मुझे अरविन्द केजरीवाल उथली सोच के लगते हैं.
दिल्ली कार चलाने लायक नहीं रही. दोपहिया चलाओ तो फ्रैक्चर कभी भी हो सकता है. पैदल चलने वालों का हक़ पहले ही खत्म है. सो आजकल मेट्रो से चलता हूँ, जब-जब सम्भव हो. मेट्रो में फोटो खींच नहीं सकते, सो मेरे शब्दों पर भरोसा करें. अंदर छोटे-छोटे पोस्टर लगे थे. सिक्खों के किसी गुरुपर्व की बधाइयां, अरविन्द केजरीवाल की तरफ से.
जनतंत्र का क..ख..ग नहीं पता इन नेताओं को. अरे यार, स्टेट सेक्युलर होनी चाहिए अगर आपके मुल्क में सेकुलरिज्म है तो. मतलब स्टेट धर्मों से अलग रहेगी हमेशा. वो एक मशीन की तरह काम करेगी. संविधान और विधान के कायदे से बंधी मशीन. उसे न ईद से मतलब होना चाहिए, न गुर-पर्व से और न दशहरे से. वो न आस्तिक है और न नास्तिक.
अब जो स्टेट्समैन हर तीज-त्योहार की बधाई देते फिरते हैं, वो क्या ख़ाक समझते हैं सेकुलरिज्म क्या है. वो स्टेट्समैन बनने के लिए क्वालीफाई ही नहीं करते.
गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव हैं. दिल्ली पटी है पोस्टरों से. सिक्ख बन्धु बढ़- चढ़ हिस्सा ले रहे हैं. ऐसे चुनावों में अपने पंथ, धर्म. महज़ब को यदि कोई बढ़ावा दिखे तो कोई एतराज़ नहीं मुझे. लेकिन दिक्कत तब है जब नेतागण हर चुनाव को धार्मिकता, मज़हबी रंग देने लगते हैं.
कल यदि मुल्क में नास्तिक ज़्यादा हो गए, अग्नोस्टिक ज़्यादा हो गए तो फिर क्या नास्तिकता की, अग्नोस्टिकता की भी बधाइयां देंगे?
स्टेट और स्टेट्समैन सब धर्मों से, आस्तिकता-नास्तिकता-अग्नोस्टिकता से अलग रहते हैं सेकुलरिज्म में.
सेकुलरिज्म का मतलब सब धर्मों का सम्मान करना नहीं है. इसका मतलब सब धर्मों के प्रति उदासीन रहना है. न सिर्फ धर्मों के प्रति बल्कि आस्तिकता के प्रति, नास्तिकता, अज्ञेयवाद के प्रति भी उदासीनता. सेकुलिरिज्म ऐसी सब धारणाओं का न तो सम्मान करता है और न ही असम्मान.
कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत स्तर पर कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दे सकता है, नकार सकता है. लेकिन जब वो किसी सेकुलरिज्म में स्टेट्समैन बनता है तो एक स्टेट्समैन के नाते यदि वो यह सब करता है, तो गलत है, सेकुलरिज्म के खिलाफ है.
हा! रे भारत! तेरे भाग्य में तुषार कॉस्मिक पता नहीं है कि नहीं. तब तक अरविन्द जैसों से काम चला. मोदी जी और ओवेसी बन्धुओं का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि जब अरविन्द ही क्वालीफाई नहीं करते तो ये महाशय कैसे करेंगे?
दिल्ली कार चलाने लायक नहीं रही. दोपहिया चलाओ तो फ्रैक्चर कभी भी हो सकता है. पैदल चलने वालों का हक़ पहले ही खत्म है. सो आजकल मेट्रो से चलता हूँ, जब-जब सम्भव हो. मेट्रो में फोटो खींच नहीं सकते, सो मेरे शब्दों पर भरोसा करें. अंदर छोटे-छोटे पोस्टर लगे थे. सिक्खों के किसी गुरुपर्व की बधाइयां, अरविन्द केजरीवाल की तरफ से.
जनतंत्र का क..ख..ग नहीं पता इन नेताओं को. अरे यार, स्टेट सेक्युलर होनी चाहिए अगर आपके मुल्क में सेकुलरिज्म है तो. मतलब स्टेट धर्मों से अलग रहेगी हमेशा. वो एक मशीन की तरह काम करेगी. संविधान और विधान के कायदे से बंधी मशीन. उसे न ईद से मतलब होना चाहिए, न गुर-पर्व से और न दशहरे से. वो न आस्तिक है और न नास्तिक.
अब जो स्टेट्समैन हर तीज-त्योहार की बधाई देते फिरते हैं, वो क्या ख़ाक समझते हैं सेकुलरिज्म क्या है. वो स्टेट्समैन बनने के लिए क्वालीफाई ही नहीं करते.
गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव हैं. दिल्ली पटी है पोस्टरों से. सिक्ख बन्धु बढ़- चढ़ हिस्सा ले रहे हैं. ऐसे चुनावों में अपने पंथ, धर्म. महज़ब को यदि कोई बढ़ावा दिखे तो कोई एतराज़ नहीं मुझे. लेकिन दिक्कत तब है जब नेतागण हर चुनाव को धार्मिकता, मज़हबी रंग देने लगते हैं.
कल यदि मुल्क में नास्तिक ज़्यादा हो गए, अग्नोस्टिक ज़्यादा हो गए तो फिर क्या नास्तिकता की, अग्नोस्टिकता की भी बधाइयां देंगे?
स्टेट और स्टेट्समैन सब धर्मों से, आस्तिकता-नास्तिकता-अग्नोस्टिकता से अलग रहते हैं सेकुलरिज्म में.
सेकुलरिज्म का मतलब सब धर्मों का सम्मान करना नहीं है. इसका मतलब सब धर्मों के प्रति उदासीन रहना है. न सिर्फ धर्मों के प्रति बल्कि आस्तिकता के प्रति, नास्तिकता, अज्ञेयवाद के प्रति भी उदासीनता. सेकुलिरिज्म ऐसी सब धारणाओं का न तो सम्मान करता है और न ही असम्मान.
कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत स्तर पर कैसी भी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा दे सकता है, नकार सकता है. लेकिन जब वो किसी सेकुलरिज्म में स्टेट्समैन बनता है तो एक स्टेट्समैन के नाते यदि वो यह सब करता है, तो गलत है, सेकुलरिज्म के खिलाफ है.
हा! रे भारत! तेरे भाग्य में तुषार कॉस्मिक पता नहीं है कि नहीं. तब तक अरविन्द जैसों से काम चला. मोदी जी और ओवेसी बन्धुओं का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि जब अरविन्द ही क्वालीफाई नहीं करते तो ये महाशय कैसे करेंगे?
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