Saturday 25 February 2017

एक आप-बीती

इंडिया पोस्ट की एक सर्विस है 'ई-पोस्ट'. मुझे पता है आपको शायद ही पता हो. आप ई-मेल करो इंडिया पोस्ट को और वो प्रिंट-आउट निकाल आगे भेज देंगे. 

खैर, पश्चिम विहार, दिल्ली, पोस्ट ऑफिस वालों को पता ही नहीं था कि यह किस चिड़िया-तोते  का नाम है. सो गोल डाक-खाना जाना पड़ा. 

पौने चार बजे पहुंचा. छोटी बिटिया और श्रीमति जी के साथ. उनको बंगला साहेब गुरुद्वारा जाना था. चलते-चलते बता दूं कि मेरा  मंदिर, मस्ज़िद, गुरद्वारे का विरोध अपनी जगह है लेकिन ज़बरदस्ती किसी के साथ नहीं है. 

गोल डाक-खाना के जिस केबिन से ई-पोस्ट होना था, वहां कोई भावना मैडम थीं. कोई पचीस साल के लगभग उम्र. अब भावना जी इतनी भावुक थीं कि उन्होंने मुझे साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि ई-पोस्ट जो बन्दा करता है, वो आया नहीं है, सो मुझे संसद मार्ग वाले पोस्ट-ऑफिस जाना चाहिए लेकिन समय निकल ही चुका था सो मेरा वहां जाने का कोई फायदा नहीं था. फिर भी वो अपने केबिन से बाहर तक मुझे संसद मार्ग वाले डाक-खाने का राह दिखाने आईं. बाहर खड़े हो मैं खुद को कोसने लगा कि कुछ देर पहले आता तो शायद काम बन जाता.

लेकिन मुझे सरकारी लोगों पर कभी भरोसा नहीं होता. कुछ-कुछ ध्यान था मुझे कि वहां काम और देर तक होता है, शायद छह बजे तक. मैंने इन्क्वारी काउंटर पर पूछा कि काम कब तक होता है? उसने गोल-मोल जवाब दिया. मैंने देखा चार बजने के बाद भी बाबू लोग सीटों पर बैठे थे.

हम्म... तो मैंने काउंटर पर बैठे एक बाबू से पूछ ही लिया कि ई-पोस्ट कैसे होगी, कौन करेगा? उसने कहा कि भावना मैडम करेंगीं. मैंने कहा कि वो तो मना कर चुकीं, कह रही हैं कि उनके पास तो पास-वर्ड ही नहीं और जिसके पास है, वो छुट्टी पर है. उसने कहा कि किसी और को भेजता हूँ.

खैर, कोई आधे घंटे की जद्दो-जेहद के बाद कोई नए रंग-रूट टाइप के लड़के ने काम कर ही दिया. और हाँ, पास-वर्ड भावना मैडम से ही लिया गया और वो भी मेरे सामने. लेकिन अब रसीद के रूप में प्रिंट-आउट थमा दिया गया मुझे. मैंने कहा कि इस पर स्टाम्प लगा कर दो तो बड़ी मुश्किल एक गोल सी स्टाम्प मार दी गई  जिस पर लिखा पढने की कोशिश की तो कहावत याद आ गई,”लिखे मूसा, पढ़े खुदा."

मैंने कहा,"साफ़ स्टाम्प लगाएं." मुझे 'मेरी' नामक डिप्टी-पोस्ट-मास्टर के सामने पेश किया गया. पचास-पचपन साल की महिला. उनके रख-रखाव से कतई नहीं लगा कि वो डिप्टी-पोस्ट-मास्टरनी हैं. सामने खड़ा था मैं, साथ ही कुर्सी खाली पड़ी थी और  वो अपने साथी से बात करने में मशगूल रहीं. मुझे नहीं कहा कि बैठ जाऊं. मैं खड़ा इंतज़ार करता रहा. फ्री होकर मेरी बात सुनी 'मेरी' जी ने और स्टाम्प लगाने से साफ़ मना कर दिया. मैंने कहा,"ठीक है, मैं विडियो बनाता हूँ, आप ऑन-रिकॉर्ड कहें कि स्टाम्प नहीं लगातीं."  भड़क गई कि मैं धमका रहा हूँ, मैंने कहा, "स्टाम्प लगाने को कहना धमकाना कैसे हो गया?" पोस्ट मास्टर के पास धम्म-धम्म करती ले गईं. लेकिन वो समझदार निकले. मैडम को स्टाम्प लगानी पड़ी.

यह किस्सा आपको शायद कुछ सिखा पाए.

1.यह मान्यता झूठ है कि औरत कोई आदमी से नर्म दिल होती है. भावना मैडम को पता था कि मेरे साथ बीवी हैं, छोटी बच्ची है, वो काम कर सकती थीं, करवा सकतीं थीं, लेकिन मुझे टरका दिया. मेरे लिए अगला दिन खराब करने का सामान कर दिया. 

'मेरी' मैडम को सिर्फ स्टाम्प लगानी थीं, नहीं लगा कर दी, ड्रामा कर दिया. दोनों औरतें. 

और जो काम करवा कर दिया, वो क्लर्क 'आदमी' था और जिसने करके दिया था, वो एक 'लड़का' था. नया रंग-रूट. और स्टाम्प लगवा कर दी जिसने, वो  पोस्ट-मास्टर भी 'आदमी' था. 

2. सरकारी लोग सब तो नहीं लेकिन अक्सर गैर-ज़िम्मेदार मिलते हैं, जवाब-देयी से बचते हैं. सिर्फ मोटी तनख्वाह लेते हैं. न तो काम करना आता है और न ही करना चाहते हैं. उनके बाप का क्या जाता है? काम आपको करवाना होगा उनसे. अड़ के. लड़ के. 

3. अगर आपके पास सुई हो चुभोने को तो सरकारी आदमी जितना जल्दी फैलता है, उतना ही जल्दी सिकुड़ता भी है.

4. 'ई-पोस्ट' टेलीग्राम का ही एक अगला रूप है, जिसमें आप अपने भेजे कंटेंट को भी साबित कर सकते हैं. प्रयोग करें, ख़ास करके लीगल वर्क में. लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि किसी वकील को पता हो इसका. 

5. हर सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर से स्टाम्प लगवाएं और साइन भी करवाएं. ये नहीं करना चाहते चूँकि जवाब-देयी से बचना चाहते हैं. बिन साइन-स्टाम्प के आप क्या साबित करेंगे? मैं तो हैरान हूँ बहुत पहले बैंक स्टेटमेंट के नीचे पढ़ता था कि यह कंप्यूटर जनरेटेड स्टेटमेंट है, सो स्टाम्प-साइन की कोई ज़रूरत नहीं है! वल्लाह! इनको चाहिए कि बिना साइन के चेक भी कैश करना शुरू कर दें, बस बाकी सब भर दिया जाए, काफी है. नहीं?

नोट- इस पोस्ट में दिए नाम और स्थान सब असली हैं, कर ले जिसने जो करना हो.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Friday 24 February 2017

लीडर कौन?

बहुत पहले मैने 'लैंडमार्क फोरम' अटेंड किया था. सिक्ख थे, कोई चालीस एक साल के जो वर्कशॉप दे रहे थे. एक जगह उन्होंने लीडर की परिभाषा देने को कहा. अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिभाषा दी. उन्होंने जो परिभाषा फाइनल की वो थी, "लीडर वो है जो बहुत से लीडर पैदा करे."

तब मैं सोच रहा था कि लीडर चाहे और लीडर पैदा करेगा लेकिन फिर भी कोई लोग तो फोलोवर ही रहेंगे. क्या बढ़िया हो कि कोई लीडर और कोई फोलोवर ही न रहे! या यूँ कहें कि हर कोई अपना ही लीडर हो, क्यूँ किसी और को कोई फॉलो करे?

आज मेरा मानना है कि यह सोचना तो सही है लेकिन जिस तरह की दुनिया है, उस स्थिति तक दुनिया को ले जाने में जहाँ हर कोई खुद को लीड कर सके, ढेर सारे लीडरों की ज़रूरत होगी.

तो मेरा नतीजा यह है कि लीडर वो है, जो बहुत से लीडर पैदा करे. ऐसे लीडर जो इस तरह की दुनिया बनाने में मददगार हों जहाँ सब अपनी अक्ल से खुद को लीड कर सकें.

नोट:--- पोस्ट का पोलटिकल लीडरों से कोई मतलब नहीं चूँकि ये लोग मेरी लीडर की परिभाषा में नहीं आते.

Tuesday 21 February 2017

ओशो--न भूतो, न भविष्यति

ओशो महान हैं. बेशक. 

लेकिन 'न भूतो, न भविष्यति'? ऐसा मैंने कईयों को कहते सुना है. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है.

ओशो के साथ बहुत कुछ अच्छा घटित होते-होते रह गया.
और ज़िम्मेदार खुद ओशो हैं.

गोविंदा का एक गाना है, "मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं मेरी मर्ज़ी." ऐसे ही हैं ओशो के कथन. पढ़ते जाएं ओशो को, सब घाल-मेल कर गए हैं.

पहले कहा कि कुरआन महान है, बाद में बोले कचरा है और साथ में यह भी बोले कि जान-बूझ कर कुरआन पर नहीं बोले चूँकि मरना नहीं चाहते थे. यह है उनका ढंग.

आरक्षण पर बहुत पॉजिटिव थे. शूद्र जिनको कहा गया उनके साथ ना-इंसाफी हुई, ठीक है, लेकिन उसका हल आरक्षण है? आज भारत का युवा जो अनुसूचित जाति का नहीं है, वो विदेशों में बस रहा है, एक वजह आरक्षण है. आरक्षण न पहले हल था, न आज हल है. यह भारत को  तोड़ देगा. आरक्षण सिर्फ हरामखोरी है. अभी हरियाणा के जाट रेप तक कर गए हैं आरक्षण लेने के लिए. अब कह रहे हैं कि दिल्ली को दूध नहीं देंगे. सब बकवास. और ओशो आरक्षण के पक्ष में खड़े हैं.

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ओशो कम्यून में कौन सा एड्स टेस्ट होता था जबकि एड्स का इंस्टेंट टेस्ट तो कोई था ही नहीं. 

वहां अमेरिका में कम्यून की दुर्गति के लिए भी ओशो ज़िम्मेदार थे, सारा भांडा फोड़ दिया मां आनंद शीला पर. वो अगर क्राइम कर रही थी, जिसे ओशो ने खुद बार-बार स्वीकारा, तो ओशो वहां शीत-निद्रा में क्यूँ सोये हुए थे, अपने पांच हजार लोगों का जीवन खतरे में डाले?

