Tuesday 6 April 2021

हिंदुत्व/ हिन्दू धर्म/सनातन धर्म जैसा कुछ भी नहीं है

सबसे पहले सनातन पर बात करता हूँ :---

जिन को हिन्दू कहा गया, वो खुद को आज-कल सनातनी कहना ज़्यादा पसंद करते हैं. शायद इसलिए चूँकि हिन्दू शब्द आक्रमणकारियों द्वारा दिया गया था जो सिन्धु दरिया के आस-पास रहने वालों को हिन्दू कहने लगे चूँकि वो 'सिन्धु' ठीक से बोल नहीं पाते थे.

या शायद इसलिए चूँकि हिन्दू को परिभाषित करना लगभग असम्भव है. 

या शायद इसलिए चूँकि सनातन शब्द ज़्यादा significant लगता है. 

सनातन मतलब चिरंतन. Eternal. 

पहले तथाकथित हिन्दू-वादियों जोर था कि हमारा धर्म पुरातन है. 

सबसे पुरातन. अब वो कहते हैं कि हमारा धर्म सनातन है. 

चिरन्तन. झगड़ा ही खतम. हम सदैव से हैं. और सदैव रहेंगे.

इनके अनुसार पंडित जी के अगड़म-शगड़म मन्त्र सुनने-समझने वाले लोग तब भी थे जब इन्सान ने भाषा इजाद भी न की थी. 

हनुमान वानर थे लेकिन वो बोलते थे तब भी जब इन्सान खुद बोल नहीं पता था यह मानने वाले सदैव रहेंगे. 

हनुमान वानर थे लेकिन उड़ते थे चाहे इन्सान आज भी बिन हवाई जहाज, हेलिकोप्टर नहीं उड़ पाता , यह मानने वाले भी हमेशा थे, हमेशा रहेंगे.

हनुमान पहाड़ उठा लाये थे और कृष्ण ने उंगली पर पहाड़ तब उठा लिया, यह मानने वाले तब भी थे जब क्रेन इजाद नहीं हुई थी और इन्सान बीस-तीस ईंट सर पे ठीक से नहीं उठा पाता था और ऐसा मानने वाले हमेशा रहेंगे. 

हाथी का सर बच्चे के सर पर फिट कर दिया गया और वो गणेश बन गए, चाहे आज भी हमारे सर्जन ऐसा नहीं कर सकते लेकिन ऐसा हुआ था यह मानने वाले पहले भी थे, आज भी हैं. और हमेशा रहेंगे. 

इंसान गौ को माँ तब भी मानता था जबकि वो जंगलों में भाग-दौड़ करके जानवर मार के कच्चा ही खाता था. 

चाहे तथाकथित हिन्दूओं में अनेक दारु पीते थे, पीते हैं, और अधिकांश गौ-मूत्र न पहले पीते थे और न अब पीते हैं. लेकिन गौ-मूत्र को अमृत-तुल्य मानने वाले सदैव थे और सदैव रहेंगे.

हाथी चूहे की सवारी कर सकता है, यह मानने वाले पहले भी थे, अभी भी हैं और हमेशा रहेंगे. 

गुड. गुड. इटरनल. सदैव. चिरन्तन. सनातन. 

असल बात यह है कि न तो हिन्दू धर्म, न हिंदुत्व और न ही सनातन नाम से कुछ है जिसे परिभाषित किया जा सके. डिफाइन किया जा सके. आप डेफिनिशन का मतलब समझें, जहाँ कुछ definite हो, कुछ निश्चित हो, वही तो डिफाइन किया जा सकता है. जिसे हिंदुत्व कहा जा रहा है, वहां कुछ भी निश्चित नहीं है. कैसे डिफाइन करेंगे?

तथा-कथित हिन्दुओं या कहें कि सनातनियों में मूर्ति-पूजक भी हैं, मूर्ती-पूजा के विरोधी भी हैं. आर्य-समाजी मूर्ती-पूजा का विरोध करते हैं. 

निरंकारी भी हैं, ॐ-कारी भी हैं. जपुजी साहेब नानक साहेब की वाणी है. उसमें शुरू में ही लिखा है, "एक ओमकार सतनाम".

