इंडिया पोस्ट की एक सर्विस है 'ई-पोस्ट'. मुझे पता है आपको शायद ही पता हो. आप ई-मेल करो इंडिया पोस्ट को और वो प्रिंट-आउट निकाल आगे भेज देंगे.
खैर, पश्चिम विहार, दिल्ली, पोस्ट ऑफिस वालों को पता ही नहीं था कि यह किस चिड़िया-तोते का नाम है. सो गोल डाक-खाना जाना पड़ा.
पौने चार बजे पहुंचा. छोटी बिटिया और श्रीमति जी के साथ. उनको बंगला साहेब गुरुद्वारा जाना था. चलते-चलते बता दूं कि मेरा मंदिर, मस्ज़िद, गुरद्वारे का विरोध अपनी जगह है लेकिन ज़बरदस्ती किसी के साथ नहीं है.
गोल डाक-खाना के जिस केबिन से ई-पोस्ट होना था, वहां कोई भावना मैडम थीं. कोई पचीस साल के लगभग उम्र. अब भावना जी इतनी भावुक थीं कि उन्होंने मुझे साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि ई-पोस्ट जो बन्दा करता है, वो आया नहीं है, सो मुझे संसद मार्ग वाले पोस्ट-ऑफिस जाना चाहिए लेकिन समय निकल ही चुका था सो मेरा वहां जाने का कोई फायदा नहीं था. फिर भी वो अपने केबिन से बाहर तक मुझे संसद मार्ग वाले डाक-खाने का राह दिखाने आईं. बाहर खड़े हो मैं खुद को कोसने लगा कि कुछ देर पहले आता तो शायद काम बन जाता.
लेकिन मुझे सरकारी लोगों पर कभी भरोसा नहीं होता. कुछ-कुछ ध्यान था मुझे कि वहां काम और देर तक होता है, शायद छह बजे तक. मैंने इन्क्वारी काउंटर पर पूछा कि काम कब तक होता है? उसने गोल-मोल जवाब दिया. मैंने देखा चार बजने के बाद भी बाबू लोग सीटों पर बैठे थे.
हम्म... तो मैंने काउंटर पर बैठे एक बाबू से पूछ ही लिया कि ई-पोस्ट कैसे होगी, कौन करेगा? उसने कहा कि भावना मैडम करेंगीं. मैंने कहा कि वो तो मना कर चुकीं, कह रही हैं कि उनके पास तो पास-वर्ड ही नहीं और जिसके पास है, वो छुट्टी पर है. उसने कहा कि किसी और को भेजता हूँ.
खैर, कोई आधे घंटे की जद्दो-जेहद के बाद कोई नए रंग-रूट टाइप के लड़के ने काम कर ही दिया. और हाँ, पास-वर्ड भावना मैडम से ही लिया गया और वो भी मेरे सामने. लेकिन अब रसीद के रूप में प्रिंट-आउट थमा दिया गया मुझे. मैंने कहा कि इस पर स्टाम्प लगा कर दो तो बड़ी मुश्किल एक गोल सी स्टाम्प मार दी गई जिस पर लिखा पढने की कोशिश की तो कहावत याद आ गई,”लिखे मूसा, पढ़े खुदा."
मैंने कहा,"साफ़ स्टाम्प लगाएं." मुझे 'मेरी' नामक डिप्टी-पोस्ट-मास्टर के सामने पेश किया गया. पचास-पचपन साल की महिला. उनके रख-रखाव से कतई नहीं लगा कि वो डिप्टी-पोस्ट-मास्टरनी हैं. सामने खड़ा था मैं, साथ ही कुर्सी खाली पड़ी थी और वो अपने साथी से बात करने में मशगूल रहीं. मुझे नहीं कहा कि बैठ जाऊं. मैं खड़ा इंतज़ार करता रहा. फ्री होकर मेरी बात सुनी 'मेरी' जी ने और स्टाम्प लगाने से साफ़ मना कर दिया. मैंने कहा,"ठीक है, मैं विडियो बनाता हूँ, आप ऑन-रिकॉर्ड कहें कि स्टाम्प नहीं लगातीं." भड़क गई कि मैं धमका रहा हूँ, मैंने कहा, "स्टाम्प लगाने को कहना धमकाना कैसे हो गया?" पोस्ट मास्टर के पास धम्म-धम्म करती ले गईं. लेकिन वो समझदार निकले. मैडम को स्टाम्प लगानी पड़ी.
यह किस्सा आपको शायद कुछ सिखा पाए.
