Thursday 28 September 2017

भारत मंदी के कुचक्र में

यशवंत सिन्हा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है जेटली के खिलाफ.
लोग मोदी के सम्मोहन से बाहर आ रहे हैं.
सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने भी ऐसा ही कहा था...लेकिन लोग उसे क्रैक भी मानते हैं. लेकिन मामला है सीरियस. 
मोदी ने बेडा-गर्क कर दिया है मुल्क का.
अर्थ-व्यवस्था खराब कर दी है नोट-बंदी और GST से.
उनके खुद के लोग मानते हैं अब तो.
भारत मंदी के कुचक्र में है.
सरकारी बैंक सब घाटे में हैं.
माल्या जैसों को भगा जो दिया.
अभी राज ठाकरे ने भी मोदी को खूब बजाया है.
उसने कहा कि मोदी ने मीडिया खरीद कर चुनाव जीता है.
अब जब जहाज डूबने की तरफ है तो सब निकल रहे हैं.
अगला चुनाव ज़रूरी नहीं मोदी जीत पाए....बाकी वक्त बताएगा.
असल में उसके पास कोई तैयारी नहीं थी.
कोई प्लान नहीं था.
और आज भी नहीं है.
जब तक समाजिक बदलाव न हों, कैसा भी आर्थिक, राजनीतिक बदलाव बहुत फायदेमंद नहीं होगा.
कुछ समय तक जो फायदेमंद लगेगा भी, वो भी लम्बे समय में नुक्सान-दायक साबित होगा.
हम जो राजनेता बदलने से सोचते हैं कि देश बदल जाएगा, ऐसा नहीं होगा.
बीमार समझ रहा है कि बीमारी कहीं और है.
वो सोच के, समझ के राज़ी ही नहीं कि बीमारी खुद उसमें है.
जब तक वो नहीं सुधरेगा, तब तक न राजनेता सुधरेगा, न अर्थ-व्यवस्था सुधरेगी.
समाज समझता ही नहीं कि कांग्रेस या भाजपा के आने-जाने से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ेगा, जब तक सामजिक मान्यताओं में बदलाव नहीं आता. 

कोई समाज कैसे समृद्ध है, कैसे सुव्यवस्थित है?
समृद्धि, सुव्यवस्था कोई आसमान से गिरी वहां?
कोई राजनेताओं ने लाई?
नहीं.
जब तक किसी भी समाज के नेता समाज से टकराने की हिम्मत नहीं करते, छित्तर खाने की हिम्मत नहीं करते, समाज में बदलाव नहीं आ सकता, समाज में समृद्धि नहीं आ सकती, सुव्यवस्था नहीं आ सकती.

आप ले आओ बेस्ट आर्थ-शास्त्री, क्या होगा?
वो अगर कोई ऐसी नीति बनाता है जो समाज की जमी-जमाई मान्यता के विरोध में है और कोई समाज की इन मानयताओं के खिलाफ जाना नहीं चाहता तो कैसे होगा सुधार?
कुछ नहीं होगा.
चाहे ले आओ आप हारवर्ड वाले या हार्ड वर्क वाले या फिर नोबेल विजेता.
होना कुछ नहीं.
सो मित्रवर, कुछ नहीं होने वाला भारत में फिलहाल, लम्बी औड़ो और सो जाओ.

