Wednesday 20 April 2022

मेरी बिज़नेस यात्रा

यह कोई रोड़-पति  से करोड़पति की कहानी नहीं है.

यह मेरी कहानी है. यह मेरी उद्यमशीलता की कहानी है. यह मेरी सफलताओं और असफलताओं की कहानी है. यह मेरी समझदारियों और नासमझियों की कहानी है. यह मेरे नफे और मेरे नुक्सान की कहानी है. 

यह एक आम इन्सान की कहानी है. यह आप की कहानी है. इस कहानी में कई सबक हैं, मेरे लिए और आप के लिए भी. 

तो चलिए मेरे साथ.....

मैं कोई बारहवीं कक्षा में रहा होऊंगा, जब यह लगा कि जीवन में पैसा चाहिए और जीवन फैलाना हो तो बहुत-बहुत पैसा चाहिए. 

माँ-बाप शुरू से चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूँ या DC (Deputy Commissioner). डॉक्टर, उन्होंने देखे थे कि खूब पैसा कमाते हैं, कार, कोठी सब खड़ा कर लेते हैं. और DC, उन्होंने सुना थी कि पूरे शहर का मालिक होता है. 

लेकिन चूँकि मुझे किशोर अवस्था से ही साहित्य, मनोविज्ञान, धर्म-राजनीति, ध्यान, सम्मोहन जैसे विषयों में रूचि थी तो कॉलेज की पढ़ाई को मैंने समय व्यतीत करने के एक साधन मात्र की तरह प्रयोग किया. 

उन दिनों पढने-लिखने वाले बच्चे या तो मेडिकल में जाते थे या नॉन-मेडिकल में. मेडिकल वाले डॉक्टर बनते थे और नॉन-मेडिकल वाले इंजिनियर. मुझे न डॉक्टर बनना था और न ही इंजिनियर. सो मैंने जान-बूझ कर आर्ट्स लिया. आर्ट्स निपट फिसड्डी छात्र लेते थे. यह फ़िज़ूल की स्ट्रीम मानी जाती थी चूँकि इस की डिग्री से किसी को कैसा भी काम मिलता नहीं था. और मैने आर्ट्स इस लिए लिया चूँकि मुझे पता था कि इस के इम्तिहान मैं बहुत कम समय खर्च करे पास कर जाऊंगा और मुझे मेरी पसंदीदा किताबें पढ़ने का मौका मिलता रहेगा. 

खैर, इसी दौर में पैसे की अहमियत भी समझ आने लगी.

तो साहेबान, कद्रदान, मेहरबान..अब मुझे यह भी समझ आया कि असल पैसा तो बिज़नस में है. नौकरी में तो ज़िंदगी बंध सी भी जाएगी और इस में कोई ख़ास पैसा भी नहीं है. सो तभी सोच लिया कि नौकरी कैसी भी हो, नहीं करनी है. 

अब बिज़नस करें तो कैसे करें? पिता जी की कपड़े की दुकान थी, लेकिन वो खुद भी उस दूकान को कोई बहुत aggressive ढंग से नहीं चलाते थे. घर दूकान अपनी थी. असल में हमारा  घर कोर्नर का था, उसी के एक कोने में पिता जी की दूकान थी. उन्होंने कुछ ब्याज का धंधा किया हुआ था, कुछ किराए की आमदनी थी. खर्च उन दिनों कोई ज़्यादा होते नहीं थे. और मेरे अलावा परिवार में कोई और बच्चा था नहीं तो हमारा घर ठीक से चलता था. लेकिन मुझे यह सब नाकाफी लगता था. 

सो मैं तभी बवाल करने लगा, "मुझे पैसे दो, मैं व्यापार करूंगा." तजुर्बा कुछ था नहीं, "व्यापार करूंगा."

एक दिन रूठ कर घर से भाग गया और बठिंडा में ही किसी फैक्ट्री में लेबर का काम किया सारा दिन. दिहाड़ी ले कर, शाम को बदहवास सा घर लौट आया. 

चंडीगढ़ में हमारे कोई रिश्तेदार थे, वो फैक्ट्री से गोली-टॉफ़ी और बिस्कुट आदि उठाते थे और फिर दुकानदार उन से होलसेल में ले जाते थे. उन की दूकान पर बहुत भीड़ रहती थे. मैं एक-आध दिन वहां रहा. ऐसे कोई धंधा समझ आता है? फिर लौट आया. 

