत होती है और पत्नी किसी और ही पुरुष की कल्पना कर रही होती है. वैसे वहां चार से ज़्यादा लोग भी हो सकते हैं......ख्यालात में पार्टनर बदल-बदल कर भी लाए जा सकते हैं. यह है जन्म-जन्म के, सात जन्म के रिश्तों की सच्चाई. शादी आई तो साथ में ही वेश्यालय आया. उसे आना ही था. रामायण काल में गणिका थी तो बुद्ध के समय में नगरवधू. और नगरवधू का बहुत सम्मान था. 'वैशाली की नगरवधू' आचार्य चतुर-सेन का जाना-माना उपन्यास है, पढ़ सकते हैं. 'उत्सव' फिल्म देखी हो शायद आपने. शेखर सुमन, रेखा और शशि कपूर अभिनीत. 'शूद्रक' रचित संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिकम' पर आधारित थी यह फिल्म. वेश्या दिखाई गई हैं. खूब सम्मानित. आज भी किसी नेता, किसी समाज-सुधारक की जुर्रत नहीं कि वेश्यालय हटाने की सोच भी सके. वो सम्भव ही नहीं है. जब तक शादी रहेगी, वेश्यालय रहेगा ही. सनी लियॉनी को आखिर उस भारतीय समाज ने स्वीकार किया, जहाँ फिल्म अभिनेत्री अगर शादी कर ले तो उसे रिटायर माना जाता था. BB ki Vines, Carryminati, All India Bakchod, ये तीन टॉप के इंडियन youtube चैनल हैं. इन सब की एक साझी खूबी है. जानते हैं क्या? सब खुल कर माँ-बहन-बेटी xदते हैं. All India Bakchod ने तो अपने नाम में ही सेक्स का झंडा गाड़ रखा है. इन्सान ने सेक्स को बुरी तरह से उलझा दिया. बस फिर क्या था? सेक्स ने इन्सान का पूरा जीवन जलेबी कर दिया जबकि सेक्स एक सीधी-सादी शारीरिक क्रिया है, जिसे विज्ञान ने और आसान कर दिया है. विज्ञान ने बच्चे के जन्म को सेक्स से अलग कर दिया है. अब लड़की को यह कहने की ज़रूरत नहीं, "मैं तेरे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ." और लड़के को विलन बनते हुए यह कहने की कोई ज़रुरत नहीं, "डार्लिंग, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, लेकिन देखो अभी यह बच्चा हमें नहीं चाहिए तो तुम किसी अच्छे से डॉक्टर से मिल कर इसे गिरा दो. यह लो पचास हज़ार रुपये. और चाहिए होंगे तो मांग लेना." विज्ञान ने यह सहूलियत दे दी है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे की स्वास्थ्य रिपोर्ट ले कर सेक्स में जाएँ. जगह-जगह शौचालय ही नहीं सार्वजनिक सम्भोगालय भी बनने चाहियें, जहाँ कोई भी स्त्री-पुरुष अपनी मर्ज़ी से सम्भोग कर सकें . उलझी हुई समस्याओं के समाधान इतने आसान और सीधे होते हैं कि उलझी बुद्धि को वो स्वीकार ही नहीं होते. इन्सान इस पृथ्वी का सबसे समझदार प्राणी है, उसकी बुरी तरह उलझी समस्यायों के समाधान इतने आसान कैसे हो सकते हैं? वो कैसे स्वीकार ले? वो कैसे स्वीकार कर ले कि उसकी समस्यायों के समधान हो भी सकते हैं. आपको पता है सड़क किनारे कुत्ता-कुतिया को सम्भोग-रत देख लोग उनको पत्थर मारने लगते हैं, जानते हैं क्यों? कैसे बरदाश्त कर लें, जो खुद नहीं भोग सकते, वो कुत्ते भोगें? मेरा प्रॉपर्टी का काम रहा है शुरू से. पुरानी बात है. एक जवान लड़का किसी लड़की को ले आया फ्लैट पे. उन दिनों नई-नई अलॉटमेंट थी. कॉलोनी लग-भग खाली थी. कुछ शरारती लोगों ने बाहर से कुंडी लगा दी और 100 नम्बर पे फोन कर दिया. पुलिस आ गई, लड़का-लड़की हैरान-परेशान. बेचारों की खूब जिल्लत हुई. दुबारा न आने की कसमें खा कर गए. बाद में जिन्होंने फ़ोन किया था, वो ताली पीट रहे थे. एक ने कहा, "साला, यहाँ ढंग की लड़की देखती तक नहीं और ये जनाब मलाई खाए जा रहे थे. मज़ा चखा दिया. हहहाहा..........." सेक्स जो इन्सान को कुदरत की सबसे बड़ी नेमत थी, सबसे बड़ी समस्या बन के रह गया. चूँकि इन्सान इस पृथ्वी का सबसे मूढ़ प्राणी है. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday 3 December 2017