और जो ओशो कभी समझौता नहीं करने की बात करते थे, लाखों डॉलर की पेनल्टी देकर, समझौता करके वहां से बाहर आए थे.

और ओशो कहते रहे कि ध्यान करने वाले लोगों का कोई बुद्ध-चक्र (Budha Cycle) दुनिया को घेर लेगा तो दुनिया में असीम बदलाव आ जायेंगे, दुनिया बदल जायेगी. कुछ न हुआ ऐसा, और न होगा. दुनिया बदतर हो चुकी है. और गर दुनिया बदलेगी तो वो इस तरह से तो बदलने से रही. ध्यान एक आयाम है, दूसरा आयाम है तर्क. जब तक दुनिया तर्क की तपस्या में से नहीं गुजरेगी, नहीं बदलेगी.

बहुत पहले मैने 'लैंडमार्क फोरम' अटेंड किया था. सिक्ख थे, कोई चालीस एक साल के जो वर्कशॉप दे रहे थे. एक जगह उन्होंने लीडर की परिभाषा देने को कहा. अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग परिभाषा दी. उन्होंने जो परिभाषा फाइनल की वो थी, "लीडर वो है जो बहुत से लीडर पैदा करे."

तब मैं सोच रहा था कि लीडर चाहे और लीडर पैदा करेगा लेकिन फिर भी कोई लोग तो फोलोवर ही रहेंगे. क्या बढ़िया हो कि कोई लीडर और कोई फोलोवर ही न रहे! या यूँ कहें कि हर कोई अपना ही लीडर हो, क्यूँ किसी और को कोई फॉलो करे?

आज मेरा मानना है कि यह सोचना तो सही है लेकिन जिस तरह की दुनिया है, उस स्थिति तक दुनिया को ले जाने में जहाँ हर कोई खुद को लीड कर सके, ढेर सारे लीडरों की ज़रूरत होगी.

तो मेरा नतीजा यह है कि लीडर वो है, जो बहुत से लीडर पैदा करे. ऐसे लीडर जो इस तरह की दुनिया बनाने में मददगार हों जहाँ सब अपनी अक्ल से खुद को लीड कर सकें.

पोलटिकल लीडरों से कोई मतलब नहीं चूँकि ये लोग मेरी लीडर की परिभाषा में नहीं आते.

लेकिन लीडर की इस परिभाषा पर  ओशो को खरा नहीं उतरता देखा मैं.

मैंने लिखा कि ओशो के साथ दुनिया में क्रांति घटित होते-होते रह गई. आज दुनिया ओशो के समय से बदतर है. और ओशो के पैरोकारों में एक ने भी कोई तीर  नहीं मारा, कद्दू में भी नहीं. विनोद खन्ना उनके बाद राजनीति में आए और फिल्मों में भी. दोनों जगह कुछ नहीं कर पाए. उनसे तो बेहतर केजरीवाल जैसे लोग हैं, सही-गलत अपनी जगह लेकिन राजनीति में हलचल तो मचाये हैं. विनोद खन्ना के पास इन सब से बड़ी पहचान थी, पैठ थी लेकिन सब फुस्स.

एक हैं स्वामी अगेह भारती. वो बस यही लिखते रहते हैं कि वो कब-कब ओशो के साथ थे. किताबें लिख दीं उन्होंने बस यही सब बताने हेतु. जिसे बहुत रुचि हो कहानियाँ पढ़ने में, पढ़ सकता है उनको. लेकिन क्या हल है इससे?

पूना वाले शिष्य और दिल्ली के शिष्य आपस में कॉपी-राईट मुद्दे पर ही उलझते रहे हैं वर्षों तक. इसलिए कि ओशो के वृहत साहित्य का कोई इकलौता वारिस है या नहीं.

यहाँ फेसबुक पर अपने नामों के पीछे ओशो का दुमछल्ला लगाए अनेक मिल जायेंगे. अपनी छोड़ ओशो की फोटो लगाए घूम रहे हैं. जो ओशो कहते रहे कि ओरिजिनल बनो, कॉपी मत बनो, उनके शिष्य. 

लेकिन उसमें भी ओशो का ही दोष है, वही तो लोगों को सन्यास देते थे, नाम बदलते थे, चोगा देते थे, शुरू में अपनी फोटो की माला देते थे. जानते हुए कि लोग बड़ी जल्दी गुलाम बन जाते हैं. 

आज उनके शिष्य आगे सन्यास देते हैं. सब व्यर्थ. सब राख़. एक में भी आग नहीं.
वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

पीछे मैं लगातार ओशो के विचारों उनके कर्मों का विरोध कर रहा था, तो  फेसबुक पर मौजूद उनके चेले-चांटों में और किसी भी और धर्म को मानने वाले धर्मान्धों में रत्ती भर फर्क नहीं पाया. कोई हंस रहा था बेमतलब, कोई रो रहा था. कोई कह रहा था कि मुझे हक़ ही क्या था ओशो पर टिप्पणी करने का. एक से एक बकवास कमेंट. वैसे ही लोग आगे कहते फिरते हैं, "ओशो न भूतो, न भविष्यति."

"न भूतो, न भविष्यति" किसी के लिए भी कहना सही नहीं है....जैसे मुस्लिम कहते हैं कि मोहम्मद आखिरी पैगम्बर हो गए, सिक्ख कहते हैं कि गुरु दस हो गए तो बस. आगे कुरआन और आगे गुरु ग्रन्थ, बस. लेकिन यह सब सोच अनर्गल है...आगे न दुनिया रूकती है और न ही नए लोगों का आना, ऐसे लोग जो बेशकीमती होते हैं. और भूतकाल में भी हर कीमती व्यक्ति ने अपना भरपूर योगदान दिया है. नानक साहेब अपने समय पैदल चल-चल कर दुनिया भर में संदेश फैलाते रहे. आज कोई विमान से उड़-उड़ कर यही काम करता हो सकता है. कीमती लोग. गोबिंद सिंह साहेब तक आते आते हथियार उठा लिए गए. कुर्बानियां दीं गईं. कीमती लोग. 'न भूतो, न भविष्यति' वाली कोई बात नहीं. सब एक से एक कीमती. बेशकीमती.

साहिर लुधियानवी ने लिखा है.

"मै पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है 
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है

मुझसे पहले कितने शायर आये और आकर चले गये
कुछ आहें भरकर लौट गये, कुछ नगमें गाकर चले गये
वो भी इक पल का किस्सा थे, मै भी इक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा, जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ

कल और आयेंगे नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"

यह है जीवन की हकीकत....न कि "न भूतो, न भविष्यति".
किसी के लिए भी नहीं.

भविष्य अगर हमसे बेहतर नहीं होगा, तो उसे भविष्य कहलाने का हक नहीं होगा. उसे भविष्य कह कर भविष्य के साथ ना-इंसाफी न कीजिये.

नमन ..तुषार कॉस्मिक

Monday 20 February 2017

जहन्नुम रसीद करो जन्नत और जहन्नुम को

कभी गरुड़ पुराण पढना, जो हिन्दू लोग किसी के मरने पर अपने घरों में पढवाते हैं. बचकाना. महा बचकाना कथन. सबूत किसी बात का नहीं.

इस्लाम में भी “आखिरत” की धारणा है. मरने के बाद इन्सान को उसके इस जीवन में कर्मों के हिसाब से इनाम या सज़ा.
सब बकवास है, किसी बात का कोई सबूत नहीं.
बस लम्बी-लम्बी छोड़ी गई हैं.
जन्नत, जहन्नुम दोनों को जहन्नुम रसीद करो.
ख्वाबों की दुनिया से बाहर आओ.
जो है यहीं है. यह जो तुम हिन्दू, मुसलमान, इसाई आदि नामक गुलामियाँ अपने गले में लटकाए घूमते हो, यही जहन्नुम है.
और वो जो बच्चा जनरेटर की आवाज़ पर नाच रहा है, वो ही जन्नत है.

आज याद आया एक किस्सा कि कोई सूफी औरत बाज़ार में दौड़ रही थी , एक हाथ में आग और दूसरे में पानी लिए.
पूछने पर बोली कि जन्नत को जला दूंगी और जहन्नुम को डुबा दूंगी.
उसका कुल मतलब यह है कि जन्नत के लोभ और जहन्नुम के डर पर खड़ा मज़हब बकवास है.
और आपके सब मज़हब ऐसे ही हैं. जन्नत और जहन्नुम पर खड़े मज़हबों ने इस दुनिया को जहन्नुम कर दिया है.

आप जन्नत को, जहन्नुम को जहन्नुम रसीद करें, दुनिया, यही दुनिया जन्नत है.
"लाइफ में ऊपर जाने के लिए कभी कभी नीचे जाना पड़ता है.”

बकवास!

हाँ, जम्प करने के लिए थोड़ा पीछे हटना पड़ सकता है.

बस!

I am MENTAL

Of-course I am physical also but I am more mental. People use less mind and more physique. Here, with me it is the opposite. I do not believe in lifting a finger without being mental, without being mindful. 

So it is okay to call me MENTAL.

Saturday 18 February 2017

संता-बंता चुटकलों पर कोर्ट केस

मैं अक्सर लिखता हूँ, कहता हूँ कि लोग अपनी पोल खुद खोल देते हैं. और बहुत बार तो पोल छुपाने के चक्कर में पोल खोल देते हैं. चोर की दाढ़ी में तिनका. 

संता-बंता चुटकलों पर सिक्खों की किसी जमात ने कोर्ट में केस ठोक रखा था. अब किसी ने नहीं कहा कि वो 'संता-बंता' सिक्ख हैं. सिक्ख छोड़ो, इन चुटकलों में संता-बंता के नामों के साथ 'सिंह' तक नहीं जोड़ा जाता. 

वैसे 'सिंह' तो कोई भी अपने नाम के साथ लगा रहा है. स्त्रियाँ भी. मेरी एडवोकेट बिहार से हैं. उनका नाम है 'रीना सिंह'. हिन्दू हैं. सिक्खी से कोई नाता नहीं है. 

पता नहीं संता-बंता चुटकलों को अपने खिलाफ कैसे मान लिया सिक्ख बंधुओं ने?

अब चुटकलों से धार्मिक भावनाएं आहात होने लगी हैं.

तौबा!

अधकचरे अरविन्द केजरीवाल

मुझे अरविन्द केजरीवाल  उथली सोच के लगते हैं.