वहीं एक पास के एक शहर में हमारे कोई और रिश्तेदार प्रिंटिंग का काम करते थे तो वहां चला गया लेकिन वहां मैं काम सीखने नहीं, नकली नोट छापना सीखने की मंशा से गया था. ब्लाक कैसे बनता है, यह मुझे समझ आ गया लेकिन ऐसे कहाँ नोट छपने थे? सो वह प्रोजेक्ट भी अधूरा रह गया.  

अब तक मुझे यह भी समझ आने लगा कि बठिंडा में व्यापार के मौके बहुत ही कम हैं. बेहतर है बड़े शहर में कूच किया जाये. दिल्ली में हमारे रिश्तेदार रहते ही थे. उन्हीं दिनों पंजाब में उग्रवाद भी ज़ोरों पर था. सो यह तय हुआ कि मैं दिल्ली जाऊँगा. 

यहाँ जानकी पुरी (जनकपुरी के पास) में एक कोई चार सौ गज का प्लाट लिया हुआ था पिता जी ने. यह तब कच्ची कॉलोनी थी. मोती नगर में मेरे कजिन (सुभाष जी) के पास एक दूकान थी. जहाँ कोई लड़का बैठता था, लेडीज सूट वगैहरा बेचता था.  उस लड़के का exit होना था. और मेरी entry होनी थी.

कोई एक साल मैं उस दूकान को चलाने का प्रयास करता रहा. नतीजा ढाक के तीन पात. उस जमाने में कोई सत्तर हजार रुपये का नुकसान हुआ. एक साल की बर्बादी के बाद मैंने वो दूकान छोड़ दी. 

उसी दौर में मुझे लगा कि विदेश से सस्ता सामान ला कर दिल्ली में बेचना फायदे का धंधा साबित हो सकता था. मैंने पाकिस्तान जाने का प्रयास किया. एम्बेसी गया. एक दलाल टाइप का व्यक्ति टकराया. उस ने कुछ पैसे मांगे वीसा, टिकेट दिलावाने के. लेकिन वो मुझे रिस्की लगा. सो वो इरादा छोड़ दिया. 

फिर किसी ने बताया कि नेपाल जा सकते हो. वहां रोक-टोक नहीं है. सो मैंने बिना किसी को पूछे-बताये नेपाल जाना तय कर लिया और चला भी गया. बस से. सनौली बॉर्डर के बाद नेपाल शुरु होता था. कोई ख़ास चेकिंग नहीं हुई. काठमांडू पहुँच गया.

कमरा किराए पर लिया. घूमना शुरू किया. हैरान हुआ, वहाँ सिक्ख बधुओं की कुछ दूकान दिखीं मुझे!  नेपाली मुझे बहुत ही स्वस्थ शरीर वाले दिखे, ख़ास कर के औरतें और लड़कियाँ बहुत ही हृष्ट-पुष्ट.

व्यापार तो कुछ समझ आया नहीं मुझे, हाँ, घूमना-फिरना ज़रूर हो गया. वहीं एक "विशाल बाज़ार" था, जैसे आज मॉल होते हैं वैसा. वहाँ पहली बार मैंने Escalator देखा. कुछ कीड़े-मकौड़े जैसे जन्तु (मरे हुए) बिकते देखे. लकड़ी के मंदिर देखे. पशुपति नाथ मंदिर भी जाना हुआ. हिमालय को शायद वहाँ 'सागरमाथा' बोलते हैं चूँकि  कुछ दुकानों पर यह लिखा मैंने देखा था. काठमांडू की सडकों पर भीड़ बहुत कम थी उन दिनों. सडकें पहाड़ी, ऊंची-नीची. विदेशी साइकिल किराए पर ले घूमते थे. तब मेरी उमर थी कोई बीस साल. आज सालों हो गए,  मुझे नहीं पता अब काठमांडू कैसा है, लेकिन मेरी नज़र में यह एक बेहतरीन जगह है. मौका लगे तो मैं दुबारा ज़रूर जाऊँगा. आप को भी वहाँ ज़रूर जाना चाहिए. 

खैर,  कोई तीन या चार दिन बाद मैं वापिस आ गया था.