आस्तिक भी हैं और नास्तिक भी हैं. बुद्ध नास्तिक कहे जाते हैं . आज बौद्ध धर्म को भी हिन्दू की छतरी के नीचे लाया गया है जबकि वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34  में तो बुद्ध को चोर कहा गया है. 

तथाकथित हिन्दू जब भी मरता है तो अंतिम क्रिया में बताया जाता है कि आत्मा यात्रा करती है, उसका पुनर्जन्म होता है आदि आदि. जबकि बुद्ध ने तो आत्मा को ही इंकार कर दिया, ऐसा मैंने पढ़ा है. मैं खुद आत्मा में कोई यकीन नहीं रखता. यहाँ सब कॉस्मिक एनर्जी का खेला है. लीला. आत्मा जैसा कुछ भी नहीं. एक रोशन बल्ब टूट जाये तो बिजली तारों में फिर भी बहती रहती है, कांच का बर्तन टूट जाये तो उसके अंदर की हवा फिर भी कमरे में मौजूद रहती है, लहर बिखर जाये तो समन्दर में फिर भी मौजूद रहती है. न बल्ब की अपनी कोई अलग बिजली है और न बर्तन की अपनी कोई अलग हवा है और न ही लहर का अपना कोई अलग पानी है. अपनत्व बस भ्रम है. आत्मा सिर्फ भ्रम है.   

भारत में तो जनेऊ पहनने वाले भी हैं और जनेऊ का विरोध करने वाले भी हैं. नानक साहेब ने जनेऊ का विरोध किया था. सिक्ख जनेऊ नहीं पहनते. 

कोई एक देवी नहीं, कोई एक देवता नहीं. दस-बीस किलोमीटर पर देवी-देवता बदल जाते हैं. दिल्ली में झंडे वाली माता का मन्दिर है, पंजाब में किसी ने सुना भी न होगा.

बठिंडा में एक गुरुद्वारा है, "हाजी रतन गुरुद्वारा". असल में इस गुरूद्वारे के ठीक साथ एक दरगाह सटी है. जिसे हाजी रतन की दरगाह कहा जाता है. जो लोग गुरूद्वारे जाते हैं, वो अक्सर इस दरगाह पर भी मत्था टेकते हैं. अब इस्लाम में दरगाह का कोई कांसेप्ट नहीं है. इस्लाम में दरगाहों पर मत्थे टेकना मना है. असल में तो सिवा अल्लाह के किसी की भी इबादत शिरकत है, गुस्ताखी है. लेकिन तथा-कथित हिन्दू को, सनातनी को इससे क्या? उसने अपने हिसाब से चीज़ों को गढ़ना है. वो दरगाह पर भी मत्था टेकता है, वो गुरूद्वारे का नाम भी दरगाह से जोड़ देता है. उसे क्या? 

असल में उसे इबादत से मतलब है, खुदा झूठा है, सच्चा है, उसे ज़्यादा चिंता नहीं है. वो निर्मल बाबा के आगे भी झुकता है, जो समोसे लाल चटनी की बजाये हरी चटनी के साथ खाने का नुस्खा बता के कृपा बरसाता है, वो आसाराम और राम-रहीम के आगे भी झुकता है जो बलात्कार में फंसते हैं. वो दिव्य-ज्योति संस्थान वाले आशुतोष महाराज के शरीर को फ्रीजर में डालने पर भी राजी हो जाता है, इस उम्मीद में कि उनकी आत्मा वापिस आयेगी उसी शरीर में. असल में जिसे हिन्दू या सनातनी कहा जा रहा है उसकी मान्यताएं बड़ी ही ढुल-मुल हैं, वो कुछ भी मानने को तैयार बैठा है. कुत्ते-कुतिया तक के मन्दिर हैं. फिल्म एक्टर के मन्दिर हैं. मोटर साइकिल तक का मंदिर है. मेरा एक लेख है "मन्दिर कैसे-कैसे". पढियेगा. हैरान हो जायेंगे. गोवरधन परिक्रमा करते हैं तो बीच में एक मंदिर है, "चूतड-टेका मंदिर". मतलब वहां चूतड़ टिका के आराम कीजिये. हनुमान जी ने किया था, जब वो परिक्रमा कर रहे थे. 