दिल्ली कार चलाने लायक नहीं रही. दोपहिया चलाओ तो फ्रैक्चर कभी भी हो सकता है. पैदल चलने वालों का हक़ पहले ही खत्म है. सो आजकल मेट्रो से चलता हूँ, जब-जब सम्भव हो. मेट्रो में फोटो खींच नहीं सकते, सो मेरे शब्दों पर भरोसा करें.  अंदर छोटे-छोटे पोस्टर लगे थे. सिक्खों के किसी गुरुपर्व की बधाइयां, अरविन्द केजरीवाल की तरफ से. 

जनतंत्र का क..ख..ग नहीं पता इन नेताओं को. अरे यार, स्टेट सेक्युलर होनी चाहिए अगर आपके मुल्क में सेकुलरिज्म है तो. मतलब स्टेट धर्मों से अलग रहेगी हमेशा. वो एक मशीन की तरह काम करेगी. संविधान और विधान के कायदे से बंधी मशीन. उसे न ईद से मतलब होना चाहिए, न गुर-पर्व से और न दशहरे से. वो न आस्तिक है और न नास्तिक. 

अब  जो स्टेट्समैन हर तीज-त्योहार की बधाई देते फिरते हैं, वो क्या ख़ाक समझते हैं सेकुलरिज्म क्या है. वो स्टेट्समैन बनने के लिए क्वालीफाई ही नहीं करते. 

गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव हैं. दिल्ली पटी है पोस्टरों से.  सिक्ख बन्धु बढ़- चढ़ हिस्सा ले रहे हैं. ऐसे चुनावों में अपने पंथ, धर्म. महज़ब को यदि कोई बढ़ावा दिखे तो कोई एतराज़ नहीं मुझे. लेकिन दिक्कत तब है जब नेतागण हर चुनाव को धार्मिकता, मज़हबी रंग देने लगते हैं. 

कल यदि मुल्क में नास्तिक ज़्यादा हो गए, अग्नोस्टिक ज़्यादा हो गए तो फिर क्या नास्तिकता की, अग्नोस्टिकता की भी बधाइयां देंगे? 

स्टेट और स्टेट्समैन सब धर्मों से, आस्तिकता-नास्तिकता-अग्नोस्टिकता से अलग रहते हैं सेकुलरिज्म में.    

सेकुलरिज्म का मतलब सब धर्मों का सम्मान करना नहीं है. इसका मतलब सब धर्मों के प्रति उदासीन रहना है. न सिर्फ धर्मों के प्रति बल्कि आस्तिकता के प्रति, नास्तिकता, अज्ञेयवाद के प्रति भी उदासीनता. सेकुलिरिज्म ऐसी सब धारणाओं का न तो सम्मान करता है और न ही असम्मान. 

कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत स्तर पर कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दे सकता है, नकार सकता है. लेकिन जब वो किसी सेकुलरिज्म में स्टेट्समैन बनता है तो एक स्टेट्समैन के नाते यदि वो यह सब करता है, तो गलत है, सेकुलरिज्म के खिलाफ है.

हा! रे भारत! तेरे भाग्य में तुषार कॉस्मिक पता नहीं है कि नहीं. तब तक अरविन्द जैसों से काम चला. मोदी जी और ओवेसी बन्धुओं का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि जब अरविन्द ही क्वालीफाई नहीं करते तो ये महाशय कैसे करेंगे?

मैं बे-ईमान हूँ

बहुत शब्द अपने असल मानों से हट जाते हैं तथा उनके कुछ और ही मतलब प्रचलित हो जाते हैं.

राशन शब्द का अर्थ रसोई सामग्री से लिया जाता है. लेकिन इसका असल मतलब है सीमित होना. किसी दौर में एक सीमित मात्रा में दाल, चावल, चीनी ही ले पाते थे लोग. सरकारी सिस्टम से. सरकारी दूकान को राशन ऑफिस कहते हैं. राशन कार्ड तो सुना ही है आपने. सीमित ही मिलता है सामान आज भी वहां से. तो लोगों ने दाल, चावल, चीनी को ही राशन समझ लिया. आज हम किसी भी स्टोर से यह सब लेते हैं तो कहते हैं कि राशन ले रहे हैं. जैसे किसी दौर में लोग दांत साफ़ करने को 'कोलगेट करना' ही बोल जाते थे. जैसे बचपने जब आता 'पेशाब' था तो हम कहते थे, "मैडम, 'बाथरूम' आया है." बेचारा 'बाथ-रूम'.

ईमान-दार और बे-ईमान शब्दों का अर्थ 'Honest' और 'Dishonest'  ले लिया गया लेकिन इन शब्दों का असल मतलब सिर्फ 'मुस्लिम' और 'गैर-मुस्लिम' होना है. Believers & Non-believers. चूँकि इस्लाम  के  मुताबिक ईमान एक ही है और वो है 'इस्लाम'. जो इस्लाम से बाहर है वो बे-ईमान है और जो इस्लाम के अंदर है वो ईमान-दार है.

सो मैं तो बे-ईमान हूँ, आप क्या हैं बताएं?

Tuesday 14 February 2017

वैलेंटाइन डे स्पेशल

किस को "किस ऑफ़ लव" पसंद न होगी. नहीं पसंद तो वो इन्सान का बच्चा/बच्ची हो ही नहीं सकता/सकती. जब सबको लव पसंद है, किस ऑफ़ लव पसंद है तो फिर काहे का लफड़ा, रगड़ा?

लेकिन लफड़ा और रगडा तो है. और वो भी बड़ा वाला. समाज का बड़ा हिस्सा संस्कृति-सभ्यता की परिभाषा अपने हिसाब से किये बैठा है.

इसे भारत की हर सही-गलत मान्यता पर गर्व है लेकिन इसे कोई मतलब ही नहीं कि यही वो पितृ-भूमी है, मात-भूमी, पुण्य-भूमी है जहाँ वात्स्यान ने काम-सूत्र गढा और उन्हे ऋषि की उपाधि दी गयी, महर्षि माना गया.

यहीं काम यानि सेक्स को देव यानि देवता माना गया है, “काम देव”.

यहीं शिव और पारवती की सम्भोग अवस्था को पूजनीय माना गया और  मंदिर में स्थापित किया गया है.

यहीं खजुराहो के मन्दिरों में काम क्रीड़ा को उकेरा गया. काम और भगवान को करीब माना गया. न सिर्फ स्त्री-पुरुष की काम-क्रीड़ा को उकेरा गया है, बल्कि पुरुष और पुरुष की काम-क्रीड़ा को भी दर्शाया गया है. बल्कि पुरुष और पशु की काम क्रीड़ा को भी दिखाया गया है. मुख-मैथुन दर्शाया है और समूह-मैथुन भी दिखाया गया है और असम्भव किस्म के सम्भोग आसन दिखाए गए हैं.

और ऐसा ही कुछ कोणार्क के मंदिर में है.

यहीं पंडित कोक ने "रति रह्स्य/ कोक शास्त्र " की रचना की है.

यहीं राजा भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक लिखा है.

यहीं महाकवि कालिदास अपने काव्य "कुमार सम्भवम" में शिव और पार्वती के सम्भोग का  बहुत बारीकी से वर्णन करते हैं, मैंने सुना है कि संघी मित्रगण कहते हैं शेक्सपियर को मत पढ़ो, कालिदास पढ़ो, हमारे स्थानीय महाकवि. ठीक है, पढ़ लेते हैं, मस्तराम को मात करते हैं आपके महाकवि, पढ़ कर देख लीजिये.

और यहीं लड़कियों के नाम 'रति' रखे जाते हैं, रति अग्निहोत्री फिल्म एक्ट्रेस याद हों आपको. तो  रति क्रिया में संलग्न हो, यह आसानी से स्वीकार्य नहीं है.

यहीं #वैलेंटाइन डे से सदियों पहले वसंत-उत्सव मनाया जाता था, जिसमें स्त्री पुरुष एक-दूजे के प्रति स्वतन्त्रता से प्रेम प्रस्ताव रखते रहे हैं.

और यहीं पर कृष्ण और गोपियों की प्रेमलीला गायी जाती है.

और यहीं 'गीत गोविन्द' के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका ‘रतिमंजरी’ में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत किया है और मैंने अभी पढ़ा कि जयदेव को भगत माना गया है, गुरु ग्रन्थ साहेब तक में उनका ज़िक्र है.

और यहीं के पवित्र ग्रन्थ 'वाल्मीकि रामायण' के अनुसार 'अशोक वाटिका' में बैठी सीता को राम की पहचान बताते हुए हनुमान राम के लिंग और अंडकोष तक की रूप-रेखा बताते हैं.

यहीं लिखे महान  ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण के रचयिता जब भी माँ सीता का ज़िक्र करते हैं तो उन्हें पतली कमर वाली, भारी नितंभ वाली, सुडौल वक्ष वाली बताते  हैं...तब भी जब  सीता-हरण के बाद राम उन्हें ढूंढते फिरते हैं.

और यहीं पर यदि पति बच्चा पैदा करने में अक्षम होता था तो किसी अन्य पुरुष से अपनी पत्नी का सम्भोग करा सन्तान पा लेता था. राम और उनके भाई इसी तरह पैदा हुए थे और कौरव भी और पांडव भी.

आपने पढ़ा होगा संस्कृत ग्रन्थों में राजा लोग "अन्तः पुर" में विश्राम करते थे.....वो सिवा हरम के कुछ और नहीं थे....इस वहम में मत रहें कि हरम कोई मुस्लिम शासकों के ही थे.

और यहीं पर रामायण काल की 'गणिका' से,  बुद्ध के समय की 'नगरवधू'  और आज के  कोठे की 'वेश्या' मौजूद है.

और यहीं पर विधवा और वेश्या दोनों के लिए “रंडी” शब्द प्रयोग होता रहा है.

अब समाज का बड़ा हिस्सा यह सब कहाँ सुनने को तैयार है? संस्कृति की इनकी अपनी परिभाषा है,  अपने हिसाब से जो चुनना था चुन लिया, जो छोड़ना था छोड़ दिया.

अक्सर बहुत से मित्रवर "चूतिया, चूतिया" करते हैं, "फुद्दू फुद्दू" गाते हैं.
नई गालियाँ आविष्कृत हो गईं हैं. "मोदड़ी के" और "अरविन्द भोसड़ीवाल". 

लेकिन तनिक विचार करें असल में हम सब "चूतिया" हैं और "फुद्दू" है, सब योनि के रास्ते से ही इस पृथ्वी पर आये हैं, तो हुए न सब चूतिया, सब के सब फुद्दू?