अब यह दूकान मैंने छोड़ दी. मैं फिर से माँ-बाप को दुखी करने लगा. "बिज़नस करूंगा." जनक पुरी वाला प्लाट मेरी जिद्द की वजह से मजबूर हो कर उन को बेचना पड़ा. फिर हम लोग रघुबीर नगर आ गए. यह JJ Colony  है, यहाँ एक मकान खरीदा, हालाँकि बहुत अच्छी लोकेशन पर खरीदा लेकिन मुझे कहाँ टिकना था. मैं माँ-बाप से रूठ कर ऑटो-रिक्शा किराए पर ले कर चलाने लगा. कोई तीन चार महीने चलाया होगा. न खुद कुछ कमाया और न ही जिस का ऑटो था उस ने मेरे ज़रिये कुछ कमाया होगा. एक ही जिद्द थी, "मैं बिज़नस करूंगा." 

मेरी जिद्द की वजह से यह मकान भी बिक गया. फिर वहीं पास ही DDA flats की नई allotment में कोई चार फ्लैट ले लिए गए. अब मैं वहाँ शिफ्ट हो गया, एक फ्लैट में, अकेला. चूँकि माँ-बाप तो अभी भी बठिंडा ही रहते थे, दिल्ली में  मैं अकेला ही रहता था.

यहीं मैं प्रॉपर्टी डीलरों के सम्पर्क में आ गया. ये लोग दोपहर में ताश खेलते थे और गप्पे हांकते थे. इन के पास बैठ-बैठ मुझे समझ आने लगा कि यह धंधा मैं भी कर सकता हूँ. बस. जिस फ्लैट में मैं रहता था उसे ऑफिस बना दिया.

पहले महीने ही कोई ३-४ सौदे कर दिए मैंने. कोई २२ साल की उम्र में प्रॉपर्टी का धंधा शुरू. यह शुरू हुआ तो बस शुरू हो ही गया. मैंने कोई डेढ़ दो साल में सैकड़ों डील कीं. 

फिर राकेश अजमानी मुझे पश्चिम विहार ले आया. यहाँ  वही नक्शे के DDA फ्लैट थे, जो मैं पहले से बेच-खरीद रहा था. राकेश और बहुत से लोग DDA ऑफिस आते-जाते रहते थे. ये लोग DDA के क्लर्कों से सेटिंग बिठा कर काम करवा लेते थे. जैसे ही DDA की कोई allotment निकलती, क्लर्कों से allottee लोगों की लिस्ट ले लेते थे और फिर गली-गली उन को ढूंढते-मिलते और उन से एडवांस में ही फ्लैट खरीद लेते और फिर थोड़ा सा मार्जिन ले कर आगे सरका देते. यही मैं करने लगा लेकिन सिर्फ अपने ब्लाक के लिए जहाँ मेरा ऑफिस था. कुछ अच्छे पैसे मैंने इस ढंग से भी कमाए.

खैर, इस ब्लाक में धीरे-धीरे मेरे पैर जमने लगे. यहाँ भी ढेरों-ढेर सौदे मैंने किये. 

फिर शादी हो गयी.

तो जनाब, फिर कोई दो एक साल बाद मुझे सूझा कि मोटा पैसा ऐसे तो नहीं कमाया जा सकता. इस के लिए तो कोई बड़ा काम करना होगा. तो मैं अपने कोई रिश्तेदारों के चक्कर काटने लगा जो कई तरह का धन्धा करते थे.

मेरे पास उन दिनों मारुती 800 कार थी. मुझे लुधिआना भेजा जाने लगा. मैं अपना कैश पैसा कार में भर के ले जाता और वहाँ से फॉरेन करेंसी ले कर आने लगा. यह कोई 700 किलोमीटर की ड्राइविंग हो जाती थी. बहुत ही थकाऊ और बहुत ही रिस्की. रिस्की इस लिए चूँकि रोड काफी कुछ सिंगल था. रोज़ दसियों एक्सीडेंट सड़क पर नजर आते. एक बार तो ट्रेन से भी गया. लेकिन कोई 4-5 दिन बाद ही समझ आ गया कि यह धंधा बेकार था. 