नमन.... आपका प्यार कॉस्मिक तुषार

Thursday 21 September 2017

मैंने संघ क्यों छोड़ा

संघ मतलब आरएसएस, मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. बात बठिंडा(पंजाब) की है. मुस्लिम या ईसाई को छोड़ शायद ही कोई लड़का हो जो अपने लड़कपन में एक भी बार संघ की शाखा में न गया हो....शायद मैं आठवीं में था.....ऐसे ही मित्रगण जाते होंगे शाखा...सो उनके संग शुरू हो गया जाना.....अब उनके खेल पसंद आने लगे...फिर शुरू का वार्म-अप और बहुत सी व्यायाम, सूर्य नमस्कार, दंड (लट्ठ) संचालन बहुत कुछ सीखा वहां........जल्द ही शाखा का मुख्य शिक्षक हो गया..वहीं थोड़ा दूर कार्यालय था ...वहां बहुत सी किताबें रहती थी.......पढ़ी भी कुछ......संघ की शाखा का सफर जो व्यायाम और खेल से शुरू हुआ वो संघ की विचारधारा को समझने की तरफ मुड़ गया. लेकिन दूसरों में और मुझमें थोड़ा फर्क यह था कि मैं सिर्फ संघ की ही किताबें नही पढ़ता था, उसके साथ ही वहां बठिंडा की दो लाइब्रेरी और रोटरी रीडिंग सेंटर में बंद होने के समय तक पड़ा रहता था.......बहुत दिशायों के विचार मुझ तक आने लगे. बस यहीं आते आते मुझे लगने लगा कि संघ की विचारधारा में खोट है. मैं अक्सर सोचता, यह राष्ट्रवाद, यह अपने राष्ट्र पर गौरव करना, दूसरे राष्ट्रों से बेहतर समझना, विश्व-गुरु समझना, यह तो सरासर घमंड है, ऐसा ही कोई जापानी भी समझ सकता है, ऐसा ही कोई भी अन्य मुल्क का वासी भी समझ सकता है लेकिन यह तो गलत है.....और फिर भारत तो मुझे कोई महान लगता भी न था...सब जानते थे कि अमरीका, इंग्लैंड और कितने ही मुल्क हम से आगे थे....फिर काहे की महानता? किस्से-कहानियों की? इतिहास की? पहली बात तो इतिहास का सही-गलत कुछ पता नही लगता..फिर लग भी जाए तो वो सिर्फ इतिहास है..वर्तमान नही.....मुझे संघ की अपने पूर्वजों पर, अपनी पुरातनता पर गर्व करने वाली बात भी कभी न जमती थी...मुझे हमेशा लगता कि यदि हम इतने ही महान थे तो फिर अंग्रेजों के गुलाम ही क्यों-कर हुए? मुझे लगता था कि खुद पर खोखला गर्व करने से बेहतर है अपनी कमियों को स्वीकार करना, बल्कि खोजना ताकि हम खुद को सुधार सकें. और फिर मुझे लगता था कि संघ हिन्दुओं को जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि पर थोपना चाहता है......मेरा परिवार हिन्दू-सिख है.........तो संघ तो सिक्ख को भी हिन्दू कहता था जबकि बाबा नानक तो जनेऊ को इनकार कर चुके थे अपने बचपन में.....लगा यह तो ज्यादती है ...यह गलत है.....जो लोग हिन्दू मान्यताओं के सरासर विरोध में थे, उनको भी हिन्दू कहा जा रहा था......और फिर साफ़ समझ आया कि संघ भारत की हर पुरातन रीत-हर रिवाज़ का पोषक है.......संघ समाज में कोई वैज्ञानिक विचारधारा का पोषक नहीं है, यह तो बस चाहता है कि समाज पर हिन्दू पुरातनपंथी हावी रहे. संघ बाबा नानक को भी महान कहता था और हिन्दू मान्यताओं को भी...अरे भाये, किसी एक तरफ तो आओ, या तो कहो कि जनेऊ बकवास है, या तो कहो कि सूरज को पानी देना गलत है या फिर कहो कि बाबा नानक गलत हैं...न, दोनों ठीक हैं, दोनों महान हैं और यही है हिंदुत्व.....जिसका न मुंह, न सर, न पैर. जल्द ही समझ आ गया कि यह हिंदुत्व की धारणा संघ की बकवासबाजी से ज्यादा कुछ नहीं....."जो इस भारत भूमी को अपनी पुण्य भूमी मानता हो, यहाँ के पूर्वजों को अपने पूर्वज मानता हो, यहाँ कि संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता हो, वो हिन्दू है." क्या बकवास है? अरे भाई, हम तो इस धरती को अपनी भूमी मानते हैं, हम तो पूरी इंसानियत को अपने पूर्वज मानते हैं, कौन कहाँ से आया था, कहाँ चला गया, किसे पता है? और यहाँ कि संस्कृति को ही अपना मानते होने से क्या मतलब? शेक्सपियर हमारी लिए क्यों अपना नहीं हो और कालिदास ही क्यों अपना हो? मात्र इसलिए कि शेक्सपियर भारत का नही था. "हर आविष्कार पहले ही भारत में हो चुका था, हमारे ग्रन्थों में लिखा था".....मैं अक्सर सोचता कि विज्ञान कोई रुक थोड़ा ही गया है.....जहाँ तक हो चुका हो चुका, अब कर लो दुनिया को अचम्भित, अपने ग्रन्थ उठाओ और ताबड़-तोड़ आविष्कार कर दो....और दिनों में ही भारत को अमरीका से भी आगे बना दो....चलो और कोई न सही लेकिन संघ के लोग तो संस्कृत समझने वाले थे, वो तो ऐसा आसानी से कर ही सकते थे. और भी बहुत सी बातें... जल्द ही समझ आया कि संघ सिर्फ व्यायाम कराने के लिए, खेल खिलाने के लिए नही बनाया गया और न ही सिर्फ ट्रेन दुर्घटना में लोगों को बचाने के लिए और न सिर्फ बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए...नही...संघ की अपनी एक थ्योरी है, वो भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को अच्छी लगेगी लेकिन असल में वो थ्योरी उसी समाज के खिलाफ है, उसी के नुक्सान में है. किसी भी समाज का सही खैर-ख्वाह वो व्यक्ति या वो संस्था होती है जो उस समाज की कमियां बताने की हिम्मत कर सके...जो उसके अंध-विश्वास दूर करने का प्रयास करे....जो उस समाज में वैज्ञानिक सोच कैसे बढ़े इसकी चिंता लेता हो.........लेकिन यह सब करने के लिए तो समाज की नाराज़गी झेलने पड़ती है, समाज गुस्सा होता है कि उसे जगाया क्यों जा रहा है...... संघ ही हिन्दू समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है क्योंकि संघ हिन्दू समाज के अंध-विश्वासों का पोषक है, क्योंकि संघ हिन्दू समाज में वैज्ञानिकता आने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. संघ ने हिन्दू समाज का बहुत नुक्सान किया है इसके जर्जर ढाँचे को ठोक-पीट कर गिरने से बचा रखा है. इसे गिरने देते, नया समाज खड़ा होता. बस पुरखों की बकवास को पूजते रहेंगे. मैं पुरखों से सिर्फ सीखने में विश्वास रखता हूँ. मेरे नज़र में कोई भी कहीं भी गलत-सही हो सकता है, पुरखे भी. सो उनको वैसा ही सम्मान या असम्मान देता हूँ. मिसाल के लिए पृथ्वीराज चौहान ने माफ किया गौरी को तो यह कोई अक्ल का काम नहीं था. फिर पुरखे कोई इसी मुल्क में पैदा हुए जो, वो ही नहीं है हमारे. जिसने हमें बल्ब दिया, हमारा घर रोशन किया, हम उसके भी अहसान-मंद हैं. वो भी हमारा पुरखा है. संघ का इस्लाम के लिए स्टैंड आंशिक तौर पर सही है. वो जो लोभ से या डर से या ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कराए उसके खिलाफ है, वो सही भी है. इस्लामिक आक्रमण का विरोध किया जाना चाहिए था लेकिन वो किसी और ढंग से हो सकता था. उसके लिए तार्किकता फैलानी चाहिए. क्रिटिकल थिंकिंग का नारा बुलंद करना चाहिए न कि "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" का. यह सब दसवीं-ग्यारवीं क्लास तक आते समझ आ गया था. सो तभी संघ छोड़ दिया. कभी-कभी याद आ जाता है शरद-पूर्णिमा की रात को शाखाओं का इकट्ठा होकर खीर खाना.......संघ कार्यालय में मुफ्त ट्यूशन पढ़ाया जाना......वहीं पर सहभोज का आयोजन., जिसमें सब अपने घर से खाना लाते थे और मिल बाँट खाते थे........वो कसरतें, वो खेल.........सब बढ़िया.....लेकिन वो तो सतही था......भीतरी तो थी संघ की विचारधारा जो बिलकुल ही सतही दिखी मुझे. और आज सालों बाद, मेरा वो संघ को छोड़ने का कदम मुझे और भी ठीक प्रतीत होता है. शेयर कर सकते हैं, चोरी नही. नमन..तुषार कॉस्मिक

बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया

कोर्ट भरे पड़े हैं फॅमिली प्रॉपर्टी डिस्प्यूट केसों से....पार्टीशन सूट.
जिस भाई-बहन के पास कब्जा होता है, मज़ाल वो दूजे भाई-बहन को हिस्सा देने को आराम से राज़ी हो जाये.
इसमें क्या हिन्दू-क्या मुसलमान? धन का अपना ही मज़हब है....वहां हिन्दू मुस्लिम सब बराबर है.

When it's the question of money everybody is of the same religion.

सत्य

जितना बड़ा मुद्दा 'भगवान' इस दुनिया के लिए रहा है और है, उतना ही बड़ा मुद्दा ‘सत्य’ भी रहा है और है. चलिए मेरे संग, थोड़ा सत्य भाई साहेब के विभिन्न पह्लुयों पर थोड़ा गौर करें:----- 1. “सदा सत्य बोलो” क्यों बोलो भाई? अगर भगत सिंह पकड़े जायें अंग्रेज़ों द्वारा और अँगरेज़ पूछे उनके साथियों के बारे में तो बता ही देना चाहिए, नहीं? सदा सत्य बोलो. इडियट वाली बात. जीवन जैसा है, सदा सत्य बोलना ही नहीं चाहिए. सत्य और असत्य का प्रयोग स्थिति के अनुसार होना चाहिए. बहुत बार असत्य सत्य से भी कीमती है. एक चौराहे पर बुड्डा फ़कीर बैठता था. बड़ा नाम था उसका. फक्कड़. बाबा. लोग यकीन करते थे लोग उसके कथन पर. एक रात बैठा था अपनी धुन में धूनी रमाये. अकेला. एक जवान लड़की बदहवास सी भागती निकली उसके सामने से. और दक्षिण को जाती सड़क पर कहीं खो गई. कुछ ही पल बाद इलाके के जाने-माने चार बदमाश पहुंचे वहां. चौक पर ठिठक गए. तय नहीं कर पाए किधर को जाएँ. फिर बाबा नज़र आया. बाबा का सब सम्मान करते थे. बदमाश भी. उन्हें पता था बाबा झूठ नहीं बोलता. बाबा से पूछा, “लड़की किधर गयी?” बाबा ने उनको उल्टी दिशा भेज दिया. लड़की बच गई. अब क्या कहेंगे आप? बाबा का झूठ सच्चा था या नही? सत्य-असत्य का फैसला मात्र बोले गए शब्दों से नहीं होता. किस स्थिति में, क्या बोला गया, उस सबको ध्यान में रख कर होता है. युधिष्ठिर ने जो कहा, “अश्व्थाथ्मा मारा गया, नर नहीं हाथी”. इसे अर्द्ध-सत्य माना जाता है लेकिन यह अर्द्धसत्य नहीं पूर्ण असत्य है. किस मंशा से, क्या बोला जा रहा है, किस स्थिति में बोला जा रह है, किसे सुनाने के लिए-क्या पाने के लिए बोला जा रहा है, सब माने रखता है. असल में झूठ बोलना एक कला है. कहते हैं सबसे बढ़िया झूठ वही बोलता है जो सच बोलता है. मतलब जो अपने झूठ को सच में कहीं इस तरह से मिक्स कर देता है कि वो जल्दी से पकड़ में ही नहीं आता. तो सदा सत्य नहीं बोलिए. सत्य बोलिए. सच्चे झूठ बोलिए. विचार से बोलिए. विश्वास से बोलिए. 2. "सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम" सत्य बोलो और प्रिय बोलो. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. लो कल्लो बात. यह एक और बकवास है. अगर आप को अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना है तो हो गया आपके सत्य का राम-नाम-सत्य. सत्य ने कोई ठेका नही ले रखा प्रिय लगने का. और बहुत बार हथौड़े की तरह सत्य की चोट पड़नी ही चाहिए, लगता रहे अप्रिय. मानव स्वभाव है कि उसे सीधा-सीधा अपने प्रतिकूल मालूम पड़ने वाला सत्य अक्सर हज़म नहीं होता लेकिन बहुत बार बाद में वही अमृत-तुल्य भी मालूम होता है. आवारा लड़का अपने दोस्तों के साथ मिल किसी लड़की का दुप्पट्टा खींच रहा था. लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने ही वाला था कि उधर से उस लड़के का बाप गुज़रा. बाप ने लड़के को भरे बाज़ार में उसके दोस्तों के बीच खींच कर एक लाफा मारा और कहा, “अबे, वो लड़की रिश्ते में तेरी बहन लगती है.” लड़के को बाप पर बहुत गुस्सा आया, उसके तन-मन में बाप के खिलाफ आग लग गई. लेकिन फिर भी बाप की शर्म रखनी पड़ी. उसे वहां से हटना पड़ा. बाद में लड़के को पता लगा कि वो लड़की दूर-दूर तक उसकी बहन नहीं लगती थी. बाप ने झूठ बोला था. यहाँ बाप ने न तो सत्य बोला और न ही प्रिय बोला लेकिन यह “अप्रिय असत्य” लाख “प्रिय सत्यों” से बेहतर है. आई समझ में बात? 3. “सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं” यह भी सरासर बकवास है. जीवन में जीत हार सत्य-असत्य आधार पर नहीं होती. यहाँ सत्य-असत्य कोई भी जीत जाता है. और कोई भी परेशान हो सकता है. कितने ही लोग कोर्ट के चक्कर काटते मर जाते हैं सारी उम्र और उनको न्याय नहीं मिलता. 4. "सत्यमेव जयते" सत्यमेव जयते भारत का 'राष्ट्रीय आदर्श वाक्य' है, जिसका अर्थ है- "सत्य की सदैव ही विजय होती है". यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है लेकिन यह नितांत असत्य कथन है. मेरा जानना तो यह है कि जो जीत जाता है, वो तो सत्य हो ही जाता है. "जयमेव सत्ये " विजेताओं को सच्चा और सही मान लिया जाता है क्योंकि इतिहास उनकी अवधि में लिखा जाता है, उनकी देखरेख में लिखा जाता है. एक उदाहरण. कांग्रेस ने 1 9 47 के बाद भारत में अधिकांश समय पर शासन किया है तो आपको इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, महात्मा गाँधी के नाम पर सड़क, पार्क, स्थान, योजनाएं मिलेंगी. जैसे कि जगदीश बसु, सी.वी. रमन, सूर्यसेन, भगत सिंह ने भारत को लगभग कुछ नहीं दिया था। एक और उदाहरण, दिल्ली में दो रिंग रोड़ हैं. कांग्रेस ने आंतरिक रिंग रोड को नाम दिया महात्मा गांधी रोड़. और बीजेपी ने बाहरी रिंग रोड को नाम दिया हेडगेवार मार्ग. हेडगेवार भाजपा की मां आरएसएस के जन्मदाता थे. डॉक्टर केशव राव बली राम हेडगेवार. और गांधी आरएसएस जैसी मानसिकता रखने वाले द्वारा मारे गए थे और कांग्रेस ने हमेशा आरएसएस का विरोध किया है. अब कौन सही, सच्चा है? समझ लीजिये, सच्चा कोई भी हो सकता है जीतने वाला भी या हारने वाला भी. किसी की जीत हार से उसके सच्चे-झूठे होने का प्रमाण नहीं मिलता. जांचें, फिर से जांचें.

