वो बड़े दबंग, नाम "शेर सिंह शेर"..आगे भी शेर, पीछे भी शेर, बीच में शेर.....तो वो बड़े ही दबंग......हमने-आपने कभी जितने लोगों को थप्पड़ मारने का ख्व़ाब भी न लिया हो, उतने लोगों को मार-कूट चुके, कईयों पर छुरियां चला चुके.
लेकिन एक बार कुछ लड़कों के हत्थे चढ़ गये........ज़्यादा कुछ नहीं हुआ, बस उन लोगों ने घेर कर कुछ गाली-वाली दे दी.........फिर अगले दिन उनमें से ही कोई इनके घर की खिड़की का शीशा तोड़ गया.....अब इनको झटका लग गया......हैरान, परेशान.......बीमार हो गए.....मैं पहुंचा. बोले, “किसी ने कुछ घोट के पिला दिया है......भूत चिपक गए हैं....खाना हज़म नहीं होता.........खून के साथ उलट जाता है, भभूत बाहर गिरती है” फिर कुछ किताबें भी पढ़ चुके थे, बोलें,“ऊर्जा कभी मरती नहीं, रूप बदलती है......आत्मा अजर है, अमर है.....भूत भी बन सकती है.”
समझाने का प्रयत्न किया कि आपको मानसिक आघात है, आप अपनी ज़रा सी हार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं....आप भूत-प्रेत का मात्र भ्रम पाले हैं...खुद को धोखा दे रहे हैं.......वहम से खुद को बहला रहे हैं.......लेकिन वो कहाँ मानने वाले? 'शेर सिंह शेर'.
मुझ से पूछते रहे कि इलाज बताऊँ, मैंने कहा कि आप साइकेट्रिस्ट के पास चले जाएं. वो नाराज़ हो जाएं. कहें,“मैं कोई पागल हूँ?” बार-बार पूछते रहे कि कोई बाबा, डेरा, कोई तांत्रिक-मांत्रिक का पता बता दूं. इलाज तो चाहिए था उनको, लेकिन चाहिए अपने हिसाब का था.
मैं इस विषय पर कन्नी काटने लगा. वो परेशान थे, हल पूछते रहे, लेकिन अब मैं कहता था कि मेरा क्षेत्र ही नहीं है यह. मैं नेता नहीं हूँ, नेता होता तो कोई झाड़-फूंक वाला बता देता, झाड़-फूंक के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण भी गढ़ देता और हो सकता है उनको कोई फायदा भी मिल जाता. लेकिन कुल मिला कर यह सब उनका, समाज का नुक्सान करता.
प्रजातंत्र प्रपंच है, चक्रव्यूह है. हर नेता आपको धोखा देता लगेगा. असल में प्रजातंत्र का मौजूदा स्वरूप ही ऐसा है कि आपका बढ़िया से बढ़िया नेता घटिया दिखेगा ही, कुछ ही समय बाद. नेता नेता हो ही नहीं सकता इस तन्त्र में. वो पिछलग्गू ही होगा. उसे वोट जो लेने हैं. उसे भिखमंगे की तरह आपके दरवाज़े पर खड़े जो होना है, पांच साल बाद ही सही. वो कैसे आपका नेता हो सकता है?
नेता तो वो हो सकता है, जो समाज को दिशा दे. और समाज तो कोई दिशा लेने को तैयार नहीं. समाज तो अपनी बकवास, सड़ी-गली मान्यताओं में ही जीना चाहता है. समाज की समस्याओं के जो असल इलाज हैं, समाज वो इलाज स्वीकार ही नहीं करना चाहता. समाज अपनी बीमारियों का इलाज तो चाहता है लेकिन इलाज अपने ही ढंग के चाहता है.
अंग्रेज़ी की कहावत है,“यू कैन नोट हैव एंड ईट ए केक”. मतलब यह हो नहीं सकता कि आप एक केक सम्भाल कर फ्रिज में रख भी लें और उसी को खा भी लें, हज़म भी कर लें. कैसे हो सकता है? दोनों में से एक ही विकल्प आप चुन सकते हैं. दोनों नहीं.