उन दिनों दिल्ली में जगह-जगह लाटरी खेली जाती थी. मोटा खेलने वाले कुछ लोग टिकेट न खरीद कर खाईवालों (सट्टेबाज़ों) को नम्बर लिखवाते थे. मुझे बताया गया कि खाईवाल मोटा पैसा कमाते हैं. मैंने खाईवाली शुरू कर दी. मोटा कमाना तो क्या था, मोटा नुक्सान हुआ. वो इसलिए कि जब लोग हार जाते तो उन से पैसा वसूल करना लगभग असम्भव हो जाता और जीतने वाले को पैसे चुकाने ही होते थे. 

फिर किसी ने कहा कि दारु की सप्लाई में कमाई है. उस के लिए भी हरियाणा में एक दो लोगों को मिलने गए. शायद एक दारु की फैक्ट्री पर भी गए थे. हरियाणा और दिल्ली में शराब पर उन दिनों टैक्स में कोई फर्क था इसलिए लोग हरियाणा से दारु ला कर दिल्ली में बेचते थे. मैंने यह काम एक दो दिन किया भी अपनी मारुती 800 कार से. लेकिन फिर सूझा कि यह बकवास है. 

इस सब के चलते मैंने पैसे का और समय का काफी नुक्सान किया. कानों को हाथ लगा लिया कि यह सब कभी ज़िंदगी में नहीं करूंगा. और फिर कभी किया भी नहीं. शराब न मैं पहले पीता था, न अब पीता हूँ, बस धंधा करना था, सो २-४ दिन किया. जुआ भी न पहले खेला, न बाद में, खाईवाली की,धंधा समझ के.

अब मेरे पास एक दूकान थी कॉलोनी की एंट्री पर. वहाँ मैंने प्रॉपर्टी  के धंधे के अलावा एक STD/ PCO खोल लिया. एक वेल्डर बिठा लिया, सामने खाली ज़मीन पड़ी थी, वहाँ बिल्डिंग मटेरियल डाल लिया. इस खिचड़ी से बिजी रहने लगा और धंधा पानी भी कुछ ठीक चलने लगा.

वेल्डर जल्दी ही निपट गया. 

STD/ PCO कोई दो साल चलाया होगा, वो भी निपट गया.

बिल्डिंग मटेरियल का धंधा काफी बढ़िया से चला. मैंने आस-पास तीन ठीये और हथिया लिए. ठीये क्या होते हैं साहेब बस सड़क पे ईंट-रोड़ी डालना होता है और पुलिस और MCD वालों को कुछ पैसे देने होते थे, हो गयी दूकान चालू.

यहीं पास में ही पश्चिम पुरी में क्लब रोड पर छोटे flats में से एक फ्लैट मैने खरीद लिया चूँकि उस के सामने फुटपाथ पर बिल्डिंग मटेरियल डाला जा सकता था. वहाँ मैंने श्रीमती जी को बिठाल दिया, जिन्होंने बड़ी मेहनत से उस दूकान को चलाया. यह धंधा ठीक था लेकिन चूँकि मटेरियल सड़क पर होता था तो लोग शिकायत करते रहते थे और अफसर लोग परेशान करते रहते थे.

एक दिन मैं कहीं गया हुआ था तो पीछे से पुलिस वाले आये और पिता जी बैठे थे पश्चिम विहार वाली दूकान पर. तो उन से पुलिस वाले  कुछ बदतमीज़ी कर गए. मैंने ठान लिया कि यह काम करना ही नहीं. छोड़ दिया. इसी बीच एक बार बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई करने के लिए ट्रक भी खरीदा था लेकिन वह तो मैं बिलकुल भी नहीं चला पाया. उसे पार्क में खड़ा रखना पड़ा काफी समय. बाद में कुछ घाटे में बेच जान छुडवाई.

बिल्डिंग मटेरियल सप्लाई का काम अच्छा है, आप भी कर सकते हैं, लेकिन मटेरियल डालने के लिए या तो अपनी जगह हो या जगह ऐसी हो जहाँ मटेरियल डालने से जनता को दिक्कत न हो.  

इसी दौर में एक फ्लैट बनवाने का ठेका भी ले लिया, बनवा भी दिया लेकिन यह काम मुझे बहुत ही ज़्यादा involvement वाला लगा, सो दुबारा इस में हाथ नहीं आजमाया. 

फिर से प्रॉपर्टी के धंधे पर ध्यान केन्द्रित करने लगा और यह धंधा फिर से फलने-फूलने लगा.