राम-राम/रावण-रावण

घर के पास वाले पार्क में घूमता हूँ तो अक्सर बुज़ुर्ग सामने से 'राम-राम' करते हैं. मैं 'नमस्ते जी' ही कहता हूँ. एक अंकल को मज़े-मज़े में 'रावण-रावण' कह दिया. पकड़ ही लिए मुझे. 

"क्यों भई? यह क्या बोला जवाब में?" 
"कुछ नहीं अंकल, वो रावण भी तो महान था न?"

"नहीं तो उसे राम के बराबर का दर्ज़ा दोगे क्या?"
"अंकल उसके दस सर थे. ब्राहमण था. अन्त में लक्ष्मण उससे ज्ञान लेने भी तो जाता है, तो थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा क्रेडिट रावण को भी देना चाहिए कि नहीं?"

अंकल थोड़ा सोच में पड़ गए और मैं निकल लिया पतली गली से.

मूर्खों का देश

जिस देश में धिन्चक पूजा, राधे माँ, निर्मल बाबा, स्वामी ॐ जैसे लोग सलेबिरिटी हों...... जिस देश में बिग-बॉस जैसे टीवी प्रोग्राम खूब देखे जाते हों..... जिस देश में गंगा बहती तो हो लेकिन बुरी तरह से प्रदूषित हो..... हम उस देश के वासी हैं. हम उस देश के वासी हैं जिसके लिए काटजू साहेब ने कहा था कि निन्यानवें प्रतिशत मूर्ख लोगों का देश हैं. आपको अभी भी शक है काटजू साहेब की बात पर?

बेस्ट सेल्स-मैन

सुना  होगा आपने कि बढ़िया सेल्स-मैन वो है जो गंजे को कंघी बेचे. 
गलत सुना है. 

बढ़िया सेल्समेन वो है, जो अदृशय प्रोडक्ट बेचे.

नहीं समझ आया. 
जाओ जा के निर्मल बाबा का एक सेशन अटेंड कर के आओ. 'कृपा' नहीं दिखेगी लकिन कृपा की बिक्री दिखेगी.

नबी का जन्म-दिन

इस बार  नबी का जन्म-दिन ऐसे मनाया गया जैसे कम-से-कम दिल्ली में तो मैंने पहले कभी नहीं देखा. निश्चित ही यह बाहुबल, वोटिंग-बल, संख्या-बल भी दिखाने को था. सडकें सडकें नहीं थी, जुलुस स्थल  थी आज. नारे बुलंद हो रहे थे, "सरकार की आमद...मरहबा...मरहबा."

पश्चिम विहार, दिल्ली में रहता हूँ. पास ही विष्णु गार्डन इलाका है. विष्णु गार्डन में बहुत सी जींस बनाने की अवैध फैक्ट्री हैं. सब काम मुसलमानों के हाथ में हैं. आज नबी के जन्म का जुलुस निकाल रहे थे. घोड़े वाले मन्दिर से पश्चिम विहार मात्र आधा किलोमीटर है, यकीन मानें मैं यह दूरी पार ही नहीं कर पाया, सडकों पर इतना जमघट. मुझे कार वापिस घुमानी पड़ी और 4-5 किलोमीटर का चक्कर काट दूसरे रूट से घर आना पड़ा. यह सब धर्म, मज़हब, दीन कुछ भी नहीं है. यह सब बकवास है जो हिन्दू, सिक्ख और अब मुस्लिम भी करने लगे हैं. यह धार्मिक आज़ादी नहीं, धार्मिक बर्बादी है. बंद करो सड़क पर नमाजें, जुलुस, जलसे, शोभा-यात्राएं, कांवड़-शिविर. सड़क इन कामों के लिए नहीं है. वो सिर्फ चलने के लिए है. वो दूकान-दारी के लिए नहीं है. धार्मिक(?) दुकान-दारी के लिए भी नहीं.