और हमारे यहाँ तो योनि को बहुत सम्मान दिया गया है, पूजा गया है. जो आप
शिवलिंग देखते हैं न, वो शिवलिंग तो मात्र पुरुष प्रधान नज़रिए का उत्पादन है, असल में तो वह पार्वती की योनि भी है, और पूजा मात्र शिवलिंग की नहीं है, "पार्वती योनि" की भी है.

हमारे यहीं आसाम में कामाख्या माता का मंदिर है, जानते हैं किस का दर्शन कराया जाता है? माँ की योनि का, दिखा कर नहीं छूया कर.

वैष्णो देवी की यात्रा अधिकांश हिन्दू करते हैं. कटरा से भवन तक की यात्रा के बीच एक स्थल है, "गर्भ जून". यह एक छोटी सी संकरी गुफ़ा है. इसमें से होकर आगे की यात्रा करनी होती है. काफ़ी मुश्किल से निकला जाता है इसमें से. लेकिन लगभग सभी निकल जाते हैं. यह बहुत ही कीमती स्थल है. इसके गहरे मायने हैं. यह गर्भ जून है. जून शब्द योनि से बना है. तो यह गर्भ योनि है. 

वो जो गुफ़ा का संकीर्ण मार्ग है, वो योनि मार्ग है. आप जन्म लेते ही बच्चे के दर्शन करो, उसके गाल, नाक सब लाल-लाल होते हैं, छिले-छिले से. संकीर्ण मार्ग की यात्रा करके जो बाहर आता है वो. कुछ ऐसा ही हाल होता है, जब यात्रीगण गर्भ-जून गुफ़ा से बाहर निकलते हैं. 

अब जैसे ही बच्चा माँ की योनि से बाहर आता है,  माँ और बच्चे का मिलन होता है, मां उसे चूमती है, चाटती है, प्यार करती है, ठीक वैसे ही गर्भ जून से निकल यात्री वैष्णो माँ से जा मिलते  हैं.  
यह है योनि का महत्व. 

और हमारे यहाँ तो प्राणियों की अलग-अलग प्रजातियों को 'योनियाँ' माना गया है, चौरासी लाख योनियाँ, इनमें सबसे उत्तम मनुष्य योनि मानी गयी है. 
योनि मित्रवर, योनि.
यह है योनि का महत्व. 

और यहाँ मित्र 'चूतिया चूतिया' करते रहते हैं.

चलिए अब थोड़ी चूतड़ की बात भी कर लेता हूँ. गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के लगभग मध्य में हनुमान का मंदिर है, नाम है "चूतड़ टेका मंदिर". यहाँ पर परिक्रमा करने वालों के लिए अपने चूतड़ टेकना अनिवार्य माना जाता है.

राजस्थान में इलोजी के मंदिर हैं. यह कोई मूछड़ देवता है. लम्बा लिंग लिए नंग-धडंग. स्त्रियों,पुरुषों दोनों में प्रिय. पुरुष इसके जैसा लिंग चाहते हैं, काम शक्ति चाहते हैं और बेशक स्त्रियाँ भी. सुना है इसके गीत गाये जाते हैं, फाग. नवेली दुल्हन को दूल्हा अपने साथ ले जा इसे पेश करता है, वो इसका आलिंगन करती है, असल में पहला हक़ नयी लड़की पर उसी का जो है. ब्याहता औरतें भी उसके लिंग को आ-आ कर छूती हैं पुत्र  की प्राप्ति के लिए भी. वैसे शिवलिंग पूजन और कुआंरी लड़कियों का सोमवार व्रत भी यही माने लिए है. 

आप शब्द समूह देखते हैं “काम-क्रीड़ा”, यानी सेक्स को खेल माना गया लेकिन यहाँ चुम्बन तक के लिए बवाल मचा है

असल में दुनिया की सब पुरानी व्यवस्थाएं विवाह पर आधारित हैं........विवाह बंधन है, विवाह आयोजन है...प्रेम स्वछंदता है......स्वतंत्रता है......बगावत है....

विवाह मतलब एक स्त्री-एक पुरुष, फिर इनके बच्चे, फिर आगे इनकी शादियाँ, फिर बच्चे..........

अब कहाँ ज़रूरी है कि प्रेम  इस तरह से ही सोचे? सोच भी सकता है और नहीं भी.

प्रेम आग है, जो इन सारी तरह की व्यवस्थाओं को जला कर राख कर सकता है
प्रेम अपने आप में स्वर्ग है, किसे पड़ी है मौत के बाद की जन्नत की, स्वर्ग की
प्रेम अपने आप में परमात्मा है, किसे पड़ी है मंदिरों में रखे परमात्मा की
प्रेम अपने आप में नमाज़ है, किसे पड़ी है अनदेखे अल्लाह को मनाने की
प्रेम सब उथल पुथल कर देगा

इसलिए प्रेम की आज़ादी जितनी हो सके, छीनी जाती है.
कहीं पत्थरों से मारा जाता है प्रेम करने वालों को, कहीं फांसी लगा दी जाती है.

लेकिन नहीं, बगावत शुरू हो चुकी है, वहां पश्चिम  में FEMEN नाम से स्त्रियों ने नग्न विरोध शुरू कर दिया है, विरोध लगभग सारी पुरातन, समय बाह्य मान्यताओं का.

अब यहाँ के युवाओं ने भी साहसिक कदम उठाया है, यह कदम स्वागत योग्य है, जितना समर्थन हो सके देना चाहिए.....अरे, वो युवा क्या चोरी कर रहे हैं, क़त्ल कर रहे हैं, वो कोई डकैत हैं, वो कोई राजनेता हैं ..कौन हैं ..साधारण लडके, साधारण लड़कियां .....लेकिन आसाधारण कदम.

जिस से नहीं देखा जाता न देखे, अपनी आँखे घुमा ले........बदतमीज़ सरकारी कर्मचारी देखे जाते हैं......रिश्वतखोर नेता देखे जाते हैं.........एक दूजे को धोखा देते लोग देखे जाते हैं....प्रेम करते हुए जोड़े नहीं देखे जाते..लानत है!

एक बात समझ लीजिये सब साहिबान, यह जो एक स्त्री-एक पुरुष आधारित सामाजिक व्यवस्था बनाई गयी है न, यह स्त्री पुरुष सम्बन्धों का “एक” विकल्प रहने वाली है, न कि “एक मात्र विकल्प”.

भारत में ही आदिवासी लोगों में एक सिस्टम है,"घोटुल".

यह घोटुल बड़ा क्रांतिकारी व्यवहार है, पीछे Aldous Huxley की रचना पर आधारित फिल्म देख रहा था.... Brave New World.

घोटुल और इस फिल्म में कुछ समानताएं हैं.

घोटुल गाँव के बीच में एक तरह का बड़ी सी झोंपड़ी है.......यहाँ नौजवान लड़के लड़कियों की ट्रेनिंग होती है, आगामी जीवन के लिए...सिखलाई.

यह विद्यालय है, लेकिन यहाँ कुछ ऐसा है जिसे हमारा तथा-कथित सभ्य समाज तो शायद ही स्वीकार कर पाए.

यहाँ की लड़कियां और लडके आपस में सम्भोग करते हैं......कुछ नियम हैं कि कोई भी लड़का /लडकी एक ही व्यक्ति के साथ ही सम्भोग करता/करती नहीं रह सकता/सकती.

और कहते हैं कि बहुत ही कामयाब सिस्टम है. बहुत ही शांत व्यवस्था.
अब हमारे तथा-कथित समाज सुधारक चले हैं इनका विरोध करने ....
खैर ठीक से देख लीजिये, हम आदिवासी हैं या घोटुल व्यवस्था वाले लोग.

कल तक आपके पवित्र समाज में प्रेम-विवाह की चर्चा महीनों तक होती थी, मोहल्ले भर होती थी, प्रेम-विवाह बड़ा क्रांतिकारी कदम माना जाता था, आज कोई कान तक नहीं धरता कि किसका विवाह कैसे हुआ.

कल तक आप कल्पना नहीं कर सकते थे कि स्त्री-पुरुष बिन विवाह के कानूनी रूप से साथ रह पायेंगे, लेकिन आज रहते हैं.

आज जो आप कल्पना नहीं कर सकते वो होने वाला है आगे, यहाँ लिव-इन तो है ही, यहाँ "ग्रुप-लिव-इन" भी आने वाला है.

यहाँ पारम्परिक शादी भी रहेगी, अभी तो रहेगी, यहाँ लिव-इन भी रहेगा और यहाँ “ग्रुप-लिव-इन” भी आयेगा.

यह जो "किस ऑफ़ लव" का विरोध है, वैलेंटाइन डे का विरोध है,  वो सिर्फ पारम्परिक शादी व्यवस्था का खुद को बचाने का जोर है, पुराने समाज का खुद को बचाने का प्रयास है.

और सब धर्मनेता, राजनेता की शक्ति पुरानी, पारम्परिक शादी व्यवस्था से आती है, यह व्यवस्था क्षीण हुयी तो सारा सामजिक ढांचा उथल-पुथल हो जाएगा. नयी व्यवस्था में कौन परवा करने वाला है इनकी? बच्चे पता नहीं कैसी व्यवस्था में पलेंगे? हिन्दू का बच्चा पता नहीं हिन्दू रहे न रहे?

और फिर जब जीवन ही मन्दिर हो जाए तो पता नहीं कोई राम मंदिर की परवाह करे न करे, जब ज़िंदगी पाक़ हो तो किसे परवाह पाकिस्तान की-हिंदुस्तान की?

इसलिए  लफड़ा है और रगडा है...और वो भी बड़ा वाला.

लेकिन होता रहे यह लफड़ा, रगड़ा, अब बहुत लम्बी  देर नहीं टिकने वाला....पूरी दुनिया के ढाँचे टूट रहे हैं.....बगावतें हो रही हैं.....भविष्य...भविष्य उम्मीद से ज़्यादा निकट है...'भविष्य वर्तमान है'.

लाख  गाली देते रहें संघी सैनिक, लाख कहते रहें कि ये लड़कियां रंडियां है, ये लड़के रंडपना कर रहे हैं, अपने माँ-बाप के सामने यह सब करें, लाख कहते रहें कि जो समर्थक हों इस मुहिम के अपनी बेटियों, बहनों को भी यह  छूट दें..... कुछ नहीं होने वाला.