इस बीच मुझे सूझा कि main road पर दूकान खरीदनी चाहिए. एक बढ़िया दूकान खरीद भी ली लेकिन इस में कुछ un-authorized था. ऑफिस बनाया, जिस सुबह शुरू करना था, उसी सुबह हमारे पहुँचने से पहले ही MCD वाले तोड़-फोड़ कर  गए. कायदे-कानून की ज़्यादा समझ थी नहीं तब, मन बहुत खराब हुआ. ठान लिया कि यह दूकान करनी ही नहीं. ऐसे ही छोड़ दी कुछ समय और फिर आधे रेट में बेच भी दी. 

लेकिन चूँकि मेरे ब्लॉक में मेरी पकड़ बहुत ही अच्छी थी सो उन्हीं पैसों से धड़ा-धड़ ले-दे किया और वो घाटा कोई 6 महीने में ही पूरा कर लिया. 

अब प्रॉपर्टी का धंधा करते-करते अच्छी खासी पूँजी जमा हो गयी थी. उन्ही दिनों flats की फाइल गिरवी रख के ब्याज पर पैसे देने का काम भी कुछ-कुछ करने लगा था मैं. मुझे यह धंधा बहुत ही बढ़िया लगने लगा. कुछ करना ही नहीं था, पैसा दो और बस ब्याज लो, लेते रहो. 

मैंने धीरे-धीरे अपना प्रॉपर्टी का धंधा समेट दिया और ब्याज का धन्धा फैला दिया. इस से इतनी कमाई आ जाती थी कि कुछ भी और करने की ज़रूरत ही न रही

मैंने प्रॉपर्टी के धंधे से जुड़े लोगों से मिलना-जुलना तक छोड़ दिया. अब मेरे पास काफ़ी समय भी था. सो साहित्य पढने का मेरा शौक जो इस आपा-धापी में छूट गया था, वो वापिस उभर आया. मैंने इस दौर में सैकड़ों-सैंकड़ों किताब पढ़ दीं. 

कोई दस साल निकल गए ऐसे. 

लेकिन फिर ख्याल आया कि और पैसा कमाना चाहिए. फिर एक वर्कशॉप अटेंड की "Money Workshop". उन दिनों इस की फीस थी 5000 रुपये. कोई साउथ इंडियन थे, उन की थी यह वर्कशॉप. दो  दिन की वर्कशॉप थी. इस में जो कुछ बताया गया, वो अधिकांशतः मुझे पहले से पता था. खैर, यहीं से मुझे आईडिया आया कि क्यों न मैं खुद एक वर्कशॉप चलाऊँ. मुझे इस में बहुत ज़्यादा पैसा नजर आने लगा. 

इस के लिए मैंने कई और वर्कशॉप अटेंड कीं. एक कोई Mr. Sajnani थे मुंबई से, वो सम्मोहन पर वर्कशॉप लेते थे. Landmark Forum भी उन्हीं दिनों अटेंड किया. Dr. N.K. Sharma,  जिन्होंने "Milk- A Silent Killer" किताब लिखी है, इन की भी एक वर्कशॉप मैंने उन्हीं दिनों अटेंड की थी. 

ये लोग कोई 2 से 5 हज़ार तक लेते थे. कोई होटल का कमरा बुक करते थे. वहाँ कुर्सियां लगीं होती थी. दो या तीन दिन तक ट्रेनिंग देते थे. चाय-पानी-लंच उसी खर्चे के बीच शामिल होता था. मुझे लगता है कि ये लोग जितना पैसा लेते थे, उस से कहीं ज़्यादा सिखाते थे. मैंने बहुत कुछ इन वर्कशॉप से भी सीखा.  

मैं अपनी वर्कशॉप साथ-साथ तैयार कर रहा था. इस के लिए मैं ढेर किताबें भी पढ़ रहा था.और 4-6 दोस्त इकट्ठा कर के उन को लेक्चर देता था और वर्कशॉप की रिहर्सल करता था. 

