हम कभी खुद के बारे में सोचते हैं-बताते हैं तो खुद को ही ढंग से फेस नहीं कर पाते. अगर कहीं पिटे हों, गिरे हों, असफल हुए हों तो वो सब स्किप कर जाते हैं. लेकिन अपुन तो हैं ही क्रिटिक. भ्रष्ट बुद्धि. नेगैटिविटी से भरे हुए. सो अपने बारे में भी वही रवैया है, जो सारी दुनिया के बारे में है. असलियत यह है कि मैंने जीवन में गलतियाँ ही गलतियाँ की हैं. ढंग का काम शायद ही मुझ से कोई हुआ हो. माँ-बाप ने मुझे गोद लिया था, और बहुत ही बढ़िया परवरिश दी, अनपढ़ होते हुए मुझे पढ़ने का खूब मौका दिया, भरपूर प्यार दया, काम-धंधा करने के लिए खूब धन भी दिया, जिसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूँ, और रहूंगा. बदले में उनकी ठीक से देख-भाल नहीं कर पाया मैं. और तो और मैं अपनी दोनों बच्चियों को भी अभी तक वैसी परवरिश भी नहीं दे पाया, जैसी मुझे मिली. यह है मेरी असलियत. अगर अब तक का अपना जीवन एक शब्द में लिखना हो तो वो शब्द होगा-- बेकार. मैं जितनी भी अक्ल घोटता हूँ यहाँ, वो इसलिए नहीं कि मैं खुद को कोई बहुत सयाना समझता हूँ, नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है. मुझे अपनी अक्ल की सीमाएं पता हैं. मुझे तो कोई भी मूर्ख बना जाता है. मैं यहाँ बस एक फर्ज़ निभाता हूँ, वो यह कि शायद मेरे लिखे से मेरे जैसी बेफकूफियों से कोई बच सके. बस. अगर मेरे लेखन में ज़र्रा भी कोई अच्छाई आती हो दुनिया में तो उसका नब्बे प्रतिशत क्रेडिट मेरे माँ-बाप को जाता है, जिनकी जुत्ती बराबर भी मैं नहीं बन सका..
नमन ...तुषार कॉस्मिक
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