5. एक कंसेप्ट है जिसे 'परसेप्शन' कहते हैं. अब यह क्या है? परसेप्शन का अर्थ है अनुभूति लेकिन यह पूर्व स्थापित नज़रिये से प्रभावित रहती है और परसेप्शन सही हो भी सकता है, उसमें सत्य हो भी सकता है और नहीं भी. लेकिन दिक्कत यह है कि सबको अपना परसेप्शन सत्य ही लगता है. सबको अपना कुत्ता टॉमी और दूसरे का कुत्ता कुत्ता दीखता है. सब डिफेन्स मिनिस्ट्री बनाते हैं, अटैक मिनिस्ट्री कोई नहीं बनाता, फिर भी अटैक होते हैं और कोई दूसरे ग्रह से नहीं होते. सबको अपना धरम, धरम और दूसरे का भरम लगता है. तो जितने लोग, उतने नज़रिए, उतने सत्य और ऐसा इसलिए कि नज़रिए में वैज्ञानिकता नहीं होती, बस विश्वास हैं, मान्यताएं हैं. तो सावधान हो जायें, हो सकता है कि आपका परसेप्शन असत्य हो. 6. राम नाम सत्य है"/ "सतनाम वाहेगुरु" किसी भी नाम में कुछ भी सत्य नहीं है......हर नाम काम चलाऊ है, चाहे आप राम कहें, चाहे वाहेगुरु.......व्यक्ति या वस्तु के नाम से सत्य का क्या लेना देना? हर नाम, मात्र नाम है..........नाम का अपने आप में सत्य, असत्य से कोई मतलब नहीं ....कोई भी नाम अपने आप में सत्य या असत्य कैसे हो सकता है? एक कोल्ड ड्रिंक का नाम आप COKE रखें या PEPSI, इसका सत्य असत्य से क्या मतलब, यह सिर्फ नाम है...नाम मात्र. आखिर में थोड़ा अंग्रेज़ी तड़का. Names are just for the name sake. There is nothing truth or untruth in the name itself. Be it any name. नमन...तुषार कॉस्मिक

Tuesday 12 September 2017

अब जैसा समाज है ऐसा नहीं है कि कोई बुद्धू है और कोई चतुर-चालाक उसे बेवकूफ बना जाता है. नहीं. आज सभी चतुर हैं, चालाक है. असल में ज़रूरत से ज्यादा चालाक हैं. ओवर-स्मार्ट. ओवर-कलैवर. आज लड़ाई ओवर-कलैवर और ओवर-कलैवर के बीच है. बस जब अपनी दुक्की पिट जाती है तब दुनिया घटिया-कमीनी-हरामी लगने लगती है.
सवाल यह नही है कि आप मुसलमान हो कि बेईमान हो, बौद्ध हो कि बुद्धू हो, हिन्दू हो कि भोंदू हो. न. सवाल यह है कि आप सवाल नहीं उठाते. सवाल उठाना आपको सिखाया नहीं गया. बल्कि सवाल न उठाना सिखाया गया. आपकी सवाल उठाने की क्षमता ही छिन्न-भिन्न कर दी गयी. आपको बस मिट्टी का एक लोंदा बना दिया गया, जिसे समाज अपने हिसाब से रेल-पेल सके. खत्म.