फिर एक बार मैंने अख़बारों में advertisement दे दी, अपनी वर्कशॉप की. दिल्ली में दो जगह बुक की अपनी वर्कशॉप के ट्रेलर देने के लिए. दिए भी. हिंदी भवन में  वर्कशॉप भी दी. लेकिन यह बुरी तरह से फ्लॉप रही. फ्लॉप इस लिए कि यह बुरी तरह से घाटे में रही. हालांकि कंटेंट के हिसाब से यह एक बहुत ही बढ़िया वर्कशॉप थी. लेकिन जैसे हर दूकान को चलाने के लिए समय की ज़रूरत होती है ऐसे ही इसे चलाने के लिए भी समय की ज़रूरत थी और उस के लिए खर्चे की ज़रूरत थी, जो करना मुझे काफी रिस्की लगा, सो इस धंधे को भी हमेशा के लिए नमस्ते कर दिया. 

इसी बीच MLM कम्पनी वालों के सम्पर्क में आ गए. लेकिन मुझे तुरत समझ आ गया कि यह सब फ्रॉड है. इस में पैसे और रिश्ते दिनों खराब होंगे. फिर कुछ समय इस बिज़नस मॉडल को समझने में लगाया ताकि हम खुद किसी ऐसे तरीके से कर सकें जिस में कमाई भी हो जाये और फ्रॉड भी न हो, लेकिन समझ नहीं आया. सो आईडिया ड्राप कर दिया. 

इसी दौर में मैंने NAREDCO ( National Real Estate development Council) का ट्रेनिंग कोर्स भी किया.

यह 15 दिन की बेहतरीन ट्रेनिंग होती थी प्रॉपर्टी डीलर्स के लिए. 

इस ट्रेनिंग में प्रॉपर्टी डीलर्स को कायदा-कानून, इन्टरनेट का प्रयोग, 

वास्तु आदि  प्रॉपर्टी से जुड़े कई पहलुओं की जानकारी दी जाती है.   

इस के बाद हमारे एक फॅमिली मित्र/ रिश्तेदार ने सुझाया कि बैंकों से लोन आसानी से मिल सकता है. उन्होंने लिए भी हुए हैं. वो हमारी मदद कर देंगे, अगर लेना हो तो. मुझे सूझा कि क्यों न यह पैसा ले कर अपने ब्याज के धंधे में लगा दिया जाये? कमाई बढ़ जाएगी. 

मेरे दफ्तर को गारमेंट और टेक्सटाइल सप्लाई के ऑफिस की शक्ल दी गयी और उन मित्र की सहायता से बहुत से क्रेडिट कार्ड बनवा लिए गए और पर्सनल लोन भी ले लिए गए. 

यह मेरे जीवन की भयंकर गलती रही. यह पैसा मैं कभी भी अपने व्यापार में नहीं लगा पाया. यह सारा पैसा वापिस बैंकों की EMI भरने में चला गया. न सिर्फ यह पैसा, बल्कि मेरे पल्ले का पैसा भी बैंकों के ब्याज में ही चला गया. पूँजी लगभग जीरो हो गयी. खराब दिन चालू हो गए. 

ऑफिस बेच दिया. फिर किराए पर ऑफिस लिया. ब्याज का डेली कलेक्शन का धंधा मैं शुरू कर ही चुका था. नए ऑफिस में इस धंधे को हम ने खूब फैलाया. तीन चार लड़के कलेक्शन पर रखे. त्रि नगर से उत्त्तम नगर तक धंधा फैला दिया. इस धंधे में हम बीस-तीस हजार से किसी को ज़्यादा रकम उधार नहीं देते थे. फिर रोज़ दो तीन सौ रुपये वापिस लेते थे. यह बड़ा ही अगड़म-शगड़म धंधा है. रकम मरने भी लगी. कोई दो-तीन केस कोर्ट में भी गए. इस धंधे में नुक्सान तो कोई नहीं हुआ लेकिन कोई बहुत फायदा भी नहीं हुआ. सो बंद कर दिया. ब्याज का हर धंधा, चाहे आप कितना ही कम ब्याज लो, रिस्की है यदि आप ने दी गयी रकम की वसूली के लिए उधार लेने वाले की कोई चीज़ अपने नीचे नहीं रखी. 

इसी ऑफिस में हम ने प्रॉपर्टी का धंधा फिर से चालू कर दिया था. 99 acres, magicbricks, sulekha  के package ले लिए थे. एक लड़का सिर्फ कालिंग के लिए रखा था. एक लड़का फील्ड वर्क के लिए. इस के अलावा एक पार्टनर भी थे, जिन को यदि डील होती तो एक निश्चित शेयर देना था.

