Wednesday 27 April 2022

प्रशांत किशोर जैसे लोग प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना से वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है ~ By Hemant Kumar Jha Good Article on the Modern Politics

By Hemant Kumar Jha a Very Good Article on the Modern Politics ~~~

प्रशांत किशोर जैसे लोग इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति किस तरह जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना के सहारे वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है।
यह अकेले कोई भारत की ही बात नहीं है। चुनाव अब एक राजनीतिक प्रक्रिया से अधिक प्रबंधन का खेल बन गया है और यह खेल अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक में खूब खेला जाने लगा है।
ऐसा प्रबंधन, जिसमें मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये भ्रम की कुहेलिका रची जाती है, छद्म नायकों का निर्माण किया जाता है और उनमें जीवन-जगत के उद्धारक की छवि देखने के लिये जनता को प्रेरित किया जाता है।
दुनिया में कितनी सारी कंपनियां हैं जो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का ठेका लेती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हो या ब्राजील, तुर्की से लेकर सुदूर फिलीपींस के राष्ट्रपति का चुनाव हो, इन कंपनियों ने नेताओं का ठेका लेकर जनता को भ्रमित करने में अपनी जिस कुशलता का परिचय दिया है उसने राजनीति को प्रवृत्तिगत स्तरों पर बदल कर रख दिया है।
जैसे, बाजार में कोई नया प्रोडक्ट लांच होता है तो उसकी स्वीकार्यता बढाने के लिये पेशेवर प्रबंधकों की टीम तरह-तरह के स्लोगन लाती है। ये स्लोगन धीरे-धीरे लोगों के अचेतन में प्रवेश करने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया।
भारत में नरेंद्र मोदी राजनीति की इस जनविरोधी प्रवृत्ति की पहली उल्लेखनीय पैदावार हैं जिनकी छवि के निर्माण के लिये न जाने कितने अरब रुपये खर्च किये गए और स्थापित किया गया कि मोदी अगर नहीं लाए गए तो देश अब गर्त्त में गया ही समझो।
प्रशांत किशोर इस मोदी लाओ अभियान के प्रमुख रणनीतिकारों में थे। तब उन्होंने मोदी की उस छवि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था जो राष्ट्रवाद, विकासवाद और हिंदूवाद के घालमेल के सहारे गढ़ी गई थी।
सूचना क्रांति के विस्तार ने प्रशांत किशोर जैसों की राह आसान की क्योंकि जनता से सीधे संवाद के नए और प्रभावी माध्यमों ने प्रोपेगेंडा रचना आसान बना दिया था।
अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरियाँ सालाना, चाय पर चर्चा, महंगाई पर लगाम, मोदी की थ्रीडी इमेज के साथ चुनावी सभाएं आदि का छद्म रचने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जाती है।
वही किशोर अगले ही साल "बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है" का स्लोगन लेकर बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की पार्टी के विरोध में चुनावी व्यूह रचना करते नजर आए।
दरअसल, ठेकेदारों या प्रबंधन कार्मिकों की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। हो भी नहीं सकती और न ही इसकी जरूरत है। वे जिसका काम कर रहे होते हैं उसके उद्देश्यों के लिए सक्रिय होते हैं।
कभी प्रशांत किशोर मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के क्रम में राष्ट्रवाद का संगीत बजा रहे थे, बाद के दिनों में ममता बनर्जी के लिये काम करने के दौरान बांग्ला उपराष्ट्रवाद की धुनें बजाते बंगाली भावनाओं को भड़काने के तमाम जतन कर रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि तमिलनाडु में स्टालिन के लिये काम करने के दौरान वे उन्हें हिंदी के विरोध, सवर्ण मानस से परिचालित भाजपा के हिंदूवाद के विरोध के फायदे समझाएं। जब जैसी रुत, तब तैसी धुन।
बार-बार चर्चा की लहरें उठती हैं और फिर चर्चाओं के समंदर में गुम हो जाती हैं कि प्रशांत किशोर देश की सबसे पुरानी पार्टी की जर्जर संरचना को नया जीवन, नया जोश देने का ठेका ले रहे हैं। मुश्किल यह खड़ी हो जा रही है कि अब वे ठेकेदारी से आगे बढ़ कर अपनी ऐसी राजनीतिक भूमिका भी तलाशने लगे हैं जो किसी भी दल के खुर्राट राजनीतिज्ञ उन्हें आसानी से नहीं देंगे।
प्रशांत किशोर, उनकी आई-पैक कंपनी या इस तरह की दुनिया की अन्य किसी भी कंपनी की बढ़ती राजनीतिक भूमिका राजनीति में विचारों की भूमिका के सिमटते जाने का प्रतीक है।
जहां छद्म धारणाओं के निर्माण के सहारे मतदाताओं की राजनीतिक चेतना पर कब्जे की कोशिशें होंगी वहां जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे नेपथ्य में जाएंगे ही।
टीवी और इंटरनेट ने दुनिया में बहुत तरह के सकारात्मक बदलाव लाए हैं। कह सकते हैं कि एक नई दुनिया ही रच दी गई है, लेकिन राजनीति पर इसके नकारात्मक प्रभाव ही अधिक नजर आए। अब प्रोपेगेंडा करना बहुत आसान हो गया और उसे जन मानस में इंजेक्ट करना और भी आसान।
जिस तरह कम्प्यूटर के माध्यम से किसी बौने को बृहदाकार दिखाना आसान हो गया उसी तरह किसी कल्पनाशून्य राजनीतिज्ञ को स्वप्नदर्शी बताना भी उतना ही आसान हो गया।
चुनाव प्रबंधन करने वाली कम्पनियों की सफलताओं ने राजनीति को जनता से विमुख किया है और नेताओं के मन में यह बैठा दिया है कि वे चाहे जितना भी जनविरोधी कार्य करें, उन्हें जनोन्मुख साबित करने के लिये कोई कंपनी चौबीस घन्टे, सातों दिन काम करती रहेगी।
डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना, ब्राजील के बोल्सेनारो का शिखर तक पहुंचना, तुर्की में एर्दोआन का राष्ट्रनायक की छवि ओढ़ना, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरते का जरूरत से अधिक बहादुर नजर आना...ये तमाम उदाहरण इन छवि निर्माण कंपनियों की बढ़ती राजनीतिक भूमिका को साबित करते हैं। ट्रम्प अगले चुनाव में हारते-हारते भी कांटे की टक्कर दे गए और आज तक कह रहे हैं कि दरअसल जीते वही हैं।
अपने मोदी जी की ऐसी महिमा तो अपरम्पार है। वे एक से एक जनविरोधी कदम उठाते हैं और प्रचार माध्यम सिद्ध करने में लग जाते हैं कि जनता की भलाई इसी में है, कि यही है मास्टर स्ट्रोक, जो अगले कुछ ही वर्षों में भारत को न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बना देगा
तभी तो, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों से भरे देश में 80 करोड़ निर्धन लोगों के मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने के बावजूद देशवासियों को रोज सपने दिखाए जाते हैं कि भारत अब अगली महाशक्ति बनने ही वाला है।
उससे भी दिलचस्प यह कि शिक्षा को कारपोरेट के हवाले करने के प्रावधानों से भरी नई शिक्षा नीति के पाखंडी पैरोकार यह बताते नहीं थक रहे कि भारत अब 'फिर से' विश्वगुरु के आसन पर विराजमान होने ही वाला है।
प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले बल्कि जनता उसी को सच माने जो उनकी कंपनी के क्लाइंट नेता समझाना चाहें।
अमेरिका, यूरोप, तुर्की आदि तो धनी और साधन संपन्न हैं भारत के मुकाबले। वहां की जनता अगर राजनीतिक शोशेबाजी में ठगी की शिकार होती भी है तो उसके पास बहुत कुछ बचा रह जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रबंधकों ने जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित की है उसमें जनता ठगी की शिकार हो कर बहुत कुछ खो देती है। देश ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में जाते देखा, गलत नीतियों के दुष्प्रभाव से करोड़ों लोगों को बेरोजगार होते देखा, गरीबों की जद से शिक्षा को और दूर, और दूर जाते देखा, मध्यवर्गियों को निम्न मध्यवर्गीय जमात में गिरते देखा, निम्नमध्यवर्गियों को गरीबों की कतार में शामिल हो मुफ्त राशन की लाइन में लगते देखा...न जाने क्या-क्या देख लिया, लेकिन, अधिसंख्य नजरें इन सच्चाइयों को नजरअंदाज कर उन छद्म स्वप्नों के संसार मे भटक रही हैं जहां अगले 15 वर्षों में अखंड भारत का स्वप्न साकार होना है, उसी के समानांतर हिन्दू राष्ट्र की रचना होनी है और...यह सब होते होते उस महान स्वप्न तक पहुंचना है, जिसे 'राम राज्य' कहते हैं, जहां होगा 'सबका साथ, सबका विकास'।

Saturday 23 April 2022

अजब-गजब बाबा

"राधा स्वामी-पव्वा सवेरे और अद्धा शामी." खैर, यह तो मजाक में कहा जाता है लेकिन इस डेरे ने दिल्ली में छतरपुर में सैंकड़ों एकड़ ज़मीन हथिया रखी थी, जिसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाया गया. क्या कोई प्रॉपर्टी डीलर मुकाबला करेगा इन का?

इसी लेख का वीडियो है, देख लीजिये:---

आसा राम जी और उन के सपूत पर  बलात्कार के आरोप लगे, साबित भी हुए, दोनों अंदर हैं. आसा राम तो अब शायद कभी बाहर आ भी न पाएं लेकिन भक्त-जन आज भी उन के हँसते हुए चेहरे के कैलेंडर घर में लगाये हैं और श्रधा से सर झुकाए हैं. गुरु चाहे गोबर हो जाये, चेला तो शक्कर बना ही रहेगा. 

बाबा राम देव. यह जनाब जब मोदी सरकार नहीं बनी थी तो कह रहे थे कि एक बार मोदी जी आ जाएँ तो पेट्रोल शायद पानी जितना सस्ता हो गया. और अब धमका रहे हैं, "हाँ, कहा था ऐसा. अब नहीं हुआ सस्ता पेट्रोल तो क्या पूछ पाड़ेगा?" इन का समाज विज्ञान इतना गहन है कि बड़े नोट बंद करने से ही भ्रष्टाचार खत्म कर देगा. वाह!

पंजाब में एक बाबा थे आशुतोष जी महाराज. यह सिधार गए हैं. कहाँ? नरक या स्वर्ग पता नहीं . लेकिन इन के शिष्य तो यह भी स्वीकार करने को तैयार नहीं कि मर चुके. शिष्यों ने इन की बॉडी डीप फ्रीज़र में रख रखी है. बाबा की आत्मा भ्रमण कर रही है, वापिस लौटेगी. "मेरे करण-अर्जुन आयेंगे........."

एक थे बाबा राम रहीम सिंह जी इंसान. खिलाड़ी, गायक, एक्टर, डायरेक्टर, फिल्म निर्माता.भक्तों  के पिता जी थे. हालांकि पिता जी पर भक्तों की बेटियों के बलात्कार का आरोप था. साबित भी हुआ और पिता जी जेल भी चले गए लेकिन भक्तों के लिए आज भी ये पिता जी हैं......  

एक थे हरियाणा के संत राम पाल. ये कबीर वाणी  की व्याख्या करते करते खुद ही दिव्य हो गए. शायद पढ़ा था कहीं कि जिस द्रव्य से ये नहाते थे लोग उसे पीते थे. खैर जेल यात्रा इन को भी मिली.आसानी से तो पकड़ में भी नहीं आये थे. फोर्सेज के साथ बहुत धक्का-मुक्का ही थी. 

एक और स्वामी थे नित्यानंद. इन पर भी क्रिमिनल  आरोप लगे. लेकिन ये होशियार-चंद निकले. ये आसाराम और राम पाल जैसों का हश्र देख चुके थे सो मुल्क छोड़ भाग गए. सुना है कोई ISLAND खरीद कर एक नया मुल्क ही बना लिया है इन ने. कैलासा. वैरी गुड.

अभी-अभी के खबर है कि दिल्ली रोहिणी में कोई "अध्यात्मिक विश्वविद्यालय" था. इस में सैंकड़ों औरतों को जानवरों के स्तर पर रखा गया था. अंदर सूरज की रौशनी एक किरण तक नहीं पहुँचती थी. 
अध्यात्मिक विश्वविद्यालय! 

ये आप को चंद बड़ी सूचनाएं दीं हैं, बाकी छोटी-मोटी खबरें रोज़ आती ही रहती हैं,  बाबा बलात्कारी निकला, बाबा चोर निकला, बाबा फ्रॉड निकला...आदि आदि.......

असल में इन बाबा लोगों में कोई कमाल नहीं है. कमाल तो जनता की मूर्खता है. इस का कोई अंत नहीं है. 
हरि नाम अनंता हरि कथा अनन्ता....

एक थे निर्मल बाबा. "थे" कहना ठीक नहीं है, वो अभी भी "हैं". ये तो सब अटकी हुई "कृपा" गोलगप्पों की चटनी और गुलाब जामुन खाने से ही बरसा देते थे.

अभी इस सूची में ३ और लोग जोड़ने रह गए हैं.

आप ने विडियो देखे होंगे, जिस में एक ईसाई Priest जरा सा सर पे छूता है किसी शख्श के और वो शख्स एक दम कूदता-फांदता है, उस में अजीब शक्ति का प्रसार हो जाता है. अब यह सब नौटंकी है. घटिया. उथली. किसी भी तरह से दुसरे धर्मों के लोगों को अपने खेमे में खींच लाने का टुच्चा प्रयास. 

दूसरा, इस लिस्ट में ज़ाकिर नायक को जोड़ना है. इसे मैं ज़ाकिर ना-लायक कहता हूँ. यह बन्दा मुल्ला दाढ़ी में, कोट पेंट पहन कर सब धर्म ग्रन्थों का रिफरेन्स गति से फेंकता था. हजारों की संख्या में लोग मौजूद. मन्तव्य वही. किसी भी तरह से बाकी धर्मों के लोगों को इस्लाम में खींच लाना. इस बंदे के पास एक ही हथियार था, वो था धर्म ग्रन्थों का उल्लेखन, रिफरेन्स देना. सुनने वाले चमत्कृत. कहाँ क्या लिखा है, इसे याद रख लेने में क्या? असल बात है, आप इस दुनिया को नया क्या देते हो, क्या ज्ञान-विज्ञान छोड़ के जाते हो पीछे. आप के जीवन में, कथन में क्या कलात्मकता है, क्या वैज्ञानिकता है. और जब ज़ाकिर नायक जैसों की हर बात कुरान से शुरू और कुरान पे ही खत्म होती है इन से ज्ञान, विज्ञान, कला की क्या अपेक्षा करें.     