मैं प्रोपर्टी क्षेत्र से हूँ, कंस्ट्रक्शन कोलैबोरेशन का बहुत बोल-बाला है कुछ सालों से. ज़मीन किसी और की होती है, उस पर बिल्डिंग बनाता कोई और है. और सब तय हो जाता है पहले ही कि बिल्डिंग बनेगी तो बन्दर-बाँट कैसे होगी. कौन क्या लेगा और कौन क्या देगा. कब-कब देगा. मकान बनाने वाले और ज़मीन मालिक दोनों के लिए फायदे का सौदा. अब मान लीजिये कोई ज़मीन मालिक अड़ जाए कि वो अपनी ज़मीन पर बनी पुरानी खंडहर बिल्डिंग पर हथौड़ा चलने ही नहीं देगा, क्यूंकि उसके पुरखों की निशानी है वो बिल्डिंग, तो ऐसे में कैसे नई बिल्डिंग बन सकती है? सवाल ही नहीं पैदा होता, जवाब कैसे पैदा होगा? असम्भव. नपोलियन ने कहा ज़रूर कि कुछ भी असम्भव नहीं है, लेकिन असलियत से दूर है यह कथन. कवित्त के हिसाब से सही है बात, मोरल बनाए रखने के लिए सही है बात, लेकिन वैसे बहुत कुछ असम्भव होता है दुनिया में, एक निश्चित टाइम और स्पेस में.
अब यही असम्भव है कि आप बीमारी भी सहेज कर रख लें और निरोग भी हो जाएं. जो कारण हैं बीमारी के, वो हटाना भी नहीं चाहते हैं और हेल्दी भी होना चाहते हैं. यह असम्भव है. समाज में जो गरीबी है, बेरोजगारी है, भुखमरी है, बीमारी है उन सब का कारण समाज की अवैज्ञानिक सोच है, उसे छोड़ना नहीं चाहते, उसे कीमती मानते है, अनमोल, पुरखों की देन, विरासत, संस्कृति. ज़जीरों को ही अलंकार समझते हैं, अनमोल मान बैठे हैं. विकृति को संस्कृति समझ रखे हैं. कैसे होगा इलाज?
मुझे याद है, बहुत पहले दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल गया मैं. ज़ुकाम की समस्या रहती थी. लगातार ज़ुकाम. एक ‘खूसट’ से डॉक्टर के पास भेजा गया मुझे. और जैसे ही उसने मुझ से पूछा कि समस्या क्या है, मैंने कहा,“जी, साइनस प्रॉब्लम है.” झटके से टोक दिया मुझे उसने, “समस्या बताओ, दिक्कत बताओ, साइनस प्रॉब्लम है या उस प्रॉब्लम का कोई और नाम है, वो मैं बताऊंगा. इलाज भी मैं ही बताऊंगा. डॉक्टर मैं हूँ. अगर डॉक्टर तुम हो, तो खुद ही कर लो अपना इलाज. मेरा रोल खत्म. खत्म क्या, शुरू ही नहीं होता”
मुझे बहुत बुरा लगा था तब तो, लेकिन वो “खूसट” डॉक्टर साहेब जीवन भर की सीख दे गए. मैं आज उनके प्रति बहुत सम्मान से भरा हूँ.
सही बात थी. मरीज़ यह तो कह सकता है कि इंजेक्शन की जगह हो सके तो टेबलेट दे दें, लेकिन कौन सी टेबलेट दें या कौन सा इंजेक्शन, अगर यह सब मरीज़ ने ही तय करना है तो फिर डॉक्टर का कोई रोल नहीं बनता.
यहाँ समाज में जो बीमारियाँ हैं, उनके हल के लिए नेता चुने जाते हैं. लेकिन हल वो कर ही नहीं सकते चूँकि हल जो हैं मरीज़ वो हल चाहता ही नहीं, हल मरीज़ अपनी मर्ज़ी के चाहता है. मर्ज़ कैसे हल होगा?
आज कोई नेता कहे कि आपकी सब बीमारियों का इलाज जनसंख्या नियंत्रण है, आधे वोट उड़ जायेंगे. आज कोई नेता कह दे कि आपके धर्म आपको वैज्ञानिक सोच से दूर कर रहे हैं. ये मूर्खता के अड्डे हैं, अंध-विश्वास के गड्डे हैं. आपकी सब समस्याओं के बड़े कारण हैं. लोग जूते मारेंगे. कैसे करे नेता आपकी प्रॉब्लम का हल?