इस बिज़नस मॉडल पर पूरा एक साल काम करने के बाद नतीजा सिफर था. हालाँकि मैंने अपने सम्पर्कों से कुछ बिज़नस निकाल लिया था.

मैंने वो सारे लोग बर्खास्त कर दिए. डेली कलेक्शन का धंधा भी बंद कर दिया. 

चूँकि दफ्तर किराए का था तो मालिक के कहने पर खाली करना पड़ा. दूसरा लिया. यहाँ फिर से कोई एक साल प्रॉपर्टी के काम में अकेले झक्क मारने के बाद नतीजा जीरो ही रहा. 

अब फिर से कोई और काम करने की सूझने लगी. पूंजी लगभग खत्म थी. 

मेरी माँ के नाम पर एक फ्लैट था, वो किरायेदार ने कब्जा कर रखा था. इस बीच उसे कोर्ट आर्डर से खाली करवाने में हम सफल हो गए.

इसी फ्लैट के एक फ्लोर पर हम ने कढी चावल, छोले चावल, राजमा चावल का काम शुरू किया. इर्द-गिर्द पर्चे बंटवा दिए. थोड़ा काम सरकने भी लगा. लेकिन खर्चा कहीं ज़्यादा पड़ रहा था और मेहनत भी बहुत ज़्यादा लग रही थी.  डिलीवरी तक के लिए लड़के रखे थे, उन  का खर्चा पड़ता था. यह Swiggy/ Zomato से पहले जमाने की बात थी. अन्तत: यह काम भी छोड़ना पड़ा.

फिर फ्लैट को बेच दिया. कुछ पूंजी खड़ी हो गयी. 

अब मुझे Surplus Garments का धंधा सूझा. मैंने प्रॉपर्टी के दफ्तर को गारमेंट के शोरूम में तब्दील कर दिया. मुझे लगा सस्ता बेचेंगे, धड़ा-धड़ बिकेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. फिर इससे काम के लिए एक 200 गज का हॉल किराए पर लिया, वहाँ काम शिफ्ट किया. कोई 6 महीने काम रखा वहाँ. बहुत मेहनत की लेकिन किराया, लड़कों की सैलरी और बिजली का बिल देने के बाद हमें कुछ भी बचता नहीं था. सो समेटने का मन बना लिया. वो जगह छोड़ दी. 

एक गोदाम लिया किराए पर. यहाँ से ऑनलाइन-ऑफलाइन पूरे इंडिया में माल भेज-भेज स्टॉक खत्म किया जैसे-तैसे. 

लेकिन इस सारे कार्य-कलाप में पूँजी का काफी नुक्सान हुआ चूँकि घर खर्च तो चल ही रहा था. 

अब फिर से सूझा कि ब्याज का काम करूं. थोडा बहुत किया भी लेकिन इस बार चूँकि पूँजी कम थी सो यह धंधा फलीभूत नही हुआ बल्कि एक जगह 5 लाख रुपये फंस गए, जो आज भी फंसे हुए और इस से फायदा लेने के चक्कर में और कितना ही खर्च अलग से हो चुका है.

इस बीच एक फ्लैट खरीदा था माँ के पैसों से. वो बीमार ही थीं. मेंटली अपसेट. उन के लिए अलग जगह चाहिए थी. यह फ्लैट घर के पास था. सो पहले किराए पर लिया. लेकिन फिर मालिक खाली कराने की जिद्द करने लगा तो जैसे-तैसे खरीद लिया. 

इस के बाहर वाले हिस्से को ही बाद में दफ्तर बना दिया. यहाँ प्रॉपर्टी का धंधा करने लगा. पीछे कोर्ट-कचहरी का अनुभव था और NAREDCO ट्रेनिंग भी थी, सो  झगड़े-झंझट की प्रॉपर्टी में हाथ आजमाने लगा. 

इस तरह के सौदे ज़्यादातर फ्रॉड होते हैं. या फिर लड़ने वाली पार्टियाँ खुद ही समाधान निकाल लेती हैं. या मामले कोर्ट में होते हैं, जो कि बाज़ार के लिए बेकार होते हैं. सो काम के सौदे बहुत कम निकलते हैं. न के बराबर. फिर भी कभी-कभार तुक्का लग जाता है.