और लगाते रहें लेबल कि यह तो कम्युनिस्ट का षड्यंत्र है, यह तो पश्चिम का अंध-अनुकरण है......नहीं है, यदि षड्यंत्र है तो फेसबुक का है, whatsapp का है, इन्टरनेट का है, कंप्यूटर का है, मोबाइल फ़ोन का है ....विचार बिजली की गति से यात्रा करता है.....आप रोक नहीं पायेंगे.

और कहते रहे कि यह वामपंथ है.....खुद ही टैग लगा दिया कि हम  दक्षिणपंथी हैं और जो विरोध में वो वामपंथी......राईट इस ऑलवेज राईट एंड लेफ्ट इज़ रॉंग. 

सुना है कि जब पहली बार हवाई जहाज उड़ा तो बस थोड़ा ही उड़ पाया, चंद मीटर और फिर गिर गया.......जब पहली बार कार बनाई गयी तो उसमें बेक गियर नहीं लगाया जा पाया.....आज हवाई जहाज उड़ता है मीलों और अन्तरिक्ष यान भी......और तो और कार भी उड़ने की तैयारी में है.

यदि पारम्परिक विवाह से हट के कोई सामाजिक व्यवस्था ठीक से स्थापित नहीं  हो पायी तो यह कैसे मान लिया गया कि आगे भी न हो पायेगी? कार में बैक गियर लगा न.....हवाई जहाज उड़ा न ..और कार हवाई जहाज बनने को है न और हवाही जहाज कार बनने को है न ...है न?

मूर्ख यह नहीं समझते कि आप लोगों के सख्त विरोध की वजह से ही लड़के-लड़कियां सडकों पर उतर आते हैं .....काश कि आपने प्यार से उन्हें समझाया होता कि प्रेम करने में, चुम्बन में कोई अपराध नहीं.......लेकिन बेहतर हो इसे तमाशा न बनाया जाए....हजार तरह से समझाया जा सकता है....लेकिन नेगेटिव रवैये ने सारा मामला सड़क पर उतर आता है.

इसी तरह के सख्त विरोध की वजह से पीछे लड़के-लड़कियों ने "किस ऑफ़ लव" नाम से जेहाद छेड़ दी थी. मूर्ख तो यह तक कह रहे थे कि "किस ऑफ़ लव" क्यों कहा गया, क्या कोई बिना लव के भी किस होती है....... होती है बंधुवर, होती है, किस तो एक बलात्कारी भी कर सकता है, लेकिन यह किस "किस ऑफ़ लव" तो कदापि नहीं होती.

और मूर्ख तो यह कह रहे हैं कि सड़क पर प्रेम तो कुत्ते बिल्ली करते हैं, हम इंसान हैं, हमें शोभा देता है क्या? देता है शोभा, बिलकुल शोभा देता है.......यदि आप समझते हैं कि यह कुछ अशोभनीय है तो आप कुत्ते बिल्लियों से ऊपर नहीं उठ गए हैं, नीचे गिर गए हैं........समझते ही नहीं मित्रवर, भाई जी, बहिन जी, सेक्स को हमारे यहाँ पूजनीय माना गया है, मन्दिरों में रखा गया है, भगवान माना गया है और आप कहते हैं कि सार्वजनिक स्थलों पर चुम्बन तक न करो, आलिंगन न करो....मंदिर सार्वजनिक स्थल नहीं हैं क्या? इनसे ज्यादा पवित्र, सार्वजनिक स्थल क्या होंगे? नहीं? हाँ, लेकिन बधुगण की तकलीफ दूसरी है, इन्हें चाहिए ऐसा समाज जो बस आँख बंद करके, शीश नवा के चलने वाला हो, दिमाग मत लगाए, जो ऐसे भगवानों को पूजे जो खुल के काम-क्रीड़ा में सलग्न हों लेकिन उनसे प्रेरित हो भक्तगण खुद कभी वैसा करने की सोचें भी न. इन्हें चाहिए ऐसा समाज जो रोज़ शिवलिंग पर जल चढ़ाता रहे लेकिन शिवलिंग है क्या यह न सोचे, यह न सोचे कि वो शिवलिंग ही है या पार्वती कि योनी भी है,  यह न सोचे कि क्या वो शिव लिंग पार्वती की योनी में स्थित है, कि क्या वो शिव पार्वती का मैथुन है, कि क्या मैथुन पूजनीय है, कि यदि शिव पार्वती का मैथुन पूजनीय है तो उनका मैथुन भी क्यों पूजनीय नहीं है.

बड़ी चुनौती है सेक्स  इन्सान के लिए ....सेक्स कुदरत की सबसे बड़ी नियामत है इन्सान को..लेकिन सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है...इंसान अपने सेक्स से छुप रहा है...छुपा रहा है...सेक्स गाली बन चुका है......देखते हैं सब गालियाँ सेक्स से जुड़ी हैं ..हमने संस्कृति की जगह विकृति पैदा की है..

कोई समाज शांत नहीं जी सकता जब तक सेक्स का समाधान न कर ले.....सो बहुत ज़रूरी है कि स्त्री पुरुष की दूरी हटा दी जाए.....समाज की आँख इन सम्बन्धों की चिंता न ले.......सबको सेक्स और स्वास्थ्य की शिक्षा दी जाए....सार्वजानिक जगह उपलब्ध कराई जाएँ.

देवालय से ज़्यादा ज़रुरत है समाज को सम्भोगालय की.पत्थर के लिंग और योनि पूजन से बेहतर है असली लिंग और योनि का पूजन. सम्भोगालय. पवित्र स्थल. जहाँ डॉक्टर मौजूद हों. सब तरह की सम्भोग सामग्री. कंडोम सहित.

और भविष्य खोज ही लेगा कि स्त्री पुरुष रोग रहित हैं कि नहीं. सम्भोग के काबिल हैं हैं कि नहीं. और यदि हों काबिल तो सारी व्यवस्था उनको सहयोग करेगी. मजाल है कोई पागल हो जाए.

आज जब कोई पागल होता है तो ज़िम्मेदार आपकी व्यवस्था होती है, जब कोई बलात्कार करता है तो ज़िम्मेदार आपका समाजिक ढांचा होता है...लेकिन आप अपने गिरेबान में झाँकने की बजाये दूसरों को सज़ा देकर खुद को भरमा लेते हैं.

समझ लीजिये जिस समाज में सबको सहज सेक्स न मिले, वो समाज पागल होगा ही. 

और आपका समाज पागल है. 
आपकी संस्कृति विकृति है.
आपकी सभ्यता असभ्य है. 

सन्दर्भ के लिए बता दूं, जापान का एक त्योहार अपनी खास वजह से खासा लोकप्रिय है, और ये खास वजह है, कि इस त्योहार में लिंग की पूजा होती है। जी हां जापान में यह अनोखा त्योहार कनामरा मसुरी के नाम से जाना जाता है। इस उत्सव में लिंग की शक्ति का जश्न मनाया जाता है। चाहें बूढ़े हों, जवान हों या बच्चे हों सब इस उत्सव को बहुत धूमधाम से और बिना किसी झिझक के मनाते हैं। हर तरफ लिंग के आकार के खिलौने, मास्क, खाने की हर चीजों से दुकानें सजी होती हैं.

चीन में Guangzhou Sex Culture Festival का आयोजन किया जाता है. इस दौरान सेक्स चाहने वालों के लिए एक बड़ी exhibition लगायी जाती है. इस एग्जीबिशन में छोटे कपड़े पहनकर महिलाएं सेक्स का मजा लेने पहुंचे दर्शकों के मुंह पर दूध की बौछार करती है. यहीं नहीं फेस्टिवल के ऑर्गेनाइजर लोगों का ध्यान खींचने के लिए नए सेक्स डॉल की प्रदर्शनी लगाते हैं, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग यहां पहुंचें. यह फेस्टिवल हर साल बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. इसका लुफ्त उठाने के लिए दुनियाभर से पहुंचते है.

कोयल कुहू-कुहू गा कर अपने प्रियतम को पुकारती है और मोर नाच कर रिझाता है अपनी प्रियतमा को. पेड़ों में भी मेल-फीमेल होते हैं. यिन यान का पसारा है पूरी कायनात में. नकारना घातक है. नकारना जीवन को ज़हरीला कर चुका है.

तो मैं हूँ समर्थक प्रेम का और यदि मेरी बहन, मेरी बेटी प्रेम करेगी, जिससे करेगी यदि उसे चूम रही होगी तो मुझे कतई ग्लानि-शर्मिन्दगी नहीं होगी चूँकि यह बेहतर होगा किसी को लूटने, खसूटने और कत्ल करने से......यह पूरी दुनिया में प्यार की सुगंध फैलाएगा.

नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday 12 February 2017

मोदी जी के ताज़ा-तरीन बोल-बच्चन

मैं मोदी जी के समर्थन में हूँ जहाँ वो कहते हैं कि बाथरूम में रेन-कोट पहन कर नहाना कोई मनमोहन सिंह से सीखे. मतलब मनमोहन सिंह की ईमानदारी ऐसी ही है जैसे कोई रेन-कोट पहन कर बाथ-रूम में नहा रहा हो. 

मित्र मज़ाक बना रहे हैं लेकिन मुझे लगता है कि सही कहा है मोदी भाई जी ने. आज तक कहा जाता है कि चाहे कांग्रेस के पिछले दस वर्ष के शासन में लगातार घोटाले हुए लेकिन मनमोहन सिंह जी ईमानदार रहे. बे-ईमान पार्टी के 'ईमान-दार प्रधान-मन्त्री'. 

ऐसे ही कुछ अटल बिहारी जी के लिए कहा जाता था कि वो सही आदमी हैं, लेकिन गलत पार्टी में हैं. अटल जी पर यह टिप्पणी मुझे कभी सही नहीं लगी, वो संघी थे, पहले भी, बाद में भी, हमेशा. मुझे नहीं लगा कि उन्होंने कभी संघ की विचार-धारा के विपरीत कुछ कहा हो, किया हो. 

लेकिन  मनमोहन सिंह पर की गई टिप्पणी बिलकुल सही है. खेत में खड़ा 'डरना' उनसे बेहतर रोल अदा करा देता है फसल बचाने में, कम से कम पक्षी तो डरते हैं उससे. 

वो कैसे ईमानदार थे? जब उनके इर्द-गिर्द सब चोर जमा थे और चोरी-चकारी ज़ोरों पर थी तो कैसे माना जाए कि उनका कोई हाथ-पैर नहीं था इस सब में? 