मतलब कुछ भी मानने को तैयार बैठा है तथा-कथित सनातनी. 

कुछ समय पहले तक साईं बाबा के पीछे लगे थे. क्या छोटे-क्या बड़े? सब साईं के भगत. सब साईं संध्या कराने में लगे थे. मंदिरों में साईं की मूर्तियाँ लगवा दीं गईं. फिर किसी शन्कराचार्य ने कह दिया कि साईं तो मुस्लिम थे, काफी कुछ मूर्तियाँ हटा दी गईं. अब साईं का ज्वर कुछ शांत है. 

अब दिल्ली और इर्द-गिर्द सब "गुरु जी" के पीछे लगे हैं. हर तीसरी गाडी के आगे-पीछे लिखा होगा, "जय गुरु जी". ये महाशय कौन थे, क्या कहते थे, इनका समाज को क्या योगदान था, कुछ ठीक से पता नहीं. लेकिन अब घर-घर इनके सत्संग होते हैं. गुरु जी की blessing चाहियें सबको. दिल्छी छतर-पुर की तरफ आलिशान मंदिर है इनका. बड़ा मंदिर. मैं गया हूँ वहां. इनकी समाधि भी देखी है मैंने. मुझे वो सब देखा-देखा लगा. क्यों? क्योंकि मैं पूना ओशो-आश्रम भी गया हूँ. काफी कुछ ओशो की नकल लगा. ओशो की समाधि है जैसे, वैसे इन महाशय की भी समाधि है. ओशो जैसे गाउन-नुमा वस्त्र पहनते थे, वैसे ये जनाब भी पहने हैं. ओशो ने अंतिम दिनों में अपनी कुर्सी को ही अपनी उपस्थिति बताया, सो उनकी खाली कुर्सी ही विद्यमान रहती थी शिष्यों के सम्मुख, वैसे ही इनके शिष्य भी इनकी खाली कुर्सी रखते हाँ इनके सत्संग में. ओशो में आग थी. वो आग हरेक को हजम होने से रही सो जैसे और अनेक लोगों ने ओशो को कॉपी किया, वैसे ही इन्होने भी सुविधा अनुसार ओशो को कॉपी किया लगता है. ये तो चल बसे लेकिन इनके पीछे चलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. 

फिर जिनको हिन्दू या सनातनी की छतरी के नीचे लाने की कोशिश की जा रही है, वो सब भी खुद को हिन्दू या सनातनी मानते हैं कि नहीं? इस में भी बहुत तना-तनी है. 

सिक्ख खुद को सिक्ख मानते हैं. हिन्दू नहीं. भाई कान्ह सिंह नाभा की किताब है, "हम हिन्दू नहीं". नानक साहेब ने जनेऊ नहीं पहना, हरिद्वार में सूरज को जल न चढ़ा के उलटी दिशा में जल चढ्या, जगन-नाथ में हो रही आरती का विरोध किया. खालिस्तानियों का एक तर्क यह भी है कि उन्हें जबरन हिन्दू माना जा रहा है. हिन्दू बनाया जा रहा है. 


लिंगायत लिंग-पूजक हैं लेकिन खुद को हिन्दू धर्म से अलग करना चाहते हैं. नहीं मानते वो खुद को हिन्दू. उनके शव दफनाये जाते हैं.


कुम्भ के मेले में शाही स्नान को लेकर साधुयों के अखाड़ों में खूनी जंग होती रही है.


हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय में गौतम बुद्ध को दसवाँ अवतार माना गया है हालाँकि बौद्ध धर्म इस मत को स्वीकार नहीं करता। 

जैन भी खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं लेकिन उनको भी जबरन हिन्दू कहा जा रहा है. जैन खुद को जैन लिखते हैं और कुछ नहीं. 


जबरन भारत के उस समाज को जिसे हिन्दू कहा जा रहा है, एक डोरी में पिरोने की कोशिश की गयी है. 