Saturday 9 September 2017

कुरान-अल-अंबिया (Al-'Anbya'):22 - "यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते है." मेरी टिप्पणी,"क्या सबूत है कि अगर अल्लाह के सिवा कोई और इष्ट-पूज्य होता तो आकाश और धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती? और क्या सबूत है कि अल्लाह ही पूज्य है? और अगर यही साबित न हो तो फिर अल्लाह महान है, उच्च है, राजसन का स्वामी है, यह भी कैसे साबित होगा? असल में अल्लाह एक है और वही पूजनीय है या फिर देवी-देवता अनेक हैं और सभी पूजनीय हैं, ये सब इन्सान की कल्पनाएँ है जिन पर पूरी की पूरी सभ्यताएं मतलब तथा-कथित सभ्यताएं खड़ी हुई हैं, खड़ी हैं. सब बकवास. सबूत किसी के पास किसी बात का नहीं. सबूत किसी के पास नहीं कि कोई अल्लाह या कोई देवी-देवता हैं भी कि नहीं और हैं तो फिर उनको इंसान की पूजा-अर्चना से कोई मतलब भी है कि नहीं. बस चल रहे हैं एक दूजे के पीछे. अंधे-अँधा ठेलिया, दोनों कूप पड़न्त."

धारणायें

मुझे बैटमैन फिल्में कभी ख़ास नहीं लगी, लेकिन "डार्क नाईट" फिल्म में जोकर के डायलाग खूब पसंद आये मुझे. लगा यह जोकर तो जीवन के गहरे सत्य ही तो उगल रहा है.
अभी-अभी "मुक्ति भवन" देखी. फिर इसके रिव्यु भी देखे, बहुत सराहा गया है फिल्म को. मुझे फिल्म धेले की नहीं लगी. बस फिल्म जब काशी पहुँचती है तो वहां काशी के सीन ठीक लगे. लेकिन मुक्ति भवन नामक होटल के मेनेजर के डायलाग बहुत जमे.
एक जगह वो कहता है, "मोक्ष जानते हैं क्या होता है? मनुष्य को लगता है कि वो लहर है. लेकिन फिर जब उसे अहसास हो जाता है कि वो लहर नहीं समन्दर है, तो वो अहसास ही मोक्ष है." वाह! क्या बात है!!
ठीक ऐसे ही जीवन है. कभी कोई व्यक्ति का एक कथन सही लगता है तो कभी दूसरा बकवास. कभी कोई कहीं एक काम बहुत सही कर रहा होता है तो कहीं बहुत गलत. सो मेरी धारणाएं बहुत पॉइंटेड हैं. मैं सिर्फ मुद्दा-दर-मुद्दा धारणाएं बनाता हूँ. चाहे कोई व्यक्ति हो, किताब हो, घटना हो, फिल्म हो, कुछ भी हो.
और मेरा मानना यह है कि आपको भी ऐसा ही करना चाहिए.
नमन..तुषार कॉस्मिक

सरोजिनी नगर मार्किट

यह मार्किट दिल्ली की चंद उन मार्किट में से है, जहाँ आपको कुछ न खरीदना हो, न खरीदने लायक लगे, फिर भी जाना चाहिए. आज सपरिवार जाना हुआ. मेरी कज़न की दुकानें हैं अपनी वहां. अब उनकी कहानी भी थोड़ा समझने लायक है. दुकानों से इतना ज़्यादा किराया आता रहा है और आज भी आता है हर महीने कि उनके पूरी परिवार को कुछ भी और करने की ज़रूरत ही नहीं रही तकरीबन सारी उम्र. लेकिन उनके दोनों बेटे सही से विकसित नहीं हुए. जब संघर्ष न मिले तो भी विकास नहीं होता. कहते हैं अगर बच्चा खुद अंडा तोड़ कर बाहर निकले तो ही जी पाता है, अगर आप उसे अंडा तोड़ने की ज़हमत से बचा लें, उसे संघर्ष से बचा लें तो बहुत सम्भावना है कि वो मर जाएगा थोड़े समय में ही. अमीरों के बच्चे देखे आपने कभी? थुल-थुल, ढुल-मुल जैसे उन्हें कोई मानसिक रोग हो. खैर, कुछ-कुछ दीदी के बच्चों के साथ भी ऐसा ही हुआ. लेकिन अब वक्त के थपेड़े खा कर कुछ सम्भल गए हैं. "जो दुःख-तकलीफ मैंने देखीं, मेरे बच्चे न देखें", यह धारणा वालों को मेरे शब्दों पर गौर फरमाना चाहिए. ज़्यादा टेंशन मत लिया करो बच्चों की भैय्ये, पकने दिया करो, तपने दिया करो. खैर, बात मार्किट की. बद-इन्तेज़ामी की जिंदा मिसाल है यह मार्किट. कदम रखते ही कदम बढ़ाना मुश्किल कर देंगे चलते-फिरते दुकानदार. "सर, चश्मा ले लीजिये." "सर, बेल्ट लीजिये." "मैडम, बैग लीजिये." आप एक कदम चलेंगे, किसी न किसी विक्रेता की टांग-बाजू बीच में आन ही टपकेगी. मन कर रहा था कि पीट दूं, दो-चार को. कितना ही मना करो, लेकिन कहाँ कुछ होगा? वहां तो सैंकड़ों लोग यही काम में जुटे हैं. हर कदम. कदम-कदम. पुलिस सिर्फ नकली विजिल करती है. जैसे ही पुलिस आती है, वो लोग दिखावे के लिए चंद मिनट के लिए इधर-उधर हो जाते हैं. फिर शुरू. सब सेटिंग है, वरना मैं एक दिन में सब को दादी-नानी याद दिला दूं. और वहां मार्किट में, चलती मार्किट में, खचा-खच भरी मार्किट में NDMC के लोग झाड़ू चला रहे थे और रेहड़ी से कूड़ा उठा रहे थे. धूल उड़ाते हुए. लोगों को मुफ्त में खांसी बांटते हुए. वल्लाह! इनसे vacuum cleaner टाइप मशीन न ली गयी! ऐसी जगह के लिए भी! शाबाश! अक्ल के अंधो, मेरी दिल्ली के कौंसिलर लोगो शाबाश!!! अच्छी बात रोज़गार चल रहा है लेकिन आखिर व्यवस्था भी तो होनी चाहिए न जी. आख़िरी बात. शुरू में यह मिक्स टाइप की मार्केट थी, जहाँ सब्जी, मिठाई, फर्नीचर, कपड़ा तथा अन्य कई किस्म की दुकान-दारी थी. लेकिन अब यह मार्किट सिर्फ रेडी-मेड कपड़ों के लिए मशहूर है. किन्तु मेरी नज़र में यह अज़ीब सी मार्किट है, जहाँ आधे से ज्यादा माल सेकंड-हैण्ड होता है, सोच-समझ कर खरीदें तो शायद कुछ बढ़िया माल हाथ लग भी जाए आपके. वहां तो पानी तक ब्रांडेड नहीं मिल रहा था. Aqua-life नामक था कोई ब्रांड...बीस रुपये भी दो ...तो भी पानी बड़े ब्रांड का, अपनी पसंद के ब्रांड का नहीं मिलेगा. क्या हुआ अगर हम दारू नहीं पीते? पानी पीते हैं, वो भी अपनी पसंद के ब्रांड का. नमन.....तुषार कॉस्मिक