नेता रिस्क नहीं लेता. वो इलाज वो देता है जो समाज लेना चाहता है. फ़ौरी तौर पर, ऊपरी तौर पर कुछ राहतें नज़र भी आती है. लेकिन मामला वहीं का वहीं. वो क्या करे? उसे हल अगर नज़र आ भी रहा होता है तो वो कन्नी काट लेता है, चूँकि उसे पता है कि हल आप झेल ही नहीं पायेंगे, सो उसे क्या? वो बस वायदे देता है. कुछ छुट-पुट काम करता है. आधे-अधूरे. वक्ती ज़रूरत टाइप के. ऊपरी-ऊपरी. पांच साल बाद फिर आ जाता है. आप उसे गाली देते हैं. फिर वोट देते हैं, उसे नहीं देंगे, उसी के जैसे किसी और को देंगे. वो फिर आपको नए वादे देता है. वो क्या देता है, आप लेते है. आप बस वायदे लेते हैं. वो आपको चाँद प्रोमिस करता है. आप खुश हो जाते हैं, उसे अच्छी तरह पता है कि चाँद लेने की आपकी तैयारी नहीं है, सो वो छोटे-मोटे तारे आपकी झोली में डाल देता है. आप खुश भी हैं और नाखुश भी हैं लेकिन रामलीला ज़ारी रहती है. कोरट चालू आहे,"मोहन जोशी हाज़िर हो........!"
फिर हल क्या है? हल है ऐसे लोग जो आपको छित्तर मारने को तैयार हों. आपकी मान्यताओं के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हों. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. पड़ जाओ पल्ले, वो ठोक देगा.
ऐसे लोग ढूंढिए. वो ही हैं हल. उनको आपसे वोट नहीं लेना है. उनको तो आप सूली ही दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की. इनके पिया की सेज तो सूली पर ही सजनी है. इतिहास गवाह है. और इतिहास खुद को दोहराता है. इतिहास नहीं दोहराता, इंसान की अक्ल वहीं की वहीं खड़ी रहती है, सो जीवन वही-वही दुहरता रहता है. आप मिलो किसी को बीस साल बाद, देखोगे कि बाल उड़ गए, दांत झड़ गए, लेकिन अक्ल वहीं की वहीं खड़ी है, अड़ गई. जहाँ गड़ गई, गड़ गई. गड़बड़ गई. गई. उम्र के साथ अक्ल आती है, ऐसा कहा जाता है. लेकिन मैंने तो देखा नहीं. एक लेवल के बाद लोग सीखना बंद कर देते हैं. दशकों बाद भी उनका मानसिक स्तर वही का वही मिलेगा. इंसान वहीं खड़ा रहता है, सो इतिहास दुहरता है. दोहरेगा ही.
और आपका लोकतंत्र भी दोहरता रहेगा यदि आप असल लोग न ढूंढ पाए, न खड़े कर पाए, न गढ़ सके, न घड़ सके.
कैसे करेंगे? कैसे होगा यह सब? एक तरीका यह है कि आप यह लेख या इस जैसे लेख जितना फैला सकें, फैला दें. कोई हनुमान का चित्र नहीं है, जिसे फॉरवर्ड करेंगे तो शाम तक अच्छी खबर आ जायेगी लेकिन अगर न किया तो इस समाज जो कुछ अहित हो रहा है, वो ज़रूर ज़ारी रहेगा.
देखिये, सवाल इस लेख का या किसी के भी लेख का है ही नहीं. आप खुद लिखिए या किसी का भी लेख, विडियो, फोटो शेयर करें, लेकिन करें. करें कुछ तो ही होगा कुछ. अपने आप कुछ नहीं होगा.
इस तरह से आप अपने समाज को तैयार कर सकते हैं कि वो सही इलाज स्वीकार करना सीख ले. समाज की जड़ता पर चोट कर सकते हैं. समाज को बता सकते हैं कि वो बीमार है. बहुत बीमार. इतना बीमार कि सारी पृथ्वी को बीमार करता जा रहा है. खुद तो डूबेंगे, तुम को भी साथ ले डूबेंगे सनम. पेड़, पौधे, पशु-पक्षी सब को ले मरेंगे.