अंत में भिंडरावाला. इस व्यक्ति पर मैंने अलग से लेख लिखा है, जिस पर फेसबुक पर बहुत घमासान हुआ भी है. इसे आज भी बहुत से सिख अपना हीरो मानते हैं. इस की तस्वीर अपनी कारों पर चिपकाते हैं. इस की छपी तस्वीर वाली टी-शर्ट पहनते हैं. जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद चल रहा था, मैं बठिंडा में ही था. पढ़ रहा था. अस्सी के बाद से ही हिन्दुओं के कत्ल शुरू हो गए थे. बसों से उतर कर, कतार में खड़े कर के गोलियों से भून दिया जाता था. ऐसा रोज़ ही होता था. 10/20/30 हिन्दू रोज़ मारे जाते थे. और यह महान काम करते थे सिक्ख आतंकवादी. जिन को खाड़कू कहा जाता था. भिंडरावाला इन सब का हीरो बन चुका था. संत भिंडरावाला. यदि वो संत था तो संत की परिभाषा फिर से गढ़नी होगी.  

Albert Einstein once said, “Two things are infinite: the universe and human stupidity.” 

मुझ से अक्सर दोस्त लोग कहते हैं, "इत्ता अच्छा बोल लेते हो, लिख लेते हो, सोच लेते हो, क्या फायदा? बाबा बन जाओ." लेकिन मैं मूर्ख हूँ. मुझे दुनिया को मूर्ख नहीं बनाना बल्कि मूर्ख बनने से बचाना है जो कि ज़्यादा मुश्किल काम है. लेकिन मैंने मुश्किल काम ही चुना है. 

नमन.
तुषार कॉस्मिक  

Friday 22 April 2022

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत?

मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. 

असल में यह  शैतान भी एक पत्थर ही है. जब पत्थर भगवान नहीं हो सकता तो शैतान कैसे हो सकता है? और यदि पत्थर शैतान हो सकता है तो भगवान क्यों नहीं? 

तुम पत्थर को शैतान समझ मारो, वो ठीक, और जो पत्थर को शिवलिंग, हनुमान, पिंडी देवी समझ पूजे वो गलत? 

कमाल!

तुषार कॉस्मिक

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना.

सबसे मुश्किल भरा होता है खुद को नादान से चौकस बनाना. आप होते नहीं और ना ऐसा करने की ज़रूरत ही समझते हैं लेकिन अचानक आपको लगता है कि अब तक आप जैसे बेफिक्र चले जा रहे थे वो गलत था. फिर आप रोज़ खुद को थोड़ा-थोड़ा बदलते हैं. चोटों और नाकामयाबी से बचने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है मगर कुछ साल बाद आप खुद को आइने के सामने पाते हैं. शक्ल पहचान पाना मुश्किल हो जाता है. आइने में दिख रहा चेहरा उस इंसान जैसा लगता है जिससे आप कुछ वक्त पहले इसलिए नफरत करते थे क्योंकि वो बहुत चालाक था - copied

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे?

क्या तुम ने कभी किसी वैज्ञानिक की तस्वीर लगाई अपनी id पे? बाबा बूबी लगाए फिरते हो. विज्ञान तुम्हें रोशनी देता है और ये गुरु घण्टाल तुम्हें घण्टे की तरह बजाते हैं. लेकिन फिर भी तुम.... Idiots!

~ तुषार कॉस्मिक

पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है.

पत्थर मार-मार के जान से मार देने का इब्रह्मिक धर्मों में पुरानी रवायत है. एक वेश्या को लोग पत्थर मार के मार देना चाह रहे थे तो, जीसस ने उस बचाया, यह कह कर कि पत्थर वही मारे, जिसने खुद कोई गुनाह न किया हो. मजनूँ को लोग पत्थर मार रहे थे चूँकि वो लैला को अल्लाह से ज़्यादा मोहब्बत करता था, जिस की इजाज़त इस्लाम में है ही नहीं. फिर लैला गाती है, "कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को.....". मंसूर (सूफी संत) को मुसलमानों ने पत्थर मार-मार मार दिया. आप को YouTube पर फिल्म मिल जाएगी Stoning of Soraya. इस फिल्म में एक मुस्लिम स्त्री पर परगमन का झूठा इल्जाम लगा कर उसे पत्थर मार मार के मार दिया जाता है. मुस्लिम जब हज करते हैं तो शैतान को पत्थर मारते हैं. असल में यह शैतान भी एक पत्थर ही है. पत्थर कोई कश्मीर में ही नहीं मारे जाते फ़ौज पर, अभी-अभी स्वीडन की पुलिस पर भी मुसलामानों ने पत्थर फेंके हैं. जहाँगीर-पुरी दिल्ली में भी यही हुआ है. पत्थर मारना इब्रह्मिक धर्मों की संस्कृति है. ~तुषार कॉस्मिक

Wednesday 20 April 2022

मेरी बिज़नेस यात्रा

यह कोई रोड़-पति  से करोड़पति की कहानी नहीं है.

यह मेरी कहानी है. यह मेरी उद्यमशीलता की कहानी है. यह मेरी सफलताओं और असफलताओं की कहानी है. यह मेरी समझदारियों और नासमझियों की कहानी है. यह मेरे नफे और मेरे नुक्सान की कहानी है. 

यह एक आम इन्सान की कहानी है. यह आप की कहानी है. इस कहानी में कई सबक हैं, मेरे लिए और आप के लिए भी. 

तो चलिए मेरे साथ.....

मैं कोई बारहवीं कक्षा में रहा होऊंगा, जब यह लगा कि जीवन में पैसा चाहिए और जीवन फैलाना हो तो बहुत-बहुत पैसा चाहिए. 

माँ-बाप शुरू से चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ या DC (Deputy Commissioner). डॉक्टर, उन्होंने देखे थे कि खूब पैसा कमाते हैं, कार, कोठी सब खड़ा कर लेते हैं. और DC, उन्होंने सुना थी कि पूरे शहर का मालिक होता है. 

लेकिन चूँकि मुझे किशोर अवस्था से ही साहित्य, मनोविज्ञान, धर्म-राजनीति, ध्यान, सम्मोहन जैसे विषयों में रूचि थी तो कॉलेज की पढ़ाई को मैंने समय व्यतीत करने के एक साधन मात्र की तरह प्रयोग किया. 

उन दिनों पढने-लिखने वाले बच्चे या तो मेडिकल में जाते थे या नॉन-मेडिकल में. मेडिकल वाले डॉक्टर बनते थे और नॉन-मेडिकल वाले इंजिनियर. मुझे न डॉक्टर बनना था और न ही इंजिनियर. सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. आर्ट्स निपट फिसड्डी छात्र लेते थे. यह फ़िज़ूल की स्ट्रीम मानी जाती थी चूँकि इस की डिग्री से किसी को कैसा भी काम मिलता नहीं था. और मैने आर्ट्स इस लिए लिया चूँकि मुझे पता था कि इस के इम्तिहान मैं बहुत कम समय खर्च करे पास कर जाऊंगा और मुझे मेरी पसंदीदा किताबें पढ़ने का मौका मिलता रहेगा. 

खैर, इसी दौर में पैसे की अहमियत भी समझ आने लगी.

तो साहेबान, कद्रदान, मेहरबान..अब मुझे यह भी समझ आया कि असल पैसा तो बिज़नस में है. नौकरी में तो ज़िंदगी बंध सी भी जाएगी और इस में कोई ख़ास पैसा भी नहीं है. सो तभी सोच लिया कि नौकरी कैसी भी हो, नहीं करनी है. 

अब बिज़नस करें तो कैसे करें? पिता जी की कपड़े की दुकान थी, लेकिन वो खुद भी उस दूकान को कोई बहुत aggressive ढंग से नहीं चलाते थे. घर दूकान अपनी थी. असल में हमारा  घर कोर्नर का था, उसी के एक कोने में पिता जी की दूकान थी. उन्होंने कुछ ब्याज का धंधा किया हुआ था, कुछ किराए की आमदनी थी. खर्च उन दिनों कोई ज़्यादा होते नहीं थे. और मेरे अलावा परिवार में कोई और बच्चा था नहीं तो हमारा घर ठीक से चलता था. लेकिन मुझे यह सब नाकाफी लगता था. 

सो मैं तभी बवाल करने लगा, "मुझे पैसे दो, मैं व्यापार करूंगा." तजुर्बा कुछ था नहीं, "व्यापार करूंगा."

एक दिन रूठ कर घर से भाग गया और बठिंडा में ही किसी फैक्ट्री में लेबर का काम किया सारा दिन. दिहाड़ी ले कर, शाम को बदहवास सा घर लौट आया. 

चंडीगढ़ में हमारे कोई रिश्तेदार थे, वो फैक्ट्री से गोली-टॉफ़ी और बिस्कुट आदि उठाते थे और फिर दुकानदार उन से होलसेल में ले जाते थे. उन की दूकान पर बहुत भीड़ रहती थे. मैं एक-आध दिन वहां रहा. ऐसे कोई धंधा समझ आता है? फिर लौट आया. 

वहीं एक पास के एक शहर में हमारे कोई और रिश्तेदार प्रिंटिंग का काम करते थे तो वहां चला गया लेकिन वहां मैं काम सीखने नहीं, नकली नोट छापना सीखने की मंशा से गया था. ब्लाक कैसे बनता है, यह मुझे समझ आ गया लेकिन ऐसे कहाँ नोट छपने थे? सो वह प्रोजेक्ट भी अधूरा रह गया.  

अब तक मुझे यह भी समझ आने लगा कि बठिंडा में व्यापार के मौके बहुत ही कम हैं. बेहतर है बड़े शहर में कूच किया जाये. दिल्ली में हमारे रिश्तेदार रहते ही थे. उन्हीं दिनों पंजाब में उग्रवाद भी ज़ोरों पर था. सो यह तय हुआ कि मैं दिल्ली जाऊँगा. 

यहाँ जानकी पुरी (जनकपुरी के पास) में एक कोई चार सौ गज का प्लाट लिया हुआ था पिता जी ने. यह तब कच्ची कॉलोनी थी. मोती नगर में मेरे कजिन (सुभाष जी) के पास एक दूकान थी. जहाँ कोई लड़का बैठता था, लेडीज सूट वगैहरा बेचता था.  उस लड़के का exit होना था. और मेरी entry होनी थी.

कोई एक साल मैं उस दूकान को चलाने का प्रयास करता रहा. नतीजा ढाक के तीन पात. उस जमाने में कोई सत्तर हजार रुपये का नुकसान हुआ. एक साल की बर्बादी के बाद मैंने वो दूकान छोड़ दी. 

उसी दौर में मुझे लगा कि विदेश से सस्ता सामान ला कर दिल्ली में बेचना फायदे का धंधा साबित हो सकता था. मैंने पाकिस्तान जाने का प्रयास किया. एम्बेसी गया. एक दलाल टाइप का व्यक्ति टकराया. उस ने कुछ पैसे मांगे वीसा, टिकेट दिलावाने के. लेकिन वो मुझे रिस्की लगा. सो वो इरादा छोड़ दिया. 

फिर किसी ने बताया कि नेपाल जा सकते हो. वहां रोक-टोक नहीं है. सो मैंने बिना किसी को पूछे-बताये नेपाल जाना तय कर लिया और चला भी गया. बस से. सनौली बॉर्डर के बाद नेपाल शुरु होता था. कोई ख़ास चेकिंग नहीं हुई. काठमांडू पहुँच गया.

कमरा किराए पर लिया. घूमना शुरू किया. हैरान हुआ, वहाँ सिक्ख बधुओं की कुछ दूकान दिखीं मुझे!  नेपाली मुझे बहुत ही स्वस्थ शरीर वाले दिखे, ख़ास कर के औरतें और लड़कियाँ बहुत ही हृष्ट-पुष्ट.

व्यापार तो कुछ समझ आया नहीं मुझे, हाँ, घूमना-फिरना ज़रूर हो गया. वहीं एक "विशाल बाज़ार" था, जैसे आज मॉल होते हैं वैसा. वहाँ पहली बार मैंने Escalator देखा. कुछ कीड़े-मकौड़े जैसे जन्तु (मरे हुए) बिकते देखे. लकड़ी के मंदिर देखे. पशुपति नाथ मंदिर भी जाना हुआ. हिमालय को शायद वहाँ 'सागरमाथा' बोलते हैं चूँकि  कुछ दुकानों पर यह लिखा मैंने देखा था. काठमांडू की सडकों पर भीड़ बहुत कम थी उन दिनों. सडकें पहाड़ी, ऊंची-नीची. विदेशी साइकिल किराए पर ले घूमते थे. तब मेरी उमर थी कोई बीस साल. आज सालों हो गए,  मुझे नहीं पता अब काठमांडू कैसा है, लेकिन मेरी नज़र में यह एक बेहतरीन जगह है. मौका लगे तो मैं दुबारा ज़रूर जाऊँगा. आप को भी वहाँ ज़रूर जाना चाहिए. 

खैर,  कोई तीन या चार दिन बाद मैं वापिस आ गया था.

अब यह दूकान मैंने छोड़ दी. मैं फिर से माँ-बाप को दुखी करने लगा. "बिज़नस करूंगा." जनक पुरी वाला प्लाट मेरी जिद्द की वजह से मजबूर हो कर उन को बेचना पड़ा. फिर हम लोग रघुबीर नगर आ गए. यह JJ Colony  है, यहाँ एक मकान खरीदा, हालाँकि बहुत अच्छी लोकेशन पर खरीदा लेकिन मुझे कहाँ टिकना था. मैं माँ-बाप से रूठ कर ऑटो-रिक्शा किराए पर ले कर चलाने लगा. कोई तीन चार महीने चलाया होगा. न खुद कुछ कमाया और न ही जिस का ऑटो था उस ने मेरे ज़रिये कुछ कमाया होगा. एक ही जिद्द थी, "मैं बिज़नस करूंगा." 

मेरी जिद्द की वजह से यह मकान भी बिक गया. फिर वहीं पास ही DDA flats की नई allotment में कोई चार फ्लैट ले लिए गए. अब मैं वहाँ शिफ्ट हो गया, एक फ्लैट में, अकेला. चूँकि माँ-बाप तो अभी भी बठिंडा ही रहते थे, दिल्ली में  मैं अकेला ही रहता था.

यहीं मैं प्रॉपर्टी डीलरों के सम्पर्क में आ गया. ये लोग दोपहर में ताश खेलते थे और गप्पे हांकते थे. इन के पास बैठ-बैठ मुझे समझ आने लगा कि यह धंधा मैं भी कर सकता हूँ. बस. जिस फ्लैट में मैं रहता था उसे ऑफिस बना दिया.