आपको निठारी काण्ड याद है? कोठी का मालिक और नौकर मिल कर बच्चों का रेप और मर्डर करते थे, फिर उनको खा जाते थे. पास के नाले में खोद-खोद के बच्चों की हड्डियाँ बरामद हुईं थीं. लेकिन बाद में कहीं पढ़ा कि सारा दोष नौकर पर मढ़ दिया गया. कैसा मालिक था?  कैसा ईमानदार! निर्दोष? 

मोदी जी ने एक और बात कही, अपने विरोधी दलों के लिए कि जुबान सम्भाल कर रखें, नहीं तो सब की जन्म-कुंडली खोल देंगे. वाह! क्या शब्द हैं! 

ये शब्द सब पोल-पट्टी खोल देते हैं. 

किसकी? 

अरे भाई, मोदी जी की.  
श्री मोदी जी, अगर आपके पास जन्म-कुंडली है तो खोलते क्यूँ नहीं? आप किसी की बद-ज़ुबानी के इंतज़ार में क्यूँ बैठे हैं अब तक? आप प्रधान-सेवक हैं. चौकीदार प्रजा के. आप ही ने कहा था. तो अगर कोई चौकीदार जानते-बूझते हुए भी चोरों की जन्म-कुंडली न खोले तो कैसा चौकीदार कहा जाएगा उसे? ऐसा चौकीदार तो चोरों से भी बदतर है. 

एक ज़ुमला साबित कर देता है कि आप क्या हैं. पोस्ट मार्टम करने वाला होना चाहिए, पूछने वाला होना चाहिए, लाश बता देती है बहुत कुछ कि जो ज़िन्दा था वो मुर्दा कैसे बना. 

शैर्लाक होल्म्स से वाकिफ होंगे आप में से बहुत मित्र. उनके सामने बैठे व्यक्ति के कपड़े, घड़ी, जूते, चश्मा आदि देख कर वो उसकी जन्म-कुंडली बांच देते हैं. मिनटों में.

आपके बोल-बच्चन किसी और की जन्म-कुंडली तो बाद में खोलते हैं, आपकी पहले खोल देते हैं. आपके अमित शाह जी को मानना ही पड़ा था कि आप ज़ुमलेश्वर हैं. सरे-आम ऑन रिकॉर्ड. 

आपने मनमोहन सिंह पर जो टिप्पणी की वो सही है, लेकिन उससे आप सही साबित नहीं हो जाते. दूसरा गलत हो सकता है. बिलकुल. लेकिन उसे गलत साबित करने वाला भी गलत हो सकता है. 

किसी विवादित पॉइंट पर बड़े भाई साहेब अक्सर कहते हैं, "दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं." आपने भी सुना होगा ऐसा कथन. मेरा मानना है कि दोनों ही गलत  हैं. अपनी-अपनी जगह.

नमन.

Saturday 11 February 2017

::: Promise Day special :::

A concept is floating that there should be only one promise that there should be no promise. Love should not bind but set free. A love that binds is no love at all. The 'you' of today may not be the 'you' of tomorrow, so how can you make a promise, how can you be so sure of the future?

Come, let us look into this concept deeper. 

First, there are promises everywhere in life. Life cannot move an inch without promises. 

Suppose FB promises that we post and it may or may not show the post, would you or I be here? Most probably not.

Would you send your kid to a school that does not promise to keep the one safe? Never. 

Promises are everywhere. Concrete. Subtle. Written.  Unwritten. Everywhere.

Even Nature promises to give you the fruits, provided you sow a good seed, take all the care needed to nurture it.

Now come to Male-female relationship. Love. Even in this Love, there are certain promises. For example, one promises to keep the other safe, secure.

People in love, a love that sets free,  can sleep with anyone, right? This may be called Freedom, right? But what if they transfer AIDS, is this freedom? Can this kinda freedom be allowed? No.

There are always some promises. Freedom lies within those promises. Traffic rules bind you, but bind you to move freely. 

One more thing, when people in love, offer such a freedom in which they set the other free to love anyone else, sleep with anyone else, they start becoming indifferent to each other. Such a love cannot exist. Such a love is just an imagination. Because Male-female love is based upon certain kind of possessiveness. If there is zero possessiveness, there would be no such love. It would start evading soon.

In fact, male-female love is against human psychology,  anti-nature, just an outcome of sex-deprivation. A male & a female can be interested in each other and may be interested in a  monogamous relationship, but this may be an exception, not a rule. For a short period of time, it may happen, but a life-long commitment may be rare.  So the love we see today, is just a feverish  kinda thing. Sex deprivation gets oriented in the shape of romance, this so called 'love', romantic love, which is based on possessiveness. Everything unnatural, but then there is a certain nature of this unnaturalness. Things go in the way, as I have expressed, not the other way round, not the way which says love should not bind but set free.

Freedom does not mean, no promises at all. Freedom lies within reasonable promises, not out of the promises.

So I conclude that the concept that there should be only one promise that there should be no promise, is a fallacy. Love that sets you free, is just an imagination.

There are Promises, always. So take care, these should be reasonable ones because freedom lies within the Promises but within reasonable ones only. The unreasonable promises can lend you in jail, can ruin you, can mar you. 

For example, you enter into a wrong 'Legal Contract' and you are finished.

So be careful. You cannot escape "Promises", in love or not-in-love. The only thing you can do, is to Promise and get Promised reasonably.

Namaskaar....Tushar Cosmic.

Monday 6 February 2017

सूफ़ी कौन?

दारुबाज़ जब नहीं पीये होते तो जानते हैं अक्सर क्या कहते हैं खुद को? सूफ़ी.

सूफ़ी होना मतलब पाक-साफ़, शुद्ध-बुद्ध होना है. 

मेरी बड़ी बिटिया का नाम ऐसा है जो  आपने कभी सुना ही नहीं होगा. सूफ़ी सिद्धि. सूफियों की सिद्धि. 

सूफ़ी कौन हैं? मुसलमान हैं क्या? अक्सर ऐसा समझा जाता है. 


हमारे प्यारे मार्कंडेय काटजू, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज साहेब भी ऐसा ही समझते हैं.

कुछ ही समय पहले  उन्होंने लिखा था, “Why I go to Dargahs?

Within a few days of taking over as Chief Justice of Madras High Court in November, 2004 I enquired whether there was a dargah in Chennai. I was told there is one called the Anna Salai Dargah ( Dargah Hazrat Syed Moosa Shah Qadri ) on Mount Road. I sent a message there that I would like to come to pay my respects to the holy saint who has his grave there, and is said to have died about 450 years ago.( see link below ). I was told I was welcome.

I went there and offered a chaadar.

Since then I have been regularly visiting that Dargah whenever I go to Chennai. The old maulvi saheb who was there has since died, but others look after the shrine. They know me, and give me a lot of respect whenever I go there.

I go to dargahs wherever and whenever I can, e.g. Ajmer Sharif, Nizamuddin Aulia ( and Amir Khusro, which is just next ), Kaliyar Sharif, Deva Sharif, etc.I get a lot of happiness and peace there.

Some people may find it strange that a confirmed atheist like me visits dargahs.

It is true that I do not believe in God. But it is also true that I respect the good things in Indian culture, and I respect people of all religions. Some of my closest friends are non Hindus.

Why do I go to dargahs ? I go there because dargahs are shrines constructed over the graves of sufi saints, and I have great respect for sufi saints, who preached love, compassion and humanitarianism towards all. They made no distinction between Hindus, Muslims, Christians, Sikhs etc..THOUGH THE SUFI SAINTS WERE MUSLIMS, THEY HAD MANY HINDUS AND SIKH DISCIPLES. Some sufi saints were persecuted by fanatical and bigoted people.

Hindus do not go to mosques, Muslims do not go to Hindu temples, BUT EVERYONE GOES TO, and is welcome, in dargahs. Often there are more Hindus than Muslims in some dargahs. So dargahs are places which unite all Indians, and I love whatever unites us, and am strongly against whatever divides us, like religious bigotry and intolerance.

India is a country of great diversity. To progress we must remain united. So whatever promotes our unity, like dargahs, is good for us, and whatever divides us, like religious extremism and fanaticism, is bad for us..The Sufi spirit of TOLERANCE and compassion is what all Indians must inculcate and imbibe."

इनके इस लेखन के जवाब में मैंने जो लिखा, वो आपको मेरा नज़रिया न सिर्फ काटजू साहेब के प्रति साफ़ करेगा बल्कि सूफ़ी कौन हैं, इस पर भी रोशनी डालेगा.

तो चलिए मेरे साथ.

“यह एक और नमूना है काटजू साहेब की मूर्खता का.

सूफी संत मुसलमान थे, यह लिखा है उन्होंने. पता नहीं संत की परिभाषा क्या है इनकी? जो हिन्दू या मुसलमान हो वो संत कैसे हो सकता है और जो संत हो वो हिन्दू-मुसलमान कैसे हो सकता है? यह है मेरी समझ तो.

और हिन्दू या मुसलमान परिवार में जन्म लेने से, धर्म-विशेष में पलने बढ़ने से कोई व्यक्ति उसी धर्म को मानने वाला होगा, यह कहाँ ज़रूरी है?

सूफी मुस्लिमों में पैदा हुए लेकिन मुस्लिम नहीं थे. मुस्लिमों में विद्रोही थे. मुस्लिम और हिन्दू, तमाम बीमरियों के विरोधी थे.

ऐसे ही तो मंसूर को नहीं काटा गया. अगर वो मुसलमान ही था तो फिर क्यूँ मारना? जानते हैं किसलिए? वो अनलहक अनलहक (अहम ब्रह्म अस्मि) कहता था. आठ साल जेल में रखा गया. तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद जला दिया गया. फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की उसने और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है, यह था गुनाह.

ऐसे ही तो नहीं सूफी फकीरों की दरगाहों को तालिबान तबाह कर रहे. 2010 में बाबा फरीद की दरगाह पर अटैक में दस लोग यूँ ही तो नहीं मारे गए.

ऐसे ही तो सरमद की गर्दन जामा मस्ज़िद की सीढ़ियों पर काट नहीं लुढकाई गई.

काटजू साहेब लिखते हैं कि हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते, मुस्लिम मंदिर नहीं जाते लेकिन सब दरगाह जाते हैं. वाह! वाह!! जनाब हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते तो उसका कारण मुस्लिम हैं न कि हिन्दू. मस्ज़िद में नॉन-मुस्लिम को जाने ही नहीं दिया जाता. और दरगाह भी सब नहीं जाते. मुस्लिम कब्रों को पूजना सही नहीं मानते सो बहुत कम मुस्लिम दरगाह जाते हैं और जो जाते हैं वो धर्म-च्युत माने जाते हैं. शिर्क माना जाता है यह सब. खुदा के ओहदे में शिरकत. जो मना है इस्लाम में.

