सम्भोग
सम्भोग  शब्द  का  अर्थ  है  जिसे  स्त्री पुरुष  समान  रूप  से  भोगे.  लेकिन  कुदरती तौर  पर  स्त्री पुरुष  से कहीं ज़्यादा  काबिल  है  इस  मामले  में.  उसका  सम्भोग  कहीं  गहरा  है, इतना गहरा  कि  वो  हर  धचके   के  साथ    कहीं गहरा  आनंद  लेती  है, पुरुष  ऊपर-ऊपर  तैरता  है, वो गहरे  डुबकियाँ  मार  रही होती है, जभी तो  हर  कदम में बरबस  उसकी सिसकियाँ  निकलती  हैं.  और फिर  ओर्गास्म.  वो  तो  इतना  गहरा  कि  पुरुष  शायद  आधा  भी आनंदित  न  होता  हो.  कोई सेक्सो-मीटर हो  तो वो मेरी  बात को साबित कर देगा.
और  उससे  भी बड़ी   बात  पुरुष  एक ओर्गास्म  में खल्लास, यह  जो  शब्द है  स्खलित  होना, उसका  अर्थ  ही है, खल्लास  होना. खाली होना, चुक  जाना. लेकिन वो  सब  पुरुष  के  लिए  है, वो  आगे  जारी नहीं  रख  सकता.  लेकिन  स्त्री  के  साथ  ऐसा  बिलकुल  नहीं   है.  वो  एक  के  बाद  एक  ओर्गास्म  तक  जा  सकती  है.  जाए  न  जाए, उसकी मर्ज़ी, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता और  एच्छिकता, लेकिन  जा  सकती है. 
तो मित्रवर, निष्कर्ष  यह  है  कि सम्भोग  शब्द  बहुत  ही भ्रामक  है. सेक्स  में  सम्भोग  बिलकुल  भी नहीं  होता.  स्त्री की कई गुणा  सेक्स  शक्ति  के  आगे  पुरुष  बहुत  बौना  है.  मैं  अक्सर  सोचता  कि  कुदरत  ने  ऐसा  भेदभाव  क्यूँ किया?  पुरुष  को  काहे  नहीं  स्त्री  के  मुकाबले  बनाया? लेकिन  फिर  याद  आया  कि  बच्चे  को  जन्म  देने  की पीड़ा  भी तो  वो  ही सहती  है, शायद  उसी की क्षतिपूर्ती की कुदरत  ने.
पुरुष  सेक्स  में  स्त्री  से  कमतर  सामाजिक  कारणों  से   भी है. वो  सामाजिक  बोझ  को  ढोता हुआ, पहले  ही चुक  चुका  होता  है. वो  स्त्री के मुकाबले  कहीं ज़्यादा  बीमार  रहता  है, कहीं ज़्यादा नशों में लिप्त  रहता  है. एकाधिक  ओर्गास्म  छोड़िये, पुरुष  अक्सर  स्त्री को  एक  ओर्गास्म  भी नहीं  दे पाता. वो  जैसे -तैसे  बस  अपना  काम  निपटाता  है.
अब  आप  इसे सम्भोग....समान  भोग  कैसे  कहेंगे? किसी  की क्षमता  हो  तीन  रोटी  खाने  की  और  उसे  आप  आधी  रोटी  खिला  दें  तो  कैसे  उसका  पेट  भरे? यह  स्त्री  की त्रासदी. 
और  समाजिक  घेराबंदी  कर  दी गयी उसके  गिर्द.  वो  चूं  भी न  करे. कई समाजों  में  तो उसकी भग-नासा  तक काट  दी जाती  है  बचपन  में  ही. ताकि उसे  कम  से कम  सेक्स का आनन्द  अनुभव  हो.
सही सभ्यता  तब होगी जब  स्त्री अपनी   सेक्स  की क्षमताओं  को  पूर्णतया  अनुभव  करेगी. और  करवाना  हर  पुरुष  की  ज़िम्मेदारी  है.  
उसे सीखना  होगा  बहुत  कुछ.  और सामाजिक  ताना-बाना  भी बदलना  होगा.  स्त्री  उम्र  में बड़ी  हो, पुरुष  छोटा हो तो  ही  बेहतर.  
अलावा  इसके दोनों  को  बाकायदा  ट्रेनिंग  की ज़रुरत  है. जैसे  क्लच, ब्रेक दबाने  और स्टीयरिंग घुमाना  सीखने  से  कोईड्राइविंग  नहीं  सीखता, उसके  लिए  रोड  के  कायदे  भी समझ  में आना  ज़रूरी  है,रोड  सेंस  होना  भी ज़रूरी  है, उसी तरह  से  लिंग  और  योनि तक  ही सेक्स  सीमित  नहीं  है, उसके  लिए स्त्री पुरुष  के  तन और मन का  ताल-मेल  होना  ज़रूरी  है,  जो   सीखने  की बात  है,  जो मात्र  शब्दों  में  ही सीखा  सीखाया  नहीं  जा  सकता, जो आप सबको सेक्स करते कराते  सीखना होगा.  
अधिकांश पुरुष जल्द ही चुक चुके होते हैं...कोई सिगरट, तो कोई शराब, तो कोई मोटापे तो कोई किसी और स्यापे की वजह से. लेकिन यदि फिर भी दम बचा हो तो अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते चले जाओ, वो ओर्गास्म तक पहुंचेगी ही और यदि वहां तक तुम खुद न चुके तो अब गाड़ी आगे बढाते जाओ और बिना समय अंतराल दिए गतिमान रहो, स्त्री यदि ओर्गास्म तक पहुँच भी जाए तो उसे बहुत समय-गैप मत दीजिये, सम्भोग को गतिशील रखें, उसका सम्भोग पुरुष के सम्भोग की तरह ओर्गास्म के साथ ही खत्म नहीं होता, बल्कि ज़ारी रहता है. स्त्री निश्चय ही आगामी ओर्गास्म को बढ़ती जायेगी. और ऐसे ही चलते जाओ. वीर तुम बढे चलो, धीर तुम बढे चलो. 
सर्वधर्मान परित्यज्य, मामेकम शरणम् व्रज . सब धर्मों को त्याग, एक मेरी ही शरण में आ. कृष्ण कहते हैं यह अर्जुन को.
मेरा मानना है,"सर्वधर्मान परित्यज्य, सम्भोगम शरणम् व्रज."
सब धर्मों को छोड़ इन्सान को नाच, गाना, बजाना और सम्भोग की शरण लेनी चाहिए. बस.
बहुत हो चुकी बाकी बकवास.
बिना मतलब के इशू.
नाचते, गाते, सम्भोग में रत लोगों को कोई धर्म, देश, प्रदेश के नाम पर लडवा ही नहीं सकेगा.
और हाँ, सम्भोग मतलब, सम्भोग न कि बच्चे पैदा करना.
कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ.
देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की......पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन........सम्भोगालय....पवित्र स्थल...जहाँ डॉक्टर मौजूद हों.....सब तरह की सम्भोग सामग्री...कंडोम सहित..
और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं ...सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं ...और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी .....मजाल है कोई पागल हो जाए.
आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं
समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज रोटी न मिले, साफ़ हवा न मिले, पीने लायक पानी न मिले, सर पे छत न मिले, आसान सेक्स न मिले, बुद्धि को प्रयोग करने की ट्रेनिंग की जगह धर्मों की गुलामी मिले वो समाज पागल होगा ही 
और आपका समाज पागल है 
आपकी संस्कृति विकृति है
आपकी सभ्यता असभ्य है 
आपके धर्म अधर्म हैं 
नमन....तुषार कॉस्मिक
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