ये जो हॉलीवुड की "डिज़ास्टर फिल्में" देखते हैं आप, जिनमें पृथ्वी को नष्ट होने का खतरा बना रहता है, कभी बाहरी ग्रह से कोई आक्रमण कर देता है, कभी पृथ्वी से ही कोई शैतान खड़ा हो जाता है जो पूरी मानवता पर राज करने के चक्कर में सर्वनाश का इंतज़ाम करे बैठा है, कभी किसी वैज्ञानिक का आविष्कार ही विनाश का कारण बन जाता है, यह सब इंसानी ज़ेहन में बसे सच्चे डर का प्रतिबिम्ब हैं. वो देख रहा है कि विनाश कैसे भी हो सकता है. क्या बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्त नहीं हो गयी धरती से. कैसे? इन्सान की मूढ़ता से.
सभ्यता के नाम पर इन्सान ने पागलखाना खड़ा कर दिया है. सब डूब सकता है. टाइटैनिक की तरह.
क्या बताना भर काफी है कि कोई बीमार है? है, कई बार बताना भर काफी है, आगाह कर देना भर काफी है. जैसे आपके कंधे पर कोई कीड़ा रेंग रहा हो और आपको बता भर दिया जाए, तो तुरत आप झटक देते हैं उसे. ऐसे.
ऐसे ही जब बताया जाता है कि बीमार हैं आप, तो आप इलाज भी खोजने जाते हैं. लेकिन बीमार स्थिति को ही नार्मल मान लिया जाए तो इलाज कैसे पैदा होगा? तो बताना, आगाह करना महत कार्य है.
हाँ, यह असल लोग समाज को इलाज भी सुझा देंगे, लेकिन वो बड़ी बात नहीं है, एक बार आप जागरूक हो जाएं, सोचने लगें, समाधान अपने आप हाज़िर हो जायेंगे. समस्या असल में समस्या नहीं है. समस्या है आपका न सोचना. तार्किक ढंग से न सोचना. बस यह है समस्या.
The problem is not the problem, your thinking is. Thinking, which is not rational but conventional, which is not systematic but problematic, which is not terrific but a traffic. Problem is not the problem.
तो जो आपको तर्क में धकेल दे, वो ही आपका, इस दुनिया का मित्र है.
अगला विश्व-युद्ध तर्क-युद्ध होना चाहिए. गली-गली. नुक्कड़-नुक्कड़. यह युद्ध विनाश नही विकास लाएगा. विनाश इस जंग में सिर्फ जंग खाई सड़ी-गली मान्यताओं का होगा.
आशा एक ही है. असल लोग. जाओ, ढूंढो. खुद बनो. वो ही इलाज हैं. ये नेता नहीं. ये नेता हैं ही नहीं. और इनको गाली-वाली देने से कुछ नहीं होगा.
ये तो आपका ही प्रतिबिम्ब हैं. आप किसी सुकरात, मंसूर, सरमद, ओशो को वोट दोगे? कभी नहीं. सिर्फ गाली दोगे इनको. सूली दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की.
आप से तो ऑस्कर वाइल्ड तक को नहीं झेला जाता. Paradoxes के बादशाह. लेकिन होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में जेल में ठूंस दिया गया. सआदत हसन मंटो बर्दाश्त नहीं हुए, उनकी कहानियों को नंगे किस्से कह कर कितने ही मुक्कद्द्मे चला दिए गए. और कंप्यूटर जिस के सामने बैठ हम-आप टिप-टिप करते हैं सारा-सारा दिन, उस कंप्यूटर को बनाने वाले एल्लन टूरिंग को होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में दवा देकर सेक्स-विहीन कर दिया गया. वैज्ञानिक, कवि तक नहीं झेले जाते आपसे.
तो कैसे तरक्की होगी? अब लेकिन चारा नहीं आपके पास. ज़्यादा समय नहीं है. या तो करो या मरो. बहुत लम्बा यह खेल नहीं चलेगा.
और हाँ, मेरा लेखन ऐसे है जैसे चांदनी रात का आसमान. चन्द्रमा तो है ही, लेकिन बहुत से तारे भी हैं. एक कोई मेन पॉइंट, मुख्य मुद्दा तो है ही, लेकिन उसके इर्द-गिर्द छोटे-छोटे और भी बहुत से पॉइंट, बहुत से तारे रहते हैं. झुंझलाहट तब होती है जब कुछ मित्र तारों से इतने सम्मोहित हो जाते हैं कि चन्द्रमा उनको दिखाई ही नहीं पड़ता.
सो तारें देखें, उनका मज़ा लें लेकिन चन्द्रमा को न खो दें.
