Monday, 6 February 2017

सूफ़ी कौन?

दारुबाज़ जब नहीं पीये होते तो जानते हैं अक्सर क्या कहते हैं खुद को? सूफ़ी.

सूफ़ी होना मतलब पाक-साफ़, शुद्ध-बुद्ध होना है. 

मेरी बड़ी बिटिया का नाम ऐसा है जो  आपने कभी सुना ही नहीं होगा. सूफ़ी सिद्धि. सूफियों की सिद्धि. 

सूफ़ी कौन हैं? मुसलमान हैं क्या? अक्सर ऐसा समझा जाता है. 


हमारे प्यारे मार्कंडेय काटजू, सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज साहेब भी ऐसा ही समझते हैं.

कुछ ही समय पहले  उन्होंने लिखा था, “Why I go to Dargahs?

Within a few days of taking over as Chief Justice of Madras High Court in November, 2004 I enquired whether there was a dargah in Chennai. I was told there is one called the Anna Salai Dargah ( Dargah Hazrat Syed Moosa Shah Qadri ) on Mount Road. I sent a message there that I would like to come to pay my respects to the holy saint who has his grave there, and is said to have died about 450 years ago.( see link below ). I was told I was welcome.

I went there and offered a chaadar.

Since then I have been regularly visiting that Dargah whenever I go to Chennai. The old maulvi saheb who was there has since died, but others look after the shrine. They know me, and give me a lot of respect whenever I go there.

I go to dargahs wherever and whenever I can, e.g. Ajmer Sharif, Nizamuddin Aulia ( and Amir Khusro, which is just next ), Kaliyar Sharif, Deva Sharif, etc.I get a lot of happiness and peace there.

Some people may find it strange that a confirmed atheist like me visits dargahs.

It is true that I do not believe in God. But it is also true that I respect the good things in Indian culture, and I respect people of all religions. Some of my closest friends are non Hindus.

Why do I go to dargahs ? I go there because dargahs are shrines constructed over the graves of sufi saints, and I have great respect for sufi saints, who preached love, compassion and humanitarianism towards all. They made no distinction between Hindus, Muslims, Christians, Sikhs etc..THOUGH THE SUFI SAINTS WERE MUSLIMS, THEY HAD MANY HINDUS AND SIKH DISCIPLES. Some sufi saints were persecuted by fanatical and bigoted people.

Hindus do not go to mosques, Muslims do not go to Hindu temples, BUT EVERYONE GOES TO, and is welcome, in dargahs. Often there are more Hindus than Muslims in some dargahs. So dargahs are places which unite all Indians, and I love whatever unites us, and am strongly against whatever divides us, like religious bigotry and intolerance.

India is a country of great diversity. To progress we must remain united. So whatever promotes our unity, like dargahs, is good for us, and whatever divides us, like religious extremism and fanaticism, is bad for us..The Sufi spirit of TOLERANCE and compassion is what all Indians must inculcate and imbibe."

इनके इस लेखन के जवाब में मैंने जो लिखा, वो आपको मेरा नज़रिया न सिर्फ काटजू साहेब के प्रति साफ़ करेगा बल्कि सूफ़ी कौन हैं, इस पर भी रोशनी डालेगा.

तो चलिए मेरे साथ.

“यह एक और नमूना है काटजू साहेब की मूर्खता का.

सूफी संत मुसलमान थे, यह लिखा है उन्होंने. पता नहीं संत की परिभाषा क्या है इनकी? जो हिन्दू या मुसलमान हो वो संत कैसे हो सकता है और जो संत हो वो हिन्दू-मुसलमान कैसे हो सकता है? यह है मेरी समझ तो.

और हिन्दू या मुसलमान परिवार में जन्म लेने से, धर्म-विशेष में पलने बढ़ने से कोई व्यक्ति उसी धर्म को मानने वाला होगा, यह कहाँ ज़रूरी है?

सूफी मुस्लिमों में पैदा हुए लेकिन मुस्लिम नहीं थे. मुस्लिमों में विद्रोही थे. मुस्लिम और हिन्दू, तमाम बीमरियों के विरोधी थे.

ऐसे ही तो मंसूर को नहीं काटा गया. अगर वो मुसलमान ही था तो फिर क्यूँ मारना? जानते हैं किसलिए? वो अनलहक अनलहक (अहम ब्रह्म अस्मि) कहता था. आठ साल जेल में रखा गया. तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद जला दिया गया. फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की उसने और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है, यह था गुनाह.