पहले महीने ही कोई ३-४ सौदे कर दिए मैंने. कोई २२ साल की उम्र में प्रॉपर्टी का धंधा शुरू. यह शुरू हुआ तो बस शुरू हो ही गया. मैंने कोई डेढ़ दो साल में सैकड़ों डील कीं. 

फिर राकेश अजमानी मुझे पश्चिम विहार ले आया. यहाँ  वही नक्शे के DDA फ्लैट थे, जो मैं पहले से बेच-खरीद रहा था. राकेश और बहुत से लोग DDA ऑफिस आते-जाते रहते थे. ये लोग DDA के क्लर्कों से सेटिंग बिठा कर काम करवा लेते थे. जैसे ही DDA की कोई allotment निकलती, क्लर्कों से allottee लोगों की लिस्ट ले लेते थे और फिर गली-गली उन को ढूंढते-मिलते और उन से एडवांस में ही फ्लैट खरीद लेते और फिर थोड़ा सा मार्जिन ले कर आगे सरका देते. यही मैं करने लगा लेकिन सिर्फ अपने ब्लाक के लिए जहाँ मेरा ऑफिस था. कुछ अच्छे पैसे मैंने इस ढंग से भी कमाए.

खैर, इस ब्लाक में धीरे-धीरे मेरे पैर जमने लगे. यहाँ भी ढेरों-ढेर सौदे मैंने किये. 

फिर शादी हो गयी.

तो जनाब, फिर कोई दो एक साल बाद मुझे सूझा कि मोटा पैसा ऐसे तो नहीं कमाया जा सकता. इस के लिए तो कोई बड़ा काम करना होगा. तो मैं अपने कोई रिश्तेदारों के चक्कर काटने लगा जो कई तरह का धन्धा करते थे.

मेरे पास उन दिनों मारुती 800 कार थी. मुझे लुधिआना भेजा जाने लगा. मैं अपना कैश पैसा कार में भर के ले जाता और वहाँ से फॉरेन करेंसी ले कर आने लगा. यह कोई 700 किलोमीटर की ड्राइविंग हो जाती थी. बहुत ही थकाऊ और बहुत ही रिस्की. रिस्की इस लिए चूँकि रोड काफी कुछ सिंगल था. रोज़ दसियों एक्सीडेंट सड़क पर नजर आते. एक बार तो ट्रेन से भी गया. लेकिन कोई 4-5 दिन बाद ही समझ आ गया कि यह धंधा बेकार था. 

उन दिनों दिल्ली में जगह-जगह लाटरी खेली जाती थी. मोटा खेलने वाले कुछ लोग टिकेट न खरीद कर खाईवालों (सट्टेबाज़ों) को नम्बर लिखवाते थे. मुझे बताया गया कि खाईवाल मोटा पैसा कमाते हैं. मैंने खाईवाली शुरू कर दी. मोटा कमाना तो क्या था, मोटा नुक्सान हुआ. वो इसलिए कि जब लोग हार जाते तो उन से पैसा वसूल करना लगभग असम्भव हो जाता और जीतने वाले को पैसे चुकाने ही होते थे. 

फिर किसी ने कहा कि दारु की सप्लाई में कमाई है. उस के लिए भी हरियाणा में एक दो लोगों को मिलने गए. शायद एक दारु की फैक्ट्री पर भी गए थे. हरियाणा और दिल्ली में शराब पर उन दिनों टैक्स में कोई फर्क था इसलिए लोग हरियाणा से दारु ला कर दिल्ली में बेचते थे. मैंने यह काम एक दो दिन किया भी अपनी मारुती 800 कार से. लेकिन फिर सूझा कि यह बकवास है. 

इस सब के चलते मैंने पैसे का और समय का काफी नुक्सान किया. कानों को हाथ लगा लिया कि यह सब कभी ज़िंदगी में नहीं करूंगा. और फिर कभी किया भी नहीं. शराब न मैं पहले पीता था, न अब पीता हूँ, बस धंधा करना था, सो २-४ दिन किया. जुआ भी न पहले खेला, न बाद में, खाईवाली की,धंधा समझ के.

अब मेरे पास एक दूकान थी कॉलोनी की एंट्री पर. वहाँ मैंने प्रॉपर्टी  के धंधे के अलावा एक STD/ PCO खोल लिया. एक वेल्डर बिठा लिया, सामने खाली ज़मीन पड़ी थी, वहाँ बिल्डिंग मटेरियल डाल लिया. इस खिचड़ी से बिजी रहने लगा और धंधा पानी भी कुछ ठीक चलने लगा.

वेल्डर जल्दी ही निपट गया. 

STD/ PCO कोई दो साल चलाया होगा, वो भी निपट गया.

बिल्डिंग मटेरियल का धंधा काफी बढ़िया से चला. मैंने आस-पास तीन ठीये और हथिया लिए. ठीये क्या होते हैं साहेब बस सड़क पे ईंट-रोड़ी डालना होता है और पुलिस और MCD वालों को कुछ पैसे देने होते थे, हो गयी दूकान चालू.

यहीं पास में ही पश्चिम पुरी में क्लब रोड पर छोटे flats में से एक फ्लैट मैने खरीद लिया चूँकि उस के सामने फुटपाथ पर बिल्डिंग मटेरियल डाला जा सकता था. वहाँ मैंने श्रीमती जी को बिठाल दिया, जिन्होंने बड़ी मेहनत से उस दूकान को चलाया. यह धंधा ठीक था लेकिन चूँकि मटेरियल सड़क पर होता था तो लोग शिकायत करते रहते थे और अफसर लोग परेशान करते रहते थे.

एक दिन मैं कहीं गया हुआ था तो पीछे से पुलिस वाले आये और पिता जी बैठे थे पश्चिम विहार वाली दूकान पर. तो उन से पुलिस वाले  कुछ बदतमीज़ी कर गए. मैंने ठान लिया कि यह काम करना ही नहीं. छोड़ दिया. इसी बीच एक बार बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई करने के लिए ट्रक भी खरीदा था लेकिन वह तो मैं बिलकुल भी नहीं चला पाया. उसे पार्क में खड़ा रखना पड़ा काफी समय. बाद में कुछ घाटे में बेच जान छुडवाई.

बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई का काम अच्छा है, आप भी कर सकते हैं, लेकिन मटेरियल डालने के लिए या तो अपनी जगह हो या जगह ऐसी हो जहाँ मटेरियल डालने से जनता को दिक्कत न हो.  

इसी दौर में एक फ्लैट बनवाने का ठेका भी ले लिया, बनवा भी दिया लेकिन यह काम मुझे बहुत ही ज़्यादा involvement वाला लगा, सो दुबारा इस में हाथ नहीं आजमाया. 

फिर से प्रॉपर्टी के धंधे पर ध्यान केन्द्रित करने लगा और यह धंधा फिर से फलने-फूलने लगा.

इस बीच मुझे सूझा कि main road पर दूकान खरीदनी चाहिए. एक बढ़िया दूकान खरीद भी ली लेकिन इस में कुछ un-authorized था. ऑफिस बनाया, जिस सुबह शुरू करना था, उसी सुबह हमारे पहुँचने से पहले ही MCD वाले तोड़-फोड़ कर  गए. कायदे-कानून की ज़्यादा समझ थी नहीं तब, मन बहुत खराब हुआ. ठान लिया कि यह दूकान करनी ही नहीं. ऐसे ही छोड़ दी कुछ समय और फिर आधे रेट में बेच भी दी. 

लेकिन चूँकि मेरे ब्लॉक में मेरी पकड़ बहुत ही अच्छी थी सो उन्हीं पैसों से धड़ा-धड़ ले-दे किया और वो घाटा कोई 6 महीने में ही पूरा कर लिया. 

अब प्रॉपर्टी का धंधा करते-करते अच्छी खासी पूँजी जमा हो गयी थी. उन्ही दिनों flats की फाइल गिरवी रख के ब्याज पर पैसे देने का काम भी कुछ-कुछ करने लगा था मैं. मुझे यह धंधा बहुत ही बढ़िया लगने लगा. कुछ करना ही नहीं था, पैसा दो और बस ब्याज लो, लेते रहो. 

मैंने धीरे-धीरे अपना प्रॉपर्टी का धंधा समेट दिया और ब्याज का धन्धा फैला दिया. इस से इतनी कमाई आ जाती थी कि कुछ भी और करने की ज़रूरत ही न रही

मैंने प्रॉपर्टी के धंधे से जुड़े लोगों से मिलना-जुलना तक छोड़ दिया. अब मेरे पास काफ़ी समय भी था. सो साहित्य पढने का मेरा शौक जो इस आपा-धापी में छूट गया था, वो वापिस उभर आया. मैंने इस दौर में सैकड़ों-सैंकड़ों किताब पढ़ दीं. 

कोई दस साल निकल गए ऐसे. 

लेकिन फिर ख्याल आया कि और पैसा कमाना चाहिए. फिर एक वर्कशॉप अटेंड की "Money Workshop". उन दिनों इस की फीस थी 5000 रुपये. कोई साउथ इंडियन थे, उन की थी यह वर्कशॉप. दो  दिन की वर्कशॉप थी. इस में जो कुछ बताया गया, वो अधिकांशतः मुझे पहले से पता था. खैर, यहीं से मुझे आईडिया आया कि क्यों न मैं खुद एक वर्कशॉप चलाऊँ. मुझे इस में बहुत ज़्यादा पैसा नजर आने लगा. 

इस के लिए मैंने कई और वर्कशॉप अटेंड कीं. एक कोई Mr. Sajnani थे मुंबई से, वो सम्मोहन पर वर्कशॉप लेते थे. Landmark Forum भी उन्हीं दिनों अटेंड किया. Dr. N.K. Sharma,  जिन्होंने "Milk- A Silent Killer" किताब लिखी है, इन की भी एक वर्कशॉप मैंने उन्हीं दिनों अटेंड की थी. 

ये लोग कोई 2 से 5 हज़ार तक लेते थे. कोई होटल का कमरा बुक करते थे. वहाँ कुर्सियां लगीं होती थी. दो या तीन दिन तक ट्रेनिंग देते थे. चाय-पानी-लंच उसी खर्चे के बीच शामिल होता था. मुझे लगता है कि ये लोग जितना पैसा लेते थे, उस से कहीं ज़्यादा सिखाते थे. मैंने बहुत कुछ इन वर्कशॉप से भी सीखा.  

मैं अपनी वर्कशॉप साथ-साथ तैयार कर रहा था. इस के लिए मैं ढेर किताबें भी पढ़ रहा था.और 4-6 दोस्त इकट्ठा कर के उन को लेक्चर देता था और वर्कशॉप की रिहर्सल करता था. 

फिर एक बार मैंने अख़बारों में advertisement दे दी, अपनी वर्कशॉप की. दिल्ली में दो जगह बुक की अपनी वर्कशॉप के ट्रेलर देने के लिए. दिए भी. हिंदी भवन में  वर्कशॉप भी दी. लेकिन यह बुरी तरह से फ्लॉप रही. फ्लॉप इस लिए कि यह बुरी तरह से घाटे में रही. हालांकि कंटेंट के हिसाब से यह एक बहुत ही बढ़िया वर्कशॉप थी. लेकिन जैसे हर दूकान को चलाने के लिए समय की ज़रूरत होती है ऐसे ही इसे चलाने के लिए भी समय की ज़रूरत थी और उस के लिए खर्चे की ज़रूरत थी, जो करना मुझे काफी रिस्की लगा, सो इस धंधे को भी हमेशा के लिए नमस्ते कर दिया. 

इसी बीच MLM कम्पनी वालों के सम्पर्क में आ गए. लेकिन मुझे तुरत समझ आ गया कि यह सब फ्रॉड है. इस में पैसे और रिश्ते दिनों खराब होंगे. फिर कुछ समय इस बिज़नस मॉडल को समझने में लगाया ताकि हम खुद किसी ऐसे तरीके से कर सकें जिस में कमाई भी हो जाये और फ्रॉड भी न हो, लेकिन समझ नहीं आया. सो आईडिया ड्राप कर दिया. 

इसी दौर में मैंने NAREDCO ( National Real Estate development Council) का ट्रेनिंग कोर्स भी किया.

यह 15 दिन की बेहतरीन ट्रेनिंग होती थी प्रॉपर्टी डीलर्स के लिए. 

इस ट्रेनिंग में प्रॉपर्टी डीलर्स को कायदा-कानून, इन्टरनेट का प्रयोग, 

वास्तु आदि  प्रॉपर्टी से जुड़े कई पहलुओं की जानकारी दी जाती है.   

इस के बाद हमारे एक फॅमिली मित्र/ रिश्तेदार ने सुझाया कि बैंकों से लोन आसानी से मिल सकता है. उन्होंने लिए भी हुए हैं. वो हमारी मदद कर देंगे, अगर लेना हो तो. मुझे सूझा कि क्यों न यह पैसा ले कर अपने ब्याज के धंधे में लगा दिया जाये? कमाई बढ़ जाएगी. 

मेरे दफ्तर को गारमेंट और टेक्सटाइल सप्लाई के ऑफिस की शक्ल दी गयी और उन मित्र की सहायता से बहुत से क्रेडिट कार्ड बनवा लिए गए और पर्सनल लोन भी ले लिए गए. 

यह मेरे जीवन की भयंकर गलती रही. यह पैसा मैं कभी भी अपने व्यापार में नहीं लगा पाया. यह सारा पैसा वापिस बैंकों की EMI भरने में चला गया. न सिर्फ यह पैसा, बल्कि मेरे पल्ले का पैसा भी बैंकों के ब्याज में ही चला गया. पूँजी लगभग जीरो हो गयी. खराब दिन चालू हो गए. 

ऑफिस बेच दिया. फिर किराए पर ऑफिस लिया. ब्याज का डेली कलेक्शन का धंधा मैं शुरू कर ही चुका था. नए ऑफिस में इस धंधे को हम ने खूब फैलाया. तीन चार लड़के कलेक्शन पर रखे. त्रि नगर से उत्त्तम नगर तक धंधा फैला दिया. इस धंधे में हम बीस-तीस हजार से किसी को ज़्यादा रकम उधार नहीं देते थे. फिर रोज़ दो तीन सौ रुपये वापिस लेते थे. यह बड़ा ही अगड़म-शगड़म धंधा है. रकम मरने भी लगी. कोई दो-तीन केस कोर्ट में भी गए. इस धंधे में नुक्सान तो कोई नहीं हुआ लेकिन कोई बहुत फायदा भी नहीं हुआ. सो बंद कर दिया. ब्याज का हर धंधा, चाहे आप कितना ही कम ब्याज लो, रिस्की है यदि आप ने दी गयी रकम की वसूली के लिए उधार लेने वाले की कोई चीज़ अपने नीचे नहीं रखी. 