नमन...कॉपी राईट..तुषार कॉस्मिक
लेकिन एक बार कुछ लड़कों के हत्थे चढ़ गये........ज़्यादा कुछ नहीं हुआ, बस उन लोगों ने घेर कर कुछ गाली-वाली दे दी.........फिर अगले दिन उनमें से ही कोई इनके घर की खिड़की का शीशा तोड़ गया.....अब इनको झटका लग गया......हैरान, परेशान.......बीमार हो गए.....मैं पहुंचा. बोले, “किसी ने कुछ घोट के पिला दिया है......भूत चिपक गए हैं....खाना हज़म नहीं होता.........खून के साथ उलट जाता है, भभूत बाहर गिरती है” फिर कुछ किताबें भी पढ़ चुके थे, बोलें,“ऊर्जा कभी मरती नहीं, रूप बदलती है......आत्मा अजर है, अमर है.....भूत भी बन सकती है.”
समझाने का प्रयत्न किया कि आपको मानसिक आघात है, आप अपनी ज़रा सी हार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं....आप भूत-प्रेत का मात्र भ्रम पाले हैं...खुद को धोखा दे रहे हैं.......वहम से खुद को बहला रहे हैं.......लेकिन वो कहाँ मानने वाले? 'शेर सिंह शेर'.
मुझ से पूछते रहे कि इलाज बताऊँ, मैंने कहा कि आप साइकेट्रिस्ट के पास चले जाएं. वो नाराज़ हो जाएं. कहें,“मैं कोई पागल हूँ?” बार-बार पूछते रहे कि कोई बाबा, डेरा, कोई तांत्रिक-मांत्रिक का पता बता दूं. इलाज तो चाहिए था उनको, लेकिन चाहिए अपने हिसाब का था.
मैं इस विषय पर कन्नी काटने लगा. वो परेशान थे, हल पूछते रहे, लेकिन अब मैं कहता था कि मेरा क्षेत्र ही नहीं है यह. मैं नेता नहीं हूँ, नेता होता तो कोई झाड़-फूंक वाला बता देता, झाड़-फूंक के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण भी गढ़ देता और हो सकता है उनको कोई फायदा भी मिल जाता. लेकिन कुल मिला कर यह सब उनका, समाज का नुक्सान करता.
प्रजातंत्र प्रपंच है, चक्रव्यूह है. हर नेता आपको धोखा देता लगेगा. असल में प्रजातंत्र का मौजूदा स्वरूप ही ऐसा है कि आपका बढ़िया से बढ़िया नेता घटिया दिखेगा ही, कुछ ही समय बाद. नेता नेता हो ही नहीं सकता इस तन्त्र में. वो पिछलग्गू ही होगा. उसे वोट जो लेने हैं. उसे भिखमंगे की तरह आपके दरवाज़े पर खड़े जो होना है, पांच साल बाद ही सही. वो कैसे आपका नेता हो सकता है?
नेता तो वो हो सकता है, जो समाज को दिशा दे. और समाज तो कोई दिशा लेने को तैयार नहीं. समाज तो अपनी बकवास, सड़ी-गली मान्यताओं में ही जीना चाहता है. समाज की समस्याओं के जो असल इलाज हैं, समाज वो इलाज स्वीकार ही नहीं करना चाहता. समाज अपनी बीमारियों का इलाज तो चाहता है लेकिन इलाज अपने ही ढंग के चाहता है.
अंग्रेज़ी की कहावत है,“यू कैन नोट हैव एंड ईट ए केक”. मतलब यह हो नहीं सकता कि आप एक केक सम्भाल कर फ्रिज में रख भी लें और उसी को खा भी लें, हज़म भी कर लें. कैसे हो सकता है? दोनों में से एक ही विकल्प आप चुन सकते हैं. दोनों नहीं.
