Monday 18 January 2021

बेटियाँ तो सांझी होती हैं

रेशमा की शादी थी. सारा मोहल्ला जैसे जोश में था.

"ओये...तू टेंट सम्भाल."
"ओये तू हलवाई को सामान लाकर दे."
"ओये तूने बामण को बुलाना है."
"तूने ये...."
"तूने वो.."

बेटियाँ तो सांझी होती हैं. रेशमा सिर्फ कुलवंत की बेटी नहीं थी, सारे मोहल्ले की बेटी थी. सबसे ज़्यादा काम रुलदू चाचा ने सम्भाल रखा था. वो तो जैसे पागल ही हो रखा था. कभी इधर भाग रहा था, कभी उधर. कहीं कोई कमी न रह जाए. चाहे बारात अगली गली से ही आनी थी लेकिन फिर भी टेंशन थी कि कहीं कोई बाराती नाराज़ न चला जाये.

बारात विदा हुयी तो सारे मोहल्ले की आँखें गीली थीं.

समय उड़ता गया. रेशमा की बेटी जवान हो गयी. उसकी शादी तय हुई. लेकिन अब ज़माना बदल गया था. अब कोई चिंता नहीं थी, पहले की तरह. सब काम बैंक्वेट वाले सम्भाल लेते हैं. न हलवाई की चिंता, न टेंट की. बस प्लेट के हिसाब से पैसे देने होते हैं. शहर का अच्छा बैंक्वेट बुक किया रेशमा ने. कोई 1500 रुपये प्रति प्लेट का खर्चा तय हुआ.

रेशमा ने सिर्फ करीबी रिश्तेदार और बिज़नस पार्टनर बुलाये. गली-मोहल्ले के सब लोग लिस्ट से हटा दिए गए. रुलदू चाचा अब वैसे भी बूढ़े हो चुके थे सो उनका या उनके जैसों का नाम तो निमन्त्रण-लिस्ट में होने का कोई मतलब ही नहीं था. ऐसे लोग तो शगुन के नाम पर हद मार के 500 रुपये भी देने वाले नहीं थे.

बिटिया की शादी निपट गयी धूम-धाम से. सब ने बड़ी प्रशंसा की. बड़ी शादी थी. शानदार.

वक्त उड़ना था, उड़ता गया. फिर इक दिन रेशमा की बेटी रेशमा के घर आई थी, साथ में छोटी बिटिया थी उसकी. रेशमा की नातिन. सब हंस खेल रहे थे. अचानक रसोई से काम वाली के चीखने की आवाज़ आई. आग लगी थी. देखते-देखते पूरे घर में आग फैलने लगी. सब चीखने-चिल्लाने लगे.

वहीं से रुलदू चाचा गुज़र रहे थे. शोर सुना तो भागे आये. अपनी जान पर खेल गए लेकिन रेशमा और उसकी नातिन और उसकी बेटी को बाहर निकाल लाये.

लेकिन अफ़सोस उनकी अपनी हालत खराब हो गयी. अंतिम वक्त आ गया था उनका. रेशमा उनके पास बैठी थी. हाथ में रुलदू चाचा का हाथ. रो रही थी. रुलदू चाचा ने अंतिम साँस लेते हुए कहा, "मत रो बिटिया, तू हमारे मोहल्ले की बेटी है और फिर बेटियों तो सबकी सांझी होती हैं." और रुलदू चाचा के जीवन का पर्दा गिर गया .

नमन....तुषार कॉस्मिक

Sunday 10 January 2021

चीकू

 चीकू. वो शुरू से ही सुंदर सा था, सफेद और बीच-बीच में काले धब्बे. कद छोटा। छोटा सा जवान कुत्ता,  उसे कोई मोहल्ले  में छोड़ गया था या शायद वो खुद ही कहीं से आन  टपका था.

 जिस घर के सामने वो बैठता था, वो उसे खूब प्यार-दुलार, खाना-दाना  देता था लेकिन फिर घर वालों को कोई और कुत्ता भा गया, जो चीकू से कहीं लम्बा -चौड़ा था.  अब चीकू और उस नए कुत्ते की लड़ाई होने लगी. चीकू रोज़ाना पिट जाता. हार कर उसे वो जगह छोड़नी पडी. 