आगे लिखते हैं काटजू साहेब कि सूफियों के बहुत से शिष्य थे जो हिन्दू, सिक्ख आदि थे. यह कथन और साफ़ करता है कि काटजू साहेब सूफिओं को बिलकुल नहीं समझते. न तो सूफी हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख थे और न ही उनका शिष्य कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख हो सकता था. 

वैसे भी चेलों से गुरु को तुलना ऐसे ही है जैसे आप अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्म की समीक्षा रामसे ब्रदर की ऐसी फिल्म देख करने लगें जो उसकी थर्ड क्लास नकल हो.

मक्के गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ जुमा पढ़ आईये
गंगा गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ गोते खाईये
गया गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ पंड पढ़ाईये
बुल्ले शाह गल ताइयों मुक्दी जदो "मैं" नूं दिलों गंवाईये ----- बाबा बुल्लेशाह

पढ़ पढ़ आलम पागल होया, कदी अपने आप नू पढ़या नईं
जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने आप चे वड़या नई
एवईं रोज शैतान नाल लड़दा, कदी अक्स अपने नाल लड़या नई
बुल्ले शाह आसमानी उड दियां फड़दा, जेड़ा घर बैठा उह नूं फड़िया नईं ----- बाबा बुल्लेशाह

फरीदा जे तू वंजें हज, हब्यो ही जीआ में।
लाह दिले वी लज, सच्चा हाजी तां थीएं॥---------बाबा फरीद गंजेशक्कर

कंकर पत्थर जोड़ के,,,,, मस्जिद लई चिनाय
ता पर मुल्ला बांघ दे,,,क्या बहरा हुआ खुदाय-------कबीर साहेब

ये हैं असली सूफी.

पता नहीं किन सूफियों का ज़िक्र कर रहे हैं काटजू साहेब. TOLERANCE सिखाने वाले नकली सूफी पकड़े बैठे हैं. नकली सूफी और नकली उनके शिष्य. असली सूफी भिगो-भिगो जूते मारता रहा है और बदले में जूते खाता रहा है.”

तारेक फतह साहेब बता रहे थे कि उनके पूर्वज पहले हिन्दू थे लेकिन सूफियों ने उनका धर्म परिवर्तन करा दिया और फिर वो मुसलमान बन गये. 

साफ़ है कि फतह साहेब के पूर्वज भी नकली सूफ़ियों के फेर में पड़ गए. असली सूफ़ी को हिन्दू-मुस्लिम से क्या लेना देना?

मैंने सुना सिक्खों को कहते हुए कि हरमंदिर साहेब का नींव पत्थर मुस्लिम सूफ़ी फ़कीर साईं मियां मीर के हाथों रखवाया गया. गच्चा खा गए, सिक्ख बंधू, जो यह कहते हैं. मियां मीर साहेब या तो सूफ़ी रहे होंगे या मुसलमान. और मेरे ख्याल से सूफ़ी, तभी उनको यह सम्मान दिया गया.

उम्मीद है जिस फेर में काटजू साहेब, फतह साहेब, सिक्ख बंधू और बहुत अन्य मित्र पड़ रहे हैं आप नहीं पडेंगे, जब भी सूफियों का ज़िक्र होगा.

नमन ...तुषार कॉस्मिक....कॉपी राईट

Saturday 4 February 2017

The problem is not the problem, your thinking is. Thinking, which is not rational but conventional, which is not systematic but problematic, which is not terrific but a traffic. Problem is not the problem.

Friday 3 February 2017

प्रजातंत्र का प्रपंच --कारण और निवारण

वो बड़े दबंग,  नाम "शेर सिंह शेर"..आगे भी शेर, पीछे भी शेर, बीच में शेर.....तो वो बड़े ही दबंग......हमने-आपने कभी जितने लोगों को थप्पड़ मारने का ख्व़ाब भी न लिया हो,  उतने लोगों को मार-कूट चुके, कईयों पर छुरियां चला चुके.

लेकिन एक बार कुछ लड़कों के हत्थे चढ़ गये........ज़्यादा कुछ नहीं हुआ, बस उन लोगों ने घेर कर कुछ गाली-वाली दे दी.........फिर अगले दिन उनमें से ही कोई इनके घर की खिड़की का शीशा तोड़ गया.....अब इनको झटका लग गया......हैरान, परेशान.......बीमार हो गए.....मैं पहुंचा. बोले, “किसी ने कुछ घोट के पिला दिया है......भूत चिपक गए हैं....खाना हज़म नहीं होता.........खून के साथ उलट जाता है, भभूत बाहर गिरती है” फिर कुछ किताबें भी पढ़ चुके थे, बोलें,“ऊर्जा कभी मरती नहीं, रूप बदलती है......आत्मा अजर है, अमर है.....भूत भी बन सकती है.”

समझाने का प्रयत्न किया कि आपको मानसिक आघात है, आप अपनी ज़रा सी हार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं....आप भूत-प्रेत का मात्र भ्रम पाले हैं...खुद को धोखा दे रहे हैं.......वहम से खुद को बहला रहे हैं.......लेकिन वो कहाँ मानने वाले? 'शेर सिंह शेर'.

मुझ से पूछते रहे कि इलाज बताऊँ, मैंने कहा कि आप साइकेट्रिस्ट के पास चले जाएं. वो नाराज़ हो जाएं. कहें,“मैं कोई पागल हूँ?” बार-बार पूछते रहे कि कोई बाबा, डेरा, कोई तांत्रिक-मांत्रिक का पता बता दूं. इलाज तो चाहिए था उनको, लेकिन चाहिए अपने हिसाब का था.

मैं इस विषय पर कन्नी काटने लगा. वो परेशान थे, हल पूछते रहे, लेकिन अब मैं कहता था कि मेरा क्षेत्र ही नहीं है यह. मैं नेता नहीं हूँ, नेता होता तो कोई झाड़-फूंक वाला बता देता, झाड़-फूंक के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण भी गढ़ देता और हो सकता है उनको कोई फायदा भी मिल जाता. लेकिन कुल मिला कर यह सब उनका, समाज का नुक्सान करता.

प्रजातंत्र प्रपंच है, चक्रव्यूह है. हर नेता आपको धोखा देता लगेगा. असल में प्रजातंत्र का मौजूदा स्वरूप ही ऐसा है कि आपका बढ़िया से बढ़िया नेता घटिया दिखेगा ही, कुछ ही समय बाद. नेता नेता हो ही नहीं सकता इस तन्त्र में. वो पिछलग्गू ही होगा. उसे वोट जो लेने हैं. उसे भिखमंगे की तरह आपके दरवाज़े पर खड़े जो होना है, पांच साल बाद ही सही. वो कैसे आपका नेता हो सकता है? 

नेता तो वो हो सकता है, जो समाज को दिशा दे. और समाज तो कोई दिशा लेने को तैयार नहीं. समाज तो अपनी बकवास, सड़ी-गली मान्यताओं में ही जीना चाहता है. समाज की समस्याओं के जो असल इलाज हैं, समाज वो इलाज स्वीकार ही नहीं करना चाहता. समाज अपनी बीमारियों का इलाज तो चाहता है लेकिन इलाज अपने ही ढंग के चाहता है. 

अंग्रेज़ी की कहावत है,“यू कैन नोट हैव एंड ईट ए केक”. मतलब यह हो नहीं सकता कि आप एक केक सम्भाल कर फ्रिज में रख भी लें और उसी को खा भी लें, हज़म भी कर लें. कैसे हो सकता है? दोनों में से एक ही विकल्प आप चुन सकते हैं. दोनों नहीं. 

मैं प्रोपर्टी क्षेत्र से हूँ, कंस्ट्रक्शन कोलैबोरेशन का बहुत बोल-बाला है कुछ सालों से. ज़मीन किसी और की होती है, उस पर बिल्डिंग बनाता कोई और है. और सब तय हो जाता है पहले ही कि बिल्डिंग बनेगी तो बन्दर-बाँट कैसे होगी.  कौन क्या लेगा और कौन क्या देगा. कब-कब देगा. मकान बनाने वाले और ज़मीन मालिक दोनों के लिए फायदे का सौदा. अब मान लीजिये कोई ज़मीन मालिक अड़ जाए कि वो अपनी ज़मीन पर बनी पुरानी खंडहर बिल्डिंग पर हथौड़ा चलने ही नहीं देगा, क्यूंकि उसके पुरखों की निशानी है वो बिल्डिंग, तो ऐसे में कैसे नई बिल्डिंग बन सकती है? सवाल ही नहीं पैदा होता, जवाब कैसे पैदा होगा? असम्भव. नपोलियन ने कहा ज़रूर कि कुछ भी असम्भव नहीं है, लेकिन असलियत से दूर है यह कथन. कवित्त के हिसाब से सही है बात, मोरल बनाए रखने के लिए सही है बात, लेकिन वैसे बहुत कुछ असम्भव होता है दुनिया में, एक निश्चित टाइम और स्पेस में.
  
अब यही असम्भव है कि आप बीमारी भी सहेज कर रख लें और निरोग  भी हो जाएं. जो कारण हैं बीमारी के, वो हटाना भी नहीं चाहते हैं और हेल्दी भी होना चाहते हैं. यह असम्भव है. समाज में जो गरीबी है, बेरोजगारी है, भुखमरी है, बीमारी है उन सब का कारण समाज की अवैज्ञानिक सोच है, उसे छोड़ना नहीं चाहते, उसे कीमती मानते है, अनमोल, पुरखों की देन, विरासत, संस्कृति. ज़जीरों को ही अलंकार समझते हैं, अनमोल मान बैठे हैं. विकृति को संस्कृति समझ रखे हैं. कैसे होगा इलाज?