मैं प्रोपर्टी क्षेत्र से हूँ, कंस्ट्रक्शन कोलैबोरेशन का बहुत बोल-बाला है कुछ सालों से. ज़मीन किसी और की होती है, उस पर बिल्डिंग बनाता कोई और है. और सब तय हो जाता है पहले ही कि बिल्डिंग बनेगी तो बन्दर-बाँट कैसे होगी. कौन क्या लेगा और कौन क्या देगा. कब-कब देगा. मकान बनाने वाले और ज़मीन मालिक दोनों के लिए फायदे का सौदा. अब मान लीजिये कोई ज़मीन मालिक अड़ जाए कि वो अपनी ज़मीन पर बनी पुरानी खंडहर बिल्डिंग पर हथौड़ा चलने ही नहीं देगा, क्यूंकि उसके पुरखों की निशानी है वो बिल्डिंग, तो ऐसे में कैसे नई बिल्डिंग बन सकती है? सवाल ही नहीं पैदा होता, जवाब कैसे पैदा होगा? असम्भव. नपोलियन ने कहा ज़रूर कि कुछ भी असम्भव नहीं है, लेकिन असलियत से दूर है यह कथन. कवित्त के हिसाब से सही है बात, मोरल बनाए रखने के लिए सही है बात, लेकिन वैसे बहुत कुछ असम्भव होता है दुनिया में, एक निश्चित टाइम और स्पेस में.
अब यही असम्भव है कि आप बीमारी भी सहेज कर रख लें और निरोग भी हो जाएं. जो कारण हैं बीमारी के, वो हटाना भी नहीं चाहते हैं और हेल्दी भी होना चाहते हैं. यह असम्भव है. समाज में जो गरीबी है, बेरोजगारी है, भुखमरी है, बीमारी है उन सब का कारण समाज की अवैज्ञानिक सोच है, उसे छोड़ना नहीं चाहते, उसे कीमती मानते है, अनमोल, पुरखों की देन, विरासत, संस्कृति. ज़जीरों को ही अलंकार समझते हैं, अनमोल मान बैठे हैं. विकृति को संस्कृति समझ रखे हैं. कैसे होगा इलाज?
मुझे याद है, बहुत पहले दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल गया मैं. ज़ुकाम की समस्या रहती थी. लगातार ज़ुकाम. एक ‘खूसट’ से डॉक्टर के पास भेजा गया मुझे. और जैसे ही उसने मुझ से पूछा कि समस्या क्या है, मैंने कहा,“जी, साइनस प्रॉब्लम है.” झटके से टोक दिया मुझे उसने, “समस्या बताओ, दिक्कत बताओ, साइनस प्रॉब्लम है या उस प्रॉब्लम का कोई और नाम है, वो मैं बताऊंगा. इलाज भी मैं ही बताऊंगा. डॉक्टर मैं हूँ. अगर डॉक्टर तुम हो, तो खुद ही कर लो अपना इलाज. मेरा रोल खत्म. खत्म क्या, शुरू ही नहीं होता”
मुझे बहुत बुरा लगा था तब तो, लेकिन वो “खूसट” डॉक्टर साहेब जीवन भर की सीख दे गए. मैं आज उनके प्रति बहुत सम्मान से भरा हूँ.
सही बात थी. मरीज़ यह तो कह सकता है कि इंजेक्शन की जगह हो सके तो टेबलेट दे दें, लेकिन कौन सी टेबलेट दें या कौन सा इंजेक्शन, अगर यह सब मरीज़ ने ही तय करना है तो फिर डॉक्टर का कोई रोल नहीं बनता.
यहाँ समाज में जो बीमारियाँ हैं, उनके हल के लिए नेता चुने जाते हैं. लेकिन हल वो कर ही नहीं सकते चूँकि हल जो हैं मरीज़ वो हल चाहता ही नहीं, हल मरीज़ अपनी मर्ज़ी के चाहता है. मर्ज़ कैसे हल होगा?
आज कोई नेता कहे कि आपकी सब बीमारियों का इलाज जनसंख्या नियंत्रण है, आधे वोट उड़ जायेंगे. आज कोई नेता कह दे कि आपके धर्म आपको वैज्ञानिक सोच से दूर कर रहे हैं. ये मूर्खता के अड्डे हैं, अंध-विश्वास के गड्डे हैं. आपकी सब समस्याओं के बड़े कारण हैं. लोग जूते मारेंगे. कैसे करे नेता आपकी प्रॉब्लम का हल?