इसी ऑफिस में हम ने प्रॉपर्टी का धंधा फिर से चालू कर दिया था. 99 acres, magicbricks, sulekha  के package ले लिए थे. एक लड़का सिर्फ कालिंग के लिए रखा था. एक लड़का फील्ड वर्क के लिए. इस के अलावा एक पार्टनर भी थे, जिन को यदि डील होती तो एक निश्चित शेयर देना था.

इस बिज़नस मॉडल पर पूरा एक साल काम करने के बाद नतीजा सिफर था. हालाँकि मैंने अपने सम्पर्कों से कुछ बिज़नस निकाल लिया था.

मैंने वो सारे लोग बर्खास्त कर दिए. डेली कलेक्शन का धंधा भी बंद कर दिया. 

चूँकि दफ्तर किराए का था तो मालिक के कहने पर खाली करना पड़ा. दूसरा लिया. यहाँ फिर से कोई एक साल प्रॉपर्टी के काम में अकेले झक्क मारने के बाद नतीजा जीरो ही रहा. 

अब फिर से कोई और काम करने की सूझने लगी. पूंजी लगभग खत्म थी. 

मेरी माँ के नाम पर एक फ्लैट था, वो किरायेदार ने कब्जा कर रखा था. इस बीच उसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाने में हम सफल हो गए.

इसी फ्लैट के एक फ्लोर पर हम ने कढी चावल, छोले चावल, राजमा चावल का काम शुरू किया. इर्द-गिर्द पर्चे बंटवा दिए. थोड़ा काम सरकने भी लगा. लेकिन खर्चा कहीं ज़्यादा पड़ रहा था और मेहनत भी बहुत ज़्यादा लग रही थी.  डिलीवरी तक के लिए लड़के रखे थे, उन  का खर्चा पड़ता था. यह Swiggy/ Zomato से पहले जमाने की बात थी. अन्तत: यह काम भी छोड़ना पड़ा.

फिर फ्लैट को बेच दिया. कुछ पूंजी खड़ी हो गयी. 

अब मुझे Surplus Garments का धंधा सूझा. मैंने प्रॉपर्टी के दफ्तर को गारमेंट के शोरूम में तब्दील कर दिया. मुझे लगा सस्ता बेचेंगे, धड़ा-धड़ बिकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. फिर इससे काम के लिए एक 200 गज का हॉल किराए पर लिया, वहाँ काम शिफ्ट किया. कोई 6 महीने काम रखा वहाँ. बहुत मेहनत की लेकिन किराया, लड़कों की सैलरी और बिजली का बिल देने के बाद हमें कुछ भी बचता नहीं था. सो समेटने का मन बना लिया. वो जगह छोड़ दी. 

एक गोदाम लिया किराए पर. यहाँ से ऑनलाइन-ऑफलाइन पूरे इंडिया में माल भेज-भेज स्टॉक खत्म किया जैसे-तैसे. 

लेकिन इस सारे कार्य-कलाप में पूँजी का काफी नुक्सान हुआ चूँकि घर खर्च तो चल ही रहा था. 

अब फिर से सूझा कि ब्याज का काम करूं. थोडा बहुत किया भी लेकिन इस बार चूँकि पूँजी कम थी सो यह धंधा फलीभूत नही हुआ बल्कि एक जगह 5 लाख रुपये फंस गए, जो आज भी फंसे हुए और इस से फायदा लेने के चक्कर में और कितना ही खर्च अलग से हो चुका है.

इस बीच एक फ्लैट खरीदा था माँ के पैसों से. वो बीमार ही थीं. मेंटली अपसेट. उन के लिए अलग जगह चाहिए थी. यह फ्लैट घर के पास था. सो पहले किराए पर लिया. लेकिन फिर मालिक खाली कराने की जिद्द करने लगा तो जैसे-तैसे खरीद लिया. 

इस के बाहर वाले हिस्से को ही बाद में दफ्तर बना दिया. यहाँ प्रॉपर्टी का धंधा करने लगा. पीछे कोर्ट-कचहरी का अनुभव था और NAREDCO ट्रेनिंग भी थी, सो  झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी में हाथ आजमाने लगा. 

इस तरह के सौदे ज़्यादातर फ्रॉड होते हैं. या फिर लड़ने वाली पार्टियाँ खुद ही समाधान निकाल लेती हैं. या मामले कोर्ट में होते हैं, जो कि बाज़ार के लिए बेकार होते हैं. सो काम के सौदे बहुत कम निकलते हैं. न के बराबर. फिर भी कभी-कभार तुक्का लग जाता है.

और चूँकि मैंने बरसों अपने ब्लाक में काम किया ही नहीं तो दुबारा काम जमाना बहुत ही मुश्किल था लेकिन फिर भी धीरे-धीरे कुछ पैर जमे हैं और दाल-दलीया बन जाता है.   

मैंने रोटी, कपड़ा, मकान सब बेचा है. ब्याज पर खूब-खूब पैसे लिए भी हैं और दिए भी हैं. नुक्सान भी बहुत लिए हैं और फायदे भी बहुत. इज्ज़त भी कमाई है और बदनामी भी. अपनी इस व्यापारिक यात्रा से मैंने जो सीखा, वो मैं सिखाना चाहता हूँ:---

देखिये जहाँ तक हो सके, ब्याज पर न पैसे लें और न दें. उधार हो, ब्याज हो, यह आप को पूरी तरह से डुबो सकता है. किराए पर भी जगह ले कर काम करना काफी रिस्की है. हाँ, आप का धंधा जमा हो, आप को पता हो कि आप एक निश्चित रकम कमा ही लेंगे तो रकम ब्याज पर भी ले सकते हैं और जगह किराए पर भी ले सकते हैं.

और नए धंधे तलाश करने चाहियें लेकिन बार-बार धंधे तबदील न करें. और हो सके तो अपने जमे-जमाए धंधे को कभी न छोड़ें. किसी भी काम को जमाने में काफी समय लगता है. धंधा बदलने से वो समय में जो Goodwill बनी होती है, जो जान-पहचान बनी होती है, वो सब पानी में चली जाती है. इसे "सोशल कैपिटल" कहते हैं, और यह पूँजी जितनी ही महत्वपूर्ण होती है. जैसे आप की पूँजी आप को कमाई देती है, ऐसे ही सोशल कैपिटल आप को कमा के देती है. मेरे बार-बार धंधे छोड़ने-पकड़ने से मुझे दोनों तरह की पूँजी का नुक्सान हुआ है, जिसे पिछले 5 सालों में मैंने बहुत जतन से सम्भाला है.     

अपने जमे-जमाए काम की वैल्यू समझें. इसे हलके में न लें. आप आज जो कमाते हैं, वो आप के वर्षों स्थापित होने की वजह से कमाते हैं, चाहे आप रेहड़ी ही क्यों न लगा रहे हों. 

बिज़नस खोलते ही कमाई देने लगे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. सो आप के पास बिज़नस और परिवार चलाने के लिए एक से तीन साल टिके रहने का माद्दा होना चाहिए. 

प्रॉपर्टी के धंधे में ऐसा माना जाता है कि डीलर हरामखोर होते हैं, चोर होते हैं....

लेकिन मैं देखता हूँ अधिकांशतः पार्टियाँ डीलरों को खूब मूर्ख बनाती हैं. उसे महीनों रगड़ने के बाद, उस से मार्किट की सारी जानकारी लेने के बाद, सारी ट्रेनिंग लेने के बाद बिना किसी वजह से ड्राप कर देती हैं और उस बेचारे का तन-मन-धन खर्च करवाने के बाद भी चवन्नी कमाने का मौका नहीं देतीं या फिर यदि उस के ज़रिये कोई डील कर भी ली तो उस को कमीशन देने में उन की जान निकल जाती है. कोशिश की जाती है या तो  उसे कमीशन दी ही न जाए या दी जाए तो कम से कम दी जाए. ऐसे में जितना ग्राहक पकड़ना ज़रूरी है, उतना ही छोड़ना भी ज़रूरी है. जितनी ईमानदारी ज़रूरी है, उतनी ही होशियारी भी ज़रूरी है, अपनी कमाई पर ध्यान केन्द्रित रखना भी ज़रूरी है. 

कई तो धंधे ही पिट जाते है जैसे इन्टरनेट आने से वीडियो कैसेट, VCR, TV किराए पर देने का धंधा खत्म हो गया. नई तकनीक ने पुराने धंधे को विदा कर दिया लेकिन कई बार दूसरे के धंधे को देख हम समझने लगते हैं कि इस में कमाई ज़्यादा है लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं, कोई भी धंधा लग कर किया जाए तो कमाई होने ही लगती है.  

नमन.

~ तुषार कॉस्मिक

सरकारी नौकरियाँ जितनी घटाई जा सकें, घटानी चाहियें

आम आदमी पार्टी बड़े गर्व से घोषित करती फिर रही है कि उस ने इत्ती..... नौकरियाँ पैदा कर दी हैं. इतने ....कच्चे नौकरों को पक्का कर दिया है.......

गर्व की बात है यह?

शर्म की बात है.
सरकारी नौकर जनता का नौकर नहीं, नौकर-शाह होता है, शाह....सरकार का जमाता.....रोज़गार देना सरकार का काम नहीं है भाईजान......सरकार का काम है कायदा -कानून बनाना और बनाये रखना, निजाम चलाना.

रोज़गार समाज ने खुद पैदा करना होता है. हाँ, सरकार यह ज़रूर देख सकती है कि किसी के साथ ना-इंसाफी न हो जाये, कुछ समाज के खिलाफ न हो जाये.
बस.

सरकारी नौकरियाँ जितनी घटाई जा सकें, घटानी चाहियें, काम ठेके पे देने चाहिए. काम करो, पैसे लो, छुट्टी. कोई पक्की नौकरी नहीं, कोई पक्की सैलरी नहीं, कोई भत्ते नहीं, कोई पेंशन नहीं. सब बोझ हैं समाज पर. ~ तुषार कॉस्मिक

कमाई से सिर्फ कमाई साबित होती है, न कि किसी फिल्म का बढ़िया-घटिया होना

वैसे तो बॉलीवुड अपने आप में एक चुतियापा है, जहाँ कभी-कभार ही कोई ढंग की फिल्म निकलती है लेकिन आज कल एक अलग ही चुटिया राग गाया जा रहा है, "यह फिल्म सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गयी, यह फिल्म दो सौ करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी, यह अब दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गयी." 

क्या है ये बे?

फिल्म को इस तरह से नापा जाता है क्या?

बहुत सी महान फिल्में अपने समय में पिट गईं, बहुत सी महान क़िताब लोगों ने पढ़ी ही नहीं, फिर बाद में सदियों बाद समझ आया कि उस किताब में, उस फिल्म में क्या महान था. कमाई से सिर्फ कमाई साबित होती है, न कि किसी फिल्म का बढ़िया-घटिया होना. आई समझ में? ~ तुषार कॉस्मिक

Monday 18 April 2022

मेरी व्यायाम यात्रा

बठिंडा की बात है. मैं तब शायद आठवीं कक्षा में था जब आरएसएस की शाखा में जाना शुरू हुआ. वहाँ कसरत और कई कसरती खेल खेले जाते थे.

MSD Public School, जहाँ मैं पढ़ता था, उसी के पास में ही एक स्टेडियम हुआ करता था, उसी दौर में वहां जॉगिंग करने जाने लगा. 400 मीटर का ट्रैक था, मैंने एक दिन कोई 25 चक्कर लगा दिए. मैं खुद हैरान! यह 10 किलोमीटर हो गया. कोई 10 किलोमीटर भी दौड़ सकता है लगातार, मुझे पता ही न था. खैर फिर तो मैं कई बार दौड़ा. मुझे दौड़ना बहुत ही आसान लगने लगा.

उसी दौर में वहीं स्टेडियम की बेक साइड में एक सरदार जी बॉक्सिंग सिखाया करते थे. कुछ लडके आया करते थे वहाँ. मैं भी जाने लगा. एक बार तो होशियार पुर उन के साथ गया भी मुकाबले में. मेरे सामने वाला बॉक्सर आया ही नहीं, मुझे वॉक-ओवर मिल गया. शायद  तीसरी जगह आने का इनाम भी मिला.  इकलौता बच्चा था घर का, शायद माँ-बाप ने करने से रोका.  फिर बॉक्सिंग की ही नहीं. लेकिन अभी भी बॉक्सिंग की बेसिक मूवमेंट अच्छे तरीके से कर लेता हूँ.

खैर, उसी दौर में शाम को आरएसएस की शाखा में भी जाना रहता था. स्कूल में एक बार दौड़ में शामिल हुआ तो शायद 800 मीटर दौड़ में तीसरा या दूसरा स्थान आया था. मेरे लिए यह अन-अपेक्षित ही था चूँकि मैं खेलों में कोई बहुत सीरियस था नहीं. किताब पढ़ने  का ज़्यादा शौक था मुझे. लाइब्रेरी में समय बिताना ज़्यादा अच्छा लगता था.

वहीं बठिंडा में राजिंदरा कॉलेज में पढ़ता था मैं, तो वहां भी एक 400 मीटर का ट्रैक था और स्टेडियम बना हुआ था. वहां भी खूब दौड़ता रहा था मैं.  एक दो बार क्रॉस कंट्री दौड़ भी लगाई थी बठिंडा में. यह गाँव देहातों की बीच से दौड़ना होता है. कंट्री मतलब गाँव. 

खैर, फिर जब दिल्ली आ गया तो मैं शुरू में पैदल बहुत चला करता था, ख्वाहमखाह गलियों में. दिल्ली की जिन्दगी देखता रहता था. 

फिर कुछ समय काम-धंधे की तलाश में लगा रहा. 92-93 की बात है, हम लोग पश्चिम विहार शिफ्ट हो चुके थे. यहाँ बहुत ही बड़ा डिस्ट्रिक्ट पार्क था जो आज भी है. इस में अंदर एक ट्रैक बना था, जिस पर लाल पत्थर बिछे थे. यह कोई 1.5 किलोमीटर का ट्रैक है. इस पर मैं रनिंग करता था. कोई 5-6 चक्कर. कभी 7 भी. दस किलोमीटर दौड़ने का टारगेट रहता था डेली, जो मैं बड़ी अच्छी गति से दौड़ भी लेता था. कुछ फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज भी करता था. काफी अच्छा फिटनेस लेवल था. खूब लम्बे बाल थे. कुछ लोग पूछते थे कि क्या मैं कोई मॉडल था या फिल्म इंडस्ट्री से कोई तालुक्क रखता था?