और चूँकि मैंने बरसों अपने ब्लाक में काम किया ही नहीं तो दुबारा काम जमाना बहुत ही मुश्किल था लेकिन फिर भी धीरे-धीरे कुछ पैर जमे हैं और दाल-दलीया बन जाता है.   

मैंने रोटी, कपड़ा, मकान सब बेचा है. ब्याज पर खूब-खूब पैसे लिए भी हैं और दिए भी हैं. नुक्सान भी बहुत लिए हैं और फायदे भी बहुत. इज्ज़त भी कमाई है और बदनामी भी. अपनी इस व्यापारिक यात्रा से मैंने जो सीखा, वो मैं सिखाना चाहता हूँ:---

देखिये जहाँ तक हो सके, ब्याज पर न पैसे लें और न दें. उधार हो, ब्याज हो, यह आप को पूरी तरह से डुबो सकता है. किराए पर भी जगह ले कर काम करना काफी रिस्की है. हाँ, आप का धंधा जमा हो, आप को पता हो कि आप एक निश्चित रकम कमा ही लेंगे तो रकम ब्याज पर भी ले सकते हैं और जगह किराए पर भी ले सकते हैं.

और नए धंधे तलाश करने चाहियें लेकिन बार-बार धंधे तबदील न करें. और हो सके तो अपने जमे-जमाए धंधे को कभी न छोड़ें. किसी भी काम को जमाने में काफी समय लगता है. धंधा बदलने से वो समय में जो Goodwill बनी होती है, जो जान-पहचान बनी होती है, वो सब पानी में चली जाती है. इसे "सोशल कैपिटल" कहते हैं, और यह पूँजी जितनी ही महत्वपूर्ण होती है. जैसे आप की पूँजी आप को कमाई देती है, ऐसे ही सोशल कैपिटल आप को कमा के देती है. मेरे बार-बार धंधे छोड़ने-पकड़ने से मुझे दोनों तरह की पूँजी का नुक्सान हुआ है, जिसे पिछले 5 सालों में मैंने बहुत जतन से सम्भाला है.     

अपने जमे-जमाए काम की वैल्यू समझें. इसे हलके में न लें. आप आज जो कमाते हैं, वो आप के वर्षों स्थापित होने की वजह से कमाते हैं, चाहे आप रेहड़ी ही क्यों न लगा रहे हों. 

बिज़नस खोलते ही कमाई देने लगे, ऐसा ज़रूरी नहीं है. सो आप के पास बिज़नस और परिवार चलाने के लिए एक से तीन साल टिके रहने का माद्दा होना चाहिए. 

प्रॉपर्टी के धंधे में ऐसा माना जाता है कि डीलर हरामखोर होते हैं, चोर होते हैं....

लेकिन मैं देखता हूँ अधिकांशतः पार्टियाँ डीलरों को खूब मूर्ख बनाती हैं. उसे महीनों रगड़ने के बाद, उस से मार्किट की सारी जानकारी लेने के बाद, सारी ट्रेनिंग लेने के बाद बिना किसी वजह से ड्राप कर देती हैं और उस बेचारे का तन-मन-धन खर्च करवाने के बाद भी चवन्नी कमाने का मौका नहीं देतीं या फिर यदि उस के ज़रिये कोई डील कर भी ली तो उस को कमीशन देने में उन की जान निकल जाती है. कोशिश की जाती है या तो  उसे कमीशन दी ही न जाए या दी जाए तो कम से कम दी जाए. ऐसे में जितना ग्राहक पकड़ना ज़रूरी है, उतना ही छोड़ना भी ज़रूरी है. जितनी ईमानदारी ज़रूरी है, उतनी ही होशियारी भी ज़रूरी है, अपनी कमाई पर ध्यान केन्द्रित रखना भी ज़रूरी है. 

कई तो धंधे ही पिट जाते है जैसे इन्टरनेट आने से वीडियो कैसेट, VCR, TV किराए पर देने का धंधा खत्म हो गया. नई तकनीक ने पुराने धंधे को विदा कर दिया लेकिन कई बार दूसरे के धंधे को देख हम समझने लगते हैं कि इस में कमाई ज़्यादा है लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं, कोई भी धंधा लग कर किया जाए तो कमाई होने ही लगती है.  

नमन.

~ तुषार कॉस्मिक

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