एक थ्योरी यह है कि हिन्दूस्तान में रहने वाला हर शख्स हिन्दू है. सवाल यह है कि इस मुल्क का नाम भारत भी है. पंडित बुला लो, वो मन्त्रों में इसे जम्बू-द्वीप कहेगा. हालांकि द्वीप की परिभाषा में भारत आता भी नहीं. कोई इसे आर्यवर्त कहता है. और फिर जब हिन्दू शब्द का प्रयोग आज होता है तो वो किस सन्दर्भ में होता है यह भी तो देखने की बात है. आज 'हिन्दू' शब्द अधिकांशत: 'भारतीय' के लिए प्रयोग नहीं होता. हिन्दू शब्द राम-कृष्ण-दुर्गा-काली-ब्रह्म-विष्णु-महेश आदि को मानने वाले को कहा जाता है. भारत में तो मुस्लिम, क्रिश्चयन, पारसी और न जाने कौन-कौन से धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, सब तो नहीं कहते खुद को हिन्दू. 

और वो मित्रगण जो गन उठाये वैलेंटाइन डे पर आलिंगन-बद्ध जोड़ों का शिकार करने निकलते हैं ताकि भारतीय संस्कृति को दूषित होने से बचाया जा सके, जब उनसे खजुराहो के मन्दिरों की संस्कृति पर सवाल दागा जाता है, जब लिंग-पूजन के अर्थ समझने का प्रयास किया जाता है तो अर्थ का अनर्थ करते दीखते हैं. 

गौ को माता कहा जाता है लेकिन उसके बेटे-बेटी के हिस्से का दूध छीन लिया जाता है. यह सनातन है या हिंदुत्व, मुझे नहीं पता. 

विवेकानंद खुद बताते हैं कि प्राचीन भारत में गौ-मांस खाया जाता था.

“इसी भारत में कभी  ऐसा भी   समय  था जब कोई ब्राहमण बिना गौ-मांस खाए ब्राहमण नहीं रह पाता  था। वेद पढ़ कर देखो कि किस तरह जब कोई सन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था तब सबसे पुष्ट बैल मारा जाता था---- स्वामी विवेकानंद (विवेकानंद साहित्य Vol 5 Pg 70)”

धरती को माता कहा जाता है लेकिन उसे काटा जाता है, बेचा-खरीदा जाता है, उसे किराए पर दिया जाता है. यह सनातन है? हिंदुत्व है? क्या है? मुझे नहीं पता. 

सदा सच बोलना चाहिए, लेकिन यदि किसी क्रांतिकारी को कैद कर अँगरेज़ उसके साथियों का पता पूछते तो क्या उसे सच-सच बता देना चाहिए?

असल में सनातन या हिंदुत्व जैसा कुछ भी नहीं है. सब वैल्यू वक्त-ज़रूरत के हिसाब से मोड़ी-तरोड़ी जाती हैं. स्थिति के मुताबिक बदली जा सकती हैं. 

असल बात यह है कि भारत में रंग-बिरंगी मान्यताएं पनपी हैं, रंग-बिरंगे मत-मतान्तर पनपे हैं. और मैंने अपने जीवन-काल में भी यह खूब देखा है. 

आज राम को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे भारत सारा-का-सारा बस राम-मयी हो. लेकिन ऐसा नहीं है. वाल्मीकि रामायण पढ़िए. जब राम पिता के आदेश पर वनवास के लिए निकलते हैं तो रस्ते में उन्हें जबाली मिलता है, जो राम के इस तरह पिता के आदेश को मानने का तार्किक खंडन करता है. बड़े ही यथार्थवादी और मजबूत तर्क पेश करता है. लेकिन राम उसे अपना बाहु-बल दिखा भगा देते हैं.

रावण को मारने के बाद जब सीता राम के पास लाई जाती है तो राम कहते हैं कि उन्होंने रावण को सीता के लिए नहीं मारा बल्कि अपने सम्मान की खातिर मारा है और सीता को कहीं भी जाने को कहते हैं. वो तो उसे भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव आदि के पास जाने को भी कहते हैं. 

इस पर सीता के उदगार पढने लायक हैं. वो राम का रामत्व झाड़ कर रख देती हैं. एक स्वाभिमानी नारी के उदगार हैं वो. 