शादी हो गयी तो उस के बाद हम लोग मादी पुर, मधुबन एन्क्लेव के फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

वहाँ फिर से एक्सरसाइज करने की धुन सवार हुई. यहाँ पंजाबी बाग में एक पार्क थी, इस पार्क में रोजाना जाने लगा. भयंकर धुंआ-धार एक्सरसाइज. फिर से फिटनेस लेवल ठाठें मारने लगा. फिर वहीं बगल में पंजाबी क्लब में 'नत्था सिंह वाटिका' में एक GYM था, उसे ज्वाइन कर लिया. कई महीने वहां जाना होता रहा. 

उन्हीं दिनों एक वीडियो भी बनाया मैंने. विभिन्न एक्सरसाइज करते हुए. यह पश्चिम विहार डिस्ट्रिक्ट पार्क, पंजाबी बाग पार्क और मेरे घर में शूट किया गया था. इसे मैंने फेसबुक पे डाल रखा है. 

फिर GYM छूट गया. काम-धंधे में उलझ गया.

यह GYM ज्वाइन करने और छोड़ने का सिलसिला चलता रहा. बीच-बीच में वाल्किंग करता रहता था. लम्बी वाल्क. कोई 5 से 10 किलोमीटर. एक बार पंजाबी बाग़ में कुत्ता काट गया, रात को वाक कर रहा था तो. 

इसे दौर में मैंने रात को रोड रनिंग भी शुरू की थी. उन दिनों मेट्रो का काम शुरू हुआ ही था. मैं अपने घर से निकल रोहतक रोड पर दौड़ते हुए रिंग रोड़ पहुँचता था. जेनरल स्टोर की क्रासिंग से लेफ्ट हो जाता था, फिर आगे NSP चौक से मुड़ कर पीतम पुरा के 'कोहाट एन्क्लेव' के आगे निकलता हुआ मधुबन चौक आउटर रिंग रोड पहुँचता, फिर पीरा गढ़ी चौक से वापिस रोहतक रोड पर आता और घर पहुँचता. यह कोई 15-20 किलोमीटर के बीच की रनिंग थी.  

उन दिनों मेरे पास मारुती 800 कार हुआ करती थी. इस कार से सपरिवार मैंने उत्तराखण्ड और हिमाचल के 15-15 दिन के टूर लगाये. केदारनाथ, यमुनोत्री, गोमुख की पहाड़ी यात्रा की. ट्रैकिंग.  कोई तकरीबन 100 किलोमीटर. इसे व्यायाम यात्रा में इसलिए शामिल कर रहा हूँ चूँकि पहाड़ों पर  चढ़ना-उतरना किसी व्यायाम से कम नहीं है. 

एक बात चार मित्रों के साथ इंडिया गेट से दौड़ना शुरू कर के धौला कुआँ होते हुए घर पहुंचे. साथ-साथ मेरी मारुती 800 कार भी एक लड़का चला रहा था ताकि जो मित्र न दौड़ पाए, वो कार में बैठ जाए. जहाँ तक मुझे याद है, मैंने दौड़ पूरी लगाई थी, बिना कार में बैठे. 

खैर,फिर हम वापिस पश्चिम विहार शिफ्ट हो गए. यहाँ घर के पास ही एक पार्क है. इस पार्क में खूब वाकिंग करता रहा.

एक बार बीवी से नाराज़ हुआ तो बंगला साहेब गुरुद्वारा पैदल निकल गया. यह कोई 40 किलोमीटर आना-जाना हो गया. रात के वक्त. 

फिर एक्सरसाइज बिलकुल छोड़ दी, काफी चिर.

अब कोई पिछले साल कोरोना पीरियड में ही एक्सरसाइज शुरू की. न सिर्फ एक्सरसाइज शुरू की बल्कि YouTube videos से खुद को re-train भी किया. सीखना हर उम्र में चाहिए.

लगभग एक साल होने को है. इस एक साल में मैंने अपनी सारी उम्र का तजुर्बा और जो भी मैंने नया सीखा सब लगाया है. वजन कोई 10 किलो घटा है, जो कि अच्छी बात है.  

आज फिर से फिटनेस काफी अच्छा है.

अब मैं Walking, Sprinting, योगासन, प्राणायाम, शैडो बॉक्सिंग,  Body-Weight Exercises, वेट ट्रेनिंग बहुत कुछ मिक्स कर के करता हूँ. 

मुझे व्यायाम करते हुए जो लोग देखते हैं, कुछ दांतों तले उंगली दबा लेते हैं, कुछ जल-भुन रहे होते हैं, कुछ प्रेरित हो रहे होते हैं. खैर, मैं डिस्ट्रिक्ट पार्क में घुसते हुए और बाहर आते हुए झुक कर नमन करता हूँ. यह मैंने अपनी किशोर अवस्था में सीखा था. पार्क, स्टेडियम, Gym हमें इतना कुछ देता है, नमन तो बनता है. 

इन्हीं सर्दियों में मैं दक्षिण दिल्ली में "जहाँपनाह फोरस्ट" गया. यह जंगल है. इस के किनारे किनारे पैदल-पथ बना है. छोटी से, पतली सी सड़क. जो इस जंगल के सब तरफ घूमती चली जाती है. कोई 6.5 किलोमीटर. यह अपने आप में नायाब जगह है, जहाँ हर दिल्ली वाले को एक बार ज़रूर जाना चाहिए. 

फिर मैं लोधी गार्डन भी गया. यह साफ़-सुथरा गार्डन हैं, जिस के बीचो-बीच पुरातन monument हैं. यहाँ बहुत लोग घूमने आते हैं. व्यायाम करने आते हैं. 

फिर रोहिणी के स्वर्ण-जयंती पार्क भी जाना हुआ. यह बहुत बड़ा पार्क है. बीचो-बीच तो आफ सुथरा है लेकिन किनारे-किनारे चलते जाओ तो कई जगह गन्दगी है. 

फिर वेस्ट पटेल नगर के रॉक गार्डन भी जाना हुआ. यह कोई बहुत बड़ी जगह नहीं है. और चूँकि पहाड़ी सी पर है सो ऊंची नीची जगह है. बहुत पसंद नहीं आई.

जनक पुरी के दो डिस्ट्रिक्ट पार्क भी जाना हुआ. लेकिन वो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं आये.पश्चिम विहार के डिस्ट्रिक्ट पार्क के मुकाबले बड़े ही दीन-हीन.   

इस सारी यात्रा से जो कुछ भी मैंने सीखा, वो संक्षेप में बता रहा हूँ....

पहली तो बात यह कि व्यायाम करना ही चाहिए. आज से 40-50  साल पहले तक का जो जीवन इन्सान जीता था, उस में शारीरिक मेहनत थी सो यदि वो अलग से व्यायाम नहीं भी करता था तो चलता था

लेकिन
आज हम सब का अधिकांश जीवन कुर्सी-सोफे-बेड पर कटता है और विज्ञान यह कहता है कि बैठे रहना तो सिगरेट पीने से भी ज्यादा खतरनाक है. 

So understand clearly that  movement is medicine, movement is life. 

और मूवमेंट भी अलग-अलग किस्म की हो तो ही बेहतर. बहुत लोग तो मैं देखता हूँ बस वाक करेंगे और हो गया उन का दिन का कोटा पूरा. चलिए कुछ न करने से तो कुछ करना हमेशा बेहतर ही है, बशर्ते कि वो कुछ अच्छा ही हो. तो वाक करना अच्छा तो है ही. लेकिन एक मात्र व्यायाम वाक ही करते रहना, यह मैं recommend नहीं करता.

और लाल पत्थरों के ट्रैक पर या किसी भी और तरह की सख्त ज़मीन पर लगातार लम्बा वाक करना या दौड़ना कतई recommendable नहीं है. घुटनों और बाकी जोड़ों पर बुरा असर डाल सकता है. जहाँ तक हो सके घास पर, समुद्री तट पर या फिर हल्की गीली मिट्टी पर दौडें. यह घुटनों जो दर्द करने लगते हैं, उस की एक वजह यह भी है कि शरीर के कमर से निचले हिस्से को जो एक्सरसाइज मिलनी चाहिए, वो अक्सर हम देते ही नहीं. कहते हैं शरीर के  50 प्रतिशत muscle कमर से नीचे होते हैं. और हम समझते हैं ही वाक कर लिया तो हो गया काम. न. Squats, Hanuman Squats, Lunges, Toes raises आदि को अपनी routine में शामिल करें. 

मेरी नज़र में वाक, बॉडी warm-up करने के लिए करना चाहिए और फिर  उस के बाद फ्री-हैण्ड एक्सरसाइज और उस के बाद वेट ट्रेनिंग या फिर रस्सी कूदना या फिर दंड बैठक या फिर रनिंग.

रोज़ एक तरह का खाना इंसान खाए तो बोर हो जाता है. सो हम रंग-बिरंग खाते हैं. ऐसे ही रोजाना एक ही तरह की एक्सरसाइज भी न करें तो बेहतर है. कभी सिर्फ वाल्किंग कर ली, कभी स्प्रिंट मार ली, कभी योगासन ही कर लिए, कभी पूरा सेशन प्राणयाम का कर लिया, कभी दंड बैठक. या फिर आप अपने हिसाब से अपनी रूटीन बना सकते हैं. रंग बिरंगी.

अक्सर जो योगासन करते हैं, वो योगासन ही करते रहते हैं. जो वाक करते हैं, वाक ही करते रहते हैं. मुझे यह कम समझ आता है. 

हालाँकि मुझे तैरना आता है, बठिंडा की नहरों में कैसे सीख लिया पता ही नहीं चला. लेकिन दिल्ली में तैरने का मौका मुझे न के बराबर ही मिल पाया है लेकिन यदि आप के पास तैरने की सुविधा हो तो, ज़रूर तैरा करें. 

और आप की उम्र कोई भी हो, व्यायाम शुरू कर लें और जो नहीं करना आता उसे सीखते रहिये. बहुत से वर्ल्ड क्लास athletes ने तब व्यायाम शुरू किया जब लोग मौत का इंतज़ार कर रहे होते हैं. यह भज रहे होते हैं, "अब तो बस थोड़ा ही समय बचा है."  जब कि किस का समय कितना बचा है, यह आज तक किसी को पता नहीं लगा. 

किशोर अवस्था को छोड़ के, हांलाँकि मैंने खुद कभी किसी कम्पटीशन में हिस्सा नही लिया लेकिन यदि हो सके तो आप ज़रूर हिस्सा लिया करें. हार जाएँ, कोई बात नहीं. हार-जीत की परवाह न करें. हिस्सा लेना ही बड़ी बात है. 

हो सके तो नंगे हो कर एक्सरसाइज किया करें, धूप में. खुली हवा  खुली धूप. स्वर्ग. सुना है विटामिन डी, सिवा सूरज की रौशनी के कैसे भी नहीं मिलती.  इस की दवा बकवास हैं. कैप्सूल में भर के सूरज के रौशनी में जो है, वो कैसे मिलेगा? गोरे हजारों मील उड़ के आते हैं, गोवा के बीच पर नंगे लेटने. यहाँ भारतीय धूप की तरफ पीठ कर के बैठते हैं, वो भी पूरे कपड़ों में. कहीं रंग काला न पड़ जाए. गोरे रंग के प्रति दीवाने हैं भारतीय. शायद गोरों के गुलाम रहे हैं इसलिए. इन के सब गानों में लडकियाँ गोरी होती हैं. "गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा...." "गोरी हैं कलाइयां...". काली के गीत कोई नहीं गाते. हालाँकि हिन्दुओं के राम और कृष्ण काले कहे जाते हैं. कृष्ण का तो एक नाम श्याम है, जिसका अर्थ ही है काला. कृष्ण का भी वही अर्थ होता है. लेकिन फोटो में नीले बनाते हैं.  खैर, आप धूप में रहा कीजिये, गर्मियों में सुबह की धूप और सर्दियों में कभी भी. 

योगासनों और प्राणायाम को ही योग भी नहीं, "योगा" समझा जाता है. यह सही नहीं है. योग के आठ अंग हैं. १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि . इसीलिए इसे "अष्टांग योग" कहा जाता है. फिर भी योगासनों और प्राणायाम को  मैं अति महत्वपूर्ण मानता हूँ. चूँकि धरती माता के गुरुत्वाकर्षण के विपरीत  शरीर को विभिन्न आयाम देते हैं हम इन आसनों में. ऐसा हम और बहुत कम व्यायामों में कर रहे होते हैं.  और प्राणयाम में हम श्वास को, श्वास जो मात्र श्वास नहीं है, प्राण हैं, विभिन्न आयाम दे रहे होते हैं. सो योगासन और प्राणायाम भी ज़रूर किया करें. तेज़ गति वाली या Hard Exercise करने के बाद में अंत में योगासन और प्राणायाम करना बेहतर है. 

शीर्षासन यदि नहीं भी कर सकते तो किसी पेड़ या दीवार के सहारे Head Stand किया करें. कुछ देर बॉडी को उल्टा करना ज़रूरी है.

जिस स्थिति में खेल-खलिहान में बैठ के मल त्याग किया जाता है, Squatting बोलते हैं इसे. Primal Squat. इस स्थिति में जितनी देर बैठ सकें, बैठा कीजिये.

किसी डंडे, दरवाजे या फिर दीवार को पकड़ कुछ देर लटकना भी ज़रूर चाहिए.

चौपाये जानवर की तरह चलना भी बहुत अच्छा है. मेंढक की तरह कूद-कूद चलना, बन्दर की तरह कूदते हुए आगे बढ़ना, ऐसे बहुत तरह से जानवरों की नकल की जा सकती है. फौजियों की तरह crawl भी किया जा सकता है. या फिर किसी साथी को आप की टांगें पकड़ने को कहिये और खुद हाथों पर चलिए. 

उल्टा चलना या दौड़ना भी अच्छा समझा जाता है. मुझे तो अच्छा लगता है. 

मैंने तो सिंपल वाल्किंग को भी कलर-फुल बनाया हुआ है. एक टांग पे दौड़ना. किसी साथी को पीठ या कंधे पर उठा कर दौड़ना या चलना. एक कैनवास बैग है मेरे पास, जिसमें Dumbbell आदि मिला कर कोई बीस किलो वजन होता है, इसे पीठ पर ले कर चलता हूँ मैं. और कई बार तो हाथों में कोई तीस या बीस किलो के Dumbbell और उठा लेता हूँ. 

एडियों पर चलना.
पंजों पर चलना.
साइड वाल्किंग.
Ankle weight-Wrist weight बांध कर चलना. 

खैर, मेरा मानना यह है कि सिंपल वाल्किंग/रनिंग से कलर-फुल वाल्किंग कहीं बेहतर है. कई-कई तरीके से की जा सकती है.  