मुझे याद है, बहुत पहले दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल गया मैं. ज़ुकाम की समस्या रहती थी. लगातार ज़ुकाम. एक ‘खूसट’ से डॉक्टर के पास भेजा गया मुझे. और जैसे ही उसने मुझ से पूछा कि समस्या क्या है, मैंने कहा,“जी, साइनस प्रॉब्लम है.” झटके से टोक दिया मुझे उसने, “समस्या बताओ, दिक्कत बताओ, साइनस प्रॉब्लम है या उस प्रॉब्लम का कोई और नाम है, वो मैं बताऊंगा. इलाज भी मैं ही बताऊंगा. डॉक्टर मैं हूँ. अगर डॉक्टर तुम हो, तो खुद ही कर लो अपना इलाज. मेरा रोल खत्म. खत्म क्या, शुरू ही नहीं होता”  

मुझे बहुत बुरा लगा था तब तो, लेकिन वो “खूसट” डॉक्टर साहेब जीवन भर की सीख दे गए. मैं आज उनके प्रति बहुत सम्मान से भरा हूँ. 

सही बात थी. मरीज़ यह तो कह सकता है कि इंजेक्शन की जगह हो सके तो टेबलेट दे दें, लेकिन कौन सी टेबलेट दें या कौन सा इंजेक्शन, अगर यह सब मरीज़ ने ही तय करना है तो फिर डॉक्टर का कोई रोल नहीं बनता.

यहाँ समाज में जो बीमारियाँ हैं, उनके हल के लिए नेता चुने जाते हैं. लेकिन हल वो कर ही नहीं सकते चूँकि हल जो हैं मरीज़ वो हल चाहता ही नहीं, हल मरीज़ अपनी मर्ज़ी के चाहता है. मर्ज़ कैसे हल होगा?

आज कोई नेता कहे कि आपकी सब बीमारियों का इलाज जनसंख्या नियंत्रण है, आधे वोट उड़ जायेंगे. आज कोई नेता कह दे कि आपके धर्म आपको वैज्ञानिक सोच से दूर कर रहे हैं. ये मूर्खता के अड्डे हैं, अंध-विश्वास के गड्डे हैं. आपकी सब समस्याओं के बड़े कारण हैं. लोग जूते मारेंगे. कैसे करे नेता आपकी प्रॉब्लम का हल?

नेता रिस्क नहीं लेता. वो इलाज वो देता है जो समाज लेना चाहता है. फ़ौरी तौर पर, ऊपरी तौर पर कुछ राहतें नज़र भी आती है. लेकिन मामला वहीं का वहीं.  वो क्या करे? उसे हल अगर नज़र आ भी रहा होता है तो वो कन्नी काट लेता है, चूँकि उसे पता है कि हल आप झेल ही नहीं पायेंगे, सो उसे क्या? वो बस वायदे देता है. कुछ छुट-पुट काम करता है. आधे-अधूरे. वक्ती ज़रूरत टाइप के. ऊपरी-ऊपरी. पांच साल बाद फिर आ जाता है. आप उसे गाली देते हैं. फिर वोट देते हैं, उसे नहीं देंगे, उसी के जैसे किसी और को देंगे. वो फिर आपको नए वादे देता है. वो क्या देता है, आप लेते है. आप बस वायदे लेते हैं. वो आपको चाँद प्रोमिस करता है. आप खुश हो जाते हैं, उसे अच्छी तरह पता है कि चाँद लेने की आपकी तैयारी नहीं है, सो वो छोटे-मोटे तारे आपकी झोली में डाल देता है. आप खुश भी हैं और नाखुश भी हैं लेकिन रामलीला  ज़ारी रहती है. कोरट चालू आहे,"मोहन जोशी हाज़िर हो........!"

फिर हल क्या है? हल है ऐसे लोग जो आपको छित्तर मारने को तैयार हों. आपकी मान्यताओं के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हों. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. पड़ जाओ पल्ले, वो ठोक देगा.

ऐसे लोग ढूंढिए. वो ही हैं हल. उनको आपसे वोट नहीं लेना है. उनको तो आप सूली ही दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की. इनके पिया की सेज तो सूली पर ही सजनी है. इतिहास गवाह है. और इतिहास खुद को दोहराता है. इतिहास नहीं दोहराता, इंसान की अक्ल वहीं की वहीं खड़ी रहती है, सो जीवन वही-वही दुहरता रहता है. आप मिलो किसी को बीस साल बाद, देखोगे कि बाल उड़ गए, दांत झड़ गए, लेकिन अक्ल वहीं की वहीं खड़ी है, अड़ गई. जहाँ गड़ गई, गड़ गई. गड़बड़ गई. गई. उम्र के साथ अक्ल आती है, ऐसा कहा जाता है. लेकिन मैंने तो देखा नहीं. एक लेवल के बाद लोग सीखना बंद कर देते हैं. दशकों बाद भी उनका मानसिक स्तर वही का वही मिलेगा. इंसान वहीं खड़ा रहता है, सो इतिहास दुहरता है. दोहरेगा ही.

और आपका लोकतंत्र भी दोहरता रहेगा यदि आप असल लोग न ढूंढ पाए, न खड़े कर पाए, न गढ़ सके, न घड़ सके. 

कैसे करेंगे? कैसे होगा यह सब? एक तरीका यह है कि आप यह लेख या इस जैसे लेख जितना फैला सकें, फैला दें. कोई हनुमान का चित्र नहीं है, जिसे फॉरवर्ड करेंगे तो शाम तक अच्छी खबर आ जायेगी लेकिन अगर न किया तो इस समाज जो कुछ अहित हो रहा है, वो ज़रूर ज़ारी रहेगा.

देखिये, सवाल इस लेख का या किसी के भी लेख का है ही नहीं. आप खुद लिखिए या किसी का भी लेख, विडियो, फोटो शेयर करें, लेकिन करें. करें कुछ तो ही होगा कुछ. अपने आप कुछ नहीं होगा. 

इस तरह से आप अपने समाज को तैयार कर सकते हैं कि वो सही इलाज स्वीकार करना सीख ले. समाज की जड़ता पर चोट कर सकते हैं. समाज को बता सकते हैं कि वो बीमार है. बहुत बीमार. इतना बीमार कि  सारी पृथ्वी को बीमार करता जा रहा है. खुद तो डूबेंगे, तुम को भी साथ ले डूबेंगे सनम. पेड़, पौधे, पशु-पक्षी सब को ले मरेंगे. 

ये जो हॉलीवुड की "डिज़ास्टर फिल्में" देखते हैं आप, जिनमें पृथ्वी को नष्ट होने का खतरा बना रहता है, कभी बाहरी ग्रह से कोई आक्रमण कर देता है, कभी पृथ्वी से ही कोई शैतान खड़ा हो जाता है जो पूरी मानवता पर राज करने के चक्कर में सर्वनाश का इंतज़ाम करे बैठा है, कभी किसी वैज्ञानिक का आविष्कार ही विनाश का कारण बन जाता है, यह सब इंसानी ज़ेहन में बसे सच्चे डर का प्रतिबिम्ब हैं. वो देख रहा है कि विनाश कैसे भी हो सकता है. क्या बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्त नहीं हो गयी धरती से. कैसे? इन्सान की मूढ़ता से. 

सभ्यता के नाम पर इन्सान ने पागलखाना खड़ा कर दिया है. सब डूब सकता है. टाइटैनिक की तरह. 

क्या बताना भर काफी है कि कोई बीमार है? है, कई बार बताना भर काफी है, आगाह कर देना भर काफी है. जैसे आपके कंधे पर कोई कीड़ा रेंग रहा हो और आपको बता भर दिया जाए, तो तुरत आप झटक देते हैं उसे. ऐसे.

ऐसे ही  जब बताया जाता है कि बीमार हैं आप, तो आप इलाज भी खोजने जाते हैं. लेकिन बीमार स्थिति को ही नार्मल मान लिया जाए तो इलाज कैसे पैदा होगा? तो बताना, आगाह करना महत कार्य है.

हाँ, यह असल लोग समाज को इलाज भी सुझा देंगे, लेकिन वो बड़ी बात नहीं है, एक बार आप जागरूक हो जाएं, सोचने लगें, समाधान अपने आप हाज़िर हो जायेंगे. समस्या असल में समस्या नहीं है. समस्या है आपका न सोचना. तार्किक ढंग से न सोचना. बस यह है समस्या. 

The problem is not the problem, your thinking is. Thinking, which is not rational but conventional, which is not systematic but problematic, which is not terrific but a traffic. Problem is not the problem. 

तो जो आपको तर्क में धकेल दे, वो ही आपका, इस दुनिया का मित्र है.

अगला विश्व-युद्ध तर्क-युद्ध होना चाहिए. गली-गली. नुक्कड़-नुक्कड़. यह युद्ध विनाश नही विकास लाएगा. विनाश इस जंग में सिर्फ जंग खाई सड़ी-गली मान्यताओं का होगा. 

आशा एक ही है. असल लोग. जाओ, ढूंढो. खुद बनो. वो ही इलाज हैं. ये नेता नहीं. ये नेता हैं ही नहीं. और इनको गाली-वाली देने से कुछ नहीं होगा.

ये तो आपका ही प्रतिबिम्ब हैं. आप किसी सुकरात, मंसूर, सरमद, ओशो को वोट दोगे? कभी नहीं. सिर्फ गाली दोगे इनको. सूली दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की. 

आप से तो ऑस्कर वाइल्ड तक को नहीं झेला जाता. Paradoxes के बादशाह. लेकिन होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में जेल में ठूंस दिया गया. सआदत हसन मंटो बर्दाश्त नहीं हुए, उनकी कहानियों को नंगे किस्से कह कर कितने ही मुक्कद्द्मे चला दिए गए. और कंप्यूटर जिस के सामने बैठ हम-आप टिप-टिप करते हैं सारा-सारा दिन, उस कंप्यूटर को बनाने वाले एल्लन टूरिंग को  होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में दवा देकर सेक्स-विहीन कर दिया गया. वैज्ञानिक, कवि तक नहीं झेले जाते आपसे.

तो कैसे तरक्की होगी? अब लेकिन चारा नहीं आपके पास. ज़्यादा समय नहीं है. या तो करो या मरो. बहुत लम्बा यह खेल नहीं चलेगा.

और हाँ, मेरा लेखन ऐसे है जैसे चांदनी रात का आसमान. चन्द्रमा तो है ही, लेकिन बहुत से तारे भी हैं. एक कोई मेन पॉइंट, मुख्य मुद्दा तो है ही, लेकिन उसके इर्द-गिर्द छोटे-छोटे और भी बहुत से पॉइंट, बहुत से तारे रहते हैं. झुंझलाहट तब होती है जब कुछ मित्र तारों से इतने सम्मोहित हो जाते हैं कि चन्द्रमा उनको दिखाई ही नहीं पड़ता.

सो तारें देखें, उनका मज़ा लें लेकिन चन्द्रमा को न खो दें.
नमन...कॉपी राईट..तुषार कॉस्मिक