Friday 8 September 2017

जब तक मरे हुए पूर्वजों को बामनों के जरिये खाना-लत्ता पहुंचाने वाले भूतिए भारत में मौजूद हैं, धर्म की ध्वजा फहराती रहेगी. गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.
शेर झुण्ड में हमला करते हैं और वो भी पीछे से. यह है इनकी औकात. शेर-दिली. सो आइन्दा खुद को शेर कहने-कहलाने से पहले जरा सोच लेना.तुम तो इंसान हे बने रहो, वो ही काफी है. इडियट.

रोहिंग्या मुसलमान गो बैक

जब आप आसमानी किताब को मानते हैं, जिस में लिखा है कि जो न माने उसे मारो तो फिर आपको कोई नहीं मारेगा, यह कल्पना करना भी मूर्खता है. और यही मुसलमान को समझना है. उसे समझना है कि वो एक फसादी किताब का पैरोकार का है. उसे समझना है कि जब वो मारेगा तो उसके बच्चे भी मारे जायेंगे. जब वो बलात्कार करेगा, उसकी औरतों के साथ भी यही होगा. जब उसकी नज़र में इस्लाम को न मानने वाला काफिर है, थर्ड क्लास है, वाजिबुल-क़त्ल है तो बाकी दुनिया की नज़र में वो भी ऐसा अस्तित्व है जो मिटा देने लायक है. जब मुसलमान किसी को बम से उड़ाता है, ट्रक चढ़ा के मारता है, गोलियों से भूनता है तो यह जेहाद है लेकिन जब मुसलमान को कोई "विराधू" ( मयाँमार का मियाँ-मार बौद्ध नेता) भगा दे, मार दे तो यह उस पर ज़ुल्म है! यह नहीं चलेगा. रोहिंग्या मुसलमान के दर्द में खड़े लोगों को यह समझना ही होगा. बहुत दर्दे-दिल उमड़ रहा मेरे मुस्लिम भाईयों को..इनके मुस्लिम भाई, बहिन काटे जा रहे हैं म्यांमार (बर्मा) में....च.च.च......वैरी सैड! यही दर्दे-दिल कब्बी तब न उमड़ा जब "अल्लाहू-अकबर" के नारे के साथ बम बन के दुनिया के किसी भी कोने में आम-जन को उड़ा दिया जाता है, जब कहीं भी ट्रक चढ़ा दिया जाता है, कहीं भी गोलियों की बरसात कर दी जाती है. सो मेरा स्टैंड साफ़ है, मुझे हमदर्दी है रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति, इसलिए नहीं कि उनको मारा जा रहा है, इसलिए कि वो मुसलमान हैं. ये जो तथा-कथित बड़े-बड़े वकील रोहिंग्या के पक्ष में खड़े हैं न इनको चाहिए रोहिंग्या को अपने घरों में बसा लें. चालीस हज़ार ही तो हैं. ये कब चालीस लाख हो जायेंगे तुम्हें पता भी न लगेगा. भारत पहले ही जनसंख्या के दबाव से त्रस्त है और भर्ती कर लो. पूरी दुनिया से कर लो भर्ती. इडियट. जनसंख्या घटानी है कि बढ़ानी है? इडियट. हमारे कानूनों को हमारे खिलाफ़ प्रयोग किया जा रहा है मूर्खो, समझ लो. कानून में धार्मिक आज़ादी लिखी है, लेकिन समझ लो कि इस्लाम कोई धर्म नहीं है, यह पूरी सामाजिक, कानूनी व्यवस्था है, यह छद्म Militia है. इनको समझ नहीं आ रहा कि पूरी दुनिया से मुसलमान को ही क्यों खदेड़ा जा रहा है? अमेरिका में ट्रम्प क्यों जीत गया? चूँकि उसने मुस्लिम को खदेड़ने की खुल्ली हुंकार भरी. पूरी दुनिया को इस्लाम का खतरा समझा आ रहा है, यहाँ के इन सेक्युलर-वादियों को समझ नहीं आ रहा. अबे, सेक्युलर उसके साथ हुआ जाता है, जो खुद सेक्युलर हो. इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम न सिर्फ एक-देव-वादी है बल्कि एक ही कल्चरवादी भी है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है. फिर से लिख रहा हूँ, "इस्लाम को अपने चश्मों से नहीं, इस्लाम के चश्मे से देखो, तब समझ आएगा कि वो किसी मल्टी-कल्चर को नहीं मानता है. इस्लाम सिर्फ इस्लाम को मानता है." और उससे होता यह है कि इस्लाम जरा से पॉवर में आ जाए...चाहे वो पॉवर जनसंख्या की वजह से ही हो.....तो इस्लाम बाकी सब तरह की मान्यता वालों की ऐसी-की-तैसी कर देता है. सरमद, मंसूर, दारा शिकोह के साथ जो हुआ, वो ही आज बंगला देश के ब्लोग्गरों के साथ होता है, सरे-आम काट दिए जाते हैं. उससे डेमोक्रेसी, सेकुलरिज्म, फ्री-थिंकिंग सब खत्म हो जाती है. "वसुधैव कुटुबुकम" याद दिलाने वाले रवीश कुमार जी समझ लें, इस्लाम भी "वसुधैव कुटुबुकम" में यकीन रखता है लेकिन तभी जब सब मुसलमान हो जाएँ. सो भुलावे में मत आयें. रोहिंग्या वहीं भेजे जाएँ, जहाँ से वो आये हैं. ज्यादा हमदर्दी है अगर किसी क़ानून-बाज़ को इनसे तो म्यांमार में जाकर केस लड़ें इनके लिए, ताकि सू-ची इनको वापिस लें, काहे दूसरे मुल्कों पर बोझ डाल रही हैं. या फिर इस्लामिक मुल्कों में जा कर केस लड़ें ये कानून-वीर, ताकि ये मुल्क रोहिंग्या मुसलमान को अपने यहाँ रखें, वो मुसलमान बिरादर हैं आखिर. उनकी अपनी कौम. उम्मत. मेरी सुप्रीम कोर्ट श्री को एक सलाह है. वो चाहे तो आम जन से भारत में वोटिंग करवा ले. #Rohingya को रखना है या नहीं. वो बेस्ट है. कल न सरकार पर कोई दोष और न ही कोर्ट श्री पर. लेकिन ऐसा होगा? मुझे लगता नहीं. विरोध करने वाले मोदी सरकार का इस मुद्दे पर विरोध करते रहेंगे, जिसका फायदा भाजपा सरकार को मिलेगा ही, चूँकि हिन्दू जो कि एक बड़ा तबका है भारत में, उसे दिख रहा है कि जबरदस्ती मुसलमान को थोपा जा रहा है मुल्क में. इसका जवाब देगा, वो वोटिंग में. सो जो मोदी सरकार का विरोध कर रहे हैं इस मुद्दे पर, असल में वो मोदी सरकार का ही फायदा कर रहे हैं. नमन...तुषार कॉस्मिक

