रेशमा की शादी थी. सारा मोहल्ला जैसे जोश में था.
"ओये...तू टेंट सम्भाल."
"ओये तू हलवाई को सामान लाकर दे."
"ओये तूने बामण को बुलाना है."
"तूने ये...."
"तूने वो.."
बेटियाँ तो सांझी होती हैं. रेशमा सिर्फ कुलवंत की बेटी नहीं थी, सारे मोहल्ले की बेटी थी. सबसे ज़्यादा काम रुलदू चाचा ने सम्भाल रखा था. वो तो जैसे पागल ही हो रखा था. कभी इधर भाग रहा था, कभी उधर. कहीं कोई कमी न रह जाए. चाहे बारात अगली गली से ही आनी थी लेकिन फिर भी टेंशन थी कि कहीं कोई बाराती नाराज़ न चला जाये.
बारात विदा हुयी तो सारे मोहल्ले की आँखें गीली थीं.
समय उड़ता गया. रेशमा की बेटी जवान हो गयी. उसकी शादी तय हुई. लेकिन अब ज़माना बदल गया था. अब कोई चिंता नहीं थी, पहले की तरह. सब काम बैंक्वेट वाले सम्भाल लेते हैं. न हलवाई की चिंता, न टेंट की. बस प्लेट के हिसाब से पैसे देने होते हैं. शहर का अच्छा बैंक्वेट बुक किया रेशमा ने. कोई 1500 रुपये प्रति प्लेट का खर्चा तय हुआ.
रेशमा ने सिर्फ करीबी रिश्तेदार और बिज़नस पार्टनर बुलाये. गली-मोहल्ले के सब लोग लिस्ट से हटा दिए गए. रुलदू चाचा अब वैसे भी बूढ़े हो चुके थे सो उनका या उनके जैसों का नाम तो निमन्त्रण-लिस्ट में होने का कोई मतलब ही नहीं था. ऐसे लोग तो शगुन के नाम पर हद मार के 500 रुपये भी देने वाले नहीं थे.
बिटिया की शादी निपट गयी धूम-धाम से. सब ने बड़ी प्रशंसा की. बड़ी शादी थी. शानदार.
वक्त उड़ना था, उड़ता गया. फिर इक दिन रेशमा की बेटी रेशमा के घर आई थी, साथ में छोटी बिटिया थी उसकी. रेशमा की नातिन. सब हंस खेल रहे थे. अचानक रसोई से काम वाली के चीखने की आवाज़ आई. आग लगी थी. देखते-देखते पूरे घर में आग फैलने लगी. सब चीखने-चिल्लाने लगे.
वहीं से रुलदू चाचा गुज़र रहे थे. शोर सुना तो भागे आये. अपनी जान पर खेल गए लेकिन रेशमा और उसकी नातिन और उसकी बेटी को बाहर निकाल लाये.
लेकिन अफ़सोस उनकी अपनी हालत खराब हो गयी. अंतिम वक्त आ गया था उनका. रेशमा उनके पास बैठी थी. हाथ में रुलदू चाचा का हाथ. रो रही थी. रुलदू चाचा ने अंतिम साँस लेते हुए कहा, "मत रो बिटिया, तू हमारे मोहल्ले की बेटी है और फिर बेटियों तो सबकी सांझी होती हैं." और रुलदू चाचा के जीवन का पर्दा गिर गया .
नमन....तुषार कॉस्मिक
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