नेता रिस्क नहीं लेता. वो इलाज वो देता है जो समाज लेना चाहता है. फ़ौरी तौर पर, ऊपरी तौर पर कुछ राहतें नज़र भी आती है. लेकिन मामला वहीं का वहीं. वो क्या करे? उसे हल अगर नज़र आ भी रहा होता है तो वो कन्नी काट लेता है, चूँकि उसे पता है कि हल आप झेल ही नहीं पायेंगे, सो उसे क्या? वो बस वायदे देता है. कुछ छुट-पुट काम करता है. आधे-अधूरे. वक्ती ज़रूरत टाइप के. ऊपरी-ऊपरी. पांच साल बाद फिर आ जाता है. आप उसे गाली देते हैं. फिर वोट देते हैं, उसे नहीं देंगे, उसी के जैसे किसी और को देंगे. वो फिर आपको नए वादे देता है. वो क्या देता है, आप लेते है. आप बस वायदे लेते हैं. वो आपको चाँद प्रोमिस करता है. आप खुश हो जाते हैं, उसे अच्छी तरह पता है कि चाँद लेने की आपकी तैयारी नहीं है, सो वो छोटे-मोटे तारे आपकी झोली में डाल देता है. आप खुश भी हैं और नाखुश भी हैं लेकिन रामलीला ज़ारी रहती है. कोरट चालू आहे,"मोहन जोशी हाज़िर हो........!"
फिर हल क्या है? हल है ऐसे लोग जो आपको छित्तर मारने को तैयार हों. आपकी मान्यताओं के खिलाफ लट्ठ लेकर खड़े हों. कबीरा खड़ा बाज़ार में, लिए लुकाठी हाथ. पड़ जाओ पल्ले, वो ठोक देगा.
ऐसे लोग ढूंढिए. वो ही हैं हल. उनको आपसे वोट नहीं लेना है. उनको तो आप सूली ही दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की. इनके पिया की सेज तो सूली पर ही सजनी है. इतिहास गवाह है. और इतिहास खुद को दोहराता है. इतिहास नहीं दोहराता, इंसान की अक्ल वहीं की वहीं खड़ी रहती है, सो जीवन वही-वही दुहरता रहता है. आप मिलो किसी को बीस साल बाद, देखोगे कि बाल उड़ गए, दांत झड़ गए, लेकिन अक्ल वहीं की वहीं खड़ी है, अड़ गई. जहाँ गड़ गई, गड़ गई. गड़बड़ गई. गई. उम्र के साथ अक्ल आती है, ऐसा कहा जाता है. लेकिन मैंने तो देखा नहीं. एक लेवल के बाद लोग सीखना बंद कर देते हैं. दशकों बाद भी उनका मानसिक स्तर वही का वही मिलेगा. इंसान वहीं खड़ा रहता है, सो इतिहास दुहरता है. दोहरेगा ही.
और आपका लोकतंत्र भी दोहरता रहेगा यदि आप असल लोग न ढूंढ पाए, न खड़े कर पाए, न गढ़ सके, न घड़ सके.
कैसे करेंगे? कैसे होगा यह सब? एक तरीका यह है कि आप यह लेख या इस जैसे लेख जितना फैला सकें, फैला दें. कोई हनुमान का चित्र नहीं है, जिसे फॉरवर्ड करेंगे तो शाम तक अच्छी खबर आ जायेगी लेकिन अगर न किया तो इस समाज जो कुछ अहित हो रहा है, वो ज़रूर ज़ारी रहेगा.
देखिये, सवाल इस लेख का या किसी के भी लेख का है ही नहीं. आप खुद लिखिए या किसी का भी लेख, विडियो, फोटो शेयर करें, लेकिन करें. करें कुछ तो ही होगा कुछ. अपने आप कुछ नहीं होगा.
इस तरह से आप अपने समाज को तैयार कर सकते हैं कि वो सही इलाज स्वीकार करना सीख ले. समाज की जड़ता पर चोट कर सकते हैं. समाज को बता सकते हैं कि वो बीमार है. बहुत बीमार. इतना बीमार कि सारी पृथ्वी को बीमार करता जा रहा है. खुद तो डूबेंगे, तुम को भी साथ ले डूबेंगे सनम. पेड़, पौधे, पशु-पक्षी सब को ले मरेंगे.
ये जो हॉलीवुड की "डिज़ास्टर फिल्में" देखते हैं आप, जिनमें पृथ्वी को नष्ट होने का खतरा बना रहता है, कभी बाहरी ग्रह से कोई आक्रमण कर देता है, कभी पृथ्वी से ही कोई शैतान खड़ा हो जाता है जो पूरी मानवता पर राज करने के चक्कर में सर्वनाश का इंतज़ाम करे बैठा है, कभी किसी वैज्ञानिक का आविष्कार ही विनाश का कारण बन जाता है, यह सब इंसानी ज़ेहन में बसे सच्चे डर का प्रतिबिम्ब हैं. वो देख रहा है कि विनाश कैसे भी हो सकता है. क्या बहुत सी प्रजातियाँ विलुप्त नहीं हो गयी धरती से. कैसे? इन्सान की मूढ़ता से.