और
मेरा मानना यह भी है कि GYM से बेहतर है खुली हवा और खुली धूप में व्यायाम करना

और
मेरा मानना यह है कि व्यायाम की कोई उम्र नहीं होती

और 
किस उम्र में कौन सा व्यायाम करना चाहिए इस की भी कोई उम्र नहीं होती. शुरूआती बचपने को छोड़ ....इन्सान हर उम्र में चल-फिर सकता है, दौड़-भाग सकता है, कूद-फाँद सकता है और उसे यह सब करना भी चाहिए.

हम जंगलों-पहाड़ों से आये हैं. जानवरों के साथ लड़ते-भिड़ते हुए. हमें उन का मुकाबला करना पड़ता था, वरना तो हमें अगले दिन का खाना तक नसीब न होता था. हम कूदते-फाँदते- दौड़ते-भागते,लक्कड़-पत्थर फ़ेंकते हुए जंगल से शहर तक पहुंचे हैं. 

हालाँकि कब कौन सा व्यायाम करना है, कितना करना है, यह अपनी क्षमता के अनुसार चुनना चाहिए. जोश में आ कर होश न खो दें. और ज़्यादा होश में आकर जोश न खो दें. खुद को रोज़ थोड़ा-थोड़ा चैलेंज  करते रहें.

और व्यायाम ऐसे न करें कि "करना पड़ रहा है". व्यायाम ऐसे करें जैसे बच्चे खेलते-कूदते हैं. मज़ा मारते हुए. जो आप को ज़्यादा अच्छा लगे, उसे प्राथमिकता दें. व्यायाम को जीवन का अंग नहीं, जीवन  मानें. गुरबाणी में कहीं लिखा है, "हसना-खेलना मन का चाव.....". तो हंसों, खेलो, कूदो, फांदों......Sportsmanship से मैं यही समझता हूँ कि खेलते-कूदते रहिये तमाम उम्र. 

शुरू में शरीर warm up और अंत में cool down ज़रूर करें. Injury  free रहने के लिए यह सब बहुत ज़रूरी है. शुरू में Dynamic Stretching और अंत में Static stretching करें. Dynamic Stretching मतलब हाथ पैर हिलाते-डुलाते हुए अंग-पैर खोलना और Static stretching  मतलब जैसे योगासन.

अपनी Date of Birth भूल जायें, Birth Certificate कहीं छुपा दें. Birthday हो सके तो मनाये ही न. जो कोई भी आप की उम्र पूछे, उसे कहें कि भूल गए या कहें कि पता नहीं चूँकि Birth Certificate है ही नहीं या कुछ भी और.  मान के चलिए कि आप ने डेढ़ सौ साल तो जीना ही है और वो भी स्वस्थ. उससे ज़्यादा डेढ़ सौ साल बाद फिर से सोचेंगे.

खाने में फल और सलाद जितना ज़्यादा हो उतना अच्छा. इन्सान न शाकाहारी है और न ही माँसाहारी. इन्सान सिर्फ फलाहारी है. आप कुत्ते को फल दीजिये, नहीं खायेगा. गाय को मांस दीजिये नहीं खाएगी.  क्या आप बिना पकाए, बिना तेल, मिर्च, मसाले डाले, साग-सब्ज़ी, अनाज खा सकते हैं? नहीं. तो कुदरती आहार हमारा बस एक ही है. फल. और या फिर दूसरे नम्बर पर टमाटर, खीरे, ककड़ी इत्यादि. सीधी बात, नो बकवास. बाकी फिर भी अगर कुछ खाना ही हो तो घर में बनाये, जितना हो सके कम तला, भुना. चीनी, दूध, मैदा, सफेद नमक से बचें. गुड़, शहद, मोटे मिक्स अनाज, सैंधा नमक प्रयोग कर लें इन की जगह अगर करना ही हो तो. 

भारतीय दूध और दूध के बने प्रोडक्ट के दीवाने हैं. डॉक्टर NK Sharma, पीतमपुरा, दिल्ली वालों ने एक किताब लिखी है, "Milk, a Silent Killer". इन से पहले ओशो ने भी कहा है कि इन्सान के लिए जानवर का दूध नहीं है. प्रकृति में कोई भी Species दूसरी Species का दूध नहीं पीती. कोई भी Species सारी उम्र दूध नहीं पीती. इन्सान के लिए उस की माँ का दूध होता है बस. जैसे-जैसे बच्चे के दांत आने लगते हैं, माँ के स्तनों में दूध घटने लगता है और जब बच्चे के पूरे दांत आते हैं, लगभग उसी वक्त तक माँ के स्तनों में दूध बिलकुल बंद हो जाता है चूँकि अब बच्चा खुद खाना खा सकता है, चबा सकता है. 

पानी भी घड़े का पीयें तो बेहतर.  

आप सब को लम्बा, स्वस्थ और "अर्थपूर्ण" जीवन जीने की शुभ-कामनाओं के साथ नमन.

तुषार कॉस्मिक

Sunday 17 April 2022

धर्म और राजनीति -- २ सब से बड़े फ्रॉड

धर्मों ने इन्सान का जेहन जकड़ रखा है. इन्सान की Core Values धर्म से आती हैं. लेकिन ये जो धर्म हैं न आज जितने भी, इन सब को मैं अधर्म मानता हूँ. ये धर्म हैं ही नहीं. ये गिरोह हैं. धर्मों का गिरोह्बाज़ी से, रस्मों, रिवाजों से, रिवायतों से क्या लेना-देना?

मैं एक पेड़ के सहारे हेड-स्टैंड करता हूँ, मैंने उसे चूम लिया, एक लड़की बेंच प्रेस करती हुई आयरन प्लेट्स को चूम रही थी, मोची आता है गली में, उसे नमन करता हूँ मैं, क्या है यह?
धर्म है.

एक लड़की से चार लडके rape करने की कोशिश कर रहे थे, कपड़े फाड़ चुके थे, लड़की चीख रही थी. एक अधेड़ सरदार जी कूद गए, छोटी कृपान थी उन के पास, चला दी. तीन लडके भाग गए, एक मारा गया, क्या है यह?
धर्म है.

एक समाज-वैज्ञानिक लाइब्रेरी में रात-रात भर सर खपाता है, फिर कोई फार्मूला निकाल लाता है समाज कल्याण का. क्या है यह?
धर्म है. 

जिन्हें आप धर्म समझते हैं, मैं उन के सख्त खिलाफ हूँ. वो सिर्फ अँधा-अनुकरण है. अंध-विश्वास हैं. माँ-बाप ने, समाज ने जो बता दिया आप ने मान लिया. बुद्धि तो खर्च की ही नहीं. करने ही नहीं दी गयी. 

डेमोक्रेसी जिसे आप समझते हैं, जिस पर आप की सारी राजनीति खड़ी है. वो भी फ्रॉड है.

डेमोक्रेसी का मतलब है जनता का शासन, जनता द्वारा और जनता के लिए. पैसे का नंगा नाच खेला जाता है राजनीति में. एक निगम का चुनाव लड़ना हो तो करोड़ों रुपये लगते हैं. और इसे कहते हैं आप जनता का शासन? लानत है! यह सिर्फ करोड़पतियों का, अरब-पतियों  का शासन है. 

और नेताओं के बाद जो सरकारी अफसर हैं, जनता के सेवक, पब्लिक सर्वेंट, वो जनता की गर्दन पर चढ़े बैठे हैं, काले अँगरेज़. वो बदतमीज़ हैं और अव्वल दर्जे के काम-चोर हैं और रिश्वत-खोर हैं.

इसे रिपब्लिक कहते हैं?

फ्रॉड है यह.


तुषार कॉस्मिक

पूरी दुनिया में जनता अपने नेताओं को जो अन्धी पॉवर दे देती है. ऐसा नहीं होना चाहिए

मैं इस बात में नहीं जाता हूँ कि किसान कानून  सही थे या गलत या फिर कितने सही थे और कितने गलत. लेकिन एक बात तय है कि सरकारों को कानून बिना जनता को विश्वास में लिए पास नहीं करने चाहियें.

क्या रूस और यूक्रेन युद्ध से पहले वहाँ की जनता से युद्ध के लिए सहमति ली गयी थी? क्या कोई वोटिंग कराई गयी थी? या फिर इन दोनों मुल्कों के नेताओं ने अपनी सनक जनता पर थोप दी? मैंने तो सुना है रूस की जनता युद्ध का विरोध कर रही थी और यूक्रेन की जनता युद्ध के दौरान धूप सेक रही थी. 

अभी पूरी दुनिया कोरोना से दहला दी गयी, अभी भी दहलाई जा रही है. क्या जनता की राय ली गयी, पूरे आंकड़े दे कर? क्या उन को उन आंकड़ों का विश्लेषण करने का अवसर दिया गया? क्या जो लोग कोरोना को फर्जी बता रहे थे, उन की आवाज़ जनता तक पहुँचने दी गयी? नहीं दी गयी. सब लीडरान ने मिल कर घोषित कर दिया कि कोरोना महामारी है और इस के लिए lockdown, मास्क, वैक्सीन ज़रूरी है और जनता ने मान लिया, मान इस लिए लिया चूँकि जनता तक इस Narrative के विरोध में इनफार्मेशन, तर्क पहुँचने ही नहीं दिए गए. 

तो साहेबान, मेरा कहना यह है कि पूरी दुनिया में जनता अपने नेताओं को अन्धी पॉवर दे देती है. ऐसा नहीं होना चाहिए. जनता की राय के बिना बहुत कम फैसले लिए जाने चाहियें, या कोई भी फैसले लिए ही नहीं जाने चाहिए और आज यह बहुत आसान है, मोबाइल फ़ोन सब के पास हैं, इन फ़ोनों से वोटिंग ली जा सकती है लेकिन उस से पहले जनता तक सामने खड़े मुद्दे से जुड़ी हर तरह इम्कीपोर्टेन्ट इनफार्मेंमेशन भी पहुंचनी चाहिए. यह जैसा कोरोना मामले में हुआ कि विरोधी विचारों को Disaster Act तले दबा दिया गया, वैसा बिलकुल नहीं होना चाहिए. जहां तक हो सके, जनता को सोचने का, बहस करने का मौका दिया जाना चाहिए. 

तुषार कॉस्मिक

जिन को मेरा लेख लम्बा लगता है, वो दफ़ा हो जायें

क्या आप को कोई बढ़िया सा घर गिफ्ट दे तो आप यह कहेंगे कि छोटा सा होता, सस्ता सा होता तो ठीक था? क्या प्यारा सा बच्चा आप के साथ खेले तो आप यह सोचेंगे कि बस एक मिनट खेले तो ठीक है? क्या आप यह सोचते हैं कि सेक्स शुरू होते ही खतम हो जाये? क्या आप अपनी favourite dish बस एक चमच्च भर ही खाना चाहते हैं? मेरा लेखन गिफ्ट है, बढ़िया सेक्स है, प्यारे बच्चे का प्यार है, ये बढ़िया Dish है. जिन को मेरा लेख लम्बा लगता है, वो दफ़ा हो जायें.  ~तुषार कॉस्मिक

Saturday 16 April 2022

बाबा रामदेव को अर्थ-शास्त्री, समाज-शास्त्री, राजनीति-वैज्ञानिक न समझें

बाबा रामदेव.....

इन्होंने  योगासनों और प्राणायाम भारतीय घरों में पहुँचाया टीवी के ज़रिये. हालाँकि 
योगासनों और प्राणायाम  कोई नई बात नहीं थी. जब हम लोग पांचवी छठी क्लास में थे तभी हमें यह सब पढ़ाया गया था और तभी हम ने कुछ आसन करने सीख भी लिए थे. 

आसनों पर बाकायदा चैप्टर था फिजिकल एजुकेशन में. एक-एक  आसन की विधि, सावधानियां और लाभ आदि. 

फिर अनेक किताब राम देव से पहले मौजूद थीं ही योग पर. मेरे पास आज भी हैं.

टीवी पर आ कर भी कई लोग योग सिखाते  ही थे. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का नाम सुना हो आप ने. यह सब ये भी सिखाते थे. पश्चिम में तो बिक्रम योग भी प्रसिद्ध था. 

खैर, योग मात्र योगासन और प्राणायाम नहीं है. यह 'अष्टांग योग' है. यानि आठ अंग हैं जिस के. 
१) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि . मतलब आसन एक अंग है और प्राणायाम एक और. लेकिन बड़ा अजीब लगता है जब लोग इन दो को ही योग नहीं, "योगा" समझते हैं. 

कहते हैं कि योग पतंजलि की देन है. मुझे लगता है, योग उन का अकेले का अविष्यकार नहीं होगा, यह  सब कई व्यक्तियों का मिला-जुला प्रयास रहा होगा. उन का भी. 
पतंजलि ने यह सब compile किया होगा. 

खैर, प्राइवेट टीवी चैनल आये-आये थे और उन पर बाबा राम देव रोज़ प्रकट होने लगे. वो प्राणायम से बड़ी-बड़ी बीमारियों के ठीक करने का दावा भी करते थे. अब है क्या कि सामूहिक सम्मोहन का बहुत असर होता है. मन अपना काम करता है. एक दूसरे को देख  प्रभावित होता है. भीड़ को देख प्रभावित होता है. तो साहेब, इन बाबा का समाज में एक स्थान बनता चला गया.अच्छी बात थी. 

फिर इन्होने आयुर्वेदिक दवा लांच कर दीं. वो भी अच्छी बात थी. हालाँकि कुछ भी नया नहीं था. इन से पहले सैंकड़ों कंपनी वो ही सब दवा बनाती थी और बेचती थीं. 

फिर बाबा दाल, चावल, चीनी सब बेचने लगे. लेकिन बाबा अपने आप में एक ब्रांड बन चुके थे. सो सब बिकता चला गया. 

यहाँ तक कुछ खराब नहीं है. लेकिन खराबी कहाँ है? मेरा नजरिया यह है कि बाबा को सिवा आसन और प्राणयाम के कुछ और पता नहीं. लेकिन यह महाशय सब जगह अपनी नाक घुसेड़ने का प्रयास करते रहे हैं. जब पहली बार मोदी सरकार बननी थी तो यह जनाब कहते थे कि मोदी सरकार आयेगी तो पेट्रोल सस्ता हो जायेगा. अभी जब पेट्रोल के रेट लगातार बढ़ाये जा रहे हैं तो इन से किसी पत्रकार ने पूछ लिया, "बाबा, अब आप की क्या राय है पेट्रोल के रेट बढ़ते जा रहे हैं? आप तो कहते थे कि मोदी सरकार आयेगी तो पेट्रोल सस्ता  हो जायेगा ?"