क्या है मेरा नज़रिया? 

१. मेरा नज़रिया यह है कि नबी हों, गुरु हों, अवतार हों, महात्मा हों, कोई भी हों, एक तो सरकारी छुटियाँ बंद कर देनी चाहियें इन सब के जन्म से मरण तक के किसी भी दिवस पर.  अगर ऐसे छुटियाँ ही करते रहे तो पूरा साल छुट्टियों को ही देना पड़ेगा.

२. दूसरा कैसा भी पब्लिक फंक्शन करना हो, वो बंद हॉल या फिर खुले मैदानों में करें, कोई लाउड स्पीकर नहीं, कोई शोर-शराबा नहीं. आम जन-जीवन को डिस्टर्ब  करने की किसी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए.  

३. तीसरा और सबसे ज़रूरी. अगर आपने सच में ही अपने नबी के जीवन का फायदा दीन-दुनिया  तक पहुँचाना है तो उनके जीवन, उनकी कथनी, उनकी करनी पर खुली बहस आयोजित करें, आमंत्रित करें. और यह बहस मात्र आपके दीन, आपके नबी की हाँ में हाँ मिलाने को ही नहीं होनी चाहिए, इसमें 'न' कहने वालों को भी आने दीजिये. 

आने दीजिये अगर कोई उनको पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई उनको आखिरी पैगम्बर नहीं मानता तो. 

आने दीजिये अगर कोई खुद को पैगम्बर मानता है तो. 

आने दीजिये अगर कोई अल्लाह-ताला को इनसानी अक्ल पर लगा ताला मानता है. 

आने दीजिये अगर कोई  क़ुरान में लिखी उन आयतों पर सवाल उठाता है जो काफिरों के खिलाफ हिंसा को आमंत्रित करती हैं. 

आने दीजिये ऐसे लोगों को जो क़ुरान के हर शब्द, हर वाक्य पर सवाल उठाते हों. 

फिर देखिये क्या निकल के आता है. अगर सरकार की कथनी-करनी में दम होगा तो हम भी कहेंगे, "सरकार की आमद... मरहबा.....मरहबा." और सच में ही सरकार के जीवन से सारी दुनिया बहुत कुछ सीख पायेगी. 

लेकिन है इतनी हिम्मत मुसलमानों में कि दुनिया भर में ऐसे आयोजन कर सकें?

मुझे गहन शंका है. और मेरी शंका अगर सही है तो समझ लीजिये दुनिया को गहन अन्धकार में धकेलने के औज़ार हैं ऐसे आयोजन जो आज दिल्ली में किये जा रहे थे. 

नमन...तुषार कॉस्मिक

अनुष्का शर्मा की NH-10--अच्छी फिल्म

अनुष्का शर्मा ने एक फिल्म में एक्टिंग ही नहीं की, बनाई भी खुद थी. NH-10. मेरे पास शब्द नहीं इस फिल्म की तारीफ के लिए. ज़रूर देखें. और हाँ, मैं सिर्फ आलोचना करता हूँ. और समझ लीजिये, आलोचना शब्द का अर्थ गहन नज़र से देखना होता है, नुक्स निकालना नहीं. लोचन यानि नज़र का प्रयोग. शरीर की ही नहीं बुद्धि की नज़र का भी प्रयोग करना. तो देखिये यह फिल्म तन और मन की नज़रों को प्रयोग करते हुए, मेरे कहने पर.

The world seems to have No Future

Oscar wilde, Osho, Khushwant Singh and people like them, I respect them, I love them. Had the world listened to their words, it would have been far better. But the world has fallen into the hands of the rogues, marching towards collective suicide. There is no future, if everything goes on as it is going on.

मैं और श्रीमति जी.....ट्रेड फेयर दिल्ली में ...कुछ ही दिन पहले