1.यह मान्यता झूठ है कि औरत कोई आदमी से नर्म दिल होती है. भावना मैडम को पता था कि मेरे साथ बीवी हैं, छोटी बच्ची है, वो काम कर सकती थीं, करवा सकतीं थीं, लेकिन मुझे टरका दिया. मेरे लिए अगला दिन खराब करने का सामान कर दिया.
'मेरी' मैडम को सिर्फ स्टाम्प लगानी थीं, नहीं लगा कर दी, ड्रामा कर दिया. दोनों औरतें.
और जो काम करवा कर दिया, वो क्लर्क 'आदमी' था और जिसने करके दिया था, वो एक 'लड़का' था. नया रंग-रूट. और स्टाम्प लगवा कर दी जिसने, वो पोस्ट-मास्टर भी 'आदमी' था.
2. सरकारी लोग सब तो नहीं लेकिन अक्सर गैर-ज़िम्मेदार मिलते हैं, जवाब-देयी से बचते हैं. सिर्फ मोटी तनख्वाह लेते हैं. न तो काम करना आता है और न ही करना चाहते हैं. उनके बाप का क्या जाता है? काम आपको करवाना होगा उनसे. अड़ के. लड़ के.
3. अगर आपके पास सुई हो चुभोने को तो सरकारी आदमी जितना जल्दी फैलता है, उतना ही जल्दी सिकुड़ता भी है.
4. 'ई-पोस्ट' टेलीग्राम का ही एक अगला रूप है, जिसमें आप अपने भेजे कंटेंट को भी साबित कर सकते हैं. प्रयोग करें, ख़ास करके लीगल वर्क में. लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि किसी वकील को पता हो इसका.
5. हर सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर से स्टाम्प लगवाएं और साइन भी करवाएं. ये नहीं करना चाहते चूँकि जवाब-देयी से बचना चाहते हैं. बिन साइन-स्टाम्प के आप क्या साबित करेंगे? मैं तो हैरान हूँ बहुत पहले बैंक स्टेटमेंट के नीचे पढ़ता था कि यह कंप्यूटर जनरेटेड स्टेटमेंट है, सो स्टाम्प-साइन की कोई ज़रूरत नहीं है! वल्लाह! इनको चाहिए कि बिना साइन के चेक भी कैश करना शुरू कर दें, बस बाकी सब भर दिया जाए, काफी है. नहीं?
नोट- इस पोस्ट में दिए नाम और स्थान सब असली हैं, कर ले जिसने जो करना हो.
नमन...तुषार कॉस्मिक
खैर, पश्चिम विहार, दिल्ली, पोस्ट ऑफिस वालों को पता ही नहीं था कि यह किस चिड़िया-तोते का नाम है. सो गोल डाक-खाना जाना पड़ा.
पौने चार बजे पहुंचा. छोटी बिटिया और श्रीमति जी के साथ. उनको बंगला साहेब गुरुद्वारा जाना था. चलते-चलते बता दूं कि मेरा मंदिर, मस्ज़िद, गुरद्वारे का विरोध अपनी जगह है लेकिन ज़बरदस्ती किसी के साथ नहीं है.
गोल डाक-खाना के जिस केबिन से ई-पोस्ट होना था, वहां कोई भावना मैडम थीं. कोई पचीस साल के लगभग उम्र. अब भावना जी इतनी भावुक थीं कि उन्होंने मुझे साफ़ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि ई-पोस्ट जो बन्दा करता है, वो आया नहीं है, सो मुझे संसद मार्ग वाले पोस्ट-ऑफिस जाना चाहिए लेकिन समय निकल ही चुका था सो मेरा वहां जाने का कोई फायदा नहीं था. फिर भी वो अपने केबिन से बाहर तक मुझे संसद मार्ग वाले डाक-खाने का राह दिखाने आईं. बाहर खड़े हो मैं खुद को कोसने लगा कि कुछ देर पहले आता तो शायद काम बन जाता.
लेकिन मुझे सरकारी लोगों पर कभी भरोसा नहीं होता. कुछ-कुछ ध्यान था मुझे कि वहां काम और देर तक होता है, शायद छह बजे तक. मैंने इन्क्वारी काउंटर पर पूछा कि काम कब तक होता है? उसने गोल-मोल जवाब दिया. मैंने देखा चार बजने के बाद भी बाबू लोग सीटों पर बैठे थे.
हम्म... तो मैंने काउंटर पर बैठे एक बाबू से पूछ ही लिया कि ई-पोस्ट कैसे होगी, कौन करेगा? उसने कहा कि भावना मैडम करेंगीं. मैंने कहा कि वो तो मना कर चुकीं, कह रही हैं कि उनके पास तो पास-वर्ड ही नहीं और जिसके पास है, वो छुट्टी पर है. उसने कहा कि किसी और को भेजता हूँ.