उसे  सुरेश के घर के आगे पनाह मिल गयी. सुरेश को कुत्ते कोई ख़ास पसंद-नापसंद नहीं थे. लेकिन उसके बच्चों को चीकू पसंद आ गया. चीकू को वो बच्चे पसंद आ गए. वो आपस में खेलते. चीकू मस्त. लेकिन कुत्ता तो कुत्ता. वो रात में गली में खूब भौंकता. बिना मतलब भौंकता. सुरेश कहता, "इसे भूत दीखते हैं क्या?" छोटे सटे हुए घर. सुरेश की नींद हराम होने लगी. 

एक रात उसने चीकू को भगा दिया. एक दो दिन चीकू गायब रहा. फिर इक दिन वो बुरी तरह से घायल मिला. उसके गले पर गहरा ज़ख्म था. सुरेश ने ख़ास ध्यान न दिया. कुछ दिन बाद किसी ने बताया चीकू को कीड़े पड़  गए हैं. सुरेश ने देखा. उसके गले पर जो ज़ख़्म था, वो और बड़ा हो गया था और उसमें अनगिनत सफेद कीड़े थे. अब  चीकू मरने जैसा था. 

सुरेश का दिल पसीजा, वो  दो बेटियों के साथ कार में बारिश में चीकू को अस्पताल ले गया. कई दिन की तीमार-दारी  के बाद चीकू सही हो गया. 

अब कुछ ही दिन बाद म्यूनिसिपलिटी वाले चीकू को उठा ले गए और उसका ईलू -पीलू कर वापिस छोड़ गए. चीकू कई दिन घायल सा पड़ा रहा. हैरान-परेशान. फिर धीरे-धीरे ठीक हो गया. 

लेकिन फिर उसका किसी बड़े कुत्ते से झगड़ा हुआ जिसने उसके अंड -कोष उधाड़ दिए. मरने जैसा हो गया फिर से चीकू. सुरेश ने बेटियों के साथ मिल फिर से चीकू को ज़िंदा किया. अब चीकू ठीक है, लेकिन रात को बहुत भौंकता है. उसे देख गली के बाकी कुत्ते भी बहुत भौंकते हैं. 

अब सुरेश ने प्रण  किया है अबकी बार चीकू को नहीं बचाना. "कुत्ता है कोई इंसान थोड़ा न है. क्या हम जूं  नहीं मारते? क्या हम चिकन नहीं खाते? क्या हम कॉकरोच नहीं मारते? मरने दो, चीकू को भी, कुत्ता ही  है", वो खुद को समझाने लगा. 

चीकू फिर से घिर गया कहीं बड़े कुत्तों में. सुरेश को पता लगा. वो पहुँच गया. लहू-लुहान चीकू को उठा चल पड़ा अस्प्ताल की तरफ. चीकू उसकी गोद  में था, सुरेश सोचता जा रहा था, "अब  यह आखिरी बार है चीकू, अब आगे तुझे नहीं बचाऊंगा.... " 

मैं हवा का ही तो बना हूँ

 अभी बाहर गली में घूम रहा था. 

दिसंबर अपने यौवन पर है. 

आधी रात . 

मुंह पर ठंडी हवा के थपेड़े पड़  रहे थे. 

बर्फीली हवा मुझे अच्छी  लग रही थी. 

अंदर जाती साँस गीली-गीली  थी. 

मुझे अपना होना सुखद लग रहा था.

 क्यों? 

शायद मैं खुद से मिल रहा था. 

मैं हवा का ही तो बना हूँ, 

और मिटटी का, 

और पानी का, 

और ज़मीन का,

 और आसमान का. 

और

 हवा में ही मिल जाऊँगा, 

और मिटटी में घुल जाऊंगा, 

और पानी में,

 और ज़मीन में, 

और आसमान में.

घटती इज़्ज़त

 वो परिवार के साथ खाना  खा रहा था. 

उसने बच्चों से मुखातिब होते हुए हलके-फुल्के मूड में कह  दिया, "मैं अगर तुम्हारी ममी की थाली से दो कौर रोटी मांग लूँगा तो ममी कहेंगी कि देखों मुझे तुम्हारा बाप खाना नहीं देता. "

"सो तो है ही" पत्नी  ने कहते हुए दो कौर रोटी उसकी थाली में फेंक दी. 

बड़ी बेटी ने नोट करते हुए कहा, "देखना, ममी पापा को रोटी किस ढंग से दे रही हैं!"

"पता है बेटा, जैसे कुत्ते को देती हैं बाहर गली में वैसे ही." उसने कहा.  

ममी बोली, "न, न, कुत्ते को तो मैं प्यार से रोटी देती हूँ."

सब हंसने लगे, वो भी हंसने लगा. बात आई गयी हो गयी, सब सो गए, लेकिन सोते हुए उसकी आंख कुछ गीली थी.