राम के सीता की अग्नि-परीक्षा लेना का और फिर सीता को वनवास भेजने का हमेशा ही विरोध होता रहा है. 

आपको दिल्ली के रानी झाँसी रोड पर स्थित 'दिल्ली प्रेस' की कई किताब-कई लेख मिल जायेंगे इस विषय पर. 

ललई सिंह यादव हैं कोई, उनकी लिखी 'सच्ची रामायण की चाबी' भी चर्चित है. 

इसके अलावा रंग-नय्कम्मा की 'रामायण-एक विषवृक्ष' भी उल्लेखनीय है. 

मैंने खुद राम और रामायण से जुडी आम मान्यताओं के खिलाफ कई लेख लिखे हैं. 

इतनी भिन्नता के बावजूद इन सब मान्यताओं को एक लड़ी में पिरोने का प्रयास क्यों किया जा रहा है? आइये देखते हैं. 

दुनिया में मुख्यतः दो तरह के धर्म माने जाते हैं. एक अब्राहमिक और दूसरे नॉन-अब्राहमिक. यहूदी, ईसाई और मुस्लिम अब्राहमिक धर्म हैं और बाकी सब नॉन-अब्राहमिक.


आज भारत की नॉन-अब्राहमिक कम्युनिटी को हिंदुत्व के नाम पर, हिन्दू धर्म के नाम पर और सनातन के नाम पर एक-जुट करने का प्रयास किया जा रहा है. और यह काम पिछले नब्बे साल से किया जा रहा है. कर रहा है आरएसएस. लेकिन पिछले सात-आठ सालों से ही आरएसएस को कामयाबी हासिल हुई. एक बड़ा कारण है इन्टरनेट. अब इन्टरनेट की वजह से इस्लाम की हिंसक और ईसायत की चालबाज़ी से भरी धर्म परिवर्तन नीतियां सामने आने लगीं. अल्लाह-हो-अकबर के नारे के साथ जगह-जगह किये जाने वाले बम विस्फोट पूरी दुनिया हिला देते हैं अब. नतीजा सामने है. तमाम तरह की असफलताओं के बावजूद मोदी सरकार कायम है. 


आरएसएस का बड़ा आग्रह है कि नॉन-अब्राहमक जन पुरातनता से जुड़े रहें. पूर्वजों से जुड़े रहें. पूर्वजों की मान्यताओं से जुड़े रहें. इन सब मान्यताओं को सनातन कहे जाने के पीछे यह भी वजह है. सनातन मतलब , भैया ये सब मान्यताएं सिर्फ तुम्हारे बाप-दद्दों के ही काम की नहीं थीं बल्कि तुम्हारे काम की भी हैं, तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के भी काम की है. लेकिन यह सब बकवास है. पूर्वजों से बस सीखना होता है न कि उनकी मान्यताओं से जुड़े रहना होता है. काम का हो तो सीखो, वरना विदा करो. बात खत्म. इसमें उनसे हमेशा जुड़े रहने का क्या कारण? उनकी मान्यताओं से बंधे रहने का क्या औचित्य? हमारी जडें भूत-काल में नहं भविष्य में होनी चाहियें. हमें पूर्वजों से बंधना नहीं है, बल्कि भावी पीढ़ियों जुड़ना है. वर्तमान में जीना है लेकिन भविष्य-उन्मुख हो कर. भूतकाल से सीखना है. 

लेकिन मोदी भक्त तो दिन-रात लगे हैं. अगर मुस्लिम के पास अल्लाह है तो इनके पास राम हैं. अल्लाह-हू-अकबर के जवाब में जय -श्री-राम हैं. काबे के जवाब में अयोध्या का राम-मन्दिर तैयार किया जा रहा है. नमाज़ के मुकाबले में आरएसएस की सुबह-शाम की शाखाएं नॉन-स्टॉप चल ही रही हैं. 


ज़्यादा प्रयास अब्राहमिक धर्मों के खिलाफ है. लेकिन इनकी खिलाफत करते-करते भारतीय मनीषा को इनके जैसा बनाया जा रहा है. 