फोटो....फिल्म...ज़िन्दगी

फोटो देखता हूँ तो उसके इर्द-गिर्द क्या है, बैक-ग्राउंड क्या है, इस पर भी बहुत ज्यादा ध्यान देता हूँ. मैं फोटो को पूरा देखता हूँ. पीछे तार पर टंगा कच्छा, दीवार पर पान की पीक, उखड़ा हुआ प्लास्टर, सफेदी की पपड़ियाँ या फिर उगता सूरज, बहती पहाड़ी नदी, दूर तक फैला समन्दर. सब. बहुत बार फोटो जिसकी है वो शायद खुद को ही दिखाना चाहता है, बैक-ग्राउंड पर उसका ध्यान ही नहीं जाता. कई बार वो सिर्फ बैक-ग्राउंड ही दिखाना चाहता है लेकिन मैं फोटो उसकी चाहत के अनुसार कभी भी नहीं देखता. मैं पूरी फोटो देखता हूँ, अपने हिसाब से देखता हूँ. फिल्म भी ऐसे ही देखता हूँ. फिल्म की कहानी, करैक्टर तो देखता ही हूँ, फिल्म की कहानी कहाँ बिठाई गई है, वो बहुत ही दिलचस्पी से देखता हूँ. जैसे 'मसान' फिल्म काशी के पंडों की ज़िंदगी के कुछ पहलु दिखाती थी, मिल्खा सिंह भारतीय एथलीटों के जीवन के कुछ रंग, जॉली एल.एल. बी. वकीलों-जजों की ज़िन्दगी. तो फिल्म कहाँ घूम रही है, मतलब जंगल, पहाड़, महानगर या कोई झुग्गी-बस्ती, कहाँ? मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है, यह भी तय करता है कि मुझे फिल्म पसंद आयेगी या नहीं. ज़िंदगी देखता हूँ तो अपने हिसाब से कोई क्या दिखाना चाहता है, वो तो देख लेता हूँ लेकिन वो क्या नहीं दिखाना चाहता वो भी देखता हूँ. क्या मैं सही देखता हूँ?