खैर, कोई आधे घंटे की जद्दो-जेहद के बाद कोई नए रंग-रूट टाइप के लड़के ने काम कर ही दिया. और हाँ, पास-वर्ड भावना मैडम से ही लिया गया और वो भी मेरे सामने. लेकिन अब रसीद के रूप में प्रिंट-आउट थमा दिया गया मुझे. मैंने कहा कि इस पर स्टाम्प लगा कर दो तो बड़ी मुश्किल एक गोल सी स्टाम्प मार दी गई जिस पर लिखा पढने की कोशिश की तो कहावत याद आ गई,”लिखे मूसा, पढ़े खुदा."
मैंने कहा,"साफ़ स्टाम्प लगाएं." मुझे 'मेरी' नामक डिप्टी-पोस्ट-मास्टर के सामने पेश किया गया. पचास-पचपन साल की महिला. उनके रख-रखाव से कतई नहीं लगा कि वो डिप्टी-पोस्ट-मास्टरनी हैं. सामने खड़ा था मैं, साथ ही कुर्सी खाली पड़ी थी और वो अपने साथी से बात करने में मशगूल रहीं. मुझे नहीं कहा कि बैठ जाऊं. मैं खड़ा इंतज़ार करता रहा. फ्री होकर मेरी बात सुनी 'मेरी' जी ने और स्टाम्प लगाने से साफ़ मना कर दिया. मैंने कहा,"ठीक है, मैं विडियो बनाता हूँ, आप ऑन-रिकॉर्ड कहें कि स्टाम्प नहीं लगातीं." भड़क गई कि मैं धमका रहा हूँ, मैंने कहा, "स्टाम्प लगाने को कहना धमकाना कैसे हो गया?" पोस्ट मास्टर के पास धम्म-धम्म करती ले गईं. लेकिन वो समझदार निकले. मैडम को स्टाम्प लगानी पड़ी.
यह किस्सा आपको शायद कुछ सिखा पाए.
1.यह मान्यता झूठ है कि औरत कोई आदमी से नर्म दिल होती है. भावना मैडम को पता था कि मेरे साथ बीवी हैं, छोटी बच्ची है, वो काम कर सकती थीं, करवा सकतीं थीं, लेकिन मुझे टरका दिया. मेरे लिए अगला दिन खराब करने का सामान कर दिया.
'मेरी' मैडम को सिर्फ स्टाम्प लगानी थीं, नहीं लगा कर दी, ड्रामा कर दिया. दोनों औरतें.
और जो काम करवा कर दिया, वो क्लर्क 'आदमी' था और जिसने करके दिया था, वो एक 'लड़का' था. नया रंग-रूट. और स्टाम्प लगवा कर दी जिसने, वो पोस्ट-मास्टर भी 'आदमी' था.
2. सरकारी लोग सब तो नहीं लेकिन अक्सर गैर-ज़िम्मेदार मिलते हैं, जवाब-देयी से बचते हैं. सिर्फ मोटी तनख्वाह लेते हैं. न तो काम करना आता है और न ही करना चाहते हैं. उनके बाप का क्या जाता है? काम आपको करवाना होगा उनसे. अड़ के. लड़ के.
3. अगर आपके पास सुई हो चुभोने को तो सरकारी आदमी जितना जल्दी फैलता है, उतना ही जल्दी सिकुड़ता भी है.
4. 'ई-पोस्ट' टेलीग्राम का ही एक अगला रूप है, जिसमें आप अपने भेजे कंटेंट को भी साबित कर सकते हैं. प्रयोग करें, ख़ास करके लीगल वर्क में. लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि किसी वकील को पता हो इसका.
5. हर सरकारी, गैर-सरकारी दफ्तर से स्टाम्प लगवाएं और साइन भी करवाएं. ये नहीं करना चाहते चूँकि जवाब-देयी से बचना चाहते हैं. बिन साइन-स्टाम्प के आप क्या साबित करेंगे? मैं तो हैरान हूँ बहुत पहले बैंक स्टेटमेंट के नीचे पढ़ता था कि यह कंप्यूटर जनरेटेड स्टेटमेंट है, सो स्टाम्प-साइन की कोई ज़रूरत नहीं है! वल्लाह! इनको चाहिए कि बिना साइन के चेक भी कैश करना शुरू कर दें, बस बाकी सब भर दिया जाए, काफी है. नहीं?
नोट- इस पोस्ट में दिए नाम और स्थान सब असली हैं, कर ले जिसने जो करना हो.
नमन...तुषार कॉस्मिक
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