अब बाबा तो उस पत्रकार पर बुरी तरह भड़क गए, उस से बदतमीज़ी करने लगे. बाबा के जवाब से यह भी पता लगता है कि ये कितने बड़े बाबा हैं, योगी हैं. इन को ध्यान, धारणा और समाधि से कोई लेना-देना नहीं है. ज़रा सा किसी ने आईना  दिखाया और ये बोले, "हाँ, बोला था मोदी सरकार आयेगी तो पेट्रोल सस्ता हो जायेगा, अब नहीं हुआ तो क्या पूँछ पाड़ लेगा मेरी?" इस से यह भी साबित होता है कि ये कोई पूंछ वाले जानवर हैं. जब वो खुद मान रहे हैं कि उन की पूँछ है तो हम काहे मना करें? 

पीछे ये बोलते थे कि बड़े करेंसी नोट बंद कर दो, बड़े नोटों में रिश्वत लेना-देना आसान होता है. अब यह एक दम बकवास बात थी. सरकार ने मानी भी नहीं. सरकार ने हजार रुपये का नोट बंद कर के दो हजार रुपये का नोट निकाल दिया. रिश्वत क्या नोट-छोटे बड़े होने से घटेगी-बढ़ेगी? रिश्वत इस लिए ली-दी जाती है चूँकि आप के सिस्टम में छेद होते हैं, चूँकि अफसर जनता का नौकर नहीं जनता का मालिक बन बैठता है, चूँकि उसे नौकरी से निकालना आसान काम नहीं होता, चूँकि उस के काम की जवाब-देयी न के बराबर होती है. अब उस ने रिश्वत लेनी है तो वो ज़रूरी नहीं खुद  लेगा. वो पान वाला फिक्स कर देगा. वहां जाओ और पैसे दो. वो मोची फिक्स कर लेगा. वो नाई, कसाई, हलवाई किसी को भी फिक्स कर लेगा. वो ज़रूरी नहीं कैश पैसे ले. वो कार, देशी-विदेशी ट्रिप, महंगी दारू, मंहगी लड़कियां......कुछ भी रिश्वत में ले सकता है. लेकिन बाबा को इतनी डिटेल में कहाँ जाना था? बड़े नोट बंद कर दो. यह था बाबा का सामाजिक ज्ञान! बकवास!! 

मैं और मेरे जैसे अनेक लोग मानते हैं कि को.रो.ना. नकली बीमारी है. बाबा को भी अहसास है. बाबा बोले, "यह बहुत बड़ा षड्यन्त्र है, बहुत बड़े-बड़े लोग इस में शामिल है, लेकिन मैं अभी कुछ ज़्यादा नहीं बोलूँगा. बोलूँगा तो सब मेरे पीछे पड़ जायेंगे. 5 साल बाद मैं इस का पर्दा-फ़ाश करूंगा." वैरी गुड! 5 साल बाद क्या पूच्छल पाड़ लोगे बाबा? क्या घंटा उखाड़ लोगे बाबा? ज़रूरत आज है बोलने की और आप बोलोगे 5 साल बाद. मतलब सांप निकल जायेगा, फिर लकीर पीटोगे. क्या हम नहीं बोल रहे? क्या डॉक्टर Tarun Kothari, डॉक्टर विलास जगदले, डॉक्टर NK Sharma और कई-कई लोग नहीं बोल रहे कि को.वि.ड. नकली महामारी है? आप इसलिए नहीं बोलेंगे चूँकि आप को अपने साम्राज्य को खतरे में नहीं डालना. फिर आप को जो लोग लाला राम देव कह रहे हैं, क्या गलत कह रहे हैं?


तो कुल मिला कर मेरा नतीजा यह है कि बाबा का जितना बड़ा नाम है, जितना बड़ा ब्रांड बाबा बन चुके हैं, बाबा उस के लायक बिलकुल भी नहीं हैं. उन को सिवा आसन और प्राणायाम के कुछ नहीं आता-जाता. आसान आप को 'नताशा नोएल' YouTube पर उन से बेहतर सिखा देंगी. प्राणायाम सिखाने वाले भी भरे पड़े हैं वेब पर. सामाजिक समझ पर आप को वेब पर उन से बेहतर बहुत लिखने बोलने वाले मिल जायेंगे. मेरे 900 के करीब लेख हैं, उन के बोल-बचन से तो कहीं बेहतर. 

फिर भी उन के सामाजिक योगदान को मैं शून्य नहीं मानता हूँ. उन का आसानों और प्राणायाम और आयुर्वेद को समाज तक पहुँचाने का योगदान तो है ही. टीवी के ज़रिये भी और साक्षात भी. लेकिन भारत में किसी के नाम के आगे 'बाबा' लग जाये, कोई भगवा कपड़े पहने हो तो लोग बहुत ज़्यादा प्रभावित होने लगते हैं, अंधे होने लगते हैं, अक्ल के अंधे. बस वही मत होईये. बाबा को इज्ज़त दीजिये लेकिन उतनी जितने के वो लायक हैं. उन को अर्थ-शास्त्री, समाज-शास्त्री, राजनीति-वैज्ञानिक न समझें. वो आसन और प्राणायाम जानते हैं तो बस उतनी ही इज्ज़त उन को बख्शिए.

तुषार कॉस्मिक
   

Friday 15 April 2022

इस्लाम एक गिरोह की तरह काम करता है.

इस्लाम एक गिरोह की तरह काम करता है.गिरोह चाहता है कि वो मज़बूत हो, और ज़्यादा मज़बूत हो, सब से मज़बूत हो, यही इस्लाम चाहता है. और इस के लिए वो हर सम्भव प्रयास करता है. येन-केन-प्रकारेण. साम-दाम-दंड-भेद सब तरह से. 


मुस्लिम लड़की गैर-मुस्लिम लड़के से शादी कर ले, यह इस्लाम को स्वीकार ही नहीं, वो लड़की इस्लाम से बाहर हो जाएगी और मार भी जाये तो बड़ी बात नहीं.

नागराजू का क़त्ल कर दिया गया सुल्ताना के भाई द्वारा. दिन दिहाड़े. हैदराबाद की सड़क पर.

लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम. प्रेम. शादी. यह बरदाश्त ही नहीं है, इस्लाम में. चूँकि अब बच्चे हिन्दू हो जायेंगे. मुस्लिम समाज की संख्या कमतर हो जाएगी. इस्लाम तो पलता-पनपता ही संख्या बल पर है.
हां, यदि उल्टा होता तो स्वागत है. लड़की ब्याह लायें हिन्दू की तो स्वागत है. चूँकि अब बच्चे मुस्लिम होंगें. संख्या बल बढ़ेगा. अल्लाह-हू-अकबर !

मुस्लिम लड़का यदि गैर-मुस्लिम लड़की से शादी कर ले तो इस का इस्लाम स्वागत करेगा चूँकि इस्लाम इस लड़की को मुस्लिम करेगा, अब इस से जो बच्चे पैदा होंगे वो भी मुस्लिम होंगे, इस तरह से इस्लाम बढ़ेगा और यही इस्लाम चाहता है. 

भारत में Love-Jehad की चर्चा छिड़ती रहती है. कुछ लोग तो इसे सिरे से अस्वीकार कर देते हैं कि ऐसा कुछ है ही नहीं. कुछ इसे संघी शोशा बताते हैं. लेकिन मेरी नज़र में यह एक सच्चाई है. मेरी गली में ही कम से कम चार घर मैं ऐसे देखता हूँ जिन में औरत हिन्दू घर से है और पति मुस्लिम घर से है. पति ने इस्लाम नहीं छोड़ा, लेकिन पत्नी को मुस्लिम बना दिया गया. अब इन के बच्चे भी  मुस्लिम हैं.  

गैर-मुस्लिम हलाल मीट खरीदे तो इस्लाम इस का स्वागत करेगा, कोई मनाही नहीं लेकिन मुस्लिम यदि झटका मांस खरीद ले तो यह हराम है. यही नहीं, जितना मैंने देखा है मुस्लिम का हर सम्भव प्रयास होता है कि वो बिज़नस मुस्लिम को ही दे. मेरे बिज़नस पार्टनर हैं मुस्लिम. हम हिन्दू-बहुल एरिया में रहते हैं, प्रॉपर्टी का काम करते हैं. निश्चित ही हमारा ज़्यादा बिज़नस गैर-मुस्लिम से ही आता है. लेकिन ये मेरे बिज़नस पार्टनर को जब आगे काम देना होता है तो ये ढूंढ के किसी मुस्लिम को देते हैं. इन का फॅमिली डॉक्टर मुस्लिम है लेकिन यदि इन को मुफ्त इलाज करवाना होता है तो उस के लिए ये जैन या हिन्दू मंदिर जाते हैं, गुरूद्वारे जाते हैं. तब इन का दीन इन के आड़े नहीं आता. 

कोई भी गैर-मुस्लिम यदि इस्लाम स्वीकार करे तो मुस्लिम समाज बड़ा हर्षित होता है लेकिन कोई मुस्लिम यदि इस्लाम छोड़ दे तो  इस्लाम में यह स्वीकार्य नहीं है. ऐसा व्यक्ति वाजिबुल-कत्ल है. 

लगभग हर गैर-मुस्लिम समाज आबादी कम करने में यकीन रखने लगा है. हिन्दू -सिक्ख-जैन-बौद्ध आदि के २-३ बच्चों से ज़्यादा नहीं हैं. कईयों के तो बस १-२ बच्चे ही हैं. मेरे दो बच्चे हैं. मेरे सांडू का एक ही लड़का है. मैंने पीछे दो मुस्लिम परिवारों को दो फ्लैट किराये पर दिलवाए, उन दोनों फॅमिली के मिला कर कोई 15 मेम्बर थे. 

और इस के अलावा इतिहास भरा है मुस्लिम ने गैर-मुस्लिम के पूजा स्थल तोड़े हैं. यहीं क़ुतुब- मीनार के साथ जो टूटी-फूटी मस्जिद है वो कई जैन मंदिर तोड़ कर बनाए गयी, यह वहीं लिखा है. अजमेर में "अढाई दिन का झोपड़ा" नामक जगह है. यह अढाई दिन में मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाई गयी थी. अफगानिस्तान में बामियान में बुद्ध की ये बड़ी मूर्तियाँ. पूरा पहाड़. वर्ल्ड हेरिटेज. तोड़ दिया. तुम मूर्ति पूजा मानो न मानो लेकिन उन मूर्तियों का ऐतिहासिक महत्व था. डायनामाइट लगाया. Finish.

जहाँ-जहाँ भी गैर-मुस्लिम अल्प-संख्या में हैं, वहां मुस्लिम उन का क्या हाल करते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, कश्मीर में गैर-मुस्लिम के साथ क्या हुआ? उन्हें छोड़ भागना पड़ा सब. लाखों गैर-मुस्लिमों में एक मुस्लिम बड़े मज़े से रह लेगा, लेकिन एक मुस्लिम बहुल इलाके में आज नहीं तो कल गैर-मुस्लिम को या तो मार दिया जायेगा या भगा दिया जायेगा या मुस्लिम कर दिया जायेगा.   

यह हैं चंद तरीके जिन से साबित होता है कि इस्लाम कोई धर्म की तरह नहीं, गिरोह की तरह चलता है.

और जैसा व्यवहार इस्लाम करता है, वैसा ही जवाब यदि गैर-मुस्लिम देने लगें तो मुस्लिम चीखने लगते हैं. तब इन को गांधी याद आते हैं. तब इन को ईश्ववर-अल्लाह तेरो नाम याद आते हैं. तब इन को सेकुलरिज्म याद आता है. Multi-Culturism याद आता है. खुद चाहे 5 टाइम मस्जिद से अल्ला-हू-अकबर (अल्लाह है सब से बड़ा), ला-इलाह-लिल्लाह (नहीं कोई अल्लाह के सिवा पूजनीय) कहते रहें. जैसे इन के सवाल का जवाब देने लगो तो इन को भारत में फासीवाद नज़र आने लगता है, भारत में डर लगने लगता है. 

भारत का कोई धर्म परवाह नहीं करता कि आप उस के धर्म में आओ. यह  इब्रह्मिक धर्मों में है और सब से ज़्यादा मुस्लिम में है. आप गुरूद्वारे जाते हो, आप के जूते सम्भाले जायेंगे, साफ़ किये जायेंगे, प्रसाद दिया जायेगा, लंगर दिया जायेगा. कोई आप को सिक्ख बनाने का प्रयास नहीं करता. कोई पूछता तक नहीं कि आप किस जात-धर्म के हो. किसी को कोई मतलब है ही नहीं. न ही मंदिरों में ऐसा कोई आयोजन किया जाता है कि आप गैर-हिन्दू से हिन्दू किये जाओ. यह जो 'घर-वापिसी' की बात उठ रही है, वो सब इस्लाम की क्रिया की प्रतिक्रिया है. 

असल में धर्म की निशानी ही यही होनी चाहिए कि अपनी बात रख दी बस. किसी को समझ आये तो ठीक न समझ आये तो ठीक. बुद्ध-महावीर, नानक, कबीर- ये लोग कोई तलवार ले कर चलते थे कि हमारी बात मानो, नहीं तो काट देंगे? जहाँ तलवार उठाई, जहाँ लालच दिया, जहाँ चालबाज़ी प्रयोग की, वहां धार्मिकता कहाँ रही? यह राजनीति हो सकती है, यह व्यपार हो सकता है, यह घटिया व्यवहार हो सकता है लेकिन धार्मिकता नहीं.

धार्मिकता मैं सिखाता हूँ और मेरे जैसे कई लोग सिखा चुके हैं और आज भी सिखा रहे हैं. हम तर्क सिखाते हैं. हम खुली सोच रखना सिखाते हैं. हम सोच के बन्धनों से आज़ादी सिखाते हैं. हम सिखाते हैं 'अप्प दीपो भव' यानि अपना दीपक खुद बनिये. हम सिखाते हैं 'आपे गुर आपे चेला'. हम आप को कोई देवी, देवता, कोई भगवान, कोई शैतान का गुलाम नहीं बनाते. हम आप को गिरोह-बाज़ी नहीं सिखाते. हम आप को आप की निजता सिखाते हैं. हम आप को "अहम् ब्रह्मस्मि" समझना सिखाते हैं.  

तुषार कॉस्मिक

"शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पीयेगा वो दहाड़ेगा"... बाबा अम्बेडकर. लेकिन कौन सी शिक्षा?

"शिक्षा शेरनी का दूध है, जो पीयेगा वो दहाड़ेगा"... बाबा अम्बेडकर. 

लेकिन कौन सी शिक्षा?

यह जो शिक्षा के नाम पर गुड़-गोबर किया जा रहा है उस से तो गोबर-गणेश ही पैदा होंगे.