खुशवंत सिंह.....संघी सोच....मेरी सोच

एक मित्र:---जिस खुशवंत सिंह को आप भारतीय इतिहास और समाज के लिए ज़रूरी बता रहे है यह वही खुशवंत सिंह है न जिसका बाप शोभा सिंह है और यह वही सोभा सिंह है न जिसकी विधिक गवाही पर अंग्रेजो ने शहीद भगत सिंह को फ़ासी दी थी और इनाम में शोभा सिंह को दिल्ली में बहुत बड़ी जमीन दी थी जिस पर प्लाटिंग करके सोभा सिंह अमीर बना था मैं--- अगर आप के पिता जी ने कोई बेगुनाह का खून किया हो तो आपको फांसी चढ़ा दें क्या? जुकरबर्ग कल बलात्कार में दोषी पाया जाये तो फेसबुक छोड़ देंगे क्या आप? खुशवंत सिंह को पढ़ना चाहिए यह उनके लेखन को आधार मान कर लिखा है मैंने. ज़मीन ली या नहीं ली यह अलग मुद्दा है. अगर ले भी ली हो तो भी उनका लेखन अगर दमदार है, भारत के फायदे में हैं तो उसे पढ़ना चाहिए. मिसाल के लिए एक वैज्ञानिक अगर कुछ खोज दे जिससे कैंसर खत्म होता, लेकिन फिर उससे कत्ल हो जाये तो क्या उसकी खोज को इसलिए नकार दें कि उससे कत्ल हो गया? किसी भी व्यक्ति के जीवन के अलग-अलग पहलु होते हैं, सो समर्थन या विरोध होना चाहिए पॉइंट-दर-पॉइंट, पहलु-दर-पहलु. संघी सोच है, "खुशवंत सिंह गद्दार है, उसका बाप गद्दार था." खुद जैसे बहुत बड़े वाले देश-भक्त हों. पता भी है देश का भला-बुरा कैसे होगा? तुम्हारे हिन्दू-हिन्दू चिल्लाने से तो होगा नहीं. होना होता तो हो चुकता. "हम महान हैं, हमारे पूर्वज महान थे, हमारी संस्कृति महान है. हम विश्व-गुरु थे, हम विश्व-गुरु हैं." यह सब चिल्लाने से न कोई महान होता है, न ही विश्व-गुरु. इडियट. संघ हर उस सोच का गला घोटता है.....हर आवाज़ दबाता है जो उसके खिलाफ जाती है. ऐसी की तैसी. अपना दिमाग लगाओ, खुद जान जाओ. नमन...तुषार कॉस्मिक

Sunday 3 September 2017

तेज़ लाउड स्पीकर लगा कर फटी आवाज़ में क्रन्दन रूपी कीर्तन करने वाली बाईयां जान लें, अगर भगवान कहीं होगा भी तो तुम्हारी आवाज़ से बचने के लिए छुप जाएगा कहीं जंगलों में, कन्दराओं में, समन्दरों में. और निश्चित जानो कि तुम्हारे लिए नरक के भयंकर अग्नि-कुण्ड तैयार हैं.
गली में बाईयां गा रही हैं, "श्याम मेरा प्यार है, श्याम मेरा यार है." 
सामने बैठे पतिदेव कीर्तन की लहर में सर दायें-बायें हिला रहे हैं.

शाकाहार Versus मांसाहार

अगर पौधों में जान है तो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? बिलकुल सही तर्क है.
इसी तर्क को उलटा घुमाते हैं....शीर्षासन कराते हैं. अगर पौधों में जान है सो पशु काट खाने में ही क्यों बवाल करना? फिर इन्सान इंसान को ही क्यों न काट खाए....इक दूजे के बच्चों को क्यों न काट खाए?
सवाल जीवन में चैतन्य की सीक्वेंस का है....
सवाल भोजन की मजबूरी का है.. 
सवाल चॉइस का है.....
अगर चॉइस हो तो फल-सब्जी खा लें, चूँकि उसके नीचे आप जा नहीं सकते...मिटटी-पत्थर आप खा नही सकते..
"जीवम जीवस्य भोजनम"...लेकिन क्या आप अपने बच्चे खा जायेंगे? नहीं न. तो फिर यह भी देखें कि कौन सा जीवन खाना है......जीवन के क्रम में वनस्पति ही सबसे निचले स्तर पर खड़ी है, जो भोजनीय है.
क्या मैंने सही लिखा?

मेरी असलियत

हम कभी खुद के बारे में सोचते हैं-बताते हैं तो खुद को ही ढंग से फेस नहीं कर पाते. अगर कहीं पिटे हों, गिरे हों, असफल हुए हों तो वो सब स्किप कर जाते हैं. लेकिन अपुन तो हैं ही क्रिटिक. भ्रष्ट बुद्धि. नेगैटिविटी से भरे हुए. सो अपने बारे में भी वही रवैया है, जो सारी दुनिया के बारे में है. असलियत यह है कि मैंने जीवन में गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं. ढंग का काम शायद ही मुझ से कोई हुआ हो. माँ-बाप ने मुझे गोद लिया था, और बहुत ही बढ़िया परवरिश दी, अनपढ़ होते हुए मुझे पढ़ने का खूब मौका दिया, भरपूर प्यार दया, काम-धंधा करने के लिए खूब धन भी दिया, जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूँ, और रहूंगा. बदले में उनकी ठीक से देख-भाल नहीं कर पाया मैं. और तो और मैं अपनी दोनों बच्चियों को भी अभी तक वैसी परवरिश भी नहीं दे पाया, जैसी मुझे मिली. यह है मेरी असलियत. अगर अब तक का अपना जीवन एक शब्द में लिखना हो तो वो शब्द होगा-- बेकार. मैं जितनी भी अक्ल घोटता हूँ यहाँ, वो इसलिए नहीं कि मैं खुद को कोई बहुत सयाना समझता हूँ, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मुझे अपनी अक्ल की सीमाएं पता हैं. मुझे तो कोई भी मूर्ख बना जाता है. मैं यहाँ बस एक फर्ज़ निभाता हूँ, वो यह कि शायद मेरे लिखे से मेरे जैसी बेफकूफियों से कोई बच सके. बस. अगर मेरे लेखन में ज़र्रा भी कोई अच्छाई आती हो दुनिया में तो उसका नब्बे प्रतिशत क्रेडिट मेरे माँ-बाप को जाता है, जिनकी जुत्ती बराबर भी मैं नहीं बन सका..
नमन ...तुषार कॉस्मिक