भारतीय ख़ास परवाह नहीं करता था कि कौन उसकी मान्यताओं का मजाक उड़ा रहा है. कौन उनकी कम्युनिटी पर चुटकले बना रहा है. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब पूरा प्र्यास किया जा रहा है कि भारत के नॉन-अब्र्हमकों को मुसलमानों जैसा कट्टर बना दिया जाये. 


यहाँ ओशो जैसे मुक्त-विचारक हुए, PK जैसी फिल्में बनी, सरिता-मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में अनेक खुले लेख लिखे गए. यह सब आज के माहौल में पनपना पहले के मुकाबले में काफी मुश्किल है. आज तो संघी आंधी से चली हुई है, इस आंधी में फंसे लोग ठीक से न कोई चीज़ सुनना चाहते है, न समझना.

आज पूरा प्रयास किया जा रहा है कि तथा-कथित हिंदुत्व को इस्लाम जैसा बना दिया जाये. जरा किसी ने चूं-चां की तो उसका चूं-चूं का मुरब्बा बना दिया जाये, उसकी चटनी पीस दी जाये.

मेरा निष्कर्ष यह है कि हिन्दू धर्म जैसा कुछ है ही नही. और न ही सनानत जैसा कुछ है. और यह हिंदुत्व भी कुछ  नही है। इसे होना ही है  तो सिंधुत्व होना चाहिए. लेकिन फिर तो सिंधी ही सिंधुत्व के वाहक होने चाहिए। असली वाहक। लेकिन तथा-कथित हिंदुत्व में तो गंगा-यमुना से लेकर दक्षिण के द्रविड़ कल्चर तक है। इसमें कुछ भी लगा बंधा नही है। न कोई एक किताब। न कोई एक तरह की मान्यता। यह ऐसी खिचड़ी है जिसमें आप स्वादानुसार मसाले और मसले घटा बढ़ा सकते हैं। भारत में तो  विभिन्न मान्यताएं पनपी हैं, और हैं. और यही भारत की गरिमा बढ़ाता है. यह भारत का अवगुण नहीं है, यह गुण है. और भारत को ऐसा ही रहने देना चाहिए. और यही  भारत के लिए, दुनिया के लिए शुभ है.

इस्लाम और ईसायत का मुकाबला करना ज़रूरी है लेकिन इसके लिए इनके जैसा ही बनने की कोई ज़रूरत नहीं है. इसके लिए तथा-कथित हिन्दू समाज को तार्किक तथा वैज्ञानिक बुद्धि का बनाये जाने की ज़रूरत है न कि इनके जैसा ही अंध-विश्वासी, इनके जैसा हिंसक, इनके जैसा पोंगा-पंथी. 

हमें आरएसएस की आंधी नहीं, तर्क की आंधी चलाने की ज़रूरत है. हमें राम मन्दिर की ज़रूरत नहीं है, ऐसे मन्दिरों की ज़रूरत है, जहाँ ध्यान, योग और तर्क-वितर्क हो सके. ऐसी जगहों की ज़रूरत है जहाँ रामायण, गुरु ग्रन्थ, महाभारत, पुराण के पक्ष-विपक्ष में बोलने वाले लोगों का स्वागत हो सके. 

और जो समाज, मसलन मुस्लिम समाज, कुरान पर, अल्लाह पर, मोहम्मद साहेब पर खुली बहस पर एतराज़ करें तो इनका खुल के सोशल बायकाट करें. 

कोई व्यक्ति, कोई किताब, कोई मान्यता तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श से परे नहीं होनी चाहिए. 

दिनों में एक नयी संस्कृति पनपते देखेंगे आप. अभी जो है वो मात्र विकृति है.

आप देख हैरान हो जायेंगे कि यह समाज कैसे तरक्की करता है. ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट होगा. 

सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का एक लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.

सो सवाल हो तो ज़रूर पूछियेगा. 

इसी लेख का यदि वीडियो देखना हो तो आप यहाँ देख सकते हैं तथा साथ में विभिन्न कमेंट भी पढ़ सकते हैं.

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नमन...तुषार कॉस्मिक

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