जो शिक्षा तुम्हारे विचारों को दहका न दे, तुन्हें तपा न दे, तुम्हारे सदियों पुराने विचारों को जला न दे, तुम्हें तार्किक ढँग से विचार करना सिखा न दे, वो शिक्षा नहीं है, वो फ्रॉड है औऱ हाँ, तुम्हारे साथ शिक्षा के नाम पर फ्रॉड ही किया जा रहा है.

तुम्हारे स्कूल कॉलेज बंद कर दो अगले सौ सालों के लिए, इंसानियत सुधर जाएगी...ओशो

और ओशो ने सही कहा था

तुषारापात

Thursday 14 April 2022

रिटायर्ड लोग, ख़ास सरकारी नौकरे से रिटायर्ड लोग, मैं देखता हूँ रिटायरमेंट के बाद का जीवन सम्भाल ही नहीं पाते.

रिटायर्ड लोग, ख़ास सरकारी नौकरे से रिटायर्ड लोग, मैं देखता हूँ रिटायरमेंट के बाद का जीवन सम्भाल ही नहीं पाते. एक सज्जन की अच्छी खासी जॉब थी, रिटायर हुए, कुछ पैसा बिज़नस में गंवा दिया चूँकि दुनियादारी की ट्रेनिंग ही न थी. हसंते-खेलते थे, अब ऐसे हो गए जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गयी हो. एक सज्जन अच्छे-खासे हट्टे-कट्टे हैं, लेकिन मजाल रिटायरमेंट के बाद चवन्नी कमा के देखी हो. दुनिया जहां की फ़िज़ूल इनफार्मेशन इन के पास होती है. किस आदमी का चक्कर किस जनानी के साथ है, किस की बीवी किस के साथ सेट है, सब पता है. नाम अब्दुल है मेरा, सब की खबर रखता हूँ.

रिटायर लोगों को गाने, बजाने, नाचने, अभिनय या फिर कोई भी और कला की ट्रेनिंग देनी चाहिए ताकि ये लोग आलतू-फ़ालतू बकवास-बाज़ी में न पड़ के समय का सदुपयोग कर सकें. या फिर इन को नाई, हलवाई, कारपेंटर, इलेक्ट्रीशियन, पेंटर जैसे कामों की ट्रेनिंग देनी चाहिए ताकि ये लोग यदि कुछ कमाना चाहें तो हाथ-पैर चला कमा भी सकें. ~ तुषार कॉस्मिक

शंघाई में इतना कड़ा Lockdown लगा है कि लोग मौत मांग रहे हैं.

 शंघाई में इतना कड़ा Lockdown लगा है कि लोग मौत मांग रहे हैं. याद रखना मेरी बात, अपने राजनेताओं से पूछो, गर्दन पकड़ पूछो, सबूत क्या है इन के पास कि एक भी मौत कोरोना से हुई है. मौत हो रही हैं Lockdown से. ये Lockdown नहीं हैं, ये तुम्हें जेलों में डाला जा रहा है. ये तुम्हारी साँस लेने की आजादी तक को छीना जा रहा है. ये तुम्हारी दोस्त-रिस्श्तेदारों से मिलने की आज़ादी को छीना जा रहा है. रिसर्च करो. इस वैश्चिक फ्रॉड का पर्दा फाश करो. ~तुषार कॉस्मिक

Monday 11 April 2022

NWO-New World Order

मैं और मेरे जैसे बहुत लोग को.Ro.ना को अंतर्राष्ट्रीय फ्रॉड मानते हैं. लिखते आ रहे हैं, बोलते आ रहे हैं. हमारी आवाज़ बहुत कमजोर है. मेन स्ट्रीम मीडिया में तो मेरे जैसे लोगों की आवाज़ है ही नहीं. सोशल मीडिया पर भी गला घोंटा जाता है. फेसबुक अकाउंट बंद किये जा रहे हैं. YouTube विडियो उड़ा दिए जा रहे हैं.  


खैर, पिछले अढाई साल से यह ड्रामा चलता आ रहा है. अढाई साल से हमारे जैसे लोगों ने भी बहुत लिखा है, बोला है. 


लोग हम से पूछते हैं, "भाई, अगर यह फ्रॉड है तो फिर इस के पीछे कोई तो एजेंडा होगा? कौन कर रहे हैं यह फ्रॉड?"


कोई बताते हैं कि पैसा कमाना मन्तव्य है. वैक्सीन बेचना. 


चलिए, जितना मुझे समझ आ रहा है, बताता हूँ.


इस के पीछे मुख्य उद्देश्य पैसा कमाना है ही नहीं.


इस के पीछे मुख्य उद्देश्य है NWO. मतलब New World Order. और इस के पीछे हैं चंद अति-धनाडय लोग. जिन में से बिल गेट्स एक है. अमेरिका का हेल्थ मिनिस्टर डॉक्टर Fauci है और भी लोग हैं जो पर्दे के पीछे हैं. इन सब ने WHO की मदद से, सब राष्ट्राध्यक्षों की मदद से यह खेल खेला जा रहा है. 


उद्देश्य है, आम-जन के हकूक छीनना और NWO ( New World Order) लाना. 


चूँकि यह सब अंदाज़े हैं, तार्किक अंदाज़े हैं, लेकिन एक-दम क्लियर किसी को नहीं है. NWO में आम-जन को क्या हक़ मिलेंगे, क्या छिन जायेंगे, आबादी कितनी घटा दी जाएगी, कितनी बढ़ा दी जाएगी, सरकारें किस तरह से काम करेंगे? अभी किसी को ठीक-ठीक पता नहीं है.


लेकिन जिस तरह से कोरोना के नाम पर आम जन के कमाने, खाने, घर से बाहर निकलने, साँस लेने तक के हक़ छीन लिए गए, जिस तरह सरकारों ने आम लोगों को गृह-कारागार में डाल दिया, सो आगे आम इन्सान की आज़ादी आज जितनी रहेगी, इस पर गहन शँका है. 


खैर, NWO कोई नई चीज़ नहीं है. असल में तो हर सोचने-विचारने वाला व्यक्ति NWO की बात कर के गया है.


इस्लाम क्या है? इस्लाम क्या रोज़े, नमाज़, ईद, बकरीद ही है. नहीं. इस्लाम पूरी समाजिक व्यवस्था है. इस्लाम पूरी दुनिया के लिए एक व्यवस्था है. इस्लाम World Order है. 


Aldous Huxley ने कहानियां लिखी हैं, NWO पर. फिल्मों भी बनी हैं इन कहानियों पर.


ओशो को लोग आज भी गाली देते हैं. समझना तो बहत दूर की बात. ओशो ने भी नए समाज की बात की है. सिर्फ बात ही नहीं की.  नया समाज जीवंत कर के दिखा दिया. उन्होंने अमेरिका में ऑरेगोन नाम की जगह में एक पूरा शहर बसा दिया था. अपनी सडकें, अपना हेलिपैड, अपनी कारें. 5 साल वो दुनिया रही. 1981 से 1988 के बीच. मुझे लगता है पृथ्वी पर वैसा समाज शायद ही कभी बना हो. एक दम स्वर्ग. NWO था यह. 


आप मेरा लिखा यदि पढ़ते हैं तो समझते ही होंगे कि मैं धर्म, राजनीति, शिक्षा सब नकार देता हूँ. मैं तो असल में सारी ही सामाजिक व्यवस्था नकार देता हूँ.  तो फिर समाज कैसा हो? मैंने  कई लेख लिखे हैं कि नया समाज कैसा होना चाहिए. 


मुझे लगता है जिस तरह की दुनिया है, अतार्किक विश्वासों, अंध-विश्वासों में जिस तरह से दुनिया फँसी है,  NWO तो आना ही चाहिए लेकिन वो NWO कैसा होना चाहिए और कैसे लाना चाहिए, यह बहस का मुद्दा है.


क्या वो NWO हॉलीवुड फिल्म के विलन Thanos जैसा लाता है, वैसे लाना चाहिए? चुटकी मारी और आधी आबादी साफ़. 


क्या वो NWO को.Ro.ना जैसी नकली बीमारी दिखा के या कोई और नकली आपदा पैदा कर के लाना चाहिए?


तो मेरा जवाब है, "नहीं". ऐसा नहीं करना चाहिए.


NWO के लिए छद्म तरीके न अपना कर सीधे तरीके अपनाये जाने चाहियें. यदि आप अमिताभ बच्चन को वैक्सीन लगवाने के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए प्रयोग कर सकते हो तो आप आबादी कम करने के लिए भी प्रेरित कर सकते हो. आप नकली बीमारी का भ्रम फैला कर पूरी दुनिया में अफरा-तफरी मचा सकते हो तो आप कुछ भी कर सकते हो. यह Negative Approach है.


Positive Approach प्रयोग करो न.


आप को लगता है, यह जनतंत्र सही जनतंत्र नहीं है, इस में असल नायक, असल समाज वैज्ञानिक न आ कर आड़े-टेड़े लोग पॉवर में आ जाते हैं तो समझाओ, सुझाओ लोगों कि असल जनतंत्र कैसे आएगा.


आप को लगता है, लोग धर्मों में उलझे हैं, समझाओ लोगों कि धर्म उन के लिए कहाँ नुक्सान करते हैं-कहाँ फायदा करते हैं. तेज़ी से समझाओ, तमाम मडिया प्रयोग करो. बहस खड़ी करो. पूरी दुनिया को बहस का अखाड़ा बना दो. होने दो समुद्र-मंथन. निकलने दो विष. निकलेगा अमृत भी. तर्क-वितर्क की छलनी से सब मान्यताओं को गुज़रने दो. सब कचरा साफ़ होता चला जायेगा.


यह कोरोना जैसे चोर रास्ते मत करो अख्तियार. Thanos बनने की कोशिश मत करो. यह कामयाब होगा नहीं. अंततः ढह ढेरी होगा. अफरा-तफरी तो फैलाएगा लेकिन सफल नहीं होगा. हम होने ही नहीं देंगे. याद रखना. 


तुषार कॉस्मिक

तो यह है, मैं जो समझता हूँ प्रेम से.

प्रेम. यह शब्द ध्यान में आते ही, ज़्यादातर लोगों के ज़ेहन में बॉलीवुडिया लड़का-लड़की का प्रेम आएगा.

यह असल प्रेम है ही नहीं. यह बाज़ारी-करण है सेक्स का.

"ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडत होए."
क्या यह इस प्रेम की बात है.
न. न.

आप प्रेममय होते हैं तो पूरी कायनात के लिए होते हैं, वो है असल प्रेम. और वो होते हैं आप जीवन की, जगत की अपनी समझ से. अगर समझ उथली है तो आपका प्रेम उथला ही होगा. समझ गहरी है तो किसी की गर्दन भी काटोगे, तो भी आप को दर्द होगा.

गुरु गोबिंद के शिष्य दुश्मन को काट भी रहे थे और उन्ही के शिष्य भाई कन्हैया उन को पानी भी पिला रहे थे. यह है प्रेम जो जीवन और जगत की समझ से उपजा है. "एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे."   गर्दन काटना मज़बूरी हो तो काटेंगे ही, फिर भी प्रेम अपनी जगह है.

प्रेम किसी व्यक्ति विशेष के लिए होने का अर्थ यह नहीं कि बाकी कायनात से कोई दुश्मनी है या दुराव है. नहीं ऐसा कुछ नहीं. "एक नूर ते सब जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे." लेकिन हाँ, सब तो करीब आने से रहे. तो जो करीब हैं, वो करीब हैं ही. 

तो यह है, मैं जो समझता हूँ प्रेम से. 

~तुषार कॉस्मिक

रिश्ते - लम्बे, छोटे, उथले, गहरे

मैंने देखा है, इंसान अक्सर अपनी नाक से आगे नहीं देख पाता. 

उस की सोच बहुत लंबी नहीं होती. 

वो पास के तुरत फायदे के लिए भविष्य के बड़े और लगातार होने वाले फायदे को नज़र-अंदाज़ कर देता है. 

वो सोने का अंडा रोज़ लेने के बजाए तुरत-फुरत लालच में मुर्गी की हत्या कर देता है.  

दुनिया की आबादी करोड़ों में है, लेकिन आप/हम बस 100 या 1000 लोगों के सम्पर्क में ही आ पाते हैं. 

और

उस में भी गहन सम्पर्क में चंद लोग ही रह जाते हैं. रिश्ते बना कर रखिये, जहाँ तक हो सके, अच्छे रिश्ते ता-उम्र काम आते हैं. ~तुषार कॉस्मिक

Sunday 10 April 2022

3 किस्से

प्रॉपर्टी डीलर हूँ. 3 किस्से सुनाता हूँ. सीखने को मिलेगा आप को. 

अभी पीछे 'पंजाबी बाग दिल्ली' का एक फ्लोर बेचा था 3.5 करोड़ रुपये में. 50 लाख बयाना करवा दिया था. बेचने वाली पार्टी का मन बदल गया, वो खरीदने वाले को 70 लाख वापिस देने को राज़ी थीं. खरीद-दार ने नहीं लिया. मिन्नते करते रहे हम लोग, खरीदने वाला नहीं माना.

फिर हमें पता लगा कि खरीदने वाली पार्टी के पास बकाया पेमेंट नहीं है. उस ने सिर्फ बयाना दिया है, डील आगे बेचने के लिए. अब उसे सिर्फ 62 लाख ही वापिस दिए गए. और उसे मानना पड़ा. 

एक फ्लैट कोई 50 लाख के करीब में ऑफर कर रहे थे हम खरीददार को. कई बार समझाया, उसे पल्ले नहीं पड़ी बात. हम ने वो फ्लैट किसी और को ५२ लाख रुपये का बिकवा दिया. कोई 6 महीने बाद यही फ्लैट पहले वाली पार्टी ने हमारे ज़रिये ही 58 लाख रुपये में खरीद लिया. समझदार! 

एक खरीद-दार को हम ने कई प्रॉपर्टी दिखाईं'.अच्छी-अच्छी. फिर बड़े ही आत्मीय ढंग से हम ने जो प्रॉपर्टी हमें बेस्ट समझ में आई, वो प्रॉपर्टी उन को सुझाई. कारण भी बताये कि क्यों बेस्ट हैं. उन को हमारी बात समझ नहीं आई.

लेकिन उन्होंने हमारे ज़रिये ही एक और प्रॉपर्टी खरीदी, जो हम ने कभी ज़ोर दे के नहीं समझाई कि ले लो. लेकिन उन को वो ही समझ आई. ली भी कोई 4-5 लाख महँगी. फिर हमारे मना करने पे भी Renovation में काफ़ी से ज़्यादा पैसे लगा दिए. अब बेचना चाहते हैं, जो कि निकट भविष्य में लागत मूल्य पर भी बिकना मुश्किल है. 

ऐसे गलतियाँ मैंने भी की हैं. हम सब ने की होंगीं. सोचिये और बचिए. ~ कॉस्मिक