जेम्स बांड हूँ मैं
   कैसे?   सिम्पल है, समझाता हूँ.  मैं जिस माहौल में रहता हूँ, उसकी सोच कुछ और है और मेरी सोच कुछ और है. वो उत्तर जाता है तो मैं दक्षिण. वो पूरब जाता है तो मैं पश्चिम. मैं तो रहता भी पश्चिम विहार, दिल्ली में हूँ.  लेकिन क्या मैं अपनी सोच इस माहौल में ज़ाहिर करता हूँ? जी करता हूँ, लेकिन हर वक्त नहीं, हर जगह नहीं.   अक्सर तो मैं माहौल की सोच में शुमार हो जाता हूँ. ऊपर-ऊपर से ही सही, लेकिन हो जाता हूँ.   मिसाल के लिए मैंने कांवड़ यात्राओं के लिए शिविरों में अपनी उपस्थिती दर्ज़ करवाई हैं जबकि इनको मैं परले दर्ज़े का अहमकाना काम मानता हूँ. अरे यार, मन की शक्ति पैदा करनी है तो मैराथन में हिस्सा ले लो, पहाड़ चढ़ लो, नदियाँ साफ़ कर लो, तालाब खोद लो, कुछ भी और कर लो. बहुत कुछ किया जा सकता है. रोज़ लोग नए-नए कारनामे करते ही हैं.   खैर. मेरी मौसी के बड़े बेटे हैं, उम्र-दराज़ हैं, हर साल दिल्ली के रिज रोड़ पर कांवड़ियों के लिए बड़ा इन्तेजाम करते हैं. हमें बुलाते रहे हैं और हम जाते भी रहे हैं.  अब यह क्या है? एक तरफ विरोध, दूजी तरफ हाज़िरी. यह तो गोरख-धंधा हो गया. लेकिन याद रखें, जेम्स बांड हूँ मैं. दुश्मन देस. ...