सभ्यता के नाम पर इन्सान ने पागलखाना खड़ा कर दिया है. सब डूब सकता है. टाइटैनिक की तरह.
क्या बताना भर काफी है कि कोई बीमार है? है, कई बार बताना भर काफी है, आगाह कर देना भर काफी है. जैसे आपके कंधे पर कोई कीड़ा रेंग रहा हो और आपको बता भर दिया जाए, तो तुरत आप झटक देते हैं उसे. ऐसे.
ऐसे ही जब बताया जाता है कि बीमार हैं आप, तो आप इलाज भी खोजने जाते हैं. लेकिन बीमार स्थिति को ही नार्मल मान लिया जाए तो इलाज कैसे पैदा होगा? तो बताना, आगाह करना महत कार्य है.
हाँ, यह असल लोग समाज को इलाज भी सुझा देंगे, लेकिन वो बड़ी बात नहीं है, एक बार आप जागरूक हो जाएं, सोचने लगें, समाधान अपने आप हाज़िर हो जायेंगे. समस्या असल में समस्या नहीं है. समस्या है आपका न सोचना. तार्किक ढंग से न सोचना. बस यह है समस्या.
The problem is not the problem, your thinking is. Thinking, which is not rational but conventional, which is not systematic but problematic, which is not terrific but a traffic. Problem is not the problem.
तो जो आपको तर्क में धकेल दे, वो ही आपका, इस दुनिया का मित्र है.
अगला विश्व-युद्ध तर्क-युद्ध होना चाहिए. गली-गली. नुक्कड़-नुक्कड़. यह युद्ध विनाश नही विकास लाएगा. विनाश इस जंग में सिर्फ जंग खाई सड़ी-गली मान्यताओं का होगा.
आशा एक ही है. असल लोग. जाओ, ढूंढो. खुद बनो. वो ही इलाज हैं. ये नेता नहीं. ये नेता हैं ही नहीं. और इनको गाली-वाली देने से कुछ नहीं होगा.
ये तो आपका ही प्रतिबिम्ब हैं. आप किसी सुकरात, मंसूर, सरमद, ओशो को वोट दोगे? कभी नहीं. सिर्फ गाली दोगे इनको. सूली दोगे. सूली ऊपर सेज पिया की.
आप से तो ऑस्कर वाइल्ड तक को नहीं झेला जाता. Paradoxes के बादशाह. लेकिन होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में जेल में ठूंस दिया गया. सआदत हसन मंटो बर्दाश्त नहीं हुए, उनकी कहानियों को नंगे किस्से कह कर कितने ही मुक्कद्द्मे चला दिए गए. और कंप्यूटर जिस के सामने बैठ हम-आप टिप-टिप करते हैं सारा-सारा दिन, उस कंप्यूटर को बनाने वाले एल्लन टूरिंग को होमो-सेक्सुअलिटी के जुर्म में दवा देकर सेक्स-विहीन कर दिया गया. वैज्ञानिक, कवि तक नहीं झेले जाते आपसे.
तो कैसे तरक्की होगी? अब लेकिन चारा नहीं आपके पास. ज़्यादा समय नहीं है. या तो करो या मरो. बहुत लम्बा यह खेल नहीं चलेगा.
और हाँ, मेरा लेखन ऐसे है जैसे चांदनी रात का आसमान. चन्द्रमा तो है ही, लेकिन बहुत से तारे भी हैं. एक कोई मेन पॉइंट, मुख्य मुद्दा तो है ही, लेकिन उसके इर्द-गिर्द छोटे-छोटे और भी बहुत से पॉइंट, बहुत से तारे रहते हैं. झुंझलाहट तब होती है जब कुछ मित्र तारों से इतने सम्मोहित हो जाते हैं कि चन्द्रमा उनको दिखाई ही नहीं पड़ता.
सो तारें देखें, उनका मज़ा लें लेकिन चन्द्रमा को न खो दें.
नमन...कॉपी राईट..तुषार कॉस्मिक
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