ऐसे ही तो नहीं सूफी फकीरों की दरगाहों को तालिबान तबाह कर रहे. 2010 में बाबा फरीद की दरगाह पर अटैक में दस लोग यूँ ही तो नहीं मारे गए.

ऐसे ही तो सरमद की गर्दन जामा मस्ज़िद की सीढ़ियों पर काट नहीं लुढकाई गई.

काटजू साहेब लिखते हैं कि हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते, मुस्लिम मंदिर नहीं जाते लेकिन सब दरगाह जाते हैं. वाह! वाह!! जनाब हिन्दू मस्ज़िद नहीं जाते तो उसका कारण मुस्लिम हैं न कि हिन्दू. मस्ज़िद में नॉन-मुस्लिम को जाने ही नहीं दिया जाता. और दरगाह भी सब नहीं जाते. मुस्लिम कब्रों को पूजना सही नहीं मानते सो बहुत कम मुस्लिम दरगाह जाते हैं और जो जाते हैं वो धर्म-च्युत माने जाते हैं. शिर्क माना जाता है यह सब. खुदा के ओहदे में शिरकत. जो मना है इस्लाम में.

आगे लिखते हैं काटजू साहेब कि सूफियों के बहुत से शिष्य थे जो हिन्दू, सिक्ख आदि थे. यह कथन और साफ़ करता है कि काटजू साहेब सूफिओं को बिलकुल नहीं समझते. न तो सूफी हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख थे और न ही उनका शिष्य कोई हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख हो सकता था. 

वैसे भी चेलों से गुरु को तुलना ऐसे ही है जैसे आप अल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्म की समीक्षा रामसे ब्रदर की ऐसी फिल्म देख करने लगें जो उसकी थर्ड क्लास नकल हो.

मक्के गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ जुमा पढ़ आईये
गंगा गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ गोते खाईये
गया गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ पंड पढ़ाईये
बुल्ले शाह गल ताइयों मुक्दी जदो "मैं" नूं दिलों गंवाईये ----- बाबा बुल्लेशाह

पढ़ पढ़ आलम पागल होया, कदी अपने आप नू पढ़या नईं
जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने आप चे वड़या नई
एवईं रोज शैतान नाल लड़दा, कदी अक्स अपने नाल लड़या नई
बुल्ले शाह आसमानी उड दियां फड़दा, जेड़ा घर बैठा उह नूं फड़िया नईं ----- बाबा बुल्लेशाह

फरीदा जे तू वंजें हज, हब्यो ही जीआ में।
लाह दिले वी लज, सच्चा हाजी तां थीएं॥---------बाबा फरीद गंजेशक्कर

कंकर पत्थर जोड़ के,,,,, मस्जिद लई चिनाय
ता पर मुल्ला बांघ दे,,,क्या बहरा हुआ खुदाय-------कबीर साहेब

ये हैं असली सूफी.

पता नहीं किन सूफियों का ज़िक्र कर रहे हैं काटजू साहेब. TOLERANCE सिखाने वाले नकली सूफी पकड़े बैठे हैं. नकली सूफी और नकली उनके शिष्य. असली सूफी भिगो-भिगो जूते मारता रहा है और बदले में जूते खाता रहा है.”

तारेक फतह साहेब बता रहे थे कि उनके पूर्वज पहले हिन्दू थे लेकिन सूफियों ने उनका धर्म परिवर्तन करा दिया और फिर वो मुसलमान बन गये. 

साफ़ है कि फतह साहेब के पूर्वज भी नकली सूफ़ियों के फेर में पड़ गए. असली सूफ़ी को हिन्दू-मुस्लिम से क्या लेना देना?

मैंने सुना सिक्खों को कहते हुए कि हरमंदिर साहेब का नींव पत्थर मुस्लिम सूफ़ी फ़कीर साईं मियां मीर के हाथों रखवाया गया. गच्चा खा गए, सिक्ख बंधू, जो यह कहते हैं. मियां मीर साहेब या तो सूफ़ी रहे होंगे या मुसलमान. और मेरे ख्याल से सूफ़ी, तभी उनको यह सम्मान दिया गया.

उम्मीद है जिस फेर में काटजू साहेब, फतह साहेब, सिक्ख बंधू और बहुत अन्य मित्र पड़ रहे हैं आप नहीं पडेंगे, जब भी सूफियों का ज़िक्र होगा.

नमन ...तुषार कॉस्मिक....कॉपी राईट

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